राजनीति उत्तराखंड की आपदा से उपजे कुछ सवाल June 4, 2022 / June 7, 2022 | Leave a Comment उत्तराखंड की आपदा ने देश को ऐसा गम दिया है, जिसकी भरपाई तो किसी भी कीमत पर नहीं की जा सकती है किंतु इस भीषण आपदा से जो सवाल उभर कर सामने आये हैं उसकी चर्चा विभिन्न रूपों में पूरे देश में हो रही है। यह बात अलग है कि हर कोई अपने-अपने मुताबिक उसकी […] Read more » Some questions arising from the disaster of Uttarakhand उत्तराखंड की आपदा से उपजे कुछ सवाल
राजनीति नीतीश-लालू की एकजुटता बेमानी August 16, 2020 / July 16, 2022 | Leave a Comment बिहार विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। पांच चरणों में संपन्न होने वाले चुनावों में अभी तमाम उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकते हैं किंतु अभी जिन बातों को लेकर प्रमुख रूप से चर्चा हो रही है, उसमें एक प्रमुख बात यह है कि ंइस बार के चुनावों में नीतीश-लालूं की जोड़ी क्या गुल खिलायेगी? […] Read more » Nitish-Lalu Nitish-Lalu's solidarity is meaningless नीतीश-लालू नीतीश-लालू की एकजुटता
राजनीति सिकुड़ता आतंकवाद July 1, 2020 / July 16, 2022 | Leave a Comment आतंकवाद पूरी दुनिया के लिए एक विकराल समस्या है। आतंकवाद का स्वरूप चाहे बाहरी रूप में हो या फिर आंतरिक, हर दृष्टि से समाज की जड़ों को खोखला करने का काम करता है। जो देश पहले आतंकवाद से अछूते थे वे इसकी भयावहता को नहीं समझते थे किंतु जैसे-जैसे दुनिया के तमाम देशों ने आतंकवाद […] Read more » shrinking terrorism
समाज विकास हो मनुष्यता का, नैतिकता का न कि भौतिकता का June 10, 2018 / June 10, 2022 | Leave a Comment संपूर्ण विश्व में प्रथम विश्व युद्ध के बाद से चहुं ओर विकास-विकास-विकास का डंका बजाया जा रहा है। कुछ देशों ने अपने आप को विकसित मानकर अन्य देशों को विकासशील या अविकसित देशों की श्रेणी में डाल दिया और अपनी विकसित योजनाओं को लेकर, विकास का नारा देकर, पूरे विश्व में इन योजनाओं को थोपने का काम किया है लेकिन किसी कीमत पर यह विषय चिंतनीय और मनन करने योग्य है। इतिहास को उठाकर देखें तो जब भारत विश्व गुरु कहलाता था उस समय की शिक्षा पद्धति, संस्कृति और सभ्यता पूर्णतया नैतिकता पर आधारित होती थी। नैतिकता के पाठ का असर आचरण और व्यवहार में परिलक्षित और सर्वप्रिय होता था परंतु प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही नैतिकता का और चारित्रिक पतन शुरू हो गया क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद जिन लोगों ने उस समय भयावह युद्ध को और युद्ध के पश्चात भयावह मंदी को झेला था उससेे नैतिकता के सब्र के बांध न सिर्फ हिल गये, बल्कि बिखर गये थे। तत्पश्चात मनुष्य को मात्रा एक ऊंची जाति के जानवर की तरह माना जाने लगा जिसमें बड़े-बड़े और ताकतवर लोगों का कमजोर लोगों और निम्न दर्जे के लोगों को दबाने की प्रवृत्ति हावी होने लगी। इसी बीच इस विकासवाद के बहाने लोगों पर अपना वर्चस्व जमाकर एवं दिखाकर अपने प्रभाव में लेने का सिलसिला शुरू हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में हालात इतने खराब हुए कि अधिकतर लोग ऊसूल और नैतिक सिद्धांतों को ताक पर रख सुख-सुविधा-विलास के पीछे भागने लगे और उन पर अमीर बनने का जुनून सवार हुआ और यहीं से विकासवाद