राफेल विमान खरीद में शक की गुंजाइश नहीं ?

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प्रमोद भार्गव
फ्रांस से लड़ाकू विमान राफेल खरीद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या केंद्र सरकार पर गड़बड़ी की आशंका  व्यर्थ है। यूपीए की सरकार के दौरान 2008 में जब इसी विमान सौदे की बात चल रही थी, तब प्रति विमान 526.1 करोड़ रुपए पर सहमति बनी थी। अब जब यह मुद्दा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी सड़क से लेकर संसद तक जोर-शोर से उठा रहे हैं, तब यह समझ से परे लग रहा है कि केंद्र सरकार पारदर्शीता बरतते हुए विमान की कीमत क्यों स्पष्ट नहीं कर रही है ? जबकि इसी सरकार के रक्षा राज्यमंत्री सुभाष भामरे ने ‘8 नवंबर 2016 को लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि फ्रांस के साथ 23 सितंबर 2016 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए हैं, जिसके तहत तमाम जरूरी रक्षा उपकरणों, सेवाओं और हथियारों से युक्त 36 राफेल विमान खरीदे जाएंगे। प्रत्येक विमान की कीमत करीब 670 करोड़ रुपए होगी। अप्रैल 2022 तक सभी विमान भारत आ जाएंगे।‘ जब सरकार लोकसभा में विमान की कीमत बता चुकी है तो अब गोपनीयता क्यों बरत रही है ? चूंकि यह विमान सौदा फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और नरेंद्र मोदी के बीच हुई सीधी बातचीत से तय हुआ था, इसलिए इसमें शक की कहीं कोई गुंजाइश रह ही नहीं जाती। इस मुद्दे के बाबत यह भी समझ से परे है कि जब सरकार लोकसभा में विमान की कीमत बता चुकी है तो फिर राहुल गांधी क्यों यही विमान लगभग तीन गुना कीमत में खरीदे जाने की बात कह रहे हैं। राहुल का दावा है कि राफेल 1570.8 करोड़ रुपए प्रति विमान की दर से खरीदा जा रहा है।
देरी और दलाली से अभिशप्त रहे रक्षा सौदों में राजग सरकार के वजूद में आने के बाद से लगातार तेजी दिखाई दी है। मिसाइलों और राॅकेटों के परीक्षण में भी यही गतिशीलता दिखाई दे रही है। इस स्थिति का निर्माण, सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए जरूरी था। वरना रक्षा उपकरण खरीद के मामले में संप्रग सरकार ने तो लगभग हथियार डाल दिए थे। रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के चलते तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी तो इतने मानसिक अवसाद में आ गए थे कि उन्होंने हथियारों की खरीद को टालना ही अपनी उपलब्धि मान लिया था। नतीजतन, हमारी तीनों सेनाएं शस्त्रों की कमी का अभूतपूर्व संकट झेल रही थीं। अब जाकर नरेंद्र मोदी सरकार ने इस गतिरोध को तोड़ा है और लगातार हथियारों व उपकरणों की खरीद का सिलसिला आगे बढ़ रहा है। इसी कड़ी में फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमानों का सौदा है। जबकि इस सौदे से पहले 17 साल तक केंद्र की कोई भी सरकार लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा ही नहीं कर पाई थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में फ्रांस यात्रा के दौरान फ्रांसीसी कंपनी दासौ से जो 36 राफेल जंगी जहाजों का सौदा किया है, वह अर्से से अधर में लटका था। इस सौदे को अंजाम तक पहुंचाने की पहल वायु सैनिकों को संजीवनी देकर उनका आत्मबल मजबूत करने का काम करेगी। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे हुई बातचीत के बाद यह सौदा अंतिम रुप ले पाया है। इस लिहाज से इस साॅैदे के दो फायदे देखने में आ रहे हैं। एक हम यह भरोसा कर सकते हैं कि ये युद्धक विमान जल्दी से जल्दी हमारी वायुसेना के जहाजी बेड़े में शामिल हो जांएगे। दूसरे,इस खरीद में कहीं भी दलाली की कोई गुंजाइश नहीं रह गई है, क्योंकि सौदे को दोनों राष्ट्र प्रमुखों ने सीधे संवाद के जरिए अंतिम रूप दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ.मनमोहन सिंह और रक्षा मंत्री एके एंटनी की साख ईमानदार जरूर थी, लेकिन ऐसी ईमानदारी का क्या मतलब, जो जरूरी रक्षा हथियारों को खरीदने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए ? जबकि ईमानदारी तो व्यक्ति को साहसी बनाने का काम करती है। हालांकि रक्षा उपकरणों की खरीदी से अनेक किंतु-परंतु जुड़े होते हैं,सो इस खरीद से भी जुड़ गए हैं। यह सही है कि जंगी जहाजों का जो सौदा हुआ है वह संप्रग सरकार द्वारा चलाई गई बातचीत की ही अंतिम परिणति है। इस खरीद प्रस्ताव के तहत 18 राफेल विमान फ्रांस से खरीदे जाने थे और फ्रांस के तकनीकी सहयोग से स्वेदेशीकरण को बढ़ावा देने की दृष्टि से 108 विमान भारत में