डॉ॰ भीमराव आंबेडकर और उनकी धर्म विषयक अवधारणा

विवेकानंद तिवारी

डॉ॰ भीमराव आंबेडकर  को हम संविधान निर्माता के रूप में जानते हैं,हालांकि विधि विशेषज्ञ होने के साथ-साथ डॉ॰ भीमराव आंबेडकर  एक प्रख्यात अर्थशास्त्री ,शिक्षा शास्त्री और सबसे बढ़कर मानवतावाद की पोषक थे. भारतीय समाज व्यवस्था में सामाजिक न्याय के योद्धा के रूप में भीमराव अंबेडकर का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण है. डॉ॰ भीमराव आंबेडकर  का एक पक्ष उनकी धार्मिक संकल्पना का भी है. हम सभी लोग जानते हैं कि डॉ॰ भीमराव आंबेडकर  ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले ही हिंदू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया था .31 मई, 1936 को मुंबई में महार परिषद के जलसे में बाबा साहब ने कहा था की “मनुष्य धर्म के लिए नहीं है ,धर्म मनुष्य के लिए है. धर्म एक साधन मात्र है जिसे बदल दिया जा सकता है ,फेंक दिया जा सकता है”.
उपर्युक्त कथन को बहुत सारे अघोषित बौद्धिक विद्वानों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित किया है इसी क्रम में मुझको भी “बाबा साहब डॉ॰ भीमराव आंबेडकर  का सामाजिक दर्शन” नामक पुस्तक पढ़ने का अवसर मिला. मूल रूप से यह पुस्तक बाबा साहब डॉ॰ भीमराव आंबेडकर  की 4 सामाजिक क्रांतिकारी व्याख्याओं का संशोधित प्रमाणिक अनुवाद है जिसके अनुवादक शिवमूर्ति जी हैं .पुस्तक को पढ़ने के दरमियान तमाम ऐसी बातों से अवगत होते हुए चलना पड़ा जिन्हें मेरा मन मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर पा रहा था और वर्तमान समय में जिस प्रकार बाबा साहब का नाम लेकर सभी राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेकने में लगे हैं यह जानना नितांत आवश्यक हो जाता है कि बाबा साहब अपनी समय में सामाजिक रूढ़ियों ,धार्मिक रूढ़ियों और धर्म की व्याख्या के क्रम में दकियानूसी विचारों को किस क्रम में परिभाषित करते हैं ??
इस पुस्तक में धर्म को व्याख्यायित करते हुए बाबा साहब कहते हैं कि “धर्म की कई लोगों ने कई प्रकार से व्याख्याएं की है. यह आपको मालूम होगा उन सब में अर्थपूर्ण और जिससे सभी सहमत हो सके ऐसी एक ही व्याख्या है. जिससे सारी प्रजा का धारण होता है,वही धर्म है .यही धर्म की सही व्याख्या है .धर्म की यह परिभाषा मैंने नहीं की है ,यह परिभाषा सनातनी हिंदुओं के अग्रगण्य संरक्षण शीलनेता लोकमान्य तिलक महाशय ने की है .मुझे भी धर्म की यह परिभाषा मंजूर है .समाज के धारण के लिए जो बंधन डाले गए हैं वह धर्म है, यही मेरी भी धर्म संबंधित कल्पना है”.
बाबा साहब के उपर्युक्त कथनों से यह स्वयं सिद्ध है कि बाबा साहब कभी भी धर्म को पिछड़े समाज का द्योतक नहीं समझते थे .उनकी नजर में धर्म की विराट संकल्पना निहित थी और इसी क्रम में उन्होंने जब हिंदू धर्म का त्याग किया तो हिंदू धर्म के ही प्रगतिशील अंग या कहूं प्रस्थान बिंदु बौद्ध धर्म में जाकर शरणागत हुए.धर्मांतर का रास्ता पलायनवाद का रास्ता नहीं है ,यह एक समझदारी का रास्ता है .मनुष्यता का रास्ता है .
हिंदू धर्म में मौजूद तत्कालीन कुरीतियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने कहा कि मरने पर आत्मा का क्या होगा यह बताने वाला धर्म अमीरों ,सेठ -साहूकारों ,जमीदारों ,पंडा- पुरोहितों के उपयोग का हो सकता है .फुर्सत के समय ऐसे धर्म पर सोचना लतीफों से अपना मनोरंजन करने वाली बात है .
