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पराई बुद्धि से स्वकार्य संपन्न नहीं होते

कुसुमलता केडिया

कोई भी समाज तब तक स्वस्थ, सबल, स्वाधीन एवं प्रतिष्ठा संपन्न नहीं हो सकता जब तक उसकी सामूहिक बुध्दि जाग्रत एवं प्रदीप्त न हो। उधार की तलवार से लड़ाई तो हो सकती है, परंतु उधारकी बुध्दि से ऐश्वर्य एवं श्री की प्राप्ति असंभव है। पराई बुध्दि से स्वकार्य संपन्न नहीं होते, पराई सेवा तो खूब हो सकती है।

यूरोप, एशिया, अप्रफीका और उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के मूल समाज ईसाई एवं इस्लामी साम्राज्यवादी अभियानों तथा आक्रमणों के दौर में अपने विद्या-केन्द्रों, परंपराओं और प्रवाहों को खो बैठे हैं और अब स्मृति-भ्रंशता की स्थिति में हैं। उन्हें जो याद है, वह यूरो-अमेरिकी ईसाई अथवा इस्लामी बुध्दि द्वारा अनूदित एवं व्याख्यायित है। वे काफी हद तक भूल चुके हैं कि उनके शक्ति-स्रोत क्या हैं, विशिष्टताएं क्या हैं, कमियां क्या हैं। उनकी वास्तविक शक्ति को आक्रमणकारी बुध्दि ने स्वभावत: कमजोर बताकर परिभाषित एवं व्याख्यायित किया – लगातार, लंबे समय तक। तब तक, जब तक वह उनके अंदर पैठ नहीं गया।

भारत भूमि एक मात्र ऐसी भूमि है जहां स्मृतियां हैं, परम्पराएं भी शेष हैं। जीवन प्रवाह बड़े पैमाने पर सनातन धर्म प्रवाह से पुष्ट और प्रेरित है। ईसा के 2000 साल बाद भी जहां एक पुण्यसलिला के तट पर, कुंभ जैसे एक धार्मिक-सांस्कृतिक-बौध्दिक आयोजन के लिए स्व-समृति, स्व प्रेरणा, स्व-सामर्थ्य, स्व-संगठन एवं स्वानुशासन से इतनी बड़ी संख्या में धर्मनिष्ठ हिन्दू एकत्र होते हैं, जो अनेक यूरोपीय ईसाई-इस्लामी राष्ट्रों की संख्या के बराबर है। अनेक धमकियों, आशंकाआें, विघ्नों के बावजूद वह आयोजन निर्विघ्न संपन्न होता है। यह भारत के, उसके हिन्दू मानस के, उसकी हिन्दू बुध्दि के आंतरिक सामर्थ्य, वैभव, ऐश्वर्य का एक गूढ़ प्रतीक है।

भारतीय बुध्दि जिसे अब हिन्दू बुध्दि कहना ज्यादा सुसंगत, तार्किक एवं समीचीन-उपयुक्त होगा, में भी अनेक सिकुड़नें आई हैं। इस्लामी युध्दोन्माद, शत्रु के प्रति उसकी बर्बर नीति, उम्मा एवं मिल्लत की उसकी मजहबी समझ और उसकी भीषण धनलिप्सा ने भारतीय समाज पर बारंबार भीषण प्रहार किए हैं। 1000 साल तक इस्लाम से युध्दरत हिंदू समाज के बौध्दिक केंद्र टूटे। ये इस्लामी आक्रमण के विशेष लक्ष्य भी थे। इस्लाम से इतर बुध्दि-धाराओं को शैतानियत और कुप्रफ बताकर गैर मुस्लिम शिक्षाकेन्द्रों को बार-बार तहस-नहस किया गया। तक्षशिला, नालंदा, सिंध-हैदराबाद, लरकाना, पाटल, मुल्तान, ठट्ठा, कन्नौज, मदुरा, विजयनगर, वारंगल, गोंडवाना, कलंजर, देवगिरी, चित्तौड़, रणथंभौर, उज्जयिनी, चंदेरी, धार, वृंदावन, मथुरा, प्रयाग, काशी, कामरूप, नवद्वीप, पाटलिपुत्र, पाटन आदि केंद्रों पर बारंबार अकारण बर्बर आक्रमण सर्वविदित अपराध है।

हिंदू राजाओं के प्रचंड प्रतिकार, हिंदू बौध्दिक समूहों की निरंतर बुध्दि-साधना एवं हिंदू समाज के जातिगत दृढ़संगठन ने विद्याधाराओं को बार-बार संभाला, जीवित और पोषित किया। फिर भी एक हजार सालों तक चले आततायी मुस्लिम आक्रमणों के दबावों से उनमें जबर्दस्त सिकुड़न तो आ ही गई। हिंदू बुध्दि की यह आंतरिक सामर्थ्य ही थी कि इस्लामी बर्बरता शेष विश्व की तुलना में यहां भारत में थोड़ी थमी और मर्यादित भी हुई।

तत्पश्चात ईसाई सर्वग्रासी कुटिल बुध्दि ने देश के बचे-खुचे विद्या केन्द्रों, विद्या परंपराओं एवं बौध्दिक समूहों का चुन-चुनकर व्यवस्थित ढंग से नाश किया।

अभिलेखागारों में सुरक्षित अनेकानेक रिपोटरों गैर ईसाईयों के प्रति ईसाई मष्तिस्क के बौध्दिक विद्वेष के प्रामाणिक साक्ष्य हैं। उनका आक्रमण सूक्ष्म एवं जटिल था, अत: मारक क्षमता भी अधिक थी, प्रभाव भी दूरगामी एवं गहरा था। तदापि हिंदू बुध्दि ने गौ-रक्षिणी सभाओं, धर्मकेंद्रों, धर्मचर्चाओं, इष्टापूर्त की विषद परंपराओं एवं धार्मिक अनुशासन द्वारा हिंदू-परंपरा की रक्षा के माध्यम से तथा भारत माता की भक्ति भावना के प्रसार से ईसाई साम्राज्यवादी कुटिलताओं का भी बड़ी सीमा तक प्रतिकार किया। हमें संपूर्ण स्वाधीनता आंदोलन में ध्यान था कि किन-किन क्षेत्रें में हमारी बौध्दिक क्षति हुई है, कैसे-कैसे गंभीर प्रयास करने होंगे- हमें पुन: उस बौध्दिक ऐश्वर्य को, सामर्थ्य को प्राप्त करने के लिए।

हमारे पूर्वजों का अद्भुत बौध्दिक, आध्यात्मिक पराक्रम ही सुरक्षित रख पाया है, हमारी संस्कृति को तथा हमारी उस विराट विरासत को, जिसके कारण आज सभ्यतागत विमर्श संभव है। कोई भी समाज तब तक स्वस्थ, सबल, स्वाधीन एवं प्रतिष्ठा संपन्न नहीं हो सकता जब तक उसकी सामूहिक बुध्दि जाग्रत एवं प्रदीप्त न हो। उधार की तलवार से लड़ाई तो हो सकती है परंतु उधार की बुध्दि से ऐश्वर्य एवं श्री की प्राप्ति असंभव है। पराई बुध्दि से स्वकार्य संपन्न नहीं होते, पराई सेवा तो खूब हो सकती है।

स्वबुध्दि से ही देश-काल का सम्यक् बोध संभव है। समाज की अपनी मनीषा ही अपने शक्तिकेंद्रों और दुर्बल क्षेत्रें को चिन्हित कर सकती है। स्वमेधा से ही स्वसामर्थ्य का विस्तार संभव है। स्वाभाविक है कि यूरोपीय ईसाई मेधा यूरोपीय ईसाईयत का नए-नए रूप में विस्तार करे, उसके कार्य संपन्न करे, अन्यों को इन्हीं लक्ष्यों के संपादन में नियोजित करे। हमें इस सबके प्रति सजग एवं सचेत रहना होगा।

स्वयं के तेजस्वी सामर्थ्यवान पूर्वजों की बुध्दि के अनादर से इतिहास में अभी तक कोई राष्ट्र सफल, सबल नहीं बना है। हम भी इस तथ्य के अपवाद नहीं हैं। यह अति आवश्यक है कि हम अपनी बुध्दि के दर्पण में स्वयं को देखें, विश्व को देखें, मित्र-शत्रु एवं तटस्थ समूहों को परखें, उनका बलाबल आकलन करें। आक्रांता समूहों की बौध्दिक धारणाएं, सिध्दांत, पदावली, संरचनाएं, शैली, भाषा और मुहावरे हमें श्रीहीन बनाएंगें, हमें उनके ही लक्ष्यों के लिए नियोजित करेंगे।

अत: आवश्यक है कि हम अपनी सभ्यागत बौध्दिक विरासत को पहचानें। अपने आधारभूत प्रत्ययों, पदों, मानों, आदर्शों, लक्ष्यों, परंपराओं, व्यवस्थाओं, बीज-पदों, ज्ञानधाराओं, पुरुषार्थ-रूपों एवं वीरता-रूपों को जानें। औरों के लक्ष्यों, योजनाओं, प्रवृत्तियों, शक्तियों, सीमाओं, दोषों-गुणों एवं कर्मों को धर्माधर्म विवेक के आलोक में जानें, समझें जिससे कि सम्यक्, प्रभावी संवाद संभव हो। हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम समकालीन विषयों पर स्वयं को एवं विश्व को हिंदू दृष्टि से देखें, जानें, स्मरण करें और तदनुसार स्वधर्म का निर्धारण करें।

ये उदारता कहीं ले न डूबे

विमल कुमार सिंह

निश्चित रूप से भारत सनातनी परंपरा का देश है और ‘अतिथि देवो भव’ का संस्कार हमारी रगों में समाया है। पिछली सहस्राब्दियों में हमने अनगिनत समुदायों को अपने यहां प्रश्रय दिया।

अपनी धार्मिक मान्यताओं के कारण जब यहूदी और पारसी अपने मूल स्थान पर सताए जा रहे थे तो हमने बाहें फैला उनका स्वागत किया। उन्हें हमारे देश में वह आजादी मिली जो वे अपनी मातृभूमि में खो चुके थे। अतीत की यह उदारता कहीं न कहीं आज भी हमारे समाज में विद्यमान है। अगर ऐसा नहीं होता तो अफगानी, बर्मी, तिब्बती तथा श्रीलंकाई शरणार्थियों की बड़ी संख्या हमारे देश में भला आज कैसे चैन से रह पाती।

यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि जहां हमने अपने आतिथेय (मेजबान) होने का धर्म निभाया तो वहीं इन समुदायों ने अपने अतिथि धर्म का भी बखूबी पालन किया। हमारे और अपने हितों में टकराव की स्थिति उन्होंने कभी पैदा नहीं होने दी। लेकिन पिछले कुछ दशकों से एक समुदाय ने हजारों सालों की इस आदर्श स्थिति को तार-तार कर दिया है।

यह समुदाय है बांग्लादेशियों का। 1971 में जब उन्हीं के धर्म और उन्हीं के ‘राष्ट्र’ के लोगों ने मानवता की सारी हदें लांघकर उन पर अत्याचार करना शुरू किया तो हमने अपनी परंपरा को निभाते हुए उन्हें अपने यहां शरण दी। हमने न केवल उन्हें शरण दी बल्कि उन्हें पश्चिमी पाकिस्तान की गुलामी से भी मुक्त किया।

इसके बाद होना यह चाहिए था कि शरणार्थियों के रूप में हमारे देश में आए बांग्लादेश के लोगों को अतिथि धर्म का पालन करते हुए अपने देश लौट जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वे न केवल यहां टिके रहे, बल्कि उन्होंने भारत में अपने लोगों की योजनाबद्ध घुसपैठ करवानी शुरू कर दी। आज डेढ़ करोड़ से ज्यादा बांग्लादेशी हमारे देश में हैं। इनमें से एक प्रतिशत भी वैध तरीके से यहां नहीं आए हैं। सभी जबरन या धोखाधड़ी करके ही आए हैं।

वर्तमान स्थिति तो ऐसी है कि घुसपैठियों की गतिविधियों से तंग आकर नागरिको को ही अपने स्थान से पलायन करना पड़ रहा है। इनकी बस्तियों में आतंकवादियों एवं समाजविरोधी तत्वों को शरण मिल रही है। इनके कारण भारत की बुनियादी सुविधाएं चरमरा रही हैं और भारतीय कामगारों का रोजगार छिन रहा है।

लेकिन सारा दोष बांग्लादेशी घुसपैठियों का ही नहीं है। वास्तव में उनकी घुसपैठ हमारे अपने लोगों की मिलीभगत से ही संभव हो रही है। चंद राजनेता अपने निहित स्वार्थों के लिए घुसपैठियों का साथ दे रहे हैं। उनके समर्थन में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार जैसे मूल्यों की दुहाई देते हैं। इस सबके बीच देश की आम जनता भी घुसपैठ की गंभीरता को समझ नहीं पा रही है। कुल मिलाकर कारण चाहे नेताओं का अंधा स्वार्थ हो, तथाकथित बुद्धिजीवियों की मूर्खतापूर्ण उदारता हो या आम जनता की इस मसले को लेकर उदासीनता हो, वास्तविकता यह है कि घुसपैठ को बढ़ावा देने के लिए सभी समान रूप से जिम्मेदार हैं।

निस्संदेह भारत एशियाई देशों में एक बड़ा और जिम्मेदार राष्ट्र है। बड़ा होने की वजह से इसकी कुछ स्वाभाविक जिम्मेदारियां भी हैं। अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते लोगों को शरण देना इसका धर्म है। इससे भारत बच नहीं सकता है। और यह तो बड़ी बात होगी कि भारतीय सीमा मानवीय जीवन मूल्यों को ज्यादा महत्व दे, आवा-जाही में बाधक नहीं बने।

किन्तु एक कायदा तो हो। एक नियमावली तो बने जो राष्ट्रीय सुरक्षा और भारतीयों की सुविधा को ध्यान में रखे न कि यहां के लोगों की परेशानी का कारण बने। हमें अपने बीच मौजूद उन स्वार्थी और अति आदर्शवादी तत्वों को निष्क्रिय करना होगा जो बांग्लादेशियों की घुसपैठ में सहायक बने हुए हैं। और ऐसा करने के लिए आम जनता में इस मुद्दे के प्रति उदासीनता को खत्म करना बहुत जरूरी है। मूर्खता की हद तक उदार बनने से हमें बचना होगा।

किसान बुद्ध का आह्नान!

चैतन्य प्रकाश

विराट सूना आकाश क्रीड़ांगन बन गया है। काले मेघों की चपल किल्लोल जारी है। जलभरे बादलों से पटा आकाश मनुष्यता के सौभाग्य का समर्थ प्रतीक बना है। सूरज और चांद भी छिप-छिप कर इस खेल का मजा ले रहे हैं। धरती मां का अखण्ड जलाभिषेक हो रहा है।

धरत्रि उर्वरा है, पुनर्नवा है, सृष्टि के नवोन्मेष का महायज्ञ चल रहा है। इस यज्ञ का पुरोहित ‘किसान’ है। वसुंधरा की उर्वरा में बीज का समर्पण अभीप्सित है। किसान बीज के भाग्य का वाहक है। वह बीज को गलने, मिटने के लिए मुक्त कर रहा है। बीज के मोक्ष से सृष्टि का आविर्भाव होता है। तत्त्व का तत्त्व से मिलन ही पुन: तत्त्व की निर्मिति करता है। मिलन में मिटता क्या है, निर्माण में फिर बनता क्या है? यदि तत्त्व अक्षुण्ण है तो गलने-मिटने, बनने के मायने क्या हैं?

तत्त्व संरचना धारण करता है तो निर्माण कहा जाता है और संरचना से मुक्त होता है तो मृत्यु या निर्वाण घटित होता है। निर्वाण का अर्थ होता है दीए का बुझ जाना, अर्थात ज्योति का दृश्यमान रूप ओझल हो जाता है, मगर ज्योति विद्यमान रहती है। संरचना की मुक्ति और निर्मिति के महायज्ञ का सार्वत्रिक ‘होता’ (आहुति देने वाला) किसान बोध के सर्वाधिक निकट होता है। संरचना की आवाजाही का वह प्रत्यक्ष गवाह है। किसान के भीतर बुद्धत्त्व की सर्वाधिक संभावनाएं हैं। वह लगभग साक्षित्त्व की देहरी पर खड़ा होता है। इसीलिए अधिकांश ऋषियों का जीविका-कर्म कृषि रहा है।

संसार सदैव संरचनाओं में भरोसा करता है। संसार का यही भरोसा सुख-दुख, भय, प्रतिक्रिया-प्रतिशोध,ईर्ष्या-घृणा इत्यादि का मूल है। यह भरोसा ‘भ्रम’ है, ऐसा कहने, सुनने, मानने की अनेक विधा कोशिशों के बावजूद संसार का ‘संरचनावाद’ बरकरार है। संरचनाओं को सच मानकर जीने के कारण संसार में काटने, बांटने की होड़ चलती है। संरचनाओं के मोह में मनुष्य जगत सरलीकरण की ओर बढ़ने की कोशिश करता है।

सर्वप्रथम वह जीवन की सुरक्षा, सुविधा की चाह में संरचनाएं, यथा -घर, परिवार, रिश्ते-नाते, मित्र-शत्रु, वाहन, दफ्तर, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि निर्मित करता है। तदंतर प्रकृति को, अनुभूति को, अभिव्यक्ति को सरलतम करने की कोशिश करता है, अस्तु सत्यों को, तथ्यों को, शब्दों को, मर्म को अधिकाधिक सरल स्वरूप में समझना चाहता है। परिणामत: जीवन में एक सतहीपन आता जाता है। सरलीकरण की कवायद ऐसी है कि सतही स्पर्श ही रह जाता है, जैसे पानी भरने के लिए बाल्टी कुएं में डाली जाए और पानी को स्पर्श कर बाल्टी खाली वापस लौट आए।

सतहीपन का उप-उत्पाद है-सनसनी। भय और जुगुप्सा की स्थितियों में रस की अट्टाहास उपस्थिति सनसनी का आधार है। यहां संवेदना और सकारात्मकता विरल हो जाती है। मन उछलकर मस्तिष्क के ऊपर जा बैठता है। विकृति में रस आता प्रतीत होता है-लगभग वैसे ही जैसे श्वान के मुख से सूखी हड्डी के चबाने से निकल आया अपना ही रक्त, उसे स्वादिष्ट लगने लगता है।

सांसारिक बहिर्मुखता धीरे-धीरे अधोमुखता में परिणित हो जाती है। सांसारिक अवरोहण के ये चतुर्विधा चरण हैं- संरचनावाद, सरलीकरण, सतहीपन और सनसनी। संसार का सारा चीत्कार, क्रंदन और अट्टाहास इन चारों स्तंभों के व्याप में समाया है।

इन चारों स्तंभों की माया में बहका संसार एक मनोरोगशाला की भांति अटपटा और अराजक है। संसार की यह धारा बेतहाशा बह रही है। यह धारा पतनोन्मुखी है। इस धारा में संसार निरंतर जल रहा है।

किसान इस धारा के विरुद्ध चलने की सामर्थ्य का जीवंत पुंज है। वह जलते संसार की आग का शमन कर सकता है। वह संरचनाओं के भ्रम से वाकिफ है, वह संरचनाओं की क्षण-भंगुरता का नित्य साक्षी है। वह सत्य को, तथ्य को, मर्म को ज्यों का त्यों समझने की ओर अग्रसर होता है, इसलिए कृषि-कर्म में प्रशिक्षण नहीं बल्कि चित्तग्रहण आवश्यक होता है, वहां सरलीकरण की आवश्यकता अनुभव नहीं होती है, फलत: सतहीपन आता ही नहीं है।

कृषि और किसान गहनतम यात्राओं के प्रतिनिधि यात्री हैं। भूमि की अतल गहराइयों में मीठे जल की तलाश वैज्ञानिकों ने नहीं किसान ने की है। किसान के जीवन में सनसनी का कोई स्थान नहीं है। वह सूरज, चांद, बादल और हवा का सहृदय मित्र है। वह सहयोगपूर्ण जीवन जीता है, अस्तु उसके जीवन में सनसनी नहीं, सहजता है।

धरती का प्यारा, लाडला पुत्र किसान बुद्धत्त्व की पीठिका पर खड़ा होता है। उसे एक कदम ऊपर उठाना है, फिर वह समष्टि में परमेष्ठि का प्रतीक होकर उभर सकता है। पृथ्वी का सारा त्रास मिट सकता है, यदि किसान-बुद्धों का आविर्भाव होने लगे। दुर्योग से किसान इस सदी की विपदाओं से टूट रहा है।

मगर इस चौमासे (वर्षा ऋतु) की जल-किल्लोल में प्रकृति का गहन संदेश निहित है – नैराश्य छोड़कर, जागकर बढ़ो! हे भावी बुद्ध, जगत का त्रास घना हो रहा है। तुम्हारे बुद्धत्व की प्रतीक्षा हैं।

वैज्ञानिकों में‌ भी फ़न्डामैन्टलिज़म

विश्व मोहन तिवारी

मैं डा. सुबोध मोहन्ति का साक्षात्कार ले रहा था। मुझे उनके उत्तरों में सुविचारित परिपक्वता प्रसन्न कर रही थी। अत: मैं अनेक प्रश्न योजनानुसार नहीं, वरन प्रेरणा के अनुसार कर रहा था। मैंने उनसे पूछा,” क्या विज्ञान संचारक को घटनाओं में विज्ञान संगति सिद्ध करते समय धर्म का उपहास करना चाहिये?” उऩ्होंने तत्काल ही उत्तर दिया कि ’वर्सैस’ (बरअक्स या विरोध) नहीं होना चाहिये। मैंने कहा यह हुई सच्ची वैज्ञानिक समझ, दिमाग का खुलापन और उदारता; वरना अनेक वैज्ञानिकों में‌ भी एक तरह का फ़न्डामैन्टलिज़म दिखता है।

मुझे थोड़ा सा ऐसा फ़न्डामैन्टलिज़म लारैन्स एम क्रास में‌ नज़र आया (सितंबर ०९ का साइंटिफ़िक अमेरिकन) जो एरिज़ोना स्टेट यूनिवर्सिटी की एक अत्यंत मह्त्वपूर्ण प्रायोजना ’ओरिजिन्स इनिशिएटिव’ के निदेशक हैं। वे न्यूयार्क सिटी में हो रहे विश्व विज्ञान उत्सव में हो रहे एक विमर्श ’विज्ञान, आस्था और धर्म’ में‌ भाग ले रहे थे। वे डंके की चोट पर घोषणा करते हैं कि उत्सव में ऐसा विषय रखना भी विज्ञान का अपमान करना है। यह इन दोनों विषयों को बराबरी का स्थान देता है जो कि गलत है। अंत में उस विमर्श के संचालक ने निर्णय दिया कि मुख्यत: ईश्वर हमारी प्रकृति की समझ के लिये तथा उस समझ के अनुसार हमारे कार्यों के लिये अप्रासंगिक है।विज्ञान नहीं मान सकता कि ईश्वर विश्व के कार्यकलापों में कुछ भी‌ दखल दे सकता है। क्रास कहते हैं कि जब तक हम धर्म की चमत्कार वाली मनोवृत्ति से मुक्‍त नहीं होते, विज्ञान तथा कला के बीच की दरार पर सेतु नहीं बना सकते। सी पी स्नो की कला तथा विज्ञान के बीच दरार वाली अवधारणा को क्रास ने धर्म और विज्ञान के बीच दरार वाली अवधारणा में बदल दिया है, जब कि स्नो धर्म के विरोध में न बोलते हुए अज्ञान के विरोध में बोलते हैं! अंतत: फ़ंडामैंटलिज़म का एक मह्त्वपूर्ण लक्षण यह तो है कि ’केवल मेरा ईश्वर सत्य है, दूसरे का नहीं।’ अधिकांश वैज्ञानिक कह रहे हैं कि सत्य वही है जो विज्ञान देखता है, अन्य का देखा हुआ सत्य नहीं हो सकता।

क्या हिन्दी विज्ञान कथा में‌ इस विषय का संरचनात्मक संश्लेषण, विश्लेषण नहीं‌ हो सकता?

पॉलीथिन व प्लास्टिक कचरे पर नियंत्रण : एक बड़ी चुनौती

निर्मल रानी

देश के कई राज्यों में पॉलीथिन व प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की कागज़ी घोषणा की जा चुकी है। इन में हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य और चंडीगढ़ जैसे केंद्र शासित प्रदेश भी शामिल हैं। सरकार द्वारा इस लिए पॉलिथिन तथा प्लास्टिक आदि के सार्वजनिक प्रयोग पर प्रतिबंध लगाए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं क्योंकि इनके कचरों का समूल नाश नहीं हो पाता। और यह मिट्टी की उर्वरक क्षमता को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। इसके कारण हमारे पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त शहरों व क़ स्बों में बहने वाले नालों व नालियों में भी यही अनाशीय कचरा इनके जाम होने का कारण बनता है। परिणाम स्वरूप बरसात के दिनों में यही कचरा शहरों में बाढ़ जैसे हालात पैदा कर देता है। इन्हीं हालात से बचने के लिए सरकार प्राय: इस विषय पर विचार करती रहती है कि क्यों न पॉलिथीन व प्लास्टिक के सार्वजनिक रूप से होने वाले बेतहाशा प्रयोग को प्रतिबंधित कर दिया जाए।

देश के जिन जिन राज्यों व कें द्रशासित प्रदेशों में पॉलिथीन पर प्रतिबंध लगाने की बात होती है वहां पहले रेहड़ी,ठेलों तथा रोज़मर्रा के प्रयोग में आने वाले सामानों की दुकानों पर आम ग्राहकों को प्राप्त होने वाले पॉलिथीन कै री बैग पर सर्वप्रथम प्रतिबंध लगा दिया जाता है। ऐसी ख़बरें भी आती हैं कि पॉलिथीन प्रतिबंध राज्यों में पॉलिथीन बैग का इस्तेमाल करने वाले ग्राहकों को भी जुर्माना भुगतना पड़ता है तथा वह दुकानदार जिसने कि ग्राहक को उक्त बैग मुहैया कराया है उसे और भी अधिक जुर्माने का भुगतान करना पड़ता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पॉलिथिन व प्लास्टिक का कचरा हमारी धरती, पर्यावरण, स्वास्थय आदि सभी के लिए अत्यंत हानिकारक है। परंतु क्या मात्र कैरी बैग अथवा आम लोगों के हाथों में लटकने वाले प्लास्टिक थैलों को प्रतिबंधित करने मात्र से ऐसे अनाशीय कचरे को फैलने से रोका जा सकता है? क्या हमारे देश में पॉलिथिन तथा प्लास्टिक पैक के बदले में किसी ऐसी वस्तु की खोज की जा चुकी है जो हमें पूरी तरह से अनाशीय कचरों से मुक्ति दिलवा सके?

दरअसल हमारे देश में पॉलिथिन व प्लास्टिक पैक में आने वाले सामानों की सूची इतनी लंबी है कि उसे गिन पाना शायद संभव ही नहीं है। खासतौर पर आम लोगों के दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली तमाम वस्तुएं ऐसी हैं जो केवल प्लास्टिक या पॉलिथिन पैक में ही बाज़ार में उपलब्ध होती हैं। उदाहरण के तौर पर ब्रेड, दूध, दही,पनीर, लस्सी, मिनरल वॉटर की बोतलें,लगभग सारे ही ब्रांड के शीतल पेय पदार्थ,शराब की बोतलें, चिप्स, नमकीन, बिस्कुट,बीड़ी के बंडल,गुटखा,शैंपू,साबुन,चाय की पत्ती के पैकेट,वाशिंग पाऊडर, टुथपेस्ट, क्रीम, रिफिल, बॉलपेन, दवाईयों की पैकिंग, इंजेक्शन, सीरिंज, लेक्स, कंप्यूटर कचरा जैसे सीडी,डीवाडी लॉपी आदि,मोबाईल का कचरा,बैटरी का कचरा,सीमेंट बैग,आटा व बेसन बैग,यूरिया बैग आदि ऐसी न जाने कितनी वस्तुएं हैं जो अनाशीय कचरे के रूप में हमारे पर्यावरण को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। सवाल यह है कि क्या देश की कोई भी सरकार इन पर भी पूर्ण प्रतिबंध लगाने की बात कभी सोच सकती है? और यदि उपरोक्त वस्तुओं के कचरे को नियंत्रित करने या उन्हें प्रतिबंधित करने के समुचित उपाय नहीं किये जाते तो क्या मात्र साधारण व गरीब आदमी द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले कैरी बैग पर प्रतिबंध लगने मात्र से इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है?

हमारे देश में प्राय: आम आदमी यह कहता सुनाई देता है कि देश के कानून व कानूनी बंदिशें स पन्न व अमीर लोगों के लिए नहीं बल्कि साधारण व गरीब लोगों के लिए हैं। पॉलीथिन को प्रतिबंधित किए जाने वाले कानून को लेकर भी आम लोगों द्वारा कुछ ऐसी ही व्या या की जा रही है। आज आम आदमी यह सवाल कर रहा है कि पॉलिथिन व प्लास्टिक कचरा फैलाने की शुरुआत सूर्योदय होने से पूर्व ही हज़ारों करोड़ थैलियों को आम लोगों के घरों तक पहुंचाने का कारण देश का डेयरी मिल्क व्यापार ही बनता है। अब आखिर इस पर नियंत्रण पाने के क्या उपाए हो सकते हैं और कौन सी सरकार इन्हें प्रतिबंधित कर सकती है। क्योंकि इस कारोबार में अधिकांशत: देश की तमाम राज्य सरकारें भी सांझीदार बनी हुई हैं। इसी प्रकार गुटखा व्यापार भी देश के अति स पन्न व उद्योगपति घरानों के हाथों में है जिनके हितों की अनदेखी कर पाना आसान बात नहीं है। पाठकों को याद होगा कि देश के एक केंदीय स्वास्थय मंत्री ने जब देश के युवाओं के स्वास्थय के मद्देनज़र गुटखा जैसी नुकसानदेह वस्तु पर प्रतिबंध लगाने तथा इसके उत्पादन को बंद करने की बात सोची थी तथा इस सिलसिले में अपने विचार व्यक्त किए थे,बताया जाता है कि उस समय देश की ताकतवर गुटखा उत्पादक लॉबी ने उस मंत्री का मंत्रालय तक बदलवा दिया था।

लगभग यही हाल शराब तथा चाय की पत्ती व डिटर्जेंट पाऊडर एवं शैंपू आदि के पाऊच उत्पादन को लेकर है। संक्षेप में यह समझा जा सकता है कि आम लोगों के दैनिक जीवन में प्रयोग में आने वाली रोज़मर्रा की चीज़ों के उत्पादन से जुड़े लोग तथा औद्योगिक घराने कोई साधारण लोग बिल्कुल नहीं हैं। लिहाज़ा हो न हो देश की सरकारें इन बड़े घरानों के हितों को भी ध्यान में रखकर ही कोई कानून बनाती हैं या निर्देश जारी करती है। ऐसे में प्रश्र यह है कि आखिरकार हमें इन समस्याओं से निजात कैसे मिल सकती है और हम अपने पर्यावरण व स्वास्थय को इन प्रदूषित व अनाशीय कचरों से होने वाले नुकसान से कैसे बचा सकते हैं। इसके लिए हमें हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे से पहाड़ी राज्य से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है। हिमाचल प्रदेश देश के उन राज्यों में शामिल है जिसने पॉलिथिन व प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध लगा रखा है। इसके बावजूद भी वहां पाए जाने वाले प्लास्टिक कचरे जोकि मजबूरीवश अथवा पर्यटकों के कारण पाए जाते हैं उन्हें भी समाप्त करने का माकूल प्रबंध सरकार द्वारा किया गया है।

सर्वप्रथम तो यह कि हिमाचल प्रदेश की आम जनता ने यह स्वीकार व महसूस कर लिया है कि अनाशीय कचरे उनके पहाड़ी सौंदर्य,पर्यावरण तथा स्वास्थय के लिए अत्यंत हानिकारक हैं। अपनी इसी जागरुकता के चलते वहां के आम लोग यह कोशिश करते हैं कि पॉलिथिन व प्लास्टिक जैसे अनाशीय कचरे को स्वयं इधर-उधर फेंकने से परहेज़ करें। उधर प्रदेश सरकार द्वारा 3 रुपये प्रति किलो की दर से ऐसे कचरे को खरीदने की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त वहां कई जगहों पर ऐसे प्लांट लगाए गए हैं जहां इन कचरों को रिसाईकल किया जाता है। इन कचरों का इस्तेमाल हिमाचल प्रदेश में सड़कों के निर्माण में किया जाता है। ऐसे कचरे को गलाकर सड़कों के निर्माण में इस्तेमाल करने से सड़कें मज़बूत बनती हैं। इन सब के अतिरिक्त सरकार की ओर से सख्‍ती भी बरती जाती है कि कोई व्यक्ति ऐसी अनाशीय पैकिंग का प्रयोग न करने पाए। वैसे तो पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस विषय को गंभीरता से लेते हुए गुटका पैकिं ग पॉलिथिन व प्लास्टिक के पाऊच में न किए जाने के आदेश जारी किए थे। परंतु सर्वोच्च नयायालय के इस आदेश के बावजूद आज भी बाज़ार में प्लास्टिक पाऊच में ही गुटखा बिकते देखा जा रहा है। ज़ाहिर है उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करना तथा इसको अमल में लाना शासन व प्रशासन का ही काम है। ऐसी विरोधाभासी परिस्थितियों में हमें साफ नज़र आता है कि किसी ऐसे विषय को लेकर दोहरे मापदंड अपनाया जाना ही हमारे व हमारे समाज के लिए,हमारे स्वास्थय तथा पर्यावरण के लिए घातक साबित होता है।

इन हालात में हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऐसे अनाशीय कचरे को लेकर हम स्वयं सचेत व जागरुक बनें। इससे होने वाले नुकसान तथा इनके दूरगामी परिणामों को खुद अच्छी तरह समझें तथा इनके समूल नाश का स्वयं पुख्‍ता उपाय ढूंढें। हमारी लापरवाही तथा अज्ञानता ही हमारे लिए पर्यावरण असुंतलन,बाढ़,बीमारी तथा अन्य कई प्रकार की तबाही का कारण बनती है। जहां तक हो सके हम अपने घरों में ऐसे अनाशीय कचरों को एकत्रित कर उन्हें स्वयं या तो समाप्त करें या रिसाईकल होने हेतु उसे किसी कबाड़ी की दुकान तक पहुंचाने के उपाय करें। नाली,नालों व सड़कों पर न तो स्वयं ऐसे कचरे फेंके न ही दूसरों को फेंकने दें। हम इस बात की प्रतीक्षा कतई न करें कि सरकार इन अनाशीय कचरों पर स्वयं प्रतिबंध लगाएगी। हमें स्वयं जागरुक होना होगा तथा ऐसी नकारात्मक परिस्थितियों से स्वयं ही जूझना होगा।

सियासत और सेक्स की कॉकटेल-कथा : 3

एक फूल, दो माली…

चण्डीदत्त शुक्ल

एक था गुल और एक थी बुलबुल…ये नग्मा तो बहुत ख़ूबसूरत है पर गुल एक हो और बुलबुल, बल्कि भौरें दो हो जाएं, तो मुश्किल खड़ी हो ही जाती है। अमिता मोदी के भी दो चाहने वाले थे। एक तो उनके हमसफ़र, हमनवां और नेशनल बैडमिंटन चैंपियन सैयद मोदी और दूसरे यूपी की सियासत के जाने-माने नाम—संजय सिंह। सैयद मोदी उन दिनों उत्तर प्रदेश के खेल जगत में चमकते हुए सितारे के रूप में पहचाने जाते थे। उन्होंने आठ बार राष्ट्रीय बैडमिंटन चैंपियनशिप में जीत हासिल की थी। इसी तरह संजय सिंह भी अपनी ऊर्जा व वक्तव्य की नई शैली के चलते नाम कमा रहे थे। कहते हैं, संजय और अमिता की नज़दीकियां गहराईं और यही अंतरंगता सैयद के लिए जान जाने का सबब बन गई।

23 जुलाई 1988 की सुबह सैयद मोदी लखनऊ के केडी बाबू स्टेडियम से देर तक एक्सरसाइज करने के बाद बाहर निकल रहे थे, तभी कुछ अज्ञात हमलावरों ने उनका मर्डर कर दिया था।

शक की सुई जनमोर्चा नेता और यूपी के पूर्व ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर डॉ. संजय सिंह पर उठी और फिर सीबीआई ने उन्हें आईपीसी की धारा-302 के तहत गिरफ्तार कर लिया। सीबीआई ने क़त्ल के दो दिन बाद पुलिस से मामला अपने पास ले लिया था और डॉ. संजय सिंह, सैयद मोदी और अमिता मोदी के बीच प्रेम त्रिकोण की जांच शुरू कर दी थी। सीबीआई को शक़ था कि प्रेम के इस ट्रांइगल की वज़ह से ही सैयद का क़त्ल हुआ है।

दस दिन बाद सीबीआई ने दावा किया कि मामले का खुलासा हो गया है और उसने पांच लोगों को गिरफ्तार भी किया। इनमें अखिलेश सिंह, अमर बहादुर सिंह, भगवती सिंहवी, जितेंद्र सिंह और बलाई सिंह शामिल थे। अखिलेश पर आरोप था कि उसने हत्यारों को सुपारी दी थी और अमर, भगवती व जितेंद्र गाड़ी लेकर सैयद की हत्या कराने पहुंचे थे। बलाई सिंह को रायबरेली से गिरफ्तार किया गया। सीबीआई ने संजय सिंह और अमिता मोदी के घरों पर छापे मारे और अमिता की डायरी से इस खूनी मोहब्बत के सुराग तलाशने लगी। यही डायरी थी, जिसने बताया—श्रीमती मोदी और संजय सिंह के बीच `क्लोज रिलेशनशिप’ है। संजय सिंह को मामले का प्रमुख साज़िशकर्ता बताया गया। दो दिन बाद अमिता भी गिरफ्तार कर ली गईं। 26 अगस्त को उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया। इसके बाद 21 सितंबर को डॉ. संजय सिंह भी लखनऊ की ज़िला और सेशन अदालत के निर्देश के मुताबिक, दस हज़ार के निजी मुचलके पर जमानत हासिल कर जेल से बाहर आ गए।

इसके बाद सैयद मोदी के कत्ल के पीछे की कथा इतिहास के पन्नों में कैद होकर रह गई। आज तक इसका खुलासा नहीं हो सका है कि मोदी का मर्डर किसने किया और किसने कराया? चंद रोज बीते, संजय और अमिता की शादी हो गई। संजय बीजेपी से राज्यसभा के सांसद बने और अमिता अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतीं। अब दोनों साथ-साथ हैं। चुनाव लड़ते हैं, जीतते हैं। सैयद की आत्मा अब भी इंसाफ़ का इंतज़ार कर रही है। अदालत में ये साबित नहीं हुआ कि संजय का कोई गुनाह है। अमिता भी बरी हो गईं…बस सैयद ज़िंदा नहीं हैं…।

ममता के भक्त क्यों हैं नव्यउदार अमीर

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

ममता बनर्जी की पिछले दिनों हुई दमदम की जनसभा में खूब भीड़ थी। वहां ममता बनर्जी ने वाम के पिछले विधानसभा चुनाव के नारे ‘उन्नततर वामफ्रंट’ के विकल्प के रूप में ‘ उन्नततर मानुष’ का नारा दिया है। उनका मानना है वे यदि आगामी विधानसभा चुनाव जीतती हैं तो पश्चिम बंगाल में ‘उन्नततर मानुष’ के उत्थान के लिए काम करेंगी। ममता के दमदम भाषण में सबसे आकर्षित करने वाली बात थी उनका आत्मविश्वास कि मैं अब आगामी विधानसभा चुनाव जीतने जा रही हूँ। असल में यह मीडिया निर्मित कारपोरेट इमेज है। नकली इमेज है। ममता के आत्मविश्वास का बड़ा कारण है कारपोरेट घरानों और नव्य उदार अमीरों का उन्हें अंध समर्थन। सवाल यह है नव्य उदार अमीर ममता के पीछे गोलबंद क्यों हैं ?

यह सच है कि पश्चिम बंगाल में नव्य उदार नीतियों को लागू करने की प्रक्रिया को बुद्धदेव पूर्व की वाम सरकारों ने धीमी गति से लागू किया था। इससे राज्य काफी पिछड़ गया। लेकिन विगत पांच सालों में बुद्धदेव सरकार ने नव्य उदार नीतियों के प्रति नरम रूख अपनाया है और उन्हें पहले की तुलना में तेज गति से लागू करने की कोशिश की है। इसका उन्हें विगत विधानसभा चुनाव में लाभ भी मिला था। विगत पांच सालों में अनेक बड़े कारखानों और प्रकल्पों पर काम आरंभ हुआ है। इसके बावजूद नव्यउदार पूंजीपतियों को वे अपने साथ एकजुट रखने में असमर्थ रहे हैं। इस मामले में ममता बनर्जी ने उनसे बढ़त हासिल कर ली है।

खासकर सिंगूर आंदोलन ने ममता को नव्यउदार कारपोरेट लॉबी के एक बड़े अंश को अपनी ओर खींचने में मदद की है। ममता बनर्जी ने कारपोरेट जगत में यह उम्मीद पैदा की है वह बुद्धदेव की तुलना में उनके हितों की बेहतर रक्षक है। इस आशा को ममता बनर्जी ने रेलवे मंत्रालय में ‘सरकारी-निजी साझेदारी’की योजना को लागू करके पुख्ता बनाया है। आज भी कारपोरेट घरानों का एक बड़ा हिस्सा वामपंथी दलों और खासकर माकपा को नव्य उदार नीतियों के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा मानता है। ममता इस धारणा का कारपोरेट लॉबी में दोहन कर रही है।

आज कारपोरेट घरानों का मानना है ममता यदि चुनाव जीतती है तो पश्चिम बंगाल की सार्वजनिक संपदा की खुली लूट का उन्हें विशेष अवसर मिलेगा। इसके लिए कारपोरेट लॉबी दो स्तरों पर काम करने के लिए ममता बनर्जी पर दबाब डाल रही है। वे चाहते हैं ममता अपने आक्रामक तेवरों और सांगठनिक हमलों से हिंसा का ऐसा वातावरण तैयार करे जिससे वाम संगठनों की स्थानीय कैडर संरचना टूट जाए। माकपा की एक राजनीतिक दल के रूप में साख नष्ट करके उसे गुण्डादल बनाकर प्रचारित किया जाए। ममता इस काम को बड़े सुनियोजित ढ़ंग से कर रही है। कारपोरेट लॉबी जानती है ममता बनर्जी आगामी विधानसभा चुनाव जीत भी जाती है तो उनको पश्चिम बंगाल की सार्वजनिक संपदा को लूटने में तबतक बाधाओं का सामना करना पड़ेगा जब तक माकपा सांगठनिक तौर पर मजबूत है। यही बुनियादी वजह है कि माकपा पर विभिन्न ग्रुपों, संगठनों,आंदोलनों आदि के नाम से संगठित हमले कराए जा रहे हैं। उन इलाकों में हिंसाचार ज्यादा हो रहा है जहां माकपा मजबूत है। यह नंदीग्राम मॉडल है। आज नंदीग्राम में माकपा को खदेड़ दिया गया है। माकपा के सदस्यों के सामने जीवन-मरण का संकट पैदा कर दिया है। नंदीग्राम मॉडल को राज्य के अन्य इलाकों में सुनियोजित ढ़ंग से लागू किया जा रहा है। इस काम में माओवादियों ,अपराधी गिरोहों और सभी विचारधारा के लोगों को माकपा के खिलाफ हमलावर कार्रवाईयों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जिन इलाकों में यह सब हो रहा है वहां असाधारण सामाजिक तनाव है। अनेक स्थानों पर माकपा के लोग भी हथियार उठाने के लिए मजबूर हुए हैं। सामान्य सी बात पर हिंसा भड़क उठती है.बम चलने लगते हैं। विभिन्न दलों के नेताओं में कोई सामान्य संवाद और शिष्टाचार तक नहीं बचा है। दलों में संवादहीनता बढ़ी है। हिंसा बढ़ी है। तनाव में शांति की बजाय बम चलते हैं। यह नंदीग्राम मॉडल है। प्रचार के लिए अब भाषण नहीं होते हिंसा हो रही है। इससे ममता बनर्जी को राजनीतिक लाभ मिला है। यह रणनीति लैटिन अमेरिका में वाम संगठनों के खिलाफ कारपोरेट घराने सफलता के साथ लागू कर चुके हैं। इससे व्यापक जनहानि हुई है।

यह सच हैं कि वाम मोर्चे ने सैंकडों-हजारों एकड़ के ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र ’ यानी ‘सेज’ बनाने की केन्द्र की योजना को अस्वीकार कर दिया है और छोटे एरिया के ‘सेज’ बनाने पर जोर दिया है। नव्य उदार अमीर फलतः वाम से खफा हैं। ममता बनर्जी ने उन्हें आश्वासन दिया है कि वह बड़े ‘सेज’ बनाने देगी। इसके अलावा राज्य में भवन निर्माण और नए शहर बसाने की अपार संभावनाएं है इसके कारण भवन -शहर निर्माता कारपोरेट घराने ममता के पीछे गोलबंद हो गए हैं और बड़े पैमाने पर तृणमूल कांग्रेस की आर्थिक मदद कर रहे हैं। यही वह आर्थिक स्रोत है जिसके सहारे ममता ने संसद के चुनाव में बेशुमार पैसा खर्च किया था और यही वह स्रोत है जो आज भी ममता एंड कंपनी की विभिन्न रैलियों और प्रचार सामग्री पर करोड़ों रूपये खर्च कर रहा है। इसी स्रोत के आधार पर ममता ने कई हजार सदस्यों की एक टीम तैयार की है जिन्हें मासिक पगार मिलती है। ये लोग लड़ने से लेकर नारे लगाने तक के हर काम में दक्ष हैं। इनमें लेखकों-कलाकारों से लेकर अपराधी चरित्र के लोग तक शामिल हैं। इसके अलावा अनेक अमेरिकी विदेशी घरानों की भी इस राज्य में दिलचस्पी बढ़ी है। वे चाहते हैं पश्चिम बंगाल में वामदल हारें। वे पहले भी कई बार कोशिश कर चुके हैं लेकिन असफल रहे हैं। लेकिन वामदलों का मजबूत सांगठनिक आधार उन्हें सशंकित किए है। वामदलों का जनसंपर्क आज भी कारपोरेट मीडिया पर भारी पड़ रहा है। वामदलों को इसबार दो मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा है पहला,उन्हें अपराधी गिरोहों के हमलों से अपने कैडरों को बचाने के लिए लड़ना पड़ रहा है तो दूसरी ओर जनता के साथ पुख्ता संबंध बनाने पर ध्यान देना पड़ रहा है। ये दोनों बेहद मुश्किल काम हैं।

संघ पर प्रहार के पीछे की गहरी साजिश

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

पिछले कुछ अर्से से कांग्रेस जांच एजेसियों की सहायता से भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों को बदनाम करने के अभियान में जुटी हुई हैं। कांग्रेस का एक उद्देश्य अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण हो सकता है। इस कार्य में लगता है कुछ विदेशी शक्तियां या तो कांग्रेस की सहायता कर रही हैं या फिर उसका इस्तेमाल कर रही हैं। पिछले दिनों कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी और दिल्ली स्थित अमेरिकी राजदूत के बीच एक गुफ्तगू का खुलासा हुआ था। राहुल गांधी का कहना था कि भारत को लश्कर-ए-तोयबा से इतना खतरा नहीं है जितना खतरा रेडिकल हिन्दुत्ववादी शक्तियों से है। कांग्रेस की दृष्टि में वे सभी राष्ट्र्वादी शक्तियां जो कांग्रेस की गैर भारतीय सांस्कृतिक नीतियों का विरोध करती हैं, रेडिकल हिन्दुत्ववादी शक्तियां हैं। उनसे लड़ना और फिर उनको समाप्त करना ही सोनिया कांग्रेस का तात्कालिक एजेंडा है। दरअसल, पिछले दो-तीन दशकों से भारत की राष्ट्रवादी शक्तियां राजनीति के केन्द्र स्थल तक पहुँच गई हैं। जाहिर है कि भारतीय सत्ता के केन्द्र स्थल तक पहुंचने के कारण भारतीय अस्मिता और भारतीय पहचान के प्रश्न फिर मुखर होने लगे हैं। भारत की इसी पहचान पर पिछले एक हजार वर्षों से विदेशी आक्रमण होते रहे हैं। कांग्रेस ने अपनी राजनैतिक सुविधा के लिए इन प्रश्नों को अपने एजेंडा से दूर ही रखा है। जब से कांग्रेस पर सोनिया गांधी का कब्जा हुआ है तब से वह इन प्रश्नों पर तटस्थ रहने की बजाये इन पर भारत की राष्ट्रवादी शक्तियों से लड़ने के लिए कटिबद्व हो गई है। वर्तमान संघ परिवार भारत की राष्ट्रीय चेतना और अस्मिता का प्रतीक बन कर उभरा है। इसलिए कांग्रेस ने लड़ाई के लिए संघ को ही निशाने पर रखा है।

आंतकवाद के नाम पर संघ को बदनाम करने की साजिश इसी का एक हिस्सा है। सोनिया गांधी ने कैलिफोर्नियां के राज्यपाल की पत्नी से एक अंतरंग बातचीत में यह कनफैशन किया था कि वे भारत की राजनीति में इसलिए सक्रिय हुई क्योंकि उसके केन्द्र बिन्दु में हिन्दुत्ववादी शक्तियां प्रभावी भूमिका में आ गयीं थी। वैसे भी अमेरिका की सबसे बड़ी चिन्ता भी भारत की राजनीति से राष्ट्र्वादी हिन्दु शक्तियों को बेदखल करने की ही रही है। अमेरिका के मजहबी स्वतंत्रता अधिनियम के तहत पिछले कुछ सालों से तैयार की गई रपटों से खुलासा होता है कि अमेरिका इस देश में राष्ट्र्ीय शक्तियों के उदय का अमंगलकारी मानता है। भारत में कांग्रेस द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ छेड़े गये अभियान की यह दुःखद पृष्ठभूमि है। इसका सबसे दुःखद पहलु यह है कि कांग्रेस विभिन्न जांच एजेंसियों मसलन सी0बी0आई0, एन0आई0ए0 और ए0टी0एस0 इत्यादि को अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए संघ को बदनाम करने के लिए प्रयोग कर रही है। इससे इन एजेंसियों की दक्षता पर तो प्रश्नचिन्ह लगता ही है, जांच का पूरा सिस्टम ही धीरे-धीरे खोखला होने लगता है और उसमें राजनैतिक स्वार्थो की दुर्गन्ध भर जाती है। इससे लोगों का सिस्टम पर से विश्वास डगमगाने लगता है।

