“ईश्वर का सत्यज्ञान वेद एवं वैदिक साहित्य में ही उपलब्ध है”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हम जन्म लेने के बाद जब कुछ-कुछ समझना आरम्भ कर देते हैं तो इस संसार को देखकर आश्चर्यचकित होते हैं।
हममें यह जिज्ञासा होती है कि यह वृहद संसार कैसे व किससे बना?
इसका उत्तर हमें नहीं मिलता। माता-पिता से यदि पूछें तो एक पंक्ति
का उत्तर होता है कि यह संसार परमात्मा का बनाया हुआ है। यदि
माता-पिता आधुनिक ज्ञान व विज्ञान पढ़े हुए हों तो उनसे यह उत्तर
भी मिल सकता है कि यह संसार अपने आप, बिना किसी के बनाये,
बना है। विज्ञान पढ़कर मनुष्य नास्तिक हो जाता है क्योंकि विज्ञान
में भौतिक पदार्थों का ज्ञान कराया जाता है, अभौतिक पदार्थों का
नहीं। ईश्वर भौतिक पदार्थ नहीं है इसलिये वह विज्ञान के अध्ययन
की सीमाओं से परे है। विज्ञान को पढ़कर ईश्वर के विषय में नहीं जाना जा सकता। ईश्वर अभौतिक सत्ता है। इसी प्रकार हमारी
जीवात्मा भी अभौतिक सत्ता है। हमारा संसार व इसके सूर्य, चन्द्र,पृथिवी आदि गृह व उपग्रह आदि सूक्ष्म जड़ भौतिक पदार्थ
प्रकृति का विकार हैं। यह सूक्ष्म प्रकृति एक अनादि, नित्य, अविनाशी व भाव पदार्थ है। इसी प्रकार प्रकृति की तरह एक ईश्वर व
अन्न्त संख्या वाली जीवात्माओं का भी अस्तित्व है। यह दोनों चेतन पदार्थ भी अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अविनाशी, अमर व
भाव पदार्थ है। वैज्ञानिकों से यदि आत्मा के अस्तित्व पर प्रश्न किये जायें तो वह इस विषयक में कुछ नहीं बताते। सभी
मनुष्यों का अनुभव है कि हम एक सत्तावान पदार्थ हैं जो कि शरीर से भिन्न हैं। शरीर की मृत्यु होने पर शरीर की सभी क्रियायें
एक साथ बन्द हो जाती है तो इसका कारण यह होता है कि शरीर से आत्मा नामी सद्तत्व व सत्ता जा चुकी है या निकल गई है।
जिसके शरीर में विद्यमान रहने से शरीर गतिशील व क्रियाशील रहता है, श्वांस-प्रश्वास लेता व छोड़ता है, चलता-फिरता,
हंसता-रोता आदि विभिन्न व्यवहार करता है, वह आत्मा के द्वारा ही किया जाता है। आत्मा को एक गाड़ी की उपमा से भी
समझा जा सकता है। गाड़ी में यदि ड्राइवर न हो तो गाड़ी नहीं चलती। ड्राइवर के होने और गाड़ी के निर्दोष एव ईधन से युक्त
होने पर गाड़ी चलती है।
इसी प्रकार हमारे भोतिक जड़ शरीर में ड्राइवर की भांति जीवात्मा का निवास है जो हमारे शरीर की गतिविधियों एवं
जीवन संचालन का कारण है। इसी प्रकार से संसार में ईश्वर है जो इस संसार को प्रकृति नाम की सूक्ष्म जड़ सत्ता से बनाता है
और वही इसका पालन करता अथवा इसे नियमों के अन्तर्गत चलाता है। यह मानना हास्यापद है कि अतीत काल में सूर्य,
चन्द्र, पृथिवी आदि अनन्त ग्रह-उपग्रह आदि आकाश में स्वयं बनकर गति करने लगे? हमारी बुद्धि इसे स्वीकार नहीं कर
सकती। विज्ञान इस बात को इस लिये मानता है कि उसके पास संसार की उत्पत्ति, स्थिति व पालन करने वाली अभौतिक सत्ता
का समुचित ज्ञान नहीं है। ईश्वर को जानने व मानने से संसार विषयक सभी प्रश्नों का समाधान हो जाता है। वैज्ञानिकों द्वारा
ईश्वर को न मानने का एक कारण हमें यह भी लगता है कि अतीत के सभी प्रमुख वैज्ञानिक प्रायः यूरोप के देशों में उत्पन्न हुए
जहां वह अंग्रेजी व वहां की अन्य भाषाओं का प्रयोग करते थे। वहां न तो वेद ज्ञान था न वैदिक साहित्य और परम्परायें। अतः
वह लोग ईश्वर को नहीं जानते थे। वहां बाइबिल ग्रन्थ में ईश्वर को स्वीकार तो किया गया है परन्तु ईश्वर का तर्कसंगत स्वरूप
जैसा वेदों एवं वैदिक साहित्य में है, वैसा ईश्वर का स्वरूप नहीं है। वैज्ञानिक प्रत्येक बात की परीक्षा कर उसके सत्य निष्कर्षों
को ही स्वीकार करते हैं। अतः बाइबिल आदि ग्रन्थों में ईश्वर के स्वरूप को तर्क से सत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता। वह
