धुंध का समाधान – गोवंश आधारित खेती

0
200

इन दिनों दिल्ली और पूरा उत्तर भारत धुंध से परेशान है। प्रशासन ने कई जगह छोटे बच्चों के स्कूल बंद करा दिये हैं। सांस तथा फेफड़े के मरीजों को विशेष सावधानी रखने तथा अधिकाधिक तरल पदार्थ लेने को कहा जा रहा है। सुबह टहलने वालों को भी कुछ दिन घर ही रहने की सलाह दी गयी है।

आजकल टी.वी. पर हजारों लोग मुंह पर रूमाल या कपड़े का मास्क लगाये दिखते हैं। धुंध से बड़ी संख्या में सड़क दुर्घटनाएं हो रही हैं। रेल और हवाई सेवाएं भी प्रभावित हुई हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री ने हमेशा की तरह इसका दोष हरियाणा और पंजाब पर मढ़ दिया है। उनका कहना है कि वहां किसान पराली जला रहे हैं। इसका धुआं दिल्ली के लोगों का जीना दूभर कर रहा है। उनका कहना है कि राज्य सरकार इस पराली को खरीद ले; पर उन्होंने कभी खेती तो की नहीं। इसलिए उन्हें पता ही नहीं कि यह पराली दो-चार नहीं करोड़ों टन होती है। कोई सरकार इसे नहीं खरीद सकती। और यदि खरीद भी ले, तो वह इसे रखेगी कहां और इसका होगा क्या ?

कुछ लोग दिल्ली में हैलिकॉप्टर से पानी छिड़कने की सलाह दे रहे हैं, तो कुछ का कहना है कि चार-छह दिन में यह धुआं स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। दिल्ली सरकार ने फिर कुछ दिन के लिए निजी कारों को सम-विषम संख्या के अनुसार चलाने का आदेश दिया है; पर यदि लोग इस समस्या के मूल में जाएं, तो धुंध के साथ और भी कई समस्याओं का समाधान हो सकता है।

भारत खेती प्रधान देश है; पर पिछले कुछ सालों से इसके प्रति लोगों का रुझान घटा है। किसानों के बच्चे अब गांव में रहना और खेती करना नहीं चाहते। हल चलाना, पशुओं की सानी करना और गोबर में हाथ डालना अब पिछड़ापन माना जाता है। आधुनिक शिक्षा हमें खेती और पशुपालन से दूर कर रही है। भारत में खेती परम्परागत रूप से गोवंश पर आधारित थी। हर किसान के पास जमीन के अनुपात में गाय, बैल आदि होते ही थे। इससे जहां सबको ताजा दूध और घी मिलता था, वहां बैल खेती के काम आते थे। गोमूत्र, गोबर और खेत की खर-पतवार से उत्तम खाद और कीटनाशक बनते थे। इससे खेती सस्ती पड़ती थी तथा घर का हर प्राणी स्वस्थ और व्यस्त रहता था। गोवंश घर के सदस्य की भांति ही पलते थे। खेत से उनके लिए ताजा चारा आ जाता था। गेहूं, दाल, चावल, फल आदि मनुष्य खाते थे, तो उनकी घासफूस और छिलकों से पशुओं का पेट भर जाता था। इस प्रकार सब एक-दूसरे पर आश्रित थे। कोई चीज व्यर्थ नहीं जाती थी। अतः पर्यावरण सुरक्षित रहता था।

पर अब परिदृश्य काफी बदल गया है। छोटे परिवार और युवा वर्ग की उदासीनता के कारण खेती करने वाले हाथ घट रहे हैं। अतः लोग मजबूरी में पशुओं की बजाय मशीनी खेती कर रहे हैं। अब जुताई, बुआई और कटाई के लिए डीजल चालित यंत्र आ गये हैं। छोटे किसान भी एक-दो दिन के लिए इन्हें किराये पर ले लेते हैं। इनसे प्रदूषण बढ़ रहा है तथा खेती महंगी होती जा रही है। तेल के लिए विदेशों पर निर्भरता इसका एक अन्य पहलू है।

पहले गेहूं, धान आदि का अवशिष्ट (पराली) पशु खा लेते थे; पर अब पशुओं के अभाव में किसानों के सामने समस्या है कि वे इसे कहां ले जाएं ? उन्हें अगली फसल के लिए खेत खाली करने हैं। हाथ से कटाई में पौधा नीचे जड़ के पास से काटा जाता है; लेकिन मशीनी कटाई से एक-डेढ़ फुट अवशेष खेत में ही रह जाता है। अतः वे उसे जला रहे हैं। इससे ही दिल्ली और आसपास धुंध छाई है।

हमारे देश में कई जरूरत से ज्यादा शिक्षित कृषि पंडित इसका समाधान भी अन्य देशों की तरह करना चाहते हैं; पर हर आदमी को हर मर्ज में एक ही गोली देने से काम नहीं चलता। अतः विदेशी प्रणाली की बजाय हमें अपने तरीके से ही इससे निबटना होगा; और इसका निदान गोवंश आधारित खेती ही है। इससे पराली जलने की बजाय पशुओं के पेट में जाएगी। अतः धुंध से छुटकारा मिलेगा। विदेशी तेल, बीज और कीटनाशक आदि पर निर्भरता कम होगी तथा जैविक खाद से खेत भी उर्वर होंगे।

किसी ने कहा है, ‘‘एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाये।’’ अर्थात समझ-बूझकर यदि एक को साध लिया, तो सब ठीक हो जाता है; पर यदि बिना सोचे-समझे सबको साधने का प्रयास किया, तो कुछ भी हाथ नहीं आता। अतः भारत को फिर से गोवंश आधारित खेती की ओर लौटना चाहिए। इसमें ही सबका कल्याण है।

– विजय कुमार,

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here