109वीं जयन्ती के अवसर पर पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी को श्रद्धान्जलि

पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी ’’मोहन ’’
पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी ’’मोहन ’’
पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी ’’मोहन ’’
पण्डित मोहन प्यारे द्विवेदी ’’मोहन ’’

108 वीं जयन्ती के पावन अवसर पर हार्दिक श्रद्धांजलि

डा. राधेश्याम द्विवेदी ’नवीन’

सुकवि आचार्य पंडित मोहन प्यारे द्विवेदी ’’मोहन’’का जन्म संवत 1966 विक्रमी तदनुसार 01 अप्रैल 1909 ई. में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिला के हर्रैया तहसील के कप्तानगंज विकास खण्ड के दुबौली दूबे नामक गांव मे एक कुलीन परिवार में हुआ था। पंडित जी को कप्तानगंज के प्राइमरी विद्यालय में प्राइमरी शिक्षा तथा हर्रैया से मिडिल स्कूल में मिडिल कक्षाओं की शिक्षा दिलवायी गयी थी। बाद में संस्कृत पाठशाला विष्णुपुरा से संस्कृत विश्वविद्यालय की प्रथमा तथा संस्कृत पाठशाला सोनहा से मध्यमा की पढाई पूरी किये थे। परिवार का पालन पोषण तथा शिक्षा के लिए वे लखनऊ चले गये थे। उन्हांेने छोटी मोटी नौकरी करके अपने बच्चों का पालन पोषण किया था। पंडित जी टयूशन पढ़ाकर शहर का खर्चा चलाते थे। पंडितजी ने लखनऊ के प्रसिद्ध डी. ए. वी. कालेज में दो वर्षां तक अध्यापन भी किया था। घर की समस्याये बढती देख उन्हें लखनऊ को छोड़ना पड़ा था। गांव आकर पंडित जी अपने गांव दुबौली दूबे में एक प्राथमिक विद्यालय खोला था। बादमें पंडित जी को पड़ोस के गांव करचोलिया में 1940 ई. में एक दूसरा प्राइमरी  विद्यालय खोलना पड़ा था। जो आज भी चल रहा है। वह 1955 में वह प्रधानाध्यापक पद पर वहीं आसीन हुए थे। इस क्षेत्र में शिक्षा की पहली किरण इसी संस्था के माध्यम से फैला था। वर्ष 1971 में पण्डित जी प्राइमरी विद्यालय करचोलिया से अवकाश ग्रहण कर लिये थे। उनके पढ़ाये अनेक शिष्य अच्छे अच्छे पदों को सुशोभित कर रहे हैं।

राजकीय जिम्मेदारियों से मुक्त होने के बाद वह देशाटन व धर्म या़त्रा पर प्रायः चले जाया करते थे। उन्हांेने श्री अयोध्याजी में श्री वेदान्ती जी से दीक्षा ली थी। उन्हें सीतापुर जिले का मिश्रिख तथा नौमिष पीठ बहुत पसन्द आया था। वहां श्री नारदानन्द सरस्वती के सानिध्य में वह रहने लगे थे। पण्डित जी अपने पैतृक गांव दुबौली दूबे भी आ जाया करते थे। अपनेे समय में वह अपने क्षेत्र में प्रायः एक विद्वान के रूप में प्रसिद्व थे। ग्रामीण परिवेश में होते हुए घर व विद्यालय में आश्रम जैसा माहौल था। घर पर सुबह और शाम को दैनिक प्रार्थनायें होती थी। इसमें घड़ी-धण्टाल व शंख भी बजाये जाते थे। दोपहर बाद उनके घर पर भागवत की कथा नियमित होती रहती थी । उनकी बातें बच्चों के अलावा बड़े बूढे भी माना करते थे। वह श्रीकृष्ण जन्माष्टमी वे वड़े धूमधाम से अपने गांव में ही मनाया करते थे। वह गांव वालों को खुश रखने के लिए आल्हा का गायन भी नियमित करवाते रहते थे। रामायण के अभिनय में वे परशुराम का रोल बखूबी निभाते थे। दिनांक 15 अपै्रल 1989 को 80 वर्ष की अवस्था में पण्डित जी ने अपने मातृभूमि में अतिम सासें लेकर परम तत्व में समाहित हो गये थे। आज उनके 108 वीं जयन्ती के अवसर पर उनके आत्मीय, परिवारी तथा आम जन उन्हें सादर स्मरण करते हुए अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