का परचम फहराने की और नैतिकता के पतन की शुरुआत हो गयी। भारतीय सभ्यता व संस्कृति में नैतिकता को शुरू से ही ऊच्च स्थान दिया गया है। नैतिकता हमें हर कदम पर सही-गलत के ज्ञान का आभास कराती है। नैतिकता के अभाव में व्यक्ति और समाज असंतोष, अलगाववाद, उपद्रव, आंदोलन, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्शविहीन, अन्याय, अत्याचार, अपमान, असफलता अवसाद, अस्थिरता, अनिश्चितता, संघर्ष, हिंसा आदि में घिरकर और फंस कर रह जाता है। इसके मूल कारण में देखें तो व्यक्ति और समाज सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्राीयतावाद और हिंसा की संकीर्ण भावनाओं व समस्याओं में उलझ कर रह जाता है। हालांकि, उसी समाज में विभिन्न कालों, विभिन्न परिस्थितियों और विभिन्न वातावरण में नैतिकता भी बदल जाती है और समयानुसार सुधार भी हो जाता है। समाजिक दृष्टिकोण से नैतिकता ही धर्म की आचार संहिता है; वहीं धर्म जिसको सृष्टि रचयिता द्वारा ब्रह्मांड के प्रत्येक कण-कण में निर्धारित किया हुआ है। नैतिकता के मानदंडों से ही कानून जैसी व्यवस्था की उत्पत्ति हुई है और आज विकासवाद के नाम पर व्यक्ति कानून को तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल कर नैतिकता को ताक पर रख भौतिकतावादी मानसिकता को मन में संजोये हुए, उचित-अनुचित का आंकलन किये बगैर अपने आप को विकसित कहलवा रहा है मगर हकीकत में पतन की ओर जा रहा है। धर्म मनुष्य को नैतिकता के माध्यम से समस्त प्राणियों से आचरण और व्यवहार, उचित-अनुचित का ज्ञान, कर्तव्य बोध, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व और अधिकार इत्यादि को नियम श्रृंखला में बांधकर मनुष्य को मानव बनने पर मजबूर करता है। मनुष्य की आत्मा में समस्त ज्ञान चाहे वह भौतिक हो, नैतिक हो या आध्यात्मिक हो विराजित रहता है। मात्रा हमें उस आवरण को अनावरित करना है जिसको मनुष्य मनोचित आचरण करते हुए मनुष्य से मानव की ओर बनकर विकास यात्रा को शुरू करता है। नैतिकता की विशेषताः- थ् नैतिक शिक्षा ही मनुष्य को मानव बनाती है। थ् नैतिकता व्यक्ति के अन्तःकरण की आवाज है। यह सामाजिक व्यवहार का उचित प्रतिमान है। थ् नैतिकता के साथ समाज की शक्ति जुड़ी होती है। थ् नैतिकता तर्क पर आधारित है। नैतिकता का संबंध किसी अदृश्य पारलौकिक शक्ति से नहीं होता। थ् नैतिकता परिवर्तनशील है। इसके नियम देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। थ् नैतिकता का संबंध समाज से है। समाज जिसे ठीक मानता है वही नैतिक है। थ् नैतिक मूल्यों का पालन व्यक्ति स्वेच्छा से करता है। किसी ईश्वरीय शक्ति के भय से नहीं। थ् नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्य और आचरण से जुड़ी है। थ् […] Read more » Evolution Be of Humanityof EthicsNot of Materiality विकास हो मनुष्यता का
राजनीति आरक्षण या संरक्षण ? June 10, 2018 / June 10, 2022 | Leave a Comment आरक्षण एक पूर्णरूपेण व्यवस्था है जिसमें पालन-पोषण, सुरक्षा इत्यादि स्वतः ही समाहित हो जाती है। जिस प्रकार माता-पिता का बच्चों को संरक्षण प्राप्त होता है उसे स्वाभाविक ;छंजनतंसद्ध संरक्षण कहा जाता है जबकि किसी एक देश के व्यक्ति को दूसरे देश में संरक्षण प्राप्त होता है तो उसे राजनीतिक संरक्षण कहा जाता है यानी संरक्षण के