“ईश्वर के उपकारों के लिए सन्ध्या द्वारा धन्यवाद करना मनुष्य का मुख्य कर्तव्य”

0
126

मनमोहन कुमार आर्य,
हम मनुष्य हैं। हमारा अस्तित्व सत्य व यथार्थ है। हमारी आत्मा अनादि, अनुत्पन्न, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण धर्मा और शुभ व अशुभ करने वाली व ईश्वरीय व्यवस्था से उसका फल भोगने वाली है। आत्मा की दो अवस्थायें कह सकते हैं जो बन्धन व मोक्ष हैं। बन्धन का तात्पर्य है कि आत्मा के जन्म व मरण का चक्र चलता रहता है और मोक्ष का अर्थ है कि जन्म व मरण के बन्धन से एक परान्त काल अर्थात् 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक जन्म-मरण से अवकाश होकर ईश्वर के आनन्दमय सान्निध्य की प्राप्ति का होना। संसार में हम विभिन्न प्राणी योनियों को देखते हैं। इनमें मनुष्य के पास विचार करने के लिए बुद्धि तथा काम करने के लिए हाथ हैं। मनुष्य शिक्षा व ज्ञान प्राप्त कर सत्यासत्य को जान सकता है। यह सुविधायें पशु व इतर योनियों में नहीं है। उनके पास केवल स्वाभाविक ज्ञान होता है जिससे वह अपना जीवन आहार, निद्रा, मैथुन आदि के द्वारा व्यतीत कर सकते हैं परन्तु उनमें मनुष्य जैसी विचार शक्ति उनके पास नहीं होती। इस बुद्धि से मनुष्य जब विचार करता है तो वह संसार को देखकर इसके कर्ता का विचार करता है और अपने जीवन के उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के उपायों पर भी चिन्तन करता है। मनुष्य बिना वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन व वैदिक विद्वानों के उपदेशों के बिना इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर नहीं जान पाता। जीवन से जुड़े इन महत्वपूर्ण प्रश्नों के यथार्थ उत्तर वैदिक मत के मानने वाले लोगों व विद्वानों को ही विदित हैं और वह इस ज्ञान से अपने जीवन को सत्य मार्ग पर चलाते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करने का यत्न करते हैं।

मनुष्य जब वेद और वैदिक साहित्य वा आर्य विद्वानों से शंका समाधान करता है तो उसे ज्ञात होता है कि यह समस्त संसार वा ब्रह्माण्ड सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, अविनाशी व अनन्त ईश्वर ने बनाया है। जीव संख्या में अनन्त हैं जो सब चेतन गुण वाले हैं और यह अल्पज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य व अविनाशी हैं। इन जीवों को मनुष्यादि योनि में जन्म देकर उन्हें सुख पहुंचाने के लिए ही ईश्वर ने इस संसार की रचना की है। मनुष्य जब सच्चे आचार्यों से उपदेश व वैदिक साहित्य का अध्ययन करता है तो उसे विदित होता है उसका मुख्य कर्तव्य आत्मा व ईश्वर को जानना है और इस ज्ञान को प्राप्त कर ईश्वर के उपकारों के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उसका धन्यवाद करना है। जो मनुष्य ईश्वर व आत्मा को जानकर ईश्वर का धन्यवाद नहीं करता वह कृतघ्न होता है। कृतघ्नता अशुभ वा पाप कर्म है जिसका परिणाम दुःख होता है। कृतघ्नता व पाप कर्मों का फल दुःख इन कर्मों के पकने व परजन्म में प्राप्त होता है, ऐसा अनुमान होता है। अनेक क्रियमाण कर्म ऐसे भी होते हैं जिनका फल तत्काल मिल जाता है। यह कर्म फल व्यवस्था अति दुरुह व जटिल है जिसें मनुष्य सर्वांश में सम्भवतः जान नहीं पाया है। कर्म की मुख्य दो श्रेणियां होती है। शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप। मनुष्य जो भी कर्म करता है उसका फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है। यदि वह सन्ध्या व यज्ञ आदि शुभ कर्म करेगा तो निश्चय ही उसको इन शुभ कर्मों का कुछ फल तत्काल व कुछ कालान्तर में प्राप्त होता है। अतः ईश्वर ने सृष्टि रचना, मनुष्यों को वेदज्ञान व सर्वोत्तम मानव शरीर सहित माता-पिता व परिवार देकर जो उपकार किया है उसके लिये हमें उसके गुण, कर्म व स्वभावों का ध्यान, स्तुति, उपासना व प्रार्थना आदि अवश्य करनी चाहिये। इससे हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहेंगे, कृतघ्न नहीं होंगे, हमें सुख की प्राप्ति होगी, हमारा वर्तमान व भावी जन्म सुधरेगा और इन सबके साथ हम यश व कीर्ति को भी प्राप्त कर सकेंगे।

