राजनीतिक अजेंडा आगे बढ़ाती पुलिस

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प्रमोद भार्गव
आबादी की दृष्टि से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में आजकल जिस तरह से पुलिस मुठभेड़ों में अपराधी मारे जा रहे हैं और एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी सूर्यकुमार शुक्ला ने जिस तरह से वायरल हुए वीडियो में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का संकल्प लेते दिखाई दे रहे हैं, उससे लगता है पुलिस अपने संवैधानिक दायित्व से भटक कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक अजेंडे को आंख मूंद कर आगे बढ़ा रही है। इस तथ्य की पुष्टि आईपीएस के संकल्प से तो होती ही है, इस बात से भी होती है कि अकेले 2017 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 855 बदमाशों से मुठभेड़ें कीं और 26 शातिर अपराधियों को मार भी गिराया। 2186 अपराधियों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 1680 के सिर पर इनाम घोषित था। राज्य सरकार ने 123 गिरोह सरगनाओं की 123 करोड़ की संपत्ति भी जब्त की। पुलिस ने गैंगस्टर एक्ट के तहत 110 अपराधियों के खिलाफ बेहद कठोर माने जाने वाले ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून‘ की धाराएं भी लगाईं। बावजूद प्रदेश में अपराध और अपराधी कायम हैं। दिन-दहाड़े हत्या, लूट और बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ का स्थिति सुधरने का दावा करते हुए यह कहना कि ‘राज्य में अपराधी या तो मारे जाएंगे, या फिर जेल जाएंगे‘, कितना सार्थक है, कुछ कहा नहीं जा सकता है।
हमारे देश में जब भी कोई कानून व्यवस्था से जुड़ी बड़ी घटना घटती है तो प्रशासन और पुलिस पर सवाल राजनीतिकों से लेकर नागरिक समाज तक के लोग उठाने लगते हैं। लेकिन खासतौर से पुलिस में आमूलचूल परिवर्तन के लिए बुनियादी पहल करने का दायित्व कोई राजनैतिक दल नहीं उठाता। उत्तर प्रदेश में एकाएक मुठभेड़ों की बढ़ती संख्या और लखनऊ विवि में आयोजित हुए एक कार्यक्रम में पुलिस महानिदेशक होमगार्ड सूर्य कुमार शुक्ला द्वारा राम मंदिर निर्माण की कथित रूप से शपथ दिलाए जाने के घटनाक्रम से एक बार फिर यह सवाल जोर-शोर से उठ रहा है कि पुलिस रानीतिक दल और मुख्यमंत्री की मंशानुसार काम करती है। गोया, पुलिस को जबावदेह बनाने के साथ, उसका चेहरा मानवतावादी बनाये जाने की मांग भी पुरजोरी से उठ रही है। लेकिन जब तक कानून एवं व्यवस्था की देख-भाल की जिम्मेदारी एक अलग तंत्र को नहीं सौंपी जाती और अपराध व अनुसंधान से जुड़े मामलों का अलग से तंत्र विकसित नहीं किया जाता, तब तक पुलिस में परिवर्तन की उम्मीद बेमानी है। पुलिस के चरित्र में परिवर्तन आईपीएस बनाम आईएएस के द्वंद्व एवं अहंकार टकराव के चलते भी नहीं हो पा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय भी पुलिस में व्यापक एवं मानवीय परिवर्तन के निर्देश कई बार  दे चुकी है, लेकिन न केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें इस दिशा में कोई पहल कर रही हैं।
