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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में घोष का इतिहास

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शिवानंद मिश्रा संघ की स्थापना 1925 के मात्र 2 वर्ष बाद 1927 में संघ में घोष को शामिल किया गया।  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसे आरएसएस या संघ परिवार के नाम से भी जाना जाता है, उसकी स्थापना सन 1925 में हुई। संघ के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अधिकांश लोग संघ के स्वयंसेवकों के सेवाकार्यों और शाखा पर होने वाले दंड प्रदर्शन से ही परिचित हैं किंतु संघ के ऐसे अनेकों रचनात्मक और सृजनात्मक कार्य हैं जो उसके स्वयंसेवकों की कठोर साधना से सिद्ध हुए हैं। ऐसा ही एक काम है संघ का घोष-वादन।  जैसा कहा जाता है कि संघ कार्य का विस्तार देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप समाजोपयोगी और प्रासंगिकता के अनुरूप बड़ी सहजता से हुआ है। आरंभिक समय में शाखा पर केवल व्यायाम और सामान्य चर्चा हुआ करती थी. फिर धीरे-धीरे शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रम होने लगे। इसी क्रम में शारीरिक अर्थात फिजिकल एक्सरसाइज में भी समता और संचलन का अभ्यास आरंभ हुआ। संचलन के समय शारीरिक विभाग ने इस बात पर विचार किया कि यदि संचलन के साथ घोष वाद्य का प्रयोग किया जाए तो इसकी रोचकता, एकरूपता और उत्साह में चमत्कारिक परिवर्तन हो सकता है। स्वयंसेवकों की इच्छा शक्ति का ही परिणाम था कि संघ स्थापना के केवल दो वर्षों बाद 1927 में शारीरिक विभाग में घोष भी शामिल हो गया। यह इतना आसान कार्य नहीं था। उस समय दो चुनौतियाँ थीं, एक तो यह कि घोष वाद्य जो संचलन में काम आ सकें, वे महँगे थे और सेना के पास हुआ करते थे। दूसरा यह कि उसके कुशल प्रशिक्षक भी सैन्य अधिकारी ही होते थे। चूँकि संघ के पास न तो इतना धन था कि वाद्य यंत्र खरीदे जा सकें और उस पर भी यह राष्ट्रभक्तों का ऐसा संगठन था जिसके संस्थापक कांग्रेस के आंदोलनों से लेकर बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ काम कर चुके थे, इसलिए किसी सैन्य अधिकारी से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित कराना बड़ा कठिन कार्य था। उस समय सैन्य अधिकारियों को केवल सेना के घोष-वादकों को ही प्रशिक्षित करने की अनुमति थी। इस चुनौती से निबटने के लिए संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी के परिचित बैरिस्टर श्री गोविन्द राव देशमुख जी के सहयोग से सेना के एक सेवानिवृत बैंड मास्टर के सहयोग से स्वयंसेवकों को घोष वाद्यों का प्रशिक्षण दिलाया गया।  शंख वादन के लिए मार्तंड राव तो वंशी के लिए पुणे के हरिविनायक दात्ये जी आदि स्वयंसेवकों ने शंख, वंशी,आनक जैसे वाद्य यंत्रों पर अभ्यास आरंभ किया। इस प्रकार संघ में घोष का एक आरंभिक स्वरूप खड़ा हुआ। पाश्चात्य शैली के बैंड पर उनके ही संगीत पर आधारित रचनाएँ बजाने में भारतीय मन को वैसा आनंद नहीं आया जैसा कि आना चाहिए था। तब स्वयंसेवकों का ध्यान इस बात पर गया कि हमारे देश में हजारों वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य और धनुर्धारी अर्जुन ने देवदत्त बजाकर विरोधी दल को विचलित कर दिया था। भगवान कृष्ण के समान वंशी वादक संसार में कोई हुआ नहीं, अतः हमें इन वाद्यों पर ऐसी रचनाएँ तैयार करनी चाहिए जिनमें अपने देश की नाद परंपरा की सुगंध हो। स्वर्गीय बापूराव व उनके साथियों ने इस दिशा में कार्य आरंभ किया। इस प्रकार राग केदार, भूप, आशावरी में पगी हुई रचनाओं का जन्म हुआ।   