“देश व विश्व से क्या कभी धर्म विषयक अविद्या दूर होगी?”

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मनमोहन कुमार आर्य

आज का युग ज्ञान व विज्ञान का युग है। ज्ञान व विज्ञान दिन प्रतिदिन उन्नति कर रहे हैं। मनुष्यों का ज्ञान निरन्तर बढ़ रहा है परन्तु जब सत्य धर्म की बात करते हैं तो हमें दो प्रकार के मत मुख्यतः ज्ञात होते हैं। एक ईश्वर व आत्मा नामी चेतन पदार्थों को मानने वाले हैं और दूसरे इन्हें न मानने वाले हैं। प्रथम को हम आस्तिक मत कहते हैं दूसरी श्रेणी के मनुष्यों को वाममार्गी व नास्तिक कहते हैं। आश्चर्य केवल इस बात का है कि वैदिक धर्मी आर्यसमाज को छोड़कर कोई नास्तिक व आस्तिक मत का आचार्य व उनके अनुयायी अपने अज्ञान को दूर करने की चेष्टा व प्रयत्न नहीं करते। आज के युग में यह आश्चर्य ही कहा जा सकता कि हमें सत्य ज्ञान का पता उपलब्ध होने पर भी हम उसकी उपेक्षा और अवहेलना करते हैं और अज्ञान के युग मध्यकाल में उत्पन्न मत-मतान्तरों व उनकी सत्य व असत्य परम्पराओं को उसी रूप में मानते चले आ रहे हैं। स्थिति न्यूनाधिक यह है कि प्रचलित मत-मतान्तरों की मान्यताओं में किसी प्रकार का संशोधन व परिवर्तन, भले ही वह सत्य ही हो, नहीं किया जा सकता है। यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है।

 

अविद्या क्या होती है? इसका उत्तर है कि किसी वस्तु के सत्य वा यथार्थ स्वरूप को मानना और जो सत्य, यथार्थ वास्तविक स्वरूप नहीं है उसे मानना स्वीकार करना अविद्या है। हमने जब से होश सम्भाला है तब से हम इस संसार को देखते चले आ रहे हैं। न विज्ञान और न ही अनेक मतों के आचार्य इस बात का उत्तर देते हैं कि यह ब्रह्माण्ड वा संसार कैसे अस्तित्व में आया अथवा यह कैसे बना है? कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि यह अपने आप बन गया है। क्या ऐसा सम्भव है? कदापि नहीं। संसार का स्वमेव बनना सर्वथा असम्भव है। संसार में ऐसी कोई बुद्धिपूर्वक उपयोगी रचना नहीं है, जो अपने आप बन जाती हो। संसार में हजारों साईकिल, स्कूटर, मोटर साईकिल, कार, बस, रेलगाड़ी व वायुयान आदि मशीनें है जो हमारे लिए उपयोगी हैं। यह रचनायें हमारे वैज्ञानिकों, तकनीशियनों और कार्मिकों ने बुद्धिपूर्वक अर्थात् ज्ञान का प्रयोग कर की है। लाखों व करोड़ों की संख्याओं में रचनायें होने पर भी इनमें से कोई एक वाहन भी अपने आप बिना किसी मानवीय क्रिया पद्धति के नहीं बना। एक एक साधारण रचना को भी बनाना पड़ता है। यदि एक साईकिल या सूई अपने आप नहीं बन सकती तो यह विशाल व अनन्त ब्रह्माण्ड भी अपने आप नहीं बन सकता। इसलिये यह सिद्ध होता है कि यह ब्रह्माण्ड किसी अदृश्य सत्ता के द्वारा बनाया गया है। अब यह जानना है कि जिसने इस ब्रह्माण्ड वा चराचर जगत को बनाया है उस सत्ता का स्वरूप कैसा है? इसका निर्धारण हम वेदों व वैदिक साहित्य को पढ़कर भी कर सकते हैं और अपनी बुद्धि से भी कर सकते हैं।

 