ईश्वर का धन्यवाद, ध्यान व उपासना की विधि क्या हो, इसके लिए ऋषि दयानन्द ने अपने वेद ज्ञान व अनुभव के आधार पर पंचमहायज्ञ की विधि लिखी है जो वेद, पूर्व ऋषियों व तर्क आदि से पुष्ट है। इस पुस्तक में पंचमहायज्ञों में सन्ध्या का प्रथम स्थान है। यही सन्ध्या व ध्यान की सर्वोत्तम विधि है। सन्ध्या के साथ व उसके बाद वेद व ऋषियों के सद्ज्ञान से युक्त ग्रन्थों का स्वाध्याय करना आवश्यक है। इस श्रेणी में स्वामी दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश सहित सभी छोटे बड़े ग्रन्थ आते हैं जिससे हमें सन्ध्या व हवन की विधि सहित ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप व ईश्वर की उपासना का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। सन्ध्या के अन्तर्गत स्वाध्याय के साथ साथ ओ३म् व गायत्री मन्त्र का अर्थ सहित जप भी करने से लाभ होता है। ऋषि दयानन्द ने जप का विधान किया है। जप आदि करने से प्रत्यक्ष लाभ भी होते हैं। हम ईश्वर का ध्यान व जप आदि करने से ईश्वर के निकट होते हैं। इस निकटता व उपासना से हमारे समस्त दुःख, दुगुर्ण व दुर्व्यस्न आदि दूर होते हैं और हमें ईश्वर के अनुरूप श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव की प्राप्ति व उपलब्धि होती है। मनुष्य की आत्मा का बल बढ़ता है। यह बल यहां तक बढ़ता है कि बड़े से बड़ा दुःख प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है और उन्हें अपने पूर्व कर्मों का फल मानकर सहन करता है। इसके साथ वह यह भी जानता है कि वह जिन वेद विहित कर्तव्यों का पालन कर रहा है उसका फल उसे कालान्तर में सुख के रूप में प्राप्त होगा। इस ज्ञान व विवेक से उसे जीवन व्यतीत करने में सुगमता होती है।

जिन मनुष्यों को ईश्वर, आत्मा और कर्म फल सिद्धान्त का ज्ञान नहीं होता वह दुःख प्राप्त होने पर विचलित हो जाता है। कई ऐसी भी अवस्थायें होती है कि मनुष्य उन दुःखों से घबरा जाता है और रोग व मृत्यु को प्राप्त होने सहित आत्महत्या जैसा निन्दनीय कार्य भी कर लेता है। अतः ईश्वर व आत्मा को जानकर स्वाध्याय व सन्ध्योपासना करने से मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति होने सहित अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। वेद विहित सन्ध्योपासना आदि कर्मों को करते हुए मनुष्य का ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान भी निरन्तर बढ़ता रहता है जिससे उसे व उसके निकट आने वाले व्यक्तित्वों को उसके ज्ञान व अनुभवों से लाभ होता है।

ईश्वर व वेद ज्ञान के साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने प्रातःकाल उषा वेला में शय्या त्यागने, वायु सेवन करने सहित शौच से निवृत होकर प्रातः व सायं सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ का विधान किया है। सत्पुरुषों व आर्यों के पंच महायज्ञों में इनके अतिरिक्त पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का भी विधान है। स्वाध्याय से कभी कोई मनुष्य प्रमाद न करे, यह भी वेद ज्ञान व ईश्वर के सच्चे ज्ञानी, योगी व ऋषियों का विधान है। ऐसा करने से मनुष्य की निरन्तर उन्नति होती रहती है और वह पाप वा अशुभ कर्मों से दूर होता जाता है जिससे उसको ईश्वर के सहाय का लाभ मिलने के साथ समाज व देश को भी लाभ होता है। अतः सभी मनुष्यों को नियमपूर्वक समय पर ईश्वर का ध्यान, चिन्तन, स्तुति, स्वाध्याय, विद्वानों का सत्संग, ओ३म् व गायत्री का जप आदि करते रहना चाहिये। इससे मनुष्य कृतघ्नता के पाप से बच कर उन्नति को प्राप्त होता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,012 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress