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अनुराधा की मौत आधुनिक समाज पर तमाचा

शादाब जफर ”शादाब”

कहते है कि इन्सान एक सामाजिक प्राणी है। अल्लाह ने इन्सान को दुनिया में सब चीजों में श्रेष्ट बनाया है। पर आज इन्सान का इन्सान के प्रति जो नजरिया सामने आ रहा है उससे नहीं लगता कि आज इन्सान इन्सान कहलाने के लायक रहा है। क्योंकि ये सब बाते गुजरे जमाने की कहानियों और किस्सों में सुनने सुनाने तक ही रह गई है। आज आधुनिक समाज में रिश्‍ते-नाते केवल पैसे और मतलब के रह गये है। हमारे अपने और समाज के प्रति आज हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं है। पड़ोस और पड़ोसी से हमारा रिश्‍ता कैसा होना चाहिये आज बडे़ बडे़ शहरों में पढे़ लिखे पॉश कालोनियो में रहने वालों का इस बात से कोई मतलब वास्ता नहीं होता। इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि आज शहरों में बसने के बाद आदमी अपनी और अपने पूर्वजों की पहचान मिटाने पर तुला है। महानगरो में आदमी की पहचान आज सिर्फ और सिर्फ कोठी नम्बरों से की जाती है। गुजरे कुछ वर्षों में शहरी घर परिवारों की तस्वीर तेजी से बदली है। आज रिश्‍तों में असामाजिकता इतनी बढ़ गई है कि एक दूसरे का ख्याल रखना, उनके सुख-दुख में शिरकत करना धीरे धीरे कम होता जा रहा है। लोग अपने आप अपने सुख दुख बाटते है। शहरी जिन्दगी में किसी को इतनी फुरसत ही नहीं कि वो अपने पड़ोस में देखे कि क्या हो रहा है। दरअसल आज महानगरों में जो अर्पाटमेन्ट कल्चर विकसित हुआ है उसमें अपने अड़ोस पड़ोस में ताक-झाक करना बुरा माना जाता है। यदि कोई अपने पड़ोसी से संबंध बनाने, मिलने उस के बारे में जानने की कोशिश करता है तो ये सब आज बहुत बुरा और किसी की निजी जिन्दगी की स्वतंत्रता का हनन माना जाता है।

नोएडा के सेक्टर-29 के एक मकान में पिछले सात महीनों से बिना कुछ खाये पिये जिन्दा लाश की तरह जी रही अनुराधा और सोनाली हमारे पूरे समाज पर जहां एक जोरदार तमाचा है। वही प्रगतिशील और तरक्की कर रहे भारत देश के तमाम सामाजिक संगठनों एनजीओ के कार्य पर सवालिया निशान लगा रहा है। पिछले साथ महीनों से अपने ही घर में कैद माता-पिता की मृत्यु व भाई के साथ छोड़ देने के बाद डिप्रेशन में आई दोनों बहनों का दुनिया और जीवन से ऐसा विश्‍वास टूटा कि लगभग तीन महीनों से थोड़ा बहुत कुछ खा पीकर घर के एक कमरे में बंद बेसुध और गुमनाम जिन्दगी गुजार रही थी। मंगलवार 12 अप्रैल 2011 को आर.डब्लू.ए सेक्टर-29 के अध्यक्ष रिटायर्ड लैफ्टिनेंट कर्नल एच.सी शर्मा की शिकायत पर जब पुलिस ने घर का दरवाजा तोड़कर बाहर निकाला तो दोनों बहने जिस हालत में थी वह वाकई में दिल दहलाने वाला मंजर था। बडी बहन अनुराधा बेहोशी की हालत में सोफे पर पूरी तरह मरणासन्न थी। इन दोनों बहनों का शरीर बदबू देने लगा था वही गर्मियों के दिनो में तीन तीन स्वेटर साफ दर्शा रहे थे कि इन्होंने जिन्दगी और दुनिया से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। महीनों से इन दोनों ने सूरज नहीं देखा। दोनों के शरीर बिना खाये पिये अपनी उम्र से कहीं अधिक के हो चुके थें। घर से निकाल कर पुलिस ने दोनों को अस्पताल में भर्ती कराया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डाक्टरों की काफी कोषिषों के बाद भी बड़ी बहन अनुराधा ने अगले दिन सुबह दम तोड़ इस संसार से मुक्ति पाली पर सोनाली अभी भी गम्भीर हालत में आई.सी.यू में उपचाराधीन है। ये घटना हमारे देश या समाज के लिये कोई पहली घटना नही है अभी कुछ समय पहले दिल्ली के कालका इलाके में ऐसे ही तीन बहनो ने दुनिया और समाज से न जाने किस बात पर मुंह मोड़ कर खुद को इसी तरह अपने घर में कैद कर लिया था। जिन में से एक कि मौत होने पर लड़की की लाश सड़ी और कालोनी में बदबू फैली, लोगों ने पुलिस को बुला कर दरवाजा खुलवाया तो लड़की की मौत का पता चला। यदि अनुराधा और सोनाली के घर के दरवाजे को 24 घन्टे बाद तोड़ा जाता तो यकीनन इसी हादसे की पुर्नवत्ति होती।

बाप की एक सड़क दुर्घटना में घायल होने के बाद मौत हो गई। फिर कुछ दिनों बाद अवसाद के कारण मॉ की भी मौत हो गई। माता पिता की मौत के बाद जिस भाई को इन बहनों ने कभी मॉ, कभी बाप, कभी बहन और कभी दोस्त बनकर पाला, पोसा, पढाया, लिखाया, शादी की, जिस भाई पर अपनी जिन्दगी न्यौछावर की। जिस भाई के हाथ पर कई सालों तक राखी बंधी और जिस भाई ने न जाने कितनी बार इन की रक्षा की कसम खाई होगी। वो भाई शादी के बाद दोनों बहनों को छोड़ अपनी पत्नी के साथ अलग रहने लगा। उस भाई का अपनी इन सगी बहनो से बरसों बाद जब सामना हुआ तो उस में से एक बहन लाश बन चुकी थी और दूसरी जिन्दा तो थी मगर कंकाल के रूप में। बहन की लाश देख विपिन अपने ऑसू नही रोक पाया। पर अब पछताए क्या होत जब चिडिया चुग गई खेत। सवाल ये उठता है कि क्यों विपिन ने अपनी जिन्दा बहनों को मरा मान उन से नाता तोड लिया था। क्यों विपिन ने बहनो की खबर नही ली। भाई की शादी के बाद हो सकता है कि घर में कुछ बातो को लेकर विवाद झगडे या आपस में बहन भाई या फिर भाभी के साथ अनबन हुई हो। पर हाथों की लकीरों को यूं नहीं मिटाया जा सकता। यहा सवाल ये भी उठता है कि केवल एक भाई से तो नाता टूटा था पर एक टेक्सटाइल इंजीनियर और दूसरी चार्टड एकाउंटेंट के समाजिक दोस्त, रिष्तेदार, रिष्ते के भाई भाभी, ताऊ, चाचा, कामकाजी संबधी लोग दफतर के यार दोस्त फ्लैट वाले परिसर के रैजीडेंट वेलफैयर एसोसिएशन के तमाम लोग आखिर सात आठ महीनो से कहा थे। इन लोगो ने आखिर इन दोनो बहनो की सुध क्यो नही ली। इस पूरे हादसे के बाद एक गम्भीर सवाल यहां ये भी उठता है कि क्या ये दोनों बहने भी व्यवहार कुशल व सामाजिक नहीं थी।

अनुराधा की मौत और इस पूरे हादसे ने हमारी तरक्की और आधुनिक समाज पर कई सवाल खडे़ कर दिये है। आज भागम-भाग की इस जिन्दगी में हमने रिश्‍तों को सीढी बना लिया है जिसे इस्तेमाल करने के बाद हम लोग घर की अंधेरी कोठरी में डाल देते है जैसा विपिन ने अपनी बहनो के साथ किया। एक विपिन ही नहीं, न जाने कितने लोग अपने मॉ बाप भाई बहनों के साथ ऐसा कर रहे है। आज हमारे आधुनिक समाज में ये सब फैशन बनता चला जा रहा है। इन्टरनेट पर फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्क तो जोर पकड़ रहे है, लेकिन हमारे परंपरागत सामाजिक नेटवर्क आपस में टूट रहे है। आपने फेसबुक और ट्विटर पर रिश्‍ते तो बना लिये पर इन्सानी जीवन में एक वक्त ऐसा आता है जब इन्सान को इन्सानी स्नेह, स्पर्श, और दिलासे की जरूरत होती है जो आदमी आदमी से मिलकर ही दे सकता है। कम्प्यूटर के सामने आप रो रहे है या गा रहे है बीमार है इस का पता फेसबुक और ट्विटर पर दूर बैठे व्यक्ति को नहीं चलता। आधुनिक शहरीकरण में सब से ज्यादा नुकसान हमारी साझी परम्पराओं, संवेदनशीलता, अपनेपन और इन्सानियत का हुआ है ये हादसा तो महज एक मिसाल है।

हम जानते हैं पर मानते नहीं

श्‍याम नारायण रंगा

हमारे समाज में और आस पास के माहौल में काफी दोहरे मुँह वाले लोग रहते हैं। लोग कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं। व्यक्ति के कहने और करने में बिल्कुल भिन्नता रहती है। यही प्रवृति आज समाज में सारी और दिखाई दे रही है। हालात ऐसे हो गए हैं कि ये समझ पाना मुश्किल हो गया है कि कौन कैसा है और पता नहीं कब किस रूप में सामने आ जाए। चारों तरफ ऐसे झूठ का माहौल है कि सारे वातावरण में झूठ ही झूठ घुलामिला नजर आता है। व्यक्ति की उपस्थिति उसके झूठी उपस्थित नजर आती है। आज कोई भी व्यक्ति किसी का असली चेहरा नहीं जान पाता है।

उदाहरण के लिए हम बात करें तो व्यक्ति आदर्श व समझ की बड़ी बड़ी बातें करता है परन्तु जब उसके सामने उन आदर्शों और उपदेशों को अपनाने की बात आती है तो यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि ये तो सिर्फ कहने की बातें है अपनाई थोड़ी जाती है। मतलब जो बात उसने खुद ने कही उसे ही वह अगले ही पल मानने या उसके अनुसार चलने से मना कर देता है।

इस संदर्भ में एक कहानी मेरे जेहन में आती है कि एक सेठजी रोज एक महात्मा जी का प्रवचन सुनने जाते थे और महात्मा जी का बड़ा सम्मान भी करते थे। महात्मा के गुणगान सबके सामने ऐसे गाते थे जैसे उनके समान कोई और महात्मा है ही नहीं। ये महात्मा जी अपने प्रवचनों में रोज प्रत्येक जीव के प्रति प्रेम करने की बात कहते और प्रत्येक जीव को न मारने का प्रवचन देते थे। एक दिन सेठ जी इस सत्संग में अपने बेटे को भी लेकर गये। बेटे ने बड़े श्रद्धा से प्रवचन सुना। सेठ जी अगले ही दिन बेटे को अपनी दुकान पर ले गए और दुकान बेटे के भरोसे छोड़ खुद प्रवचन सुनने चले गए। पीछे से दुकान में एक गाय ने मुँह मार लिया और वहाँ पड़ा सामान खाने लगी। यह देखकर बेटा गाय के पास बैठ गया और उसे सहलाने लगा। थोड़ी देर में सेठजी आए और यह दृष्य देखकर आग बबूला हो गए और बेटे को भला बुरा कहने लगे तो बेटे ने महात्मा जी का उल्लेख करते हुए कहा कि गाय को कैसे हटाता, वह तो अपना पेट भर रही थी और उसे मारने पर जीवों पर हिंसा होती। सेठजी समझ गए और तुरंत बोले कि बेटा प्रवचन सिर्फ सुनने के लिए होते हैं और उस पाण्डाल तक के ही होते हैं, वहाँ के प्रवचन दुकान पर नहीं लाए जाते सो आगे से ध्यान रखना।

कहने का मतलब यह है कि सब लोग जानते हैं कि सच क्या है और झूठ क्या तथा सही क्या है और गलत क्या और मजे की बात यह है कि सारे लोग आपस में चर्चा सही सही बातों की करते हैं और हर वक्त अपने आप को सही साबित करने की कोशिश में ही लगे रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का अपने दोस्तों के सामने और समाज के सामने ऐसा ही व्यवहार होता है जेसे सारा संसार तो गलत है पर मैं एकदम सही हूँ और सत्य के मार्ग पर चलता हूँ। प्रत्येक व्यक्ति हर वक्त यही साबित करने में लगा रहता है कि मैं एकदम सही हँ ओर कभी गलत नहीं करता हूँ। मतलब यह है कि ऐसा प्रत्येक व्यक्ति सही और गलत की अच्छी समझ रखता है और पहचान सकता है कि कौनसी बात सही है और कौनसी गलत है। परन्तु जब व्यवहार में उस बात को अपनाने की बात आती है तो सब के सब पीछे हट जाते हैं और व्यवस्था और सिस्टम की दुहाई देकर अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं।

प्रत्येक व्यक्ति को मालूम है कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, भ्रश्टाचार नहीं करना चाहिए, सत्य का सहारा लेना चाहिए, चापलूसी नहीं करनी चाहिए, धर्म पर चलना चाहिए, कपट और धोखा नहीं करना चाहिए आदि आदि लेकिन ये सब कुछ जानने के बाद भी व्यक्ति इन बातों को मानता नहीं है। वह झूठ बोलता है, जमकर भ्रश्टाचार करता है, परनिंदा करता है, अधर्म और भ्रष्‍ट व्यक्तियों का साथ देता है, अपने राश्ट्र ये गद्दारी करता है। इसका यह मतलब हुआ कि प्रत्येक व्यक्ति जानबूझकर यह सब करता है और वह जानता है कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए फिर भी वह करता है और मानता नहीं है।

