उत्तराखंड में जल संकट :चुनोतियाँ व समाधान की दिशा में प्रयास

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” खारे जल से समुद्र भरा है
मीठ जल से भरा है लोटा
प्यासे को तो समुद्र से बड़ा दिखाई दे लोटा”
उपर्युक्त पक्तियो के माध्यम से समझा जा सकता है की पृथ्वी पर इतने बड़े समुद्र सागर होने के बावजूद भी केवल 3%पानी ही पीने योग्य है ।
“जल ही जीवन है” और “जल है तो कल है ” ये दोनों मुहावरे काफी प्रचलित है लेकिन इसका वास्तविक अर्थ देश की अधिकांश जनसंख्या को नहीं पता है क्योंकि वो पानी के महत्व को न ठीक से समझते हैं ना ही ठीक से समझना चाहते हैं। पानी के बिना जीवन की क्या स्थिति होती है ये उन इलाको में जाकर समझा जा सकता है जहाँ लोग घण्टों भर से बर्तन लेकर नलके के पास खड़े रहते है
उत्तराखंड भी पानी के मामले में गम्भीर जल संकट की स्थिति से गुज़र रहा है जिस उत्तराखण्ड से प्रवाहित सतत् नदिया जो उत्तर भारत के अनेक राज्यो के लिए जल की आपूर्ति करता है  देवभूमि में पानी की किल्लत भविष्य के लिए अशुभ संकेत है । अगर समय रहते इसके लिये प्रबन्ध नहीं किए गए तो आने वाले समय में पुरे देश में विपरीत स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। देश में पानी के अधिकांश स्थस्रोत सुख चुके हैं या उनका अस्तित्व नहीं रह गया है।

देश की सैकड़ों छोटी नदियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं ,देश के अधिकांश गाँव और कस्बों में तालाब और कुएँ भी बिना संरक्षण के सुख चुके हैं। देश के अधिकांश जगहों में गंगा और यमुना अत्यधिक प्रदूषित है जिसकी वजह से इसका पानी भी पीने योग्य नहीं रह गया है। कुल मिलाकर देश में जल संकट और जल संरक्षण को लेकर बहुत ज्यादा संजीदगी नहीं दिख रही है।

लेकिन यह एक अच्छा संकेत है की उत्तराखंड की नवनिर्वाचित सरकार में पेयजल मंत्री श्री प्रकाश पंत जी  इस गंभीर समस्या के प्रति  चिन्तित है। कुछ  दिनों पूर्व दैनिक जागरण की एक खबर के अनुसार पेयजल संकट को निजात पाने के लिए नई  पेयजल  निति को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश की जा रही है इस निति का उदेश्य यह है की पीने योग्य पानी का उपयोग केवल पीने और खाना बनाने जैसे जरूरी उपयोग में हो। बाकी के उपयोग के लिए वर्षा का जल संग्रहण किया जाय । पत्रकारो से वार्ता करते हुए पेयजल मंत्री जी
वास्तव में पेयजल संकट  आगामी भविष्य के लिए एक चुनोतिपूर्ण विषय है । इस जटिल समस्या के निवारण के लिए हमें  केवल सरकारी नीतियों के भरोशे न बैठकर जनता को भी जागरूक करना होगा जिससे हम प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस मूल्यवान संसाधन को अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए संजोकर रख पाएं।  गाँवो से शहरो की तरफ होने वाले तीव्र पलायन के कारण शहरो पर अतरिक्त जनसंख्या दवाब बढ़ रहा है इस जनसंख्या दवाब के कारण शहरो में पेयजल की किल्लत साफ़ नज़र आती है । उत्तराखंड के अनेक इलाके ऐसे है जहाँ  पानी भरने के लिए लोगो को घण्टों भर लाइन में रहना पड़ता है यह समस्या केवल शहरो में ही नही बल्कि उत्तराखंड के अनेक पहाड़ी गाँवो की भी है जहा आज भी महिलाए किलोमीटर दूर पैदल चलकर पानी  लाकर अपनी आवश्यकताओ को पूरा करती है । मई जून का महीना आते ही  ज़्यादातर स्रोत सूख जाते है जिससे यह समस्या और बढ़ जाती है ।
पेयजल की इस गंभीर समस्या के निवारण के लिए हमे आधुनिक और पारम्पारिक दोनों तरह के तरीको को अपनाना होगा । हमे पीने योग्य पानी का स्टॉक करना होगा जिसमे वर्षा के जल को स्टॉक करने लिए आधुनिक व परम्परागत दोनों ५तरह के तरीको को अपनाना होगा । परम्परागत तरीको में कुँए ,तालाबो को जगह जगह पर बनाने जाने चाहिए ।

वर्षा जल संरक्षण—— वर्षा के जल को संरक्षण कर हम पेयजल की किल्लत को कम कर सकते है । बरसात के दो तीन महीनो में एकत्रित जल को हम वर्षभर के लिए प्रयोग में ला सकते है । बारिश के जल को सग्रहण करने के अनेक परम्परागत एव आधुनिक तरीके है परम्परागत तरीको में हम तालाब ,कुँए  आदि को बना सकते है
निसन्देह, वर्षाजल एक अनमोल प्राकृतिक उपहार है जो प्रतिवर्ष लगभग पूरी पृथ्वी को बिना किसी भेदभाव के मिलता रहता है। परन्तु समुचित प्रबन्धन के अभाव में वर्षाजल व्यर्थ में बहता हुआ नदी, नालों से होता हुआ समुद्र के खारे पानी में मिलकर खारा बन जाता है। अतः वर्तमान जल संकट को दूर करने के लिये वर्षाजल संचय ही एक मात्र विकल्प है। यदि वर्षाजल के संग्रहण की समुचित व्यवस्था हो तो न केवल जल संकट से जूझते शहर अपनी तत्कालीन ज़रूरतों के लिये पानी जुटा पाएँगे बल्कि इससे भूजल भी रिचार्ज हो सकेगा। अतः शहरों के जल प्रबन्धन में वर्षाजल की हर बूँद को सहेजकर रखना जरूरी है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही जल संचय की परम्परा थी तथा वर्षाजल का संग्रहण करने के लिये लोग प्रयास करते थे। इसीलिये कुएँ, बावड़ी, तालाब, नदियाँ आदि पानी से भरे रहते थे। इससे भूजल स्तर भी ऊपर हो जाता था तथा सभी जलस्रोत रिचार्ज हो जाते थे। परन्तु मानवीय उपेक्षा, लापरवाही, औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण ये जलस्रोत मृत प्रायः हो गए। कई जलस्रोत तो कचरे के गड्ढे के रूप में बदल गए। कई जलस्रोतों पर अवैध कब्जे हो गए। मिट्टी और गाद भर जाने से उनकी जल ग्रहण क्षमता समाप्त हो गई और समय के साथ वे टूट-फूट गए। अभी भी समय है कि इनमें से कई परम्परागत जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करके उन्हें बचाया जा सकता है। वर्षाजल के संचय से इन जलस्रोतों को सजीव बनाया जा सकता है।

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