हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू धर्म को लेकर पूरे देश में कुछ लोगों ने एक मुहिम चला रखी है । अनेक राजनेता एवं धार्मिक जन इसका उल्टा.सीधा अर्थ निकालकर देश की भोली भाली जनता को दिग्भ्रमित कर रहे हैं । वे अपनी पूर्वाग्रहयुक्त बातों को समाज एवं राष्ट्र पर थोपने का प्रयास कर रहे हैं । वे सही वस्तुस्थिति से ना तो देश को अवगत कराते हैं और ना तो जनता स्वयं जानने का प्रयास कर रही है ।
भारतवर्ष का पुराना नाम आर्यावर्त था । यहां जो धर्म प्रचलन में था उसे हिन्दू धर्म ना कहकर वैदिक या सनातन धर्म कहा जाता था । शैव वैष्णव एवं शाक्त उसके मुख्य भेद हैं इसमें अनेक पंथ एवं सम्प्रदाय निकले हुए हैं ।वेद उपनिषद आरण्यक ब्राहमण संहिता स्मृतियां पुराण रामायण एवं महाभारत इसके स्रोतपूर्ण ग्रथ रहे हैं ।आर्यावर्त भूभाग में जो परम्परायें सिद्धान्त आचरण एवं पद्धितियां संचाजित हो रही थीं बहुत बाद में उसे कुछ तथाकथित हिन्दू लोगों ने अपना लिया और अपने से सम्बद्ध की लिया । हिन्द महाद्वीप के भूभाग में रहनेवाले सभी लोगों को हिन्दू कहा लाने लगा
आर्यावर्त के लागों का जीवन बहुत ही व्यवस्थित विकसित तथा सर्वग्राहय था । संयुक्त परिवार मे सभी सदस्यों को पर्याप्त स्वतंत्रता भी थी और अनुशासन भी था । परिवार मिलकर ग्राम या गोत्र तथा ग्राम मिलकर वंश का निर्माण करते थे । वंषों से जन या जनपद बनते थे । विवाह एक पवित्र बंधन होता था । साधारणतया एक पत्नी या एक पति प्रथा थी परन्तु बहु पत्नी या बहुपति पर कोई रोक भी नहीं था । दोनों संयुक्त रुप से ही धार्मिक कार्यां में भाग लेते थे । बालविवाह नहीं होते थे परन्तु स्वेच्छया विवाह भी होते थे । गोत्र या वंश में विवाह का निषेध था । विधवा विवाह एवं नियोग प्रथा भी प्रचलित थी । स्त्रियाँ सार्वजनिक उत्सवों में भाग लेती थीं , गुरुकुलों की भी शिक्षा में भाग लेती थीं तथा धार्मिक कार्यों को भी कराती थीं । उन्हें पिता,पति,भाई या पुत्र के संरक्षण में रहना पडता था ।
यद्दपि वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी परन्तु कठोर नहीं थी । व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार व्यापार चुननें मे स्वतंत्र था । सात्विक तथा तामसिक दोनों तरह के खानपान प्रचलित थे। सोमरस का प्रचलन तो था परन्तु उसे मर्यादित रुप में अपनाने को बल दिया जाता था। समयानुसार पहनावे पहने जाते थे। आर्यजन वल्कल , सूती एवं ऊनी तथा अनार्य जन जानवरों की खालें तथा वृक्षों की छालें पहनते थे।
मनोरंजन के लिए नाच, गाना, रथों का रेस , ड्रामा, वाद्य यंत्रों का प्रयोग तथा सांस्कृतिक आयोजन ,मेला एवं पर्व आदि सब पूरे मनोयोग से मनाया जाता था। स्त्री व पुरुष दोनों ही नाचते व गाते थे। शिकार खेलना आम जनता के लिए वर्जित था,केवल राजा वर्ग को इसकी अनुमति थी।
आर्यो का नौतिक जीवन बहुत श्रेष्ठ था। सदाचरण सदविचार एवं सद कार्यों को पूरा महत्व दिया जाता था। अनौतिक कृत्यों की भत्र्सना भी होती थी उपनयन संस्कार का प्रचलन था शुद्र को छोड सबको अनुमति थी । छोटे बच्चे माता पिता के माध्यम से प्रारम्भिक एवं बडे बच्चे गुरुकुलों मे गुरु के माध्यम से सामूहिक रुप में उच्च शिक्षा ग्रहण करते थे। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बुद्धि एवं चरित्र का विकास करना था। खेती पशुपालन का भी प्रचलन था। बस्तुओं का विनिमय करके व्यापार किया जाता था। किसान, व्यापारी, पुरोहिताई, सौनिकगीरी, बढई, लुहार, जुलाहा, नाई तथा वैद्य आदि व्यवसायिक कार्यों का प्रचलन था।
