मनमोहन कुमार आर्य,
महाभारत काल के बाद से वेद और वैदिक धर्म का निरन्तर पतन देखने को मिल रहा है। ऋषि दयानन्द के जीवन में ऐसा भी समय आया जब वेद लुप्त-प्रायः हो गये थे। महाभारत काल के बाद वेदों के सत्य अर्थों का देश व समाज में प्रचार रहा हो, इसका प्रमाणित विवरण प्राप्त नहीं होता। वेदों के लुप्त होने का कारण क्या था? इसका कारण यही था वेदों के विद्वानों ने अपने कर्तव्यों की उपेक्षा कर लोगों को वेदाध्ययन कराना बन्द कर दिया था। यदि देश में वेदों के ऋषि, योगी व विद्वान होते और वह अपने जीवन का मुख्य कर्तव्य वेदों की सत्य शिक्षाओं के प्रचार को ही बनाते, तो वेद विलुप्त न होते और ऐसा होने पर देश और समाज में मिथ्या अन्धविश्वास, यज्ञों में पशु हिंसा, यम व नियमों का जीवन में त्याग, सामाजिक भेदभाव व अन्य अन्धविश्वास व पाखण्ड भी उत्पन्न न होते। बताया जाता है कि महाभारत के लगभग 2000-2500 वर्ष बाद देश में यज्ञों में पशु हत्या, अश्व, गाय, बकरी व भेड़ आदि के मांस से यज्ञों में आहुतियां दी जाने लगी थी। इसका कारण वेदों के शब्दों के अर्थों में भ्रान्तियों का होना मुख्य था जिसका कारण तत्कालीन याज्ञिकों का अज्ञान था। उस समय भी देश में बड़े बड़े कुछ व्याकरणाचार्य तो रहे ही होंगे परन्तु उन लोगों ने वेदों के अर्थों का अनर्थ करने वालों को समझाया नहीं और न ही शास्त्रार्थ की चुनौती दी।
यह भी हो सकता है कि यज्ञों में पशु हिंसा करने वाले लोग जानते हुए भी अनजान बन रहे हों और उनके पास सच्चे विद्वानों से अधिक शक्ति रही हो। जो भी रहा हो यज्ञों में पशु हिंसा होती थी जिससे बौद्ध मत का प्रादुर्भाव हुआ। बौद्ध मत के आविर्भाव के कारण बहुत से लोगों ने यज्ञों को करना छोड़ दिया और महात्मा बुद्ध के अनुयायी बन गये। महात्मा बुद्ध की मृत्यु के बाद धीरे धीरे उनकी मूर्ति की पूजा आरम्भ हुई। जैन मत ने भी मूर्ति पूजा को स्वीकार किया और दोनों मत अपने आद्य आचार्यों, महात्मा बुद्ध व महावीर स्वामी, की मूर्तियों की पूजा अर्चना करने लगे। समय के साथ इनका विस्तार होता गया। कुछ काल बाद सनातन वैदिक मत का प्रभाव कम होने लगा। ऐसे समय में स्वामी शंकराचार्य जी का देश में आगमन हुआ जिन्होंने जैन व बौद्ध मत के ईश्वर के अस्तित्व को न मानने की मान्यता का खण्डन किया। उन्होंने शास्त्रार्थ में उनके ईश्वर को न मानने की मान्यता का खण्डन कर उन्हें पराजित किया। इससे देश में वेदान्त दर्शन, उपनिषद व गीता आदि ग्रन्थों में वर्णित स्वामी शंकराचार्य जी की अद्वैत विचारधारा के अनुरुप ईश्वर के स्वरूप का प्रचार हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में वेद और वैदिक मत की मान्यताओं का कुछ कुछ प्रचार व प्रसार हुआ। हानि यह हुई कि सब लोग स्वयं को ईश्वर का अंश व साक्षात् ईश्वर ही मानने लगे। स्वामी शंकराचार्य जी का जीवन अति अल्प जीवन था। उनके विरोधियों ने उन्हें विष देकर अल्पायु में ही उन्हें मार डाला। उनकी मृत्यु हो जाने के बाद बौद्ध व जैन मत पुनः क्रियाशील हो उठे और वैदिक धर्मानुयायियों में पुनः अन्धविश्वासों व सामाजिक बुराईयों का बढ़ना आरम्भ हो गया। इस प्रकार देश अन्धविश्वास, पाखण्ड व समाजिक कुरीतियों से त्रस्त होकर पाषाण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद आदि से बने अविद्या के जंजाल में फंस गया। इन सामाजिक बुराईयों में एक बुराई जन्मना जातिवाद भी है। इस जन्मना जातिवाद में मनुष्यों को एक समान न मानकर छोटा-बड़ा अथवा ऊंचा व नीचा माना जाता है।
