“भ्रान्ति-निवारण पुस्तक से चुने ज्ञानवर्धक व मार्गदर्शक ऋषि-वचन”

0
148

 

मनमोहन कुमार आर्य

हमने इससे पूर्व ऋषि दयानन्द जी के लघु-ग्रन्थ भ्रान्ति-निवारण से 25 चुने हुए ऋषि वचनों को प्रस्तुत किया था। आज हम इसी पुस्तक के शेष ऋषि वचनों को आपके लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

26-  चारों वेदों में एक से दूसरा ईश्वर कहीं प्रतिपादन नहीं किया है तथा इन्द्र, अग्नि और प्रजापति आदि शब्दों से ईश्वर और भौतिक (पदार्थों) दोनों का प्रतिपादन किया है।

 

27-  परमेश्वर ही अग्नि आदि सब व्यवहार के देवताओं का रचन, पालन और विनाश करने वाला है।

 

28-  जब प्रथम अग्नि से होम किया जाता है और उससे सब द्रव्यों के रस और जल आदि के परमाणु पृथक्-पृथक् हो जाते हैं तब वे हलके होके सूर्य के आकर्षण से वायु के साथ मेघमण्डल में जाकर रहते हैं। फिर वे ही मेघाकार संयुक्त होकर वृष्टि द्वारा पृथ्वी आदि मध्यस्थ देवसंज्ञक व्यवहार के पदार्थों को पुष्ट करते हैं। इसका नाम ‘भाग’ और ‘बलिदान’ है तथा इसी कारण अग्नि को प्रथम और सूर्य को अन्त में माना है। ऐसे ही अग्नि को सूक्ष्म और सूर्यलोक को अग्नि का बड़ा पुंज समझा है।

 

29-  अग्नि शब्द से मैं परमेश्वर और भौतिक दोनों अर्थों को लेता हूं सो वेदादिशास्त्रों के प्रमाण से निर्भ्रमता के साथ सिद्ध है।

 

30-  (शतपथ ब्राह्मण 14/6/7/7 के अनुसार) गौतम ऋषि से याज्ञवल्क्य ऋषि कहते हैं कि हे गौतम जी! जो पृथिवी में ठहर रहा है और उससे पृथक् भी है तथा जिसको पृथिवी नहीं जानती, जिसके शरीर के समान पृथवी है, जो पृथिवी में व्यापक होकर उसको नियम में रखता है, वही परमेश्वर अमृत अर्थात् नित्यस्वरूप तेरी जीवात्मा का अन्तर्यामी आत्मा है।

 

31-  सब मन्त्रों का देवता परमेश्वर इस अभिप्राय से है कि सब देवों का देव पूजनीय और उपासना योग्य एक अद्वितीय ईश्वर ही है।

 

32- सब जगत् को ब्रह्म मानना तथा ब्रह्म को जगत्रूप समझना यह हिन्दुओं की बात होगी, आर्यो की नहीं। हम लोग आर्यावर्तवासी ब्राह्मण आदि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमस्थ ब्रह्मा से लेकर आज पर्यन्त परमेश्वर को वेद रीति से ऐसा मानते चले आये हैं कि वह शुद्ध, सनातन, निर्विकार, अज, अनादिस्वरूप (सहित) जगत् के कारण (सत्, रज और तम रूपी त्रिगुणात्मक प्रकृति) से कार्यरूप जगत् का रचन-पालन और विनाश करनेवाला है।

 

33-  हिन्दू उसको कहते हैं कि जो वेदोक्त सत्यमार्ग से विरुद्ध चले।

 

34- ब्रह्म खल्विदं वाव सर्वम् (मैत्रायण्युपनिषद् प्रपा0 4/6) का अर्थ इस प्रकार से है कि ब्रह्म केवल एक चेतन मात्र तत्व है।

 

35-  जैसे कार्यजगत् के संघातों में अनेक तत्वों का मेल है वैसे ब्रह्म में नहीं है, किन्तु वह (कार्यजगत से) भिन्न वस्तु है। तथा तात्स्थ्योपाधि से यह सब जगत् ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मस्थ है और ब्रह्म सर्व विश्वस्थ भी है।

