जीवात्मा स्वस्थ एवं बलवान शरीर को ही धारण करती है अन्य नहीं

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-मनमोहन कुमार आर्य
हम जानते हैं कि सभी मनुष्यों एवं चेतन प्राणियों के शरीरों मेंएक चेतन आत्मा की सत्ता भी निवास करती है। मनुष्य के जन्म व गर्भकाल में आत्मा निर्माणाधीन शरीर में प्रविष्ट होती है। मनुष्य शरीर में आत्मा का प्रवेश अनादि, नित्य, अविनाशी सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर कराते हैं। समस्त संसार, सभी जीवात्मायें एवं प्राणी उनके वश में होते हैं। वह अपनी व्यवस्था एवं नियमों के अनुसार जीवात्मा के जन्म व उसके जीवन की व्यवस्था करते हैं। जीवात्मा एक सूक्ष्म चेतन अनादि व नित्य सत्ता है। यह अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, जन्म मरण धर्मा तथा मनुष्य योनि में कर्म करने में स्वतन्त्र तथा अपने कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र होती है। यदि परमात्मा जीवात्मा को उसके पूर्व जन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार उसे प्राणी योनि (जाति), आयु और भोग प्रदान न करें तो आत्मा का अस्तित्व अपनी महत्ता को प्राप्त नहीं होता। परमात्मा का यह अनादि व नित्य विधान है कि वह प्रकृति नामक सूक्ष्म, त्रिगुणों सत्व, रज व तम से युक्त कणों व परमाणुओं की पूर्वावस्था से इनमें विकार उत्पन्न कर महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें एवं पंचमहाभूत आदि पदार्थों का निर्माण करते हैं और ऐसा करके इस स्थूल सृष्टि व जगत सहित इसमें विद्यमान सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, नक्षत्र, ग्रह व उपग्रहों को अस्तित्व में लाते हैं। परमात्मा व जीवात्मा की भांति प्रकृति भी अनादि तथा नित्य सत्ता व पदार्थ है। प्रकृति व आत्मा को परमात्मा बनाते नहीं हैं। परमात्मा को भी कभी किसी ने बनाया नही है। इन तीन पदार्थों का अनादि काल से अस्तित्व विद्यमान है और सर्वदा रहेगा। इन तीन पदार्थों में कभी किसी एक भी पदार्थ का भी अभाव नहीं होगा। विचार करने पर विदित होता है कि हमारी सृष्टि जैसी आज वर्तमान है ऐसी ही सृष्टि अनादि काल में भी रही है और भविष्य में अनन्त काल तक रहेगी। इसमें प्रलय व कल्प नाम से रात्रि व दिवस के समान अवस्थायें परमात्मा के द्वारा उत्पन्न की जाती रहेंगी और हम सब अनन्त जीवात्मायें अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए सृष्टिकाल में अपने कर्मानुसार मनुष्य आदि नाना योनियों में जन्म लेते रहेंगे। यह सिद्धान्त व ज्ञान वेदों व वैदिक परमम्पराओं की समस्त संसार को महान देन है जिससे वैदिक धर्म एवं संस्कृति न केवल सबसे प्राचीन सिद्ध होती है अपितु सब धर्म, मत, पन्थों व संस्कृतियों से महान व श्रेष्ठ भी सिद्ध होती है।

