संयुक्त राष्ट्र का नागरिकता कानून में हस्तक्षेप अनुचित

प्रमोद भार्गव

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् (यूएनएचआरसी) ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) पर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में हस्तक्षेप याचिका दायर की है। इसकी उच्चायुक्त मिशेल बैश्लेट जेरिया की ओर से पेश याचिका में दलील दी गई है कि ‘वह इस मामले में मानवाधिकारों की रक्षा करने, बढ़ावा देने और इस सिलसिले में आवश्यक हस्तक्षेप करने के लिए मिले अधिकार के आधार पर न्याय मित्र की हैसियत से दखल देना चाहती हैं। क्योंकि भारत प्रजातांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों के पालन में सभी अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करने में अग्रणी देश रहा है। भारतीय संविधान भी समता के कानून का पक्षधर है। गोया, इस परिप्रेक्ष्य में न्यायालय से उनका निवेदन है कि वह इस कानून को संविधान की कसौटी पर परखे कि यह भारतीय संविधान की मूल अवधारणा के अनुरूप है अथवा नहीं?देश की आजादी के 72 साल में यह पहला अवसर है, जब इस संगठन ने भारत के किसी कानून को शीर्ष न्यायालय में चुनौती दी। इस मुद्दे पर विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए ठीक ही कहा है कि ‘नागरिकता संशोधन कानून भारत का आंतरिक मामला है और इस कानून को अस्तित्व में लाना भारतीय संसद के संप्रभुता के अधिकार से जु़ड़ा है। लिहाजा इस मसले पर किसी विदेशी पक्ष को न तो हस्तक्षेप का अधिकार है और न ही ऐसे किसी दखल को बर्दाश्त किया जाएगा। भारत में संवैधानिक कानून का राज है और हमारी न्यायपालिका की स्वायत्त्ता का सभी भारतीय नागरिक आदर करते हैं।‘दरअसल, इस समय पूरी दुनिया में संयुक्त राष्ट्र से संबंधित परिषदों का महत्व घट रहा है। उनके निर्देशों की यूरोपीय देशों से लेकर इस्लामिक देश जिस तरह अवहेलना कर रहे हैं, उस परिप्रेक्ष्य में अपनी चुनौतियों और वर्चस्व को लेकर विरोधाभासी स्थितियों से दो-चार हो रही हैं। इस कारण परिषद् की नौकरशाही अपनी जिम्मेदारियों को जगजाहिर करने के लिए अनर्गल हस्तक्षेप कर रही हैं। इनका यह दखल उन्हीं देशों में दिखाई देता है जो जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति जवाबदेह होने के साथ जनता के प्रति उदार भी हैं। जबकि इनका यही हस्तक्षेप उन ताकतवर और धार्मिक रूप से कट्टरपंथी देशों में दिखाई नहीं देता है जो मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन कर रहे हैं। यूएन की परिषदें ऐसे मुद्दों को हवा देती हैं, जिनपर उन्हें अन्य देशों का समर्थन आसानी से मिल जाए। इसीलिए 27 फरवरी 2020 को यूएनएचआरसी ने रिपोर्ट जारी कर कहा था, ‘भारत में बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने सीएए और कश्मीर से हटाई गई धारा-370 और 35-ए का विरोध किया है। इनमें विपक्ष के सभी राजनीतिक दलों और धर्म समुदायों के लोगों की भागीदारी रही है। यह विरोध वैसे तो शांतिपूर्ण रहा है लेकिन पुलिस की ज्यादतियां व अमानवीयताएं सामने आई हैं। सांप्रदायिक दंगे भी हुए हैं, जिनमें कुछ लोग भी मारे गए हैं।‘मानवाधिकार उच्च आयोग ने यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद् को सौंपी है। दरअसल यूएनएचआरसी जानता है कि ऐसे मुद्दे उछालकर उसे पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, साउदी अरब और चीन जैसे देशों का समर्थन आसानी से मिल सकता है। भारत में दलीय स्तर पर इतने विरोधाभास हैं कि इनमें से चंद दल भी समर्थन में आ जाएं तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए? ऐसे ही प्रोत्साहनों के चलते पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे पर सुरक्षा परिषद् में गुहार लगाता रहता है। जबकि चीन में 10 लाख से भी ज्यादा उइगर मुसलमानों को निरोध में रखकर अमानवीय अत्याचार निरंतर किए जा रहे हैं, बावजूद यूएन और पाकिस्तान शांत रहते हैं। म्यांमार से 2016 में 10 लाख रोहिंग्याओं को खदेड़ दिए जाने के बावजूद कथित मानवाधिकारों की पैरोकार इस परिषद् का मुंह नहीं खुलता है। पाकिस्तान बलूचिस्तान, फाटा और पाक अधिकृत गिलगिट-बाल्टिस्तान में शियाओं पर अमानुषिक अत्याचार दशकों से कर रहा है, लेकिन यूएनएचआरसी मौन है। दुनिया जानती है कि चीन ने हठवादिता अपनाते हुए आतंकी सरगना मसूद अजहर और हाफिज सईद को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादियों की सूची में दर्ज होने में अनेक बार अड़ंगे लगाए। साफ है, संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा और मानवाधिकार परिषदें देखने के दांत भर हैं। आखिरकार ये शक्तिशाली देशों की ही बातें सुनती हैं।दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् और 1993 में मानवाधिकार उच्च आयुक्त का पद सृजित किया था। 15 मार्च 2006 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक नई मानवाधिकार परिषद् का गठन किया। 47 सदस्यीय इस परिषद् का दायित्व किसी भी देश में मानवाधिकारों के उल्लंघन को जांचना व परखना है। लेकिन इनकी कार्यवाही निष्पक्ष रूप में कम ही दिखाई देती है। बावजूद इनका अहम् उद्देश्य भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से सुरक्षित रखना और मानवाधिकारों का पालन कराना है। हालांकि अपने उद्देश्य में परिषदों को पूर्णतः सफलता नहीं मिली। भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान, अमेरिका और रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आजतक उबर नहीं पाए। इजराइल और फिलिस्तीन के बीच युद्ध एक नहीं टूटने वाली कड़ी बन गया है। अनेक इस्लामिक देश गृहकलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता। दुनिया के सभी शक्ति संपन्न देश व्यापक मारक क्षमता के हथियारों के निर्माण और भंडारण में लगे हैं। इसके बावजूद सुरक्षा परिषद् की भूमिका वैश्विक संगठन होने की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है क्योंकि उसके एजेंडे में प्रतिबंध लागू करने और संघर्ष की स्थिति में सैनिक कार्रवाई की अनुमति देने के अधिकार शामिल हैं। इस नाते उसकी मूल कार्यपद्धति में शक्ति संतुलन बनाए रखने की भावना अंतनिर्हित है। लेकिन वीटो का अधिकार रखने वाले देशों की मनमानियों के विरुद्ध अक्सर इसका कारगर हस्तक्षेप दिखाई नहीं देता।भारत दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक शांतिप्रिय देश है। सवा अरब की आबादी वाले इस भारत में अनेक अल्पसंख्यक धर्मावलंबियों को वही संवैधानिक अधिकार हैं,जो बहुसंख्यक हिंदुओं को हैं। भारत सीएए के जरिए पाकिस्तान, बांग्लादेश एवं अफगानिस्तान से धर्म के आधार पर प्रताड़ित हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसियों को नागरिकता देना चाहता है लेकिन इन्हीं देशों के उन मुस्लिम घुसपैठियों को नागरिकता देना नहीं चाहता, जो आजीविका के लिए न केवल भारत आए बल्कि स्थानीय मूल निवासियों के रोजी-रोटी से जुड़े संसाधन हथियाने लग गए हैं। घुसपैठ के चलते पश्चिम बंगाल समेत पूर्वोत्तर के सभी राज्यों का जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ गया है। बावजूद कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दल इन मुस्लिम घुसपैठियों का समर्थन इसलिए करते हैं क्योंकि ये उनके वोटबैंक बन गए हैं। गोया, यह कानून मानवाधिकारों के पालन की दृष्टि से संविधान सम्मत कानूनी पहल है। भारत ने साम्राज्यवादी मंशा के दृष्टिगत कभी दूसरे देश की सीमा का अतिक्रमण नहीं किया, जबकि चीन ने तिब्बत परअतिक्रमण किया ही, तिब्बतियों की नस्लीय पहचान मिटाने में भी लगा है। यही हरकत चीन दस लाख उईगर मुसलमानों के साथ कर रहा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भी अहम भूमिका निभाई है। बावजूद सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हासिल करने में बाधा बने पेंच बदस्तूर हैं।दरअसल, यूएनएचआरसी की उच्च आयुक्त मिशेल चिली की पहली महिला राष्ट्रपति रह चुकी हैं। भारत से उन्होंने बेहतर रिश्ते बनाने की कोशिश भी की। इस दौरान उन्होंने भारत से क्रूज और ब्रह्मोस मिसाइलें खरीदने की कोशिश भी की थी, जो सफल नहीं हुई। इस वजह से भारत के प्रति उनका रुख कठोर है। नतीजतन यूएन की नौकरशाही उन्हें अपने ढंग से चला रही है। मिशेल के साथ दूसरी दिक्कत यह है कि वे जिस चिली देश से आती हैं, वहां समाज का रूप भारतीय समाज की तरह अनेक धर्मों और समुदायों में विभाजित नहीं है। इसलिए मिशेल को भारतीय अधिकारियों को बताना चाहिए कि विविधता में एकता वाले इस देश में भिन्न-भिन्न समुदाय भाईचारा बनाए रखने में सक्षम हैं। दूसरे यह भी स्पष्ट करने की जरूरत है कि भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता के मुद्दे पर किसी भी विदेशी पक्ष को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है। भारत की सर्वोच्च न्यायालय स्वयं किसी भी नए कानून को निगरानी में लेकर संविधान सम्मत समीक्षा करने का अधिकार रखती है। संसद के दोनों सदनों से परित यदि कोई कानून संविधान की मूल भावना पर खरा नहीं उतरता है तो उसे खारिज करने का अधिकार भी न्यायालय को है। इस लिहाज से संयुक्त राष्ट्र का हस्तक्षेप अनुचित है।

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