इसी पुस्तक में नेपाल में आयोजित “विश्व बौद्ध सम्मेलन” में दिया गया उनका भाषण “बुद्धत्व और साम्यवाद” नामक एक निबंध के रूप में संकलित है ,जिसमें साम्यवाद की आलोचना करते हुए उन्होंने कहां की कार्ल मार्क्स कहता है कि “संपत्ति का स्वामी केवल राष्ट्र है, इसीलिए राष्ट्र पर श्रमिक वर्ग का पूरा नियंत्रण होना चाहिए .सरकार का संचालन शोषित वर्ग द्वारा होना चाहिए,शोषक वर्ग द्वारा नहीं .श्रमिक वर्ग की तानाशाही का यही अर्थ है .और इसी क्रम में लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्ध ने यह बात कही थी कि संसार में दुख है .उन्होंने शोषण शब्द का प्रयोग नहीं किया .अपने धर्म की आधार भूमि दुख पर स्थापित किया, विश्व में दुख है”, और इस दुख और शोषण की विवेचना करते हुए बाबा साहब कहते हैं कि बुद्ध का रास्ता लोगों को समझा-बुझाकर, नैतिक शिक्षा एवं प्रेम के द्वारा इस रास्ते पर लाना है वह प्रेम के द्वारा विरोधियों पर अपना प्रसार करना चाहता है….. शक्ति के द्वारा दमन करके नहीं .मौलिक अंतर यही है कि “साम्यवाद जो कार्य हिंसा के द्वारा संपादित करना चाहता है वही कार्य बुद्ध अहिंसा के द्वारा संपादित करना अधिक समीचीन समझते हैं”.
इसमें संदेह नहीं कि साम्यवादी ,शक्ति के द्वारा परिणाम को तुरंत प्राप्त करते हैं क्योंकि जब शक्ति के द्वारा किसी का दमन करती हैं तो उसके विरोधियों के अंदर विरोध करने की क्षमता नहीं रह जाती है . साम्यवादी हिंसात्मक तरीके से श्रमिक वर्ग की तानाशाही की स्थापना करना और समस्त जनता को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखना चाहते हैं और इसी क्रम में बाबा साहब सनातन धर्म से उत्पन्न बौद्ध धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि- “बौद्ध धर्म की व्यवस्था जनतांत्रिक है और यही उसकी महानता है .वैचारिक क्रांति के लिए वहां शक्ति के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है “.अजातशत्रु का प्रधानमंत्री बुद्ध के पास यह बताने के लिए गया कि वह वज्जियों पर विजय प्राप्त करना चाहता है .बुद्ध ने कहा जब तक वज्जि निवासी अपनी प्राचीन पद्धति को अपनाते रहेंगे सम्राट अजातशत्रु ऐसा नहीं कर पाएंगे .इसमें संदेह नहीं है कि प्राचीन जनतांत्रिक पद्धति से उनका तात्पर्य उस व्यवस्था से है जो उस समय वज्जियों में प्रचलित थी. तथागत महान जनतांत्रिक प्रणाली के प्रेणा थे……
इसी निबंध में ईसाई धर्म की व्याख्या करते हुए बाबा साहब ने कहा है कि आपको यह जानकर आश्चर्य होगा और हम में से अधिकांश आश्चर्यचकित होते हैं कि ईसाई धर्म में बौद्ध धर्म से संगठन और विषय वस्तु में बौद्ध धर्म की 90% नकल की है .आप रोम का दृष्टांत ले लीजिए वहां के गिरजाघर को देखिए वह बेरूत, सीरिया के विश्वकर्मा मंदिर से समानता रखता है.
कार्ल मार्क्स और धर्म विषयक अवधारणाओं पर विचार करते हुए बाबा साहब ने माना है कि मन को पवित्र और सुसंस्कृत बनाना जरूरी है. जिन देशों के लोग यह मानते हैं कि खाने पीने से सुसंस्कृत मन का कोई संबंध नहीं है, ऐसे देश और वहां की जनता से संबंध रखना हमारे लिए लाभदायक नहीं होगा .मनुष्य मात्र की उन्नति के लिए धर्म की आवश्यकता है .
बाबा साहब, कार्ल मार्क्स के इस मत से बिल्कुल सहमत नहीं है कि धर्म कुछ भी नहीं है ,उनके(कार्ल मार्क्स)लिए धर्म का कोई महत्व नहीं है .उनका धर्म केवल यह है कि उन्हें प्रातः काल मक्खन लगे हुए टोस्ट ,दोपहर को खाने के लिए स्वादिष्ट भोजन ,सोने के लिए अच्छा बिस्तर और देखने के लिए सिनेमा चाहिए. यही उनका तत्वज्ञान है मैं ऐसे तत्वज्ञान का हामी नहीं हूं. धर्म की आवश्यकता गरीबों के लिए है .दुखी और पीड़ित लोगों के लिए धर्म की जरूरत होती है. गरीब मनुष्य सदा ही आशा पर जीवित रहता है .जीवन का मूल आशा में है अगर यह आशा नष्ट हो गई तो जीवन कैसे चलेगा? धर्म हर एक को आशावादी बनाता है .गरीबों और पीड़ितों को यही संदेश देता है कि घबराने की आवश्यकता नहीं क्योंकि जीवन आशा दायक है,यही कारण है कि गरीब या पीड़ित व्यक्ति धर्म को चिपका कर रखता है..