उनका जीवन स्वाध्याय तथा चिन्तन पूर्ण था। चाहे वह प्राइमरी स्कूल के शिक्षण का काल रहा हो या सेवामुक्त के बाद का जीवन वह नियमित रामायण अथवा श्रीमद्भागवत का अध्ययन किया करते थे। संस्कृत का ज्ञान होने के कारण पंडित जी रामायण तथा श्रीमद्भागवत के प्रकाण्ड विद्वान तथा चिन्तक थे। उनहें श्रीमद्भागवत के सौकड़ो श्लोक कण्ठस्थ थे। इन पर आधारित अनेक हिन्दी की रचनायें भी वह बनाये थे। वह ब्रज तथा अवधी दोनों लोकभाषाओं के न केवल ज्ञाता थे अपितु उस पर अधिकार भी रखते थे। वह श्री सूरदास रचित सूरसागर का अध्ययन व पाठ भी किया करते रहते थे। उनके छन्दों में भक्ति भाव तथा राष्ट्रीयता कूट कूटकर भरी रहती थी। प्राकृतिक चित्रणों का वह मनोहारी वर्णन किया करते थे। वह अपने समय के बड़े सम्मानित आशु कवि भी थे। भक्ति रस से भरे इनके छन्द बड़े ही भाव पूर्ण है। उनकी भाषा में मुदुता छलकती है। कवि सम्मेलनों में भी हिस्सा ले लिया करते थे। अपने अधिकारियों व प्रशंसको को खुश करने के लिए तत्काल दिये ये विषय पर भी वह कविता बनाकर सुना दिया करते थे। उनसे लोग फरमाइस करके कविता सुन लिया करते थे। जहां वह पहुचते थे अत्यधिक चर्चित रहते थे। धीरे धीरे उनके आस पास काफी विशाल समूह इकट्ठा हो जाया करता था। वे समस्या पूर्ति में पूर्ण कुशल व दक्ष थे।

रचनायें:- उनकी शेष रचनाओं की खोज में उनके दोनों पौत्र पण्डित घनश्याम जी तथा पं. राधेश्याम जी लगे हुए हैं। आशा है निकट भविष्य में उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं को उजागर करने में सफलता मिलेगी। इस आलेख के माध्यम से पंडित जी से जुड़े हुए उन सभी सज्जनों से आग्रह है कि वे पंडित जी से सम्बन्धित संस्मरण व उनकी रचनायें जो उन्हे याद हैं वह श्री घनश्याम जी या इस लेख के लेखक को उपलब्ध कराने की कृपा करें, जिससे भविष्य में छपने वाली ‘मोहन रचनावली‘ में उसे समलित कर प्रमाणिक बनाया जा सके।

1.मोहनशतकः- यह ग्रंथ प्रकाशनाधीन  है। इस ग्रंथ के कुछ छन्द इस प्रकार है –

नन्दजी को नन्दित किये खेलें बार-बार , अम्ब जसुदा को कन्हैया मोद देते थे।

कुंजन में कूंजते खगों के बीच प्यार भरे , हिय में दुलार ले उन्हें विनोद देते थे।

देते थे हुलास ब्रज वीथिन में घूम घूम, मोहन अधर चूमि चूमि प्रमोद देते थे।

नाचते कभी ग्वालग्वालिनों के संग में, कभी भोली राधिका को गोद उठा लेते थे।। 1।।

.2.नौमिषारण्य का दृश्य –

धेनुए सुहाती हरी भूमि पर जुगाली किये, मोहन बनाली बीच चिड़ियों का शोर है।

अम्बर घनाली घूमै जल को संजोये हुए, पूुछ को उठाये धरा नाच रहा मोर है।

सुरभि लुटाती घूमराजि है सुहाती यहां, वेणु भी बजाती बंसवारी पोर पोर है।

गूंजता प्रणव छंद छंद क्षिति छोरन लौ, स्नेह को लुटाता यहां नितसांझ भोर है।। 2।।

प्रकृति यहां अति पावनी सुहावनी है, पावन में पूतता का मोहन का विलास है।

मन में है ज्ञान यहां तन में है ज्ञान यहां, धरती गगन बीच ज्ञान का प्रकाश है।

अंग अंग रंगी है रमेश की अनूठी छवि, रसना पै राम राम रस का निवास है।

शान्ति हैै सुहाती यहां हिय में हुलास लिये, प्रभु के निवास हेतु सुकवि मवास है।।3।।

3.कवित्त:– (साभार ‘‘ नवसृजन’’ अपै्रल-जून 1979 सं राधेश्याम द्विवेदी ‘नवीन’)

