जम्मू कश्मीर में राष्ट्रवाद का संघर्ष….

विनोद कुमार सर्वोदय
अंततः लगभग सवा तीन वर्ष बाद एक अनुचित व बेमेल गठजोड़ से बनी जम्मू – कश्मीर में पीडीपी व भाजपा सरकार से भाजपा ने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए समर्थन वापस ले लिया है । वैसे भी अनेक कारणों से भाजपा इस सरकार में घुट रही थी जबकि भाजपा की राष्ट्रवाद के लिए संघर्ष सर्वोच्च प्राथमिकता रही है।आपको स्मरण होगा कि  23.12.2014  को जम्मू-कश्मीर के चुनाव परिणामों के आने के बाद परस्पर घोर विरोधी भाजपा व पीडीपी की दो महीने से अधिक चली वार्ता के बाद न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर 1 मार्च 2015 को यह सरकार अस्तित्व में आयी थी। इसमें कोई संदेह नही कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के शासन से जम्मू- कश्मीर के निवासी कुंठाग्रस्त हो चुके थे। संभवतः इसीलिए विधान सभा चुनावों में कश्मीर घाटी में पीडीपी व जम्मू में भाजपा को महत्वपूर्ण बढ़त मिली थी। जिससे दोनों दलों को साथ साथ आकर सरकार बनाने का अच्छा अवसर मिला। लेकिन मुफ्ती मोहम्मद ने अपनी कूटनीतिज्ञता का परिचय देते हुए भाजपा के साथ गठजोड़ करने के लिए शीघ्रता नही दिखाई। पीडीपी के तत्कालीन सर्वोच्च नेता मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने इस साझा सरकार को बनाने में हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी सहित अनेक अलगाववादी नेताओं से भी गंभीर चिंतन किया। जिससे कश्मीर घाटी की जनता को यह संदेश गया कि सरकार बनाने की विवशता में ही भाजपा का साथ लेना पड़ रहा है। उधर भाजपा जो केंद्र में पहले से ही शासन में है और अब इस सीमांत प्रदेश में भी प्रथम बार साझा सरकार बनाकर प्रदेश को राष्ट्रीय मुख्य धारा में लाने के अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार योजनाओं को क्रियान्वित करके अपना राष्ट्रधर्म निभाने की चाह में संतुष्ट होना चाहती थी। वैसे तो राजनीतिज्ञों व राष्ट्रवादियों सहित भाजपा को भी यह आशा नही होगी कि वह इस अशांत प्रदेश की सत्ता में कभी साझेदार बनेगी ? अनेक आपत्तियों के बाद भाजपा ने अपने सिद्धान्तों की चिंता न करते हुए पीडीपी से गठबंधन करके सरकार का गठन किया था। ऐसे कट्टरपंथियों से जुड़ने पर अनेक देशवासी ऐसी आत्मघाती राजनीति से क्षुब्ध थे।फिर भी राष्ट्रवादियों ने यह सोच कर धैर्य किया कि क्या पता ऐसी राजनीति से ही कश्मीर की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकें ? परंतु सरकार के अस्तित्व में आते ही आपसी खींचतान आरम्भ हो गयी थी।
क्योंकि मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने मुख्य मंत्री पद की शपथ लेते हुए 1 मार्च 2015 को पाकिस्तानियों , अलगाववादियों व उग्रवादियों को प्रदेश में शांतिपूर्ण चुनावों के लिये धन्यवाद देते हुए उनकी भरपूर प्रशंसा करके अकल्पनीय गठबंधन की सकरात्मक सोच को नकारात्मक संकेत दिये। साथ ही मुफ्ती मोहम्मद ने बिना विलंब किये पत्थरबाजों का सरगना व कई आतंकवादी गतिविधियों का दोषी खूंखार आतंकी मसर्रत आलम को छोड़ने का निर्णय जो अभी कुछ सरकारी फाइलों