इधर पिछले कुद अर्से से बम विस्फोटों की जांच के नाम पर किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लपेटने का अति महत्वपूर्ण कार्य सरकार ने दिया हुआ है। यह एजेंसियां इस काम में कितना सफल हो पाती हैं इसका निर्णय तो न्यायालय ही करेंगे। लेकिन कांग्रेस को न तो न्यायालयों के निर्णय की दरकार है और न ही सत्य जानने की। उसका मकसद तो जनता को धोखा देकर संघ को लांछित करना है। इसीलिए जांच एजेसियां अपनी आधी-अधूरी जांच की रपटें नियमित रूप से कांग्रेस को मुहैया करवा रही है और साथ ही मीडिया के एक खास वर्ग को पहुंॅचाई जा रही हैं। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह, राजस्थान के गृह मंत्री शांति धालीवाल इन जांच रपटों को लेकर संघ पर कीचड़ उछालते हैं यही काम मीडिया का एक खास वर्ग करता है। कांग्रेस और मीडिया का यह वर्ग अच्छी तरह जानता है कि इन जांच रपटों का तब तक कोई महत्व नहीं है जबतक न्यायालय में इन्हें प्रमाण सहित सिध्द नहीं कर दिया जाता। जांच एजेसियां भी यह अच्छी तरह जानती है। इसलिए वे इन जांच रपटों को न्यायलयों में उपस्थित करने से पहले ही कांग्रेस को दे रही हैं ताकि वे इनके झुठ सिद्व होने से पहले पहले इनका राजनैतिक लाभ उठा सकें। स्वामी असीमानंद के तथाकथित बयान को लेकर कांग्रेस इतना हो हल्ला मचा रही है जिससे यह भी शक पैदा होता है कि कहीं इस बयान को कांग्रेस के राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए ही तो नहीं तैयार करवाया गया। पुलिस और सी0बी0आई0 किस प्रकार जांच करते हैं इसका नमूना पहले ही कई बार पेश हो चुका है। वही सी0बी0आई0 सोनिया गांधी के नजदीकी इटली के ओतावियो क्वात्रोची को बचाने में लगी हुई है और वही सी0बी0आई0 आर0एस0एस0 को आतंकवाद में फसाने में लगी हुई है। जबकि दुनियां जानती है कि सी0बी0आई0 ओतावियो क्वात्रोची का बचाव करके पहला गलत काम कर रही है और आर0एस0एस0 को लांछित करने का प्रयास करके दूसरा गलत काम कर रही है। सी0बी0आई0 के निदेशक रह चुके जोगेन्द्र सिंह ने ठीक ही कहा है कि इसकी जांच रपटे राजनैतिक ज्यादा होती है प्रोफेशनल कम। लेकिन इससे एक और महत्वपूर्ण प्रश्न पैदा होता है। कांग्रेस ने अपने जिन कार्यकर्ताओं मसलन महासचिव दिग्विजय सिंह इत्यादि को जांच एजेंसियों से तालमेल का काम दिया हुआ है, उनकी गतिविधियों की भी जांच करवाना लाजमी हो गया है। दिग्विजय सिंह ने हेमंत करकरे से फोन पर बात करने का स्वयं ही खुलासा किया है। इसका अर्थ हुआ ये आधिकारिक रूप से जांच एजेंसियों के काम को मॉनीटर करते थे ओर जांच एजेसियां भी समय-समय पर इनको अपनी रपट देती थीं। इनके और इनसे जुड़े हुए दूसरे लोगों के फोन कॉल की भी गहरी और विस्तृत जांच की जानी चाहिए ताकि पता चल सके कि कहीं ये लोग जांच एजेसियों के साथ-साथ आतंकवादी गतिविधियों को भी अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिए प्रभावित तो नहीं करते थे।

* लेखक नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार के संपादक हैं।

पश्चिम में हिन्दू रीति-रिवाजों से विवाह करवाने की होड़

हरिकृष्ण निगम

भारत आने वाले विदेशी पर्यटकों और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त कुछ प्रतिभाओं द्वारा भारतीय रीति-रिवाजों के साथ विवाह करवाने के समाचारों की आज जैसे बाढ़ सी आ गई है। अब तो अमेंरिका में भी हिंदू रीति-रिवाजों के साथ विवाह रचने की होड़ सी लगती दिखती है। राजसी ठाठ-बाट, पारंपरिक भारतीय व्यंजनों एवं विधि-विधानों और सजावटों के व्यापक आकर्षण ने तो अनेक बड़े होटलों और रिसॉर्टों के भारतीय स्वत्वाधिकारियों को इन आयोजनों में जैसे अनेक व्यवसाय में एक नया आयाम जुड़ गया है। हाल में ‘वायस ऑफ अमेरिका’ ने फ्लोरिडा के गेलडि पाम्स रिजार्ट में एक ऐसे हिंदू रीति-रिवाजों युक्त भव्य आयोजन का उल्लेख करते हुए कहा कि हिंदू विवाह से जुड़े कर्मकांड या विधि-विधानों को संपन्न कराने के लिए अब प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। अमेरिका के अनेक प्रबंध संस्थानों में इवेन्ट मैनेजेमेंट के प्राठ्यक्रम में प्रशिक्षणार्थियों के लिए हिंदू विवाह पध्दतियों को संपन्न कराने के लिए विशेष सत्रों का प्रावधान भी किया गया है।

अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त गायिका केटी पेरी और हॉलीवुड की चर्चित हास्य कालाकार रसल बैंड ने हाल में राजस्थान के पर्यटन-स्थल रणथंभौर में बड़ी धूमधाम से हिंदू रीति-रिवाजों से विवाह किया। दोनों ही अब गणपति को आराध्य मानते हैं और इसीलिए गणेश जी की पूजा करते हैं। हिन्दू आस्था और संस्कृति ने केटी को पहले से ही अभिभूत कर रखा था इसलिए गणपति की प्रतिमा के सामने सभी रीति-रिवाजों संपन्न हुए। कहते हैं कि जिन लोगों को इस विवाह में आमंत्रित किया गया था उनको भी भेंट के बदले में नवदंपति ने गणेश-प्रतिमा स्मृति चिह्न के रूप में दी। रसल ने यह स्वीकार किया कि वे उसको पहले की मादक द्रव्यों के सेवन की लत से छुटकारा गणपति के आशीर्वाद से ही पा सक ा है।

वैसे जब से विश्वस्तर में चर्चित एतिएब गिलबर्ट की अपरी औपन्यासिक आत्मकथा कृति, ईट, प्रे, लव, जिस पर जिसपर उनकी भारत की अध्यात्मिक यात्रा का 36 कथानकों का खंड है जिस पर हॉलीवुड की विश्वविख्यात सिने तरिका 42-वर्षीय जुलिया रॉबर्ट््स इस देश में आकर फिल्मांकन करने के साथ हिंदू धर्म अपनाया तब से विदेशियों को नए रूप से हमारे सर्वसमावेशक हिंदू आस्था का आकर्षण प्राप्त हुआ है। भारत में फिल्मांकन के दौरान आश्रम में समय बिताने के बाद जूलिया के कैथोलिक धर्म त्याग कर हिंदू धर्म अपनाया था। साठ के दाक में विश्वविख्यात बीटल बृंद के जार्ज हैरिसन ने हिंदू धर्म में दीक्षित होने के बाद से विश्व की तीसरी सर्वाधिक समृध्द व लोकप्रिया महिला जूलिया रार्बट्स का हिंदू बनाना एक बहुत महत्वपूर्ण घटना मानी जा रही है। उसने ऊपर की दो सर्वाधिक धनाड्य महिलाओं में टॉक-शो सामग्री ओपराह विनफ्री और मिलिंडा गेट्स का नाम आता है।

कु छ समय पहले जोधपुर में आयोजित लिज हर्ले के आयोजित विवाह के कारण भारतीय परंपरा विश्वभर में एक नया सम्मोहक रूप मिला था। हाल में प्रसिध्द सुपर मॉडल हेडी क्लूम और उनके गायक पति सीन ने जब अपने विवाह की तीसरी वर्षगांठ मनाई थी तब उन्होंने वाराणसी के एक पंडित शैलेश त्रिपाठी को वहां विशेष रूप से उस अवसर पर पूजा-पाठ कराने के लिए बुलाया था। आज की तनावग्रस्त दिनचर्या, भागदौड़ और जटिल जीवन पध्दति से जूझने के लिए पश्चिम में हिंदू आस्था के विविध रूपों जैसे मन्त्रोच्चार, हवन आदि को एक कारगर विकल्प भी माना जाने लगा है अब तो लोग हिंदू-बौध्द आस्था, योग, प्राणायाम विपासना, अभ्यंग, ध्यान, तैल स्नान, शिरोधारा एवं अनेक आयुर्वेदिक चिकित्सा पध्दतियों को एक समन्वित रूप में देखने के आदी हो चुके हैं। इसलिए चाहे पुष्कर हो या वाराणसी या अन्य कोई हिंदूतीर्थ विवाहों के लिए भी विदेशी पर्यटक वहां पहुंचने लगे हैं।

जिस प्रकार तीन साल पहले लिज हर्ले और अरूण नायर की हिंदू रीति-रिवाजों से जोधपुर में हुई शादी विश्वभर में चर्चा हुई। इसी प्रकार हॉलीवुड के विख्यात जोड़े ब्रेंड पिट और एंजलिना जोली ने भी निर्णय लिया है कि जल्दी ही नववर्ष में वे भी जोधपुर में हिंदू विधि से सात फेरे लेंगे। यह विवाह उनके अध्यात्मिक गुरू 84 वर्षीय रामलाल सियाग की देखभाल में संपन्न होगा जो जोधपुर में ही अध्यात्म विज्ञान सत्संग केंद्र के संस्थापक व संरक्षक हैं। पश्चिमी मीडिया में, पहले उनके गुरू के परामर्श को जोली और पिट को निकट लाने के विषय में काफी छा चुका है जिसमें उनकों एक मंत्र जाप के लिए उन्होंने प्रेरित किया था उनके यह कुछ प्रसिध्द भक्त मंत्रोउच्चारण का ही अभ्यास नहीं करते हैं बल्कि सिध्द योग के शिविर भी लगवाते हैं।

वैसे हमारे राष्ट्रीय चिंतन में आर्यसमाज का एक ऐसा संदर्भ अरसे से लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता रहा है। जहां विवाहसहित हर संस्कार के लिए वैदिक विधि को हर प्रबुध्द नागरिक प्रश्रय देता रहा है चाहे वह किसी भी विचारधारा से अनुप्राणित रहा है। लेखक स्वयं उन अनेक उाुहरणों से परिचित है जब 60 और 70 के दशक में जर्मनी, फ्रांस या इंगलैंड में कार्यरत भारतियों ने भारत लौटकर अपनी विदेशी पत्नी के साथ वैदिक विधि से पाणिग्रहण संस्कार पूरा किया था। अब तो यह पध्दति समाप्त हो गई है जो समय की कसौटी पर कसी जाने वाली लोकप्रियता में बदल चुकी है। वे व्यक्ति जो दिखावे, तामझाम या उत्सवी माहौल से परे वैदिक हिंदू आस्था भी अपने वैवाहिक निर्णय में वेद विहित हिंदू परंपराओं का सहारा लेते हैं।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

भारतीय चिंतन में ब्रह्म निरूपण

हृदयनारायण दीक्षित

अस्तित्व सुरम्य है। रूपों रहस्यों से भरा-पूरा। यहां रूप के साथ रस, गंध, ध्वनि छन्द का वातायन है। जन्म मृत्यु की आंख मिचौनी है। ऐसा विराट अस्तित्व क्या अकारण है? प्रत्येक कार्य के पहले कारण होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण में कार्य कारण की महत्ता है। ‘श्वेताश्वतर उपनिषद्’ की शुरूवात सृष्टि के बारे में इसी तरह के मजेदार प्रश्नों से होती है, ब्रह्म चर्चा वाले जिज्ञासुओं ने आपस में विमर्श करते हुए पूछा कि इस सृष्टि का मुख्य कारण ब्रह्म कौन है? हम सब किससे उत्पन्न हुए है? – ‘किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता’। किस कारण से जी रहे हैं? किसमें स्थित हैं? – ‘क्व च सम्प्रतिष्ठाः’। किसके अधीन सुख और दुख में बरत रहे हैं – ‘वर्तामेह’। (‘श्वेताश्वतर उपनिषद्’ मन्त्र 1) फिर स्वयं ही अनुमान लगाते हैं, काल, स्वभाव, नियति, संयोग, पांच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) और जीवात्मा ये कारण विचार में नहीं आते हैं। इनमें आत्मभाव नहीं है। इसलिए अलग-अलग या मिलकर भी कारण नहीं हो सकते। आत्मा सुख-दुख का अनुभव नहीं करती, इसलिए वह भी कारण नहीं हो सकती। (वही मन्त्र 2) उपनिषद् के ऋषि प्रचलित सभी धारणाओं को खारिज करते हैं। आगे कहते हैं, उन्होंने ध्यान योग लगाया। अपने गुणों से ढकी हुई दिव्य-आत्म शक्ति का अनुभव किया और उस एक अकेले को ही काल से आत्मा तक सम्पूर्ण कारणों का – ‘कारणानि निखिलानि अधिष्ठाता देखा’। (वही 3) अर्थात् कारणों का भी कारण वह एक है लेकिन प्रगाढ़ ध्यान योग की गहन अनुभूति में उसकी प्रतीति होती है।

गीता के कृष्ण अर्जुन के सखा हैं। वे महाभारत काल के महानायक है लेकिन सबसे बड़ी बात है कि वे योगेश्वर है। सो परमसत्ता के प्रवक्ता हैं। वे अर्जुन को योग के सामान्य सूत्र बताते हैं। योगसिध्दि के उपाय बताते हैं फिर आत्मदर्शन का ध्यान योग बताते हैं। ध्यान योग प्रकृति में चल रहे कार्य कारण के पार का आनंदलोक है। कृष्ण आगे कहते हैं, अब सुनो कि योग युक्त होकर मुझमें ध्यान लगाकर – ‘मयासक्तमनाः पार्थ योगं युंजन्म दाश्रयः’ तू मुझे ठीक तरह से कैसे जानेगा? मैं तुझे यह ज्ञान-विज्ञान सहित बताऊंगा। इसे जान लेने के बाद कुछ भी जानने के लिए शेष नहीं रहेगा। (गीता अध्याय-7.1-2) ज्ञान की प्यास अनंत है लेकिन गीताकार ने यहां परमतत्व के ज्ञान को अंतिम बताया है। ठीक भी है, परम ज्ञान पा लिया तो शेष क्या बचा? लेकिन परम ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास बिरले ही करते हैं। उनमें भी बहुत कम लोग सफल होते हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही बात कही, हजारों लोगों में कोई एक ऐसी सिध्दि का प्रयास करता है। ऐसी सिध्दि पा चुके लोगों में से कोई बिरला ही मुझे जान पाता है। (वही, 3) यहां उलटवासी हैं कि सिध्दि पा चुके लोग भी परमात्म तत्व को नहीं जान पाते। तब ‘सिध्दि’ का अभिप्राय क्या है? चर्चा योग की है। योग सिध्दि कठिन अवश्य है पर अभ्यास और वैराग्य से उपलब्ध हो जाती है लेकिन परम अनुभूति चेतना का इससे ऊंचा तल है। बेशक योग सिध्द इसका पात्र है लेकिन सभी योगसिध्दों को ऐसी अनुभूति नहीं मिलती।