सामाजिक भेदभाव मध्य युग की देन है जब भारत सहित सारा विश्व अज्ञान में भरा हुआ था। इस काल में देश विदेश में जो भी मत उत्पन्न हुए उन सबका अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि सभी मतों में अज्ञान व अन्ध-विश्वास भरे हुए हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें से चैदहवें समुल्लास में विश्व के प्रमुख मत-मतान्तरों की अवद्यिा को उन्हीं ग्रन्थों के उदाहरण देकर सिद्ध किया है। अविद्या से यदि कोई धार्मिक ग्रन्थ मुक्त है तो वह केवल ईश्वरीय ज्ञान वेद व ऋषि मुनियों के बनाये दर्शन, उपनिषद आदि ग्रन्थ ही हैं। मध्यकाल में जो अविद्यायुक्त आचार्य हुए उन्होंने अपने अपने अविद्यायुक्त मतों को प्रचारित करने के लिए मनुस्मृति, रामायण, महाभारत व ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में भी अविद्यायुक्त कथनों को मिलाकर उनसे प्रक्षिप्त किया है। विवेक बुद्धि से इन्हें हटाया जा सकता है। ऐसा ही एक प्रयास आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली के संस्थापक महात्मा दीपचन्द आर्य, पं. राजवीर शास्त्री और डा. सुरेन्द्र कुमार जी के प्रयत्नों से हुआ था। इन्होंने मनुस्मृति के प्रमुख व अधिकांश सिद्धान्त विरुद्ध, प्रसंग विरुद्ध व वेद विरुद्ध कथनों वा मान्यताओं को मनुस्मृति से सप्रमाण पृथक किया है। भेदभाव केवल हमारे सनातनी पौराणिक मत में होता है ऐसी बात नहीं है अपितु यह तो सभी वेदेतर मतों में, कुछ में कम और कुछ में हमसे भी अधिक विद्यमान है। सब मतों की ईश्वरोपासना की विधियां पृथक पृथक है। हम जानते हैं कि ईश्वर एक है। उसका सत्य स्वरूप वही है जो वेदों वा ऋषिकृत वैदिक साहित्य में वर्णित है। ईश्वर की प्राप्ति की विधि उसके सत्य गुणों को जानकर स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि करने से होती है। उपासना में ही ईश्वर के गुणों का ध्यान व उसके अनुसार अपने गुण-कर्म-स्वभाव का सुधार करना अनिवार्य होता है। योगदर्शनकार ऋषि पतंजलि ने ईश्वर की उपासना के लिए ही योगदर्शन का प्रणयन वा निर्माण किया। सौभाग्य से यह ग्रन्थ सुरक्षित व अनेक भाष्यकारों की टीकाओं के साथ उपलब्ध है। यह योग दर्शन किसी मत विशेष के लिए नहीं अपितु संसार के सभी मनुष्यों के लिए लिखा गया है। देखने में आता है कि सभी मतों के आचार्य व उनके अनुयायी दूसरे मतों के आचार्यों के कथनों को संशय की दृष्टि से देखते हैं, अतः वह कभी सत्य मत, निभ्र्रान्त ज्ञान व ईश्वर को प्राप्त नहीं हो सकते। इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले सत्यमत को निश्चित किया जाये। इसके लिए वेद, ऋषिकृत वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य आदि ग्रन्थ सहायक हैं। जिन लोगों ने इन ग्रन्थों का आश्रय लिया है वह सत्य मत व सत्य ज्ञान को प्राप्त हो जाते हैं और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को अपने अपने ज्ञान व कर्मों के अनुसार प्राप्त करते हैं वा उसके निकट पहुंचते हैं।
आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों को नहीं मानता। विज्ञान का कार्य सृष्टि में कार्यरत ईश्वर के बनायें नियमों की खोज करना व उनका सदुपयोग कर उपकार लेना है। यही कार्य हमारे ऋषि और विद्वान भी करते रहे हैं। विज्ञान की एक विडम्बना यह है कि वह आंखों से दिखाई न देने के कारण ईश्वर व आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता। यह एक प्रकार का अज्ञान व दंभ है। विज्ञान आज तक शरीर में आत्मा होने पर भी आत्मा को नहीं जान सका। यह संसार किससे बनता व किसके द्वारा चलाया जा रहा है, इसका उत्तर भी विज्ञान के पास नहीं है। इस सृष्टि की आने वाले वर्षों में भले ही वह लगभग दो अरब वर्ष बाद हो, प्रलय होगी। उस आगामी सृष्टि की प्रलय की अवस्था के बाद कौन सृष्टि की रचना करेगा एवं वर्तमान सृष्टि बनने से पूर्व की प्रलय अवस्था के बाद किस शक्ति व सत्ता द्वारा सृष्टि की रचना की गई, इन प्रश्नों का यथार्थ उत्तर वैज्ञानिकों के पास नहीं है। इसका उत्तर हमारे वेदों व वैदिक दर्शनों में तर्क, विवेचना व दृष्टान्तों को प्रस्तुत कर दिया गया है जो यथार्थ व बुद्धिसंगत एवं तर्क से सिद्ध है। अस्तु। अतः विज्ञान में जिस प्रकार से तर्क के आश्रय से सत्य सिद्धान्तों को स्थिर किया जाता है, उसी प्रकार तर्क के आश्रय से भेदभाव को समझने व उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
हम देखते हैं कि संसार में सभी मनुष्य शरीर व समान इन्द्रिय वाले हैं। सबके शरीरों की बनावट, आकृति आदि में अधिकांशतः समानता है और सबके पास समान रूप से पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार आदि हैं। भौगोलिक कारणों व माता-पिता आदि के शरीरों के समान ही सन्तानों के शरीर व उनकी त्वचा आदि का रंग होता है। देश में सबको समान रूप से शिक्षा के अवसर न मिलने के कारण सभी लोगों को समान रूप से बौद्धिक व आत्मिक ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता। यदि सबको एक समान सुविधिायें मिले तो हमें लगता है कि श्रमिक व निर्धन परिवारों के लोग, जिनके साथ आजकर भेदभाव का व्यवहार किया जाता है, वह धनी व उच्च जाति के लोगों से कहीं अधिक आगे जा सकते हैं। मनुष्य मनुष्य में जाति, रंग-रूप, धन-सम्पति, देश व स्थान आदि के आधार पर भेदभाव करना अमानवीय एवं मनुष्यता के विरुद्ध है। वेदों एवं प्रामाणिक वैदिक शास्त्रों में जन्म के आधार पर व अन्यथा मनुष्य-मनुष्य में परस्पर किसी प्रकार के भेदभाव का किंचित उल्लेख नहीं है। वेद मनुष्यों की एक ही जाति स्वीकार करते हैं जिसे मनुष्य जाति कहते हैं। मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभावों में अन्तर के कारण वेद में अच्छे गुणों व कर्मों वालों को आर्य व इसके विपरीत बुरे गुणों व स्वभाव वालों को दस्यु कहा गया है। जन्म, जाति, निर्धनता तथा रंग-रूप आदि के कारण जो भेदभाव किया जाता है वह धार्मिक पाप है। भेदभाव करने वाले ऐसे लोग आर्य व मनुष्य नहीं अपितु दस्यु श्रेणी के लोग हैं परन्तु समाज अज्ञानता व स्वार्थ आदि के कारण ऐसा नहीं मानता। यह आधुनिक युग का एक बहुत बड़ा आश्चर्य है।
आज हमारा देश व समाज जन्मना जाति के आधार पर असंगठित व टूट सा रहा है। विदेशी मत-मतान्तर के लोग भारतीय मतों के लोगों को धर्मान्तरित कर व अधिक सन्तानों को जन्म देकर अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं। इसके साथ ही वह गरीब, निर्धन, दलितों व शोषितों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रलोभन देकर उन्हें अपने ही परिवारों व बन्धुओं से दूर कर रहे हैं। वह अनेक विवाह करते हैं, दिखावी प्रेम कर हमारे धर्म व संस्कृति की अपरिपक्व कन्याओं को फंसाकर उन्हें विवाह का नाटक कर अपनी जनसंख्या को बढ़ाने का काम करते हैं। देश व समाज के कानून ऐसे लोगों को उचित सजा नहीं दे पाते। अतः आर्य हिन्दू वैदिक बन्धुओं को अपने धर्म की रक्षा के लिए आज के