हमारे धर्मगुरू, कवि, नेता, वकिल, डॉक्टर, पत्रकार आदि आदि सभी वर्गों के लोग एक दूसरे के सामने बड़ी सैद्धान्तिक और समझ की बातें करते हैं लेकिन जैसे ही अपनी गद्दी से उतरते हैं या माहौल से हटते हैं सब भूल जाते हैं। धर्मगुरू एक गद्दी पर बैठ कर सन्यास, बैराग, धर्म, परोपकार, सच, आस्था, भक्ति, त्याग, बलिदान की बातें करते हैं परन्तु जैसे ही भाशण पूरा होता है वे ही महँगी गाड़ियों में सवारी करते हैं और एयरकन्डीसन्ड कमरों में जीवन बीतातें हैं और ऐसे भी मामले आए हैं कि ये धर्मगुरू भोग, लिप्सा व वासना के चक्रव्यूह में फॅंसे रहते हैं। इसी तरह वकील कानून की बात करता है उसकी रक्षा करने की बात करता है परन्तु यह जानते हुए कि अमुक व्यक्ति ने हत्या की है उसे बचाने का प्रयास किया जाता है। ऐसे कितने वकील है कि जिन्होंने यह जानकर अपना क्लाईंट छोड़ दिया कि क्लाइन्ट गलत है। डॉक्टर बातें बहुत करते हैं लेकिन भारी भरकम फीस के बिना देखने वाले डॉक्टरों की संख्या बहुत कम है। मेरे कहने का यही सार है कि किसी को भी यह समझाने की जरूरत नहीं है कि उसे क्या करना चाहिए क्योंकि प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति यह जानता है कि वह कर क्या रहा है और करना क्या चाहिए। उसे सही गलत में भेद करना आता है पर वह करता नहीं है।

यही कारण है कि आज हमारे देष में इतनी समस्याएँ हैं। हमारी कथनी करनी में भेद है। प्रत्येक व्यक्ति अगर अपनी कथनी और करनी में फर्क करना बंद कर दे तो सारी समस्याएं ही समाप्त हो जाएंगी। व्यक्ति जैसा अपने आप को समाज और दोस्तों के सामने प्रकट करता है वेसा ही व्यवहार अपने जीवन में करना शुरू कर दे तो हमें किसी अन्ना हजारे या किसी समाज सुधारक ही जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हमें जरूरत है कि हम सब अपने आप को सुधार लें और जो जो अच्छी और सही बातें हम जानते हैं उसे मानना भी शुरू कर दे और खुद अपनी समझ से काम लेना शुरू कर दें। बोलने व करने के इस भेद ने आज हमें ऐसे चौराहे पर ला खड़ा कर दिया है कि हम किसी पर भी भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। पता नहीं कब कौन धोखा दे जाए आज मनुष्‍य का मनुष्‍य पर से और अपनों का अपनों पर भरोसा उठ गया है। आज सच्चे और ईमानदार रिश्‍तों का जो अभाव समाज में देखा जा रहा है वह इसी कारण है कि हम अपनी कथनी करनी में भेद कर कर हैं। संशय भरे इस माहौल में कोई भी किसी पर भी विष्वास नहीं कर पा रहा है। सब को यह डर लगा रहता है कि क्या पता कब कौन पलट जाए। आज आम आदमी की यह सोच बन गई है कि यार हम किसी से अपने संबंध क्यों खराब करें बस थोड़ा भला बोलना ही तो है भले ही वह झूठ हो और इसी प्रवृति ने इस समस्या को जन्म दिया है। हम सत्य बोले प्रिय बोले और असत्य प्रिय न बोले तभी समाज का भला होगा और तभी राष्‍ट्र का भला होगा। हम अपनी कथनी और करनी में एकता लाएँ और जो जानते हैं उसे मानना भी षुरू करे तो निश्‍चय ही समाज में समझ का माहौल बनेगा और हम निरंतर विष्वास के रिश्‍तों में बंधकर एक सुदृढ़ समाज और ईमानदार राष्‍ट्र का निर्माण कर सकेंगे।

तमाम बीमारियों से जुदा है पश्चिम बंगाल का चुनाव

डॉ. सुनीलम्, पूर्व विधायक

कल पश्चिम बंगाल की पन्द्रहवीं विधानसभा हेतु चुनाव के प्रथम चरण में 74 फीसदी मतदान हुआ। यह मतदान उत्तर बंगाल की 54 सीटों के लिए हुआ है। राजनैतिक विश्‍लेषक लंबे समय से कहते रहे है कि चुनाव मात्र औपचारिकता है जनता फैसला कर चुकी है। परिवर्तन की हवा बह रही है। बंगाल, वाममोर्चे के 34 वर्ष के शासनकाल में पिछड़ गया। यह धारणा बनाने में ममता बनर्जी कामयाब हुई है। ऐसी परिस्थिति में जब चुनाव के पहले ही मीडिया नतीजे घोषित कर चुका हो आम समझ के खिलाफ लिखना बड़बोलापन कहलायेगा। हांलाकि मतदाताओ ने बार बार विश्‍लेषणकर्ताओं को धता बताने – नतीजों के माध्यम से उनका उपहास उड़ाने का काम किया है। 7 बार चुनाव लडने के बाद तथा दो दिन पहले उत्तर बंगाल का दौरा करने के बाद मेरी दिलचस्पी नतीजो का विष्लेषण करने की बजाय चुनाव जिस तरीके से पश्चिम बंगाल में लड़े जा रहे है उसमें ज्यादा है।

आमतौर पर पूरे देश में चुनाव जाति, पैसे, शराब और गुण्डागर्दी से अत्याधिक प्रभावित होते है या यूं कहा जाय कि चुनाव नतीजे का आधार यही चार होते है लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनाव में इन चारों विकारों को उत्तर भारत तथा अन्य राज्यों के तरह नहीं देखा जा सकता। इसका मतलब यह नहीं कि वाममोर्चा जातिविहीन समाज की रचना करने में सफल रहा है। लेकिन जाति के आधार पर ही वोट पड़ जाये, चुनाव की गोलबंदी हो जाए यह आमतौर पर दिखलाई नहीं देता। जाति आधारित संगठन बने है लेकिन उनकी हैसियत चुनाव को प्रभावित करने की नहीं है। उत्तर भारत में तो जाति के आधार पर ही उम्मीदवार खड़ा करने का चलन है इसे सौफेस्टिकेटैड भाषा में सोशल इंजीनियरिंग कहा जाता है। इसी तरह पैसा बांटकर वोट लेने का चलन बंगाल में नहीं है। बंगाल में नियमित पंचायत चुनाव होते रहे है लेकिन कहीं भी प्रतिवोट या प्रतिपरिवार 100 से 1000 रूपए बांटकर चुनाव जीतने की शिकायत आमतौर पर सामने नही आती। जबकि मैंने लगातार चुनावों में पैसा बटता हुआ देखा है। मुलताई में नगर पालिका के चुनाव में तो बाकायदा 500 रूपए प्रति वोट बांटकर पार्षद का चुनाव जीतते हुए उम्मीदवार मैंने देखे है।

वोटरों को धमकाकर, चमकाकर यानी गुण्डागर्दी से वोट लेने की उत्तर भारत का चलन बंगाल में नहीं है इसका मतलब यह नहीं कि गुण्डागर्दी नहीं है। बाकायदा लाल आतंक यदि कायम है लेकिन उसकी तोड़ के तौर पर तृणमूल कांग्रेस के पास भी बलशालियों की कमी नहीं है। असल में तो पूरे बंगाल में वाममोर्चे का सूर्य अस्त होने के अंदेशे के चलते ताकतवर लोग तृणमूल कांग्रेस के साथ जुट गए है। इसके बावजूद भी मतदाताओं को डराकर बंगाल में किसी के लिए भी वोट लेना सम्भव नहीं है।

हालांकि चुनाव के बहुत पहले से ही हिंसक टकराव शुरू हो चुका है दोनो मोर्चो के सैकड़ो कार्यकर्ता हिंसक झड़पों में मारे जा चुके है लेकिन इसके बावजूद भी गुण्डागर्दी से वोट पाकर जीतना किसी भी विधानसभा क्षेत्र में किसी भी दबंग के लिए सम्भव नहीं है।

इसी तरह आमतौर पर शराब बाटने का प्रचलन बंगाल चुनाव में नहीं है। मैंने चुनाव में बाकायदा पार्टीयो की तरफ से शराब बटते देखी है। कम मात्रा में नहीं एक एक गांव में विशेष तौर पर आदिवासी गांव में 7-7 दिन तक का शराब का इंतजाम निशुल्क तौर पर पार्टियों द्वारा किया जाता है।

इस परिस्थिति को लगातार 34 वर्ष तक सत्ता में रहने के बाद बनाए रखना वाममोर्चा सरकार की एक बडी उपलब्धी है। यहां यह उल्लेख करना भी आवश्‍यक है कि बंगाल में किसी भी पार्टी द्वारा केवल जाति, पैसा, शराब और गुण्डागर्दी के आधार पर चुनाव जीतने का प्रयास नहीं किया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि बंगाल का मतदाता अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति अत्याधिक सजग एवं परिपक्व है।

बंगाल के चुनाव में दीवार लेखन तथा कार्टून के माध्यम से संदेश देने का चलन है, छोटे छोटे झण्डे भी बड़े पैमाने पर लगाए जाते है। पार्टियों के पोस्टर भी बड़े पैमाने पर लगाए जाते है। वाममोर्चे का संगठन जबरदस्त है हर वार्ड में कार्यालय खुला हुआ है। वार्ड कमेटी बनी हुई है हर कार्यालय में 25-50 कार्यकर्ता पूरे दिन मौजूद दिखलाई पड़ते है। उम्मीदवार की अपनी योजना बंगाल में काम नहीं करती पूरी योजना संगठन बनाता है योजना के मुताबिक केवल उम्मीदवार को तयशुदा कार्यक्रमों में उपस्थित होना पड़ता है। कोई विधायक रहा हो सांसद या मंत्री सभी को स्थानीय कमेटी की योजना के मुताबिक चलना पड़ता हैं उम्मीदवार अपनी ओर से खर्च करेगा यह उम्मीद भी वाममोर्चे के प्रत्याशियों से नहीं की जाती।

बंगाल में चुनाव ममता बनर्जी तथा वाममोर्चे के संगठन के बीच लड़ा जा रहा है जिस तरह का संगठन वाममोर्चे का है उसकी तुलना में तृणमूल कांग्रेस – कांग्रेस – भाजपा या अन्य किसी पार्टी का कोई संगठन नहीं है। यह बात दीगर है कि इस समय सबसे ज्यादा भीड़ ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस के पास है। लेकिन सभी जानते है कि भीड़ की कोई विचारधार नहीं होती लेकिन वाममोर्चे के कार्यकर्ता विधारधारा से लैस है।

तृणमूल कांग्रेस का पूरा चुनाव ममता बनर्जी के इर्द गिर्द लड़ा जा रहा है जबकि ऐसा कोई नेता वाममोर्चे का नहीं जिसके नाम पर चुनाव लडा जा रहा हो या वोट मांगे जा रहे हो। वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य या स्व. मुख्यमंत्री ज्योतिबाबु के नाम पर भी वोट नहीं मांगे जा रहे है। यह भारतीय राजनीति में बड़ी बात है। पूरी राजनीति व्यक्तिवादी है व्यक्ति परिवार और जाति के इर्द गिर्द पूरी राजनीति घूमती है लेकिन वाममोर्चे इस व्यक्तिवाद और परिवारवाद और नेता की जाति का इस्तेमाल करने से अपने को अलग रखा है यह न केवल प्रशंसनीय है तथा अनुकरणीय है। वाममोर्चे के पोस्टरो में न तो नेताओं के फोटो दिखते है और न ही उम्मीदवार के। चुनाव चिन्ह तथा उम्मीदवार का नाम ही पोस्टर में दिखलाई पड़ता है। जबकि तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के पोस्टर और फ्लेक्स नेताओं के फोटो से अटे पडे है।

वाममोर्चे की एक बड़ी उपलब्धि साम्प्रदायिक शक्तियों पर अंकुश लगाने में सफलता भी है। पूरे देश में जब इंदिरा जी की हत्या के बाद सिक्खों का कत्लेआम हुआ तथा मंदिर, मस्जिद विवाद के बाद देशभर में मुसलमानों पर हमले हुए उनकी सम्पत्ति नष्ट की गई। गुजरात में मुलसमानों का नरसंहार किया गया लेकिन पश्चिम बंगाल साम्प्रदायिकता की आग से अछूता रहा। जबकि यह वही बंगाल है जहां विभाजन के बाद सबसे ज्यादा कत्लेआम हुआ था। इतना अधिक की महात्मा गांधी, डॉ. राममनोहर लोहिया को आजादी का जश्‍न मनाने की बजाय अधिकतर समय बंगाल में भड़के साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में लगाना पड़ा था।

