भारत -पाकिस्तान का सेमी फाइनल क्रिकेट मैच मोहाली में खेला गया ,दोनों देशों के बीच खेले गए इस मैच,जिसे मीडिया ने दो देशों की सबसे बड़ी जंग तक कह दिया था को लेकर दुनिया की क्रिकेट प्रेमी जनता निगाहें टिकाये बैठी ,हार जीत को लेकर भी दावे -प्रतिदावे किये गए ,सट्टा बाज़ार भी तोल मोल में व्यस्त रहा ,आम व्यक्ति दोनों ही देशों में अपनी अपनी रोज़ी रोटी की क़िच क़िच में लगा हुवा है ,कहा जाता है की भारत में क्रिकेट सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है ,किन्तु समझ से बाहर है की जिस देश की ४५% आबादी गरीबी रेखा के निचे का जीवन जी रही है उस देश में ये महंगा खेल जिसके खिलाड़ी का जूता तक खरीदना आम आदमी के बस का रोग नहीं है भारत में किस प्रकार लोकप्रिय हो सकता है ,हाँ माध्यम वर्गीय -शहरी आबादी मीडिया द्वारा परोसे जाने के कारण धीरे धीरे इसकी और आकर्षित हो रहा है,बेशक क्रिकेट एक तकनिकी खेल है ,मैं इस खेल का विरोधी नहीं हूँ ,मैं जानता हूँ की इस खेल में शारीरिक -मानसिक -बौधिक सभी प्रकार का कठिन इम्तिहान खिलाडियों का होता है ,लेकिन चौक चोरहों पर भीड़ लगाकर या काम धाम छोड़ कर टकटकी लगाकर मैच देखने वालों की कुल संख्या की ९० से ज्यादा प्रतिशत लोगों को पता ही नहीं होता की स्लिप ,लॉन्ग ऑन- मिड विकेट- मिड आफ -सिली पॉइंट क्या होता है ,बालिंग में राउंड दी विकेट ,स्विंग ,गूगली आदि से उनको कोई मतलब नहीं होता ,ज्यादातर दर्शक केवल ये फेंका -ये मारा, चोका छक्का .तेंदुलकर सेंचुरी बनाएगा या नहीं बस इसी बहस के लिए लोग अपना बहुमूल्य समय बर्बाद करतें हैं ,बाज़ार बढाने केलिए बहुराष्ट्रीय कंपनिया विज्ञापनों के सहारे अपनी अपनी दुकानदारी मज़बूत कर लेती हैं हम केवल सचिन सचिन -धोनी धोनी -ज़हीर ज़हीर की रट लगाते रहतें हैं और अपनी जेब पर डाका डलवाते रहतें हैं,भारत -पाकिस्तान दोनों ही देशों के के प्रधान मंत्री अपनी सारी शासकीय जिम्मेदारियों से मुक्त होकर मैच देखने मोहाली स्टेडिंयम में मौजूद रहे ,इसके अलावा भी दोनों देशों की अनेकानेक हस्तियाँ मैच देखने में व्यस्त रही ,लगता है तकनीक का ये खेल अब ऐसी तकनीक ज़रूर प्रदर्शित करेगा जिससे दुनिया की रोजमर्रा की क़िच-क़िच ख़त्म होजायेगी इसी लिए “बेचारे” अर्थशाष्त्री प्रधानमन्त्री भी तकनिकी ज्ञान प्राप्त कर महंगाई भ्रष्टाचार आदि समस्याओं का निदान, खेल के बाद ज़रूर ज़रूर कर पायेंगें ऐसी उम्मीद सभी देशवासी कर रहें हैं ,हाँ बिचारे सुरक्षा कर्मी ज़मीन आसमान में कहीं परिंदा भी पर ना मार सके इस व्यवस्था में लगें रहे ,आतंकवादी इस देश में अपनी काली करतूत को अंजाम ना दे सकें इस प्रयास में रात दिन एक करते रहें ,वी वी आई पी सुरक्षित रहें वो भी इतनी बड़ी संख्या में एक साथ उपस्थित रहें हैं इस लिए सुरक्षा कर्मियों की ज़िम्मेदारी और बढ़ गई हैं ,आखिर क्रिकेट के ज़रिये अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध जो मज़बूत होतें हैं,ये भी इस महान खेल की ही करामात हैं .इसकेलिए भी भले ज़बरदस्ती ही सही हमें क्रिकेट खेल को बढ़ावा देना ही होगा ,
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की मजबूती के साथ ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ मज़बूत होंगी इससे हमारा जनजीवन विलासिता की और अग्रसर हो रहा है, इस मैच के बाद और तेज़ गति से इस दिशा में अग्रसर होगा इसके लिए भी आज क्रिकेट की जय बोलनी ही होगी ,हम हिन्दुस्तान लीवर ,कोकाकोला ,कोलगेट कंपनी के ज्यादा से ज्यादा उत्पाद खरीदें इसके लिए हमें मैच के दौरान प्रेरक विज्ञापन दिखा कर प्रेरित किया जावेगा हम भूल जायेंगें की ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रवेश केवल व्यापार के लिए किया था किन्तु इस बहाने से २०० वर्षों तक देश ने गुलामी सही ,क्यों की हम भारतवासी अत्यंत सीधे और सरल स्वभाव के हैं इस लिए हमें तकनीक ना भी समझ आये तो भी हम “क्रिकेट “ज़रूर ज़रूर देखतें हैं,देखते थे और देखते रहेंगे ,ये मैच भारत जीत गया बधाई ,मिडिया ने फटाफट एक और शीर्षक सनसनी पैदा करने के लिए दे डाला “अब होगा लंका दहन” यहाँ तक की कुछ खिलाडियों को भगवान् श्री राम के वेश में भी धनुष बाण हाथों में लेकर प्रदर्शित किया गया ,हिन्दू देवी देवताओं का इस प्रकार का प्रदर्शन कितना उचित है ?क्या ये उपमाएं ज़रूरी हैं ,क्या किसी अन्य देश में भी ऐसा मज़ाक अपने इष्ट का उड़ाया जाता है ?ये सब अभी भी समझ ना आया तो कब आयेगा ? ये सभी प्रश्न मिडिया के कृत्य पर कौन उठाएगा ? २३ वर्षों के बाद हमने क्रिकेट का वर्ल्ड कप जीता ये हम सब के लिए गर्व की बात है किन्तु उक्त प्रश्नों पर भी हमें गौर करना होगा .
भारत ने 50 ओवरों वाला विश्वकप क्रिकेट टूर्नामेंट अपने नाम कर लिया है। इस टूर्नामेंट का कई मायनों में महत्व है। यह टूर्नामेंट क्रिकेट के साथ महानतम सामाजिक -राजनीतिक और आर्थिक भूमिकाओं के लिए भी हमेशा याद किया जाएगा। यह टूर्नामेंट मंदी के दौर में हो रहा था और इसने भारत के उपभोक्ता बाजार को चंगा करने और मीडिया उद्योग को मस्त बनाने में बड़ी भूमिका अदा की है। बाजार को आर्थिकमंदी के चंगुल से बाहर निकालने में यह एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हुआ है।
भारत में क्रिकेट खेल नहीं जुनून है। ऐसा जुनून जिसमें सारा देश अपनी सुधबुध खो देता है। क्रिकेट अकेला बड़ा खेल है जिसने भारत के नागरिकों को मनोरंजन का अधिकार दिलाया है। भारत में एक जमाने में लोग मनोरंजन करते थे लेकिन टीवी आने ,मैचों के प्रसारण,विभिन्न निजी चैनलों के प्रसारण और खेल के अहर्निश प्रसारण ने मनोरंजन को अधिकार बना दिया। आज मनोरंजन मानवाधिकारों का हिस्सा है। यह चैनलों, व्यवसायी घरानों,खिलाडियों ,कलाकारों आदि की आय का भी बड़ा जरिया है।
भारत में क्रिकेट का पहलीबार ऐसा टूर्नामेंट हुआ है जिसमें पाक ने भाग लिया हो और शिवसेना चुप रही हो। पाक के आने पर वे अमूमन हंगामा करते हैं। मीडियातंत्र की इसबार प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने भारत-पाक मैच के मौके पर राष्ट्रवादी उन्माद को नहीं उछाला। समूची कमेंट्री,न्यूज और लिखित रिपोर्टिग राष्ट्रोन्माद से एकदम मुक्त थी। यहां तक कि मोहाली मैच के अवसर पर खेल का उन्माद था राष्ट्रोन्माद नहीं था। इस परिप्रेक्ष्य में भारत में क्रिकेट ने राष्ट्रवाद का अंत कर दिया है। यह संयोग की बात है कि 26/11 मुम्बई आतंकी हमले से आरंभ हुआ पाकविरोधी राष्ट्रोन्मादी अभियान फाइनल के साथ मुम्बई में ही खत्म हुआ। भारत-पाक संबंध सामान्य बनने की दिशा पकड़ चुके हैं और पड़ोसी देशों और आम हिन्दुस्तानियों में ऐसा शानदार विरेचन या कैथार्सिस पहले कभी नहीं देखा गया। यह राष्ट्रवाद का रोमांचक अंत है।
मंदी के कारण बाजार पस्ती थी और मीडिया के आर्थिक हालात भी ज्यादा बेहतर नहीं थे ऐसी अवस्था में विज्ञापनों की बाढ़ और प्रचार ने बाजार में पूंजी को व्यापक रूप में प्रसारित किया है। भारत सरकार ने क्रिकेट प्रेम दिखाते हुए आईसीसी को 45 करोड़ रूपये की आयकर में छूट दी है। विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट से आईसीसी को 1476 करोड़ रूपये की आमदनी हुई और उसने 571 करोड़ रूपये खर्च किए।
जो मीडिया भ्रष्टाचार के महाख्यान में आकंठ डूबा था उसे क्रिकेट ने आनंद के पैराडाइम में ले जाकर बिठाया है। उल्लेखनीय है 2जी स्पैक्ट्रम और भ्रष्टाचार के समस्त मीडिया प्रचार को उसने कब्र में सुला दिया है। उल्लेखनीय है कि जब मैच पीक पर था तब 2जी स्पैक्ट्रम की चार्जशीट दाखिल की गयी और इस खबर पर टीवी दर्शकों की नजर नहीं थी ,सबकी नजर खेल पर थी। यह भ्रष्टाचार के प्रचार की मनमोहनी क्रिएटिव सफाई है।
दूसरी ओर क्रिकेट ने लोकतंत्र को ठप्प कर दिया। राजनीति के महानायकों को खेल के महानायकों के सामने नतमस्तक होकर बैठे देखना,विधानसभा चुनावों में राजनीति से ज्यादा क्रिकेट के जुनून का होना इस बात संकेत है कि क्रिकेट का खेल लोकतंत्र के राजनीतिक खेल से भी बड़ा है। देश की आम जनता के मन को स्पर्श करने,रोमांचित करने और एकजुट करने में क्रिकेट पुख्ता लोकतांत्रिक सीमेंट है। यही वजह है कि मनमोहन सिंह से लेकर ममता तक,सोनिया से लेकर राहुल गांधी तक क्रिकेट का आनंद लेते नजर आए। इससे यह भी संदेश निकलता है कि क्रिकेट लोकतंत्र है,मित्रता है,मनोरंजन है और सबसे ऊपर आनंद है। एक ऐसा आंनंद जिसका गरीब-अमीर सभी एक साथ मजा लेते हैं और एक ही जुनून में डूबे रहते हैं। मुकेश अम्बानी से लेकर मनमोहन सिंह,घासीराम से लेकर अभिजन बुद्धिजीवियों तक सबमें क्रिकेट के प्रति जुनूनी भाव भारत की महान उपलब्धि है।
क्रिकेट का मतलब दौलत कमाना नहीं है। क्रिकेट खेल है व्यापार नहीं है। एक ऐसा खेल जिसे भारत के खिलाडियों ने अपनी प्रतिभा और लगन से साहबों के खेल की बजाय आम जनता का खेल बनाया है। ये जेंटिलमैन गेम था,लेकिन भारत के खिलाडियों ने इस जनता का खेल बनाया दिया। गंवार-अशिक्षित जनता का सबसे प्रिय खेल बना दिया। भारत में यह अमीरों और अभिजनों का खेल नहीं है।यह आम जनता का सबसे प्रिय खेल है। यह बाजार और बाजारवाद का खेल नहीं है। यह मुनाफे का खेल नहीं है। हमने आजतक किसी कारपोरेट घराने के मुनाफों में आए उछाल पर कभी जनता को जुनूनी भाव में नहीं देखा। इस अर्थ में देखें तो भारत में क्रिकेट बाजारवाद का नहीं जनता के विरेचन का हिस्सा है। इसमें बाजारवाद गौण है। लोकतंत्र,मित्रता और मनोरंजन प्रमुख हैं।
हमें क्रिकेट को बाजारवाद का औजार देखने की मूर्खताओं से बचना चाहिए। बल्कि क्रिकेट तो बाजार को मंदी से बाहर लाने का अस्त्र बना है।
भारत में क्रिकेट की अवस्था इश्क जैसी है,इस पर गालिब ने लिखा है- “इश्क से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया। दर्द की दवा पाई दर्दे बेदवा पाया।”
गालिब को मैं क्रिकेट के लिए बहुत प्रासंगिक मानता हूँ थोड़े फेर के साथ उनका शेर है- “तुमको हम दिखाएँगे क्रिकेट ने क्या किया। फ़ुर्सत कशाकशे-ग़मे-पिन्हाँ से गर मिले।”यानी हम अपनी व्यथा को छिपाए रखना चाहते हैं परन्तु वह सब पर प्रकट होने के लिए व्याकुल है। इस खींचातानी से फ़ुर्सत मिल जाए तब हमारा क्रिकेट (प्रेम)में पागलपन देखना। क्रिकेट के साथ भारत की जनता का संबंध वैसे ही है जैसे इश्क के प्रति प्रेमीजनों का होता है। भारत की जनता इश्क की हद तक प्यार करती है और उसे आप किसी भी हालत में इश्क करने से रोक नहीं सकते। यह भी कह सकते हैं कि क्रिकेट भारत की जनता की आदत का हिस्सा है। और दुष्यन्त के शब्दों में कहें- “एक आदत सी हो गई है तू। और आदत कभी नहीं जाती.”
जीत का अपना खुमार होता है। भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वचषक विजेता बनने के खुमार में पूरा देश झूम रहा है। 28 वर्षों बाद भारतीय टीम ने देश को यह सम्मान दिलाया है। देश ने भी भारतीय टीम को उसकी इस उपलब्धि के लिये सर-आंखों पर बिठाया है जो स्वाभाविक ही है।
फरवरी माह से ही क्रिकेट का रंग छाने लगा था जो फाइनल तक पहुंचते-पहुंचते दीवानगी में बदल गया। भारतीय टीम ने भी श्रेष्ठ प्रदर्शन से दर्शकों की उम्मीद को बनाये रखा। पाकिस्तान से हुआ सेमीफाइनल और श्रीलंका के साथ खेले फाइनल में भारत ने जबरदस्त प्रदर्शन किया। खेल के अंत तक रोमांच बरकरार रहा। हारने वाली दोनों टीमों ने भी इस रोमांच को बनाये रखने में पूरा साथ दिया।
1975 से प्रारंभ हुए विश्वचषक ने दुनियां भर में क्रिकेट के प्रति रुचि जगायी है। पहले तीन टूर्नामेंट तक 60 ओवरों में खेले जाने वाला एक दिवसीय बाद में 50 ओवरों तक सीमित कर दिया गया। इस समय तक भारत की अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में केवल औपचारिक उपस्थिति रहती थी। पहले विश्वचषक में अपने समय के महान बल्लेबाज सुनील गावस्कर ने पूरे साठ ओवर की पारी खेली और कुल 36 रन बनाये। लेकिन इन अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों ने तत्कालीन भारतीय टीम को मांजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
लंदन में लॉर्ड्स के मैदान पर खेले गये तीसरे विश्वचषक के मुकाबले में पहले दोनों टूर्नामेंट की विजेता रही अपराजेय मानी जाने वाली वेस्ट इंडीज को जब कपिलदेव के नेतृत्व में भारतीय टीम ने पराजित किया तो यह किसी भी भारतीय के लिये आश्चर्यजनक तो दुनियां की क्रिकेट महाशक्तियों के लिये किसी सदमे से कम न था।
कपिलदेव और सुनील गावसकर के नेतृत्व में भारतीय टीम ने अनेक सफलतायें बटोरीं। भारतीय टीम और खिलाडियों ने इस बीच अनेक कीर्तिमान बनाये। पीढ़ियां बदलीं। लेकिन विश्वचषक उसके हाथ से दूर ही रहा।
1983 के बाद से ही हर आयोजन में देश ने अपनी टीम से उम्मीदें बनाये रखीं, हालांकि वे पूरी न हो सकीं। 2007 में पिछले विश्वचषक में तो बांग्लादेश और श्रीलंका से हारकर भारत पहले ही चक्र में बाहर हो गया। इस बीच भारतीय खिलाड़ियों पर मैच फिक्सिंग के भी आरोप लगे। 20-20 के फटाफट क्रिकेट का भी दौर आया। खिलाडियों की नीलामी का भी अभूतपूर्व दृश्य देखने को मिला।
2011 में विश्वचषक के आतिथ्य का अवसर भारत को मिला। कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी के नेतृत्व में बुलंद हौंसले के साथ भारतीय टीम ने मजबूत प्रदर्शन किया। पूरे टूर्नामेंट के दौरान भारतीय खिलाड़ियों ने टीम भावना का बेहतर प्रदर्शन किया जिसका परिणाम देश की जीत के रूप में सामने आया। विजय के लिये आवश्यक आत्मविश्वास से भरपूर नेतृत्व, उसके नेतृत्व में सभी खिलाड़ियों की आस्था, सही समय पर सही निर्णय, अच्छा समन्वय, लक्ष्य को पाने का संकल्प और अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को राष्ट्रीय आकांक्षा में विलीन कर देने की विनम्रता के संतुलित संयोग ने ही देश को उल्लास का यह अवसर प्रदान किया है।
इसके विपरीत अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा को राष्ट्रीय हित से ऊपर रखते हुए देश को अलग-अलग दिशाओं में ले जाने की कोशिश करने वाला राजनैतिक नेतृत्व, अपने-अपने मंत्रालय में खेल करने में जुटे मंत्रीगण, इस खेल को बाहर से समर्थन दे रहे दलाल और मैच फिक्सर, उनके कारनामों पर लीपापोती करने और गठबंधन को मजबूरी मानने वाला उसका नेतृत्व, पूरे खेल पर आंखें मूंदे बैठी परमोच्च सत्ता और नफा-नुकसान के हिसाब से समर्थन-विरोध करने वाला विपक्ष देश को किस बेबसी की हालत में पहुंचा सकते हैं यह भी सबके सामने है।
संप्रग सरकार के दूसरे दौर में घोटालों की जो अटूट श्रंखला सामने आ रही है उसने देश के नागरिक को विचलित किया है। यहां की व्यवस्था में ही इस पतन के बीज छिपे हैं। अगर सारे घोटालों की राशि को जोड़ा जाय तो संभवतः वह देश के बजट से भी आगे निकल जाय। संसद में होने वाली नाटकीय बहस नागरिकों कोई समाधान दे पाने में असफल रही है। सत्तारूढ़ दल की भूमिका हास्यास्पद है तो प्रतिपक्ष की भूमिका संदेहास्पद।
यह स्थिति समाज में प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है और निराशा भरती है। समाज में सकारात्मक ऊर्जा लुप्त होने लगती है और अंधेरा काबिज हो जाता है। ऐसी स्थिति में हर दिन के अवसाद से बचने के लिये सामान्य लोग जीवन जीने के लिये जरूरी उल्लास जुटाने के प्रयास में उन विधाओं की ओर आकर्षित होते हैं जो उन्हें क्षणिक ही सही, पर जीवन जीने के लिये आवश्यक उल्लास प्रदान करता है। क्रिकेट के मैच में मिलने वाली विजय ऐसा ही क्षणिक उल्लास देती है। लगभग ऐसा ही उल्लास लोग उन धारावाहिकों में ढ़ूंढ़ते हैं जो मनोरंजन के नाम पर फूहड़ हास्य परोसते हैं।
किसी भी खेल को खेल भावना से ही लिया जाना चाहिये। इसका आशय है कि निरंतर अभ्यास से किसी खेल में उत्कृष्टता का प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ी को यथोचित सम्मान मिले। अन्य खेलों में जहां दूसरा और तीसरा स्थान पाने वाला खिलाड़ी भी रजत अथवा कांस्य पदक का हकदार होता है वहीं क्रिकेट में दूसरा स्थान पाने वाला पराजित माना जाता है, भले ही वह केवल एक रन से पीछे रहा हो। इस रूप में क्रिकेट खेल है ही नहीं।
यह संयोग ही है कि क्रिकेट का जन्म भी वहीं हुआ जहां आधुनिक लोकतंत्र का जन्म हुआ। भारत में यह वहीं से आया जहां से भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली आयी। दोनों में ही यह अद्भुत साम्य है कि यहां एक कदम आगे रहने वाला विजेता माना जाता है और एक कदम पीछे रहने वाला पराजित। इसलिये एक छक्का लगा कर धोनी विजेता होते हैं और दस रन कम बना कर संगाकारा पराजित। यह वैसा ही है जैसे संसद में मत विभाजन पर एक वोट खरीद कर विजय पाने वाला दल सत्ता पर काबिज रहता है और देश को भ्रष्टाचार के गर्त में डुबो देने का अधिकार पा लेता है।
जहां तक देश की जनता का सवाल है, वह इन भ्रष्टाचारियों को सबक सिखाना चाहती है, पराजित होते देखना चाहती है। इसमें असफल रहने पर वह मनोवैज्ञानिक रूप से एक सैडिस्ट जैसा आचरण करती है और किसी को भी पराजित होते देखने में सुख का अनुभव करती है। अन्य खेलों में किसी को पराजित होते देखने का सुख नहीं है इसलिये उसे क्रिकेट ही सुहाता है। इसलिये ही उसे यह जानते हुए भी कि यह काल्पनिक है, हिन्दी फिल्मों में कानून को अपने हाथ में लेकर बड़े-बड़े गुण्डों को ठिकाने लगाता अभिनेता अच्छा लगता है। मन ही मन वह उन्हें अपना नायक मान लेता है।
क्रिकेट में जीत पर हर्ष का यह उबाल दिन-प्रति-दिन की व्यवस्थाजन्य असहायता पर जनसामान्य की टिप्पणी है। लेकिन शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाकर सामने उपस्थित आपदा से मुंह मोड़ना लम्बे समय पर तक नहीं चल सकता। देश में भ्रष्टाचार के पहाड़ और असमानता की खाइयों का अस्तित्व जब तक है तब तक सुखी नागरिक जीवन की कल्पना करना संभव नहीं है। और बिना सुखी नागरिक जीवन सुनिश्चित किये कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान गठबंधन की मजबूरियों का राग अलाप कर जनता को भ्रमित नहीं कर सकता।
क्रिकेट में विजय का उन्माद तो जल्द ही ढ़ल जायेगा। इसके बाद फिर व्यवस्था की वास्तविकता से सामना शुरू होगा और एक-न–एक दिन व्यवस्था परिवर्तन की मांग जोर पकड़ेगी। अन्ना हजारे से लेकर बाबा रामदेव तक जिस अलख को जगाने में लगे हैं वह आम नागरिक तक पहुंचेगी और जल्दी ही नये भविष्य की इबारत लिखी जायेगी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद प्रारंभ से ही व्यवस्था परिवर्तन की पक्षधर रही है। देश में परिवर्तन का जो आलोड़न-विलोड़न चल रहा है वह जब आकार लेगा तो अभाविप स्वाभाविक ही उसकी ध्वजवाहक बनेगी।
भारत ने विश्वकप क्रिकेट का फाइनल मुकाबला जीत लिया है, इस बात की हमें बहुत खुशी है कि भारत ने आखिर एक खेल में तो अपना परचम फहराया और विश्व में सर्वश्रेठ होने की बात साबित की। मगर मैं अभी जो बात करना चाहता हूँ वो इस माहौल से थोड़ी हट कर है। हमारे देश में क्रिकेट का बुखार इस कदर हावी है कि जो व्यक्ति क्रिकेट का मैच देखता है उसे बड़े सम्मान की नजर से देखा जाता है और अगर किसी भी कारण या खेल भावना से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति भारत के किसी खिलाड़ी के बॉलिंग करने के तरीके या बैटिंग करने के तरीके पर नकारात्मक टिप्पणी कर दे तो उसे बड़े संदेह की नजर से देख कर देशद्रोही तक कह दिया जाता है।
हमारे देश में वर्तमान में क्रिकेट प्रेमी को ही देशप्रेमी माना जाता है, अगर आप क्रिकेट से प्रेम नहीं करते तो लोग आपको बड़ी उपेक्षा की नजर से देखते हैं। भारत पाकिस्तान के बीच मैच के कारण भारत और पाकिस्तान के लोगों के मन में जो जहर था वो निकल गया। वास्तव में अगर मैं कहूँ तो हम हिंसा और युद्ध के प्रेमी ही रहे हैं और हार व जीत में ही आनंद मिलता है। हमारे ऐतिहासिक नायक राम, कृष्ण, अर्जुन, भगतसिंह हमें लड़ते हुए ही अच्छे लगे हैं। ये लोग लड़ते रहे और हम इनको पूजते रहे और इनकी प्रतिमाऍं ओर तस्वीरों का बाजार खड़ा कर दिया ताकि लोग इनसे प्रेरणा लेते रहे। अमिताभ बच्च्न भी एंग्री यंग मैन बनकर ही फिल्मों में छाए थे और हमारे देश में मारधाड़ वाली फिल्म कभी फ्लॉप नहीं होती है। हमें रेस के घोड़ो का दौड़ाने में और सांडों व मुर्गों की लड़ाई में हमेशा आनंद मिला है और हमने ऐसा आनंद बरसों बरस तक उठाया है।
