मैं बचपन से ही किताबों से
बहुत प्रेम करता हूं,
पहले लोटपोट, मधु मुस्कान, नंदन
गुड़िया जैसी किताबों का चस्का लगा था
धीरे धीरे सरिता,कादम्बिनी, माया
निरोगधाम जैसी पत्रिकाओं का शौक
मुझे सातवें आसमान पर पहुंचा देता था।
किताबें पढने के जुनून ने
10 साल की उम्र में ही मुझे
बसस्टेण्ड पर लाकर खडा कर दिया
जहॉ ब्रजकिशोर मालवीय और संजीव डे
हरी मालवीय के बुकस्टाल से
कमीशन से किताबें लेता और
बस स्टेण्ड पर आने वाली
हर बस के बाहर
जोर’जोर से आवाजे देकर
किताबें बेचता और बचे समय में
किताबें पढने के शौक को पूरा करता
अक्सर मैं किताबों का बस्ता
दुकान पर जमा करने की बजाय
घर ले जाता,ताकि
रात गये इत्मीनान से किताबें पढ सकूं।
युवावस्था में कदम रखते ही
मैंने पेपर-किताबें बेचना बंद कर दिया
तब मै बुकस्टालों पर जाता
जहॉ घन्टों एक एक किताब और उसके
लेखक का नाम देखकर खडा रहता
मॅहगी मनपंसद किताब खरीद पाना
तब मेरे लिये एक सपना बनकर रह गया।
तब किताबे पढने के लोभ में मेरे कदम
अनायास ही शहर की गिनी चुनी दो
लायबेरिया तक मुझे पहुचाते।
लाइब्रेरी से किराये पर किताबें लाना
लालटेन और चिमनी के उजाले में
बिस्तर में बैठे-लेटे पढ़ना
आज भी याद है ।
उन दिनों स्कूल की किताबों में
चोरी छिपे रानू, गुलशन नंदा,
बंकिम चंद्र, आचार्य चतुरसेन, प्रेमचंद
अमृता प्रीतम,, भीष्म साहनी, कृष्णचन्द्र
शिवानी, भारतेन्दु हरिश्चन्द
जासूसी उपन्यास कार ओमप्रकाश शर्मा
दार्शनिक, ओशो और
मैकियावेली में किसी एक को
रात 10 बजे के बाद सोते ही
किसी एक लेखक को सुबह होने
तक पढना, जुनून था मेरा।
अनेक बार लालटेन में तेल खत्म होने पर
दिये में बाती डालकर रात की
निशब्दता में, या म्युनिस पार्टी के खंभे
के नीचे खडे होकर उन्हें पढ़ने का
आनन्द ही कुछ और था।
एक किताब का २० पैसे
प्रतिदिन किराया लाइब्रेरी में
देकर किताबे पढना
अपने में गर्वित करता था।
उस समय पत्रिकायें
धर्मयुग, दिनमान रविवार
समाचार पत्र प्रचण्ड, बिलिस्टस,नईदुनिया
पढने का आनंद ही कुछ ओर था,
क्योंकि
तब घरों में बिजली तक नहीं पहुंची थी
और मरफी कंपनी के रेडियो से
आकाशवाणियों से सुबह शाम समाचार
और फिल्मी गानों का कार्यक्रम
सबका समय निर्धारित था ।
समय के साथ लाइब्रेरी से किताबें
लाना बंद कर, मैंने खुदके लिये इन्हें
खरीद कर पढना शुरू किया।
साल दर साल गुजरते गये
मैं किताबे खरीदता और पढता रहा
साहित्यिक किताबों का अंबार लगने पर
मैंने हजारों रुपये मूल्य की किताबें
एक स्कूल में बच्चों की लाइब्रेरी को दे दी।
शेष दो सैकड़ा बेशकीमती किताबें
मैंने केंद्रीय जेल होशंगाबाद में
कैदियों में आत्म सुधार के लिये दे दी।
कुछ कानूनी और चुनिंदा दुर्लभ किताबें
आज भी मेरी अलमारी में मेरा
इंतजार करती है, वे ताकती है
बडी हसरत लिये कि
मैं अलमारी के शीशों से उन्हें मुक्त कर
उन किताबों से मिलू, उन्हें पढू
ठीक उसी प्रकार जैसे मेरी कई शाम,
सुबह और रातें
इन किताबों की सोहबत में
उनके एक-एक पन्ने के एक एक शब्द को
हाथों के स्पर्श ही नहीं अपितु
आँखों से प्रेम,करुणा और आक्रोश का
भाव मिलने पर ये शब्द जीवंत हो जाते थे।
मैं अब कम्प्यूटर पर अपना
ज्यादातर समय देकर भूल गया हू
अल्मारी में बंद किताबों को
पीव जो मेरा आज भी इंतजार करती है।
आत्माराम यादव पीव