महर्षि वाल्मीकि रामकथा का अंतिम अध्याय- अयोध्या का पुनर्निर्माण और श्री राम की प्राण प्रतिष्ठा

वक्त वक्त की बात है । त्रेता युग में जिस राम ने बनों जंगलों में रहने वाले सीधे सादे वनवासियों को संगठित और प्रशिक्षित कर रावण जैसे अत्याचारी से भिड़ा दिया था और इन्हीं भीलों , निषादों, नागों से ही असंभव को संभव कर दिखाया था , उसी राम के घर को बाबर की सेना ने सोलहवीं शताब्दी में ध्वस्त कर दिया। यही महाकाल की लीला है । धीरे धीरे समय व्यतीत होने लगा । काल का पहिया घरघराता रहा । औरंगजेब से होता हुआ मुगल राज , बहादुर शाह ज़फ़र के ‘दो गज जमीन भी न मिली कूचा ए यार में’ आकर दफ़न हो गया । लेकिन इस बीच दो चीज़ें बरक़रार रहीं । श्री राम चन्द्र जी के गृह मंदिर का पुन: निर्माण करने का भारतीयों का सतत संघर्षऔर महर्षि वाल्मीकि जी की रामायण का सतत विस्तार और उसमें वाल्मीकि समाज की गहन आस्था ।समय फिर बदला । मुगल वंश काल के गाल में समा गया । क़ब्रों पर सिजदा करने वाला भी न रहा । अंग्रेज़ आए और वे भी चले गए । अपनी सरकार आई । देश के कोने कोने में आशा जगी कि श्री रामचन्द्र जी का स्मृतिस्थल जिसे मुगलों ने नष्ट कर दिया था , अब पुन: स्थापित हो जाएगा । सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से शुरुआत हो भी गई थी लेकिन फिर अपनों ने ही विरोध करना शुरु कर दिया ।

जिन पर तकिया था , वही पत्ते हवा देने लगे ।
सरदार पटेल इस विरोध को झेल गए और सोमनाथ मंदिर की पताका सागर के लहरों से एक बार फिर लहराने लगी । पटेल का देहान्त हो गया और राम मंदिर निर्माण के विरोध के स्वर और तेज होने लगे । एक ही तर्क । अब वहाँ मंदिर नहीं है , उस जगह एक मस्जिद नुमा ढाँचा है जो मुगल वंश की निशानी है । रघुवंश की निशानियों के स्थान पर मुगल वंश की निशानियों की सार संभाल को ही “अपनी” सरकार ने अपना मिशन घोषित कर दिया । कुछ निष्पक्ष लोगों ने समझाया भी कि मुगलों ने वहाँ मस्जिद न बनानी थी और न ही बनाई थी । यदि उन्हें मस्जिद ही बनानी होती तो क्या अयोध्या में जमीन की कमी थी ? कहीं भी भव्य मस्जिद बना सकते थे । राम के घर से भी बडी मस्जिद । लेकिन उनको मस्जिद नहीं बनानी थी । उन्हें तो भारत के इतिहास पुरुष दशरथनंदन श्री रामचन्द्र जी के स्मृति स्थल को नष्ट कर भारत की चेतना को घायल करना था ताकि वे भय से मुगल शासन को निर्विरोध स्वीकार कर लें । यह ढाँचा मस्जिद नहीं बल्कि मुगलों के पाप की निशानी है । इसलिए इसको हटा कर इसके स्थान पर पुनः रामचन्द्र जी के मंदिर का निर्माण कर दिया जाए । लेकिन न तो सरकार मानी और न ही भारतवंशी माने । गोलियाँ चलीं , लाठियाँ भांजी गई । सरकार मुगल वंश की निशानियाँ बचाने की जद्दोजहद करती रही और भारतीय श्री रामचन्द्र जी की निशानी को पुन: स्थापित करने के लिए रहे । अन्तत: भारतीयों मे सीने पर गोलियाँ खाकर भी मुगल वंशसरी उस निशानी को अयोध्या से हटा ही दिया । लडाई सड़कों पर भी चली और कचहरियों में भी चली । मामला यहाँ तक पहुँच गया कि सरकार ने न्यायालय में शपथपत्र देकर यहाँ तक कह दिया कि रामचन्द्र नाम का कोई राजा भारत के इतिहास में हुआ ही नहीं । सरकार राम चन्द्र को लेकर इतना ग़ुस्से में आ गई कि उसने रामेश्वर में राम सेतु के बचे खुचे हिस्से को भी तोड़ने का निर्णय कर लिया । एक बार तो ऐसा लगा मानो सरकार भारत में से रामचन्द्र जी की स्मृति से जुड़े प्रत्येक स्थल को मिटा देना चाहती है । यह भारतीय इतिहास और मुगलों की विरासत के बीच की लडाई बन गई और अपनी ही सरकार मुगलों के साथ खड़ी दिखाई देने लगी ।
भारतवंशियों ने हिम्मत करके अयोध्या में ही एक बार फिर राम लला के लिए उनका घर बना कर ही दम लिया । चाहे यह छोटा सा घर , तरपैल की छत लिए , राम की गरिमा के अनुकूल तो नहीं था, लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भारतीयों से जितना संभव हो सका , उतना उन्होंने कर दिखाया । बहुत से बुद्धिजीवी शंका करते हैं कि यदि राम इतने ही शक्तिशाली थे तो अपने घर/मंदिर निर्माण के रास्ते में आने वाली बाधाओं को ख़ुद ही दूर क्यों नहीं कर सके ? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है । यह प्रश्न एक और प्रश्न भी पैदा करता है । यदि राम इतने ही शक्तिशाली थे तो रावण , जो उनकी पत्नी का अपहरण करके ले गया था , को उन्होंने स्वयं ही क्यों नहीं मार दिया ? यह प्रश्न जायज़ है । लेकिन महापुरुषों को जनता में चेतना जागृत करनी होती है । उसमें शक्ति का संचार करना होता है । उसे न्याय और अन्याय का भान करवाना होता है । उसमें उचित और अनुचित की समझ पैदा करनी होती है । उसमें आत्म विश्वास और स्वाभिमान भरना होता है । इसका उल्लेख महर्षि वाल्मीकि जी ने भी अपनी रामकथा में किया है , जिससे श्री रामचन्द्र जी की कार्यपद्धति स्वयं ही स्पष्ट हो जाती और उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर भी मिल जाते हैं । “गार्ग्य गोत्र में उत्पन्न त्रिजट नामक ब्राह्मण वन में फाल , कुदाल और हल से किसी प्रकार अपनी जीविका चलाता था । एक बार उसकी तरुणी भार्या ने दरिद्रता से खिन्न होकर सारे बाल बच्चों को उसके आगे ले जाकर , उनके भरण पोषण के लिए राम के पास जाने की सलाह दी । पत्नी के बचन सुनकर वह अपनी फटी धोती से किसी प्रकार शरीर को ढककर राम से मिलने के लिए चल पड़ा । राम को उसने अपना दु:ख बतलाया । राम द्वारा परिहास में यह कहने पर कि अपनी लाठी गो जितनी दूर फेंकोगे उतनी ही गायों दी जाएँगी । किस प्रकार अपनी धोती को कमर से बाँधकर हड़बड़ी से प्राणों का पूरा वेग लगाकर उस ब्राह्मण ने लाठी को दूर तक फेंका ।”(राधावल्लभ त्रिपाठी, आदिकवि और उनकी रामायण, पृ॰18) इस कथा से महर्षि वाल्मीकि की पैनी लोकदृष्टि प्रकट होती है । याचना से आदमी का स्वाभिमान मरता है और आत्म विश्वास कुंठित होता है । अपने बलबूते और परिश्रम से हुई प्राप्ति से आत्म विश्वास जागृत होता है । वाल्मीकि आमीन के उसी आत्म विश्वास को जागृत करना चाहते हैं । रामचन्द्र जानते थे सामान्य लोगों में शक्ति का संचार करना होगा तभी वे राक्षसों और असुरों से लोहा ले सकेंगे । अन्याय का सामना कर सकेंगे । श्री रामचन्द्र जी को अपने काल की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन लाना था । इसलिए वे चौदह साल तक देश के कोने कोने में घूमते रहे । उसका परिणाम यह हुआ कि राज्य की सेना से नहीं , बल्कि आम जन की संगठित ताक़त से ही उन्होंने रावण जैसे बलशाली राजा को पराजित करने में सफलता प्राप्त की । मध्यकालीन इतिहास में दशगुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण कहे जा सकते हैं , जिन्होंने चिड़ियों में बाज से लड़ने की क्षमता पैदा करके भारतीय इतिहास का नया स्वर्णिम पृष्ठ रच दिया था ।

                     राम या बाबर के इतिहास की निशानियों को बचाने यह लडाई भी उसी प्रकार की थी । सरकार बाबर के साथ थी और भारत के लोग अपने आत्म विश्वास और बल पर ही यह लडाई लड रहे थे । इस लडाई में धीरे धीरे अपने आप पत्ते खुलते जा रहे थे , कौन बाबर के साथ है और कौन महर्षि वाल्मीकि के राम लला के साथ हैं । यह महाकाल की लीला थी । सुल्तान गए, तुर्क गए , मुगल गए, अंग्रेज़ गए, फ़्रांसीसी गए और अन्त में पुर्तगाली भी चले गए । अपने आ गए लेकिन वे भी बाबर के साथ ही मिल गए । आदर्श राज्य व्यवस्था की कसौटी ही राम राज्य था । महात्मा गान्धी उसी की लालसा लिए हे राम ! कहते हुए देह त्याग गए ।  लेकिन सरकार फिर भी राम के विरोध में ही अड़ी रही । फिर एक दिन लोगों ने क्रोध में आकर सरकार ही बदल दी । जो राम का नहीं वह किसी काम का नहीं । धृतराष्ट्र ने पूछा था - हे संजय धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित हुए मेरे यानि कौरवों और पांडु पुत्रों यानि पांडवों ने क्या किया । लगता है अब यही प्रश्न वाल्मीकि पूछ रहे थे । लेकिन स्थान बदल गए थे । धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र की जगह धर्मक्षेत्र अयोध्या हो गया है । मेरे और बाबर के वंशजों ने क्या किया ? लेकिन इसमें शायद किसी संजय की जरुरत इस कलियुग में नहीं थी । क्योंकि अब आँखों देखा हाल सुनाने के लिए न जाने कितने चैनल दिन रात लगे रहते हैं । कलियुग में त्रेता का इतिहास उभर आया है । राम का घर/मंदिर तो बनेगा ही लेकिन महाकाल के इतिहास में यह भी दर्ज हो जाएगा कौन किसके साथ खड़ा था ।  बीसवीं  शताब्दी की यह लडाई भी एक प्रकार से भारत और बाबर के बीच में ही थी । अन्तर उतना ही था कि इस बार बाबर के पक्ष में लडने वाली सेना मध्य एशिया से नहीं आई थी । बाबर के पक्षधर इसी देश में पैदा हो गए थे जो उसके पक्ष में अपने ही देशवासियों के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए थे । वे राम को अपने ही घर में से बेघर किए हुए थे ।         

                       वर्षानुवर्ष विभिन्न न्यायालयों मे राम मंदिर के पुनर्निर्माण के प्रयासों की लडाई चलती रही । एक दिन इस संघर्ष का भी अन्त हो गया । 9 नवम्बर 2019 को उच्चतम नायायालय के पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय कर दिया कि सदियों पहले विदेशी मुगलों ने अयोध्या के राम मंदिर को गिरा ही नहीं दिया था बल्कि उसके खंडहरों पर मस्जिद नुमा एक ढाँचा भी खड़ा कर दिया था । न्यायालय ने सरकार को यह आदेश भी दिया कि राम मंदिर का पुनर्निर्माण करने के लिए सरकार एक न्यास का गठन करे । न्यास का गठन भी हो गया और अयोध्या में श्री रामचन्द्र जी का भव्य धाम निर्मित होने लगा । लेकिन उसके साथ ही महर्षि वाल्मीकि महाराज जी का मंदिर भी आकार ग्रहण करने लगा । भला वाल्मीकि जी की उपस्थिति के बिना राम मंदिर पूरा कैसे हो सकता था ? महर्षि वाल्मीकि जी ने लिखा था कि श्री राम चन्द्र जी श्री लंका से परिवार सहित पुष्पक विमान से अयोध्या पहुँचे थे । वाल्मीकि जी के इस कथन को पूरा करने के लिए अयोध्या धाम में अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डा का निर्माण किया गया और इस हवाई अड्डे का नाम महर्षि वाल्मीकि जी के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता था । सरकार ने हवाई अड्डे का नाम महर्षि वाल्मीकि रख कर मानों वाल्मीकि समाज की इस आस्था को ही नमन किया । और फिर आया 22 जनवरी 2024 का शुभ दिन । यह  दिन भारतीय इतिहास में सदा के लिए दर्ज हो गया । इस दिन राम एक बार फिर अयोध्या के अपने घर (मंदिर) में आ विराजे । पाँच सौ साल के संघर्ष का अन्त राम के पक्ष में हो गया यानि भारत के पक्ष में हो गया । मानों महर्षि वाल्मीकि महाराज जी ही राम कथा का यह शेष भाग लिख रहे हैं । 

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