ऋग्वेद में पुरुषदेवों का वर्चस्व देखने को मिलता था । तैंतीस प्रमुख देव तीन प्राकृतिक समूहों- पृथ्वी , वायु एवं आकाश से सम्बन्धित समूह में विभक्त थे । प्रारम्भ में बहुदेववाद एवं बाद में एकेश्वररवाद के रुप में इनकी व्यवस्थायें देखने को मिलती हैं। वेदों में मंत्र व सूक्त दिये गये हैं। ब्राहमण ग्रंथों में यज्ञ की विधियां , आरण्यकों एवं उपनिषदों में आध्यात्मिक तत्वों एवं धर्म के दर्शन कर विवेचन किया गया है । इस काल में कर्मकाण्डों एवं विभिन्न संस्कारों पर बल दिया गया है। बाद में तप ध्यान एवं चिन्तन अस्तित्व में आया । तप के बाद ज्ञानमार्ग द्वारा ब्रहमा अथवा मोक्ष को साध जाने लगा । उपनिषद के दर्शन में संसार को ब्रहम तथा ब्रहम को आत्मा कहा जाने लगा । ब्रहम या तो संसार की रचना करता है तथा सभी वस्तुओं की उत्पत्ति करता है या ब्रहमाण्ड का स्वरुप धारण करता है। ब्रहम सभी पदार्थों , प्रणियों एवं पंथों में समान रुप से पाया जाता है। यह अपने अलग अलग स्वरुप एवं नाम के रुप में जाना जाता है । इसी काल में ब्रहम मोक्ष पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धान्त के विचारों की उत्पत्ति हुई है।ब्रहम अथवा परमात्मा एक है उसे प्राप्त करना अथवा मोक्ष प्राप्त करना जीवन का सबसे प्रमुख आदर्ष रहा है । बाद में तैंतीस कोटि देवी देवताओं की परिकल्पना साकार हुई है ।ऋग्वेदकाल में सार्वभौमिक आर्य या वैदिक धर्म एवं सभ्यता उत्तरवैदिक काल में परिस्कृत एवं परिमार्जित होकर हिन्दू संगठन के रुप में उभरा है ।
हिन्दू शब्द हमारे प्रचीन साहित्य में नहीं मिलता है। आठवीं एक तंत्र ग्रंथ में इसे हिन्दू धर्मावलम्बी के रुप में न लिखकर एक जाति या समूह के रुप में पहली बार लिखा गया है ।डा राधाकुमुद मुकर्जी के अनुासार भारत के बाहर इस शब्द का प्राचीनतम उल्लेख अवेस्ता और डेरियस के शिलालेखों में प्राप्त होता है । ‘‘हिन्दू शब्द विदेशी है तथा संस्कृत अथवा पालि में इसका कहीं भी प्रयोग नहीं मिलता है । यह धर्म का वाचक न होकर एक भूभाग के निवासी के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है।सातवीं सदी में चीनी यात्री इत्ंिसग ने लिखा है कि मध्य एशिया के लोग आर्यावर्त या भारत को हिन्दू कहते हैं । इसलिए सिन्धु के इस पार के लोगों को सिन्धू के बजाय हिन्दू या हिन्दुस्तानी कहने लगे थे । 19वीं शताब्दी में अंग्रेज भी इस धर्म के लोगों के लिए हिन्दूज्म कहना शुरु कर दिया था । ’’
भारत में प्रारम्भ में नीग्रो ,औश्ट्रिक , द्रविण, आर्य एवं मंगोल आदि आते गये। वे यहां के समन्वयकारी संस्कृति में समाहित होते रहे । यूची, शक, हूण , तुर्क, आभीर , मुस्लिम एवं अंग्रेज भी यहां आये और इस देश की संस्कृति और सभ्यता के अंग बन गये। ये यहां के चतुर्वर्णों में अच्छी तरह घुलमिल गये ।चूंकि इन सबको एक सूत्र मे पिरोने की सबसे बुद्धिमान जाति आर्यों की थी इसलिए इनकी संस्कृति का नाम भी आर्य संस्कृति ही पडा ।