वर्तमान सचिन, धोनी, आदि खिलाड़ियों की स्थिति भी वही हो गई है, हम चाहते हैं कि वे लड़े और हमें मजा आए और अगर अगर हमारा सांड या मुर्गा हार गया तो हम उसको लानते मारते हैं और जलील करते हैं और जीत गया तो उसकी पूजा करते हैं और सम्मान देते हैं। अब देखा ही होगा आपने कि हम पाकिस्तान को हराने के लिए कितना आमदा थे और चाहते थे कि हर हाल में हमारे ोर जीते। पाकिस्तान से जिस दिन भारत का मैच था उस दिन तो जूनून देखने लायक था और ऐसा लग रहा था जैसे पूरा देश ही युद्ध का मैदान बन गया हो और हर व्यक्ति इसमें योद्घा बनकर अपनी भूमिका निभा रहा हो। उस दिन सबके मुँह से यही सुना जा रहा था कि चाहे विश्व कप न जीत पाए लेकिन पाक को हराना जरूरी है। हम पाकिस्तान को हराने में शौर्य महसूस करते हैं लेकिन उनको हराने में नहीं जिनके हम दो सौ साल तक गुलाम रहे और जिन्होंने हमे जोंक की तरह चूसा और हमारे अस्तित्व को मिटाने का भरसक प्रयास किया। हम यह भूल जाते हैं कि पाकिस्तान भी उनकी ही देन है और पाकिस्तान से दुश्मनी भी उनकी ही देन है। मेरी इस बात पर सैंकड़ो तर्क आ जा सकते हैं लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं होगा क्योंकि हमें सिर्फ जीत चाहिए थी अगर हार जाते तो इल्जाम लगाते, भला बुरा कहते। हमारी मानसिकता है यह कि हम अपने ही भाई को अपना सबसे बड़ा दोस्त और सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं और जब कभी भी मौका पड़ता है तो अपने ही व्यक्ति को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। अगर हम अपने जोश को नियंत्रण में लेकर और दिमाग को ठंडा करके सोचे तो क्या यह सही है कि हम अपने पड़ोसी देश के प्रति एक खेल में ऐसा व्यवहार रखें। यह बात जरूर है कि वर्तमान में प्रत्येक भारतीय पाकिस्तान को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है लेकिन खेल के माध्यम से क्या हम दुश्मनी को ब़ा रहे हैं या उसको प्रेम में बदलने का प्रयास कर रहे हैं।
खेल माध्यम है अनुशासन की जीवन की शैली को अपनाने का और प्रेम और भाईचारे से खेलने का परन्तु जिस खेल के कारण पूरे देश में तनाव हो जाए और जिसके कारण सरकार को संवेदनशील जगहें घोषित करनी पड़े और जिस खेल के कारण साम्प्रदायिक तनाव होने की आशंका हो और जिस खेल के कारण अतिरिक्त पुलिस व सुरक्षा बल लगाना पड़े तो क्या ऐसे खेल से देश को फायदा हो रहा है। यह सोचने की बात है। जब पाकिस्तान से भारत ने जीत दर्ज की तो हमारे देश के लोगों ने उन जगहों पर जाकर थालियाँ बजाई, पटाखे छोड़े व प्रदशर्न किया जहाँ मुसलमानों की आबादी ज्यादा हो और सरकार यह बात जानती है कि ऐसा होगा तो सरकार ने पहले से ही ऐसे क्षेत्रों में पुलिस बल तैनात कर रखा था तो क्या हमारे हुक्मरान इस तरह की गतिविधियों को ब़ावा देना चाहते हैं अगर नहीं तो क्या जरूरत है इस देश के प्रधानमंत्री को अपना पूरा दिन एक खेल के पीछे खराब करने की। क्या जरूरत है क्रिकेट के नाम पर डिप्लोमेसी करने की। जब देश की सर्वोच्च सत्ता पर बैठे लोगों का व्यवहार ही ऐसा हो तो आम जन की क्या बात की जा सकती है। एक खेल को खेल ही रहने दें तो ज्यादा अच्छा है हम खेल के नाम पर राजनीति न करें और इस गर्मी में अपनी अपनी रोटियाँ नहीं सेके। अगर खेल में देश की भावना जोड़ दी जाए तो वह खेल नहीं जंग बन जाती है जो किसी भी सूरत में सही नहीं कहा जा सकता है। क्रिकेट के चौदह खिलाड़ी एक सौ इक्कीस करोड़ लोगों की भावनाओं की प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ऐसा करना सही नहीं है। वास्तव में यह एक पूर्व नियोजित प्रकि्रया है जिसमें आम आदमी की भावना को जोड़ा जाता है और पूरा बाजार इस भावना को कैश करता है। जो लोग बेचना जानते हैं और जो लोग अच्छे विक्रेता है उन्हें कोई मतलब नहीं कि कौन जीते और कौन हारे उन्हें तो अपना माल बेचना है, अपना ब्राण्ड स्थापित करना है और इसी बाजार ने इस खेल को स्थापित किया, आम आदमी की भावना को प्रेरित कर इस खेल से जोड़ा ओर फिर इस खेल के रोम रोम में बाजार को चिपका दिया ताकि देखने वाले को ब्राण्ड दिखे, सुनने वाले को ब्राण्ड सुनाई दे। ऐसे कुछ ही लोग है जो ऐसा माहोल बनाते हैं और मुर्गे और सांड की लड़ाई में बाहर से हुर्रे हुर्रे करते हैं क्योंकि इस हुर्रे में उनका फायदा है, भीड़ जुटाने से उनको लाभ होता है और वे ऐसा ही कर रहे हैं। हमें दिमाग से सोचना होगा न कि दिल से कि हम खेल का सम्मान करें, खिलाड़ी का सम्मान करें लेकिन किसी के हाथ की कठपुलती न बने। भीड़ में दिमाग नहीं होता और इसी का फायदा लोग उठाते हैं। पागलों की तरह अनियंत्रित भीड़ को जो दिशा दिखा दी जाए सब भेड़ चाल में उसी तरफ दौड़ पड़ते हैं सो भीड़ न बने संगठन बने जिसमें ताकत होती है जिसका उद्देश्य होता है।
जब हमने विश्वकप जीता तो माहौल बहुत खुशनुमा बना ओर पूरे देश ने जश्न मनाया मैं इस जश्न और खुशी हो बुरा नहीं मानता। लेकिन यह बात जरूर दिमाग में आती है कि आज इस देश में एकमात्र खेल क्रिकेट ही रह गया है। हम आज भी अंग्रेजों के दिए इस खेल से दिमाग व दिल की गहराईयों से जुड़े हैं। क्या ऐसा जुनून हमारी मानसिक गुलामी को नहीं दशार्ता कि हम अपने देश के पारम्परिक खेलों की तरफ तो गौर नहीं करते परंतु एक गुलामी के प्रतीक खेल के को दिवानगी की हद तक चाहते हैं। खेल कोई बुरा या अच्छा नहीं होता लेकिन खेल के प्रति जो भावना होती है वह सोचने पर मजबूर करती है। भारत का राट्रीय खेल हॉकी आज अपने अस्तित्व के लिए संघार कर रहा है। भारत के लिए पहलवानी, कुश्ती और निशानेबाजी,शतरंज में पदक लाने वाले खिलाड़ीयों की तरफ कोई गौर नहीं कर रहा है परन्तु एक खेल ऐसा हो गया है जो आज वास्तव में पूरे देश का खेल बन गया है। वे खेल जो सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत योग्यता पर आधारित है उनके खिलाड़ियों के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार हो रहा है और जो टीम आधारित खेल है उस पर धन की बारिस हो रही है। अब सारी परिस्थितियाँ हमारे सामने हैं और सोचना इस देश को है, देश चलाने वालों को है कि वे कौनसी दिशा तय करे और किसे कितना महत्व दे बाकि तो लोकतंत्र है और जनता जनार्दन है सो जय जय जनता की।
मुम्बई के वानखेड़े स्टेडियम में 49वें ओवर की दूसरी गेंद पर महेंद्र सिंह धोनी के छक्का मारते ही देश भर में ‘इंडिया-इंडिया’ के नारे गूंजने लगे। चक दे इंडिया। कुछ लोगों ने ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए और कुछ ने ‘वंदेमातरम्’ की धुन भी गुनगुनाईं, और भी कई प्रकार के नारे लगाए जा रहे थे। ‘वंदेमातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे उन लोगों ने भी लगाए जो इसके पहले तक इन नारों को साम्प्रदायिक कहा करते थे। भई लगाएं भी क्यों न; देशभक्ति का भाव जो पैदा हो गया था। भारतीय क्रिकेट टीम ने 28 वर्षों बाद एक बार पुनः विश्वकप जीतकर देश का सिर जो ऊंचा कर दिया था। भारतीय टीम के माथे पर विश्वविजेता का सेहरा जो बंध चुका था।
राजधानी दिल्ली सहित देश के कई प्रमुख शहरों के मुख्य रास्ते जाम हो गए थे। इस कारण सभी दो पहिया व चार पहिया वाहन, और यहां तक कि पैदल यात्री भी, रेंग-रेंग कर चलने को मजबूर थे। इसके बावजूद जाम में फंसे हर किसी के चेहरे पर जश्न का भाव साफ झलक रहा था। मस्ती में डूबे लोगों को नियंत्रित करने के लिए कई जगहों पर पुलिसिया सख्ती भी करनी पड़ी। लेकिन किसी भी यात्री के चेहरे पर गुस्से का भाव नहीं था। सभी प्रसन्न थे। क्योंकि देशभक्ति का भाव जो हिलोरें ले रहा था। भारतीयता का भाव उफान ले रही थी।
खेल खत्म होने के बाद मैं भी सहसा सड़क पर निकल पड़ा। सड़क पर जश्न का ऐसा माहौल था कि दीवाली के दिये भी मात खा रहे थे, यानी इस जश्न के खुशनुमा माहौल को यदि महादीवाली की संज्ञा दे दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अभी मैं इधर-उधर देख ही रहा था कि अचानक पांच-छह हम-उम्र युवा हाथ में तिरंगा लिये हमसे गले मिलने को आतुर दिखे। मैं उनको जानता-पहचानता तक नहीं था, फिर भी वे मुझसे गले मिलने लगे। जीत की इस खुशी के कारण वे अपने आप को रोक नहीं पा रहे थे। भावविह्वल भी हो रहे थे। कुछ की आंखों में आंसू भी मैंने देखे। उनके अंदर जोश, उमंग था और एक अलग प्रकार का जुनून भी दिख रहा था।
सच में यह क्रिकेट की नहीं बल्कि भारतीय टीम की विजय है। भारतीय खिलाड़ियों की योग्यता, प्रतिभा, श्रम और कौशल की विजय है। यह विजय उनके द्वारा तपस्या सदृश किए गए प्रयास का प्रतिफल है। इस विजय को अंग्रेजी खेल का विजय कहना किसी भी प्रकार से उचित नहीं होगा। सच कहें तो अग्रेजों का दिया क्रिकेट आज के अधिकांश युवाओं में देशभक्ति के प्रकटीकरण का एक साधन बनता हुआ दिखाई दे रहा है। जो कुछ भी है उसका होना सत्य है, और जो कुछ नहीं है उसका न होना ही सत्य है। कभी-कभी जो दिखता है वो सत्य नहीं होता। हर पीली दिखने वाली वस्तु सोना नहीं होती। वर्तमान में क्रिकेट प्रेमियों का बहुमत है और आप लोकतंत्र में बहुमत को नकार नहीं सकते।
लेकिन इतना सब कुछ होने के बावजूद आप यह अंदाजा नहीं लगा सकते कि ये सब क्रिकेट का भारतीयकरण है या भारतीयों का क्रिकेटीकरण? ये सच में देशभक्ति है या कुछ और? क्या ये देशभक्ति सचमुच स्थाई है? दरअसल; हर्षातिरेक, हर्षातिशय, हर्षोल्लास, हर्षोत्फुल्ल, हर्षोन्माद, हर्षाश्रु, हर्षोन्मत्त, ये सारी अवस्थाएं क्षणिक होती हैं। इनमें स्थायित्व नहीं होता। खेत को सिंचाई के लिए जल की आवश्यकता होती है लेकिन बाढ़ के जल से खेत की सिंचाई नहीं हुआ करती। बाढ़ तो सब कुछ बहा ले जाती है। सबको तबाह कर देती है। उसके प्रवाह में रचनात्मकता नहीं होती।
अब तक का सबसे बड़ा घोटाला करके 2जी स्पेक्ट्रम के सिरमौर बन चुके तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा और उनके पूर्व सहयोगियों- शाहिद उस्मान बलवा, सिद्धार्थ बेहुरा, आर.के. चंदोलिया तथा विदेशों में करोड़ों का काला धन जमा करने वाला हसन अली खान भी क्रिकेट देखते हैं। भारत के विजयी होने पर प्रसन्न होते हैं। भावविह्वल और हर्षोन्मत्त हो जाते हैं। क्या इसी को देशभक्ति मान लिया जाए? क्या क्रिकेट देखना भर ही देशभक्ति के लिए पर्याप्त है? क्या देश के विजयी होने के बाद नाच-गाकर खुशियां मनाना ही देशभक्ति का पर्याय है? क्या यही सब देश की समस्याओं के समाधान के लिए उपयुक्त है?
कुछ समय पहले साफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स भारत आये थे तो उनके बारे में यहां के समाचार पत्र, पत्रिकाओं ने लिखा था कि यदि गेट्स के कुछ करोड़ रूपए गिर जाएं तो उनको उठाने की भी फुर्सत नहीं है। क्योंकि जब तक वह उसे उठायेंगे तब तक उस गिरे धन का कई गुना नुकसान हो चुका होगा। दरअसल, बिल गेट्स वहुत व्यस्त आदमी हैं और उनका हर क्षण कीमती है। लेकिन क्या भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बिल गेट्स से भी गये-गुजरे हैं कि उनका समय और पैसा नष्ट नहीं होता? क्या डॉ. सिंह अपने को सामान्य व्यक्ति मानते हैं? लेकिन वह सामान्य कैसे हो सकते हैं? वह तो भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री हैं और उनके ऊपर 121 करोड़ लोगों के नेतृत्व का भार है। इसलिए उनका हर क्षण महत्वपूर्ण है, बिल गेट्स से भी ज्यादा।
क्या बिल गेट्स मैच देखते हैं और वह भी पूरे आठ घंटे समय खर्च करके? नहीं, उनके लिए यह संभव ही नहीं है। देश का और अपना किसी भी प्रकार का नुकसान करके क्रिकेट देखना देशभक्ति कैसे कही जा सकती है? भई देखिये, खूब देखिए, आप भी तो आदमी ही हैं। आपके पास भी मन और मस्तिष्क है। आपको भी दिमागी थकान मिटाने की आवश्यकता होती है। लेकिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को बगल में बैठाकर क्या यह संभव है?
पाकिस्तान के बीच क्रिकेट के साथ-साथ दुनिया की कोई भी कूटनीति सफल नहीं हो सकती। क्योंकि उसका स्वयं पर नियंत्रण ही नहीं है। वह अमेरिका, आर्मी, आतंकवाद, मौलवी और चीन; इन चार के चंगुल में बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। बिना इन चारों के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो फिर कोई यूसुफ रजा गिलानी या आसिफ अली जरदारी वार्ता की मेज पर क्या कर सकेगा? इसलिए उसके साथ क्रिकेट कूटनीति भी एक तरह से समय की बर्बादी ही है। इस संदर्भ में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की बातों में दम है, जो ये बातें दुहराती रही है कि बिना आतंकी ढ़ांचा समाप्त किये पाकिस्तान से कोई वार्ता नहीं होनी चाहिए। समस्या को बिना समझे उसका समाधान नहीं हो सकता। दरअसल, मनमोहन सिंह सब जानते हैं; पर वह तो गिलानी को बुलाकर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी यूपीए सरकार के खिलाफ देश भर में चल रही चर्चा को दूसरे दिशा में मोड़ने का असफल प्रयास भर कर रहे थे। यह अजीब कूटनीतिक प्रयास है जो यही मानकर किया जा रहा था कि इससे हासिल कुछ नहीं होगा।
भारत और किसी अन्य देश के साथ क्रिकेट के समय जैसे सामान्य लोग अपने काम-धंधे की छुट्टी करके पूरे व्यस्त हो जाते हैं, उसी तरह मनमोहन भी पाकिस्तान का बहाना बनाकर पूरे आठ-दस घंटे तक व्यस्त हो गए। यह किसी भी प्रकार से न तो देश-हित में कही जाएगी और न ही देशभक्ति। डॉ. सिंह ने जो किया उनसे प्रेरणा लेकर देश भर के कई अधिकारियों, कर्मचारियों ने भी कार्य को अपने से विरत रखा। इसके अतिरिक्त भी करोड़ों लोगों ने क्रिकेट देखने के लिए अपने को खाली रखा। इससे देश का करोड़ों घंटे बर्बाद हुआ और होता ही रहता है, जिसकी भरपाई फिर कभी भी नहीं की जा सकती।
दिल्ली सरकार के आबकारी विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, मोहाली और वानखेड़े में भारतीय टीम की जीत की खुशी में दिल्ली के ‘कथित उत्साही लोगों’ ने 26 करोड़ रुपये से अधिक की शराब पी। इन आंकड़ों में अधिकांश युवा शामिल हैं। ये कैसी देशभक्ति है? कैसा हर्षोदय है? देशभक्ति के प्रकटीकरण का कैसा तरीका है? दरअसल, ये सब बातें हर्ष का क्षणिक उन्माद है, जिसमें तनिक भी स्थायित्व नहीं होती। इससे मिलता कम और नुकसान ज्यादा होता है। तो इस ‘क्रिकेटिया जुनून’ को देशभक्ति कैसे कहा जा सकता है?
सरकार और प्रशासन की कुंभकर्णी निन्द्रा के कारण हिन्दू धर्म की पवित्र भूमि भेंट द्वारका के संपूर्ण द्वीप पर एक खास संप्रदाय का अतिक्रमण बढता जा रहा है। प्रशासन नहीं चेती तो महज 10 सालों के अंदर यह द्वीप पाकिस्तान संपोषित उक्त संप्रदाय की गतिविधियों का केन्द्र बन जाएगा।
द्वीप के सामाजिक और सांप्रदायिक स्वरूप में विगत 05 सालों के अंदर अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ है। द्वीप पर दो पुराना मजार है जिसमें से एक हजी किरमानी का मजार है तो दूसरा मजार पैतन पीर का कहा जाता है। इन दो मजारों को छोड कर भेंट द्वारका में बने अन्य सारे मजार अबैध है। आश्चर्य की बात तो यह है कि ये माजार विगत पांच सालों अंदर खडे किये गये हैं। वर्तमान समय में द्वीप पर कुल मजारों की संख्या 52 है। मजारों की संख्या में बढोतरी की संभवना बतायी जा रही है, क्योंकि कई मजार निर्माणाधीन है। मजारों की संख्या में बढोतरी के पीछे का कारण क्या हो सकता है इसपर रहस्य बरकरार है। जानकारी में हो कि भेंट लंबे समय से इस्लाम के टारगेट में रहा है। आज से लगभग 400 साल पहले भेंट के लिए, भेंट के राठौर राजा महाराज संग्राम सिंह ने अकबर के मैशौरे भाई और सेनापती अजीज कोको के साथ लडाई लडी। इस लडाई में हजारों राजपूत योध्दा मारे गये लेकिन राठौरों ने हार नहीं मानी। इसके बाद भेंट के लिए ढोल नाकम गांव में सभी स्थानीय राजपूत एक होकर अजीज के साथ मोर्चा खोल दिया तब अजीज को वहां से भागना पडा था। बाद में भेंट में जाडेजा राजाओं ने भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर बनवाया। भेंट द्वारिका में आज भी ज्यादा संख्या कच्छी मुस्लमानों की है। भेंट की आबादी सात हजार के लगभग है जिसमें से पांच हजार मुस्लमान है और दो हजार हिन्दू है। हिन्दुओं में ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा है। ऐसे हिन्दुओं में पशुपालकों की संख्या भी है लेकिन कम। भेंट स्थित दो पीरों के मजारों की मान्यता पूरे सिंध में है। इसलिए यहां न केवल भारत के अपितु पाकिस्तान के मुस्लमान भी आते रहते हैं।
इस यात्रा के आवरण में पाकिस्तानी जासूस भेंट की खाडी में लगातार अपनी स्थिति मजबूत करने में लगा है। पूरी खाडी में 41 द्वीप है भेंट छोडकर अन्य द्वीपों पर जनवसाव नहीं है लेकिन जानकार बताते हैं कि इन निर्जन द्वीपों पर भी इस्लामी अतिक्रमण प्रारंभ हो गया है।
भेंट द्वीप केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं अपितु सामरिक दृष्टि से भी महत्व का है। जानकार बताते हैं कि भेंट से दुवई की दूरी मात्र 1500 मील की है जबकि कराची नाव से मात्र 06 घंटों में पहुंचा जा सकता है। यह इलाका पुराने तस्करी का केन्द्र रहा है। युसुफ पटेल, हाजी मस्तान, करीम लाला के गुर्गे इसी इलाके के हुआ करते थे और आज दुनियाभर में तस्कारी का जाल फैदाने वाला भारतीय मूल का तस्कर दाउद इब्राहिम के लिए भी इसी इलाके के गुर्गे काम करते हैं।
ऐसे में यह द्वीप न केवल धार्मिक दृष्टि से अपितु सामरिक दृष्टि से भी अति संवेदनशील द्वीप है लेकिन इस द्वीप पर लगातार अतिक्रमण जारी है, बावजूद इसके प्रशासन मौन धारण किये हुए है। शास्त्रों में भेंट द्वारका का क्षेत्रफल 09 कोश बताया गया है लेकिन आज इस द्वीप का क्षेत्रफल 35 वर्ग किलो मीटर है। द्वारिका द्वीप पर 600 एकड की भूमि संरक्षित वन क्षेत्र है, जबकि गोचर के लिए 900 एकड की भूमि छोडी गयी है। भेंट द्वीप पर 1000 एकड की भूमि कृषि कार्य के लिए है। कृषि कार्य के लिए जो जमीन है उसपर तो किसी ने कब्जा नहीं किया है लेकिन जो जमीन संरक्षित वन क्षेत्र का है उसपर लगातार अतिक्रमण जारी है। ऐसे कुछ गोचर की भूमि पर भी मजार बनाये गये है लेकिन ज्यादातर वन क्षेत्र की भूमि पर अतिक्रण हुआ है। इस स्थिति को नहीं रोका गया और द्वीप पर सतत अतिक्रमण जारी रहा तो आने वाले मात्र 10 सालों के अंदर हिन्दुओं के पवित्र भूमि भेंट पर इस्लाम धर्मावलंवियों का अधिकार होगा।
पिछले दिनों कुछ मतांतरित ईसाई देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मिले। इन लोगों ने विभिन्न मामलों पर प्रधानमंत्री से चर्चा की। बातचीत के दौरान इन सज्जनों ने प्रधानमंत्री डॉ. सिंह को बताया कि ओडिशा में ईसाइयों पर हमले बढ़ रहे हैं। डॉ. सिंह ने उनकी बात को काफी गंभीरता से सुना और इस पर चिंता जाहिर की। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि वह इस संबंध में देश के गृह मंत्री पी. चिदंबरम से बात करेंगे और उन्हें कहेंगे कि ओडिशा में ईसाइयों पर बढ रहे हमलों के बारे में जानकारी लें और आवश्यक कार्रवाई करें।
कायदे से प्रधानमंत्री डॉ. सिंह को इस बात की छानबीन करनी चाहिए थी कि ये सज्जन जो कुछ भी बोल रहे हैं, क्या वह सही है। क्या किसी समाचार पत्र या फिर किसी टीवी चैनलों में यह प्रसारित हुआ है कि ओडिशा में ईसाइयों पर हमले हो रहे हैं। प्रधानमंत्री के पास इसकी जानकारी लेने के लिए अनेक स्रोत हैं जहां से वह यह जानकारी ले सकते थे। उनके पास खुफिया विभाग के साथ-साथ अन्य भी कई स्रोत हैं। अपने गृह मंत्री को इन तथाकथित हमलों के बारे में बात करने के लिए आश्वासन देने से पूर्व इस बात की जांच करवा सकते थे।
इसके अलावा वह इन मतांतरित सज्जनों से यह भी पूछ सकते थे कि क्या उनमें से कोई ओडिशा का रहने वाला है। अगर वह यह प्रश्न उनसे मिलने आये इन मतांतरित ईसाइयों से पूछते तो वे बताते कि उनका किसी प्रकार से ओड़िशा से कोई लेना देना नहीं है। ये सभी मतांतरित ईसाई कैथोलिक सेकुलर फोरम नामक मंच से जुड़े हैं और दिल्ली व मुम्बई में निवास करते हैं। इनमें से शायद ही ऐसा कोई हो जो अपने पूरे जीवन काल में ओडिशा गया हो। ये लोग अगर दिल्ली व मुम्बई में ईसाइयों के बारे में प्रधानमंत्री से बात करते तो शायद ठीक होता।
इन सभी बातों के बावजूद प्रधानमंत्री ने इन काल्पनिक हमलों पर चिंता जाहिर की। प्रधानमंत्री की क्या कोई विवशता थी जो उन्होंने ऐसा किया, या फिर इसके पीछे कोई और कारण है, यह जांच का विषय हो सकता है।
इन मतांतरित ईसाइयों में से अगर कोई ओडिशा का होता तो समझ में भी आता। अगर किसी राज्य में किसी संप्रदाय के खिलाफ ज्य़ादती होती है तो अनुचित है। इसका प्रतिकार होना चाहिए। सभी को इसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए, इसमें किसी प्रकार का कोई शक नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री डॉ. सिंह के सामने इस तरह की बात कहना कि ओडिशा में ईसाइयों पर हमले बढ रहे हैं, जबकि इस तरह की एक भी घटना सामने नहीं आयी है इसलिए उन सज्जनों की नीयत पर संदेह होता है। केवल इतना ही नहीं जब ये लोग ओडिशा के रहने वाले न हों और इस तरह की झूठी बात फैला रहे हों, तो उनके नीयत पर शक गहराना लाजमी है।
