मनमोहन कुमार आर्य,
वैदिक धर्मी का अर्थ होता है कि ईश्वरीय ज्ञान वेद को जानने वाला व उसकी शिक्षाओं को मन, वचन व कर्म से अपने जीवन में धारण व पालन करने वाला। वेद सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा मनुष्यों को अपने कर्तव्य व अकर्तव्यों की पूर्ति का ज्ञान कराने के लिए प्रदान किये गये। मनुष्य के लिए आवश्यक सभी प्रकार का सत्य ज्ञान भी वेदों में है जिससे मनुष्य अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करने के साथ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को भी प्राप्त कर सकता है। अन्य किसी मत व संस्कृति में यह विशेषता नही है। अन्य मत तो ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरुप को भी यथार्थ रूप में नहीं जानते हैं। इस अज्ञानता के कारण उनकी उपासना पद्धतियों में वह पूर्णता नहीं है जिससे कि ईश्वर की प्राप्ति वा ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सके। वैदिक धर्मी वेद व सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसका साक्षात्कार कर सकता है। साक्षात्कार से हमारा तात्पर्य यह है कि वह ईश्वर के अधिकांश यथार्थ गुणों को जानकर उनका चिन्तन मनन करते हुए अपनी आत्मा से उस सर्वव्यापक परमेश्वर का निर्भ्रान्त सत्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है। वैदिक उपासना पद्धति वस्तुतः महर्षि पतंजलि के योगदर्शन का एक सरलतम रूप है। इसमें योगदर्शन के अष्टांग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का समावेश है। वैदिक धर्मी आर्यों का सबसे बड़ा धन उनकी उपासना व यज्ञ पद्धति सहित वैदिक साहित्य है जिसे पढ़कर उन्हें ईश्वर, जीवात्मा सहित संसार में पुरुषार्थ पूर्वक सद्कर्मों को करते हुए जीवनयापन की प्रेरणा प्राप्त होती है।
वैदिक साहित्य का अध्ययन, उपासना व यज्ञ पद्धति सहित जीवन में सत्य का धारण, असत्य का त्याग, यम व नियमों का पालन वैदिक धर्मानुयायी को एक श्रेष्ठ व आदर्श मनुष्य बनाता है। वह प्रतिदिन प्रातः व सायं सन्ध्या व यज्ञ करके ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हुए उसका सान्निध्य प्राप्त करता है और अपना व समाज का कल्याण करता है। यज्ञ से वायु शुद्ध होती है जिससे इसका लाभ केवल यज्ञकर्ता को न होकर पड़ोसियों व समाज के लोगों व इतर सभी प्राणियों को होता है। जहां जहां तक यज्ञ से गतिशील शुद्ध वायु जाती है वहां वहां जो प्राणी लाभान्वित होते हैं उसका निमित्त यज्ञकर्ता मनुष्य होने से उसे परमात्मा से इस सद्कर्म का लाभ सुख व आरोग्यता के रूप में मुख्य रूप से प्राप्त होता है। वैदिक धर्मी मनुष्य अनुशासित होता है। वह जानता है कि सुख का आधार धर्म है और धर्म का आधार ईश्वरीय ज्ञान वेद और उसके अनुकूल सद्कर्म हैं। इन सद्कर्मों में देश सेवा, अपने व पराये वृद्धों की सेवा, सत्पात्रों को धन व अन्न आदि का दान तथा अज्ञानियों को विद्या का दान आदि सम्मिलित है।
वैदिक धर्मी सदैव प्रातः 4.00 बजे निद्रात्याग कर उठ जाता है। चुने हुए वेदमंत्रों की सहायता से ईश्वर से प्रार्थना करता है जिसमें ईश्वर की श्रेष्ठ शब्दों व वाक्यों में स्तुति सहित अपने सुख व कल्याण का प्रार्थना होती है। मनुष्य की जैसी भावना होती है और उसके अनुरुप पुरुषार्थ होता है, उसमें उसको सफलता अवश्य मिलती है। वेद मंत्रों से प्रार्थना करने से मनुष्य की उज्जवल भावना बनती है और उसके अनुरुप उसका पुरुषार्थ होने से वह स्तुति व प्रार्थना में कही गई बातों को सफल करता है। सात्विक सोच, पौष्टिक भोजन, अभक्ष्य पदार्थों का सर्वथा त्याग, शुद्ध अन्न, गोदुग्ध, गोघृत, दधि, यज्ञ, फल व मेवों आदि का सेवन करने से वह स्वस्थ, निरोग, बलवान, सुखी व परोपकारी बनता है। वेद पृथिवी को माता और मनुष्यों को इसका पुत्र बताते हैं। यह भावना मनुष्य को देश भक्त व समाज का कल्याण करने वाला बनाती है। ऐसा मनुष्य यदि सरकारी कर्मचारी होगा तो वह सच्चाई व ईमानदारी से काम करेगा, भ्रष्टाचार से दूर रहेगा, सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों की सहायता करने के साथ उनके साथ प्रेम व स्नेह का व्यवहार करेगा। रिश्वत लेने से डरेगा और किसी भी स्थिति में रिश्वत स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि यह पाप कर्म होने से इसका फल उसे दुःख, दारिद्रय व भयंकर रोग आदि के रूप में भोगना पड़ सकता है।
जो लोग वैदिक धर्मी नहीं हैं उन्हें कर्म के महत्व की जानकारी नहीं होती। वह अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के काम करते हैं। काम, क्रोध, अहंकार सहित अपने लोभ व प्रलोभनों आदि को वह दूर नहीं कर पाते और इनमें फंस कर भ्रष्टाचार आदि काम व अन्य निन्दनीय कामों को छुप-छुपाकर करते जाते हैं जिसका परिणाम समाज व उस व्यक्ति सभी को भोगना पड़ता है। वैदिक धर्मी व्यक्ति यदि व्यापार करता है, डाक्टर या इंजीनियर है, राजनेता या समाजिक कार्यकर्ता है तो यम-नियमों का पालन व सन्ध्या एवं यज्ञ आदि करने से उसको भ्रष्टाचार व कामचोरी से डर लगेगा। वह यह काम नहीं कर पायेगा। करेगा तो उसकी आत्मा उसको घिक्कारेगी। अतः उसे यह बुरे काम छोड़ने ही पड़ेगे। राम, कृष्ण, दयानन्द जी आदि का जन्म चरित्र पढ़कर भी उसे उनके अनुरुप श्रेष्ठ मनुष्य या महापुरुष बनने की प्रेरणा मिलती है। अतः वैदिक धर्म मनुष्य को सच्चा मनुष्य बनाता है जो सभी बुराईयों से दूर होता है। हम आर्यसमाज के सदस्य हैं। हमने पाया है कि आर्यसमाज के अनुयायी शतप्रतिशत अनेक बुराईयों से दूर रहते हैं। कोई भी नशा नहीं करता, अण्डे, मांस, मदिरा, अभक्ष्य पदार्थों सहित धूम्रपान आदि कदापि नहीं करता। प्रायः सभी व अधिकांश सन्ध्या व यज्ञ भी करते हैं और इसके साथ वह सत्यार्थप्रकाश, वेद और अन्य वैदिक साहित्य का स्वाध्याय भी करते हैं। इन सब कार्यों से मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला होकर अपने जीवन को ईश्वर की उपासना व पुरुषार्थयुक्त सत्कर्मों में लगाता है। हमने देखा है कि आर्यसमाज के अनुयायियों को सत्यार्थप्रकाश पढ़ने व प्रत्येक रविवार को आर्यसमाज में विद्वानों के उपदेश श्रवण व सन्ध्या यज्ञ में सम्मिलित होने से उनका ज्ञान आम व्यक्तियों से कहीं अधिक होता है। वह हर विषय को पढ़कर आसानी से समझ सकता है। सात्विक भोजन से उसका शरीर स्वस्थ व बलवान होता है अतः उसकी क्षमता अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने से कहीं अधिक होती है। वह या तो रोगी होता नहीं और यदि होता है तो दूसरों से कम होता है। इससे शारीरिक शक्ति अधिक, उससे काम अधिक और रोग आदि पर व्यय शून्य होने से वह देश व समाज के लिए सबसे अधिक उपयोगी होता है।वेद वस्तुतः राष्ट्र धर्म होना चाहिये। जिस राष्ट्र में ऐसा होगा वह राष्ट्र आदर्श राष्ट्र होने के साथ सबसे अधिक बलवान व सुरक्षित हो सकता है। हम विश्व में मुख्यतः यूरोप व इजराइल आदि देशों में देश व समाज के प्रति कर्तव्य भावना व अनुशासन को महत्व देने व आचरण करने वाला पाते हैं। हमें यह वेद के ही गुण लगते हैं। उन्होंने बिना वेद पढ़े वेद के गुणों को अपनी सोच व चिन्तन से प्राप्त कर उसका व्यवहार कर रहे हैं। उनका वह गुण प्रशंसनीय व ग्रहण करने योग्य है। यदि हमारे यूरोप आदि के बन्धु वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढे तो हमें लगता है कि वह और अधिक उपयोगी, प्रशंसनीय एवं सुखी सम्पन्न हो सकते हैं। हम आशा करते हैं कि जिस प्रकार ज्ञान विज्ञान बढ़ रहा है, ईश्वर कृपा करेंगे तो यूरोप आदि देशों में लोग वेद व संस्कृत का महत्व जानकर उसे अपनायेंगे और इससे पूरे विश्व का कल्याण होगा। इस चर्चा को यहीं समाप्त करते हैं।