प्रकार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। इस संरक्षण का मुख्य उद्देश्य यही होता है कि संसाधनों के अभाव में किसी का पालन-पोषण एवं विकास रुक न जाये। इसको यदि उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो जब कोई बच्चा अनाथ हो जाता है या उसके मां-बाप या संरक्षक उसका पालन-पोषण करने में सक्षम नहीं होते हैं तो उसकी जिम्मेदारी जो लोग स्वतः लेते हैं या जिन्हें आग्रह करके दिया जाता है, ऐसे लोग संरक्षक की भूमिका में आ जाते हैं एवं इस पूरी प्रक्रिया को संरक्षणवाद कहा जा सकता है। यह संरक्षण सामाजिक स्तर पर भी हो सकता है तो इसका आधार पारिवारिक या किसी भी रूप में हो सकता है किंतु इसे जब संवैधानिक तौर-तरीकों या कानूनी रूप से किया जाता है तो निश्चित रूप से इसका पूरा तरीका बदल जाता है और सही अर्थों में देखा जाये तो इसे ही आरक्षण कहा जाता है। आरक्षण संरक्षण से भिन्न शब्द है जो कि एक अल्पकालिक सुविधा है चाहे वह किसी बस, टेªेन, हवाई जहाज या सिनेमा हाल में हो या यूं कहिए कि जहां पर आवेदन-निवेदन करने के पश्चात निश्चित समय के लिए प्राप्त हुई यह सुविधा का समय रहता है। तब तक इसमें अधिकार समाहित रहता है मगर यह अधिकार समय सीमा की समाप्ति पर स्वतः ही समाप्त हो जाता है। भारतीय संविधान में जिस उद्देश्य से, जिस लक्ष्य को लेकर आरक्षण व्यवस्था की गयी है उसके मूल में जाकर हम देखते हैं तो ज्ञात होता है कि एक वर्ग जो कि सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से समाज की मुख्य धारा से कटा हुआ है, उसके लिए एक सक्षम प्रतिनिधित्व तैयार हो सके, ऐसा सोचकर ‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति’ शब्द को संविधान में शामिल किया जाये और इसी कड़ी में अत्यंत पिछड़े वर्ग को भी सम्मिलित कर दिया जाये। आरक्षण का उद्देश्य मूलतः सामाजिक आरक्षण को राजनीति के माध्यम से आरक्षण था और उसका प्रावधान दस वर्ष तक के लिए था परंतु राजनीतिक ठेकेदारों ने समाजोत्थान की इस भावना को धूमिल कर एवं तोड़-मरोड़कर राजनीतिक कारणों से सामाजिक आरक्षण को जातिगत या जाति आधारित आरक्षण बना दिया। आज स्थिति यह है कि तमाम जातियां इस आरक्षण की श्रेणी में आने के लिए बेचैन हैं और संघर्ष भी कर रही हैं। राजस्थान में गुर्जरों का आरक्षण पाने के लिए जो संघर्ष रहा है उससे अन्य जातियां भी प्रेरित हो रही हैं। ऐसे में स्थिति यह भी बन सकती है कि कौन-सी जाति आरक्षण के योग्य नहीं है। बहस का विषय यह होगा। इस देश में तमाम ऐसे नेता हैं जिनका मानना है कि कुछ लोग आरक्षण समाप्त करने की बात कर रहे हैं, जबकि अभी तो आरक्षण मांगने की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है। स्थिति यदि ऐसे ही रही तो भविष्य में चर्चा इस बात की होगी कि कौन-सी जाति आरक्षण से बाहर रहेगी और 100 प्रतिशत में कितना हिस्सा ऐसा होगा जो आरक्षण की श्रेणी से बाहर होगा। आरक्षण के कारणों से जिस प्रकार खंडित भावनाओं की उत्पत्ति में बढ़ोत्तरी हुई है वह देश के लिए आत्मघाती है। इस आरक्षण के कारण क्षेत्राीय, जातीय और भाषायी आधार पर आरक्षण की मांगों का प्रतिपादन हुआ है। अपनी राजनीतिक पूर्ति के लिए नेताओं ने सत्ता लोलुपता के कारण समय-समय पर इन भावनाओं को भड़काया, उकसाया एवं हवा भी दी और अपनी राजनीतिक रोटियों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए देश भावना को दिन-प्रतिदिन खंडित कर रहे हैं। जब कोई व्यक्ति सर्वोच्च पद पर पहुंच जाता है तो वह देश का प्रतिनिधित्व करता है न कि किसी वर्ग, जाति और क्षेत्रा का। आज के राजनीतिज्ञ इन सब बातों को जानते एवं समझते हुए भी अपने को देशभक्ति से ओत-प्रोत बताते हुए भी सत्ता लोलुपता के कारण इन सभी पहलुओं को ध्वस्त कर, पूरे देश में विघटनकारी वातावरण बनाये रखना चाहते हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, संविधान निर्माता डॉ. भीम राव अंबेडकर, लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, इंदिरा गांधी, जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, अब्दुल कलाम जैसे राष्ट्रभक्त राष्ट्रीय नेता हुए हैं जिन्होंने विघटनकारी ताकतों को कभी भी प्रोत्साहित नहीं किया और अपनी कार्यशैली से समय-समय पर राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा दी। ऐसे में अगर हम उनकी जाति, क्षेत्रा या भाषा आधारित बातें करें या उन्हें जानें तो यह सरासर बेमानी होगा। आज देखने में आ रहा है कि अपनी-अपनी जाति एवं मजहब के हिसाब से लोगों ने महापुरुषों का बंटवारा कर लिया है। राष्ट्र एवं समाज के लिए किस महापुरुष की क्या भूमिका रही है, इस पर विचार किये बिना लोग अपनी-अपनी राजनीति के हिसाब से महापुरुषों को आधार बनाकर राजनीति करने में मशगूल हैं जबकि इसके परिणाम बहुत घातक हो सकते हैं और इससे समाज बिखराव की तरफ और बढ़ता जायेगा। मजहब, जाति एवं वर्ग पर आधारित राजनीति करने वालों को यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि वे तभी तक अपनी राजनीतिक रोटी सेंक पायेंगे, जब तक समाज में सुख-शांति बनी हुई है। अन्यथा राजनीति करने वालों के मंसूबे धरे के धरे रह जायेंगे? क्या ऐसे लोगों के लिए सीरिया जैसी स्थिति में राजनीति कर पाना आसान होगा? जातीय भावानाओं को भड़काने का एक मामला उस समय बहुत व्यापक रूप से देखने को मिला जब पूरे देश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ बंद का आह्वान किया गया। दरअसल, पूरे मामले में विचार किया जाये तो 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया था उसके तहत अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून में मुख्य बात यह थी कि सुप्रीम कोर्ट इस कानून के तहत दर्ज मामलों में अग्रिम जमानत की अनुमति प्रदान कर दी और बिना पूरी छानबीन के गिरफ्तारी नहीं की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला इसलिए दिया कि अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून के दुरुपयोग की खबरें लंबे समय से सुनने को मिलती रही हैं। इस लिहाज से देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट ने सराहनीय कार्य किया है किंतु सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले के विरोध में कुछ संगठनों एवं व्यक्तियों द्वारा विवादास्पद बयान दिया गया और उससे राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास किया गया। इन बयानों से अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग में संदेह एवं असुरक्षा का भाव उत्पन्न हुआ जिसके कारण सामाजिक स्तर पर विद्वेष का वातावरण निर्मित हुआ, जबकि इस देश में तमाम ऐसे उदाहरण सामने हैं जिनमें इसी कानून के तहत दर्ज मामलों में गिरफ्तारी तब तक नहीं हुई जब तक कि