वर्णन कुछ-कुछ इतिहास जैसा प्रतीत होता है। यूरोप में जिन वैज्ञानिकों ने पृथिवी को सूर्य की परिक्रमा करने की बात की, उन्हें

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वहां के पादरियों द्वारा कठोर दण्ड दिया गया। इन सब कारण से यूरोप के वैज्ञानिकों ने अपने देशों में धर्म व पुस्तकों में वर्णित
ईश्वर विषयक विचारों को स्वीकार नहीं किया। वेदों का ज्ञान सत्य मान्यताओं पर आधारित है जो तर्क-युक्तियों पर सत्य
सिद्ध होता है। अतः ईश्वर का होना सत्य एवं वास्तविकता है जिसे वैदिक साहित्य में ईश्वर के वेदानुकूल गुणों से जाना व
समझा जा सकता है और वेदाध्ययन एवं वेदों के अभ्यास से ईश्वर का प्रत्यक्ष एवं साक्षात्कार भी किया जा सकता है।
ऐसा प्रायः सबके साथ होता है कि जो जिस कुल या परिवार में जन्म लेता है वह उसकी सत्य व असत्य सभी
परम्पराओं को बिना विवेक एवं परीक्षा किये स्वीकार कर लेता है। इस कारण से ईश्वर का सत्यस्वरूप भौतिक-विज्ञान
शास्त्रियों एवं अल्पज्ञानियों के समक्ष नहीं आ पाता। ऋषि दयानन्द (1825-1883) भी एक सनातन धर्मी पौराणिक परिवार में
उत्पन्न हुए थे। उनके पिता ने उन्हें शिवरात्रि के दिन भगवान शिव का व्रत वा उपवास रखने की प्रेरणा की थी। पहले वह
सहमत नहीं हुए थे परन्तु जब उन्हें पुराणों की शिवजी विषयक अलंकारिक कथा सुनाई गई तो वह व्रत करने के लिये सहमत
हो गये थे। व्रत करते समय उन्होंने शिव वा उसकी मूर्ति को शक्तिहीन पाया। शिव की मूर्ति अपने ऊपर उछल-कूद कर रहे चूहों
को हटाने व भगाने में भी असमर्थ प्रतीत हुई। इससे सम्बन्धित ऋषि दयानन्द के प्रश्नों का समाधान उनके विद्वान पिता व
पण्डित-पुजारी नहीं कर पाये। अतः 14 वर्ष के बालक ने मूर्तिपूजा करना छोड़ दिया था। उन्होंने अपना अध्ययन ईश्वर के सत्य
स्वरूप को जानने में केन्द्रित किया। वह घर छोड़कर चले गये और देश भर में सभी धार्मिक स्थानों, योगियों के आश्रमों व
कन्दराओं सहित उनके मठ-मन्दिरों में गये और उनसे ईश्वर के सत्यस्वरूप पर प्रश्न किये? उनका कहीं से समाधान नहीं
हुआ। इसी बीच वह योगी भी बन गये और अनुमान है कि उन्होंने ईश्वर एवं अपनी आत्मा का साक्षात्कार भी किया।
योगाभ्यास से इष्ट प्राप्ति कर ऋषि दयानन्द विद्याध्ययन की इच्छा लिये वह सन् 1860 में वेदांगों के सच्चे योग्य
विद्वान प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा को प्राप्त हुए। उनसे लगभग तीन वर्ष अध्ययन कर उन्होंने
वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया। सिद्ध योगी वह पहले ही थे। अतः वेदांग वा आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त
प़द्धति से अध्ययन करने से उन्हें वेदों के सत्य अर्थ जानने की योग्यता प्राप्त हो गई। उन्होंने वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य
सहित देश में विद्यमान ईश्वर व अध्यात्म से संबंधित प्रायः सभी उपलब्ध ग्रन्थों का अध्ययन किया जिससे वह ईश्वर,
जीवात्मा व संसार के प्रलय-सृष्टि-प्रलय चक्र को यथार्थ रूप में समझ गये। उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हुआ वह निश्चयात्मक ज्ञान
देश व विश्व के किसी गुरु से उपलब्ध नहीं था। अपने गुरु स्वामी विरजानन्द तथा आत्मप्रेरणा से धार्मिक व सामाजिक जगत
में विद्यमान अज्ञान व अविद्या को देश व विश्व से दूर करने का व्रत लिया। आर्ष ज्ञान विद्या का प्रतीक है और अनार्ष ज्ञान
अविद्या का। उन्होंने सत्य व असत्य ग्रन्थों का निर्धारण किया और वेदों को स्वतः प्रमाण स्वीकार किया। अन्य ग्रन्थों की उन
बातों को जो वेदों के अनुकूल हैं, उन्हें परतः प्रमाण बताया। उन्होंने अपनी वैदिक मान्यताओं पर देश भर में जा-जा कर
