“कोई सन्तान ईश्वर और अपनी माता-पिता के ऋण से उऋण नहीं हो सकतीं”

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

               हमारे जीवन पर हमारे अतिरिक्त किसी अन्य का कोई अधिकार है या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर हमें यह लगता है कि ईश्वर और हमारे माता-पिता का हमारे जीवन पर अनेक प्रकार से अधिकार है। इन्हीं के द्वारा हमें यह बहुमूल्य मनुष्य जीवन मिला है। हमें जीवन देने व जीवन देने में सहायक होने के कारण हम अपने माता-पिता के ऋणी हैं। इनका ऋण ऐसा ऋण है कि जिसे हम कुछ भी कर लें, चुका नहीं सकते। ईश्वर ने हमारी आत्मा को पूर्वजन्म में मृत्यु के बाद वर्तमान माता-पिता तक पहुंचाया और पिता के माध्यम से उसे माता के गर्भ में स्थापित किया। उस पूर्व दिवंगत वा मृत्यु को  हुई आत्मा का शरीर बनाया और मात्र दस महीनों से भी कम समय में यह काम पूरा हो गया। हमने या हमारे माता-पिता ने इस कार्य में जो योगदान दिया उसमें उनका स्थान ईश्वर के बाद आता है। हमारा अपना जन्म लेने में किंचित भी योगदान दिखाई नहीं देता। माता-पिता ने हमें जन्म देने के बाद हमारे भोजन, वस्त्र व शिक्षा आदि की व्यवस्था की। माता को बच्चे के अपने शरीरस्थ गर्भ में रहने पर होने वाले कष्ट व अनेकों असुविधायें सहन करनी पड़ीं। प्रसव पीड़ा को जीवन में सबसे बड़ी पीड़ा माना जाता है। कई परिस्थितियों में यह पीड़ा माता की जान तक ले लेती है। ायह पीड़ा सभी माताओं को सहन करनी पड़ती है व उस कष्टकारक स्थिति से उन्हें गुजरना पड़ता है। कहा जाता है कि माता के रक्त से सन्तान का निर्माण होता है। माता जो भोजन करती है उससे नाना प्रकार के पदार्थ शरीर के भीतर बनते हैं। उन्हीं पदार्थों में एक पदार्थ रक्त भी होता है। सन्तान के गर्भ में होने पर माताओं में रक्त व कैल्शियम की प्रायः कमी हो जाती है। इसका अर्थ है कि माता के शरीर का रक्त व कैल्शियम सन्तान के शरीर निर्माण में लगता है। माता बन रही स्त्रियों को अच्छा भोजन करने पर भी लौह तत्व व कैल्शियम की गोलियां खानी पड़ती है। आजकल विज्ञान की उन्नति के कारण चिकित्सा व प्रसव विज्ञान ने भी उन्नति की है। अब प्रसव जीवन की रक्षा की दृष्टि से अधिक रिस्की नहीं होता तथापि सन्तान के जन्म के बाद कुछ महिलाओं में अनेक प्रकार की विकृतियां आने की सम्भावनायें होती हैं व कुछ में आती भी हैं जिससे उन्हें जीवन भर कष्ट होता है। इन सब बातों पर विचार करने पर यही बात सम्मुख आती है कि कोई सन्तान अपने माता-पिता का यह ऋण, कुछ भी कर लें, चुका नहीं सकती।

               हमारे देश में अत्यन्त गरीबी है। कई दम्पती दो समय का भोजन भी जुटा नहीं पाते। हमने पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में ग्रामीणों व उनके बच्चों को घास की रोटियां खाते देखा है। ऐसी मातायें यदि बच्चों को जन्म देती हैं तो उनका यह कार्य किसी बलिदान से कम नहीं होता। आजकल की सन्तानें माता-पिता के इस त्याग व जन्म के कारण होने वाली पीड़ाओं की उपेक्षा कर माता-पिता के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं करते। हमारे सामने इसके अनेक उदाहरण हैं। टीवी पर भी इस प्रकार के अनेक कार्यक्रम देखने को मिलते हैं। वृद्धाश्रम भी माता-पिताओं की उपेक्षा का जीता-जागता प्रमाण हैं। अतः आवश्यकता है कि विद्यालयों के पाठ्यक्रमों सहित सामाजिक संस्थाओं के द्वारा सन्तानों के माता-पिता के प्रति कर्तव्यों के संबंध में प्रचार किया जाना चाहिये। इससे सम्बन्धित कानून भी बनने चाहिये जिससे प्रत्येक पुत्र को अपनी आय का न्यूतम 10 से 20 प्रतिशत तो अपने माता-पिता को भरण पोषण के लिये देना ही चाहिये। कई विधवा मातायें वृद्धावस्था में सम्पन्न सन्तानों के होते हुए भी अभावों व रोगों से ग्रस्त जीवन व्यतीत करती हैं। यदि सन्तानें अपने वृद्ध माता-पिताओं की देखभाल नहीं करेंगे तो कुछ व अनेक मामलों में माता-पिताओं का जीवन दुःख व पीड़ाओं से गुजर कर मृत्यु में समा सकता है व समाता है।