अन्ना के अनशन के बाद इस समय देष में भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बना हुआ है। लेकिन बंगाल के चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है क्योंकि भ्रष्टाचार का मुद्दा सरकार के खिलाफ बनता है। 34 वर्ष लंबे शासनकाल में कोई बडा घोटाला विपक्ष उजागर करने में असफल रहा है। साथ ही ममता खुद ईमानदार नेता की छबि रखती है। चुनावी चर्चा यह है कि दिल्ली की सरकार का कोई भी एक घोटाले की तुलना पूरे 34 वर्षो के कार्यकाल में हुए कुल मिलाकर सभी छोटे मोटे घोटालो से नही की जा सकती। जमीनी स्तर पर तृणमूल कांग्रेस के नेताओं द्वारा पंचायतो और नगर पालिका के चुनाव जीते जाने के बाद किए गए भ्रष्टाचार की चर्चा चुनाव प्रचार के दौरान सुनाई पड़ रही है। उसी तरह सीपीएम के स्थानीय नेताओं द्वारा सम्पत्ति इकट्ठा करने के आरोप भी ममता समर्थक लगाते सुनाई पड़ रहे है।

पूरे चुनाव में तृणमूल कांग्रेस एक ही आरोप लगा रही कि वाममोर्चे की सरकार के चलते बंगाल पूरे देष की तुलना में पिछड गया। ममताजी कहती है कि उन्होंने रेलवे के 21 कारखाने अपने संक्षिप्त कार्यकाल में लगवा दिये हैे जबकि वाममोर्चे के 34 वर्ष के कार्यकाल में हजारो कारखाने बंद हो गए है। अर्थात, ममता औद्योगिकरण के माध्यम से बंगाल का विकास करने का दावा कर रही है। हांलाकि वह अच्छी तरह से जानती भी है कि एक नैनो के कारखानो ने वाममोर्चे की सरकार की हवा बिगाड दी तो जब पूरे बंगाल में कारखाने लगाए जायेंगे तब जमीन कहां से आएगी? जो भी हो ममताजी की बात मतदाताओं की जबान पर चढ़ गई दिखलाई पडती है तथा उसका चुनाव नतीजो पर असर पड़ना तय है। यह बात अलग है कि दिल्ली की यूपीए सरकार की आर्थिक नीतियों के चलते देषभर में परम्परागत कारखानो का खात्मा हुआ है। वैष्वीकरण, उदारीकरण तथा नीजिकरण के चलते बंगाल सहित देषभर में लाखो कारखाने बंद पडे है। उसी यूपीए के साथ मिलकर वे औद्योगिकरण के माध्यम से विकास करने तथा बेरोजगारो को रोजगार देने का राग अलाप रही है।

यदि मतदाता देखेने को तैयार हो तो वाममोर्चे के पास दिखाने के लिए 34 वर्षो के ठोस कार्यक्रम हैं उन्होंने 34 वर्षो में 45 लाख भूमिहीनो को 25 लाख हेक्टेयर जमीन बांटी है 20 लाख बेघर व्यक्तियों को मकान बनाकर दिए है। बंगाल के भूमि सुधार के कार्यक्रम देषभर के लिए आदर्ष बने हुए है। 2 लाख बेघर लोगो को 20 साल की लीज पर 1.00 रूपऐ में जमीन, बंगाल सरकार ने दी है। 2 रूपये किलो के दाम पर 2 करोड 64 लाख गरीबो को चावल तथा 5 रूपए किलो पर आटा तथा साढे तेरह रूपए किलो पर शक्कर उपलब्ध कराई जा रही है। 17 लाख छात्र छात्राऐ हा0से0 की परीक्षा दे रहे है 10 लाख महाविद्यालयो में पढ़ रहे है।

पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार ने अल्पसंख्यक वर्गों के लिए पढ़ाई का विशेष इंतजाम किया है रंगनाथ मिश्रा कमीशन की सिफारिश के अनुसार आर्थिक रूप से 2 करोड़ 20 लाख मुस्लिम आबादी में से 1 करोड 72 लाख लोगों को इस आरक्षण के तहत सुविधाओं की पात्रता मिली है।

प्रदेश में 14 लाख स्वसहायता समूह कार्य कर रहे हैं जिसकी सदस्य संख्या 1 करोड 40 लाख है। इन समूहों को साढे बारह हजार करोड़ 4 प्रतिशत की दर पर कर्जा दिया गया है। वाममोर्चा द्वारा जारी किए गए घोषणा पत्र के अनुसार यदि वे आठवी बार सरकार बनाने में सफल होते है तो वे गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों को जीवन स्तर को सुधरेंगे उन्हें रोजगार उपलब्ध करायेंगे। पश्चिम बंगाल का मानव विकास सूचकांक, क्रय शक्ति तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता के आधार पर देश में पहले नम्बर पर ले जायेंगे। उन्होंने यह भी घोषणा की है कि 10 हजार से कम प्रतिमाह आय वाले परिवारो को 2 रूपए किलो पर चावल उपलब्ध करायेगे तथा दाल, खाने का तेल, शक्कर, कपड़ा, बिस्कुट आदि की व्यवस्था करेंगे। 11 और 12 वी के छात्रो को शासकीय और निजी बसो में निशुल्क मात्रा करने की व्यवस्था की जायेगी। हर घर में बिजली पहुंचाने तथा हर खेत में पम्प सेट के लिए 4 हॅजार मेगावाट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन किया जायेगा। अगले 5 वर्ष में तथा एक पृथक मिशन बनाकर साफ पीने का पानी की व्यवस्था हर परिवार के लिए की जायेगी साथ-साथ पंचायत स्तर पर 10 बिस्तरों का अस्पताल बनाया जायेगा। वाममोर्चे के नेता घुमघुमकर मतदाताओं के बीच 34 साल के शासनकाल की गलतियां भी स्वीकार कर रहे है तथा उन्हें सुधारने का दावा भी। कृषि, उद्योग, शांति लोकतंत्र और प्रगति के लिए वाममोर्चा आठवी बार सरकार बनाने के लिए वोट मांग रहा है। दूसरी ओर ममता बनर्जी वाममोर्चे का कुशासन समाप्त करने के लिए मां, माटी और मानुष के नारे पर वोट मांग रही है।

वाममोर्चे द्वारा की गई गलतियो को मतदाता माफ करने को तैयार होता है या नहीं वाममोर्चे को ममता की अपील पर उखाड़ फेंकने का काम करता है। यह तो चुनाव नतीजा बतालाएगा लेकिन यह तय है कि चुनाव एकतरफा नहीं है। चुनाव प्रचार के दौरान वाममोर्चे के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा हुआ दिखलाई नहीं पडता। हां, मीडिया पूरी तरह से ममता का साथ दे रहा है। जो भी हो अब तक वाममोर्चे ने पश्चिम बंगाल के चुनाव को तमाम बीमारियों से बचाकर रखा है। उसके लिए साधुवाद दिया जाना चाहिए। आमतौर पर देश में मतदाता नकारात्मक वोट देने के आदी है। लाने के लिए नहीं हटाने के लिए वोट देते है। पहली बार पश्चिम बंगाल के मतदाताओं को विचार के तौर पर न सही व्यक्ति के तौर पर ममता बनर्जी के अन्दर सशक्त विकल्प दिखलाई पड़ा है। फिर 34 साल राज करने के लिए काफी होते है। हर मतदाता एक ही बात कहता है कि परिवर्तन हो भी जायेगा तो दीदी को पश्चिम बंगाल में राज चलाना आसान नहीं होगा।

जन्म वृद्धि दर को स्थिर करने में असफल है सरकार

डॉ. अतुल कुमार

धरती के संसाधन सीमित हैं यह ठोस सच है। बढ़ती हुई जनसंख्या से विश्व के सारे देश परेशान हैं। विकास के रास्ते का रोडा अशिक्षित और बेरोजगार या बेकार जन समूह का बढ़ना है। वहीं सौकड़ों शोधकर्ताओं और दार्शनिकों ने जनसँख्या वृद्धि के कारणों के बारे में अपने दृष्टिकोण दिये हैं जैसे कि निरक्षरता, मनोरंज़न के साधनों का अभाव, दृढ इच्छा-शक्ति का न होना, परिवार-नियोज़न के साधनों के बारे में चेतना का अभाव प्रमुख कारण है। कुल मिला के इस समस्या का हाल ऐसा है कि अण्डा पहले है या मुर्गी! म्गर यह तय है कि समाज को इसके नियंत्रण पर जागरूक होना होगा। अब हर देशवासी को अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा और जनसंख्या नियंत्रण में सहयोग देना होगा। पूरे विश्व की सरकारें मुस्लिम जमात के जन्म दर की वृद्धि से परेशान है। अधिक जनसंख्या ने प्रशासन और जन सुविधा पर बोझ डाला है। हिन्दुस्तान में भी मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जनसंख्या दर ज्यादा और दूसरी ओर साक्षरता दर में कमी पायी जाती है। लगभग अनपढ़ और बहुयात में गरीब अनपढ़ मंस्लिम तबका आज भी औलाद को अल्लाह की देन मानता है। उसे समझने की जरूरत है कि अधिक संतान पैदा करके वो अपने बच्चों ओर परिवार के साथ अत्याचार करता है। जीवन की सच्चाई है कि पहला बेटा होता है तो बच्चे को अगर पूरी गिलास दूध मिलता है तो दूसरा होने पर आधी, वहीं तीसरा होने पर तीनों को दूध से महरूम होना पडता है और बहला कर चाय पिलाई जाती है। यदि माँ बाप में एक बच्चे को दसवीं तक पढाने की ताकत है तो दस बच्चे होने पर सभी बच्चे केवल एक ही कक्षा पढ़ पाते है। यही केवल गणितीय भाषा नहीं है, मगर एक सच्चाई है। कुछ ऐसे ही आकलनों को समझ कर इन को समझा जाने की भी जरूरत है। सभी पढे लिखे लोगों को ऐसी बेबुनियादी आस्था से इन अज्ञानी लोगों को जागरूक कर लोगों के लिए एक आदर्श स्थापित करना ही होगा। इसी प्रकार की सलाह इस तबके के प्रभावी लोगों को अपने मित्रों व हम-उम्र रिश्तेदारों को देनी होगी। यह एक सवेदनशील मुद्दा है और पूरा देश इस मुद्दे पर एक बार अपना हाथ जला चुका है। मगर इस सच्चाई से भी मुँह नहीं मोडा जा सकता कि जनसँख्या वृद्धि की समस्या पूरे देश के लिए घातक है। जनसंख्या वृद्वि दर विकास की राह में रोडे है। इस पर सोच को बदलाना होगा और इसके लिए कई तरह से सकारात्मक प्रभाव वाले कार्य करने पडेगें। गाँव की पंचायत व स्थानीय सरकारी अधिकारियों को इस किस्म की आदर्श घटनाओं को पुरस्कार से सम्मानित करना होगा। परिवार, समाज और देश को उन्नति के पथ पर तभी जा सकता है जब जनसँख्या वृद्धि को स्थिर हो। यह भी अच्छी बात नहीं है कि छ: वर्ष तक में लिंगानुपात में भारी गिरावट आयी है। मगर गौर करने वाती बात है कि पारसी बहुल क्षेत्रों में लिंगानुपात बढ़ा है और जन्म दर में गिरावट दर्ज की गयी है। अगर ऐसा चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं है कि ये लोग गिने भी न जा सकेगें। वहीं दूसरी ओर मुस्लिम बहुल क्षेत्र में जन्म दर भारी बढ़ी है और जन्संख्या में भी इजाफा हुआ है। यों तो शिक्षा दर में भी बढ़ोतरी हुई है। मगर वो मदरसी तालीम है। संभावना है कि वर्ष एक से सोलह साल की उम्र में लिंगानुपात कम हुआ है। कुछ आकलन यह भी है कि बच्चों के इस ग्रुप में मुसलमान की संख्या लगभग आधी है और सिक्ख, बौध्द, हिन्दु, इसाई समेत बाकी सारे धर्मों के बच्चों की संख्या आधी है। कुल संख्या में लिगांनुपात में सुधार का अर्थ महिलाओं की अच्छी उम्र तक जीना भी हो सकता है। इस सच्चाई से सभी को रूबरू होना और करना दोनो ही जरूरी है। सभी को सह भी पता होना चाहिए यदि ये नहीं रूकी तो हमारे जीवनों व आगामी पीढ़ी व अंतत: देश के विकास पर इसका बुरा असर पड़ेगा। आगामी छ: माह में जनसंख्या से जुड़े सरकारी सही आकड़ों के मिलने की संभावना है। इन आकडों में वर्गीकृत स्वरूप भी बताया जाएगा। तभी पता चल सकेगा कि विभाग का काम कितना संतोषजनक है और विभाग के इस मेहनत का क्या लाभ उठाया जा सकता है। मोटे तौर पर यह तो है कि जनसंख्या बढ़ी है। मगर जनसंख्या दर में कमी आयी है। चंद्रमौली के अनुसार, पहली बार ऐसा हुआ है कि उत्तार प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उत्ताराखंड, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में आबादी वृद्धि दर में गिरावट आयी है। अगर बारीके से देखा जाए तो देखना होगा किन जगहों पर जन्म दर में गिरावट है। साथ ही समझना होगा किन वर्ग या जाति या धर्म के लोगों में यह गिरावट दर्ज हुई है और किन में नहीं। अगर अपुष्ट आंकडों की बात करे तो गरीब वर्ग की जन्म दर में और मृत्यु दर में बढ़ोतरी होती रही है। विडम्बना ही है कि जो बच्चे पाल नहीं सकते वे ही ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं और शिक्षा में या स्वास्थ सेवा में वो आधुनिक सुविधा का समुचित लाभ बच्चों को दिला नहीं सकते।