बौद्ध धर्म के ह्रास का मुख्य कारण देश पर मुसलमानों के अमानुषिक आक्रमण को मानते हुए बाबा साहब कहते हैं कि-“इस आक्रमण में हजारों मूर्तियां तोड़ी गई,  भिक्षु मारे गए.इन आक्रमण से घबराकर बहुत बौद्ध भिक्षु दूसरे देशों में भाग गए. कोई तिब्बत गए ,कोई चीन गए .कोई कहीं गया और कोई कहीं .इसका परिणाम यह हुआ कि यहां पर बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया…
इसी क्रम में ग्रीक के राजा मिलिंद(मिनांडर) द्वारा महापंडित और धर्म धुरंधर भिक्षु नागसेन से हुए वाद विवाद का जिक्र करते हुए बाबा साहब कहते हैं कि- “मिलिंद ने एक प्रश्न किया की धर्म की ग्लानि क्यों होती है??? नागसेन ने इसका उत्तर देते हुए इसके 3 कारण बताएं .पहला यह है कि सच्चा धर्म ही सदा बना रहता है, जिस धर्म के मूल में गंभीरता नहीं होती वह धर्म केवल कालधर्म होता है और समय बीतने पर ऐसा धर्म नहीं टिकता .
दूसरा कारण यह होता है कि जब धर्म प्रचार करने वाली विद्वान ही नहीं रहते तब धर्म की ग्लानि होती है .ज्ञानी लोगों को चर्चा करनी ही चाहिए. विरोधियों के वाद-विवाद- खंडन करने के लिए धर्म के प्रचारक ना हो तो भी धर्म की ग्लानि होती है.
तीसरा कारण यह है कि धर्म और धर्म के तत्व विद्वानों के लिए होते हैं ,साधारण लोगों के लिए होते हैं .जहां पर जाकर जनता अपनी श्रेष्ठ विभूतियों की पूजा करती है. धर्म की आध्यात्मिक पक्ष की चर्चा करते हुए बाबा साहब धर्म का उद्देश्य बताते हैं कि “जो लोगों को परस्पर मिला कर रखें वही धर्म कहा जाता है”. धर्म की यही वास्तविक परिभाषा है .समानता को प्राप्त करने के लिए बाबा साहब द्वारा दो मार्ग बताए गए एक है. प्रथम हिंदू धर्म की सीमा में बने रहना.दूसरा है इस धर्म का परित्याग करना, जो समानता का विरोधी है.यदि हिंदू धर्म के अंदर ही रहकर समानता प्राप्त करना है तो अस्पृश्य और स्पृश्य का भेद मिटाने मात्र से हमारा उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा. समानता केवल तभी प्राप्त की जा सकती है जबकि अंतर जातीय विवाह और अंतर जातीय खानपान निर्बाध रुप से हो. पुस्तक के आखरी हिस्से में “स्वयं प्रकाशित बनो”शीर्षक नामक उद्धरण में बाबा साहब द्वारा समस्त आम जनमानस को संदेश देते हुए कहा गया है कि-“इस संबंध में जब की मैं सोच रहा हूं ,मुझे भगवान बुद्ध का वह संदेश स्मरण हो आता है जिसे उन्होंने अपने महापरिनिर्वाण से ठीक पूर्व अपने बौद्ध संघ को दिया था और जिसे महापरिनिर्वाण सुत्त में उद्धृत किया गया है. एक बार भगवान बुद्ध अपनी रुग्णता से उबरने के पश्चात एक वृक्ष के तले विश्राम कर रहे थे .उनके शिष्य आनंद ने उनसे कहा कि भगवान आपको रुग्णता अवस्था और मुदित अवस्था दोनों में देखता आया परंतु आपकी इस बार की रुग्णता के प्रारंभ काल से ही मेरी काया शीशे की भांति भारी हो गई है .मेरे मस्तिष्क को शांति नहीं है मैं धर्म को केंद्रित नहीं कर सकता. फिर भी मुझे धैर्य और संतोष इसमें होता है कि भगवान तब तक परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होंगे जब तक संघ को संदेश नहीं दे देते .भगवान ने उत्तर दिया,आनंद संघ मुझ से क्या अपेक्षा करता है?? बिना कुछ छिपाएं हुए मैंने खुले हृदय से धर्म का उपदेश दे दिया है .तथागत ने कुछ भी छुपाया नहीं है .अस्तु आनंद! दीप की भांति स्वयं प्रकाशित बनो ,धरती की भांति प्रकाश अर्थ आश्रित ना बनो .उपग्रह मत बनो,प्रेम में विश्वास करो,अन्य ऊपर आश्रित मत बनो,सदैव विवेक का सहारा लो .किसी व्यक्ति के प्रति समर्पण मत करो .इस अवसर पर यदि तुम भगवान बुद्ध के इस संदेश को मस्तिष्क में रख लेते हो तो मैं निश्चित हूं ,तुम्हारा निर्णय त्रुटिपूर्ण न होगा………

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,054 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress