बढ़ते तापमान का वर्षा चक्र पर प्रभाव

-प्रमोद भार्गव-

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जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अब वैश्विक फलक पर स्पष्ट रूप से देखने में आने लगा है। हालांकि विश्व स्तर पर धरती के बढ़ते तापमान को लेकर दुनिया जलवायु सम्मेलनों में चिंतित दिखाई दे रही है, किंतु परिवर्तन के प्रमुख कारक औद्योगिक व प्रौद्योगिक विकास को नियंत्रित करने में नाकाम हो रही है। नतीजतन वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा का असर वर्षा च्रक पर साफ दिखाई देने लगा है। यह बदलाव जहां एषिया में मुसीबत के रूप में पेश आ रहा है, वहीं अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों में वरदान साबित हो रहा है। इस स्थिति पर अचंभा करने की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि यह सब वैसा ही हो रहा है, जैसा वैज्ञानिक संकेत देते रहे हैं। बावजूद दुनिया बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने को तैयार नहीं है। विश्व के बौद्धिक समाज की यह यथास्थिति हैरान करने वाली है।

इस मानसून में हवा एवं समुद्री पानी के बढ़ते तापमान और उत्तरी धु्रव व हिमालयी बर्फ के पिघलने की बढ़ती गति ने ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के संकेत भारत समेत पूरी दुनिया में देना शुरू कर दिए हैं। वर्षा च्रक के अनियमित हो जाना इस परिवर्तन का स्पष्ट संकेत है। भारत में तो ये स्थिति इतनी भयावह है कि मौसम विभाग को हर दूसरे दिन वर्षा से संबंधित अपनी भविष्यवाणी खंडित करनी पड़ रही है। जो खासतौर से खेती-किसानी से जुड़े लोगों की चिंता और मानसिक अवसाद का सबब बन रही है। इसके दुष्परिणामस्वरूप लोग बद्तर मानसून और फिर बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि की मार से दो-चार होते रहे हैं। इस मार से उबरने की उम्मीदें शुरू होने वाले नए मानसून से जुड़ी थीं, लेकिन इन उम्मीदों पर तब पलीता लग गया, जब मौसम वैज्ञानिकों ने घोषणा कर दी कि 93 फीसदी बारिश होने की जो भविष्यवाणी की गई थी, वह अब घटकर 88 प्रतिशत के आंकड़े पर जा टिकी है। साथ ही प्रशांत महासागर में फिर से अलनिनो के अवतरित होने के संकेत मिल रहे हैं। इसका मानसून पर ज्यादातर असर प्रतिकूल ही देखने में आया है। इसके संकेत मिलने भी लगे हैं। कर्नाटक में मानसून पूर्व 17 इंच बारिश हो चुकी है। केरल में भी यह बारिश खूब हो रही है। समय पूर्व हुई यह बारिश खेती के लिए उपयोगी नहीं है। शायद इन्हीं आशंकाओं के चलते केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने वैज्ञानिकों के निश्कर्श पेश करते हुए कह भी दिया कि देश के कुछ क्षेत्रों में सूखा पड़ने की आशंका है और कुछ में अतिवृष्टि होने की ? मसलन साफ है भारत का वर्षा च्रक धरती के बढ़ते तापमान के चलते भंग होने लगा है।

जलवायु परिर्वतन पर अंतर-सरकारी पैनल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि यदि समय रहते सतर्कता नहीं बरती गई तो इन बदलावों के नतीजतन भारत समेत पूरे एषिया में वर्षा की कमी होगी। जल-च्रक भंग हो जाने के कारण पानी का संकट पैदा होगा। बीमारियां विकराल रूप धारण करने लग जाएंगी। खाद्याान्न की उपलब्धता पर प्रतिकूत प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि कृषि उत्पादकता में 15 से 20 प्रतिशत तक की कमी आ जाएगी। पृथ्वी पर मौजूद 30 प्रतिशत प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का खतरा बढ़ जाएगा। हिमालय की बर्फ पिघलने से पहले तो इससे निकलने वाली नदियों में पानी बढ़ेगा, लेकिन फिर पानी की मात्रा घटती चली जाएगी। यह स्थिति भारतीय खेती को तबाह करने वाली साबित होगी, क्योंकि सिंचाई व पेयजल की अपूर्ति करने वाली प्रमुख नदियों का उद्गम स्रोत हिमालय ही है।

