कुछ आदर्शों को लेकर महाराणा करते रहे अकबर से युद्घ
राकेश कुमार आर्य
इतिहास के पन्नो से

भारत में राजधर्म की महत्ता
भारत का क्षात्र धर्म अति व्यापक है। महाभारत ‘शांति-पर्व’ (63 : 29) में कहा गया है :-
सर्वेत्यागा राजधर्मेषु दृष्टा:।
सर्वादीक्षा राजधर्मेषु योक्ता।
सर्वाविद्या राजधर्मेषु युक्ता:।
सर्वे लोका: राजधर्मेषु प्रविष्ठा।
इसका अभिप्राय है कि-‘‘राजधर्म में सारे त्यागों का दर्शन होता है। राजधर्म में सारी दीक्षाओं का प्रतिपादन होता है। राजधर्म में संपूर्ण विद्याएं निहित होती हैं और राजधर्म में सारे लोकों का समावेश होता है।’’
महाभारत का यह श्लोक बहुत बड़ी शिक्षा दे रहा है ये कह रहा है-
(1) राजधर्म में सारे त्यागों का दर्शन है।
(2) सारी दीक्षाओं का प्रतिपादन है
(3) संपूर्ण विद्याएं निहित होती हैं,
(4) राजधर्म में सारे लोकों का समावेश है
अब एक एक पर विचार करते हैं-
राजधर्म में सारे त्यागों का दर्शन है
भारत की संस्कृति त्याग की संस्कृति है। अत: इस पावन संस्कृति का मूल त्याग का प्रतीक यज्ञ है। यज्ञ से प्रतिक्षण त्याग का ही संगीत निकलता है-‘यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्’ कहकर वेद ‘त्याग का भी त्याग’ करने की शिक्षा देता है। किसी पर उपकार कर देना एक बात है-पर उपकार को करके भूल जाना-दूसरी बात है। लोगों के द्वारा यह दूसरी बात अर्थात उपकार करके भूल जाना बड़ी कठिन है। भारत के राजधर्म में अपना जीवन परोपकार के लिए होम करना होता है। इसका अभिप्राय है कि राजनीति त्याग और सेवा का क्षेत्र है, इसे व्यापार का क्षेत्र नही बनाया जा सकता। राजनीति के विषय में इतना स्पष्ट और उत्कृष्ट चिंतन कहीं और नही मिल सकता, जहां राजनीति की पहली अनिवार्यता यही मानी जा रही है कि-यहां आ तो जाना पर आना नि:स्वार्थ भाव से, इस भाव से आना कि सभी देशवासी-शासक और शासित सभी मिलकर एक दूसरे के लिए अधिकार छोडऩे वाले हों-अपने-अपने लिए अधिकार मांगने की भावना उनके भीतर छू भी न गयी हो।
जिन लोगों ने राजनीति में रहकर अपने त्याग का भी त्याग किया अर्थात अपने परोपकारी कृत्यों का भी महिमामंडन नही कराया-वे देवों के साक्षात स्वरूप माने गये? उन्होंने इतिहास को अपने ढंग से न तो लिखा और न लिखने के लिए किसी को प्रेरित किया। इस क्षेत्र में अहंकार का त्याग है, ममता का त्याग है, स्वार्थ का त्याग है, लोकैष्णा का त्याग है। राग और द्वेष का त्याग है, निज देश और धर्म की रक्षार्थ निज परिवार का त्याग है-निज देह का त्याग है, निज उन्नति का त्याग है। यहां साधना है, राष्ट्र की आराधना है और साधना व आराधना के लिए निजी सुख का त्याग है। निज समय का त्याग है, और निज जीवन का त्याग है-केवल लोककल्याण के लिए।
कर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र में उतरे योद्घा के लिए यहां विध्वंसक वाणी का त्याग है। यहां संतुलन और संयम के साथ रहना है, यहां निर्माण की बात करनी है, सृजन की बात करनी है, यहां विध्वंस में लगे लोगों की बातों को सुनकर पथभ्रष्ट और धर्मभ्रष्ट नही होना है। यहां आवेश का भी त्याग है और आवेग का भी त्याग है। यहां विरोध का भी त्याग है और विध्वंसकारी क्र ोध का भी त्याग है।