ही बनाए जाने थे। स्वदेश में इन विमानों को बनाने का काम हिंदुस्तान एयरोनाॅटिक्स लिमिटेड ;एचएएल, को करना था, ये शर्तें अब इस समझौते का हिस्सा नहीं हैं। इससे मोदी के ‘मेक इन इंडिया‘ कार्यक्रम को धक्का लगा है। क्योंकि तत्काल युद्धक विमानों के निर्माण की तकनीक भारत को मिलने नहीं जा रही है ? जाहिर है, जब तक एचएएल को यूरोपीय देशों से तकनीक का हस्तांतरण नहीं होगा, तब तक न तो स्वेदेशी विमान निर्माण कंपनियों का आधुनिकीकरण होगा और न ही हम स्वेदेशी तकनीक निर्मित करने में आत्मनिर्भर हो पाएंगे ? इसलिए मोदी कुछ विमानों के निर्माण की शर्त भारत में ही रखते तो इस सौदे के दीर्घकालिक परिणाम भारत के लिए कहीं बेहतर होते ? हालांकि दासौ ने भरोसा जताया है कि इन विमानों के निर्माण की संभावनाएं भारत में तलाषेगी। लेकिन निर्माण की यह शर्त समझौते में बाध्यकारी नहीं है।
विमानों की इस खरीद में मुख्य खामी यह है कि भारत को प्रदाय किए जाने वाले सभी विमान पुराने होंगे। इन विमानों को पहले से ही फ्रांस की वायुसेना इस्तेमाल कर रही है। हालांकि 1978 में जब जागुआर विमानों का बेड़ा ब्रिटेन से खरीदा गया था, तब ब्रिटिश ने हमें वही जंगी जहाज बेचे थे,जिनका प्रयोग ब्रिटिश वायुसेना पहले से ही कर रही थी। लेकिन हरेक सरकार परावलंबन के चलते ऐसी ही लाचारियों के बीच रक्षा सौदें करती रही है। इस लिहाज से जब तक हम विमान निर्माण के क्षेत्र में स्वावलंबी नहीं होंगे,लाचारी के समझौतांे की मजबूरी झेलनी ही होगी। इस सौदे की एक अच्छी खूबी यह है कि सौदे की आधी धनराशि भारत में फ्रांसीसी कंपनी को निवेश करना अनिवार्य होगी।
इस सौदे में राहुल गांधी के संदेह का प्रमुख आधार इस खरीद की कैबीनेट की सुरक्षा मामलों की समिति से अनुमति नहीं लेना है। दूसरे गुलाम नबी आजाद ने मोदी सरकार पर देश हित से समझौता करने का आरोप लगाया है। उनका कहना है कि यूपीए सरकार के दौरान इसी सौदे में विमान निर्माण की तकनीक हस्तांतरण करने की बाध्यकारी शर्त रखी गई थी, जो इस सरकार ने विलोपित कर दी। इन्हीं का स्पष्टिकरण विपक्ष केंद्र सरकार से चाहता है। हालांकि राज्यसभा में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक लिखित जबाव में कहा है कि ‘इस सौदे को लेकर भारत और फ्रांस के बीच हुए अंतर-सरकारी अनुबंध के दसवें अनुच्छेद के तहत इस सौदे में सूचनाओं और वस्तुओं के आदान-प्रदान का मामला 2008 में दोनों देशों के बीच हुए रक्षा समझौते के अंतरर्गत है। गोया इससे जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक नहीं की जा सकती हैं।‘ सरकार की यह दलील इसलिए गले नहीं उतर रही है, क्योंकि इसी सरकार के रक्षा राज्यमंत्री सुभाष भामरे लोकसभा में पहले ही विमान की कीमत बता चुके हैं।
इस सौदे पर राहुल गांधी और गुलाम नबी आजाद ने पहली बार सवाल उठाए हों, ऐसा नहीं है, इससे पहले कांगे्रस महासचिव दिग्विजय सिंह ने सौदे पर कई सवाल खड़े किए थे। सिंह ने खरीदी प्रक्रिया को अनदेखी करने का आरोप लगाते हुए नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक से इसे संज्ञान में लेने की अपील की थी। यही नहीं भाजपा के ही वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने तो इस खरीद को विवादों की उड़ान की संज्ञा देते हुए, इसकी खामियों की पूरी एक फेहरिष्त ही जारी कर दी थी। स्वामी का दावा था कि लीबिया और मिस्त्र में राफेल जंगी जहाजों का प्रदर्षन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। दूसरे, राफेल विमानों में ईंधन की खपत ज्यादा होती है और कोई दूसरा देश इन्हें खरीदने के लिए तैयार नहीं है। तीसरे, कई देशों ने राफेल खरीदने के लिए इसकी मूल कंपनी दासौ से एमओयू किए, लेकिन बाद में रद्द कर दिए। इन तथ्यात्मक आपत्तियों के अलावा स्वामी ने सौदे को आड़े हाथ लेते हुए कहा था कि यदि फ्रांस की मदद ही करनी थी तो इन विमानों को खरीदने की बजाय, दिवालिया हो रही दासौ कंपनी को ही भारत सरकार खरीद लेती ?
इन सब तोहमतों के बावजूद ये विमान खरीदना इसलिए जरूरी था, क्योंकि हमारे लड़ाकू बेड़े में शामिल ज्यादातर विमान पुराने होने के कारण जर्जर हालत में हैं। अनेक विमानों की उड़ान अवधि समाप्त होने को है और पिछले 19 साल से कोई नया विमान नहीं खरीदा गया है। इन कारणों के चलते आए दिन जेटों के दुर्घटनाग्रस्त होने की घटनाएं सामने आ रही हैं। इन दुर्घटनाओं में वायु सैनिकों के बिना लड़े ही शहीद होने का सिलसिला बना हुआ है।

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