वर्षा चक्र अनियमित व खंडित होने के साथ हमारा मौसम विभाग फिलहाल यह भाविष्यवाणी करने में सक्षम नही हैं कि यदि खंडित वर्षा होती है तो वह किन-किन क्षेत्रों में होगी और कब-कब होगी ? यह सुविधा तब भी संभव नहीं हुई, जबकि हमारे यहां मौसम की जानकारी देने वाली निजी एजेंसी स्काईमेट ने भी काम करना शुरू कर दिया है। नतीजतन, किसान समय रहते आपात-स्थिति से जूझने के लिए तैयार नहीं हो पाते ? इसी का नतीजा है कि आज कृषि क्षेत्र गहरे संकट में आता जा रहा है।     विशेषज्ञों व सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश की 60 फीसदी खेती प्राकृतिक वर्षा पर निर्भर है। इसका देश की 1.8 खरब की अर्थव्यस्था पर सबसे बड़ा असर पड़ता है। सूखा पड़ने पर कृषि के साथ-साथ बैंकिग, उद्योग और कृषि आधारित उत्पादन प्रभावित होेते हैं। इनमें खाद्य साम्रगी, उर्वरक, रासायनिक खाद, कीटनाशक और कृषि उपकरण से जुड़े उद्योग शामिल हैं। खराब मानसून के पूर्वानुमान आने के बाद महाराष्ट्र सरकार ने जून माह के अंतिम सप्ताह में रॉकेट और विमान के जरिए कृत्रिम बारिश कराए जाने की घोषणा की है। यह बारिश विदर्भ, माराठावाड़ और खानदेश जैसे इलाकों में कराई जाएगी। भारत में कृत्रिम बारिश कराने का यह पहला प्रयोग होगा। किंतु इसकी सफलता में संदेह है, क्योंकि एक तो यह बेहद महंगा प्रयोग है, दूसरे समुद्री पानी की बारिश करोई जाती है, जिसमें नमक की मात्रा ज्यादा होती है, जो चावल, गन्ना, कपास और गेहूं की फसल के लिए हानिकारक है। जाहिर है, ये प्रयोग हुए भी तो अफलातूनी साबित होंगे। इससे बेहतर है, जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में जलच्रक जिस तरह से अनियमित व खंडित हो रहा है, उसी के अनुरूप फसल-चक्र को बदला जाए और खेती के नए तरीके इजाद हों ?

दूसरी तरफ, बढ़ते वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन भारत के रेगिस्तान और अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों में वरदान भी साबित हो रहे हैं। ब्रिटेन के रीडिंग विश्वविद्यालय के राश्ट्रीय वायुमंडलीय अध्ययन केंद्र के ताजा अध्ययन के मुताबिक पिछले कुछ सालों से अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में नियमित बारिश हो रही है। साहेल अफ्रीका का वह क्षेत्र है, जो दाष्कों से सूखे की मार झेल रहा है। सातवें और आठवें दषक में इस इलाके और इथोपिया जैसे देशों में अकाल के कारण करीब एक लाख लोगों की मौत हो गई थी। भूख से मर रहे लोगों की हृदयविदारक तस्वीरें बीबीसी पर प्रसारित होने के बाद पूरी दुनिया का ध्यान इस इलाके पर गया था। उल्लेखनीय है कि सहारा रेगिस्तान के दाक्षिणी हिस्से में स्थित साहेल क्षेत्र के देशों में मौरिटेनिया, गाम्बिया, माली, नाइजर, नाइजीरिया, बर्किना, फासो, सेनेगल और कैमरून आदि देश शामिल हैं। अब यहां कुछ सालों से अच्छी-खासी बारिश हो रही है। वैज्ञानिकों को आष्चर्य इस बात पर है कि ये सुखद परिणाम वैश्विक तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेवार ठहराई जा रही है। ग्रीन हाउस गैसों के कारण आए हैं। शोध के दौरन सुपर कंप्युटर की मदद से वैज्ञानिकों ने उत्तरी अफ्रीका में बारिश की अलग-अलग दषाओं का अध्ययन किया। 1980 से अब तक हुई बारिश के आंकड़ों के सिलसिलेवार अध्ययन से वे इस निश्कर्श पर पहुंचे हैं। अध्ययन का नेतृत्व करने वाले प्राध्यापक रॉन सुटॉन ने कहा कि गर्मी में बारिश के विभिन्न कारकों, समुद्री तापमान ग्रीन हाउस गैसें और एरोसेल के संयुक्त अध्ययन से यह तस्वीर देखने में आई है। कुछ ऐसा ही विचित्र नजारा भारत में राजस्थान और गुजरात के रेगिस्तान में देखने को मिल रहा है।

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