 

36-  विद्वान् पुरुष अपने आत्मा में ब्रह्म की उपासना, ध्यान और उसी की अर्चा कर अपने हृदय के सब दोषों को अलग करे। इसके उपरान्त जब अपने अन्तःकरण से शुद्ध होकर मुक्ति पा चुकता है तब वह उन तनुओं सहित उपरि सब लोकों के बीचों-बीच रहता हुआ अन्त में परमेश्वर की सत्तामात्र को प्राप्त हो जाता है। सब मुक्त पुरुषों के समीप रहता हुआ अकथनीय परम आनन्द में किलोल करता है।

 

37-  (वेदों में आये) अग्नि आदि नामों से व्यवहारोपयुक्त पदार्थ और पारमार्थिक उपास्य परमेश्वर दोनों ही का यथावत् ग्रहण होता है।

 

38-  जिस-जिस पदार्थ में जो जो गुण होते हैं उन का यथावत् प्रकाश करना स्तुति कहाती है। सो जड़ और चेतन दोनों में यथावत् घटती है।

 

39-  अग्नि आदि संसारी पदार्थों में भी ईश्वर की रचना होने से अनेक दिव्य गुण हैं कि जिनके प्रकाश के लिये वेदों में उन पदार्थों के अग्न्यादि कई-कई नाम लिखे हैं तथा वे ही नाम गुणानुसार एक अद्वितीय परमेश्वर के भी हैं। उन्हीं पृथक्-पृथक् गुणयुक्त नामों से परमेश्वर की स्तुति होती है तथा उसी के वेदों में सर्वसुखदायक स्वयंप्रकाश सत्यज्ञान-प्रकाशक नाना प्रकार के व्याख्यान लिखे हैं।

 

40-  जैसे भौतिक अग्नि का काम व्यवहारिक देवताओं को हवि चढ़ाना वा पहुंचाना है तथा मन्त्र देव और दिव्य गुणों को जगत् में प्राप्त करना है वैसे ही सब जीवों को पाप-पुण्य के फल पहुंचाना, और ज्ञान-आनन्दादि मोक्षरूप यज्ञ में धार्मिक विद्वानों को हर्षयुक्त कर देना परमेश्वर का काम है।

 

41-  सब शुभ कर्मों में परमेश्वर ही की स्तुति करना सब को उचित है।

 

42-  बिना वेदविद्या के ज्ञान के अग्नि आदि पदों के भौतिक पारमार्थिक अर्थों की परीक्षा करना बालकों का खेल नहीं।

 

43-  एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निम्0’ अर्थात् एक शब्द से विद्वान लोग पर-ब्रह्म की वेदमन्त्र अग्न्यादि नामों से अनेक प्रकार की स्तुति करते हैं।

 

44-  बिना पठनाभ्यास के कोई कैसा भी बुद्धिमान् क्यों न हो, उसको गूढ़ शब्दों का यथावत् अर्थ जानने में कठिनता पड़ जाती है।

 

45-  वह परमेश्वर भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल में एकरस रहता है अर्थात् जब-जब जगत् हुआ था, है और होगा, तब-तब वह तदक्षरे परमे व्योमन् सर्वव्यापक, आकाशवत्, विनाशरहित परमेश्वर में स्थित होता है। क्योंकि येनावृतं खं दिवं महीं 0’ इत्यादि, जिसने आकाश सूर्यादि लोक और पृथिव्यादियुक्त जगत् को अपनी व्याप्ति से आवृत कर रक्खा है, येन जीवान् व्यवससर्ज भूम्याम् (तैत्तिरीय आरण्यक 10/1/1) जो कि जीवों को कर्मानुसार फल भोगने के लिये भूमि में जन्म देता है, अतः परं नान्यदणीयमस्ति जिससे परे सूक्ष्म वा बड़ा कोई पदार्थ नहीं है तथा जो सबसे पर एक अद्वितीय अव्यक्त और अनन्तस्वरूपादि विशेषणयुक्त है, तदेवावर्त्तत्तदु सत्यमाहुस्तदेव ब्रह्म परमं कवीनाम् वही एक यथार्थ नित्य एवं चेतन तत्वमय है। वही सत्य वही ब्रह्म तथा विद्वानों का उपास्य परमोत्कृष्ट इष्ट देवता है। और तदेवाग्नि0’ अर्थात् वही परमेश्वर अग्न्यादि नामों का वाच्य है। ‘सर्वे निमेषा जज्ञिरे0’ इत्यादि, जिससे (उस परमेश्वर से) सब काल-चक्रादि पदार्थ उत्पन्न हुए हैं।

