रोहिंग्याओं के प्रति न्यायालय का उदार रुख ?

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प्रमोद भार्गव

किसी भी पीड़ित समुदाय के प्रति उदारता मानवीय धर्म है, लेकिन जब अवैध रूप से देश में घुसकर आए समुदाय के प्रति राष्ट्रीय सुरक्षा एंजेसियां सुरक्षा को लेकर खतरा बता रही हों, तो ऐसी उदारता देश के लिए भविष्य में घातक साबित हो सकती है ? रोहिंग्या घुसपैठिए बनाम शरणार्थियों के सवाल अपनी जगह जायज हो सकते हैं, किंतु देश की उदार छवि के बहाने देश के नागरिकों के संसाधनों को विदेशी घुसपैठियों के हवाले कर देना आर्थिक सुरक्षा से भी खिलवाड़ होगा ? यह भारत की उदार संवैधानिक व्यवस्था में ही संभव है कि घुसपैठियों की भी बात सर्वोच्च न्यायालय में वैधानिक प्रक्रिया के तहत सुनी जा रही है, जबकि वे भारतीय नागरिक ही नहीं हैं। संभवतः यह निश्चित ही नहीं है कि क्या ऐसे मामले न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आते भी हैं या नहीं ? इसके उलट केंद्र सरकार की दलील है कि इस संबंध में निर्णय लेना पूरी तरह कार्यपालिका के दायरे में है। गोया न्यायालय को दखल नहीं देना चाहिए, अन्यथा यह हस्तक्षेप न्यायिक सक्रियता के बहाने कार्यपालिका में बेजा दखल माना जाएगा।

म्यांमार में सेना के दमनात्मक रवैये और पड़ोसी बांग्लादेश सरकार का रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध सख्त रवैये के चलते भारत इस समस्या से  मुश्किल में आ गया है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना कि इनके प्रति संतुलित रवैया अपनाया जाए, क्योंकि हमारा संविधान मालवीय मूल्यों पर आधारित है। हालांकि न्यायालय ने यह भी कहा है कि देश की सुरक्षा अनिवार्य है और उसके आर्थिक हितों का ख्याल भी रखा जाना चाहिए। अदालत के यह दिषा-निर्देश भले ही विधायिका और कार्यपालिका के लिए हैं, लेकिन हकीकत तो यह है कि न्यायालय के समक्ष भी यह जटिल सवाल खड़ा हुआ है कि वह देश की सुरक्षा और आर्थिक पहलू को अहम् माने अथवा इस मुद्दे को मानवता की दृष्टि से देखे ? मानवीयता का मुद्दा किसी भी हाल में देश की सुरक्षा से बड़ा नहीं हो सकता है ? मानवीयता तब और बेमानी हो जाती है जब मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी से चार लाख गैर मुस्लिमों को आतंक के चलते बेदखल कर दिया जाता है और इसी घाटी में रोहिग्ंया मुसलमानों को शरण देने में अलगाववादी कोई आपत्ति नहीं जताते हैं। जिन 40,000 रोहिंग्याओं के पक्ष में अदालत उदारता की दरकार में लगी है, उस न्यायपालिका ने इन चार लाख विस्थापित हिंदूओं को कश्मीर के मूल नागरिक होते हुए भी इनके पुनर्वास की सख्ती से पहल की हो, ऐसा देखने-सुनने में नहीं आया है।

पिछले पांच साल में भारत में रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई हैं। जम्मू-कश्मीर में 15,000 और आंध्रप्रदेश में 3800 से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमानों ने अवैध रूप से घुसपैठ करके शरण ले रखी है। ये शरणार्थी भारत छोड़ने को तैयार नहीं हैं। जबकि भारत के पड़ोसी देश म्यांमार में रोहिंग्या विद्रोहियों और सेना के बीच टकराव थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस टकराव में अब तक 400 से भी ज्यादा रोहिंग्याओं की मृत्यु हो चुकी है। सेना ने इन्हें ठिकाने लगाने के लिए जबरदस्त मुहिम छेड़ रखी है। नतीजतन चार लाख से भी ज्यादा रोहिंग्या म्यांमार से पलायन कर चूके हैं। म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध धर्मावलंबी है। जबकि इस देश में एक अनुमान के मुताबिक 11 लाख रोहिंग्या मुस्लिम रहते हैं। इनके बार में धारणा है कि ये मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। इन्होंने वहां के मूल निवासियों के आवास और आजीविका के संसाधनों पर जबरन कब्जा कर लिया है। इस कारण सरकार को इन्हें देश से बाहर निकालने को मजबूर होना पड़ा है। बौद्ध एवं हिंदू महिलाओं व बच्चों के साथ, इनके दुराचार के भी अनेक मामले सामने आ चुके हैं।