भारतीय चिन्तन-दर्शन में दृश्यमान यह प्रकृति सम्पूर्णता का ही व्यक्त भाग है। व्यक्त भाग इन्द्रियों की पकड़ में आता है, लेकिन अव्यक्त गाढ़ी अनुभूति का विषय है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया, प्रकृति पृथ्वी जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुध्दि और अहंकार इन आठ रूपों में विभाजित है। (गीता-7.4) इसमें प्रथम 5 महाभूत कहलाते हैं। वे प्रत्यक्ष है, इन्द्रियगोचर है। मन, बुध्दि और अहंकार प्रकृति के सभी रूपों से संबंधित होते हैं। कृष्ण कहते हैं यह मेरी निम्न प्रकृति है। चेतना उच्चतर प्रकृति है, यह प्राण – जीव रूप है। इसी के द्वारा यह संसार धारण किया जाता है – ‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्’। (वही श्लोक 5) चेतना ही जगत् का आधार है इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सब प्राणियों का जन्म इसी से हुआ है। कहते हैं मैं इस संसार उत्‍पत्तिकर्ता मूल हूं और मैं ही प्रलय भी हूं। – ‘अहं कृत्सस्य जगतः प्रभावः प्रलयस्तया’। (वही श्लोक 6)

ऊर्जा दृश्मान नहीं होती। उसका कार्यरूप ही दिखाई पड़ता है। परम चेतना ही सत्य है, सारी प्रकृति उसी की रूपांतर सत्ता है। रूप परिवर्तनीय है। इसलिए उन्हें माया जैसे नाम दिए गये। ‘ऋग्वेद’ में अनेक देवता हैं लेकिन परम सत्य एक है, विद्वान उसे तमाम नामों से पुकारते हैं। ‘मुण्डकोपनिषद्’ (1.1.6) के गुनगुनाने लायक मंत्र में कहते हैं जो जानने में नहीं आता है, बुध्दि की ग्राह्यता में नहीं आता, गोत्र रहित, रंग आकार रहित, आंख कान आदि इन्द्रियों से हीन, हाथ, पैर रहित उस नित्य, सर्वव्यापी, अतिसूक्ष्म अविनाशी को ही ज्ञानी जन समस्त प्राणियों का कारण देखते हैं। परमतत्व एक है, वही रूप आकार विकसित करता है। ‘ऋग्वेद’ में इन्द्र विराट शक्ति हैं, वही रूप रूपं प्रतिरूप प्रत्यक्ष होते हैं। ‘कठोपनिषद’ में अग्नि रूपं, रूपं प्रतिरूप है और वायु भी। अग्नि और वायु प्रत्यक्ष हैं, इन्द्र अनुभूतिपरक है। लेकिन नाम में क्या धरा है। परम सत्ता, परम सत्य या सम्पूर्णता का नाम कुछ भी हो सकता है। उसका एक नाम ‘सत्य’ अतिप्राचीन है। उपनिषदों में उसका नाम प्रायः ‘ब्रह्म’ आया है। ‘ऋग्वेद’ की ‘अदिति’ या पुरूष और उपनिषदों के ब्रह्म एक जैसे हैं। ऋग्वेद से लेकर सम्पूर्ण परवर्ती पुराण दर्शन में विष्णु और शिव भी ऐसी ही सत्ता हैं। गीता के कृष्ण रूप आकार वाले है लेकिन अक्सर इसी परमसत्ता के प्रवक्ता होकर अर्जुन का प्रबोधन करते है संसार में कोई भी तत्व मुझसे परे नहीं है, संसार की प्रत्येक वस्तु मुझमें वैसे ही पिरोई हुई है जैसे मणियों की माला। (गीता- 7.7)

ज्ञान प्रबोधन की अपनी कठिनाई है। परमतत्व का भी वर्णन प्रकृति में मौजूद रूपों के उदाहरण से ही दिया जाता है। उपनिषद् के ऋषियों ने बहुधा ऐसे सभी रूपों और महिमा का खण्डन करके भी विराट की महत्ता समझाने का प्रयास किया है। कृष्ण कहते हैं, मैं जलों में रस हूं, सूर्य और चन्द्र का प्रकाश हूं, शब्दों में वैदिक परम्परा का ओ3म् हूं, आकाश में शब्द हूं, पुरूषों में पौरूष हूं। पृथ्वी में सुगंध हूं, अग्नि की दीप्ति हूं, प्राणवानों में मैं जीवन हूं और तपस्वियों में तप हूं। सब विद्यमान वस्तुओं का बीज हूं, मैं बुध्दि हूं, तेज हूं। मैं काम-राग रहित बल हूं। धर्मानुकूल लालसा हूं। मैं सात्विक, राजस और तामस भावना हूं। इनका जन्म मुझसे हुआ है, मैं उनमें नहीं हूं वे मुझमें हैं। (श्लोक 8 से 12) यहां भौतिक जगत् के सारभूत में परमचेतना ही मुख्य कारण है। यहां अपनी समझ के अनुरूप नाम रूप बढ़ाए जा सकते हैं जैसे हे अर्जुन मैं सभी विद्युत उपकरणों को चलाने वाली विद्युत हूं। मैं सभी तरह की सरकारों के संचालन में लोक कल्याण हूं। वगैरह। असली बात तत्वदर्शन की है।

‘यजुर्वेद’ का 16वां अध्याय रूद्र शिव को अर्पित है। ऋषि ने प्रकृति के प्रत्येक रूप, भाव और गुण में रूद्र, शिव को देखा है। गीता का यह भाग ‘यजुर्वेद’ और उपनिषद् साहित्य की परम्परा है। यजुर्वेद में कहते हैं, अल्पकायी को नमन्, वृध्द को नमन् अतिवृध्द को नमन, तरूण रूपं को नमन, अग्रेसर-अगुवा को नमन्। शीघ्रगतिमान को नमन्, शीघ्रकर्मी का नमन। प्रवाहमान को नमन। प्रवाहमान जलों और स्थिर जलों को नमन। आदि-आदि। (‘यजुर्वेद’ -16.30-31) ऋषि इन सभी रूपों में शिव देखते हैं। सारे नमस्कार शिव के लिए है, रूप हमारी पहचान के लिए। कहते है रथकार के रूप में रूद्र को नमस्कार। मिट्टी के कलाकार कुम्हार, लोहे के लोहार को नमन, झीलों और वनगामी लोगों को नमन। कुत्ते के गली में रस्सी बांधकर जीविका चलाने वाले, शिकार का भी लोगों को नमन। वे सब रूद्र, रूप है। (वही मन्त्र 27) लेकिन बाद की जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था में ये सब निम्न हो गये। लेकिन यजुषः के ऋषि इन्हें नमस्कार-प्रणाम करते हैं। ‘वेदों’ से लेकर ‘गीता’, ‘रामचरित मानस’ तक सृष्टि के सभी रूपों में एक ही परमसत्ता को देखने और नमस्कार करने की भारतीय परम्परा भी नमस्कारों के योग्य है – ‘सीयराममय सब जग जानी/करऊं प्रणाम जोरि रजुग पानी’।

* लेखक उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के सदस्य हैं।

क्या हमें युवा दिवस मनाने का हक है?