पूरी छानबीन नहीं हुईं। कुल मिलाकर स्थिति इस प्रकार की बनी कि यदि किसी से यह कह दिया जाये कि उसका कान लेकर कोई कौवा भाग रहा है और वह व्यक्ति अपने कान की तहकीकात किये बिना ही उस कौवे के पीछे दौड़ पड़े और जब उसे यह एहसास हो कि उसका कान तो उसके पास ही है। ऐसे में उस व्यक्ति के पास पछताने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचता है। कुछ इसी प्रकार की स्थिति अपने देश में तमाम मामलों में देखने को मिल रही है। बात सिर्फ आरक्षण की नहीं बल्कि तमाम मामलों में ऐसी स्थिति देखने को मिल रही है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस प्रकार की स्थिति में किसका भला होने वाला है? सच्चाई तो यह है कि संविधान में आरक्षण की परिकल्पना पर स्वयं डॉ. अंबेडकर का मानना था कि कहीं यह लोगों के लिए मात्रा बैसाखी बनकर न रह जाये और लोग इसी पर आश्रित होकर न रह जायें। बाबा साहब का यह भी मानना था कि आरक्षण की वजह से गुणवत्ता प्रभावित न हो, उस समय बाबा साहब के मन में जो भी आशंका थी वह पूरी तरह सही साबित हो रही है। आरक्षण की बात की जाये तो भाजपा के वरिष्ठ नेता विनय कटियार ने बहुत पहले कहा था कि यदि कोई व्यक्ति एक बार आरक्षित सीट से चुनाव लड़ लेता है तो दुबारा उसे स्वतः ही छोड़ देना चाहिए और उसे अपना भाग्य किसी सामान्य सीट से आजमाना चाहिए और आरक्षित सीट से किसी कमजोर भाई-बहन को सक्षम बनने का अवसर प्रदान होने देना चाहिए, किंतु वर्तमान समय में कितने ऐसे लोग हैं जो इस फार्मूले पर सहमत होंगे क्योंकि देखने में आ रहा है कि एक बार जिसने आरक्षणरूपी मलाई का स्वाद चख लिया है वह छोड़ने के लिए तैयार नहीं हो रहा है। इस व्यवस्था से पूरे वर्ग या समुदाय का भला नहीं हो पा रहा है। आरक्षण वंचितों एवं आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए एक अस्थायी प्रावधान है। इसको स्थायित्व प्रदान करने का कोई प्रावधान न था और न ही इसके लिए किसी ने प्रयास किया मगर राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए नेतागण इसको संरक्षण हर पल देते रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी नेता एवं सामाजिक क्षेत्रा में काम करने वाले लोग इस बात के लिए प्रयास करें कि ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ यानी सभी सुखी हों, सभी निरोग हों। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में यह बात बहुत गहराई से निहित है कि जब पूरी दुनिया में अमन-चैन होगा तभी हम भी सुख-शांति से रह पायेंगे। भारत के पड़ोसी देशों में यदि अशांति होगी तो भारत में कहां से शांति आयेगी? इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि पाकिस्तान के परमाणु बम यदि आतंकियों के हाथ लग गये तो क्या होगा? अतः, […] Read more » Reservation or protection? आरक्षण या संरक्षण
लेख असुरक्षा का भाव : पलायन का एक प्रमुख कारण April 10, 2018 / June 10, 2022 | Leave a Comment ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद जिस प्रकार अंग्रेजों एवं अंग्रेजियत ने हिन्दुस्तान को जकड़ लिया था, उससे ऐसा प्रतीत होने लगा था कि हिन्दुस्तान अब गुलामी की जंजीरों में जकड़ा ही रहेगा किंतु देशभक्त क्रांतिकारियों या यूं कहिए कि देशभक्ति से ओत-प्रोत देशवासियों ने अहिंसक एवं बाद में हिंसक तरीकों से अंग्रेजी सरकार […] Read more » a major reason for migration Feeling of insecurity असुरक्षा का भाव पलायन का एक प्रमुख कारण
