जल प्रलय प्रकृति कम ,ग़लत योजनायें व भ्रष्टाचार अधिक ज़िम्मेदार

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        .रानी

 इस समय उत्तर भारत के दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और राजस्थान जैसे राज्य व केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ पिछले दिनों लगातार कई दिनों तक हुई मूसलाधार बारिश की वजह से अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहे हैं। कई राज्यों में तो जल प्रलय जैसी स्थिति बनी हुई है। सैकड़ों लोग बाढ़,भूस्खलन की भेंट चढ़ चुके हैं। हज़ारों गांव पूरी तरह डूबे पड़े हैं। दर्जनों पुल ध्वस्त हो चुके हैं अनेक तटबंध टूट चुके हैं ,दर्जनों राजमार्ग या तो बाढ़ के कारण कट चुके हैं या कई जगह जनता ने पानी निकालने के लिये स्वयं काट दिये हैं। न जाने कितने मकान होटल ,व्यवसायिक केंद्र विभिन्न राज्यों में बह गये या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गये हैं । यह हालात इस समय उपरोक्त राज्यों में विशेषकर हिमाचल प्रदेश,पंजाब,हरियाणा व चंडीगढ़ जैसे देश के विकसित व संपन्न राज्यों में देखने को मिल रहे हैं। तमाम ट्रेन स्थगित हैं , मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण अनेक रूटस की बस सेवाएं रद्द कर दी गयी हैं। तमाम जगहों पर तेज़ जल प्रवाह के चलते गाड़ियां बह गयीं। लोगों के घरों के अंदर पानी प्रवेश कर गया। यहां तक कि तमाम बहु मंज़िला इमारतों की निचली मंज़िल तक डूब गयी। विभिन्न राज्यों में स्कूल कॉलेज अनिश्चित काल के लिये बंद कर दिये गए। मौसम विशेषज्ञों द्वारा बताया जा रहा है कि जहाँ इस भीषण वर्षा का कारण पहाड़ों पर वेस्टर्न डिस्टरबेंस है वहीं पंजाब और हरियाणा में साइक्लोनिक सर्कुलेशन भी इसका मुख्य कारण है। अत्यधिक मानसून ट्रफ़ मध्य भारत से चलकर पंजाब हरियाणा की ओर आया है। गोया तबाही का अभूतपूर्व दृश्य इस समय देखा जा रहा है। और आधुनिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण रखने वाले करोड़ों लोग इस समय इस विपदा के आगे बेबस और लाचार नज़र आ रहे हैं। निःसंदेह इस तबाही का असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा। 

                                               परन्तु लगभग प्रत्येक वर्ष देश के किसी न किसी राज्य व क्षेत्र में वर्षा के दौरान होने वाले जल प्रलय व बाढ़ के बाद इस बार भी यह सवाल कुछ अधिक ऊँचे स्वर में पूछा जाने लगा है कि इस तबाही की ज़िम्मेदार क्या केवल प्रकृति ही है ? या फिर सरकार की ग़लत योजनायें और व्यवस्था में व्याप्त आकंठ भ्रष्टाचार भी इसके लिये ज़िम्मेदार है ? उदाहरण के तौर पर देश में असम और बिहार जैसे राज्यों की गिनती निश्चित रूप से सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित राज्यों में की जाती है। असम और बिहार की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि नदी प्रधान इन राज्यों में लगभग प्रत्येक वर्ष बाढ़ आती ही रहती है। हज़ारों करोड़ रूपये सरकारों द्वारा नदियों के तटबंधों के निर्माण पर ख़र्च किये जाते हैं। परन्तु नदियों का जलस्तर बढ़ते ही इनमें से तमाम तटबंध टूट जाते हैं और उसी जल प्रवाह में बह जाते हैं। इसी तटबंध के निर्माण के नाम पर एक बड़ा घोटाला दशकों से नेताओं,अधिकारीयों व ठेकेदारों की सांठ गाँठ से होता आ रहा है। इसी तरह यह सवाल भी पूछा जाता है कि नदियों पर निर्मित नये पुल या कुछ वर्षों पूर्व बनाये गये वे पुल आख़िर क्यों बह जाते हैं जिन्हें ढोल पीटकर धार्मिक विधि विधान के साथ ‘मंत्रियों के करकमलों’ से उद्घाटित किया जाता है ? जबकि देश में हज़ारों ऐसे पुल अभी भी मौजूद हैं जो अठारवीं शताब्दी में अंग्रेज़ों के द्वारा बनाये गए हैं ?