संसार में हम देखते हैं कि मनुष्य का जन्म माता व पिता से एक शिशु के रूप में होता है। माता के गर्भ काल में जीवात्मा पिता के शरीर से माता के शरीर में प्रविष्ट होती है। इससे पूर्व यह आत्मा संसार व आकाश में रहती है। आकाश में आने से पूर्व यह अपने पूर्वजन्म में किसी प्राणी योनि में रहती है जो मनुष्य व अन्य कोई भी योनि हो सकती है। परमात्मा जीवात्मा को प्रेरणा कर उसे गति प्रदान करते हैं व उसके योग्य पिता के शरीर में प्रविष्ट कराते हैं जहां से वह माता के गर्भ में प्रविष्ट होती है। दस माह तक माता के गर्भ में जीवात्मा का बालक व कन्या का शरीर बनता है और इसके बनने पर जन्म होता है। जन्म होने के बाद माता के दुग्ध व समय समय पर अन्य पदार्थों के सेवन से शरीर में वृद्धि होती है। समय के साथ शरीर बढ़ता व वृद्धि को प्राप्त होता जाता है। बालक इस अवधि में माता की भाषा को बोलना सीखता है, अपने परिवार के सदस्यों को पहचानता है और उन्हें सम्बन्ध सूचक दादा, दादी, पिता, माता, बुआ, चाचा, चाची आदि शब्दों से सम्बोधित भी करने लगता है। हम देखते हैं कि मनुष्य का आत्मा शरीर वृद्धि की अवस्था सहित युवावस्था में तथा बाद में भी जब तक वह स्वस्थ रहता है शरीर में सुख पूर्वक निवास करता है। स्वस्थ, निरोग तथा बलवान शरीर का सुख उत्तम सुख होता है। निरोगी काया को सुखी जीवन का आधार बताया जाता है। युवावस्था व्यतीत हो जाने पर मनुष्य के शरीर में उसके पूर्वकाल के किये भोजन, निद्रा की कमी व अधिकता, व्यायाम व अनियमित जीवन आदि के कारण कुछ विकार होने से रोग उत्पन्न होने लगते हैं। इन रोगों के कारण शरीर का बल घटता है। अस्वस्थ शरीर में आत्मा को कष्टों का अनुभव होता है। इन्हें दूर करने के लिए चिकित्सा, ओषधियों सहित भोजन छादन, व्यायाम, प्राणायाम, तप, सत्य कार्यों का सेवन, ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता तथा वृद्धों की सेवा, अतिथि सत्कार आदि पर ध्यान देना होता है। ऐसा करके हम अधिक समय व कालावधि तक मनुष्य अपने शरीर को स्वस्थ व निरोग रख सकते हैं। 

पचास व साठ वर्ष के बाद हम मनुष्य के शरीर में अस्वस्थता व बल की कमी का होना अनुभव करते हैं। ऐसे समय में कुछ रोग भी अधिकांश मनुष्यों में होना आरम्भ हो जाते हैं। आजकल रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा आदि रोग बहुतायत में देखे जाते हैं। इन रोगों से मनुष्य के शरीर में बल की कमी आती है। आयु बढ़ने के साथ शरीर का भार भी कम हो जाता है। चेहरे पर पहले जैसी सुन्दरता व रौनक नहीं रहती। धीरे धीरे शरीर में रोगों की तीव्रता में वृद्धि देखने को मिलती है। सत्तर व उससे अधिक आयु में रोगों का प्रभाव बढ़ता हुआ देखा जाता है। ऐसे समय व परिस्थिति में मनुष्य को अपने दैनिक कर्तव्य पूरे करने में भी कुछ कुछ बाधायें आना आरम्भ हो जाती है। जो मनुष्य इस आयु में भी पूर्ण स्वस्थ रहते हैं वह भाग्यशाली होते हैं। इसका कारण उनका आरम्भ की अवस्था से संयम तथा नियमित जीवन जीना होता है। ऐसे लोगों ने आरम्भ से ही स्वास्थ्य के नियमों का पालन किया होता है। ऐसा लगता है कि उन्होंने जीवन के आरम्भकाल में जो संयम, शुद्ध व स्वास्थ्यवर्धक भोजन, आसन, प्राणायाम, व्यायाम, समय पर सोना व जागना, शुद्ध व पवित्र विचार, स्वस्थ चिन्तन व दृष्टिकोण रखना तथा स्वास्थ्य के अन्य नियमों का पालन किया होता है, उनका स्वास्थ्य उन्हीं कार्यों का परिणाम होता है। जो मनुष्य पूर्ण स्वस्थ नहीं होते हैं, उन्हें नाना प्रकार के शारीरिक कष्ट सताते हैं। इससे आत्मा में क्लेश होता है। आजकल देश में एलोपैथी, अस्पतालों एवं सभी पद्धति के चिकित्सकों की अधिकता है। लोग उपचार के लिए प्रायः एलोपैथी का चुनाव करते हैं जो अत्यधिक खर्चीली होती है। रक्तचाप, हुदय, मधुमेह, मोटापा व अन्य कुछ रोग इन एलोपैथी उपचार पद्धति से पूर्णतया तो किसी के भी ठीक नहीं होते अपितु अत्याधिक दवाओं के सेवन से भी शरीर अधिक दुर्बल होता जाता है। एक अवस्था ऐसी आती है कि शरीर पर मनुष्य का पूर्ण नियन्त्रण नहीं रहता और नाना प्रकार की कठिनाईयों का अनुभव होता है। ऐसा होते हुए ही मनुष्य का अन्तिम समय आ जाता है और वह अस्पतालों व घरों में मृत्यु का शिकार हो जाता है। किसी मनुष्य की मृत्यु का मूल्याकंन करते हैं तो यही ज्ञात होता है कि रोग, अस्वस्थता व निर्बलता ही मनुष्य की मृत्यु का कारण हुआ करती है। हमें जीवन में निरोग व स्वस्थ रहने के सभी उपायों व साधनों का सेवन करना चाहिये। इसके लिये हमें अपने ऋषियों के ज्ञान आयुर्वेद एवं वैदिक जीवन पद्धति को अपनाना चाहिये। ऐसा करने से हम स्वस्थ जीवन व लम्बी आयु को प्राप्त हो सकते हैं और बलवान होने से हमें कष्ट भी कम होते हैं व उन्हें सहन करने की अधिक शक्ति उपलब्ध होती है। 

यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि स्वस्थ एवं बलवान शरीर में ही मनुष्य की आत्मा निवास करती है और जब तक वह स्वस्थ रहता है उसकी मृत्यु उससे दूर रहती है। इस सिद्धान्त को जानकर हमें अपने जीवन में, हम जीवन की जिस अवस्था में भी हों, वहीं से स्वास्थ्य के सभी नियमों का पालन करना आरम्भ कर देना चाहिये। रोगों को दूर करने के उपाय करने चाहियें और स्वस्थ कैसे रहें, इस पर चिन्तन करते हुए उसके लिए आवश्यक साधनों को अपनाना चाहिये। भोजन पर हमारा पूरा नियंत्रण होना चाहिये। हानिकारक पदार्थ फास्ट फूड, तले व बासी पदार्थों का सेवन न करें तो अच्छा है। इनका पूर्णरूप से त्याग करना ही भविष्य में स्वस्थ जीवन व्यतीत करने का आधार हो सकता है। हमें वैदिक जीवन पद्धति के अनुसार प्रातः 4 से 5 बजे तक जाग जाना चाहिये और नियमित शौच के बाद वायु सेवन व भ्रमण, स्नान, ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र, माता-पिता आदि वृद्ध परिवार जनों की सेवा आदि कार्यों को करना चाहिये। स्वाध्याय में प्रमाद नहीं करना चाहिये। स्वाध्याय में हम सत्यार्थप्रकाश का प्रथम अध्ययन पूरा करें। इससे हमें इसके बाद अन्य किन किन ग्रन्थों का अध्ययन करना है, उसकी प्रेरणा मिलती है। इसके बाद हम उपनिषदों, दर्शनों तथा वेद वा वेदभाष्य का भी अध्ययन कर सकते हैं। उनके मध्य व बाद में हम बाल्मीकि रामायण तथा संक्षिप्त महाभारत का भी अध्ययन कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द तथा अन्य महापुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन भी हमें करना चाहिये। हमें अपना ध्यान स्वास्थ्य के नियमों पर केन्द्रित रखना चाहिये और वैदिक जीवन पद्धति को अपनाना चाहिये क्योंकि वैदिक जीवन पद्धति ही संसार में श्रेष्ठ पद्धति है। हमारे आचार, विचार, चिन्तन व हमारा जीवन शुद्ध व पवित्र होना चाहिये। इस जीवन पद्धति को अपनाकर ही हमारे जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त होते हैं। हमारा जीवन महर्षि दयानन्द के जीवन से प्रेरणा प्राप्त कर जीनें से ही सफल होगा, ऐसा हम अनुभव करते हैं। ओ३म् शम्। 

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