आज पूरे देश में स्वामी विवेकानंद का जन्म दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इस मौके पर बड़े-बड़े आयोजन और महात्माओं के भाषण से युवाओं के चरित्र निर्माण और मूल्यपरत जीवन जीने की आशा की जाती है। युवाओं के हमदर्द होने का ढोंग करने वाले भाषणबाज मंच पर आकर माला धारण करते हैं और लच्छेदार भाषण देकर खूब तालियां बटोरते हैं, लेकिन अगर कुछ नहीं बदलता है तो वो है युवाओं की दुर्दशा। भूखे पेट भजन नहीं गोपाला की मान्यता वाले इस देश में सबसे बेवकूफ यूवा ही है, जिनसे खाली पेट नैतिक जीवन जीने की तमन्ना की जाती है और रोजगान देने के नाम पर उनकी चुनी हुई सरकारें ही उनका शोषण करतीं हैं।
बेरोजगारी की वजह से देश का पढ़ा लिखा नौजवान दर-दर भटक ने को मजबूर हो रहे हैं । हालांकि इस समस्या से निपटने के लिए सरकारी अफसरों और बाबूओं की एक बहुत बड़ी फौज खड़ी की गई है। ये अधिकारी और बाबू राज्यों की राजधानी से लेकर मंडल और फिर जिला स्तर तक फैले हुए हैं। जिस पर सरकार सालाना अरबों रूपये खर्च करती है, लेकिन इन रोजगार अधिकारियों का दफ्तर एक कागजी खाना पूर्ती का अड्डा भर रह गया है। यहां पर सिवाए बेरोजगारों के रजिस्ट्रेशन के अलावा और कुछ नहीं होता है। यहां बैठे स्टाफ खुलेआम कहते है कि भर्ती तो अब प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से होती है। अगर आपको रजिस्ट्रेशन कराना हो, तो करा लें।
प्रतियोगी परीक्षा का नाम सुन कर अगर आप सोच रहे होंगे कि इस माध्यम से सिर्फ उन्ही लोगों को रोजगार मिलता होगा जो मेधावी होते होंगे, तो आप गलत सोच रहे हैं। दरअसल प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से होने वाले सरकारी नौकरियों की चयन प्रक्रिया खामियों का पिटारा है। ये खामियां कई स्तरों पर है, लेकिन इन खामियों की शुरूआत वैकेंसी के विज्ञापन के साथ ही शुरू हो जाती है। फॉर्म भरने के लिए ही इतने नियम कानून जोड़ दिये जाते हैं कि अभ्यर्थियों के पसीने छूट जाते हैं। पहली शर्त होती है कि ऐप्लीकेशन फॉर्म के साथ शैक्षणिक, आयू, जाति और आय प्रमाण पत्रों की फोटो कापी किसी राजपत्रित अधिकारी से सत्यापित करके लगाएं। कभी-कभी तो ये शर्तें भी होती है कि दो राजपत्रित अधिकारियों से निगर्त चरित्र प्रमाण पत्र भी संलग्न करें। अब सवाल ये पैदा होता है कि अगर कोई अधिकारी जब किसी को जानता पहचानता नहीं होगा तो वे भला किसी को कैसे चरित्र प्रमाण पत्र जारी कर देगा। इसका अर्थ ये है कि जिनकी जान पहचान राजपत्रित अधिकारियों से नहीं है वे इस आवेदन के लिए अयोग्य है, जोकि सीधे साधे रोजगार पाने के अधिकार का उलंघन है। इन खाना पूर्तियों के लिए अभयर्थियों को एक तरफ जहां नौकरशाहों के दफ्तर के चक्कर काटने पड़ते हैं, वहीं नौकरशाहों के एक हस्ताक्षर के लिए हाथ जोड़ कर मिन्नत करनी पड़ती है। इससे एक तरफ अफसरों का कीमती समय जाया होता है। वहीं अभ्यर्थियों को मांसिक वेदना झेलनी पड़ती है। अब सवाल ये पैदा होता है कि चयन होने के बाद ज्वाइनिंग से पहले जब अभ्यर्थियों के सारे डोक्यूमेंट्स चेक किये जाते हैं, तो फिर इस तरह की शर्तों का क्या औचित्य है। आखिर क्यों नहीं सेल्फ अटैच्ड की सुविधा दी जाती है।
दूसरे नम्बर पर जो बात अभ्यर्थी को सबसे ज्यादा परेशान करती है। वह है भारी भरकम फीस। अभी-अभी यूपी में बीएड कौमन एंट्रेंस परीक्षा के नाम पर जनरल और ओबीसी के अभ्यर्थियों से 800-800 रूपये वसूले गए। वहीं बीटीसी के लिए जेनरल और ओबीसी से 400-400 रूपये और एससी व एसटी वर्ग के अभ्यर्थियों से 200-200 रूपये वसूले गए। बीटीसी में तो एंट्रेंस एग्जाम नाम की कोई चीज ही नहीं थी। सिर्फ मैरटि के आधार पर अभ्यर्थियों का चयन होना था । इसे देख कर तो इस महान लोकतंत्र में सरकारो के जनता के प्रति जवाबदेह होने की बात सीधे -सीधे छलावा सा लगता है, अगर सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती तो यूपी सरकार फीस तय करने से पहले हज़ार बार सोचती कि मैरिट लिस्ट तैयार करने के लिए कितनी फीस तय की जाए और वो किसी भी हाल में ऐप्लीकेंट से चार सौ रूपये नहीं वसूलती। रोग्जगार परक शिक्षा और रोग्जगार देने के नाम पर राजस्व वसूली की सरकारी पॉलिसी के कारण बहुत से अभ्यर्थी तो कई बार फीस नहीं होने की वजह से फॉर्म भी नहीं भर पाते हैं। अब सवाल ये पैदा होता है कि सरकारें बेरोजगार यूवाओं पर इस तरह का जुल्म किस अपराध के बदले में कर रही है। कायदे में तो फीस की राशि इतनी होनी चाहिए कि परीक्षा पर होने वाले खर्च को वहन किया जा सके। न कि वैकेंसी को राजस्व वसूली का जरिया बनाया जाना चाहिए। एक तरफ तो सरकार बेरोजगारों को रोजगार दिलाने की व्यवस्था करने के नाम पर रोजगार अधिकारियों के कार्यालयों पर अरबों रूपये खर्च करती है। वहीं दूसरी ओर बेरोजगार यूवाओं को कामधेनु गाय समझ कर दूहने में लगी है।
इन समस्याओं का सामना करते हुए जो लोग आवेदन करते हैं। उनके लिए भी शर्ते होती है कि फीस की राशि ड्राफ्ट से जमा करें। इसमें भी ये शर्त होती है कि ड्राफ्ट किसी राष्ट्रीयकृत बैंक का होना चाहिए। एक तो फीस की राशि उपर से ड्राफ्ट बनाने का चार्ज जो कहीं भी 25 रूपये से कम नहीं है। बात यहीं पर खत्म नहीं होती है। आज पब्लिक सेक्टर के बैंकों की जो हालत है, वह किसी से छिपी नहीं है। ज्यादातर बैंकों में किसी काम के लिए सुबह जाने पर लाईन में लगे-लगे शाम हो जाती है। लाइन छोड़ कर न तो कोई पानी पी सकता है और नहीं कोई और काम ही कर सकता है। इससे एक ओर जहां अभ्यर्थीयों पर आर्थिक बोझ पड़ता है। वहीं दूसरी ओर कीमती समय की बर्बादी के साथ ही मांसिक पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। ऐसा नहीं है कि इस व्यवस्था से सिर्फ अभ्यर्थीयों को ही परेशानी होती है, बल्कि बैंक भी इससे अछूता नहीं है। किसी खास मौके पर छात्रों की बढ़ती भीड़ से बैंक का सारा निजाम ही ठप हो जाता है। जिससे नियमित ग्राहकों को भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आखिर ई-ग्वर्नेंस की बात करने वाली हमारी सरकारें क्यों नहीं डेबिट कार्ट, क्रेडिट कार्ड या फिर पोस्टल आर्डर को भी इसमें शामिल करती है, ताकि अभ्यर्थी को जिस में सहूलत हो उसका इस्तेमाल करें। सबसे अच्छी बात तो ये है कि फॉर्म के मूल्य के रूप में ही फीस की पूरी राशि वसूल ली जाए। जैसा कि वर्ष 2010 के यूपी. बी.एड कॉमन एंट्रेंस टेसेट में हुआ है। इतना जतन करने के बाद भी परीक्षा कब और कहां होगी ये किसी को मालूम नहीं होता है। कई बार तो फॉम भरने के चार-चार साल बाद एडमिट कार्ड भेजा जाता है। हालत ये होती है कि परीक्षार्थी ये भूल चुका होता है कि उसने कभी कोई आवेदन भी किया था। ऐसे में अभ्यर्थियों के किए कराए यानी पूरी तैयारी पर पानी फिर जाता है। ऐसा ही कुछ यू.पी. पी.एस.सी. में हुआ है। यहां जो आवेदन पत्र साल 2004 मंगाए गए थे। उसका इम्तिहान साल 2008 में लयि गया। आखिर नेट और यूपी.पी.एस.सी. की परिक्षा की तरह सभी विभाग वैकेंसी के साथ ही परीक्षा की तिथि और समय का ऐलान कर उसी तारीख पर परीक्षा लेने की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती हैं।
इन सभी परेशानियों का सामना करते हुए अगर किसी प्रकार परीक्षा दे भी दी, तो फिर बारी आती है रिजल्ट से जुड़ी लेटलतीफी और अनयिमित्तओं से जुड़ी परेशानी की। जिन परीक्षाओं में प्री, मेंस और फिर इन्टरव्यूह की व्यवस्था है, वहां यू.पी.एस.सी. और एस.एस.सी को छोड़ कर किसी का भी समय निश्चत नहीं है। कई परीक्षाएं तो ऐसी होती है जिस में परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कॉल लेटर तक नहीं भेजे जाते हैं। रिजल्ट जानने के लिए परीक्षार्थी को पूरी तरह रोजगार समाचार पत्र या फिर नेट पर निर्भर रहना पड़ता है। अगर अभ्यर्थी किसी वजहकर रोजग़ार समाचार पत्र का कोई अंक चूक गया तो परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी उसके किए कराए पर पानी फिर जाता है। अगर भेजा भी जाता है तो तो वह भी साधारन डाक से। जिसकी पोस्टल जिपार्टमेंट में कोई अकाउंटेबिलिटी नहीं होती है। कई बार तो ऐसा होता है कि इन्टरव्यूह के बाद डाकिया कॉल लेटर लेकर पहुंचता है। जब फीस के नाम पर इतनी मोटी रकम वसूली जाती है तो आखिर क्यों नहीं पत्र व्यवहार स्पीडपोस्ट के जरिए की जाती है, जबकि आवेदन भेजने के लिए एक शर्त ये भी होती है कि रजिस्ट्री या फिर स्पीडपोस्ट से भेजे गए आवेदन ही स्वीकार होंगे।
इन सब परेशानियों को पार करते हुए जब अभ्यर्थी इन्टरव्यूह तक पहुंच जाते हैं तो वहां एक नया ही खेल शुरू होता है। साक्षात्कार एक मौखिक प्रक्रिया है। लिहाजा यहां पर साक्षात्कार लेने वाले की खूब मनमानी चलती है। दुख की बात तो ये है कि उन्हें कठघरें में खड़ा करने के लिए कोई सबूत नहीं होता है। जिसके नतीजे में साक्षात्कार के नाम पर भाई-भतीजीवाद, जातिवाद, संप्रदायिकतावाद और भ्रष्टाचार का नंगा खेल खेला जाता है। इस मौके पर दुराग्रह से भरे लोग किसी जाति या संप्रदाय विशेष के साथ खुल कर भेद-भाव करते हैं। यहीं वजह है कि आजादी के छ: दसक बीत जाने के बाद भी आज न सिर्फ हमारे समाज में असमानता कायम है, बल्कि दिन-बदिन बढ़ती ही जा रही है। जिसे पाटने के लिए अलग-अलग जाति और धर्म के लोगों ने अब आरक्षण की मांग शुरू कर दी है। जहां देश की दबी कुचली जातियां आरक्षण की मांग कर रही है। वहीं अब तक 100 प्रतिशत मलाई चट करने वाले दबे कुचले लोगों की इस मांग को देश को बांटने वाली कृत बता कर निंदा कर रहे हैं। अब सवाल ये पैदा होता है कि ये कौन से शास्त्र में लिखा है कि अशक्त को सशक्त बनाने से देश कमजोर होगा। अगर आरक्षण में कोई खामी है तो उसे दूर किया जाए। इसका ये मतलब तो नहीं की आरक्षण को ही समाप्त कर दिया जाए। अगर पिछले साठ सालों से भेद-भाव नहीं होता तो आज आरक्षण की मांग ही क्यों उठती। आरक्षण विरोधियों का अपना ही घिसा-पिटा तर्क है। वे कहते है कि आरक्षण के माध्यम से अयोग्य व्यत्कियों का चयन होता है, जिससे देश का भला होने वाला नहीं है, लेकिन दसकों से साक्षातकार के नाम पर भाई-भतीजावाद, जातिवाद, संप्रदायिकतावाद और भ्रष्टाचार का नंगा खेल खेला जाता रहा तो इसके विरोध में उस तरह की आवाजें नहीं सुनाई देती है, जैसा कि आरक्षण के विरोध में सुनाई देती है, जबकि इन्टरव्यूह में जो खेल खेला जाता है उससे सूबे के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधान मंत्री तक सभी वाकिफ है। यहीं वजह है कि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने अपने समय में कई भर्तियों में इन्टरव्यूह को यह कहते हुए समाप्त कर दिया था कि साक्षात्कार भ्रष्टाचार का केन्द्र है। वहीं सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में देशभर के मुसलमानों की बदतरीन हालत सामने आने पर केन्द्र की यूपीए सरकार ने प्रत्येक साक्षात्कार कमेटी में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की बात कही है। भेद-भाव और भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुके प्रक्रिया में साक्षात्कारकर्ता की टीम में किसी जाति या समुदाय को प्रतिनिधित्व देने से इस समस्या का हल नहीं होने वाला है। अब ये तय करने का समय आ गया है कि क्या सरकारी पदों पर चयन के लिए साक्षात्कार जरूरी है या इसकी जगह कोई और विकल्प भी हो सकता है? शायद भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के लिए इसका विकल्प न हो, लेकिन इसका आसान सा विकल्प है, नेट परीक्षा का पैटर्न। गौरतलब है कि नेट परीक्षा में तीन पेपर होते है। इसमें पहला और दूसरा ऑब्जेटिव होता है, जबकि तीसरा पेपर विरणात्मक होता है। ये तीनों पेपर एक साथ होते हैं, लेकिन जब अभ्यर्थी पहले और दूसरे पेपर में पास हो जाता है तभी तीसरा पेपर चेक किया जाता है। ठीक इसी तरह दूसरे प्रतियोगी परीक्षाओं में भी मुख्य परीक्षा के साथ ही इन्टरव्यूह से सम्बंधित प्रश्न पूछे जा सकते हैं। जब परीक्षार्थी पहले पेपर को पास करलें फिर साक्षात्कार से सम्बंधित उत्तर चेक कर फाइनल रिजल्ट घोषित किया जा सकता है, जैसा कि जेएनयू में एंट्रेंस एग्जाम के दौरान किया जाता है। ऐसा करने से जहां भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगा। वहीं परीक्षार्थी को बार-बार आने जाने से भी निजात मिल जाएगी।
54 करोड़ यूवाओं के इस देश में, यूवाओं का वोट हासिल करने के लिए तो सभी राजनीतिक पार्टियां यूवाओं का हमदर्द होने का दम भर्ती है, लेकिन बेरोजगारी का दंश झेल रहे इन यूवाओं की इस परेशानी की चिंता शायद ही किसी को है।

कालजयी महानायक स्वामी विवेकानंद

गिरीश पंकज

स्वामी विवेकानंद के जीवन की शुरुआत देखें तो अद्भुत रोमांच होता है। कैसे एक संघर्षशील नवयुवक धीरे-धीरे महागाथा में तब्दील होता चला जाता है। उनका जीवन हम सबके लिए प्रेरणास्पद है। अपनी महान मेधा के बल पर दुनिया में भारत की आध्यात्मिक पहचान बनाने में सफल हुए स्वामी विवेकानंद ने सौ साल पहले जो चमत्कार कर दिखाया, वह आज दुर्लभ है। यह ठीक है कि तकनीकी या आर्थिक क्षेत्र में कुछ उपलब्धियाँ अर्जित करके कुछ लोगों ने यश और धन अर्जित किया है, मगर वह उनका व्यक्तिगत लाभ है, लेकिन स्वामी विवेकानंद ने व्यक्तिगत लाभ अर्जित नहीं किया, वरन देश की साख बनाने में अपना योगदान किया। उनके कारण पूरी दुनिया भारत की ओर निहारने लगी। वेद-पुराणों के हवाले से उन्होंने पूरी दुनिया में भारतीय चिंतन की नूतन व्याख्या की। ‘लेडीज एंड जेंटलमेन’ कहने की परम्परा वाले देश को उन्होंने यह ज्ञान पहली बार दिया कि बहनों और भाइयों जैसा आत्मीय संबोधन भी दिया जा सकता है। उन्होंने दुनिया को मनुष्य या परिवार का एक सदस्य समझने का संस्कार दिया क्योंकि स्वामी विवेकानंद को यही ज्ञान मिला था। यानी वसुधैव कुटुम्बकम का ज्ञान ।

स्वामी विवेकानंद की जीवन-यात्रा की शुरुआत देखें तो उनका जीवन भी मध्यमवर्गीय परेशानियों से भरा रहा। पढ़ाई में वे मेधावी थे तो खेल-कूद में भी माहिर थे। कुश्ती में निपुण थे। कुशल तैराक थे। तलवार चलाने में माहिर थे। नाटक और संगीत कला में रुचि थी। इसीलिए उन्होंने एक नाटक कम्पनी भी बनाई थी। उनका शरीर भी सुगठित था। किशोरावस्था में ही उन्होंने एक व्यायाम शाला बनाई थी। इसलिए आज जब हम युवा पीढ़ी के सामने कोई आदर्श प्रस्तुत करने की बात हो तो सबसे पहले कम से कम मुझे तो स्वामी विवेकानंद का नाम ही याद आता है। दुर्भाग्य से नई पीढ़ी के सामने नायक के रूप में फिल्मी कलाकार ही आ कर खड़े हो जाते हैं। इन कलाकारों में ज्यादातर का जीवन अनेक लंपटताओं से भरा रहता है। उनकी हरकतें देख कर युवक समझते हैं कि यही सब हमें ग्रहण करना है। फटी चिथड़ी जींस फुलपैंट भी अब फैशन है. यह विवेकहीनता का चरम है. आज समाज में जो पतन नजर आता है, उसका असली कारण सिनेमा और टीवी के अश्लील कार्यक्रम भी है। इसलिए नई पीढ़ी का ध्यान इन सबसे हटाने के लिए कुछ न कुछ जतन करना जरूरी है। सिनेमा के नकली नायक हमारे आदर्श बिल्कुल नहीं हो सकते । हमारे सामने महान नायकों की लम्बी फेहरिश्त मौजूद है। इनमें स्वामी विवेकानंद अग्रिम पंक्ति में हैं। उन्होंने किसी पटकथा के सहारे अभिनय नहीं किया और न संवाद बोले। उन्होंने तो अपने महान ग्रंथों का अवगाहन करके जीवन जीने की नई वैज्ञानिक-आध्यात्मिक-दृष्टि अर्जित की।