में नियमानुसार अटक रहा था को पूरा करके घाटी के अलगाववादियों के हित का संदेश दिया। इस अप्रत्याशित निर्णय से साझा सरकार की व्यापक निदा हुई और पूरे देश में आलोचनाओं की झड़ी लग गई। जबकि भाजपा इस निर्णय से पूर्णतः अनभिज्ञ थी और यह न्यूनतम साझा कार्यक्रमानुसार नही था फिर भी केंद्रीय सरकार में होने के कारण भाजपा को कड़ी आलोचनाएं झेलनी पड़ी थी। इसका विरोध हुआ और भाजपा में उस समय भी पीडीपी से समर्थन वापस लेने की चर्चाएं हुई। क्योंकि भाजपा का स्पष्ट मत था और है कि वह किसी भी परिस्थिति में आतंकवादियों व अलगाववादियों को स्वीकार नही करेगी। लेकिन पूर्वानुमानों के आधार पर यह लगता रहा कि पीडीपी अपनी संकीर्ण कट्टरपंथी विचारधारा के कारण कश्मीर घाटी से बाहर शेष प्रदेश व देश के व्यापक हितों की रक्षार्थ भी क्या कुछ सोच सकती है? इनकी मानसिकता को समझने के लिए यह पर्याप्त है कि जब केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चे (नेशनल फ्रंट) की सरकार 1989-90 में मुफ़्ती मोहम्मद सईद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी पी सिंह की कृपा से गृहमंत्री बनें थे तब इनकी छोटी बेटी डॉ रुबिया सईद का अपहरण हुआ था और ऐसी चर्चा हुई कि आतंकवादियों ने नाटक रचा था। लेकिन फिर भी मुफ़्ती मोहम्मद ने अपनी बेटी को छुड़वाने के बदले में पांच खूंखार आतंकियों को छुड़वाया था। वैसे भी मुफ्ती मोहम्मद के गृहमंत्री रहते हुए उस अवधि में लगभग 70 दुर्दान्त आतंकियों को छोड़ा गया था ,परंतु यह भी ध्यान रहे कि उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला थे। राष्ट्रवादियों को यह भी सोचना चाहिये था कि जब मुफ़्ती मोहम्मद ने काग्रेस  अन्य क्षेत्रीय दलों के समर्थन से 2002 में सरकार बनायी थी तो उस समय भी हीलिंग टच के नाम पर पोटा में बंद आतंकवादियों को सैकड़ों की संख्या में रिहा किया गया था साथ ही उनको परिवार सहित पुनर्वास में अनेकों सहायता दी गयी। यहां यह भी लिखना आवश्यक हो गया है कि इनके बाद आने वाली अब्दुल्लाओं आदि की सरकारों ने भी इस नीति का अनुसरण करते हुए कश्मीर में  हज़ारों आतंकियों को रिहा किया और उनके पुनर्वास में सैकड़ों करोड़ रुपये लुटाये साथ ही सरकारी नौकरियां भी दी जाती रही थी।समाचारों से यह भी स्पष्ट हुआ कि मुफ़्ती मोहम्मद सईद के कट्टरपंथियों के प्रति नरम व्यवहार से अनुकूल स्थिति का अनुचित लाभ लेकर पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था आई.एस.आई भी हमारे देश के विरुद्ध बड़े षड्यंत्रों को पुनः रचने के लिए सक्रिय हो गयी। अलगाववादियों के हौसलें इतने बुलंद हो गए थे कि उन्होनें विशेषरूप से प्रत्येक शुक्रवार को भारत विरोधी व पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाना व पाकिस्तान , इस्लामिक स्टेट एवं लश्कर-ए-तोईबा के झंडे लहरा कर राष्ट्रवाद की धज्जियाँ उड़ाते रहे।  