कुछ दिनों पहले गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू ने संसद में जानकारी दी थी, कि सभी राज्यों को रोहिंग्या समेत सभी अवैध शरणार्थियों को वापस भेजने का निर्देश दिया है। सुरक्षा खतरों को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है। आशंका जताई गई है कि 2015 में बोधगया में हुए बम विस्फोट में पाकिस्तान स्थित आंतकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा ने रोहिंग्या मुस्लिमों को आर्थिक मदद व विस्फोटक सामग्री देकर इस घटना को अंजाम दिया था। जम्मू के बाद सबसे ज्यादा रोहिंग्या शरणार्थी हैदराबाद में रहते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें जम्मू-कश्मीर में रह रहे म्यांमार के करीब 15,000 रोहिंग्या मुसलमानों की पहचान करके उन्हें अपने देश वापस भेजने के तरीके तलाश रही है। रोहिंग्या मुसलमान ज्यादातर जम्मू और साम्बा जिलों में रह रहे हैं। ये लोग म्यांमार से भारत-बांग्लादेश सीमा, भारत-म्यांमार सीमा या फिर बंगाल की खाड़ी पार करके अवैध तरीके से भारत आए हैं। आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के अलावा असम, पश्चिम बंगाल, केरल और उत्तर प्रदेश में कुल मिलाकर लगभग 40,000 रोहिंग्या भारत में रह रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर देश का ऐसा प्रांत है, जहां इन रोहिंग्या मुस्लिमों को वैध नागरिक बनाने के उपाय स्थानीय सरकार द्वारा किए जा रहे हैं। इसलिए अलगाववादी इनके समर्थन में उतर आए हैं। इसी प्रेरणा से श्रीनगर, जबलपुर और लखनऊ में इनके पक्ष में प्रदर्शन भी हुए हैं। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को प्रस्तुत शपथ-पत्र में साफ कहा है कि रोहिंग्या शरणार्थियों को संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत देश में कहीं भी आने-जाने, बसने जैसे मूलभूत अधिकार नहीं दिए जा सकते हैं। ये अधिकार सिर्फ देश के नागरिकों को ही हैं। इन अधिकारों के संरक्षण की मांग को लेकर रोहिंग्या सुप्रीम कोर्ट में गुहार भी नहीं लगा सकते, क्योंकि वे इसके दायरे में नहीं आते हैं। जो व्यक्ति देश का नागरिक नहीं है, वह देश की अदालत से शरण कैसे मांग सकता है ? इनका देश में रहना सुरक्षा को गंभीर खतरा है। 2012 से देश में इन्होंने अवैध तरीकों से प्रवेश किया। कई ने पैन कार्ड व वोटर आईडी भी बनवा लिए हैं। लेकिन विधायिका जिस मूलभूत सिद्धांत की बात कर रही है, दरअसल उसे न तो संविधान में परिभाषित किया गया है और न ही अब तक सुप्रीम कोर्ट ने इसे परिभाषित किया है। लिहाजा सर्वोच्च न्यायालय सरकार के किसी भी कानून या फैसले को यह कहकर दरकिनार कर सकता है कि यह संविधान की मूलभावना के विरुद्ध है। इस प्रकरण में भी न्यायालय कह रहा है कि हमारा संविधान मानवीय मूल्यों पर आधारित है, इसलिए रोहिंग्याओं के मानवीय पक्ष का ध्यान रखना जरूरी है।

इसी पहलू के बूते पांच साल से भी ज्यादा वर्षों से रह रहे शरणार्थियों ने भारत सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट से मानवीय आधार पर वापस भेजने की योजना को टालने का अनुरोध किया है। क्योंकि म्यांमार और बांग्लादेश इन रोहिंग्याओं को भारत सरकार के कहने पर भी किसी भी हाल में वापस लेने को तैयार नहीं हैं। ऐसी परिस्थिति में संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठन भारत पर दबाव डाल रहे हैं कि वह इन मुसलमानों को योजनाबद्ध तरीके से भारत में बसाने का काम करे। जबकि इसके उलट मानवाधिकार समूह ह्यूमन राइट्स वाॅच ने हाल ही में उपग्रह द्वारा ली गई तस्वीरों के आधार पर दावा किया है कि म्यांमार की सेना ने रोहिंग्याबहुल करीब 3,000 गांवों में आग लगा दी हैं। जिनमें से 700 से भी ज्यादा घर जलकर तबाह हो गए हैं। इस सैन्य अभियान के कारण 40,000 रोहिंग्या मुसलमान बांग्लादेश की सीमा पर डेरा डाले हुए हैं और 20,000 से भी ज्यादा रोहिंग्या शरणार्थी म्यांमार व बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाकों में फंसे हैं। इस हकीकत के समाचार भी टीवी और अखबारों में आ चुके हैं। इस हकीकत से रूबरू से होने के बाबजूद संयुक्त राष्ट्र और ह्यूमन राइट्स वाॅच, म्यांमार पर तो कोई नकेल नहीं कस पा रहे हैं, किंतु भारत पर इन घुसपैठियों पर सिलसिलेबार बसाने का दबाव बना रहे हैं। कमोवेश इसी रुख का समर्थन करती सुप्रीम कोर्ट दिख रही है। इन रोहिंग्याओं के हित में सबसे उचित स्थिति तो यह होगी कि म्यांमार के हिंसाग्रस्त रखाइन प्रांत में इनकी वापसी के लिए दबाव बने और जब तक स्थिति सुधर नहीं जाती है तब तक इन्हें भारत-म्यांमार की सीमा पर पहुंचाकर इनकी बुनियादी जरूरतें भारत सरकार पूरी करती रहे और फिर स्थिति सामान्य होते ही इन्हें म्यांमार भेज दिया जाए।

 

 

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