आर्यों अथवा तथाकथित हिन्दूओं की संस्कृति की पाचन शक्ति बहुत प्रचण्ड एवं लचीला था । सभी आनेवाली नई संस्कृतियां इसी में खप गयीं। नीग्रो से लेकर हूणों तक की सभी जातियां इस लचीलेपन के कारण आर्य समाज के अंग बन गये । फिर कुछ समय बाद इस सार्वभौमिक धर्म में कुछ सांस्कृतिक विद्रोह उठा जो बौद्ध एवं जैन धर्म के रुप में उभरा फिर इसी मूल धर्म में समा गया । भारत में आने वाला इस्लाम भी अपना अस्तित्व लेकर आया परन्तु यहां के गंगा यमुनी समन्वय की संस्कृति में वह भी कुछ परिवर्तित होकर
भारतीय संस्कृति के अंग बन गये तथा कुछ अरब आदि देशों के सम्पर्क एवं प्रभाव में रहते हुए अपनी स्वतंत्र एवं कट्टरवादी सत्ता बनाये रखने में समर्थ भी रहे हैं । ना तो ’’ बसुधैव कुटुम्बकम् ’’ की क्षूता रखने वाली , आर्य सनातनी , अखिल ब्रहमाण्ड जैसी विशाल हृदय रखने वाली व्यापक संस्कृति के पुरोधाओं को हिन्दू धर्म एवं हिन्दू राष्ट्र का आवहान कर अपने अन्दर पहले से ही समाहित पृथक पृथक छोटे ग्रहों जैसी संस्कृति व उसके अनुयायियों को भयाक्रान्ता करने का प्रयास करना चाहिए और ना ही अपनी उपासना की पृथक पहचान रखनेवाले अन्तवर्ती किसी सहयोगी धर्म और संस्कृति के अनुनायियों को किसी प्रकार से स्वयं को असुरक्षित अनुभव करने देना चाहिए। राजनीतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक किसी भी प्रकार के किसी भी व्यक्ति को भारतीय सनातनी एवं समन्वय की संस्कृति को महिमामण्डित करने की छूट नहीं देनी चाहिए औ ना ही किसी को इससे किसी प्रकार से अपने को असुरक्षित समझने की मानसिकता ही रखनी चाहिए। भारतीय आर्य संस्कृति महासमुद्र के समान है जिसमें अनेक संस्कृतियां नदियों जैसी विलीन हो गयी हैं और जिनका पृथक एवं स्वतंत्र अस्तित्व खडा करना मुश्किल हो गया है ।
आज हमे अपने उसी प्रचीन परम्परा को अपनाकर सभी छोटी छोटी संस्कृतियों को अपने दिल तके जगह एवं पनाह देते हुए भारत जैसी विश्व प्रकृति की संस्कृति का निर्माण ’’ बसुधैव कुटुम्बकम् ’’ एवं ’’सर्वेभवन्तु सुखिनः ’’ की भावना से करना चाहिए । शरीर के अंगों की भांति इन संस्कृतियों के पालको को भी इस यथार्थ को आत्मसात कर एक अखण्ड विश्व की परिकल्पना को साकार करने का प्रयत्न करना चाहिए। इतना सब होने के बावजूद सभी पृथक पृथक धर्म एवं सम्प्रदाय अपनी पृथक पृथक एवं स्वतंत्र पूजा एवं उपासना पद्धति व परम्परा को सदाशयता के साथ अपनाते हुए सभी को सम्मान एवं आदन करना चाहिए।
राधेश्यामजी,
ऐतिहासिक तौर पर आप सही होंगे. किंतु व्यवहारिक तौर पर आज हिंदू एक धर्म का रूप ले चुकी है. इसे नकारना अब मुश्किल है. स्कूल, कालेज व नौकरियों के फार्मों में भी धर्म की जगह हिंदू एक विकल्प होता है. आज जब हिंदू राष्ट्र की स्थापना की ओर भाजपा बढ़ रही है तब हिंदू को धर्म नहीं जीवन शैली कहने से कोई नहीं मानेगा. आप इस पर पुनः विचारें.
मान्यवर आयेन्गर जी.
यदि सिद्धान्त सही रहता है तो व्याहरिक रूप से हम उसे अपने अनुरूप ढाल सकते हैं.यदि हम सिद्धान्त में हई गलत रहेंगे तो व्यवहार किस पर आधारित करेंगे? मेरा चिंतन आर्य संस्कृति सनातन हिंदू धर्म पढ़ आधारित है.और आपकी आलोचना तथा कथित बीजेपी एवं आरआर एस के विचारों के प्रतिवाद स्वरूप है.आप निह्सँदेह सही हो सकते हैं ,परंतु हम कदापि ग़लत नहीँ हो सकते हैं.इसपर पुनः विचार करने का प्रश्न ही नही उठता.
Hindu dharm kaa aapne jo vishleshan kiya hai mujhe bahut pasand aaya. Yastatv me hindu dharm ek vishal sagar hai. yeh ek vichardhara he nahi apitu jeene ka ek behtar tareeka hai
Y.P.Agarwal
Agra.