ये कौन लोग हैं और ओडिशा को बिना कारण के व बिना आधार के क्यों बदनाम करना चाहते हैं, इसकी ठीक से जांच की जानी आवश्यक है। ओडिशा को बदनाम करने के पीछे ये लोग ही हैं या उनके पीछे कोई और अदृश्य शक्ति है, इसकी भी जांच जरुरी है। इन अदृश्य शक्तियों का असली उद्देश्य क्या है। पूर्व में भी ये शक्तियां ओडिशा को बदनाम करने के लिए दिन-रात एक कर दी थीं। शांत प्रदेश ओडिशा को इन शक्तियों ने अशांत कर दिया था। वनवासी क्षेत्र में चार दशकों से अधिक समय तक वनवासियों की सेवा में लगे स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या में इनकी भूमिका संदिग्ध थी। इसके बाद वहां वातावरण अशांत हो उठा था। पूरे विश्व में ओडिशा बदनामी की गई। ईसाइयों के सर्वोच्च नेता पोप से लेकर अनेक राष्ट्राध्यक्ष ओडिशा की जनता के खिलाफ टिप्पणी देते रहे। कई देशों ने तो खुले आम ओडिशा की जनता की निंदा की। इसके बाद भी वे शांत नहीं हुए।
अब जब स्थिति पूरी तरह सामान्य है और सौहार्दपूर्ण वातावरण है, ऐसे में ये शक्तियां एक बार फिर सक्रिय हो उठी हैं। वे फिर एक बार ओडिशा को बदनाम करने के लिए ठान चुके हैं। ओडिशा की शांतिप्रिय जनता को बिना कारण ये लोग फिर से कठघरे में खडा कर रहे हैं। इस कारण उन्होंने देश के प्रधानमंत्री के सामने यह कोरा झूठ बोला कि ओडिशा में ईसाइयों पर हमले बढे हैं। और देश के प्रधानमंत्री ने मुंडी हिला कर उनका समर्थन किया। सच्चाई को तफ्तीश किये बिना ही उन्होंने इन काल्पनिक हमलों के लिए चिंता तक व्यक्त कर दिया है। केवल इतना ही नहीं उन्होंने इन काल्पनिक हमलों के लेकर अपने गृह मंत्री को आवश्यक कार्रवाई करने के लिए भी कह दिया।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या करने के बाद ओडिशा को वैश्विक स्तर पर बदनाम करने का पहली बार प्रयास हुआ है, ऐसा नहीं है। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बाद इन शक्तियों ने अपनी पूरी ताकत ओडिशा को बदनाम करने में लगा दी। इन्हीं सज्जनों के एक समूह ने उन दिनों राष्ट्रपति को एक ज्ञापन सौंप कर यह बताया कि स्वामी लक्ष्णनानंद जेल में डाले जाने लायक थे। अभी हाल ही के दिनों में ओडिशा में माओवादियों ने एक अंबुलैंस उडा दिया। इस अंबुलैंस में जो बैठे थे वे इत्तेफाक से ईसाई थे। माओवादियों ने इस हमले की जिम्मेदारी ली। लेकिन ओडिशा को बदनाम करने पर जुटी इस गिरोह ने हद कर दी। इस हमले में भी वह ओडिशा की जनता का हाथ बताया। केवल इतना ही इनके द्वारा संचालित एक अंग्रेजी वेबसाईट से इस तरह की खबर जारी हुईं और पूरे विश्व तक पहुंचाया। इसके अलावा यूरोपीय यूनियन के राजदूत ओडिशा आये और उन्होंने बिना किसी आधार पर ओडिशा के खिलाफ टिप्पणी की। इसके बाद ओडिशा के बारे में नई दिल्ली के कान्स्टिट्यूशन क्लब में एक दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसमें भी जो शामिल थे, उनका ओडिशा से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। इस दो दिवसीय कार्यक्रम में ओडिशा की जनता को जम कर गालियां दी गई। इससे भी वे प्रसन्न नहीं हैं और अब संपूर्ण झूठ को प्रधानमंत्री के सामने रखा और प्रधानमंत्री ने उनकी हां में हां मिलाया और प्रेस विज्ञप्ति के जरिये अखबारों में प्रकाशित कराया।
ये शक्तियां ओडिशा को बदनाम करने के अपने अभियान में लगी हुई हैं। प्रधानमंत्री डॉ. सिंह जिनको ओडिशा के लोगों का साथ देना चाहिए था वह भी उनके साथ हैं, ऐसा लग रहा है। सभी जानते हैं कि भारत में मतांतरण के लिए चर्च को अमेरिका से करोड़ों रुपये प्राप्त होते हैं। और हाल ही में विकीलिक्स में ऐसे भी खुलासे किये हैं कि प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों तक की नियुक्ति अमेरिका के इशारे पर कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं है ओडिशा में ईसाइयों पर काल्पनिक अत्याचारों पर चिंता व्यक्त कर के प्रधानमंत्री अमेरिका के चर्च संबंधी हितों की रक्षा कर रहे हैं। दुर्भाग्य से ओडिशा में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के समय से ही चर्च की भूमिका संदिग्ध हो रही थी। क्या चर्च ओडिशा में कोई और भयानक खेल खेलना चाहता है? जनवादी व तथाकथित मानवाधिकार संगठनों को इसकी भी जांच करवानी चाहिए।
प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश पर माओवादियों और नक्सलियों के प्रति नरम रुख रखने के आरोप लगते रहे हैं। हालांकि वह इन आरोपों पर हमेशा यही कहते रहे हैं कि वह सिर्फ मानवाधिकार की बात कर रहे हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में माओवादियों की सभा में उनके द्वारा ‘लाल सलाम’ के नारे लगाते हुए जो सीडी सामने आई है, उससे उनका दूसरा चेहरा सबके सामने आ गया है। छत्तीसगढ़ की सरकार ने तो यहां तक कह दिया है कि हम तो अग्निवेश को संत समझते थे लेकिन वह तो संत के वेष में माओवादी निकले। रिपोर्टों के मुताबिक यह सीडी 11 जनवरी 2011 को छत्तीसगढ़ के जगदलपुर के करियामेटा के पास जंगलों के बीच माओवादियों की जन अदालत की है। इस जन अदालत में ‘भारत सेना वापस जाओ’ के नारों के बीच स्वामी अग्निवेश को ‘लाल सलाम’ के नारे लगाते और ‘माओवाद’ के पक्ष में बोलते हुए दिखाया गया है। यह वही जन अदालत थी जिसमें पांच अपहृत जवानों को रिहा करने का फैसला किया गया था। इन जवानों की रिहाई के लिए अग्निवेश खुद मध्यस्थता के लिए आगे आए थे और शासन ने जवानों की जिंदगी की रिहाई के लिए अग्निवेश के प्रस्ताव को स्वीकार किया था।
यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि राज्य में माओवादियों की ओर से अपहरण की दो घटनाओं में अग्निवेश मध्यस्थ बने। यही नहीं उड़ीसा के एक जिलाधिकारी का माओवादियों की ओर से अपहरण हो या फिर गत वर्ष बिहार में पुलिसकर्मियों का अपहरण, सभी मामलों में अग्निवेश ने मध्यस्थता की पेशकश की या फिर मध्यस्थता की इच्छा जताई। संभव है माओवादियों के ‘पहले अपहरण करो और फिर बाद में छोड़ दो’ के खेल में वह भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हों। अपहरण के बाद अपनी बात मनवाने के साथ ही अपहृत की रिहाई कर शायद माओवादी यह संदेश देना चाहते हैं कि वह आम लोगों को नहीं सताते। इसके अलावा यह भी संभव है कि माओवादियों की छवि सुधार में लगे अग्निवेश शायद मध्यस्थता के बाद अपहृतों की रिहाई करवा कर माओवादियों का ‘मानवीय’ चेहरा सामने लाना चाहते हैं। अब अग्निवेश कह रहे हैं कि वह जिस धर्म और जिस देश में जाते हैं वहां के नारे लगाते हैं और इसमें कुछ गलत नहीं है। यदि किसी धर्म अथवा किसी देश के पक्ष में नारे लगाने की अग्निवेश की बात को मान भी लिया जाए तो भी यह तो किसी दृष्टि से सही नहीं है कि आप वहां भारत का या फिर भारतीय सेना का अपमान सुनते रहें।
अपने को सामाजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकारों का पक्षकार कहलवाने वाले अग्निवेश यदि सचमुच लोगों का हित सोच रहे होते तो पिछले सप्ताह के छत्तीसगढ़ दौरे के दौरान उन्हें जनता का भारी विरोध नहीं झेलना पड़ता। आज जनता जागरूक हो चुकी है और वह अपना अच्छा बुरा पहचानती है। अब किसी भी घटना के राजनीतिक निहितार्थ निकालने को पहुंचे लोगों को विरोध झेलना ही पड़ता है। राज्य के ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर में हुई आगजनी के कारणों की पड़ताल के लिए जब अग्निवेश अपने समर्थकों के साथ प्रभावित इलाकों में पहुंचे तो लोगों ने उनका जबरदस्त विरोध किया और उनकी गाड़ी पर अंडे, टमाटर व जूते फेंके। खास बात यह रही कि अग्निवेश के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों में महिलाओं की संख्या ज्यादा थी। सभी ग्रामीण उनसे यही पूछ रहे थे कि जब 2006 में नक्सलियों ने उनके घरों में आगजनी की थी तब वह क्यों नहीं आए? सरकार ने हालांकि अग्निवेश के साथ हुई धक्कामुक्की को गंभीरता से लेते हुए कलेक्टर और एसएसपी का तबादला कर दिया लेकिन अब राज्य के गृहमंत्री अग्निवेश की सीडी सामने आने के बाद मान रहे हैं कि संत के रूप में अग्निवेश माओवादी निकले और अब सरकार मानती है कि एसएसपी ने कहीं भी गलती नहीं की थी।
राज्य के दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर में हुई घटनाओं के पीछे माना जा रहा है कि यह नक्सलियों और पुलिस के बीच संघर्ष के कारण हुई। ग्रामीणों के घर जलाने वालों को चिन्हित करने की बात करते हुए सरकार ने मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन इससे पहले उसे इस वर्ष 14 मार्च को हुई मुठभेड़ के दौरान 37 माओवादियों के मारे जाने की घटना को याद कर लेना चाहिए जिसमें माओवादियों ने जल्द ही बदला लिये जाने का ऐलान भी किया था।
बहराहाल, स्वामी अग्निवेश की सीडी मामले की जांच जारी है। मामला राजनीतिक होने के कारण शायद जांच परिणाम शीघ्र ही आ जाएं लेकिन इतना तो है ही कि पूर्व में राजनीतिज्ञ रह चुके और अब बंधुआ मुक्ति मोर्चा के प्रमुख स्वामी अग्निवेश माओवादियों का पक्ष लेकर ठीक नहीं कर रहे हैं। वह भ्रष्टाचार और काला धन के खिलाफ रैलियों या भाषणों में हिस्सा लेते हैं तो बात समझ में आती है लेकिन लोकतंत्र के खिलाफ काम कर रहे माओवादियों और नक्सलियों के पक्ष में उनका खड़ा होना उन्हें संदिग्ध बनाता है।
इक्कीसवीं सदी के योग गुरू रामनिवास यादव के पुत्र रामकिशन उर्फ बाबा रामदेव के खसुलखास आचार्य बालकृष्ण की नागरिकता को लेकर अनेक तरह के प्रश्न उठ रहे हैं। बाबा के अनुयाईयों को यह बात भले ही हैरान और निराश करने वाली हो किन्तु यह स्थापित तथ्य है कि बाबा रामदेव के राईट हेण्ड आचार्य बालकृष्ण पर अनेक संगीन आरोप हैं। 19 अप्रेल 1998 को बरेली में अपने पासपोर्ट के आवेदन में करोड़ों लोगों के अराध्य बाबा रामदेव के विश्वस्त सहयोगी आचार्य बालकृष्ण ने अपना जन्म स्थान हरिद्वार बताया है, जबकि वे नेपाली मूल के निवासी हैं। बालकृष्ण को जारी पासपोर्ट नंबर एएस 245979 पर उन्होंने अनेक देशों की सैर भी की है, पर उनकी जानकारियां फर्जी हैं। हरिद्वार के अभिसूचना निरीक्षक द्वारा की गई तहकीकात के अनुसार बालकृष्ण का पासपोर्ट और दो हथियारों की अनुज्ञा भी अवैध है। देश से भ्रष्टाचार मिटाने और विदेशों में जमा काला धन वापस लाने का अभियान चलाने वाले रामकिशन यादव क्या अपने सहयोगी के उपर लगे इन आरोपों का जवाब देने का साहस जुटा पाएंगे?
फिक्स मैच को जीत ही लिया भारत ने
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में शनिवार को खेले गए विश्व कप फाईनल का मुकाबला क्या फिक्स था। देश भर में यह चर्चा जोरों पर चल रही है। यह बेबुनियाद नहीं है। एक अप्रेल को लोगों को मिले अप्रेल फूल वाले एसएमएस ने लोगों को इस बारे में सोचने पर मजबूर किया है। एसएमएस था कि श्रीलंका पहले बल्लेबाजी करेगा, 270 से 273 रन बनाएगा, सहवाग पहले पांच ओवर्स मंे ही आउट हो जाएंगे, सचिन 90 से 95 रन बनाएंगे और श्रीलंका मैच जीत जाएगा। जैसे ही मैच आरंभ हुआ दो बार टास हुआ, टास के बाद श्रीलंका ने पहले बल्लेबाजी की। रन भी 274 बनाए, सहवाग भी पहले ओवर में आउट हो गए। सचिन के आउट होते ही लगने लगा था कि भारत हार गया। फिर क्या था लोगों ने जमकर श्रीलंका पर पैसा लगा दिया। यह सब था बुकीज का खेल। कहा जा रहा है कि बुकीज ने शुरूआती दौर की बातें तो सच साबित करवाईं पर बाद में मैच को पलट दिया और सटोरियों की जेबें भर गईं।
अब क्या करोगे शिवराज मामा!