               माता-पिता के सम्मान की भावना पर जब ध्यान करते हैं तो हमें दशरथ पुत्र राम की स्मृति ताजा हो जाती है। राम का व्यवहार अपने पिता व तीनों माताओं कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा के प्रति अत्यन्त सम्मानजनक व सबको अपनी सेवा, कर्तव्य पालन व व्यवहार से सन्तुष्ट रखने वाला था। सौतेली माता कैकेयी द्वारा उनको 14 वर्ष के लिये उनको वन में भेजने के कठोर व्यवहार पर भी उन्होंने अपनी उस माता का अपमान व अशुभ नहीं चाहा। अपने पिता दशरथ को भी जब उन्होंने कैकेयी की बातों से त्रस्त देखा तो उन्होंने उसका कारण पूछा था? जब दशरथ ने कुछ नहीं बताया तो आदर्श व श्रेष्ठ पुत्र राम ने उन्हें कहा कि आप अपनी चिन्ता को दूर करे और निःसंकोच अपनी बात कहें। यदि आप कहेंगे कि जलती हुई चिता में मुझे प्रविष्ट होना है तो मैं बिना कोई विचार किये चिता में प्रविष्ट होकर अपने जीवन का अन्त कर दूंगा। एक पुत्र का अपने पिता को यह वचन देना वैदिक भारतीय संस्कृति में ही सम्भव है और इससे मिलती जुलती घटना विश्व इतिहास में दुर्लभ असम्भव है। इसी कारण आज तक राम का आर्य हिन्दू देशवासियों में सम्मान हैं। जो मत-मतान्तर वाले लोग राम के आदर्शों को नहीं मानते, हमें उनकी बुद्धि पर तरस आता है। एक साधारण नियम है कि अच्छे विचार कहीं से भी मिले, ग्रहण करने चाहिये। परन्तु राम व कृष्ण के आदर्शों को कुछ लोगों द्वारा न मानना हमें मनुष्य की विकृत बुद्धि की ओर ही संकेत करता है।

               हमने आर्यसमाज में विद्वानों के मुख से एक घटना सुनी है। वह भी प्रासंगिक होने से हम यहां दे रहे हैं। एक महिला का एक पुत्र था। वह महिला अपनी युवावस्था में बहुत निर्धन थी। कुछ समय बाद उसे आंखों से दीखना भी बन्द हो गया था। बड़ा होकर उसका पुत्र व्यापार करने लगा और नगर का सबसे बड़ा धनाड्य बन गया। उसके पास अपार धन-सम्पदा हो गई। एक बहुत बड़ी कोठी में वह रहता था। नौकर-चाकरों की घर में कमी नहीं थी। प्रतिदिन वह अपनी माता का हालचाल पूछता और उन्हें सब प्रकार से सुखी रखता था। माता को कहीं से पुत्र के धनाड्य होने का समाचार मिला। एक दिन उसने पुत्र से पूछ लिया कि तेरे पास कितना धन है? उन दिनों कागज के रुपये नहीं होते थे। सोने की मुद्रायें होती थीं। युवक ने अपने वृहद निवास की विशाल बैठक में सोने की मुद्राओं ढेर लगवा दिया और माता का हाथ पकड़ कर उस धन के ढेर के चारों ओर घुमाया। माता स्वर्ण मुद्राओं को अपने हाथ से छूकर प्रसन्न होती रहती। माता को यह ज्ञान हो गया कि उसके पुत्र के पास अकूत धन है। इसके बाद पुत्र ने सोचा कि इस धन को माता ने छुआ है, अतः इसे तिजोरियों रखना उचित नहीं है। उसे दान देने के लिये उसने एक योग्य व सुपात्र व्यक्ति की तलाश की और सारा धन उसे दे दिया। विद्वान वक्ता ने इस पुत्र को योग्य पुत्र बताया था। यह कहानी काल्पनिक हो सकती है परन्तु यदि हमारी युवा पीढ़ी की भावनायें इस कथा के पुत्र के समान होंगी तभी एक अच्छा समाज बन सकता है और पुत्र-पुत्रियां अपने कर्तव्यों का पालन करके माता-पिता के ऋण से कुछ उऋण हो सकते हैं। एक यह काम तो हम कर ही सकते हैं कि अपने माता-पिता से कभी झूठ व असत्य का व्यवहार न करें। इस कार्य को करने में कोई धन व्यय नहीं करना पड़ता। 