                                                आज जल प्रलय वाले तमाम इलाक़ों में अधिकांश रेल व भूमिगत अंडर पास पूरी तरह डूबे पड़े हैं। क्या जल भराव के कारण बंद पड़े ऐसे अंडर पास के योजनाकारों से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि यह अंडर पास जल भराव से सुरक्षित क्यों नहीं रह पाते ? ग़ौर तलब है कि वर्षा ऋतू के अतिरिक्त भी देश के तमाम भूमिगत मार्ग सिर्फ़ इसलिये भरे रहते हैं क्योंकि या तो ज़मीन के नीचे से जलस्राव होता रहता है या फिर इनमें पानी की निकासी का समुचित प्रबंध नहीं किया गया है। ऐसे अंडर पास पर ख़र्च किये गये जनता के पैसों की बर्बादी का कौन ज़िम्मेदार है ? आज अनेक राजमार्ग व बाईपास जनता को या तो काटने पड़े या स्वयं बह गये। दोनों ही स्थिति में ज़िम्मेदारी सरकार और योजनाकारों की ही है। ऐसे मार्गों का निर्माण करते समय मार्ग के दोनों तरफ़ की जल निकासी की व्यवस्था योजनाकारों को करनी चाहिये ताकि अतिरिक्त जल की निकासी दूसरी तरफ़ हो सके। परन्तु ऐसा न होने की स्थिति में ही बढ़ से डूबने वाले मार्ग भ्रष्टाचार की छाया में निर्मित होने के चलते स्वयं बह जाते हैं और जहां ग़लत योजनाओं के चलते समुचित जल निकासी नहीं हो पाती वहां इलाक़े के लोग अपने घर गांव व आबादी को बचाने के लिये स्वयं काट देते हैं। 

                                                इसी तरह शहरी इलाक़ों में यहां तक कि  दिल्ली व गुड़गांव जैसे महानगरों तक में, जहां की जनता भारी टैक्स देती है और देश को आधुनिकता की ओर ले जाने में जिसका ज़बरदस्त योगदान है वहां के भी अनेक भूमिगत पास जलमग्न हैं। यहाँ तक कि कुछ समय पूर्व ही जनता को समर्पित किया गया दिल्ली के प्रगति मैदान का अंडर पास जल भराव का शिकार है। सैकड़ों आधुनिक सोसाइटीज़ डूबी पड़ी हैं। शहर या सोसायटी बसाने से पहले जल  निकासी की योजना पहले बनानी होती है। योजना में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि किस क्षेत्र में अधिक जलभराव होता है और कौन से क्षेत्र निचले स्तर के हैं। और साथ ही यह भी कि इन क्षेत्रों से जल निकासी का मार्ग क्या रखना है ?  ऐसे ड्रेनेज सिस्टम प्लान के मद्दे नज़र योजनायें बनाई जाती हैं। परन्तु इस तरह की विस्तृत योजना ईमानदारी से लागू ही नहीं की जाती। अगर शहर के पानी के निकासी के सिस्टम को ठीक से लागू कर दिया जाए तो शहर में पानी जमा होने की 70 से 80 प्रतिशत  समस्या समाप्त हो सकती है।  शहरों में बाढ़ आने का कारण नदी-नालों के किनारे अनाधिकृत बस्तियों का बसना और ड्रैनेज सिस्टम पर ज़रूरत से ज़्यादा दबाव पड़ना भी है। ज़ाहिर है ग़लत योजनाएं और भ्रष्टाचार  ही इसके प्रमुख कारण हैं। इसी तरह प्रत्येक शहरों में स्थानीय निकायों द्वारा नालों व नालियों के निर्माण व उनकी मरम्मत के नाम पर प्रत्येक वर्ष जनता के टैक्स के करोड़ों रूपये ख़र्च किये जाते हैं। परन्तु इसके बावजूद जल निकासी बाधित रहती है। नाले भर जाते हैं या टूट फूट जाते हैं। इनमें घास फूस जम जाती हैं। बेशक ऐसे नालों के जाम होने में जनता भी ज़िम्मेदार है जो बोतलें प्लास्टिक पॉलीथिन और दुनिया भर के कबाड़ नालों व नालियों में बहाती रहती है। परन्तु इन नालों व नालियों का समुचित मज़बूत निर्माण व नियमित सफ़ाई का न हो पाना भी इसके लिये ज़िम्मेदार है।

प्रकृति के प्रकोप का सामना कर पाना निश्चित रूप से मानवीय शक्ति के बूते की बात नहीं परन्तु यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हम भारत को न्यू इण्डिया बनाने या विश्व गुरु बनाने का झूठा ढोल चाहे जितना पीटते रहें कि परन्तु इस जल प्रलय के लिये केवल प्रकृति ही नहीं बल्कि योजनाओं का सही ढंग से न बनाया जाना और घोर भ्रष्टाचार भी इसके लिये अधिक ज़िम्मेदार है। 

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