व्याख्यान भी दिये और उन पर आधारित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसे अपूर्व ग्रन्थ लिखे। इन दोनों ग्रन्थों
से वेदों की प्रायः सभी व अधिकांश मान्यताओं एवं सिद्धान्तों पर प्रकाश पड़ता है। इन दोनों ग्रन्थों से वेद वर्णित ईश्वर का
सत्यस्वरूप भी विदित होता है। अतः ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने के लिये सभी जिज्ञासुओं को सत्यार्थप्रकाश एवं
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों की शरण लेनी चाहिये।
ऋषि दयानन्द ने वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर विषयक स्वरूप जिसमें ईश्वर के गुण, कर्म
व स्वभाव भी सम्मिलित हैं, उसका उल्लेख कर आर्यसमाज के दूसरे नियम में कहा है कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप,
निराकार, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वार्न्यामी, अजर, अमर,
अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वही परमात्मा मनुष्यों द्वारा उपासना करने के योग्य है। ईश्वर सर्वज्ञ है और वह सभी
जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। ईश्वर न्यायकारी होने से मनुष्यों के सभी शुभाशुभ कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भी
नाना योनियों में जन्म देकर प्रदान करता है। ईश्वर ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों के द्वारा वेद ज्ञान का देने वाला है।

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यदि ईश्वर वेदों का ज्ञान न दे, तो मनुष्य भाषा की रचना एवं सद्ज्ञान को प्राप्त नहीं हो सकते। सृष्टि की आदि में मनुष्यों को
भाषा व ज्ञान ईश्वर वेदों के द्वारा ही उपलब्ध कराते हैं। ईश्वर सर्वार्न्यामी होने से सब जीवात्माओं को सद्कर्मों एवं ज्ञान प्राप्ति
के कार्यों में प्रेरणा भी करते है। हम यह भी कह सकते हैं कि ईश्वर हमारा मित्र, सखा एवं परामर्शदाता भी है। वेदों में उसने हमें
जीवन को श्रेष्ठ, सुखद एवं सफल बनाने की प्रेरणा, आज्ञा व सलाह दी है और जीवात्मा के भीतर भी वह सत्य को ग्रहण एवं
असत्य कर्मों के त्याग की प्रेरणा करता रहता है।
वेदों के आधार पर पुनर्जन्म का सिद्धान्त एक सत्य एवं तर्कसंगत सिद्धान्त है। अनेक प्रमाणों से इसे सिद्ध किया
जा सकता है। आश्चर्य होता है कि संसार के कुछ प्रमुख मत व सम्प्रदाय इस सिद्धान्त को जानते नहीं और न ही मानते हैं। इसे
उनकी हठधर्मिता ही कह सकते हैं। इसको न मानने से किसे हानि होगी, यह हम जान सकते हैं। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति
अनादि, अविनाशी और नित्य सत्तायें है तो जीवात्मा का जन्म-मरण-जन्म का चक्र तो कर्मानुसार चलना ही है। वेद एवं वैदिक
साहित्य का एक लाभ यह भी है कि वेदाध्ययन करने से ईश्वर के न केवल सत्यस्वरूप अपितु ईश्वर की उपासना की
सत्यविधि, जो कि योगदर्शन में दी गई है, उसका ज्ञान होता है। योगदर्शन में उपासना योग के आठ अंगों यम-नियम-आसन-
प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि को एक सूत्र में कह दिया गया है। ऐसा उल्लेख संसार के किसी मत-पंथ-सम्प्रदाय
के ग्रन्थ में नहीं मिलता है। इससे ईश्वर के सत्यस्वरूप, गुण, कर्म, स्वभाव तथा उपासना की आवश्यकता एवं उसके महत्व का
ज्ञान वेद एवं वैदिक साहित्य से ही होता है। हमने संक्षेप में कुछ बातें लिखी हैं। विस्तार से इस संबंध में जानने के लिये
सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय सहित ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य, उपनिषद एवं दर्शन ग्रन्थों का
अध्ययन करना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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