               इसी प्रकार की एक घटना शिवाजी के जीवन की है। अपनी माता जीजा बाई जी के एक बार बीमार हो जाने पर वैद्य ने उनकी जान बचाने के लिये शेरनी का दूध लाने को कहा। शिवाजी एक घने शेर के जंगल में गये और वहां दूध देने वाली शेरनी तलाश थी। शीत ऋतु थी। वहां उन्हें एक शेरनी मिल गई। कुछ छोटे बच्चे उसके आस पास थे। वह ठण्ड से कांप रही थी। शिवाजी ने उस शेरनी का दूध निकाला और अपनी रक्षा करते हुए घर पहुंचे। वैद्य जी को उन्होंने वह दूध दिया जिससे उनकी माता स्वस्थ हो गई। हमारे इतिहास में ऐसे न जाने कितने उदाहरण मिल जायेंगे। हमें राम व शिवाजी जैसे पुत्र बनने व दूसरों को बनाने का प्रयास करना चाहिये तभी हमारा यह जीवन सार्थक हो सकता है और इससे हमारा परजन्म भी सुधर सकता है।

               आर्यसमाज के विद्वान ब्रह्मचारी नन्द किशोर जी ने मातृ गौरव व पितृ गौरव नाम से पुस्तकें लिखी है। यह आर्यसमाज के प्रकाशकों व पुस्तक विक्रेताओं से प्राप्त होती है। इसमें भी माता व पिता के गौरव और पुत्र के कर्तव्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यदि सभी आर्य हिन्दू इसे पढ़े और माता-पिता इसे अपने बच्चों को पढ़ायें तो इससे भी लोगों को प्रेरणा मिल सकती है। इस पुस्तक में वेद एवं अन्य शास्त्रों के वचन भी दिये गये हैं जो ईश्वरोक्त एवं आप्त वचन होने से सभी के लिये उपयोगी एवं मान्य हैं। यहां यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि अपनी माता के समान ही हमारी पृथिवी माता और गो माता भी मातायें हैं। पृथिवी पर हम निवास करते हैं और इसका अन्न खाने के साथ जल पीते व वायु से श्वास लेते हैं। इस कारण हम पृथिवी के ऋणी होते हैं। यद्यपि पृथिवी जड़ है परन्तु यह हमारा माता के समान ही पोषण करती है। गोमाता का दूध भी माता के दूध के समान अमृत के गुणों से युक्त होता है। गो माता के प्रति भी हमारा अपनी माता के समान भाव होना चाहिये। हमारी एक अन्य माता वेदमाता भी है। वेद माता से ही हमें ईश्वर व जीवात्मा का परिचय व स्वरूप ज्ञात होने सहित अपने कर्तव्यों का बोध आदि होता है। वेद माता का भी हमें स्वाध्याय द्वारा सेवन करना चाहिये अन्यथा हम नास्तिक होकर जन्म-जन्मान्तरों में दुःख पा सकते हैं।

               हम इस लेख का अधिक विस्तार न कर इतना कहना चाहते हैं कि सभी मातायें गुणों में अपनी सन्तानों के लिए ईश्वर के कुछ कुछ समान होती हैं। हमें प्राणपण से इनकी सेवा करनी चाहिये। इनका आशीर्वाद ही सन्तानों को जन्म जन्मान्तरों में सुख पहुंचाता है। माता व मातृशक्ति सबके लिये पूज्य है। आदर्श वाक्य है मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव। ईश्वर महादेव है अर्थात् वह हमारे लिए सबसे अधिक हितकारी, सुख व ज्ञान देने वाला तथा हमें जन्म व मृत्यु प्रदान करने सहित मोक्ष का सुख देने वाला है। हमें उसकी भी उपासना करनी है तथा वेदों में उसके द्वारा की गई आज्ञाओं का पालन करना है। ईश्वर के बाद माता-पिता व आचार्य जी का स्थान है। हमने इनकी भी पूजा इनकी सेवा करके व सुख पहुंचाकर करनी चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

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