स्वयंसेवकों ने घोष वाद्यों को भी स्वदेशी नाम प्रदान कर उन्हें अपनी संगीत परंपरा के अनुकूल बनाकर उनका भारतीय करण किया। इस क्रम में साइड ड्रम को आनक, बॉस ड्रम को पणव, ट्रायंगल को त्रिभुज, बिगुल को शंख आदि नाम दिए गए जो कि ढोल, मृदंग आदि नामों की परंपरा में ही समाहित होते हैं। घोष की विकास यात्रा में प्रथम अखिल भारतीय घोष प्रमुख श्री सुब्बू श्रीनिवास का नामोल्लेख भी अत्यंत समीचीन होगा।  अनेक वर्षों तक सतत प्रवास करके घोष वर्ग और घोष शिविरों के माध्यम से पूरे देश में हजारों कुशल घोष वादक तैयार किये। घोष वादकों में निपुणता और दक्षता की दृष्टि से अखिल भारतीय घोष शिविर आयोजित किये जाने लगे। श्री सुब्बू जी घोष के प्रति इतने समर्पित रहे कि सतत प्रवास के कारण उनका स्वास्थ्य भी गिरने लगा किन्तु अंतिम साँस तक बिना रुके, बिना थके वे ध्येय मार्ग पर बढ़ते रहे। परंपरागत वाद्य शंख, आनक और वंशी से आरंभ हुई घोष यात्रा आज नागांग, स्वरद आदि अत्याधुनिक वाद्यों पर मौलिक रचनाओं के मधुर वादन तक पहुँच गई है। घोष वादन में मौलिक और भारतीय नाद परंपरा को समृद्ध करने की यात्रा प्रथम रचना गणेश से आरंभ होकर लगभग अर्ध शतक पूर्ण कर निरंतर बढ़ती जा रही है। शिवानंद मिश्रा

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सनातन संस्कृति में छिपा है पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान

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प्रो. महेश चंद गुप्ता भारतीय सनातन संस्कृति और पर्यावरण के बीच युगों पुराना नाता है। एक सनातन संस्कृति ही है, जिसमें प्रकृति को केवल अस्तित्व का आधार ही नहीं बल्कि पूजनीय माना गया है। आधुनिक विज्ञान में जिस पर्यावरणीय संतुलन की वकालत की जाती है, उस संतुलन को सनानत परंपराओं में सदियों से साधा जा रहा है। सनातन संस्कृति में प्रत्येक प्राकृतिक तत्व को दिव्य माना गया है। हमारे लिए सूर्य, जल, वायु और वनस्पति सबको देवतुल्य हैं। जरूरत के समय पेड़ों को काटने से पहले उनकी अनुमति मांगने और तुलसी पत्र तोड़ते समय विनम्र भाव से क्षमा मांगने की विनम्रता केवल हमारी संस्कृति में ही है। हम सूर्यास्त के बाद फूल-पत्तियां इसलिए नहीं तोड़ते क्योंकि तब तब वे विश्राम की अवस्था में होते हैं। न केवल भारत में बल्कि विदेशों मेंं बसा हिंदू समुदाय भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा है। इस बात को अब  विदेशों में भी स्वीकार कर इससे प्रेरणा ली जाने लगी है।  ब्रिटेन के इंस्टीट्यूट फॉर द इम्पैक्ट ऑफ फेथ इन लाइफ (आईआईएफएल) की ओर से हाल में किए गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है। अध्ययन की रिपोर्ट में उल्लेख है कि पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर ब्रिटेन में हिंदू समुदाय बाकी समुदायों की तुलना में सबसे ज्यादा सक्रिय है। अधिकांश हिंदू पर्यावरण के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं। कण-कण में भगवान के होने का विश्वास उनका प्रेरणास्रोत है। 64 फीसदी हिंदू ‘रीवाइल्डिंग’ यानी इको सिस्टम को नई जिंदगी देने में शामिल हैं। 78 फीसदी हिंदू अपनी आदतों मेंं इसलिए बदलाव लाते हैं ताकि पर्यावरण को नुकसान कम हो। 44 प्रतिशत हिंदू  पर्यावरणीय संगठनों से जुड़े हैं। अध्ययन में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई समुदायों के पर्यावरण संबंधी नजरिये और गतिविधियों का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट से पता चलता है कि ब्रिटेन के 82 फीसदी ईसाई धर्म को पर्यावरण सुरक्षा से जोड़ते हैं पर उनके सुरक्षा संबंधी काम सबसे कम हैं। 