दुर्भाग्‍य से हमारे देश में आज के सत्तासीन राजनेता केवल गद्दीनशीं होने के लिए जानना चाहते हैं कहाँ कितनी संख्या में कौन से लोग रहते हैं और किस भाषण या झूठे वादे से उनसे वोट खीचें जा सकते हैं। जनसंख्या संबधित आकडों को एकत्र का लाभ तभी है जब इस आधार पर उचित योजना बनाई जाए और ठोस तरीके से लागू किया जा सके। मानव मात्र और राष्ट्र के निर्माण में इन आंकडों का सदुपयोग हो ना कि छिछली राजनीतिक उद्देश्यों के लिए। इन सबसे ऊपर एक बात और है कोई विभाग और कोई मंत्रालय इंसानों की संख्या भी गिन दे। यह भी की इंसान पैदा होने की दर में वृद्धि हो रही है या गिरावट।

भारत की भौतिक उन्नति का मार्ग

श्रीश देवपुजारी

भारत के सामने हमारे पूर्व राष्ट्रपति श्री. अब्दुल कलाम ने 2020 तक विश्व की अर्थिक एवं सामरिक महाशक्ति बनने का लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने की क्षमता केवल आनेवाली पीढ़ी में है ऐसा मानकर वे बाल एवं युवकों को शिक्षा संस्थानों में जाकर प्रोत्साहित कर रहे हैं। किन्तु इस तरूणाई को सामुहिक रीति से किस मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए। इस विषय में पर्याप्त मार्गदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। शासन में बैठा राजकीय दल या विपक्ष दोनों केवल आने वाले चुनावों तक की सोच रखते हैं। तात्कालिक सोच के शिकार नौकरशाह केवल अपने कार्यकाल को चमकाने और उस आधार पर ऊँचा पद प्राप्त करने के जुगाड में लगे रहते हैं। यही कारण है कि लगभग दो लाख किसानों द्वारा आत्महत्या करने पर भी देश के नीति निर्धारकों एवं योजनाकारों की तन्द्रा टूटी नहीं है। ऐसे में समाज के सभी घटकों को इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मार्ग निर्धारण के लिए आगे आना चाहिए।

 

विश्व के वर्तमान परिदृश्य पर दृष्टि डालें तो विश्व के 204 देशों को सामान्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम, श्रेणी का नाम है ‘विकसित’ दूसरी, ‘विकासशील’ एवं तीसरी, ‘अविकसित’। भारत विकासशील देशों की श्रेणी में आता है। विकसित देशों की श्रेणी के अन्तर्गत एक छोटा गट बना है, जिसका नाम है समूह-8। ये आठ देश सर्वाधिक प्रगतिशील देश माने जाते हैें। इनके नाम है- अमेरिका, कनडा, ब्रिटेन, फ्रान्स, जर्मनी, इटली, रूस और जापान। इन देशों ने विज्ञान और तन्त्राज्ञान के आधार पर प्रगति की है। ये देश विश्व की मण्डी में नये-नये उत्पादों या तकनीकों को बेचकर धनार्जन करते हैं। उदाहरण के लिए ..

 

1. अमेरिका में संगणक का निर्माण हुआ। उसे चलाने के लिए मॉइक्रोसॉफ्ट ने विन्डोज नामक साफ्टवेयर विकसित किया। तत्पश्चात् ‘अन्तरताने’ का अविष्कार किया। इन तीनों उत्पादों को विश्व के सभी देशों को बेचकर अमेरिका ने अत्यधिक पैसा कमाया। 2. जापान ने इलेक्ट्रॉनिक्स और वाहनों के स्तरीय उत्पादों से विश्व के बाजार भर दिये। आज भी ‘सोनी’ ‘टोयोटा’ जैसे ब्रांड पूरे विश्व में अपनी धाक जमाये हुए हैं। 3. रूश भारत को दीर्घकाल से शस्त्रों की आपूर्ति करता रहा है। चाहे पनडुब्बी हो या विमान वाहक जलपोत, हम रशिया पर निर्भर हैं।

 

उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यदि हम भारत का विचार करें तो प्रश्न उठता है कि हमने किन उत्पादों को बेचकर पैसा कमाया। स्वतन्त्रता के पश्चात् हमने विज्ञान और गणित को मैट्रिक तक अनिवार्य विषय बनाया। इन दोनों विषयों की भाषा अंग्रेजी है ऐसा मान कर उसे अनिवार्य विषय के रूप में स्थापित किया। आज भारत के 10 लोग अंग्रेजी जानते हैं। हमने पर्याप्त मात्रा में यंत्रों का निर्माण किया है। किन्तु वैज्ञानिक कम ही उत्पन्न कर पाये। इतनी पूर्वसिध्दता के पश्चात् भी हम ऐसी कोई वस्तु निर्माण नहीं कर पाये जिसे बेचने से हम धनवान बन सकें। न हम विज्ञान के क्षेत्र में कोई मौलिक संशोधन कर पाये। हर वर्ष विज्ञान की विविध शाखाओं में नोबेल पुरस्कार वितरित किये जाते हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् किसी भारतीय नागरिक को विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ। हम केवल पश्चिम की नकल करते हैं। किसी नकलची को परीक्षा में किसी ने प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए देखा है? जो मूल पश्चिम का ज्ञान है उसमें उनका अग्रणी बने रहना स्वाभाविक है। हमें उनके ज्ञान के आधार पर अग्रणी बनने के सपने को छोड़ देना चाहिए। क्या हमारे पास अपना भी कुछ है?

 

अंग्रेजों का भारत में पदार्पण होने के पूर्व भारत के विश्वविद्यालयों में कुल 62 विषयों की पढ़ाई होती थी। शिक्षा की भाषा संस्कृत होने के कारण इन विषयों के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जाते थे। संस्कृत भाषा को आत्मसात करने पर हम इन ग्रन्थों को पढ़कर समझ सकेंगे। यदि हम ऐसा कर पायेंगे तो हमें विरासत में मिले ज्ञान भण्डार के द्वार खुल जायेंगे। जब हम भारतीय विज्ञान, अर्थशास्त्र, विधिशास्त्र की बातें करते हैं तो लोग कहते हैं कि- ‘मान लिया कि भारत का ज्ञान क्षेत्र पूर्व में विस्तृत था। किन्तु वर्तमान मे उसका क्या उपयोग?’ ऐसा कहने वालों के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। 1. दिल्ली में आज की तिथि में पर्यटक अक्षरधाम देखने के लिए अधिक संख्या में पहुँचते हैं। उसे बनाने के लिए 7 हजार शिल्पी 5 वर्षों तक काम करते रहे। उनमें आधुनिक शिक्षा प्राप्त कोई नहीं था। उन भवनों और मन्दिरों की आयु भी आधुनिक भवनों से अधिक है। सुन्दरता, भव्यता और विशालता में भी उनका कोई सानी नहीं हैं। उस निर्माण में लोहा, सीमेन्ट (वज्रचूर्ण) बालु और गिट्टी का उपयोग नहीं हुआ है। संगमरमर में पत्थरों से बने उस निर्माण में जोड़ने वाला तत्व क्या है, यह जानने का विषय है। क्या हमारा यह परंपरागत भवन निर्माण शास्त्र आज के स्थापत्य अभियन्ता (सिह्निल इंजीनियर) को सिखाना नहीं चाहिए? 2. भारत में आधुनिक विज्ञान एवं संस्कृत दोनों को जाननेवालों की संख्या अत्यन्त सीमित है। उनमें एक है डॉ.सी.एस.आर प्रभु। वें सहायक महाप्रबन्धक हैं। उन्होंने भास्कराचार्य द्वारा लिखित ‘यन्त्रासर्वस्व’ नामके ग्रन्थ का ‘विमान शास्त्रा’ का अध्ययन प्रारम्भ किया और पाया की विमानों के निर्माण हेतु उपयोग किये जानेवाले धातुओं का विवरण कुछ श्लोकों में संग्रहित है। उन धातुओं के निर्माण के प्रयत्न के फलस्वरूप उन्होंने 5 नये मिश्रधातु बनाये जो वर्तमान विज्ञान जगत को ज्ञात नहीं हैं। उनमें से कुछ के यू.एस.पेटेन्ट भी उन्हें प्राप्त हैं। उन मिश्र धातुओं में से एक का भार तो ऍल्युमीनियम से भी हल्का है। यदि उस मिश्र धातु से विमान बनाया जायेगा तो स्वाभाविक उसका भार कम रहेगा और गति अधिक। 3. नागपुर स्थित नीरी नामकी शोध केन्द्र सरकार की प्रयोगशाला पर्यावरण पर कार्य करती है। वहाँ के वैज्ञानिकों की एक टोली ने पानी की शुध्दता पर एक प्रकल्प हाथ में लिया। उस टोली में उन्होंने एक स्थानीय आयुर्वेदिक वैद्य को जोड़ा। उस वैद्य ने उन्हें 92 वी सदी के ‘चिन्तामणि’ नामके ग्रन्थ से 6 श्लोक निकालकर दिये जिनमें पानी के शुध्दीकरण के उपाय बताये हैं। एक श्लोक में लवंग के द्वारा पानी का शुध्दीकरण कैसे होगा इसका विवरण दिया है। उस विवरण पर काम करने के कारण उन वैज्ञानिकों की टोली ने एक रसायन बनाने मे सफलता प्राप्त की, जिसकी एक बूंद एक लीटर पानी को शुध्द करती है। उस रसायन का यू.एस.पेटेन्ट भी भारत सरकार के नाम से प्राप्त किया गया है।

 

आर्थिक समृध्दि का कारक जैसे विज्ञान है वैसे ही दूसरा कारण है अर्थव्यवस्था। आज विश्व को केवल दो अर्थव्यवस्था की धाराओं की जानकारी है। 1. सामाजवादी अर्थव्यवस्था ओैर 2. बाजारवादी अर्थव्यवस्था। अभी यह माना जाने लगा है कि साम्यवादी तत्वज्ञान आर्थिक समृध्दि लाने मे असफल रहा है। इसलिए साम्यवादी देश अब बाजारवाद की चपेट में आ गये है। भारत ने मिश्रित अर्थव्यवस्था, समाजवादी अर्थव्यवस्था और बाजारवादी अर्थव्यवस्था को आजमाकर देखा है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था ने हमारे देश को दो पाटों में बाँट दिया है। एक है- सम्पन्न एवं मध्यम वर्ग का जो बाजारवाद से लाभान्वित है और दूसरा निर्धनों का। अर्थव्यवस्था की सफलता का मापदण्ड तो यही हो सकता है कि उचित अर्थप्रबन्धन के कारण गरीबी कम हो। गरीबों की संख्या का सही आकलन करने के अबतक कई प्रयास भारत में हुए। उनमें अन्तिम प्रयास अर्जुन सेन गुप्ता एवं तेंडुलकर समिति का रहा। प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त इन समितियों की रपट ने बाजारवाद के समर्थकों का निराश ही किया। निर्धनता की व्याख्याओं को मनोनुकूल बनाकर भी गरीबों की संख्या कम नहीं ऑंकी गयी। हमने अपनी अर्थव्यवस्था को शेष विश्व से जोड दिया है। किन्तु गरीबों की संख्या के आकलन के लिए निर्धारित वैश्विक मानदण्डों को हम नहीं मानते। फिर भी जनसंख्या के 37.6ः गरीब भारत में रहते हैं ऐसा सरकार मानती हैं। इन्हें 20 रूपये या उससे कम की आय पर प्रतिदिन गुजारा करता पड़ता है। विश्व बैंक का गरीबी का मापदण्ड 1.5 डॉलर है। यदि उस कसौटी पर भारत को कसा जायेगा तो भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे आ जायेगी। क्या इस संख्या के आधार पर भारत को समृध्द देश कहा जा सकेगा? बाजारवाद के समर्थक यह कहते आये हैं कि यदि समाज का एक हिस्सा सम्पन्न होगा तो उसके कारण अन्य भी लाभाविन्त होंगे। इसे ‘ट्रिकल डाऊन थ्योरी’ कहा गया। हमारे देश मे बाजारवाद का प्रारम्भ 1990 में हुआ। अब 20 वर्ष गुजर चुके हैं। ‘ट्रिकल डाऊन थ्योरी कहीं कारगर होती दिखाई नहीं दे रही है।

 

इतिहास काल में भारत की समृध्दि का वर्णन सभी विदेशी यात्रियों ने अपने-अपने यात्रावृतान्तों में किया है। इसीलिए भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। यहाँ के समृध्दि के आकर्षण से ही भारत पर आक्रमणों का दौर निरन्तर चलता रहा। प्रारम्भ ग्रीकों ने किया। तत्पश्चात् हूण, शक, कुशाण,मुगल, तुर्क, पठान, पुर्तगीज, फ्रेंच एवं अन्त में अंग्रेजों ने भारत की लूट जारी रखी।यदि हम निर्धन होते तो भला कोई क्यों हम पर आक्रमण करता? विकसित देशों का एक संगठन है । उस संगठन ने ई.स. शून्य से ईस. 2000 वर्ष तक का आर्थिक इतिहास लिखा है। उसमें केवल 22 देशों का आर्थिक इतिहास सम्मिलित है, जो इस पूरे काल तक जीवित रहें। उन 22 देशों में ई.स शून्य से ई.स.2000 इस कालखण्ड में सर्वाधिक सकल घरेलू उत्पाद भारत का ही रहा है। ई. पू. 1700 में भारत का सकल घरेलु उत्पाद विश्व की तुलना में 40ः था, जो आज किसी भी समृध्द देश का नहीं है। इसका सीधा अर्थ यहीं निकलता है कि हमारे देश में एक सुदृढ अर्थ व्यवस्था रही होगी, जिसका वर्णन तत्कालीन साहित्य में हमें स्थान स्थान पर मिलता है। उस व्यवस्था का परिशीलन कर यदि उसके कालानुरूप अंशो के आधार पर युगनुकूल नयी व्यवस्था हम बनाते हैं तो उसमें केवल भारत का हीे नहीं तो विश्व का कल्याण निहित है।