राजनीति स्थानीय मुद्दों से विमुख होते राजनेता July 16, 2017 / July 17, 2022 | Leave a Comment हिन्दुस्तान के राजनीतिक परिदृश्य की चर्चा की जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आ रहा है कि राजनेता स्थानीय मुद्दों से दूरी बनाये रखना उचित समझ रहे हैं। उनको लगता है कि स्थानीय मुद्दों की चिंता करना सिर्फ स्थानीय कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी है जबकि मुद्दे तो मुद्दे हैं, चाहे वे राष्ट्रीय स्तर के हों […] Read more » Politicians turning away from local issues
राजनीति सर्व दृष्टि से ध्वस्त होता राजनीतिक चरित्र July 16, 2016 / July 17, 2022 | Leave a Comment वर्तमान समय में राजनीतिक दृष्टि से यदि देखा जाये तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राजनीति के लिए यह संक्रमण काल है। संक्रमण काल लिखने का मेरा आशय इस बात से बिल्कुल भी नहीं है कि राजनीति में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है बल्कि मेरा आशय इस बात से है […] Read more » Political character collapsed in all respects
लेख दिल्ली विधानसभा चुनाव ‘आप’ की सफलता या ‘भाजपा’ की विफलता ? July 16, 2016 / July 17, 2022 | Leave a Comment दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम अप्रत्याशित तो रहे ही, साथ ही अनेक प्रश्न भी उत्पन्न हो गये। इस चुनाव से तमाम तरह की परंपराएं टूटीं। चुनावी पंडितों, भाजपा एवं कांग्रेस को भी बिल्कुल अहसास नहीं था कि उनका यह हाल होगा? हालांकि, कांग्रेस पार्टी को ऐसी भी उम्मीद नहीं थी कि वह सत्ता में पहुंचने के […] Read more »
शख्सियत मोदी कुछ भी नहीं, पर सब कुछ June 10, 2015 / June 10, 2022 | Leave a Comment प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी ने जबसे शासन की बागडोर संभाली है तब से पूरे देश में इस बात की चर्चा है कि उनके आने के बाद देश में क्या बदलाव आया है? शासन-प्रशासन में कितना परिवर्तन देखने को मिल रहा है तथा लोगों की मानसिकता में किस तरह का बदलाव देखने को मिल रहा है। यदि […] Read more » Modi is nothing but everything
राजनीति प्रधानमंत्री सिर्फ शासक ही नहीं, अभिभावक और समाज सुधारक भी August 17, 2014 / June 17, 2022 | Leave a Comment प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त को दिया गया भाषण हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया है। देशवासियों को लगता है कि प्रधानमंत्राी ने लिखा हुआ भाषण न पढ़कर अपनी अंतरात्मा की आवाज को व्यक्त किया है। श्री नरेंद्र मोदी जब बोल रहे थे […] Read more »
राजनीति ब्यूरोक्रेसी की नजर में नरेंद्र मोदी June 17, 2014 / June 17, 2022 | Leave a Comment आंखों का तारा भी-कांटा भीआजाद भारत में देश चलाने के लिए शासन-प्रशासन के रूप में जिन स्तंभों का विकास हुआ, वे प्रमुख रूप से तीन हैं, जिन्हें विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के नाम से जाना जाता है। वक्त एवं परिस्थितियों के मुताबिक एक चौथा स्तंभ भी जुड़ गया, जिसे मीडिया के नाम से जाना जाता […] Read more » Narendra Modi in the eyes of bureaucracy