31 फीसदी ईसाई जलवायु परिवर्तन को ही नकारते हैं, जो किसी भी धार्मिक समूह में सबसे ज्यादा है। 92 प्रतिशत मुस्लिम व 82 प्रतिशत ईसाई मानते हैं कि उनका धर्म पर्यावरण की देखभा करने की जिम्मेदारी देता है लेकिन उनकी यह सोच व्यवहार में नहीं बदलती। अगर हिंदू पर्यावरण संरक्षण के लिए सक्रिय हैं तो इसका मुख्य कारण यह है कि हिंदू धर्म में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना निहित है जो संपूर्ण सृष्टि को एक परिवार के रूप में देखने की शिक्षा देती है। यही भाव हममेें प्रकृति के प्रति एकात्मता का भाव विकसित करता है। आज जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की चुनौती से जूझ रही है, तब सनातन संस्कृति की यह सोच और व्यवहार मानवता के लिए एक प्रेरणा बन सकता है।  यह अध्ययन पर्यावरण संकट और जलवायु परिवर्तन के खतरों के दृष्टिगत बहुत महत्वपूर्ण है। इस अध्ययन से न सिर्फ सनातन संस्कृति और पर्यावरण के संबंधों का पता चलता है, वहीं यह बात भी साबित होती है कि दशकों पहले कामकाज के सिलसिले में विदेशों में बस गए हिंदू आज भी अपनी संस्कूति को आत्मसात किए हुए हैं। हिंदू सनातन धर्म में पर्यावरण केवल आध्यात्मिकता या पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है बल्कि यह संपूर्ण सृष्टि के प्रति एक गहरी जागरूकता और सम्मान की भावना से ओत-प्रोत है। हमारी संस्कृति में प्रकृति और जीव-जंतुओं को पूजनीय मानते हुए उनके संरक्षण पर जोर दिया गया है। इससे हिंदू धर्म में पर्यावरण संरक्षण केवल नैतिक दायित्व नहीं है बल्कि धार्मिक आस्था और दैनिक जीवन का अभिन्न अंग भी है। हमारे पुरखों को पर्यावरण से कितना प्रेम था, इसका पता उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं से चलता है। सनातन धर्म में यह मान्यता है कि संपूर्ण सृष्टि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंचतत्वों से बनी है। इन पंचतत्वों को संतुलित रखना जीवन का मूल उद्देश्य है। इसी कारण पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखना हिंदू दर्शन का प्रमुख भाग है। सनातन संस्कृति में पग-पग पर पर्यावरण संरक्षण के उपाय किए गए हैं। भूमि पूजन, गोवर्धन पूजा के बहाने पृथ्वी पूजन की परंपरा अनायास थोड़े बन गई है। नदियों को देवी मानकर पूजने के पीछे गंगा, यमुना, नर्मदा, कृष्णा आदि तमाम नदियों की पवित्रता को बनाए रखने की मंशा ही तो है। हवन और यज्ञ में प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का उपयोग करने के पीछे पर्यावरण को शुद्ध करने की भावना निहित है। हमारे पुरखों ने योग और प्राणायाम के जरिए शुद्ध वायु का महत्व कितने वैज्ञानिक ढंग से समझाया है। पुरखों ने आकाश को अनंत ऊर्जा का स्रोत माना एवं ध्यान और साधना के माध्यम से इसका संतुलन बनाए रखने का संदेश दिया तो इसके पीछे भी तो प्रकृति के प्रति श्रद्धा भाव ही है। पेड़ों और वनस्पतियों को देवतुल्य मानकर उनकी पूजा के पीछे उनके संरक्षण की भावना ही तो है। हमारे पुरखों ने सदियों पहले जिस तुलसी को मां लक्ष्मी का स्वरूप मानकर हर घर में लगाने की परंपरा शुरू की, उसके औषधीय गुणों को आज वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। हमारे यहां प्राचीन काल में ही ऋषि-मुनि आश्रमों में वन लगाने को प्राथमिकता दी गई और आज भी मंदिरों और आश्रमों में वृक्षारोपण को पवित्र कार्य के रूप में करके उसका अनुसरण किया जा रहा है। हमारे देश मेंं पर्यावरण संरक्षण हमारी शिक्षा पद्धति का प्राचीन काल