मोहाली में भारत पाकिस्तान के बीच हुए सेमीफायनल मुकाबले के पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने कहा था कि अगर भारत जीता तो देश के हृदय प्रदेश की राजधानी भोपाल में क्रिकेट के लिए एक बढि़या स्टेडियम बनाया जाएगा। अब तो भारत ने विश्व कप भी जीत लिया है। अब एमपी के बच्चों के शिवराज मामा क्या करेंगे यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है। दरअसल शिवराज सिंह चैहान द्वारा अपनी दूसरी पारी में भी हजारों लोक लुभावन घोषणाएं कर डाली हैं। देखा जाए तो शिवराज सिंह चैहान की घोषणाओं में से अब तक दस फीसदी घोषणाओं को भी अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। देखा गया है कि जमीन से जुड़े शिवराज सिंह चैहान भावनाओं में बहकर घोषणाएं तो कर देते हैं किन्तु उनके मातहत अधिकारी ही उनकी जमीन खोदने का काम कर रहे हैं। शिवराज की घोषणाओं पर उनके ही अधिकारी मिट्टी डालने का काम कर रहे हैं। किसी ने सच ही कहा है कि निजाम कितना भी अच्छा क्यों न हो, उसके इर्द गिर्द रहने वाले ही उसे अच्छा या बुरा बनाते हैं।
जनसेवक ने उगले करोड़ रूपए
कांग्रेस के भविष्यदृष्टा राजीव गांधी ने इक्कीसवीं सदी में आधुनिक भारत का सपना देखा था। उनकी अंर्धांग्नी और कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी की अगुआई में इक्कीसवीं सदी का भारत कुछ अलग ही रंग में दिख रहा है। यहां अरबों रूपयों के घपले घोटाले सामने आ रहे हैं और प्रधानमंत्री अपने आप को मजबूर बताकर पल्ला झाड़ रहे हैं। सोनिया राहुल गांधी सहित केंद्र और हर सूबे के मंत्रियों की संपत्यिों में बेहिसाब बढ़ोत्तरी दर्ज की जा रही है, पर देखने सुनने वाला कोई नहीं है। हाल ही में मुंबई के अंतर्राट्रीय हवाई अड्डे पर गोवा के शिक्षा मंत्री एंटासियो मांन्सरेट के पास से करोड़ रूपए मिलने से सनसनी फैल गई है। गोवा से दुबई जा रहे माननीय के पास से अनेक देशों की मुद्राएं मिली हैं, जिससे देश की राजधानी भी हिली हुई है। जब मंत्री के पास से ही बेनामी धन मिले तो बाकी का क्या कहना। कहा जा रहा है कि यह पैसा वे दुबई के रास्ते स्विस बैंक में जमा कराने जा रहे थे।
करोड़पति गरीबों को नोटिस!
करोड़पति गरीब! है न आग और पानी का अनोखा संगम। जी हां, चोंकिए मत, देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली से सटे हरियाणा सूबे में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले (बीपीएल) परिवारों के पास करोड़ों अरबों की धन संपदा है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा बीपीएल परिवारों के लिए अनेक योजनाएं संचालित की जा रही हैं, जिनका लाभ अपात्र लोग ही ज्यादा उठा रहे हैं। हरियाणा की कांग्रेस सरकार इस मामले में आंखों पर पट्टी बांधे बैठी है। हरियाणा में बड़ी बड़ी आलीशान अट्टालिकों के आगे बीपीएल परिवार के बोर्ड चस्पा हैं, जो अधिकारियों को दिखाई नहीं दे रहे हैं। कहते हैं कि एक सख्त मिजाज पुलिसिए के कहर के चलते अब इन परिवारों की असलियत सामने आने लगी है। पुलिस के कहर के चलते अब तक झज्झर में लगभग आठ सौ तो करनाल, पानीपत और सोनीपत में तीन तीन सौ फर्जी बीपीएल परिवारों ने अपने अपने कार्ड निरस्त करवा लिए हैं।
रेल टिकिट बनेगा ट्रांसफरेबल
ममता बनर्जी द्वारा चुनावों के पहले एक और सौगात रेल यात्रियों को देने का मन बनाया है। गौरतलब है कि वर्तमान में कोई यात्री अगर यात्रा नहीं करता है तो उसे अपना टिकिट निरस्त ही कराना होता है। भारतीय रेल के आला दर्जे के सूत्रों ने बताया कि पश्चिम बंगाल के रण में उतरी रेल मंत्री ममता बनर्जी जो कि वहां की मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब मन में पाले हुए हैं ने रेल यात्रियों को लुभाने के लिए अब कंफर्म रेल टिकिट पर अगर कोई यात्रा न करे तो उस टिकिट को वह अपने खून के रिश्ते वाले नातेदार को स्थानांतरित कराने का मन बना लिया है। इसके लिए एक दिन अर्थात 24 घंटे पहले उसे आवेदन करना होगा। यद्यपि इसकी आधिकारिक घोषणा अभी नहीं हुई है पर मीडिया में यह लीक कर ही दिया गया है, जिसका लाभ ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में मिल सकेगा।
देर से जागी कांग्रेस!
नेहरू गांधी परिवार के नाम पर सालों से सियासत करने वाली सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस आखिर जाग ही गई है, वह भी सिर्फ राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गांधी के अपमान के मामले में। अमेरिका के एक लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब में महात्मा गांधी पर आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं। कहा गया है कि बापू 1908 में चार बच्चों को जन्म देने के बाद कस्तूरबा गांधी से प्रथक होकर कालेनबाश के साथ रहने चले गए थे। इस किताब में अनेक पत्रों का हवाला देकर बापू के बारे में अश्लील और अमर्यादित टिप्पणियां की गई हैं। इस किताब में कहा गया है कि बापू समलैंगिक थे। आधी धोती पहनकर ब्रितानियों के दांत खट्टे करने वाले बापू का सरेआम करने के बावजूद भी एक सप्ताह तक कांग्रेस ने इसकी सुध नहीं ली। बापू को समलेंगिक बताना वाकई कांग्रेस को छोड़कर समूचे भारत के लिए शर्म की बात है।
अभी भी बारगेनिंग जारी है बाबा रामदेव की
इक्कीसवीं सदी के योग गुरू राम किशन यादव उर्फ बाबा रामदेव राजनैतिक बिसात पर चालें चलते ही जा रहे हैं। पहले देश को निरोगी करने के बाद ही विदेश जाने का कौल उठाने वाले बाबा रामदेव विदेश जाकर वहां आकूत धन संपदा इकट्ठी कर चुके हैं। इसके बाद उनके मन में राजनैतिक महात्वाकांक्षाएं कुलाचें मारने लगीं सो उन्होंने एक पार्टी बनाकर सियासी अखाड़े में कूदने की कोशिश कर डाली। उस वक्त उन्होंने कहा था कि वे खुद राजनीति से दूर ही रहेंगे। अब कोयंबटूर में रामकिशन यादव उर्फ बाबा रामदेव ने यह कहकर सभी को चैका दिया कि वे खुद राजनीति में आने का फैसला जून के बाद लेंगे। लोगों का कहना है कि बाबा रामदेव लोगों की आखों में धूल झोंकने का काम कर रहे हैं, उनका असल मकसद राजनीति में आकर धनकमाना ही है।
सोनिया से नजदीकी चाह रहे हैं लालू
काफी समय से गुमनामी के अंधेरे में जीवन यापन करने वाले इक्कीसवीं सदी के स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव एक बार फिर से मुख्यधारा में लौटने की जुगत भिड़ाने में लगे हैं। लालू यादव के दरबार के नौरत्न पूर्व केंद्रीय मंत्री, उद्योगपति और राज्य सभा के सांसद प्रेमचंद गुप्ता की कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के दरबार में खासी दखल है। लालू यादव द्वारा सोनिया गांधी से करीबी बनाने के लिए सारे अस्त्र एक के बाद चलाए जा रहे हैं। उधर सोनिया गांधी हैं कि वे मानने को तैयार ही नहीं हैं। समोसे की जली सोनिया गांधी अब कचैड़ी भी फूंक फूंक कर खा रही हैं, सो उन्होंने लालू यादव को साफ कर दिया है कि महज चार सांसदों वाली पार्टी को वे अपना दोस्त बना जरूर सकतीं हैं किन्तु उसे केबनेट में स्थान नहीं दिया जा सकता है।
कौन न मर मिटे इस सादगी पर
कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी द्वारा फिजूलखर्ची रोकने के लिए सादगी से जीवन जीने की नसीहत दी जाती रही है। यह सब कुछ सिवाए नौटंकी के कुछ और नहीं है। इसका कारण यह है कि इनकी नाक के नीचे ही कांग्रेस के एक नेता ने अपने पुत्र के विवाह में ढाई सौ करोड़ रूपए फूंक दिए। दिल्ली के कांग्रेसी नेता कंवर सिंह के पुत्र ललित तंवर का विवाह हरियाणा के पूर्व विधायक सुखबीर सिंह जौनपुरिया की पुत्री योगिता के साथ पिछले दिनों हुई। यह शादी चर्चाओं में इसलिए है क्योंकि दूल्हा सात घोड़ों वाले रथ पर सवार होकर आया। सगाई में दूल्हे को 45 करोड़ मूल्य का हेलीकाप्टर भी मिला है। इतना ही नहीं बरातियों को भी ग्यारह से इक्कीस हजार रूपए भेंट और तीस तीस ग्राम के चांदी के बिस्किट और एफारी सूट तक मिला। अब कांग्रेस के इन कर्णधारों की सदगी पर कौन न मर मिटेगा।
रेल्वे ने शाकाहारी अण्डे को बनाया मांसाहारी!