हमारा यह ब्रह्माण्ड विशाल व अनन्त है अतः इसको बनाने वाला भी विशाल व अनन्त होना चाहिये। तभी वह इस रचना को कर सकता है। दूसरी बात यह है कि उस विशाल सृष्टिकर्ता सत्ता को हम व्यापक या सर्वव्यापक कहेंगे। वैज्ञानिकों ने इस तथ्य को जाना है कि इस ब्रह्माण्ड का किसी ओर भी कोई छोर, आरम्भ व अन्त नहीं है। चारों ओर यह अनन्त दूरी तक विद्यमान है। इससे ईश्वर को सर्वव्यापक मानना पड़ता है व वह इस कारण से सिद्ध है। जो वस्तु सर्वव्यापक होगी वह स्थूल न होकर सूक्ष्म होगी। यदि स्थूल होगी तो फिर वहां अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व व निवास नहीं हो सकता। अतः संसार को देखकर ईश्वर की सत्ता सर्वातिसूक्ष्म सिद्ध होती है। किसी छोटी से छोटी वस्तुत को बनाने के लिए भी ज्ञान व अनुभव की आवश्यकता होती है। संसार जैसी विशाल रचना के लिए सर्वव्यापक सत्ता का पूर्ण ज्ञानी होना भी आवश्यक है। पूर्ण ज्ञानी सत्ता को सर्वज्ञ कहते हैं। अतः ईश्वर सर्वज्ञ सिद्ध होता है। ऋषि दयानन्द ने वेदों में ईश्वर के सभी विशेषणों को संसार में घटा कर देखा तो वह सभी सत्य पाये। अतः उन्होंने ईश्वर के स्वरूप विषयक यह नियम दिया है ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। इस नियम में जो बातें कहीं गई हैं उन पर विचार करने पर वह सभी सत्य एवं यथार्थ सिद्ध होती हैं। लोग ईश्वर के इस स्वरूप को मानने में इसलिये आपत्ति करते हैं कि यदि ईश्वर है तो वह दिखाई क्यों नहीं देता? इसका उत्तर दिया जाना आवश्यक है।

 

ईश्वर दिखाई क्यों नहीं देता? इसका उत्तर है कि ईश्वर अत्यन्त व सर्वातिसूक्ष्म है। उदाहरण यह है कि सभी भौतिक पदार्थ सूक्ष्म परमाणुओं से मिलकर बने होते हैं। एक से अधिक परमाणुओं से अणु और अणुओं के समूह को तत्व व पदार्थ कहते हैं। इन परमाणु व अणुओं को वैज्ञानिक भी जानते व मानते हैं परन्तु यह उन्हें भी दृष्टिगोचर नहीं होते। अणु व परमाणु तो क्या परमाणु में जो इलेक्ट्रान, प्रोटान एवं न्यूट्रोन आदि कण होते हैं वह तो परमाणु से भी अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं, उन्हें तो देखने का प्रश्न ही नहीं है। ऐसे अनेक कारण हैं जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि किसी पदार्थ का आंखों से दिखाई न देना उसके अस्तित्व के न होने को सिद्ध नहीं करता है। अतः ईश्वर का आंखों से दिखाई न देना इस बात का प्रमाण नहीं है कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है। ईश्वर है और वह वैसा ही है जैसा वेदों में वर्णित है और जो तर्क व युक्तियों से भी सिद्ध है।

 

ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति, संसार में इन तीन पदार्थों का अस्तित्व अनादि काल से है और इनके अविनाशी होने से अनन्त काल तक रहेगा। यह तत्व वा पदार्थ न उत्पन्न होते हैं और न ही नाश अर्थात् अभाव को प्राप्त होते हैं। ईश्वर का मूल स्वरूप सदैव एक समान रहता है उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन आदि नहीं होता। जीवात्मा संख्या में अनन्त हैं परन्तु ईश्वर को उनका पूरा पूरा ज्ञान है। यह जीवात्मा भी सत्य व चेतन स्वरूप है। एकदेशी होने से जीवात्मा अल्पज्ञ हैं। इसके पास अपने कर्मों की पूंजी होती है जिसे प्रारब्ध व संचित कर्म भी कहते हैं। इन कर्मों के भोग के लिए ही ईश्वर इस सृष्टि को बनाता है और जीवों को उनके प्रारब्ध वा संचित कर्मों के अनुसार मनुष्यादि नाना योनियों में से किसी एक योनि में, जो उसके प्रारब्ध के अनुसार होती है, जन्म देता है। पुराने कर्मों का भोग और मनुष्य योनि में नये कर्मों का किया जाना, यह दोनों साथ साथ चलते रहते हैं। यही ईश्वर से सृष्टि की रचना किये जाने का कारण है जिसका उल्लेख वेदों में ईश्वर ने दिया है और इसके साथ हमारे दर्शनकारों ने भी इसका विश्लेषण कर इसे सत्य पाया है और इसका उल्लेख अपने दर्शन ग्रन्थों में किया है। यह भी जान लें कि यह संसार अर्थात् भौतिक जगत सत्व, रजस् व तमस् गुणों वाली सूक्ष्म त्रिगुणात्मक प्रकृति से बना है। मूल प्रकृति का पहला विकार महत्तत्व होता है तथा दूसरा विकार अहंकार नाम से कहा जाता है। ऋषियों ने योग द्वारा समाधिस्थ अवस्था में इन विकारों का साक्षात्कार कर इनका उल्लेख व विधान अपने ग्रन्थों में किया है। इसके बाद अन्य विकार व रचनायें होती है। ऋषि दयानन्द ने इनका वर्णन करते हुए सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में लिखा है अहंकार से भिन्नभिन्न पांच सूक्ष्मभूत, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां वाक्, हस्त, पांद, उपस्थ और गुदा ये पांच कर्मइन्द्रियां हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत (पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश) जिन को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं उत्पन्न होते हैं। उन से नाना प्रकार की ओषधियां, वृक्ष आदि, उन से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती। क्योंकि जब स्त्री पुरुषों के शरीर परमात्मा बना कर उन में जीवों का संयोग कर देता है तदनन्तर मैथुनी सृष्टि होती है।

 

हमने संक्षेप से विद्या से जुड़े कुछ तथ्यों को प्रस्तुत किया है जो बुद्धि, तर्क, युक्ति, वेद और इतर शास्त्रों से सिद्ध हैं। मत-मतान्तरों में इसके विपरीत अज्ञानता की बातें विद्यमान हैं परन्तु मत-मतान्तरों के आचार्य इन पर विचार व शंका समाधान कर सत्य विद्या के अनुसार अपने ग्रन्थों का सुधार करने में तत्पर नहीं है। इस अविद्या को दूर करने का ऋषि दयानन्द ने प्रचार व ग्रन्थ लेखन आदि द्वारा प्रयत्न किया था परन्तु मत-मतान्तरों के आचार्यों ने अपनी अविद्या के कारण इस पर ध्यान नहीं दिया। इससे यही अनुमान होता है कि ईश्वर यदि मनुष्यों के मनों में सत्य विद्या का प्रकाश नहीं करेगा तो अविद्या दूर नहीं होगी। इस अविद्या को दूर करने के लिए ही परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया था और उनके बाद आप्त विद्वानों ऋषियों ने विद्या के ग्रन्थ बनाये जो मुख्यतः दर्शन व उपनिषदों के रूप में विद्यमान हैं। प्रश्न है कि क्या यह विद्या कभी दूर वा समाप्त होगी? इसका निश्चय पूर्वक उत्तर देना कठिन है। अविद्या दूर होना सम्भव कोटि में आता है। यह दूर हो सकती है परन्तु इसके लिए सभी मतों के आचार्यों को अविद्या दूर करने के लिए संकल्पबद्ध होना पड़ेगा। ऐसा होना सरल नहीं है। वर्तमान में जिस गति से विश्व की जनसंख्या बढ़ रही है और कुछ मतों में धार्मिक कट्टरता में वृद्धि हुई व हो रही है, उससे अनुमान करना कि आने वाले वर्षों में यह दूर होगी, निश्चय से नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में ईश्वर ने जिन मनुष्यों की आत्माओं में ज्ञान का प्रकाश किया है और जो वैदिक सत्य नियमों को मानते हैं, उन्हें स्वयं वैदिक सत्य सिद्धान्तों को मानते हुए देश देशान्तर में वैदिक ज्ञान को पहुंचाना होगा। पुरुषार्थ से सब असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं। ज्ञानी लोग अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि के लिए पुरुषार्थ करें। इसका सकारात्मक कुछ न कुछ प्रभाव तो अवश्य ही होगा। शेष हमें ईश्वर पर छोड़ देना चाहिये। ईश्वर जो करेंगे वह अच्छा ही करेंगे।

 

 

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