जब हकीक़त सामने है क्यों फ़साने पर लिखूँ

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जब हकीक़त सामने है क्यों फ़साने पर लिखूँ

है ये बेहतर, दर्द में डूबे ज़माने पर लिखूँ

खेत पर, खलिहान पर, मैं भूख-रोटी पर कभी

बंद होते जा रहे हर कारखाने पर लिखूँ

फूल, भँवरे और तितली की कहानी छोड़कर

आदमी के हर उजड़ते आशियाने पर लिखूँ

ख़त्म होते जा रहे रिश्तों के आँसू पर लिखूँ

आदमी को रौंदकर पैसे कमाने पर लिखूँ

याद तुमको क्यों करूँ मैं, और क्यों करता रहूँ

इक कहानी अब मैं तुमको भूल जाने पर लिखूँ

जिसकी सूरत रात-दिन अब है बिगड़ती जा रही

मैं उसी धरती को अब फिर से सजाने पर लिखूँ

बस्तियों में आम लोगों की ग़रीबी देखकर

कुछ घरों में क़ैद मैं सबके ख़ज़ाने पर पर लिखूँ

सोचता हूँ, तेरे जाने का कोई न ज़िक्र हो

एक दिन एक गीत तेरे लौट आने पर लिखूँ

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