 

उपर्युक्त उदाहरणों से यह निश्चित रीति से कहा जा सकता है कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए छोड़ी धरोहर वर्तमान युग मे भी उतनी ही उपयोगी है। उस ज्ञान सागर से ज्ञान रूपी अमृत निकालकर हम तो ज्ञान क्षेत्र में अग्रणी राष्ट्र बन सकते हैं। पश्चिम का ज्ञान हमने सीख ही लिया है। हमारे प्रधामंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा नियुक्त ज्ञान आयोग ने अपने रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि ‘जिस समाज या मानव समूह के पास ज्ञान होगा वहीं विकास करेगा’। यदि यह बात सच है तो हम विश्व में सबसे विकसित समाज बनकर उभरेंगे। इस मार्ग में जो एकमात्र बाधा है वह है संस्कृत भाषा। जितना शीघ्र हम उस भाषा को सीख पायेंगे उतना ही शीघ्र हम विकास पथ के अग्रणी राष्ट्र बनेंगे। अतः आनेवाले वर्षों में हमारे प्रगति का मूल मन्त्र होगा।

 

* लेखक संस्कृतभारती के राष्ट्रीय महामंत्री हैं।

नानाजी देशमुख और युवा शक्ति

डॉ. मनोज चतुर्वेदी

नानाजी ने युवाओं को संबोधित करते हुए लिखा है कि स्वतंत्रता संग्राम में युवाओं के अंदर शौर्य तथा पराक्रम निर्माण के लिए रचनात्मक, बौध्दिक तथा आंदोलनात्मक माध्यमों के द्वारा क्रांति की ज्वाला ने राष्ट्रभाव के विकास में महती भूमिका का संचार किया था। लेकिन ज्योंहि भारत आजाद हुआ। राजनीतिज्ञों का लक्ष्य भावी भारत का निर्माण न होकर सत्ताप्राप्ति मात्र रह गया जिसके कारण लालूवाद, मुलायमवाद, मायावतीवाद, जातिवाद तथा क्षेत्रीयतावाद रूपी सर्पों ने भारतीय जीवन-दर्शन द्वारा निर्धारित मूल्यों पर प्रहार किया है। मुस्लिम तुष्टीकरण के विरूध्द निक ाले जाने वाली रथ यात्राओं ने मुस्लिम वोटबैंक को और अधिक कीमती बना दिया है।

 

‘अतुल्य भारत’ के द्वारा बार-बार यह प्रचारित किया जा रहा है कि भारत समृध्द हो रहा है परंतु यहां का कम आदमी दुखी है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषकों द्वारा आत्महत्या की प्रवृत्ति ने यह साबित कर दिया है कि भारत की प्रगति पर कहीं न कहीं खोट है। पर हां, कुछ भारतीय जरूर प्रगति कर रहे हैं।

 

विकास के पाश्चात्य मॉडल को हमने स्वीकार किया। हरेक देश की अपनी आबो हवा है। हर एक देश की अपनी सभ्यता-संस्कृति है। जिसके द्वारा वह देश उस आधार पर चलता है। अमेरिका में पूंजी आधारित अर्थव्यवस्था तो भारत में पर्याप्त मानव संसाधन। लेकिन इन संसाधनों का कुशल प्रबंधन न होना। उस बात की ओर इंगित करता है कि हमने ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था को पूर्णरूपेण आत्मसात नही किया है। जब सत्ता व धन पर कुछ व्यक्तियों का एवं संस्थानों का कब्जा हो जाता है तो यह पूर्णरूपेण भारतीय राजनीति में व्यक्तिवाद को दर्शाता है। संघ जनसंघ ने व्यक्ति नहीं तत्व को महत्व दिया है।

 

नानाजी के उक्त पत्र में देखा जा सकता है कि अमेरिका द्वारा यह प्रचारित किया जाता है कि भारत विश्व में एक उभरती हुई महाशक्ति है। बेशक, भारत एक महाशक्ति, विश्वगुरू और आध्यात्मिक राष्ट्र था, है और रहेगा। लेकिन इसके वर्तमान स्वरूप देखकर हरेक देशभक्त चिंतित हो जाएगा।

 

उदारीकृत तथा भूमंडलीकृत भारत में पूंजीपतियों में वृध्दि पर ध्यान केंद्रित करते हुए कहते हैं कि 2004 में 12 पूंजीपतियों के स्थान पर 23 हो गए। अर्थात् दो गुना वृध्दि इस बात का प्रमाण है कि भारत में पूंजी का केंद्रीकरण होना भारतीय राष्ट्र के लिए अभिशाप है।

 

2010 तक भारत में पूंजीपतियों की संख्या 1 हजार से उपर है। आज नानाजी यदि होते तो क्या कहते? नानाजी ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ”एकात्म मानवदर्शन” पर जोर देते हुए कहा है कि मनुष्य मन शरीर, आत्मा एवं बुध्दि का समुच्चय हैं अतः समग्र विकास को केंद्र मानकर ही भारतीय जनता के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में परिवर्तन किया जा सकता है। नानाजी ने बहुत दुःख के साथ लिखा है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पाश्चात् दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन को उनके राजनीतिक साथियों एवं गैर राजनीतिक साथियों ने नहीं समझा अन्यथा वर्तमान भारत का कुछ अलग स्वरूप ही होता।

 

नानाजी ने अपने 7वें पत्र में लिखा है कि लोकतांत्रिक जीवन भारतीय जीवन का अविभाज्य अंग रहा है। भारतीय गांवों में ”पंच परमेश्वर”का विचार कोई आज का विचार नहीं है। यह तो युगों से चलते आया है। पर स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था की व्याख्या पाश्चात्य चश्में से देखने-लिखने की प्रवृत्ति ने बेड़ा गर्क किया है। आज कृषि को उद्योग का दर्जा देकर, भारतीय कृषि तथा कृषकों के साथ अत्याचार किया जा रहा है।

 

बड़े पैमाने पर कृषि उपकरणों का उत्पादन करके तथा वितरण द्वारा भारतीय कृषि पर कब्जा करने की प्रवृत्ति ने ग्रामीण संस्कृति को नष्ट किया है। नानाजी भारतीय कृषि के विकास के चरण को एक प्राकृतिक चरण मानते है तथा आपका कहना है कि रासायनिक आधार पर कृषि कार्य करना अप्राकृतिक है। नानाजी कहना है कि रासायनिक रूप से कृषि करने के कारण हमें निम्नांकित समस्याओं से गुजरना पड़ता है। * इससे पूंजीपतियों का विकास होता है। * यह कृषक स्वावलंबन के प्रतिकू ल है। * रासायनिक खाद, बीज व कीटनाशक कृषि की उर्वरा शक्ति को एकाएक बढ़ाकर नष्ट कर देते हैं। * यह मानव जाति के स्वास्थ्य के प्रतिकूल है। * रासायनिक तत्व भूमि के साथ-भूगर्भ जल को भी प्रभावित करते हैं। जिससे पेयजल दुषित होता है।

 

भारतीय सभ्यता-संस्कृति प्रकृति के शोषण दोहन तथा भोग का स्थान नहीं देती है। उसके लिए धरती माता, हिमालय देवता, गंगा माता तथा गाय माता है। यानि की समस्त प्रकृति को मातृस्वरूप मानने के विचारों ने भोग के स्थान पर त्याग को रखा। हम प्रकृति माता से उतना ही लेना चाहते है जितनी हमें आवश्यकता है।

 

भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ पशुधन है। पशुधन एवं कृषि का अन्योन्याश्रय संबंध है। गाय मात्र दुध ही नहीं देती, वह गोबर, गोमूत्र तथा दुध भी देती है। गाय के गोबर का धार्मिक महत्व के साथ अपना आर्थिक महत्व भी है। जिसे आज के नवशिक्षितों को ज्ञात नहीं है। गोमूत्र से बनाए गए किटनाशकों का अलग महत्व है। यह सस्ता, टिकाऊ व स्वदेशी है। यह कृत्रिम कीटनाशकों की तुलना में श्रेष्ठ होता है।

 

नानाजी ने ‘भारतमाता ग्राम वासिनी’ को चरितार्थ करते हुए लिखा है कि गोपालन भारतीय जीवन का अति आवश्यक एवं अविभाज्य अंग रहा है। गोपालक श्रीकृष्ण तथा भारतीय कृषि के प्रतीक बलराम का उदाहरण हर भारतीय के मन में बसा हुआ है। देश के युवाओं के लिए गोपालन, जैविक खाद एवं स्वावलंबन हेतु विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था ही आधार हो सकता है।

सामाजिक समरसता के उपासकों का सम्मान आवश्यक

राजीव मिश्रा

संस्कारों का भारतीय मानवीय चेतना से गहरा संबंध है। इसके माध्यम से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक परिष्कार की प्रक्रियाएं पूर्ण होकर परिवार, समाज एवं देश में समर्पण भाव से प्रशिक्षित सुसंस्कृत तथा समरस्ता से संपन्न सामाजिक सत् परिणामों को प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षा स्वावलंबंन, संस्कृति के समन्वय से ही सामाजिक उन्नति के द्वार खुलेंगे।

जब व्यक्ति का व्यावहारिक जीवन तथा नैतिक स्तर ही भ्रष्ट होगा तो उसकी थोपी नातों को कौन सुनेगा। जब तक नैतिक ह्रास के मूल कारणों पर गंभीरता से विचार मंथन नहीं होगा तब तक सामाजिक विकास संभव नहीं होगा। इसके लिए समाज में भ्रष्टाचार से अनीतिपूर्वक धन संपदा एकत्र कर लेने वाले बगुला भक्तों को महिमा मंडित करना बंद कर सामाजिक बहिष्कार का दंड प्रारंभ करना होगा। सदाचारिता संस्कृत-संस्कृति के पोषक ‘वयं राष्ट्रे जागयामः’ को आत्मसात करने वाले देश के लिए प्राणार्पित समाजिक समरस्ता के उपासकों को सम्मान देना होगा।

हिंदू समाज लगभग 1300 वर्षों से विदेशी एवं विधर्मी शक्तियों से संघर्षरत रहा है। यह बहुत लंबा काल है। इसमें हमने बहुत कुछ खोया है। वह एक लंबी गाथा है किंतु हम एक समाज हैं, एक ही भारत माता की संतान हैं, हम सबके पूर्वज एक हैं, हम एक कुटुंब हैं यह भी भूला बैठे। इसकी अनुभूति कराना, यह स्मरण कराना, समाज कल्याण की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

कुछ भ्रम जो लंबी राजनीतिक दासता के कारण पैदा हो गए, उनका निदान इस प्रयत्न में सहायक होगा। जैसे यह भ्रम पैदा हो गया है कि सामाजिक छुआ-दूत, भेदभाव हिन्दू व्यवस्था की देन है। यह असंभव को संभव बनाने जैसा भ्रम है। यह पाप इस्लाम एवं ईसाइयत की देन है। इस्लाम के भारत प्रवेश के पहले सामाजिक छुआ-छूत का कोई उदाहरण नहीं मिलता।

दूसरा भ्रम यह व्याप्त है कि आज जो हमारे हिंदू बंधु अस्पृश्य श्रेणी में माने जा रहे हैं ये शुद्र है। यह मान लेना इतिहास के साथ बलात्कार एवं क्रूर मजाक है। इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता। सच्चाई यह है कि हमारा यह समाज वर्ग उन शासक एवं योध्दा जातियों की संतान है जो देश की रक्षा में विधर्मी आक्रांता मुसलमानों से लड़े और दुर्भाग्य से पराजित होकर राजनीति बंदी के रूप में उपस्थित किए गए। उनके सामने प्रस्ताव आया किया तो इस्लाम स्वीकार करो अथवा हमारी सेवा के कार्य करने पड़ेंगे। जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया वे तो मुसलमान हो गए। किंतु जिन्होंने धर्म नहीं छोड़ा, उनकी सेवा स्वीकार की। उन म्लेच्छों ने उन हिंदू बने रहे राजनीतिक बंदियों में किसी को अपना मैला धोने का काम सौंपा और अनेक गंदे से गंदे काम सौंप कर अपमानित किया अर्थात् अछूत बना दिया।

आज आवश्यक है इस सच्चाई को उजागर करने की। इस भ्रम के कारण जो वीर योध्दा समाज में सर्वाधिक सम्मान के पात्र थे वे उस सम्मान से वंचित रह गए। हिंदू समाज को जिनके प्रति सर्वाधिक कृतज्ञ होना चाहिए था, वह भी संभव न हो सका।

* लेखक स्वतंत्र चिंतक हैं।

‘बयान वापस लिए’ कहानी जारी है…

अन्ना हजारे ने समेटे नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार की तारीफ के चंद लफ्ज, केन्द्र की यूपीए नीत सरकार के सामने भी समझौतावादी मुद्रा में