भारतीय रेल बड़ी ही गजब की है। वो जो चाहे कर सकती है। भारत की केंद्र सरकार द्वारा मुर्गी के अण्डे को शाकाहारी बताकर इसके इस्तेमाल के लिए लोगों को प्रोत्साहित कर रही है। अण्डे के उपयोग के लिए अण्डा बोर्ड भी विज्ञापनों की बाढ़ ला रहा है। भारतीय रेल में यात्रा करने वाले बहुत ही कन्फयूज्ड हैं कि अण्डा मांसाहारी है या शाकाहारी? एक तरफ अण्डे को शाकाहारी बताया जा रहा है वहीं दूसरी ओर भारतीय रेल में परोसे जाने वाले खानपान के मेन्यू में मांसाहार अर्थात अण्डे से बनी सामग्री को स्थान दिया गया है। सुबह के नाश्ते में अगर वेज मांगा जाए तो कटलेट और नानवेज मांगा जाए तो आमलेट परोसा जाता है। अब केंद्र सरकार फैसला करे कि अण्डा शाकाहारी है मांसाहारी।
पुच्छल तारा
इक्कीसवीं सदी में योग लोगों के सर चढ़कर बोल रहा है। योग के नाम पर चल रही दुकानें फल फूल रही हैं। लोगों को योग का लाभ मिल रहा है या नहीं यह बात तो वे ही जाने पर योग के नाम पर लोगों की जेबें अवश्य ही ढीली होती जा रहीं हैं। इसी बात पर अंबाला पंजाब से ईशू चैधरी ने एक ईमेल भेजा है। ईशू लिखते हैं कि एक योग गुरू ने महिला से पूछा कि क्या योग से उस महिला के पति की शराब पीने की आदत पर कोई अंतर पड़ा। इस पर महिला ने तपाक से बोला -‘‘जी हां, जरूर पड़ा है। अब मेरे पति सर नीचे और पैर उपर करके भी पूरी बोतल पी सकते हैं।‘‘
उत्तर प्रदेश में मायावती को सत्तासीन करने वाला दलित वर्ग आज भी उसी तरह उत्पीड़ित और शोषित है जैसे चार साल पहले था। इसके बावजूद वह मायावती को अपना नेता मानता है और बसपा के नाम पर मर मिटने के लिए हमेशा तैयार रहता है। दलित वर्ग में पैदा होने के कारण मायावती को अपना नेता मानने की वजह के तमाम कारण हैं। इनमें एक बड़ा कारण यह भी रहा है कि सदियों से हो रहे दलित उत्पीड़न से इस वर्ग को मायावती ही बचा सकती हैं। लेकिन सत्ता में आने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न घटने के बजाय बढ़ा ही है । यह प्रतिपक्ष का आरोप तो है ही, उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया ने भी लगाए हैं। जाहिरातौर पर प्रतिपक्ष की बात मायावती सरकार यह कहकर खारिज करती रही है कि ये आरोप महज सरकार को बदनाम करने के मद्देनजर लगाए गए हैं। लेकिन पी.एल. पुनिया की चिंता को किस आधार पर खारिज किया जा सकता है? दरअसल, मायावती जिस वर्ग के बूते सत्ता सुख भोगती रहीं हैं उस वर्ग को आज तक उत्तर प्रदेश में वह सम्मान और सहायता नहीं मिल पाई जो मिलनी चाहिए थी। उसका कारण यह है कि दलित उनकी नजर में एक ठोस वोट बैंक है जिसका सत्तासीन होने के लिए बखूबी इस्तेमाल किया जा सकता है । राजनीति अब न तो विचारधारा से संबध्द है और न तो कमजोर वर्गों की सेवा करना ही उसके मकसद में शामिल है। इस लिए सत्ता में आते ही सभी दल उसी ढर्रे पर चलने लगते हैं जैसे अन्य दल चलते हैं। उत्तर प्रदेश में जो दलित कभी बाबू जगजीवन राम और फिर कांशी राम को अपना मसीहा मानता था आज मायावती को मानता है । लेकिन महज मानने से मसीहाई गुण किसी में नहीं आ जाते हैं। बाबू जगजीवन राम और मान्यवर कांशी राम वाकई में दलितों की बदत्तर स्थिति पर चिंतित रहते थे। वे चाहते थे देश का दलित हर स्तर पर जागरूक और विकास के रास्ते पर आगे बढ़े। दलितों की समस्याओं, उनकी स्थितियों और सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने करीब से देखा और समझा था। इसलिए दलित वर्ग के वे चहेते बने थे। लेकिन मायावती हमेशा से दलितों को एक स्थिर वोटवैंक के रूप में इस्तेमाल करती रहीं हैं। यदि उन्होंने दलितों डॉ. अम्बेडकर और अन्य दलित वर्ग में पैदा होने वाले समाज सुधारकों को अपनी पार्टी का आदर्श बनाया तो भी उसके पीछे एक सोची-समझी नीति थी। और यदि उन्होंने गांधी और नेहरू को गालियां दी तब भी उनका एकमेव मकसद सियासत करना ही था। पिछले चुनाव में मायावती जब सत्ता में आईं तो उन्होंने ब्राह्मण और दलित के वोट बैंक को इस्तेमाल करने के मद्देनजर जो सियासत खेली उसे सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया। मीडिया ने भी इस तथाकथित सोशल इंजीनियरिंग का मुलायम विरोध में खूब प्रचारित-प्रसारित भी किया था।
कांशी राम जब तक जीवित रहे उन्होंने आर्थिक रूप से उच्च जातियों को अपनी पार्टी में शामिल नहीं किया। उनका मानना था कि इससे पार्टी का दलित और पिछड़ों के उत्थान का उद्देश्य प्रभावित होगा। जाहिरातौर पर कांशी राम जिस ब्राह्मण वर्ग को अपने पार्टी से हमेशा दूर रखने का ऐलान किया था, और मायावती भी दहाड़कर कांशी राम की तरह डीएस-4 को जूते मारने की बात करती थी वही मायावती कांशी राम के मरते ही अपने तेवर को निज स्वार्थ में मोड़ते हुए अपने पार्टी के उच्च पदों पर आसीन कर दिया। यहां तक कि महासचिव पद भी सतीश मिश्रा नाम के जन्मगत ब्राह्मण को सौंपा गया, और कहा गया कि इससे सदियों से चली आ रही ब्राह्मण और दलित के भेदभाव को कम करने में मदद मिलेगी। लेकिन यह सब महज एक नाटक से कम नहीं था। हिन्दू समाज में जाति-पांति की दीवारें इतनी मजबूत है कि महज राजनीति के नाम पर यह टूट जाए, पूरी तरह से सच को नकारने जैसा है । दलित और ब्राह्मण की दीवारें इतनी गहरी हैं कि महज सोशल इंजीनियरिंग से धराशायी जाए, असम्भव है । गांवों और कस्बों में राज्य में जो दलित उत्पीड़न की घटनाएं होती हैं उनसे से 95 प्रतिशत उच्च वर्ग के व्यक्तियों द्वारा किया जाता है । अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी. एल पुनिया ने पिछले दिनों दलितों के उत्पीड़न से जुड़े कुछ तथ्य प्रस्तुत किए हैं। लेकिन मायावती सरकार ने पुनिया के सभी आरोप खारिज कर दिए। साथ ही आयोग पर झूठ तथ्य पेश करने का आरोप जड़ दिए। आयोग के मुताबिक मायावती के सत्तासीन होने के बाद दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुईं हैं। ये आंकड़े तो इसी बात की ओर इंगित करते हैं। आंकड़े के मुताबिक 2006 में प्रदेश में दलित महिलाओं के साथ जहां बलात्कार की 240 घटनाएं थाने में दर्ज हुईं, वहीं 2007 में 318 और 2008 में यह आंकड़ा बढ़कर 375 हो गया। जाहिरतौर पर थानों में दर्ज कराए गए बलात्कार की रपट के अलावा हजारों की तदाद में ऐसी घटनाएं घटतीं हैं जो भय और लोकलाज की वजह से थानों तक पहंचती ही नहीं। मायावती की सरकार यदि आंकड़ों को ही दलितों के साथ हुए अत्याचार और व्यभिचार को आधार माने तो भी यह साबित तो हो ही जाता है कि उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ हर स्तर पर अत्याचार और बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई ही है । दरअसल, प्रदेश में सवर्ण और असवर्ण का भेदभाव और विरोध हर स्तर पर इतना गहरा रहा है कि उसको कुछ सालों में वोटबैंक की राजनीति के जरिए खत्म नहीं किया जा सकता है । इसके लिए तो कई स्तरों पर कदम उठाने होंगे। इसमें स्वयंसेवी संस्थाओं और आंदोलनों की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होगी। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि राज्य सरकार दलितों को हर स्तर पर सुरक्षा का कदम उठाए ही, साथ ही जातीय आधार और धार्मिक आधार पर जो दीवारें सदियों से नफरत,र् ईष्या, जलन और गैर-इंसानी बर्तावों की खड़ी हुईं हैं उसे खत्म करने के लिए ऐसे कार्यक्रम बनाए जो दलित उत्पीड़न, शोषण और जुल्म को धराशायी कर सके। लेकिन पिछले चार सालों में राज्य सरकार ने दलितों के उत्थान और कल्याण के नाम पर जो किया है वह महज दिखावे के अलावा कुछ भी नहीं है। आज भी उत्तर प्रदेश का दलित सवर्ण जातियों का उत्पीड़न, शोषण और जुल्म सहने के लिए उसी तरह से अभिशप्त है जैसे चार साल पहले सहता था। दलित लड़कियों और महिलाओं को सवर्ण लोगों का मानसिक और शारीरिक तथा आर्थिक उत्पीड़न उसी तरह से सहना पड़ रहा है जैसे चार साल पहले सहना पड़ता था। दरअसल, मायावती सरकार दलितों में चेतना जगाने और समाज में उनकी हैसियत बढ़ाने की जो बात करती है वह महज बसपा के झंडे, बैनर और बूथों पर जाकर वोट देने और दिलाने तक ही सीमित है । मायावती चाहती ही नहीं कि दलितों में चेतना जगे और वे हर स्तर पर जागरूक होकर समाज में एक बेहतर स्थिति में आए। नहीं तो दलितों की जगह सवर्ण लोगों को ज्यादा भागीदारी और उनको आरक्षण देने की बात बार-बार न करतीं।
यह तय है कि जब तक डॉ. अम्बेडकर के दलित कल्याण को सही मायने में व्यवहार में बसपा सरकार नहीं अपनातीं तब तक दलितों का सही मायने में न तो कल्याण हो सकता है और न ही उनका उत्पीड़न ही रुक सकता है । हाथी के दांत जब तक दिखाने वाले और खाने वाले अलग-अलग रहेंगे, दलित चेतना और दलित उत्थान की बात करना बेईमानी के शिवाय क्या है?
धार्मिक सुधारों के कानून मात्र बहुसंख्यकों के लिए क्यों?
हरिकृष्ण निगम
हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से केंद्र को कानूनी प्रक्रिया को अल्पसंख्यकवाद के शिकंजे में फंसाने के लिए उत्तरदायी ठहराकर उसकी भर्त्सना की है वह किसी की भी आंखे खोलने वाला है। सर्वोच्च न्यायालय में दायर समय-समय पर अनेक मुकद्मों में पहले भी कई बार ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को देश की राष्ट्रीय एकता व कानून के कार्यान्वयन में बाधा माना जा चुका है। हाल में तो राष्ट्रीय महिला आयोग की दिल्ली शाखा ने जब लड़कियों के विवाह की समान निम्नतम आयु के बारे में अनेक विरोधभासी मानदंडों की ओर संकेत दिया तब उस याचिका को सुनते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दो-टूक टिप्पणी की केंद्र सरकार अल्पसंख्यकों के निजी कानूनों में समान रूप से बनाने में अत्यंत भयभीत क्यों रहती है? क्या सरकार सिर्फ हिंदुओं के वर्तमान कानूनों में ही अपना नियंत्रण जमाते हुए परिवर्तन करने को साहस दिखा पाती है? देश में हर नागरिक केवल कुछ सेक्यूलरवादी कहलाने वाले संशयग्रस्त, बुध्दिजीवियों को छोड़कर सामान्य नागरिक संहिता का समर्थक रहा है। अल्पसंख्यकों के विशेषाधिकारों के नाम पर, उनके प्रति किसी भेदभाव न होने के नाम, उनको अपनी पहचान को बरकरार रखने के नाम पर सरकार की झुठी उदारता उन्हें एक ऐसा समुदाय बना रही हैजो बाक ी संप्रदायों से अनंतकाल तक पृथक व अघुलनशील बनी रहे। यदि सर्वोच्च न्यायालय खुद महसूस करे कि सरकार मात्र बहुसंख्यकों की निजी कानूनी दायित्वों में हस्तक्षेप कर सुधार ला सकती है तो हमारी संसदीय गरिमा एक गंभीर खतरे में पड़ी कही जा सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि यदि निजी कानूनों में सुधार हिंदुओं के अतिरिक्त किसी अन्य संप्रादाय में लाना इस सरकार के लिए संभव नही है तब सरकार की यह शुतुर्मुर्गी दृष्टि अनैतिक भी है और असंवैधानिक भी। ”इन न्यायिक हस्तक्षेपों के प्रति हिंदू समुदाय अत्यंत सहिष्णु हैं पर यह प्रदर्शित करता है कि सरकार का पंथनिरपेक्षदाता के लिए प्रतिबध्दता झुठी है क्योंकि ऐसा हस्तक्षेप दूसरे धर्मों के संबंध में वह नहीं कर सकी है।” इस प्रकार की टिप्पणी के अतिरिक्त आस्था और कानून के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की भर्त्सना करते हुए कहा कि चाहे हिंदू विवाह अधिनियम हो या सन 2006 का बाल विवाह अधिनियम हो संसद की सारी ताकत मात्र हिदुंओं पर ही लागू होती हैऔर किसी और धार्मिक संप्रदाय के निजी कानूनों पर नहीं। उनके आधुनिकीकरण व बदलते समय की मांग के अनुसार संभावित व अपेक्षित परिवर्तन में की बहस करना भी सरकार के लिए मुश्किल है।