गाते रहो गुण ईश्वर के, जगदीश को शीश झुकाते रहो।

छवि ‘मोहन’ की लखि नैनन में, नित प्रेम की अश्रु बहाते रहो।

नारायण का धौेर धरो मन में, मन से मन को समझाते रहो।

करूणा करि के करूणानिधि को, करूणा भरे गीत सुनाते रहो।। 4 ।।

जग में जनमें जब बाल भये, तब एक रही सुधि भोजन की।

तन में तरूणाई तभी प्रकटी, तब प्रीति रही तरूणी तन की।

तन बृद्ध भयो मन की तृष्णा, सब लोग कहें सनकी सनकी।

सुख! ‘मोहन’ नाहिं मिल्यो कबहूं, रही अंत समय मनमें मनकी।। 5 ।।

4.मांगलिक श्लोकः- पण्डितजी प्रायः इसका प्रयोग करते रहते थे –

अहि यतिरहि लोके, शारदा साऽपि दूरे।

बसति विबुध वन्द्यः , शक्र गेहे सदैव।

निवसति शिवपुर्याम्, षण्मुखोऽसौकुमारः।

तवगुण महिमानम्, को वदेदत्र श्रीमन्।।

नन्वास्यां समज्जायां ये ये छात्राः पण्डिताः, वैकरणाः, नैयायिकाः वेदान्तज्ञादयो वर्तन्ते, तान् तान् सर्वान् प्रति अस्य श्लोकस्यर्थस्य कथनार्थम् निवेदयामि। सोऽयं श्लोकः –

‘‘ति गौ ति ग ति वा ति त्वां प री प ण प णी प पां

मा प धा प र प द्या न्तु उ ति रा ति सु ति वि ते।’’

5. चयनित फुटकर बोल:-

पंडित जी के कविताओं के चयनित कुछ प्रमुख बोल इस प्रकार हैं।-

1) स्व परिचय –   है मोहन प्यारे नाम मेरा मैं गांव दुबौली रहता हॅू।

अध्यापक बृत्ति हमारी है मैं काम क्रोध से लड़ता हूॅ।

कप्तानगंज के करचोलिया में प्राइमरी स्कूल पढ़ाता हूॅ।

अध्यापक और छात्रों के हित की बातें मैं करता हूॅ।।

हैं गुरू हमारे वेदान्ती मैं दास उन्हीं का कहलाता हूॅ।

नौमिषारण्य के नारद से सत्संग मैं जाके करता हॅू।।

 

2) प्रभातफेरी-    चलो चलो बच्चों करचोलिया रहे ना कोई घर पर ।

विन विद्या नर पशु कहलाता ठोकर खाता घर घर।।

 

3) चीन की लड़ाई का दृश्य-       मारो बीर भारती प्रचण्ड काल मुण्ड लागें।

तुण्ड लागे रूण्ड लागे मोहन वर्फ खिसकानि लौं।

चीनिन कै मसकि कै घोर युद्ध वर्फन मांहि।

पी लो शेर भारत के शंकर भगवान लौं।

भागै ना पावैं वे जीयत स्वदेश माहि।

लक्ष्य लक्ष्य गोली चलाओ हिमानि लौ।

 

4) आजादी गीत –              आया आया सुनदर मौका अब संभारो देशवा।

सन अठारह सौ सत्तावन रहा बहुत सुख दिनवा।

ए ओ हयूम बनर्जी मिलिकय कायम कीजै सभवा।

भइया होये लाग विचरवा अब संभारो देशवा ।।

 

5) समस्या पूर्ति         एक सखी कहती सुनो ये राधाजी श्याम की मनोहर छवि कैसे मृदुगाल हैं।

खेल रहे गोकुल में गोप और गोपिन संगए गौवों के धूल से धूल भरे लाल हैं।

 

6) स्ूाखा गीत               सुखवा लइकै सुख चला गय दुख विपतिया दंई गय राम।

सावन भादौ कै घमड़हिया चैपट कई गय खेतिया।

वोहू फसल में रहा झोखाला घर में रही विपतिया।

अन्न विन रेत उठत बाय अंतिया दुख विपतिया देइ गय राम।।

 

7) दुबौली दूबे गांव जहंाना –     सुनो भाई अद्भुत गांव जहाना । दुबौली दूबे विदित महाना ।

गोमती सिंह आदि बलवाना।

चढ़े हाथी पर जब ललकारा । सुने ना उनका कोई बेचारा।

गांव के युवक उठे दररारा । कहें का हमसे है भयकारा ।

अस्त्र शस्त्रों से सज्जित कर किया जब धावा पैगापुर।

गांव के लोग भगे घर में भदेसर रहि गय मोरचे पर।

काल ने उसको अपनाया स्वर्ग में उसको पहुंचाया।

हुई दल बंदी इसमें खूब चले सब नोक झोंक डट के।।

 

8.) भजन –                   घनघोर प्रतिष्ठा कीजै सुख गति अधिकारी कीजै।

हैं जितने मित्र हमारे होये प्रेम अनन्य तुम्हारे

यह द्विज मोहन प्यारे होये नहि प्रेम से न्यारे।।

 

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