से ही भाग रहा है। हमारे ऋषि-मुनि पर्यावरण शुद्ध रखने के लिए हवन-यज्ञ करते थे। इससे  वातावरण को साफ एवं समय पर वर्षा में मदद मिलती थी। आधुनिक काल में भी ऐसे उदाहरण हैं, जब हवन-यज्ञ के बाद वर्षा होते देखी गई है। मौजूदा समय में तो प्राचीन परंपराओं का अनुसरण करने की ज्यादा जरूरत हैं क्योंकि नदियों का जल कम एवं प्रदूषित हो रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और विश्व के कई तटीय शहरों के डूब जाने का अंदेशा है। प्राचीन गुरुकुलों में पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया जाता था तो मौजूदा दौर मेंं भी कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में पर्यावरण संरक्षण पर शोध एवं अध्ययन, अधिकाधिक पेड़ लगाने और पर्यावरण अनुकूलता के लिए स्वच्छ वातावरण को प्राथमिकता दी जा रही है। हमारी मान्यता है कि शुद्ध एवं साफ वातावरण मेंं लक्ष्मी का वास होता है और इससे समृद्धि आती है, हमारे इस विचार को विदेशों में अपनाया गया है। विभिन्न देशों में विश्वविद्यालयों के लंबे-चौड़े, खुले परिसर एवं वहां सघन हरियाली इसका प्रमाण है। सनातन संस्कृति मेंं जैव विविधता को बनाए रखने के लिए जहां गाय को माता का दर्जा दिया गया है, वहीं नाग पंचमी पर सांपों की पूजा कर उनके महत्व को भी स्वीकारा गया है। गंगा दशहरा और कार्तिक स्नान जैसे त्योहारों के माध्यम से जल शुद्धता बनाए रखने का संदेश दिया गया है। अद्र्धकुंभ, कुंभ और महाकुंभ मेंं नदियों की सफाई और उनकी महत्ता पर बल दिया गया है। अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदू धर्म कर्म पर आधारित है। इसमें मान्यता है कि इस जीवन में हम जो करते हैं, उसका असर अगले जन्म पर पड़ता है। अच्छे कर्म से बुरे कर्म मिटते हैं और अगला जन्म बेहतर होता है। इसीलिए पर्यावरण के प्रति दायित्व बोध बना हुआ है। हमारे युवा इसमेंं सबसे अग्रणी हैं 18-24 वर्ष के 46 फीसदी धार्मिक युवा ईश्वर को पर्यावरणविद् के रूप में देखते हैं। आज समूची दुनिया जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन की समस्याओं से जूझ रही है। इन समस्याओं का समाधान भारतीय सनातन संस्कृति में खोजा जा सकता है। हमारी महान परंपराएं समूची दुनिया में पर्यावरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण मार्गदर्शक बन सकती हैं। हिंदू धर्म में पुराने कपड़ों और सामान का पुन: उपयोग करने की परंपरा रीसाइक्लिंग और अपशिष्ट प्रबंधन का प्राचीन रूप नहीं तो क्या है। हमारे यहां शाकाहार को बढ़ावा इसलिए दिया गया क्योंकि हमारे पूर्वज जानते थे कि शाकाहार को बढ़ावा देने से कार्बन उत्सर्जन कम होता है और पर्यावरणीय संतुलन बना रहता है। हमारी संस्कृति मेंछठ पूजा में जल और सूर्य का महत्व, संक्रांति में तिल और गुड़ तथा होली में प्राकृतिक रंग जैव विविधता को संरक्षण के परिचायक हैं।  हिंदू सनातन धर्म और पर्यावरण संरक्षण की भावना परस्पर गहराई से जुड़े हुए हैं। यह जुड़ाव केवल धार्मिक नियमों का पालन करने तक सीमित नहीं है बल्कि एक संपूर्ण जीवन शैली है जो प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन, सम्मान और संरक्षण को प्राथमिकता देती है। अगर आज पूरी दुनिया इन सिद्धांतों को अपना ले तो न सिर्फ पर्यावरण संकट को कम किया जा सकता है बल्कि जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों से भी निपटा जा सकता है। प्रकृति की रक्षा करना केवल हमारा धर्म नहीं बल्कि हमारा नैतिक उत्तरदायित्व भी है। प्रो. महेश चंद गुप्ता

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