लौह-सा दिखता वो वृद्ध पुरुष धीमे-धीमे पिघलने लगा है। आलोचना की गर्मी से या किन्ही और कारणों से… निश्चिततौर पर आलोचना की गर्मी से यह संभव नहीं। महाराष्ट्र के एक गांव रालेगन सिद्धि का यह जनयोद्धा दिल्ली आकर महान से महामानव, अन्ना हजारे से छोटा गांधी और भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए आमजन का सूरज बन गया था। जब अन्ना ने दिल्ली का रण संभाला था, उसी दिन मैंने सोचा था कुछ न कुछ तो जरूर होगा, क्योंकि यह आदमी विजयपथ पर निकलता है तो न रुकता है, न थकता है और न झुकता है। हुआ भी यही, लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ इस जंग में जंतर-मंतर के रणक्षेत्र से सचिवालय में हुई संयुक्त कमेटी की पहली बैठक तक जो हुआ उससे मैं अचरज में हूं। चट्टान सा दिखने वाला पुरुष लगातार समझौतावादी होता जा रहा है। धीमे-धीमे वे उन बातों को पीछे छोड़ते चले जा रहे हैं जिन पर जनता का समर्थन उन्हें मिला था। पहले कमेटी के अध्यक्ष पद पर समझौता, फिर शनिवार को बैठक में मसौदे पर समझौता। रविवार को तो हद हो गई उन्होंने संसद को सर्वोपरि बताते हुए कह दिया कि यदि प्रस्तावित बिल को संसद रिजेक्ट भी कर दे तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं। हालांकि मैं भी संसद को ही सर्वोपरि मानता हूं, लेकिन संसद के हिसाब से ही चलना था तो फिर इतना तामझाम क्यों फैलाया, क्यों लोगों की भावनाओं को उद्वेलित किया? क्यों लोगों का मजमा लगवाया? क्यों फोकट में अग्निवेश जैसे माओवादी और नक्सलियों के समर्थक को मंच साझा करने दिया? क्यों बेवजह प्रोफेसनल एनजीओ संचालकों को हीरो बनवा दिया? सबसे बड़ा सवाल आखिर क्यों भ्रष्टाचार के खिलाफ बाबा रामदेव के आंदोलन को छोटा साबित करने की कोशिश की गई? क्यों घोटालों के आरोपों से घिरी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार से लोगों का ध्यान भटकाया? बहुत से सवाल हैं जिनके जवाब भी अन्ना हजारे को ही देने पड़ेंगे। वे इन सवालों के जवाब दिए बिना अपने गांव रालेगन सिद्धि वापस नहीं लौट सकते।

खैर, इसी दौरान अन्ना ने गुजरात के विकास प्रतीक मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार को जातिगत राजनीति से उबारने वाले नीतीश कुमार की तारीफ में चंद लफ्ज बयां किए थे। एक तो अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंक कर भ्रष्ट नेताओं ने निशाने पर पहले ही चढ़ गए थे। ऊपर से मोदी और नीतीश की तारीफ कर बर के छत्ते में हाथ दे मारा। नेताओं के साथ-साथ तथाकथित सेक्यूलरों की जमात भी उनके पीछे पड़ गई। उनके अपने भी विरोधियों जैसे बयान जारी करने लगे। नरेन्द्र मोदी ने इस पर चिट्ठी लिखते हुए अन्ना को आगाह किया कि अब आपका का तीव्र विरोध होगा, क्योंकि आपने मेरी तारीफ कर दी है। मेरे धुर विरोधी और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाले सेक्यूलर आपका कुर्ता खीचेंगे। आखिर में मोदी की शंका सत्य सिद्ध हुई। अन्ना हजारे पर लगातार भड़ास निकाली जाने लगी। आखिर उन्होंने अकरणीय कार्य (मोदी की तारीफ) जो कर दिया था। इसके बाद चर्चाओं का केन्द्र बिन्दु बदल गया। भ्रष्टाचार के खिलाफ और जन लोकपाल विधेयक को पारित कराने के लिए अन्ना की आगे की रणनीति क्या होगी? इस पर बहुत ही कम बात होने लगी। बात हो रही थी तो इस पर कि क्या अन्ना हिन्दूवादी मानसिकता के हैं? क्या हजारे की विचारधारा हिन्दूवादी है? क्या अन्ना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता हैं या फिर उसके किसी अनुसांगिक संगठन के। इन चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया। यह सब चल ही रहा था कि इसी बीच फिर वही कहानी दोहराई गई। कहानी गुजरात के प्रतीक पुरुष नरेन्द्र मोदी के बारे में जो भी शब्द कहे उन्हें वापस लेने की। मोदी की तारीफ से आलोचना के शिकार बने अन्ना ने मोदी की तारीफ में कहे तमाम लफ्जों को समेटना शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि मोदी के आलोचकों के द्वारा मोदी पर लगाए गए आरोपों में सच्चाई है तो मैं अपना बयान वापस लेता हूं। उन्होंने यह भी कहा कि मोदी और गुजरात के अच्छे कामों की तारीफ के बाद मुझे कई ई-मेल और पत्र आए। उनमें कहा गया कि गुजरात में कोई विकास नहीं हुआ है। मुझे नहीं मालूम कि इसमें सच्चाई क्या है, लेकिन अगर सच्चाई है तो मैं अपने बयान वापस लेता हूं। सामान्यतौर पर कोई भी साधारण आदमी अन्ना की इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता कि उन्हें इस बात का इल्म न होगा कि गुजरात और बिहार में विकास कार्य हुए हैं या नहीं। इस बात पर भी कोई यकीन नहीं करेगा कि अन्ना बिना जानकारी के कोई बयान दे सकते हैं। तो क्या इसके पीछे विरोधियों का लगातार विरोधी प्रचार-प्रसार एक कारण हो सकता है? जो भी हो एक बार फिर नरेन्द्र मोदी की तारीफ में प्रस्तुत फिल्म का दि एण्ड वही निकला… मैं अपने बयान वापस लेता हूं।

नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी कई लोग उनकी तारीफ करने के बाद अपने बयान वापस ले चुके हैं। प्रसिद्ध इस्लामिक संस्था दारुल उलूम देवबंद के नवनियुक्त कुलपति मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी ने भी पहले तो नरेन्द्र मोदी की उनके द्वारा गुजरात में कराए गए विकास कार्यों के लिए तारीफ की। इसके बाद तो कट्टरपंथी मुल्ला और सेक्यूलर जमात हाथ-पैर धोकर उनके पीछे ही पड़ गई। आखिर में मौलाना वस्तानवी को पीछे हटना पड़ा और उन्होंने भी मोदी की तारीफ में कहे शब्द वापस ले लिए। फिर कहानी में नया किरदार आया, भारतीय सेना में मेजर जनरल आईएस सिंघा। मेजर जनरल सिंघा ने अहमदाबाद में ‘सेना को जानो’ प्रदशनी के उद्घाटन भाषण के दौरान मोदी की तारीफ करते हुए कहा कि मोदी में सेना का कमाण्डर बनने के सभी गुण हैं। मोदी की प्रशंसा मेजर जनरल साहब को महंगी पड़ गई। सेना के उच्चाधिकारियों ने उन्हें तलब कर लिया। वहीं माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद एपी अब्दुला कुट्टी को तो मोदी की प्रशंसा करने पर पार्टी से निष्कासन झेलना पड़ा। यह तो होना ही था, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए तो नरेन्द्र मोदी वैसे भी राजनीतिक अछूत हैं। उनकी तारीफ करने पर निश्चित ही अब्दुला कुट्टी साहब अशुद्ध हो गए होंगे, तभी तो पार्टी ने उनसे कुट्टी कर ली, उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। गुजरात का ब्रांड एंबेसेडर बनने पर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की भी खूब किरकिरी हुई। दशों दिशाओं से एक ही आवाज आ रही थी अमिताभ को गुजरात का ब्रांड एंबेसेडर नहीं बनना चाहिए। लेकिन अमिताभ बच्चन ने अपने कदम वापस नहीं लिए, पैसा इसके पीछे का एक कारण हो सकता है। खैर जो भी हुआ, इस मुद्दे पर अमिताभ पर कीचड़ तो खूब उछाली ही गई थी।

हाल ही ‘बयान वापस लिए’ नामक कहानी में नए किरदार की एंट्री हुई है। लेखन के क्षेत्र में खासा नाम कमाने वाले चेतन भगत ने उनकी प्रशंसा करने की जुर्रत की है। चेतन ने कहा कि नरेन्द्र मोदी को राजनीति के राष्ट्रीय मंच पर आकर कमान सम्भालनी चाहिए। वे अच्छे वक्ता हैं, अच्छे नेता हैं। मोदी ने चेतन को भी चेता दिया है कि सावधान रहना, अब तुम पर मेरे विरोधी निशाना साधेंगे। अब देखना बाकी है कि इस कहानी का अंत किस तरफ जाता है…

कश्मीर समस्या में साम्यवादियों की भूमिका

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

 

शेख अब्दुल्ला ने 1931 -1932 में मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की स्थापना की थी । मुस्लिम कान्फ्रेंस का वास्तविक उद्देश्य समस्त कश्मीरियों के हितों के लिए लड़ना नहीं था। बल्कि वे केवल कश्मीरी मुसलमानों के हितों के लिए लड़ रहे थे।

 

शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से पढ़कर लौटे थे और वहीं से द्विराष्ट्रवाद के सिद्वांत से प्रभावित थे। इसीलिए 1931 -32 में उनका आंदोलन राजशाही अथवा सामन्तवाद के खिलाफ नहीं था बल्कि इसके विपरीत हिंदुओं के खिलाफ था। यही कारण था कि उन्होंने अपनी पार्टी का नाम मुस्लिम कॉन्फ्रेस रखना बेहतर समझा। अंग्रेजी शासन की भी यही मंशा थी कि भविष्य में यदि जिन्ना की मांग के अनुसार भारत का विभाजन करना पड़ा तो जम्मू कश्मीर पाकिस्तान में चला जाए, इसीलिए ब्रिटिश सरकार भी रियासत में हिन्दू , मुस्लिम विवाद बढ़ाकर यह आशा कर रह थी कि मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का उग्र होता हुआ आंदोलन अन्ततः कश्मीर से हिन्दुओं को भाग जाने जाने के लिए विवश कर देगा और कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो सकेगा ।

 

परन्तु शेख अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षा शायद अंग्रेजों के इस षड्यंत्र में समा नहीं रही थी। शेख अब्दुल्ला का कालान्तार में मुस्लिम नेतृत्व के प्रश्न पर जिन्ना से विवाद हो गया। जिन्ना अपने आप को हिन्दुस्तान के मुसलमानों का निर्विवाद नेता मानते थे। दूसरी ओर शेख अब्दुल्ला थे तो चाहे एक रियासत के ही रहने वाले परन्तु अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ने के कारण उनका दृष्टिकोण और चिंतन व्यापक हो गया था। वह भी कहीं भीतर ही भीतर अपने आप को मुसलमानों का कद्दावर नेता मानने लगे थे । जाहिर है कि जिन्ना के नेतृत्व में बन रहे पाकिस्तान में शेख अब्दुल्ला के लिए सम्मानजनक जगह नहीं हो सकती थी। इसीलिए शेख स्वतंत्र कश्मीर का सपना देखने लगे थे। महाराज हरि सिंह को हराकर स्वतंत्र देश के राजा बनने का सपना।

 

उधर इस पूरे माले में साम्यवादी अपना ही षड्यंत्र रच रहे थे। रुस में साम्यवादी क्रांति के बाद दुनिया भर में साम्यवादी विचारों का प्रचार -प्रसार भी बढ़ा था और लोगों में एक नई आशा भी पनपी थी। रुस की सफल क्रांति के बाद अनेक देशों में साम्यावादी दलों की स्थापना हुई थी। भारत में भी इन्हीं दिनों सी0पी0आई ने आकार ग्रहण करना शुरु किया था। जिन्ना भारत को लेकर द्विराष्ट्रवाद सिध्दांत को प्रतिस्थापित कर रहे थे। लेकिन सी0पी0आई की दृष्टि में भारत एक राष्ट् नहीं है बल्कि अनके राष्ट्रो का समूह है। और पार्टी की मान्यता थी कि प्रत्येक राष्ट्र को भारत से अलग होने का अधिकार है। अंग्रेजों के जाने से लगभग एक वर्ष पहले सी0पी0आई0 के मुखपत्र ‘ पीपुल्स एज’ ने अपने 5 मई, 1946 के एक अंक में लिखा था-”साम्प्रदायिक आधार पर संवैधानिक हल तलाशने के बजाय बेहतर होगा कि भारत में रह रही सभी राष्ट्रीयताओं को देश से अलग होने का अधिकार दे दिया जाए। अखबार ने आगे लिखा कि देश का भाषा और संस्कृति के आधार पर वैज्ञानिक वर्गीकरण कर दिया जाए और प्रत्येक राष्ट्रीयता को अलग होने का अधिकार दिया जाए।”

 

इसके साथ ही कम्यूनिस्ट पार्टी सशस्त्र क्रांति के माध्यम से सत्ता हथियाने का ताना-बाना भी बुन रही थी। क्योंकि कम्यूनिस्टों के मसीहा रुस में सत्ता का परिवर्तन खुनी क्रांति के माध्यम से हुआ था। कम्युनिस्ट पार्टी देश के भीतर ऐसे स्थानों में लगी हुई थी जहां अग्रेजों के चले जाने के बाद सशक्त क्रांति के बल पर सत्ता प्राप्त कर कम्युनिस्ट शासन की स्थापना की जा सकती थी। 20 वीं शताब्दी के 5 वें दशक में जब अंग्रेज यहां से बोरिया-बिस्तर समेट रहे थे तो ई0एम0एस0 नम्बूदरीपाद और ई0के0 गोपालन केरल में पाकिस्तान जिंदाबाद और मोपलास्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हुए घूम रहे थे। उद््देश्य था सशस्त्र क्रांति के बल पर केरल, मोपलास्तान में सशस्त्र क्रांति के बल पर स्वतंत्र कम्यूनिस्ट सत्ता की स्थापना करना।

