आज नहीं करेंगे,
रोज़ की बाते…
काम वाली अब तलक,
क्यों नहीं आई!
आज खाने में क्या बनाऊं? या
बाज़ार से सब्ज़ी ले लाऊं?
आज बूंदों से,
करले दो बातें,
कुछ उनकी सुनें,
कुछ अपनी कह डालें।
तुम बादलों से गिरती हो…
चोट नहीं लगती?
तुम्हारे आने की,
प्रतीक्षा में,
हम आंखें बिछाते हैं,
और तुम,
बिना बरसे ही,
चली जाती हो!
हमने तुम पर,
इतने आरोप लगाये हैं,
जवाब दो!
मुझ पर आरोप,
लगाने वालों!
तुमने मेरे लिये,
जगह ही नहीं छोड़ी है,
हर तालाब में,
मिट्टी भरकर,
कोई ईमारत
खड़ी की है!
पेड़ काटे हैं,
और नये नहीं,
लगाये हैं।
कौंक्रीट के जंगल
उगाये हैं।
तो मै कैसे चोट ना खाऊँ?
कैसे तुम्हें अपना
दुलार दे दूँ!
ये सब तो
तुमने ही किया है
मुझे दोष मत देना!
मुझे तो बादलों से
गिरना ही है,
फिर चाहें तुम
मुझे समेटो,
इकठ्ठा करो या
नालियों बह जाने दो…