भारतीय तिरंगे को जला कर भी ये आतंकी व अलगाववादी अपने को निर्दोष ही मानते रहे। सुरक्षा बलों के प्रति उग्र प्रदर्शन व पत्थरबाजी की बढ़ती हुए घटनाओं ने घाटी को घायल कर दिया। साथ ही पाकिस्तान द्वारा युद्धविराम उल्लघंन व आतंकियों की घुसपैठ थामे नही थम रही फिर भी राष्ट्रीय हित के लिए इस अपवित्र गठजोड़ को भाजपा ने निभाने के निश्चय पर पुनः विचार नही किया। लेकिन  मुफ़्ती मोहम्मद सईद का 8 जनवरी 2016 को लगभग 10 माह के कार्यकाल के पश्चात निधन ने प्रदेश में पुनः सरकार के नेतृत्व को लेकर लगभग 80 दिन भाजपा व पीडीपी में मंथन हुआ। जिसमें पीडीपी की अध्यक्षा व मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बड़ी बेटी महबूबा मुफ़्ती को 4 अप्रैल 2016 में मुख्य मंत्री की शपथ दिलवायी गई। इस निश्चय में इतना अधिक समय लगने का मुख्य कारण था कि महबूबा अपने दिवंगत पिता से अधिक कट्टर होने के कारण भाजपा इनको अपने अनुकूल नही समझ रही थी क्योंकि महबूबा का व्यवहार भाजपा के प्रति अपने पिता से अधिक असामान्य रहा। आपको ज्ञात होना चाहिये कि प्रमुख अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी तो महबूबा मुफ्ती को बेटी कहकर पुकारते है।  महबूबा मुफ़्ती ने भाजपा के साथ पुनः सरकार बनाने से पूर्व केंद्र सरकार को सेना के अधिकार में चार विभिन्न स्थानों पर सुरक्षा के लिए उपयोगी लगभग 300 एकड़ भूमि को रिक्त करवाने का वायदा लिया । उसके अनुसार सेना ने 31.3.16 तक वह भूमियां खाली करके राज्य सरकार को सौपी । सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (अफ्सपा) को हटाने के लिए मुख्यमंत्री पिता के बाद महबूबा भी उसी आक्रामकता के साथ अड़ी रही। परंतु निरंतर हो रही आतंकवादी घटनाओं और पत्थरबाजों के प्रकोप से बचने के लिए सुरक्षा विशेषज्ञों ने इस मांग को कुछ सीमा तक निलंबित रखा। हिजबुल मुजाहिदीन का स्थानीय कमांडर व कश्मीरी आतंकियों का पोस्टरबॉय बुरहान वानी के 8 जुलाई 2016 को मुठभेड़ में मारे जाने के बाद उसका बदला लेने के लिए पाकिस्तानी सेना व आतंकी अत्यधिक उग्र व आक्रामक हो गये | जिहाद के लिए ये मजहबी आतंकी अपने एक एक साथी की मौत का बदला लेने के लिए कैसा भी दुस्साहस करने के लिए संकल्पित थे। ऐसे में महबूबा ने भी बुरहान वानी को एक और अवसर देने की बात कही थी। लेकिन विशेष ध्यान देना होगा कि बुरहान वानी के बाद हिजबुल के कमांडर जाकिर रशीद भट्ट ने सोशल मीडिया पर कश्मीरियों को भड़काते हुए एक वीडियो डाला जिसमें उसके कथनानुसार “जब हम हाथ में पत्थर या बंदूक उठाते है तो इसलिए नही कि हम कश्मीर के लिए ऐसा कर रह हैं। हमारा एक ही मकसद होना चाहिये कि हम इस्लाम के लिए लड रहे हैं, ताकि हम शरिया को बहाल कर सकें।”
इसके अतिरिक्त विभिन्न घटनाओं पर सेनाओं को दोषी बनाकर उनके विरुद्ध पुलिस में रिपार्ट लिखवाना, पत्थरबाजों से आम नागरिको व सैनिकों को सुरक्षित करने वाले मेजर गोगाई को ही दोषी ठहरा कर उनको न्यायायिक प्रक्रिया में उलझाना,  बाज न आने पर भी लगभग  दस हज़ार पत्थरबाजों के विवादों को वापस लेना, सीमाओं पर बढ़ता युद्धविराम उल्लंघन व घुसपैठ , म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को हिन्दू बहुल जम्मू क्षेत्र में बसाना , आतंकी घटनाओं पर अंकुश न लगना, अनेक युवाओं का आतंकी बनना, कठुआ कांड का झूठा प्रचार व रमजान में संघर्ष विराम की असफलता के कारण भाजपा में बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कभी इस बहाने तो कभी उस बहाने पीडीपी ने निरंतर साझा कार्यक्रमों का उल्लंघन किया और जम्मू व लद्धाख की स्थिति सुधारने में कोई रुचि नही रखी। अनेक दुविधाओं व समस्याओं में भाजपा के अपने आक्रामक व्यवहार से पीछे हटने से पीडीपी का व्यवहार और कुटिल होता रहा और उसने कश्मीर घाटी में अलगाववादियों व आतंकवादियों के हितार्थ वातावरण बनने में कोई बाधा नही डाली। इस गठजोड़ सरकार के शासन काल में पीडीपी के कूटनीतिज्ञ निर्णय भाजपा के लिए एक कड़ी व कड़वी चुनौती बने रहें। क्या कारण रहा जो भाजपा अपने एक भी महत्वपूर्ण विषयों पर सार्थक निर्णय नही करवा सकी ?  जम्मू-कश्मीर में न तो अनुच्छेद 370 को हटाने की सार्थक चर्चा हुई,  न ही लाखों विस्थापित  कश्मीरी हिंदुओं के सुरक्षित पुनर्वास के लिए आवश्यक प्रयास किये गए एवं न ही विभाजन के समय सन 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आये हिन्दू-सिख शरणार्थियों के लगभग  37000 परिवारों को भारतीय नागरिक होने पर भी सत्तर वर्ष बाद जम्मू-कश्मीर की नागरिकता न दिलवा पाना राष्ट्रवादी भाजपा की केवल कमजोर इच्छाशक्ति का परिणाम रहा।
यह विचार करना होगा कि जब राजनीति में ऐसे बेमेल गठबंधन अपने – अपने स्वार्थो के कारण  राष्ट्रहित की अवहेलना करते हुए देश की संप्रभुता व अखंडता पर प्रहार करने वाले समझौतों के प्रति आतुर हो जाये तो राष्ट्रवादियों को ऐसे सत्तालोभियों के गठबंधनों का विरोध तो करना होगा। इसीलिए भाजपा  विवश हो गई थी कि वह अब पीडीपी से समर्थन वापस लें और महबूबा मुफ्ती की सरकार को हटा कर वहां राज्यपाल शासन लगाये। तदानुसार  19 जून को यह निर्णय लिया गया और देशवासियों को कुछ संतोष हुआ ।
देर से ही सही परंतु 2019 के लोकसभा चुनावों की भूमिका में अब भाजपा को पुनः अपने आधार “राष्ट्रवाद” के सिद्धांतों पर आना होगा। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रवाद का संघर्ष तभी सफल हो सकता है जब   आतंकवादियों , अलगाववादियों , कट्टरपंथियों व पत्थरबाजों पर सरकार को कड़े प्रहार करें और  इनको दी जाने वाली अरबों की सहायतायें बंद हों। दशकों से भारत की धन-दौलत को हडपनें और बेधड़क पाकिस्तानियों से मिलकर अपने ही देश के विरुद्ध षड्यंत्र करने वाले इन तत्वों को अब और पुचकारने की नीतियों को छोड़ कर आक्रामक व राष्ट्रहितकारी नीतियों का पालन करना होगा।  देश की राष्ट्रवादी जनता को मोदी जी से यह आशा है कि वे अब आतंकियों व शत्रुओं को बातों से नही सर्जिकल स्ट्राइक के समान कड़े प्रहारों से नष्ट करेंगे। आगामी लोकसभा चुनावों में अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए भाजपा को अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण की नही बहुसंख्यकों के सामर्थ्य व समर्थन की आवश्यकता होगी। राष्ट्रवादियों की विवशता को भाजपा अधिक समझती है पर उनके अनुसार कार्य करने को तथाकथित साम्प्रदायिकता के आवरण से बचने के लिए मुस्लिम सशक्तिकरण करके उनको लुभाने का प्रयास भाजपा को विजयी नही बना सकता।

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