 

कम्यूनिस्टों ने सशस्त्र क्रांति के लिए पहला चयन तो हैदराबाद रियासत का किया, जो पार्टी के सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन के नाम पर प्रसिध्द हुआ और दूसरे स्थान के लिए कम्यूनिस्टों की दृष्टि में कश्मीर सबसे उपयुक्त स्थान हो सकता था। उसका मुख्य कारण इस रियासत की भौगोलिक सीमा थी। रियासत रुस और चीन की सीमा के साथ लगती थी। चीन में पहले माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता पर कब्जा करने के लिए आंदोलन चला रही थी। कश्मीर में ऐसा सशस्त्र आंदोलन चलने पर रुस से आसानी से सहायता प्राप्त हो सकती थी और देर -सवेर सशस्त्र शक्ति के बल पर कश्मीर को एक स्वतंत्र साम्यवादी देश बनाया जा सकता था। लेकिन इसके लिए जरुरी था कि रियासत भारत में शामिल न हो और साथ ही शेख अब्दुल्ला की पार्टी में घुसपैठ करके उसके ढांचे का भविष्य में इस्तेमाल किया जाए।

 

उधर शेख अब्दुल्ला को भी लगता था कि यदि उसकी छवि मुसलमान नेता की बनी तो रियासत का राजा बनने का उसका स्वप्न पूरा नहीं हो सकता और न ही उसे अपने इस आंदोलन में भारत की सहायता प्राप्त हो सकती है। इसलिए शेख अब्दुल्ला भी चाहते थे कि यदि साम्यवादी उनके साथ मिल जाते हैं तो उसकी छवि पंथनिरपेक्ष नेता की बन जाएगी। अब नई परिस्थितियों में भारत सहायता कर सकता था। साम्यवादी अपनी योजना के कारण शेख अब्दुल्ला के साथ जाने को लालायित थे और अब्दुल्ला अपनी सफलता के लिए उनका प्रयोग करने को आतुर था। इस पृष्ठभूमि में शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम कान्फ्रेस का नाम बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेस कर दिया। कश्मीर में साम्यवादी पार्टी के ज्यादातर सदस्य कश्मीरी हिन्दू ही थे। पार्टी ने डा0 एन0एन0 रैना की अध्यक्षता में अपनी एक शाखा वहां स्थापित की हुई थी। इन कश्मीरी हिन्दू कम्यूनिस्टों के नेशनल कॉन्फ्रेस में आ जाने के कारण शेख अब्दुल्ला की छवि पंथनिरपेक्ष नेता की बनने लगी और इस छवि को कारण पं0 जवाहर लाल नेहरु भी अब्दुल्ला के साथ आ खड़े हुए। अब्दुल्ला ने समय , स्थान देखकर मार्क्सवादी और समाजवादी शब्दावली का प्रयोग करना भी शुरु किया। नेशनल कॉन्फ्रेस में कश्मीरी कम्युनिस्ट हिन्दुओं के आ जाने के बाद भविष्य में भी शेख को कोई खतरा नहीं हो सकता था। क्योंकि इन कम्यूनिस्ट हिंदुओं का कोई जनाधार नहीं था। अब्दुला को ऐसे जनाधारविहीन हिन्दू नेताओं की ही जरुरत थी। धीरे -धीरे अब्दुल्ला ने ऐसा आभास देना शुरु कर दिया, मानो वह चिंतन के स्तर पर समाजवादी खेमे से ही ताल्लुक रखता हो । पंजाब से जाने-माने कम्युनिस्ट श्री बी0पी0एल0बेदी और उनकी यूरोप मूल की पत्नी करेवा बेदी के आ जाने के बाद अब्दुल्ला को अपनी इस छवि के प्रसार करने लिए के लिए बहुत सहायता मिली। बेदी दम्पत्ति ने ही 1944 में ”नया कश्मीर” नाम से कश्मीर के लिए नया मेनीफेस्टो तैयार किया था। गहराई से देखने से पता चलता है। इसका बहुत सा हिस्सा ‘पीपुल्स एज’ में छपे मार्क्सवादी साहित्य में से लिया गया है। इसे तैयार करने में एन0एन0 रैना और मोती लाल मिस्त्री ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी लेकिन यह मैनिफेस्टो वे शेख अब्दुल्ला के नाम से ही प्रचारित -प्रसारित किया गया । इसके छपने के बाद कम्युनिस्ट नेता अब्दुल्ला को मजलुमों का मसीहा बताने लगे।

 

नया कश्मीर में भूमि पर उसी का हक जो उसको जोतते है -लागू करने की बात कही गई थी । शेख के दोनों हाथ में लड्डू थे क्योंकि रियासत में बडी भूमि वाले हिन्दू थे और उन पर खेती करने वाले कश्मीरी मुसलमान थे। शेख का मुस्लिम कॉन्फ्रेस वाला एजेण्डा पूरा हो रहा था और कम्यूनिस्टों का सर्वहारा क्रांति का। यह ठीक है कि इसमें कम्युनिस्टों ने शस्त्र नहीं उठाए थे परन्तु इसकी क्षतिपूर्ति शेख करने वाले थे । जब उन्होंने कहा कि जिनकी भूमि का अधिग्रहण कर दिया जाएगा , उनको मुआवजा नहीं दिया जाएगा । कम्युनिस्टों की चाल थी कि रियासत , भारत में शामिल न हो ताकि बाद में उसे क्रांति द्वारा आजाद देश घोषित कर दिया जाए ।

जनभ्रष्टाचार के खिलाफ जनांदोलन का कहीं अपहरण न हो जाए !

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार का होना कोई ऐसा बडा रहस्योद्धाटन नही है। जिसे जानकर आश्चर्य उत्पन्न होता है। राजनेताओं का भ्रष्ट आचरण, खासकर आर्थिक मामलों में भी जनता का जानापहचाना ही है। लोगों ने कुछ सीमा तक इस स्थिति को स्वीकार भी कर लिया है। जो नेता पैसे लेकर काम कर देता है उसे जनसाधारण अब ईमानदार मानने लगा है। उसकी दृष्टि में भ्रष्टाचारी वह हो गया है जो पैसा लेकर भी काम नहीं करता और उस पैसे को डकार लेता है। यदि जनसाधारण की मानसिकता इस प्रकार की हो चुकी है तो आखिर अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के मामले को लेकर जब जंतर-मंतर पर बैठते हैं तो उनके समर्थन में वहां हजारों की भीड कैसे इकट्ठा हो जाती है? दिल्ली के इतर कुछ अन्य बडे शहरों में भी अन्ना हजारे के आंदोलन का समर्थन करने के लिए बहुत से लोग एकत्रित हुए हैं। वैसे अन्ना हजारे का आंदोलन प्रत्यक्ष रुप से लोकपाल विधेयक को लेकर है जिसके प्रारुप को लेकर हजारे का सरकार के साथ मतभेद है। अन्ना को लगता है कि लोकपाल विधेयक आ जाने से भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसी जा सकती है। उनका कहना है कि विधेयक के प्रारुप को तैयार करने वाले समिति में कुछ जनप्रतिनिधि भी रहने चाहिए। इसके लिए अन्ना हजारे के समर्थक स्वामी अग्निवेश, प्रशांत भूषण इत्यादि सिविल सोसायटी शब्द का प्रयोग कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्रारुप समिति में सरकारी प्रतिनिध भी हो और सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि भी। अब यह सिविल सोसायटी से क्या अभिप्राय है यह बहुत स्पष्ट नहीं हो पा रहा। समाज अथवा सोसायटी के प्रतिनिधि हो यह बात समझ में आती है लेकिन यह मानकर चलना कि समाज का एक अंश सिविल में आता है और दूसरा गैर-सिविल में आत है आम आदमी को परेशान करने वाला है। दूसरा सिविल सोसायटी के नुमाइंदे कैसे चुने जाएंगे? जिसको स्वामी अग्निवेश सिविल सोसायटी का प्रतिनिधि घोषित कर देंगे। क्या वे सचमुच जनसमाज का प्रतिनिधित्व कर रहे होंगे। यहां भी अनिश्चय की स्थिति बरकरार है। उदाहरण के लिए अग्निवेश विनायक सेन को सिविल सोसायटी का प्रतिनिधि मानते है जबकि उच्च न्यायालय की दृष्टि में वह अपराधी है।

परन्तु भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का गुस्सा इतना तीव्र है कि इन प्रश्नों पर विचार करने का समय ही नहीं है। अन्ना हजारे भी शायद इसे अच्छी तरह जानते ही हैं क्योंकि महाराष्ट्र के जिन गांवों में उन्होंने अपने अथक परिश्रम और अपने दैवीय आचरण से महापरिवर्तन किया है वहां के अनुभव उन्हें इतना तो बताते ही होंगे कि गांव का वह जनसमाज भी सिविल सोसायटी में ही आता है। अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रतीक बनकर उभरे हैं जिस भ्रष्टाचार का हमने प्रारम्भ में जिक्र किया था उसकी सीमाओं को भी तोडकर राजनेता , नौकरशाह , अपराधियों की त्रिमूर्ती ने आपसी गठबंधन से इतनी भयंकर लूट मचायी कि भ्रष्टाचार को किसी सीमा तक स्वीकार करने वाला जनसमाज भी आहत हो उठा। कॉमनवेल्थ खेलों में, आदर्श सोसायटी में, केन्द्रीय सतर्कता की आयुक्त की नियुक्ति में, 2 जी स्पेक्ट्रम के आबंटन में, एस बैड घोटाले में इस त्रिमूर्ति ने इतनी भयंकर लूट मचायी कि देश की व्यवस्था ही खतरे में पड गयी। इन सबसे बढकर बोफोर्स घोटाले के आरोपी क्वात्रोची को बचाने में जिस प्रकार सोनिया गांधी का ग्रुप और जांच एजेंसियां मशक्कत कर रहीं थी उससे लगता था कि व्यवस्था भ्रष्टाचारियों को बचाने में लगी हुइ है न कि उनको दंडित करने में जिन राजनेताओं का काला पैसा विदेशों के बैंको में रखा हुआ है उनका नाम छिपाने में सरकार उसी प्रकार मेहनत कर रही है जिस प्रकार क्वात्रोची को देश से भगाने में की थी। स्थिति यहां तक दयनीय हो गयी है कि हसन अली जैसे लोगों जिनके तार विदेशी आतंकवादियों से जुडे होने का संदेह है को पकडा जाए-इसके लिए न्यायालय को सरकार सरकार से बार-बार कहना पड रहा है। जाहिर है पानी सिर से गुजरना शुरु हो गया है लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही क्योंकि इस बार भ्रष्टाचारी के रुप में सरकार ही कटघरे में दिखायी दे रही है। कांग्रेस के पास इसका उत्तर है? भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले बाबा रामदेव उसने यह उत्तर ‘यू ब्लडी इंडियन’ कहकर दिया था। देखना है कि अन्ना हजारे के लिए कांग्रेस के तरकश में कौन सा तीर है?

लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ यह लडाई अंततः भारत की आमजनता को ही लड़नी पड़ेगी। वह जनता जो खेतों में दिन -रात अपना पसीना बहाती है और कारखानों में अपने ही पसीने से नहाती है। दिल्ली में भ्रष्टाचारी जिस लूट को अंजाम दे रहे है वह दरअसल भारत की इसी आम जनता का पैसा है। सिविल सोसायटी ने तो उसे पैसे को डकारने के अलग-अलग तरीके निकाल रखे हैं। अन्ना हजारे के रुप में देश को एक नया जयप्रकाश मिला है। बाबा रामदेव के रुप मेंं एक नया कौटिल्य मिला है जो भारत के लिए एक नया अर्थशास्त्र लिख रहा है और श्री श्री रविशंकर जी के रुप में एक नया सत्याग्रही मिला है जो देष में घूम-घूमकर अलख जगा रहा है। कुछ लोग इन प्रतीकों का यदि अपहरण कर इस सारे आंदोलन की हत्या कर देंगे तो भ्रष्टाचारियों को अपना यह देशद्रोही खेल जारी रखने का एक बार फिर मौका मिल जाएगा। ध्यान रखना चाहिए कि जयप्रकाश नारायण के समग्र कांति आयोजन के सुफल को जहरीला करने में भी उसी प्रकार के कुछ लोगों की शमूलियत थी और उन्होंने अपने प्रयासों से आंदोलन की प्राप्ति को तारपीड़ो कर दिया। जरुरी है कि आंदोलन के शुरु में ही ऐसी ताकतों की शिनाख्त कर ली जाए और उन्हें इस पवित्र आंदोलन से बेदखल कर दिया जाए।

कहानी / रंजन

आर. सिंह

‘रंजन मुझे प्यार करता है पापा.’

‘यह कैसे हो सकता है?’

प्रोफेसर साहब सोंच में पड गये.

‘बेटी तुम पागल तो नही हो गयी हो?

‘नही पापा, उसने स्वयं मुझसे कहा कि वह मुझे प्यार करता है.’

‘बेटी तुम पढी लिखी हो.एक वैज्ञानिक की बेटी ही नही,तुम स्वयं एक कम्प्युटर साइंटिस्ट हो.तुम एैसा सोच भी कैसे सकती हो?रंजन प्यार कर ही नही सकता,क्योंकि प्यार मानवीय भावनाओं का द्दोतक है और रंजन मानव नही है.’