संक्रमण काल में अपने धार्मिक विचारों व मान्यताओं में समयानुरूप व वेद की शिक्षाओं के आधार पर उचित परिवर्तन करना होगा। संसार के सभी मनुष्य एक परमात्मा के बनायें हुए हैं। किसी के भी साथ जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिये अपितु समाज से सभी प्रकार के भेदभावों को दूर करना चाहिये। इसके लिए हमें अपने मनों में से सभी प्रकार के भेदभाव से सम्बन्धित अज्ञान व कुण्ठाओं को दूर करना होगा। दलितों, पिछड़ों, शोषितों व निर्धनों को अपने गले से लगाना होगा। ऐसा करने से ही हम अपने धर्म व संस्कृति को बचा सकते हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो हमारी धर्म व संस्कृति लुप्त व नष्ट हो सकती है और हमें दूसरे सगठित व शक्ति सम्पन्न मतों में मिलने पर मजबूर किया जा सकता है। अतः आर्यो, हिन्दुओं, ईश्वर व भारत को मातृभूमि मानने वाले बन्धुओं! अपने सभी अन्धविश्वास, पाखण्ड, मिथ्या पाखण्ड और परम्पराओं को अविलम्ब व तत्काल दूर करो और ऋषि दयानन्द के सुझाये मार्ग पर विचार करो। सत्यार्थप्रकाश अपने सभी अन्धविश्वास, मिथ्या मान्यताओं व सामाजिक बुराईयों को दूर करने का मार्ग प्रशस्त करने में एकमात्र सहायक ग्रन्थ है। इसकी शरण लेकर, इसका स्वाध्याय कर व इसकी शिक्षाओं का पालन करो। ईश्वर व सनातन वैदिक धर्म को किसी भी रूप में मानने वाले अपने सभी शोषित, पीड़ित व दलित भाईयों को अपने गले से लगाओं। उनके दुःख दूर करने में जो कर सकते हो, करो। ऐसा नहीं करोगों तो आपकी आने वाली पीढ़ियां शायद आपके मत, आपके विचारों, आपके धर्म व संस्कृति वाली न रहे। कुटिल मत-मतान्तर वाले लोग कहीं हिंसा आदि का डर दिखाकर कही उन्हें वैदिक धर्म व संस्कृति से दूर न कर दें व उन्हें हड़प न ले जैसा अतीत में होता रहा है।
हम आर्यसमाज व हिन्दू समाज के सभी विद्वानों व नेताओं को धर्म रक्षा पर विचार कर एक सर्वमान्य योजना बनाने की अपील करते हैं जिससे हमारा प्राचीन धर्म व संस्कृति सुरक्षित रह सकें। स्वामी शंकराचार्य जी के जीवन की एक घटना को देकर लेख को विराम देते हैं। कहते हैं कि बौद्ध आदि नास्तिक मतों का प्रभाव बढ़ने और वेदमत का प्रभाव कम होने लगा था। इस दुःख से दुःखी एक आर्य कन्या अपने घर में चीत्कार कर रही थी। वह कह रही थी कि हमारा प्रिय वैदिक धर्म लुप्त व प्रभावहीन हो रहा है। क्या यह नष्ट हो जायेगा या इस वेदमत की कोई रक्षा करेगा? जिस स्थान पर कन्या यह विलाप कर रही थी, स्वामी शंकराचार्य उसी गली से गुजर रहे थे। उन्होंने वैदिक धर्मानुयायी कन्या के शब्दों को सुना तो तत्काल बोले, पुत्री तुम चिन्ता मत करो, जब तक इस धरती पर शंकराचार्य जीवित है, कोई वैदिक धर्म का लोप नहीं कर सकता। मैं वैदिक धर्म की रक्षा करुगां। उसके बाद उन्होंने जो किया वह इतिहास सर्वविदित है। स्वामी शंकराचार्य के उन्हीं शब्दों को सत्य सिद्ध करने वाले ऋषि दयानन्द जी के वैदिक धर्म की रक्षा संबंधी सत्य सिद्धान्त आज हमारे पास उपलब्ध हैं। करना इतना है कि हम वेदों का स्वाध्याय कर उन सिद्धान्तों को अपनायें, अपनी अविद्या दूर करे, सभी अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या परम्परायें एवं सामाजिक भेदभाव दूर करें। इसके विपरीत गति व आचरण करने के कारण ही हमारी दुर्दशा हो रही है। यदि हम नहीं सम्भले तो आगे गड्ढ में गिर कर नष्ट हो सकते हैं। अब कोई शंकराचार्य व दयानन्द हमारी रक्षा के लिए आयेगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता।