नदिया के तीरे पर्वत की छांव,
घाटी के आँचल मे मेरा वो गांव।
बस्ती वहां एक भोली भाली,
उसमे घर एक ख़ाली ख़ाली।
बचपन बीता नदी किनारे,
पेड़ों की छांव में खेले खिलौने।
कुछ पेड़ कटे कुछ नदियां सूखीं,
विकास की गति वहां न पहुंची।
छूट चला इस गांव से नाता,
कोलाहल से घिर गई काया।
शहर के लोग बड़े अलबेले,
पर्वत के झरनों को घर में
लाकर वो अपना कक्ष सजोयें।
भीड़-भाड़ में चौराहों पर,
बिजली के फव्वारे चलायें।
गमलों मे वो पेड़ों को उगायें,
बौने पेड़ बौनसाई कहलायें।
बाल्कनी के गमलों मे यहां,
घनियां और हरी मिर्च उगायें।
पशु-पक्षी पले पिंजरों में,
इतवार को सब घूमने जायें।
गाँव और शहर के बीच के फर्क को इस कविता के माध्यम से आपने बड़े सार्थक ढंग से प्रस्तुत किया है.आज यही सब हमें देखने को मिल रहा है जिसे हमारे बच्चे देख कर कई तरह के सवाल उठाते हैं,सुन्दर.