राजनीति और राजधर्म के विषय में इससे उत्तम चिंतन और भला क्या हो सकता है? राजधर्म का निर्वाह करना हर व्यक्ति के वश की बात नही है। हर व्यक्ति राजधर्म के प्रचण्ड भास्कर की ओर आंख उठाकर देखने की क्षमता नही रख सकता।
यही था हमारा प्राचीन राजधर्म
प्राचीन भारत में राजधर्म के निर्वाह के लिए मत प्राप्त करके आजकल की भांति चोर दरवाजे से लोग राजनीति में नही जाते थे। राजनीति में जाने केे लिए पहले व्यक्ति को महानता की साधना करनी पड़ती थी, स्वयं को तपाना पड़ता था। इसलिए राजधर्म ेनिर्वाहक लोगों का जनसाधारण में सम्मान होता था, उन्हें लोग ईश्वर का रूप मानते थे। इसी भावना से राम और कृष्ण को भगवान मानने की धारणा बलवती हुई।
हमारे प्राचीन पुराणादि ग्रंथों में जितनी राजाओं संबंधी कहानियां हैं वे अधिकांशत: किसी धर्मात्मा राजा की अर्थात तपस्वी और त्यागी राजा की कहानी है। जिसके विषय में बताया जाता है कि उसके काल में प्रजा बड़ी सुखी थी। इसके उपरांत भी उस राजा ने अपने लिए कोई ग्रंथ नही लिखवाया। जिससे पता चलता है कि जनसेवा को हमारे राजा लोग त्याग का भी त्याग करने का-आत्मोन्नतिपरक क्षेत्र मानते थे। अत: अपने गुणगान कराने के लिए मिथ्या इतिहास लिखवाना उनका लक्ष्य नही होता था। उनकी साधना कितनी ऊंची होती थी-इसका पता विदेशी विद्वानों के लेखों से चलता है। 851 ई. में आये अरब यात्री सुलेमान ने लिखा है कि-‘भारत के राजा मदिरा पान नही करते थे, कारण कि देश में ऐसी मान्यता थी कि जो राजा मदिरा पान करता है, वह राजा नही है।’
राजा अपने निजी वैभव को बढ़ाने के लिए या अपने आपको अधिक वर्चस्वी सिद्घ करने के लिए विजय नही किया करते थे और ना ही इस उद्देश्य से प्रेरित होकर युद्घ किया करते थे। 914 ई. में एक अरबी यात्री ने लिखा था कि-‘यदि यह सिद्घ हो जाए कि राजा ने मदिरापान किया है तो उसे राज्य छोडऩा पड़ता था और वह शासन के योग्य नही समझा जाता था।’
भारत के राजा जनता के साथ सम्मैत्री को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों का अनुकरण करते थे, वह जनता पर अत्याचार करने की बात सोच भी नही सकते थे। यही कारण था कि भारत के राजाओं का स्वास्थ्य विदेशी राजाओं की अपेक्षा अधिक उत्तम रहता था।
यद्यपि मुस्लिम काल के आने तक हमारे राजधर्म में कई दोष प्रविष्ट हो चुके थे, परंतु इस सबके उपरांत भी विदेशी शासकों की अपेक्षा भारत में बहुत कुछ व्यवस्थित था।
बुखारा का यात्री अफी लिखता है-‘‘मैंने एक पुस्तक में पढ़ा है कि तुर्किस्तान के सरदारों ने पत्र देकर अपने राजदूत भारत के राजाओं के पास भेजे और लिखा कि हमने सुना है कि भारत में ऐसी औषधियां उपलब्ध हैं, जिनसे आयु दीर्घ हो जाती है, और जिनके उपयोग से ही भारत के राजा इतनी दीर्घ आयु का भोग करते हैं। उनका स्वास्थ्य और दमकता चेहरा विदेशियों को आकर्षित करता था। इसलिए तुर्किस्तान के सरदारों ने ऐसी औषधियां स्वयं को भी उपलब्ध कराने हेतु भारत के राजा के लिए पत्र लिखा था। तब उस पत्र के उत्तर में भारत के राजा ने लिखा था कि आपके शासक अत्याचार पूर्वक शासन करते हैं। अत: हृदय से लोग उनके विनाश की कामना करते हैं, और अपनी प्रार्थनाओं के द्वारा अंत में वे अत्याचारियों की समृद्घि और उत्पीडऩ शक्ति को समाप्त कर देते हैं। जिनके हाथों में ईश्वर ने शक्ति सौंपी है, उनका यह परम कत्र्तव्य है कि न्याय और लोकहित के मार्ग पर चलें जिससे निर्बल सुरक्षित हों। कानून उनकी रक्षा करें।’’