सरकार और सत्तारूढ़ दलों के सेक्यूलरवादी दर्शन का खोखलापन कितना स्पष्ट है, यह सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है। सच तो यह है कि स्वतंत्रता बाद से हर प्रशासन भारतीय समाज की इस कमजोरी को अपने हिंतों के लिए उछाला। समान नागरिक संहिता की मांग पर सेक्यूलरवादियों के हर विमर्श में उनका भड़कना जग जाहिर रहा है। वही खोखले तर्क फिर वर्तमान सरकार और सत्तारूढ़ दल दोहरा रहे हैं। सुधारों की परिधि से अल्पसंख्यकों को दूर रखना न तो न्यायसंगत है और न वैधानिक और सरकार के प्रशासन की कमजोरियो को ढकने का बहाना है। यदि कानून का शासन सभी नागरिकों पर एक रूप में बराबरी से लागू नहीं होता है तो वह प्रजातंत्र का माखौल है और विशेषज्ञों की दृष्टि में आपराधिक भी कहा जा सकता है।
यह नहीं कि मात्र भारत में ही यह मुद्दा उठता है और दुनियां के कई विकसित लोकतांत्रिक देशों जैसे वेल्जियम, फ्रांस और इंग्लैंड में यह भलीभांति खुलकर, बिना भारतीय विद्वानों की हीनताग्रंथि या अपराध बोध जैसे सांचे में, विमर्श का विषय बन रहा है। बहुसंस्कृतिवाद का मखौल उड़ाने के लिए ‘मल्टी-कल्टी’ जैसी टिप्पणियों या विशेषणों की भरमार हैं। ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने हाल के अपने भाषण में मुस्लिम जनसंख्या के अघुलनशील होने को कारण इस ब्राँड के बहुसंस्कृतिवाद की भर्त्सना की जो उनके राष्ट्र को कमजोर बना रहे हैं। उस सहिष्णुता और समावेशवादी भावना को त्याज्य मानते हैं जो धार्मिक समूहों को ‘पृथक सांस्कृतिवाद घेटोज’ में राजनीतिक उद्देश्यों के लिए बदल दे। भारत में सामान्य विधि संहिता के अभाव में ऐसी स्थिति आ चुकी है और उदारवादी जीवन-मूल्यों की बात करने वालों को ढोंगी सिध्द कर रहा है। अल्पसंख्यक समुदाय को सुधारों से अछूते रखने का निर्णय सबसे पहले नेहरूजी के समय में लिया गया था और यदि अल्पसंख्यकों को पिछड़ा रचाने की पृष्ठभूमि के लिए इतिहास किसी को उत्तरदायी ठहराएगा तो वह फोटोस ही होगी। अपनी आदर्शवादी सपनों की सार्थकता को सिध्द करने के उत्साह में दशकों बाद भी सच्चाई यह है कि हम संविधान में उल्लेखित नीति निर्देशक तत्वों की आज भी लागू नहीं कर सके हैं।
मजे की बात यह है कि कथित प्रभावी अंग्रजी मीडिया हमारे देश में आज इस सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को भी पचाने में असमर्थ दीखता है। ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ के 10 फरवरी, 2011 कें संपादकीय पृष्ठ पर जयकुमार की एक त्वरित टिप्पणी प्रमुख रूप से छपी है कि सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी में ‘कट्टरवादी हिंदुत्व’ के भक्तों को तो हर्ष होगा पर उन्हें अल्पसंख्यकों के निजी कानूनों से छेड़छाड़ करने के पहले सोचना होगा कि उनके लिए सुधार की मांग उनके ही भीतर से आनी चाहिए न कि कानून के हस्तक्षेप से। इस अनूठे सेक्यूलरवाद कुत्सित चेहरा जनता के सामने हैं।
आज हमारे देश में जब से आर्थिक सुधारों एवं निजीकरण के दौर का प्रारंभ हुआ है, अंग्रेजी भाषा की जो शब्दावली सबसे अधिक सामान्य वार्तालाप में उपयोग से सभी के द्वारा लाई जा रही है उसमें ‘आउटसोर्सिंग’ एक ऐसा हीं शब्द है। इसी तरह भूमंडलीकरण के कारण भी जब से बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस देश में पैर पसारे हैं बी. पी. ओ. एक दूसरा आधुनिक आद्याक्षरों का वाक्यांश है जो हर पढ़े-लिखे की जूबान पर रहता है। हमारे मीडिया में तो इस शब्द को उस संदर्भ में तब से अधिक उपयोग में लगातार लाया गया जब से अमेरिका और पश्चिमी देशों में अपनी बढ़ रही बेरोजगारी के लिए इसी ‘आउटसोर्सिंग’ को दोषी माना गया है। आर्थिक मंदी और लगभग 10 प्रतिशत बेरोजगारी की समस्या के लिए दूसरे एशियाई देशों के बसे लोगों को दोषी के रूप में देखा जा रहा है। दूसरी ओर अमेरिकी उद्यमियों द्वारा उनके नियमित श्रमिकों का रोजगार उन देशों में ‘आउटसोर्सिंग’ के हवाले किया जा रहा है जहां उनके स्तर से यह काम काफी सस्ते में किया जा सकता है। स्वयं राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इसके लिए चुनावी घोषणा पत्र में भी इसी ‘आउटसोर्सिंग’ पर प्रतिबंध लगाने का आश्वासन दिया था। उस समय हड़कंप मच गई थी जब अपने वायदे को मूर्त रूप देने के तथा अपनी लोकप्रियता को गिरने से बचाने के लिए उन्होंने कुछ दिनों पूर्व अमेरिका में काम करने के इच्छुक लोगों को दिया जाने वाला वीजा ‘ एच-वन-बी’ और ‘एल-वन’ का शुल्क बढ़ाकर दो हजार डॉलर कर दिया था। साथ ही साथ अमेरिकी उद्योगपतियों को भी चेतावनी दी थी कि अगर वे देश का काम विदेशों में करवायेंगे तो करों में छूट या अन्य सुविधाओं से वंचित कर दिया जाएगा। फिर भी भारत का ‘आउटसोर्सिंग’ का 60 प्रतिशत से अधिक का बाजार अमेरिका से आता है व उत्तरोत्तर प्रगति कर रहा है। इसका एक कारण भारतीयों के संगणकों के कार्य की गुणवत्ता और तुलनात्मक रूप से न्यूनतम कीमत पर उपलब्धता है।
शायद इसलिए चाहे हमारे देश के नगरों के कॉल सेंटर हों या बी. पी. यो. उनमें दिन रात करने वालें को कुछ लेखक ‘साइबर कुली’तक कह चुके हैं। अमेरिका के उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि चाहे ठेके पर हो, या अनुबंध के माध्यम से अथवा ‘सब कांट्रैक्ट’ के जरिए हो। ‘आउटसोर्सिंग’ का साफ अर्थ किसी तीसरी पार्टी द्वारा निष्पादित कार्य को कहा जा सकता है। यह हमारे देश में क्यों फल-फूल रहा है? इसका एक कारण संचार क्रांति के साथ विशेषकर अमेरिका का टाईम जोन भी कहा जाता है जहां हमारे यहां दिन होता है वहां रात होती है। उनके द्वारा वहां दिन के अंत तक भेजे हुए काम को अगले दिन जब सामान्तः वे प्रातः कार्यालय जाते हैं उसका भारतीय हल उनकी टेबिल पर पहुंच जाता है। वैसे भी त्वरित संप्रेषण क्षमता की उपलब्धि से और भारत में अंग्रेजी भाषा के अधिकाधिक उपयोग से वह अन्य देशों जैसे- चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी या दूसरे एशियाई देशों से एक कदम आगे रहता है। शायद इसलिए ‘लुफ्तहांसा’ जैसी प्रसिध्द जर्मन वायुसेवा हो, या कुछ अंतर्राष्ट्रीय कर निर्माता या बड़े बहुराष्ट्रीय कंपनियाें की वैश्विक ग्राहक दूर-सुदूर के देशों के किसी अनामी क्षेत्र में भी बैठा हो, उसके प्रश्नों व मांगी जानकारी का हल उसी के लहजे में ऐसी अंग्रेजी में दिया जाता है जैसे वह उनके क्षेत्र का हो। उसे पता ही नहीं चलता कि वह एक भारतीय इस देश के पूणे, मुंबई, बंगलौर या गुड़गांव के किसी कार्यालय से वार्तालाप कर रहा है। आज ‘न्यूट्रल अंग्रेजी’ के साथ-साथ ‘बी. बी. सी.’ की ‘क्वींस इंग्लिस’ कहलाए जाने वाले लहजे के साथ-साथ अमेरिकी अश्वेत अथव पूर्वी समुद्र तट के न्यूयार्क या न्यूजर्सी इलाकों अथवा लूसियाना या टेक्सास या डेनवेर जैसे क्षेत्रों में अंग्रेजी किसी स्थानीय पुट के साथ बोली जा सकती है इसका भी प्रशिक्षण भारतीय कर्मचारियों को आवश्यकतानुसार दिया जा सकता हैं इस कारण भी ‘आउटसोर्सिंग’ के उद्यम को सन 2000 के बाद उल्टी ही जैसे भारत में पंख लग गए हो।
यदि हम ‘आउटसोर्सिंग’ के आधुनिक घटनाक्रमों की ओर मुड़ कर देखें तो इटली की ‘फेरारी’ कार के निर्माताओं को इसका जनक माना जाना चाहिए। 80 के दशक में इस कार की कंपनी ने अपने कार के सॉफ्टवेयर बनाने के लिए टी. सी. एस. के साथ अनुबंध किया। इसके बाद अमेरिका के सिटी बैंक ने अपनी ॠण एवं अन्य सेवाओं को बढ़ावा देने के लिए भारत के साथ अन्य देशों की संगणक कंपनियों के साथ अनुबंध किया।
वैसे भारत में इस व्यवस्था का पदार्पण सन् 2000 में हुआ। ‘स्पेक्ट्रामाइंड’ की पहली ‘बिजनेस प्रोसेस’ आउटसोर्सिंग’ या ‘बी. पी. ओ.’ कंपनी कहा जाता है। उसी साल ‘ई-फंड’ नामक कंपनी मुंबई में और ‘ई. एक्स. एल.’ नाम का एक बी. पी. ओ. नोएडा में खुला। सन 2002 में ‘विप्रो’ ने ‘स्पेक्ट्रामाइंड’ का अधिग्रहण किया और बाद में ‘विप्रो’ की तरह ‘इंफोसिस’, ‘पटनी’ और ‘सत्यम’ ने भी बड़े स्तर पर इस उद्योग में प्रवेश कर संगणक व्यवसाय की कायापालट कर दी। वैसे ‘बी. पी. ओ.’ का चलन इस देश में कोका कोला कंपनी की देन कहा जाता है जिसने पहली बार उत्पाद-वितरण के काम को ‘आउटसोर्सिंग’ में ग्राहक सेवा कैसे प्रदान की जाती है उसका एक सशक्त मॉडल दूसरी कंपनियों के साथ उदाहरण की तरह रखा है। आज तो चाहे बैंक हो, या बीमा या वित्तीय कंपनियां सभी अपने खर्चों पर नियंत्रण रखने के लिए तीसरी पार्टी से अनुबंध कर कार्य के ठेके जैसे देते हैं।
वैसे हमारे देश में बहुत अर्से तक आदमी ‘आउटसोर्सिंग’ का क्षेत्र या अर्थ मात्र कॉल सेंटर तक सीमित मानता रहा है। पर वस्तुतः यह काम का मात्र एक ही पक्ष है। अब तो उससे एक कदम आगे के. पी. ओ. या नॉलेज प्रोसेसिंग ‘आउटसोर्सिंग’ के जरिए ज्ञान व सुचना संबंधी हर सेवा चाहे व डॉक्टरों, अस्पतालों, अर्थशास्त्रियों, सांख्यिकी विशेषज्ञों की जरूरतें हों या तकनीकी पत्रकारों, लेखकों, या व्यवसाय विश्लेषकों की दिनचर्या से जुड़े हों, सभी क्षेत्रों में यह सेवा उपलब्ध हैं।
आज देश भर में फैले बी. पी. ओ. में 22.3 लाख कर्मचारी काम कर रहे हैं जिनमें से आधे स्वाभाविक रूप से रात्रि की पाली में काम करते हैं। एक अनुमान के अनुसार इंटरनेट का उपयोग करने वालों के एक सर्वेक्षण में लगभग 3.50 करोड़ नियमित रूप से नेट का उपयोग करने वालों में 32 प्रतिशत इसे 9 बजे रात्रि से 12 बजे रात्रि तक प्रयोग में लाते हैं और लगभग 3 प्रतिशत या 10,50,000 इसे अर्धरात्रि के बाद ऑन लाईन कार्य में लाते हैं। चाहे गुड़गांव स्थित हरियाणा का संगणक केंद्र हो या बंगलुरू अथवा मुंबई हो यह शहरीकरण का एक नाया पक्ष या रात्रि की अर्थव्यवस्था भी है जिसने कर्मचारियों की खानपान की अनियमितता और जीवनशैली द्वारा उनकी शरीर की घड़ी में व्यतिक्रम ला दिया है। पारंपरिक आठ घंटे के दिन के कार्य के स्थान पर रात्री कालीन काम के दो घंटों के काम के कारण नई स्वास्थ्य और सामाजिक समस्याएं भी पैदा कर दी है। जिसमें पारिवारिक संबंधों के अलावा संबंधियों या मित्रों के लिए समय देना भी दुर्लभ होता जा रहा है। बहुधा अनेक निजी कंपनियों के अधिकारियों को रात्रि के 3 बजे या ऐसे ही किसी समय में चाहे सिडनी हो या कोई अमेरिकी शहर जिससे बात करने के लिए कांफ्रेंस कॉल व्यवस्थित करनी हो घंटों बात करते देखा जा सकता है। सच तो यह है कि अब सिमट कर यह 24 घंटे सचेत रहने और बातें करने की दुनियां बन चुकी हैं। लगता है इस देश में भी अब नियमित पारंपरिक काम घंटों के बाद ही विपणन और वाणिज्य के अनेक रूपों के काम की शुरूआत होती है।
उद्योगपतियों की दृष्टि में आज इस व्यवसाय के नए-नए लाभप्रद पक्ष खुलते जा रहे हैं जिससे उनके कार्यक्षेत्र की परिधि भी लगातार विस्तृत हो रही है। अब तो अनेक उद्योगपति अपने उत्पाद के विपणन, प्रचार-प्रसार व उसकी छवि निर्माण के लिए विज्ञापन या जन संपर्क विभाग भी न रखकर वह किसी अनुभवी व निगुण मीडिया संस्थान से अनुबंध क र कम खर्चवाली सलाह को ‘आउटसोर्स’ करता है और डिजिटल संप्रेषण के युग में यह अधिक कारगर सिध्द होता है। इसी तरह अलग-अलग हर शहर में ग्राहक सेवा केंद्र खोलने के स्थान पर कम लागत में किसी दक्ष एवं सक्षम संस्था के माध्यम से काम कराता है।
पर यह भी सच है कि इस तरह के ‘आउटसोर्सिंग’ का चलन एक दुधारू तलवार है। व्यवसायी जहां अपने मुनाफे को सरलता से बढ़ा चुके हैं। यह कर्मचारियों व सफेदपोश श्रमिकों का घोर शोषण भी कर रहा है। नियमित स्थायी रोजगार कम होता जा रहा है। क्योंकि ठेके पर हुए कर्मचारियों के भविष्य की कोई सुरक्षा नहीं है। वेतनवृध्दि, पदोन्नति व सेवानिवृत्ति होने पर मिलने वाले लाभों पर निरंतर सीमाएं खिंचती जा रही हैं।