स्वामी जी युवकों से कहते थे, कि ”अपने पुट्ठे मजबूत करने में जुट जाओ। वैराग्य-वृत्ति वालों के लिए त्याग-तपस्या उचित है लेकिन कर्मयोग के सेनानियों को चाहिए-विकसित शरीर, लौह मांस-पेशियाँ और इस्पात के स्नायु।” तरुण मित्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने हमेशा यही संदेश दिया कि ”शक्तिशाली बनो। मेरी तुम्हें यही सलाह है। तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबाल द्वारा ही स्वर्ग के अधिक समीप पहुँच सकोगे। तुम्हारे स्नायु और माँसपेशियाँ अधिक मजबूत होने पर तुम गीता अच्छी तरह समझ सकोगे। तुम अपने शरीर में शक्तिशाली रक्त प्रवाहित होने पर श्रीकृष्ण के तेजस्वी गुणों और उनकी अपार शक्ति को हृदयंगम कर पाओगे।” स्वामी विवेकानंद यह नहीं कहते थे, कि पूजा-पाठ करो, भगवत-भजन करो या अध्यात्म में डूब जाओ। वे अपने समकाल से काफी आगे की सोच वाले थे। वे दकियानूस नहीं थे। वैज्ञानिक दृष्टिसम्पन्न युवक थे। एक युवक जब एक बार स्वामी जी से मिला तो उसने कहा कि मैं घर के सारे दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करके आँखें मींच लेता हूँ। पर ध्यान ही नहीं लगाता। मन को शांति ही नहीं मिलती। तब स्वामी जी ने मुसकराते हुए कहा था, कि ”तुम सबसे पहले दरवाजे-खिड़कियाँ खोल दो और अपनी खुली आँखों से बाहर की दुनिया देखो। तुम्हें सैकड़ों गरीब-असहाय लोग दिखाई देंगे। तुम उनकी सेवा करो। इससे तुम्हें मानसिक शांति मिलेगी। वे गरीबों की सेवा करने के लिए सबको प्रेरित करते थे। भूखे को खाना खिलाना, बीमार को दवाई देना और जो अनपढ़ हैं उन्हें ज्ञान देना। यही है सच्चा अध्यात्म। इसी से मिलती है मन की शांति।”

स्वामी विवेकानंद का सौभाग्य था, कि उन्हें अपने माता-पिता से अच्छे संस्कार मिले। सत्य निष्ठा की सीख मिली। बेहतर गुरू मिले। रामकृष्ण परमहंस जैसे सच्चे मार्गदर्शक मिले। पिता विश्वनाथदत्त जी के असामयिक निधन के बाद घर चलाने के लिए नरेंद्र नाथ को नौकरी भी करनी पड़ी। यानी उनके जीवन में सघर्ष का यह दौर भी आया लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने जीवन को कर्मयोग के साथ-साथ आध्यात्मिकता से भी अनुप्राणित करते रहे। और एक समय आया जब वे विदेश जाने से पहले स्वामी विवेकानंद में रूपांतरित हुए और पूरी दुनिया में भारतीय संस्कृति की पहचान के रूप में आलोकित हो गए। स्वामी जी के जीवन एवं विचारों को पढ़ते हुए मैंने यह महसूस किया कि उन्होंने कहीं भी साम्प्रदायिकता को या नफरत को बढ़ाने वाले संकुचित विचारों का प्रचार-प्रसार नहीं किया। उन्हाने विदेश में प्रवचन देते हुए कहा था, कि ”हमें मानवता को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है, न बाइबिल है और न कुरान। लेकिन यह काम वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय द्वारा किया जाना है। मानवता को सीख देनी है कि सभी धर्म उस अद्वितीय धर्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जो एकत्व है। सभी को छूट है कि वे जो मार्ग अनुकूल लगे उसको चुन लें।” स्वामी जी की सबसे बड़ी विशेषता यही है, कि वे ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ कहने के बावजूद वैसे हिंदू बिल्कुल नहीं थे, जैसे आजकल के नजर आते हैं। ये लोग अलगाव फैलाने का काम करते हैं। दंगे भड़काने में सहायक होते हैं। हमें बनना है तो स्वामी विवेकानंद जैसा हिंदू बनना है। शिकागों में व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था, कि ”मैं अभी तक के सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ। मैं उनमें से ऐसे प्रत्येक व्यक्ति के साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ। वे स्वयं चाहे किसी रूप में उपासना करते हों। मैं मुसलमानों के मस्जिद जाऊँगा। मैं ईसाइयों के गिरजा में क्रास के सामने घुटने टेक कर प्रार्थना करूँगा: मैं बौद्ध मंदिरों में जा कर बुद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा। मैं वन में जा कर हिंदुओं के साथ ध्यान करूँगा जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में लगे हुए हैं।” सच्चा मनुष्य धर्मस्थलों में भेद नहीं करता। मुझे याद आती है गोस्वामी तुलसीदास की पंक्तियाँ कि ‘माँग के खाइबो और मसीद में सोइबो’। महान ग्रंथ रामचरित मानस के रचयिता ने समाज को जागरण का पथ दिखाने के साथ यह भी साबित कर दिया कि मुझे कट्टर हिंदू समझने की भूल न करना। कोई भी सच्चा ज्ञानी साम्प्रदायिक बातें नहीं करेगा। स्वामी जी का समूचा जीवन-दर्शन देखें तो वे कहीं भी यह नहीं कहते कि हिंदुओं, तुम अपनी ताकत पहचानो और जो विधर्मी हैं, उनका नाश कर दो। या फिर यह भी नहीं कहते कि यह देश केवल तुम्हारा है। जो गैर हिंदू हैं उन्हें यहाँ रहने का हक नहीं है। उल्टे स्वामी जी समूची उदारता के साथ बार-बार यही कहते हैं, कि च्मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है।..मनुष्य। केवल मनुष्य ही हमें चाहिए। समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना को देख कर वे आहत होते थे इसीलिए उन्होंने कहा था, ”भूल कर भी किसी को हीन मत मानो। चाहे वह कितना ही अज्ञानी, निर्धन अथवा अशिक्षित क्यों न हो और उसकी वृत्ति भंगी की ही क्यों न हो क्योंकि हमारी-तुम्हारी तरह वे सब भी हाड़-माँस के पुतले हैं और हमारे बंधु-बांधव हैं।”

कुल मिला कर देखें तो स्वामी विवेकानंद अपने आप में समूची पाठशाला हैं। यहाँ आने वाला गंभीर विद्यार्थी जीवन में कभी फेल हो ही नहीं सकता। हर हालत में पास ही होगा। बशर्ते वह इनकी पाठशाला में भरती तो होना चाहे. स्वामी जी का जीवन, उनका चिंतन हमें सौ साल बाद भी ऊर्जा से, जोश से भर देता है। वे अपने जीवन के चालीस साल भी पूर्ण नहीं कर सके थे। चालीस साल में उन्होंने दुनिया को जो ज्ञान दिया, जो दृष्टि दी, वह हमें मार्ग दिखाने के लिए पर्याप्त है। सिखों के दसवें गुरू गुरू गोबिंदसिंघ जी भी चालीस साल तक ही जीए मगर उन्होंने भी अपने जीवन को एक मिसाल बना दिया था। ये सब उदाहरण हैं जिन्हें देख कर लगता है कि प्रतिभा के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं रहता। ऐसे अनेक उदाहरण है जो हमें बताते हैं, कि विचारों का अमृत-पान कराने में युवा पीढ़ी का ही ज्यादा अवदान है। गाँधी जी भले ही अस्सी साल के आसपास हमारे बीच से गए लेकिन उनका युवाकाल में ही अपने कर्म से दक्षिण अफ्रीका और और बाद में भारत आ कर सामाजिक जागरण का सूत्रपात कर दिया था। चालीस साल की उम्र में लिखी गई उनकी कृति ‘हिंद स्वराज’ आज भी ताजा लगती है। इसलिए यह मान लेना कि युवा काल मौजमस्ती का काल होता है, बहुत बड़ी नादानी है। मूर्खतापूर्ण सोच है। युवा पीढ़ी को गुमराह करने की साजिश है। स्वामी विवेकानंद के जीवन-वृत्त को देखें तो हम कह सकते हैं कि एक युवक अगर ठान ले तो वह अपने जीवन को नरेंद्रनाथ से विवेकानंद में तब्दील कर सकता है। इसलिए आज की युवा पीढ़ी को समझाया जाना चाहिए, या उसे खुद समझना चाहिए कि उसके नायक रुपहले पर्दें के नकली हीरों नहीं हो सकते। उसे नायक तलाश करना है तो पीछे मुड़ कर देखना होगा। अतीत के पन्ने खंगालने होंगे। इतिहास से गुजरना होगा। भारत को भारत बनाने में युवा पीढ़ी का ही महती योगदान रहा है।

आश्चर्य होता है,कि सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने जैसा भारत देखा था, आज अनेक मोर्चो पर भारत की वैसी की वैसी हालत बनी हुई है। इसलिए लगता है, कि विवेकानंद के सपने को पूरा करने का दायित्व हम सब का है। युवा पीढ़ी का है। उन्होंने एक बार कहीं कहा था, कि ”ओ माँ, जब मेरी मातृभूमि गरीबी में डूब रही हो तो मुझे नाम और यश की चिंता क्यों हो? हम निर्धन भारतीयों के लिए यह कितने दु:ख की बात है, कि जहाँ लाखों लोग मुट्ठी भर चावल के अभाव में मर रहे हों, वहाँ हम अपने सुख-साधनों के लिए लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। भारतीय जनता का उद्धार कौन करेगा? कौन उनके लिए अन्न जुटाएगा? मुझे राह दिखाओ माँ, कि मैं कैसे उनकी सहायता करूँ?” स्वामी विवेकानंद आज अगर सशरीर मौजूद होते तो वे अपनी यही वेदना फिर दुहराते हुए यही बात फिर कहते। आज भी देश में लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अशिक्षा, अज्ञानता से ग्रस्त लोगों की संख्या भी करोड़ों में है। धर्म-अध्यात्म अब भरपेट लोगों का शगल बन गया है। एक पाखंड चारों तरफ पसरा हुआ है कि लोग बड़े धार्मिक हैं। दरिद्रनारायण के उन्नयन पर कोई खर्च नहीं करना चाहता लेकिन धर्मस्थल या अपनी जाति या समाज के भवन बनाने में लोगों की बड़ी दिलचस्पी देखी जा रही है। ऐसे समय में निर्धन वर्ग से नैतिकता या धर्म-कर्म की बातें करना बेईमानी है। छल है। स्वामी विवेकानंद जी ने गरीबी के मर्म को समझा था, इसीलिए वे कहते थे, ”पहले रोटी, फिर धर्म। जब लोग भूखों मर रहे हों, तब उनमें धर्म की खोज करना व्यर्थ है। भूख की ज्वाला किसी भी मतवाद से शांत नहीं हो सकती। जब तक तुम्हारे पास संवेदनशील हृदय नही, जब तक तुम गरीबों के लिए तड़प नहीं सकते, जब तक तुम उन्हें अपने शरीर का अंग नहीं समझते, जब तक तुम अनुभव नहीं करते कि तुम और सब दरिद्र और धनी, संत और पापी-उसी एक असीम पूर्ण के -जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश हैं, तब तक तुम्हारी धर्म-चर्चा व्यर्थ है।” आज इस दौर में बदहाली में कोई कमी नहीं आई है। ये और बात है कि हमारा समाज इंटरनेट के युग में प्रविष्ट कर चुका है, गरीब से गरीब व्यक्ति के पास भी मोबाइल हो सकता है, लेकिन उसकी बदहाली कम नहीं हुई है। बेरोजगारी, भूख, वर्गभेद, छुआछूत, अशिक्षा, अंधविश्वास, सामंती मनोवृत्ति, राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति आदि अनेक बुराइयों से ग्रस्त भारतीय समाजको एक बार फिर स्वामी विवेकानंद के चिंतनों से रूबरू कराने का समय आ गया है। आज की अधिकांश तरुणाई फिल्मी हीरो-हीराइनों को अपना रोल मॉडल बनाने की कोशिश कर रही है। जबकि हमारे रोल मॉडल स्वामी विवेकानंद समेत अनेक युवा क्रांतिकारी, विचारक ही युग प्रवर्तक हो सकते हैं इसलिए हमें अतीत की ओर निहारते हुए ही भविष्य का सफर तय करना होगा।