असलियत को पहचाने

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-अनिल अनूप 
शक्ति
 और सत्ता के लालच में न केवल केंद्र सरकारों ने, बल्कि स्थानीय राजनीतिक दलों, नेताओं और अलगाववादियों ने न सिर्फ कश्मीर घाटी में आग लगाई है, अपितु कश्मीर समस्या की गांठों को कुछ और उलझा दिया है। नेशनल कान्फें्रस और पीडीपी जब सत्ता में नहीं होते, तो उनकी जुबान अकसर अलगाववादियों की भाषा बोलती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि दशकों से कश्मीर में अलगाववाद की हवा बहती रही है और कुछ लोग देश की केंद्रीय सत्ता को ‘विदेशी आक्रांता’ के रूप में परिभाषित करते रहे हैं और कश्मीर घाटी में वोट लेने के लिए अलगाववाद की भाषा एक आसान रास्ता है। दक्षिणी कश्मीर, जहां अलगाववाद चरम पर है, सिर्फ कश्मीर घाटी पर ही नहीं, बल्कि पूरे प्रांत पर हावी है और आतंकवाद से डरे प्रादेशिक अखबार भी अलगाववाद की भाषा बोलने के लिए विवश हैं। खेद का विषय है कि केंद्र की किसी भी सरकार ने इस सच को नहीं पहचाना है, यही कारण है कि कश्मीर में आतंकवाद पर काबू पाने की सरकार की सारी कोशिशें विफल होती रही हैं। समस्या की जड़ को समझे बिना समस्या का इलाज खतरनाक ही साबित हुआ है। ऐसा नहीं है कि प्रदेश के लोग शांति नहीं चाहते। सन् 2009 में जब उमर अब्दुल्ला प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तो सारे देश के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर के लोगों में भी उम्मीद थी कि अब प्रदेश शांति की राह पर चल पड़ेगा, पर पाकिस्तान की राजनीति और वहां पल रहे आतंकवादियों के कारण ऐसा संभव न हो सका। इस दौरान अलगाववादी विचारों वाले युवाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे विपक्षी नेता मुफ्ती मुहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती का प्रभाव बढ़ता चला गया। नवंबर-दिसंबर 2014 में संपन्न हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में मुफ्ती मुहम्मदी सईद के दल पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी को 28 सीटें मिलीं और पीडीपी विधानसभा में सबसे बड़ा राजनीतिक दल बना, लेकिन 87 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए आवश्यक 44 सीटों से वह काफी पीछे रह गया। तब केंद्र में एक वर्ष पूर्व ही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में आई थी और मोदी को हिंदू हृदय सम्राट माना जाता था।

चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह ने प्रदेश के हिंदुओं को संगठित करने के लिए यह कहा भी कि कल्पना कीजिए कि इस प्रदेश में पहली बार कोई हिंदू मुख्यमंत्री बनेगा। इससे आशान्वित पूरा हिंदू समाज भाजपा के पीछे हो लिया और 25 सीटें जीत कर भाजपा भी विधानसभा में एक मजबूत दल बन गया, जबकि नेशनल कान्फें्रस 15 तथा कांग्रेस 12 सीटों पर सिमट गए। प्रदेश में सत्ता में आने के लिए बेताब भाजपा ने पीडीपी से बातचीत की कोशिश की, तो उमर अब्दुल्ला ने कूटनीतिक चाल चलते हुए पीडीपी को समर्थन देने की घोषणा कर दी। पीडीपी के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिलाकर उसे फिर से मजबूत होने का मौका देना संभव नहीं था, इसलिए अंततः मुफ्ती मुहम्मद सईद को भाजपा का प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा और मार्च 2015 में पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार ने सत्ता संभाल ली। प्रदेश में सत्ता में आने के बाद से केंद्र सरकार गलती पर गलती करती रही है। धारा 370 लागू होने के कारण कश्मीर को विशेष दर्जा हासिल है। शेष देश का कोई नागरिक या कंपनी वहां जायदाद नहीं बना सकते, कारखाना नहीं लगा सकते, इससे वहां रोजगार की स्थायी समस्या है। आतंकवाद के चलते वहां के स्थानीय उद्योग को भी नुकसान पहुंचा है, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार की ओर से नागरिकों को दी जाने वाली सुविधाओं और पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद के पोषण के कारण बेकारी भी पुरस्कार बन गई है। कश्मीर की असली समस्या यह है कि वहां पाकिस्तान की ओर से भारत सरकार के विरुद्ध इतना जबरदस्त प्रचार है कि युवाओं के दिमाग में जहर भर गया है। उन्नत तकनीक ने हमें स्मार्टफोन दिए हैं और ये स्मार्टफोन पाकिस्तान के लिए वरदान बन गए हैं। फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर, पिनटेरेस्ट आदि सोशल मीडिया मंचों पर पाकिस्तान और स्थानीय अलगाववादियों के जबरदस्त प्रचार, बेकारी और उसके कारण उपलब्ध खाली समय ने यहां के युवाओं को पत्थरबाज और आतंकवादी बना दिया है। इससे समस्या बहुत गंभीर हो गई है और खोखली बातचीत, छोटी-मोटी रियायतों या गोली से समस्या को सुलझाना संभव नहीं है। इसमें बहुत गांठें पड़ चुकी हैं। अब इस समस्या के समाधान के लिए बहुत धैर्य और लंबी योजना की आवश्यकता है। व्हाट्सऐप से जुड़े युवाओं को फौज की गतिविधियों की सूचना तुरंत मिल जाती है। इससे प्रदर्शन या पत्थरबाजी के लिए मिनटों में उन्हें इकट्ठा करना भी आसान हो गया है। यही कारण है कि वहां तुरंत दंगा हो जाता है। सरकारें और बुद्धिजीवी वर्ग इस एक समस्या को नहीं समझ रहे हैं कि जब तक पाकिस्तान का प्रचार निर्बाध चलेगा, आतंकवाद खत्म नहीं होगा। इस प्रचार की काट के लिए हमारी ओर से किसी योजनाबद्ध कार्रवाई का अभाव भी समस्या को बढ़ा रहा है।

अब आवश्यकता है कि पाकिस्तान से हर तरह का संबंध खत्म किया जाए, स्थानीय अलगाववादियों और उनकी संस्थाओं के साथ-साथ देवबंद द्वारा संचालित मदरसों पर प्रतिबंध लगाया जाए, धारा 35-ए और धारा 370 को समाप्त किया जाए, उद्योग को बढ़ावा देकर रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएं और पेशेवर ढंग से भारत समर्थक प्रचार की योजना बनाई जाए। यह काम कई चरणों में होगा और लंबे समय तक चलते रहने के बाद ही इसका प्रभाव होगा, पर यदि ऐसा न किया गया तो कश्मीर समस्या का और कोई हल संभव नहीं है। कश्मीर और कश्मीरियों का बायकाट करके तो हम कश्मीर को खुद ही पाकिस्तान को सौंप देंगे। हमें कश्मीर का बायकाट करने की नहीं, बल्कि कश्मीर में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की आवश्यकता है। यह समझना आवश्यक है कि असल लड़ाई प्रचार की है।

जिस प्रकार सोशल मीडिया मंचों के उपयोग से 2014 में नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्ता में आए थे, पाकिस्तान की फौज वैसे ही प्रचार के सहारे कश्मीर में अलगाववाद फैला रही है। अलगाववाद की इस लहर को रोकने के लिए स्थानीय अलगाववादियों को अलग-थलग करने के साथ-साथ पाकिस्तान के प्रचार की काट के लिए हमारा प्रचार भी उससे कई गुना शक्तिशाली और प्रभावी होना आवश्यक है। आवश्यकता इस बात की है कि हमारी सरकारें, नेतागण, बुद्धिजीवी और समाजसेवी संगठन इस असलियत को पहचानें, उसे स्वीकार करें और तदानुसार मिलकर कार्य करें, ताकि पाकिस्तान और उसके समर्थक अलगाववादियों की शरारतों पर काबू पाया जा सके।

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