‘पापा मैं नही मानती कि रंजन मानव नही है.क्या कमी है उसमे?किस बात में वह भिन्न है मानवों से? मानवों में मानवता का विकास भी तो अचानक नही हुआ. डार्विन के सिद्धान्त के अनुसार मानव अपने वर्तमान रुप में अनेक विकास चरणों को पार कर पहुचा है.फिर रंजन में मानवीय गुणों का विकास क्यों नही हो सकता? उसमे प्यार की भावनाएं क्यों नही पनप सकती?

प्रोफेसर साहब देखते ही रह गये अपनी लाडली बेटी को.उनको पता ही नही चल रहा था कि वे इसका क्या जवाब दें?क़या सचमुच उनकी बेटी पागल हो गयी है? उनकी तीव्र वुद्धि वाली बेटी को क्या हो गया है? उस बेटी को जिसका लोहा कभी कभी प्रोफेसर साहब को भी मानना पडा है.कम्प्यूटर साइंस में उनकी जितनी उपलब्धियां हैं,उसमे पिछले पाँच वर्षों में जो इजाफा हुआ है,उसमे उनकी बेटी का सहयोग कुछ ज्यादा ही रहा है. स्वतंत्र रूप से भी कम्प्यूटर साइंस में अपनी उपलब्धियों से उसने उस क्षेत्र में इस छोटी उम्र में भी अपना एक स्थान बना लिया है.लोग कभी कभी आश्चर्य करते हैं कि इतने कम उम्र वाली इस लडकी रंजना के मस्तिष्क में आखिर क्या भरा है?पता नही प्रोफेसर साहब ने इसको किस तरह की शिक्षा दी है?देखना यह प्रोफेसर साहब को भी एक दिन मात दे देगी.

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प्रोफेसर साहब को याद है वह दिन, जब करीब सोलह वर्ष पहले वे अपनी पत्नी और पाँच वर्षीया बेटी रंजना को लेकर अमेरिका गये थे.प्रोफेसर साहब उन दिनों कम्प्यूटर पर शोध कर रहे थे और एैसे रोबो के विकास में लगे थे जो न केवल मानवों की तरह काम कर सके बल्कि मानव लगे भी.इसी सिलसिले में उनके कुछ पेपर्स अमेरिका के तकनीकी पत्रिकाओं में प़्रकाशित हुए थे.उन पेपरों के आधार पर अमेरिका के एक फर्म ने उन्हें अपने यहाँ आगे के अनुसंधान के लिये बुला लिया.उस फर्म ने प्रोफेसर साहब को एैसा अच्छा आफर दिया था कि वे इन्कार नही कर सके. प्रोफेसर साहब और उनकी पत्नी को आपना देश छोडने का दुखः तो बहुत हुआ पर अनुसन्धान की बेहतर सुविधा ने अपनी ओर खींच ही लिया.प्रोफेसर साहब ने अमेरिका में नाम और पैसा तो बहुत कमाया ,पर अपना देश उन्हें हमेशा आकर्षित करता रहा. इसी बीच उनकी पत्नी भी एक हादसे का शिकार हो गयी.प्रोफसर साहब अपनी पत्नी को बहुत प्यार करते थे.उसका वियोग उन्हें विरक्त बना गया.उनकी लाडली बेटी रंजना भी अब सयानी हो गयी थी.प्रोफेसर साहब के अन्तरमन में उसके भविष्य की चिन्ता भी थी.बेटी को भारत लौटना अच्छा तो नहीं लगा था पर पिता का प्यार उसे उनके साथ ही खींच लाया.भारत लौटते वक्त उनके साथ एक सुन्दर युवक भी आया. जो लोग प्रोफेसर साहब को जानते थे,उन्हें आश्चर्य तो हुआ,पर किसी ने पूछा नही.अन्य लोगों क्या गर्ज पडी थी कि इसकी छानबीन करते.प्रोफेसर साहब और उनकी बेटी उसे रंजन कह कर बुलाते थे.प्रोफेसर साहब ने यहाँ अपनी अनुसन्धान शाला खोल रखी थी.प्रोफेसर साहब और रंजना तो उसमे काम करते ही थे,रंजन भी उनका हाथ बँटाता था.प्रोफेसर साहब के घर की पूरी देखभाल रंजन के जिम्में थी.खाना बनाने,घर की सफाई करने और घर को सज्जा कर रखने की पूरी जिम्मेवारी उसी पर थी. रंजना भी अपने पिता का खयाल रखती थी और उनके प्रत्येक कार्य में सहयोग देती थी,पर बाप बेटी पूर्ण रूप से रंजन पर आश्रित थे.लोगों ने रंजन को उनलोगों के साथ बैठ कर खाते नही देखा था,पर उनलोगों के व्यस्त जीवन में एैसे मौके ही कितने आते थे जब लोगों से उनका मिलना हो सके.

रंजन और रंजना एक दूसरे से बहुत घुले मिले थे.अवसर पाते ही एक दूसरे से वार्तालाप में निमग्न हो जाते थे.प्रोफेसर साहब ने भी इधर एक खास बात देखी थी. आजकल रंजना कुछ अन्यमनस्क रहने लगी थी.उसका ध्यान अपने प्रयोगों पर ज्यादा केन्द्रित नही हो पा रहा था. बनने संवरने में भी ज्यादा दिलचस्पी लेने लगी थी.प्रोफेसर साहब ने इसे उम्र का तकाजा समझा था,पर आज जब रंजना ने रंजन से अपने प्यार का इजहार कर डाला तो प्रोफेसर सहब स्तब्ध रह गये.समझाने का भी जब कोई प्रभाव नही पडा तो प्रोफेसर साहब ने कुछ दिनों तक चुप रहने में ही भलाई समझी,पर उनकी अनुभवी निगाहें अब उन दोनों का पीछा करने लगी.

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प्रोफेसर साहब के बंगले का यह भाग बहुत ही रमणीय था.रंग बिरंगे फूलों से सज्जा हुआ था यह हिस्सा.पेड पौधों की बहुलता इसे एक सुन्दर उद्दान का रूप प्रदान करती थी.इस उद्दान की देख भाल के लिये एक माली रक्खा हुआ था.फले तो इसकी ओर देखने को भी बाप बेटी को फुर्सत नही थी.प्रोफेसर साहब और रंजना इस ओर तभी आते थे,जब मेहमानों की अधिकता होती थी.लेकिन आजकल रंजना इधर अक्सर आने लगी थी.रंजन भी उसके साथ होता था. वे दोनो टहलते हुए बातें किया करते थे. बातों का कोई खास सिलसिला नही होता था.उनकी बातचीत सुनकर कोई यह सोच भी नही सकता था कि यह वही लडकी है जिसने कम्प्यूटर क्षेत्र में धूम मचा रखी है.वे कभी मौसम की बातें करते तो कभी फूलों और बादलों की.

उस दिन मौसम,फूल और बादलों की बातें करते करते कब वे एक दूसरे से प्यार की बातें करने लगे,उन्हें पता भी नही चला.रंजन ने फिर कहा कि वह रंजना से प्यार करता है.रंजना तो उसके प्यार में इस कदर डूब गयी थी कि रंजन की प्रत्येक बात में उसे प्यार छलकता हुआ नजर आता था.रंजना को फूल बहुत प्रिय थे.उसकी इच्छा हुई कि रंजन एक फूल तोडकर उसके बालों में लगा दे.बातचीत के सिलसिले में न जाने एैसा क्या हुआ कि रंजन ने सचमुच एक फूल तोडकर उसके जुडे में खोंस दिया.रंजना आत्मविभोर हो गयी.उसे लगा कि वह बढ कर रंजन को गले से लगा ले,पर न जाने क्या सोचकर वह एैसा न कर सकी.इसी बीच बारिश होने लगी और वे बंगले के अन्दर चले गये.

4

प्रोफेसर सहब की परेशानियां बढती जा रही थी. वे रंजना को कुछ कह नही पा रहे थे,पर भीतर ही भीतर घुट रहे थे.काम पर भी इसका असर पड रहा था.वे अपने प्रयोगों में उतना ध्यान नही दे पा रहे थे.र8जना की अन्यमनस्कता भी इसका कारण थी.अब उनके समझ में आा रहा था कि कितना निर्भर थे वे रंजना पर.रंजना के भविष्य की चिन्ता भी उन्हें खाये जा रही थी.रंजन के प्यार का पागलपन उसे कहाँ ले जायेगा?क्या गुल खिलायेगा यह पागलपन इसका अन्दाजा भी वे नही लगा पा रहे थे.कभी कभी उनका मन करता था कि वे अपनी बेटी से इसके बारे में बातचीत करें,पर कुछ सोच कर चुप रह जाते थे.बेटी भी, जो अपने बाप से इतना प्यार करती थी,अब उनसे थोडी कटी कटी रहने लगी थी. एक खतरा जो उनलोगों के सर पर मडरा रहा था और जो शायद सबकुछ समाप्त कर सकता था,काश! उसकी ओर उनका ध्यान जाता.

5

प्रोफेसर साहब और रंजना का कमरा साथ साथ था और उसके बाद था रंजन का कमरा.रंजन घर का सब काम निपटा कर करीब 11 बजे रात को अपने कमरे में जाता और फिर सुबह छः बजे उठकर अपने काम में लग जाता था.तीनों कमरे श्रेष्ठ आधुनिक सुविधाओं से युक्त थे,अतः कौन अपने कमरे में क्या करता है,यह पता लगाना बहुत कठिन था. पहले तो रंजना अपने पापा से बिना बात किए और कम से कम बिना आधा घंटा उनके साथ बिताये अपने कमरे में नही जाती थी,पर जबसे यह रंजन वाला किस्सा सामने आया था,वह प्रोफेसर साहब से केवल थोडी बहुत बात करके उनको गुडनाइट कहकर अपने कमरे में चली जाती थी.उस दिन भी एैसा ही हुआ.प्रोफेसर साहब भी अपने विचारों में मग्न विस्तर पर पडे रहे.पर, रंजना उस रात अपने कमरे में नही गयी. वह रंजन के कमरे के बाहर उसका इन्तजार करती रही.रंजन जब वहां आया तो वह रंजन के साथ ही उसके कमरे में दाखिल हो गयी.रंजन काम की अधिकता से थके हुये आदमी की तरह अपने कमरे में जाते ही विस्तर पर लेट गया.रंजना उसके पास ही बैठी बैठी बातें करती रही.कमरे में धीमी रोशनी का वल्ब जल रहा था.उस रात्रि वेला में कुछ तो वातवरण का प्रभाव,कुछ रंजना की मानसिक स्थिति.बातचीत ने कुछ एैसा मोड लिया कि रंजना यकायक रंजन से लिपट गयी.इसके बाद जो हुआ वह बहुत ही भयानक था.प्रोफेसर साहब रंजना की चीख और धमाके की आवाज सुनकर दौडे,पर रंजना के फटे हुये सर और खून से लथपथ शरीर को देखकर पछाड खाकर गिर पडे.उनको इतना भी होश नही रहा कि वे जान पाते कि क्या हुआ था और क्यों हुआ था. असल में उन्होने रंजन के सीने के पास ,उसके शरीर की गतिवधियों को नियन्त्रित करने के लिये,कम्प्यूटर सिस्टम लगा रखा था.उस सिसटम की सुरक्षा के लिये उन्होने प्रवन्ध कर रखा था कि जो वसतु उसके सीने के निकट आने की कोशिश करेगी रंजन उसे झटके से दूर फेंक देगा.पता तो इसका रंजना को भी था,पर वह अपने होशोहवास में थी कहाँ?लेटे हुये अवस्था में भयानक उछाल ने रंजना के सर और शरीर को छत में दे मारा था और फिर वह गिरी थी फर्श पर.

रंजन अभी भी विस्तर पर पडा था, कयोंकि उसके उठने का समय तो छः बजे सुबह था और उसमे अभी भी छः सात घन्टे बाकी थे.

(प्रेरणास्रोत: अंग्रेजी टी.वी.सिरियल ‘स्माल वन्डर’).

कविता / स्रष्टा की भूल

भगवन, क्यों बनाया तुमने मुझको आदमी ?

क्या किया मैंने बनकर आदमी ?

क्या क्या सपने देखे थे भगवन ने ?

मेरे शैशव काल में.

सृष्टि का नियामत था मैं.

स्रष्टा का गर्व था मैं.

कितने प्रसन्न थे तुम]

जिस दिन बनाया था तुमने मुझे.

सोचा था तुमने]

तुम्हारा ही रूप बनूंगा मैं]

प्रशस्‍त करुंगा पथ निर्माण का]

बोझ हल्का भगवान का.

भार उठाउंगा सृष्टि का.

कल्याण करुंगा का संसार का.

बहेगी धरती पर करुणा की धारा.

बहेगा वायु प्यार का.

चाहते थे तुम प्यार का सागर बनूं मैं.

ज्योति का पुंज बनूं मैं.

साथ दूं तम्हारा सृष्टि के विकास में.

स्वर्गिक बनाऊं धरा को,

अपने नैसर्गिक उद्वेगों से.

पर क्या कर सका यह सब ?

पूछता हूं आज अपने आप से.

क्यों नहीं उतार पाया स्वर्ग को धरा पर ?

न बना पाया मही को स्वर्ग ?

कारण बना मैं क्यों विनाश का ?

रोने लगा देवत्व, हँसने लगा शैतान,

आचरण क्यों हो गया मेरा ऐसा ?

आज लगता है मुझे,

भूल थी भगवान की जो मुझे बनाया.

नहीं इतना उथल पुथल मचता सृष्टि में, अगर नही आता मैं अस्तित्व में.

-आर. सिंह