भोर भये रेवा तीरे,
पावस पवन श्रृंगार किये।
धन्य हुई है मेरी नगरी,
जन-मानस सत्कार किये।।
हर दिन यहां पर प्रफुल्लित आये,
पर्वो की सौगात लिये।
रोज नहाये रेवा जल में,
हम खुशियों सा मधुमास लिये।।
जहं-तहं मन्दिर बने हुए हैं,
रेवा तट का उल्लास लिये।
नित मंत्र जपे ओैर माला फेरे,
भीड़ भक्तों की हर सांस लिये।
व्यथित हृदय सब देख रहा,
मेरा अन्तरमन हाहाकार करें।
कुछ आँख मूंदकर बैठे ढ़ोंगी,
मन में अपना संसार लिये।
आस्थाओं को दबा रहे हैं,
संकीर्ण भाव उनके अवसाद लिये।
अन्तस को जो छू न पाये,
अर्चन पूजन है विवाद लिये।
कुछ अहंकार को पाल रहे हैं,
कुछ व्यर्थ की झूठी शान लिये ।
स्वार्थ पूर्ति में लगे हुए हैं ,
कुछ लोभ द्वेष अभिमान लिये।।
ऐसे निष्ठुर रेवावासी को,
कैसे जग में कोई स्वीकार करें ?
मन दुर्भाग्य दुविधा और व्यथा की,
इनके आओं जलाकर हम शांत करें।
वासनाओंको जलाकर होली,
इनके प्राणों में खलबली एक बार करें।
आओं वीणा के झंकृत सप्तलयी स्वरसा,
जीवन में हम मुस्कान बिखेंरे।
सोहाद्र विश्वास के उजले रंग से, धूमिल
जीवन आकाश उभेंरे।
करूणा प्रेम से दीप्त वसुन्धरा को,
जीवन के हम सब रंग चढ़ाये।
दिव्य आलौकिक रेवा जल में,
आओं प्राणों का हम अध्र्द चढ़ाये।
प्रेम एकता और मानवता से,
हम सब खुशियों से झोली भर लें,
साम्प्रदायिक सद्भाव से हिल-मिल,
हम रेवा जल से जीभर होली खेंले।।
आत्माराम यादव पीव