 

46-  उस परमेश्वर का स्वरूप इयत्ता से दृष्टि में नहीं आ सकता अर्थात् कोई उसको आंख से नहीं देख सकता किन्तु जो धार्मिक विद्वान् अपनी बुद्धि से अन्तर्यामी परमात्मा को आत्मा के बीच में जानते हैं, वे ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं।

 

47-  जब आग्रह छोड़ के विद्या की आंख से मनुष्य देखता है तब उस को सत्यासत्य का ज्ञान यथावत् होता है और जब इस प्रकार की ठीक-ठीक विद्या ही नहीं, तो उसको सत्यासत्य का विवेक कभी नहीं हो सकता।

 

48-  हे अग्ने परमेश्वर! आप महान=सबसे बड़े हैं और बड़े होने से ‘ब्राह्मण’ तथा प्रजा को धारण करने से ‘भारत’ कहाते हैं और विद्वानों के लिये सब उत्तम पदार्थों का धारण करते हैं इसलिये भी आपका नाम ‘भारत’ है।

 

49-  यह होम करने वाला वा परमेश्वर का उपासक सब के बलकारक प्राण को शरीर में वा मोक्षस्वरूप अन्तर्यामी ब्रह्म के बीच में धारण करता है क्योंकि सब के प्राण सामान्य से परमेश्वर की सत्ता में ठहर रहे हैं। इससे सब का आत्मा प्राण के बीच में है, और मनुष्य के प्राण की अपेक्षा व्यवहार दशा में है।

 

50-  प्राण, अग्नि, परमात्मा ये तीनों नाम एकार्थवाची हैं। 

 

51-  परमेश्वर अग्नि और सूर्य के समान सर्वत्र तप रहा है। सब विद्वान् लोग (उस परमेश्वर को) जानने की इच्छा करते और खोजते हैं। जो सब प्राणियों को अभयदान देके विषयों से इन्द्रियों को रोक के एकान्त देश में समाधिस्थ होकर इसी मनुष्य शरीर में जिसको प्राप्त होते हैं, वह परमेश्वर विश्वरूप है। अर्थात् जिसका स्वरूप विश्व में व्याप्त हो रहा है और सब पापों को नाश करनेवाला (है), उसी (परमेश्वर) से वेद प्रकाशित हुए हैं।

 

52-  परमेश्वर सब जगत् को उत्पन्न करके उसका धारण और पोषण करता है। इसी परमेश्वर को संसारी जन इष्ट-देव मानकर अपने आत्माओं में धारण करते हैं।

 

हमने ऋषि के लघु-ग्रन्थ भ्रान्तिनिवारण से उनके महत्वपूर्ण, प्रभावशाली, उपयोगी व संग्रहणीय वचनों को चुन कर दो किश्तों में प्रस्तुत किया है। उपर्युक्त ऋषि-वचनों में हमनें कुछ स्थानों पर पाठकों की सुविधा का ध्यान करते हुए अर्थ को स्पष्ट करने के लिए सम्पादन भी किया है। इससे पाठकों को ऋषि वचनों को समझने में लाभ होगा। यदि पाठक ‘भ्रान्ति-निवारण’ पुस्तक पढ़ना चाहें तो वह इसके लिए परोपकारिणी सभा, अजमेर व अन्य आर्यसंस्थाओं के द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक को मंगा कर अध्ययन करें। हम आशा करते हैं हमारे मित्रों को हमारा उपर्युक्त ऋषि वचनों का संग्रह उपयोगी लगेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here