पुलिस की कार्यप्रणाली प्रजातांत्रिक मूल्यों और संवैधानियक अधिकारों के प्रति उदार, खरी व जवाबदेह हो, इस नजरिये से सर्वोच्च न्यायालय ने करीब नौ साल पहले राज्य सरकारों को मौजूदा पुलिस व्यवस्था में फेरबदल के लिए कुछ सुझाव दिए थे, इन पर अमल के लिए कुछ राज्य सरकारों ने आयोग और समितियों का गठन भी किया। लेकिन किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ये कोशिशें आईएएस बनाम आईपीएस के बीच उठे वर्चस्व के सवाल और अह्म के टकराव में उलझकर रह र्गइं। ब्रितानी हुकूमत के दौरान 1861 में वजूद में आए ‘पुलिस एक्ट’ में बदलाव लाकर कोई ऐसा कानून अस्तित्व में आए जो पुलिस को कानून के दायरे में काम करने को तो बाध्य करे ही, पुलिस की भूमिका भी जनसेवक के रूप में चिन्हित हो, क्या ऐसा नैतिकता और ईमानदारी के बिना संभव है ? पुलिस राजनीतिकों के दखल के साथ पहुंच वाले लोगों के अनावश्यक दबाव से भी मुक्त रहते हुए जनता के प्रति संवेदनशील बनी रहे, ऐसे फलित तब सामने आएंगे जब कानून के निर्माता और नियंता ‘अपनी पुलिस बनाने की बजाय अच्छी पुलिस’ बनाने की कवायद करें।
पुलिस को समर्थ व जवाबदेह बनाने के लिए उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुलिस व्यवस्था को व्यावहारिक बनाने की दृष्टि से सोराबजी समिति की सिफारिशें लागू करने की हिदायत राज्य सरकारों को दी थी। लेकिन पुलिस की कार्यप्रणाली को जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप बनाने की पहल देश की किसी भी राज्य सरकार ने नहीं की। चूंकि ‘पुलिस’ राजनीतिकों के पास एक ऐसा संवैधानिक औजार है जो विपक्षियों को कानूनन फंसाने अथवा उन्हें जलील व उत्पीड़ित करने के आसान तरीके के रूप में पेश आती है। इसीलिए पुलिस तो पुलिस, सीवीसी और सीबीआई को भी विपक्षी दल सत्ताधारी हाथों का खिलौना कहते नहीं अघाते। लेकिन जब इसे बदलने और जनहितकारी बनाए जाने की हिदायत देश की सर्वोच्च न्यायालय ने दी थी तब कांग्रेस और साम्यवादी राज्य सरकारों की बात तो छोड़िए उन तथाकथित राष्ट्रवादी दलों की सरकारों ने भी भी इस ब्रिटिश एक्ट को पलटने की उदारता नहीं दिखाई। जबकि ये दल पानी पी-पीकर फिरंगी हुकूमत को कोसते रहते हैं। इससे जाहिर होता है सभी राजनीतिक दलों की फितरत कमोबेश एक जैसी है। नौकरशाही की तो डेढ़ सौ साल पुराने इसी कानून के बने रहने में बल्ले-बल्ले है। सो पूरे देश में यथा राजा, तथा प्रजा की कहावत फलीभूत हो रही है।
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के 70 साल बाद भी पुलिस की कानूनी सरंचना, संस्थागत ढांचा और काम करने का तरीका औपनिवेशिक नीतियों का पिछलग्गू है। इसलिए इसमें परिवर्तन की मांग न केवल लंबी है, बल्कि लाजिमी भी है। लिहाजा इसी क्रम में कई समितियां और आयेाग वजूद में आए और उन्होंने सिफारिशें भी कीं, परंतु सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार निर्देश देने के बावजूद राज्य सरकारें सिफारिशों को लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देने की बजाय इन्हें टालती रही हैं। बल्कि कुछ सरकारें तो सर्वोच्च न्यायालय की इस कार्यवाही को विधायिका और कार्यपालिका में न्यायपालिका के अनावश्यक दखल के रूप में भी देखती हैं। इसीलिए सोराबजी समिति ने पुलिस विधेयक का जो आदर्श प्रारूप तैयार किया है, वह अब तक ठण्डे बस्ते में है।
पुलिस की स्वच्छ छवि के लिए जरूरी है उसे दबाव मुक्त बनाया जाए। क्योंकि पुलिस काम तो सत्ताधारियों के दबाव में करती है, लेकिन जलील पुलिस को ही होना पड़ता है। झूठे मामलों में न्यायालय की फटकार का सामना भी पुलिस को ही करना पड़ता है। पुलिस के आला-अधिकारियों की निश्चित अवधि के लिए तैनाती भी जरूरी है। क्योंकि सिर पर तबादले की तलवार लटकी हो तो पुलिस भयमुक्त अथवा भयनिरपेक्ष कानूनी कार्रवाई को अंजाम देने में सकुचाती है। कई राजनेताओं के मामलों में तो जांच कर रहे पुलिस अधिकारी का ऐन उस वक्त तबादला कर दिया जाता है, जब जांच निर्णायक दौर में होती है।
पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्यकारी बनाए जाने की कवायद भी सिफारिशों में शामिल है। क्योंकि पुलिस कमजोर व्यक्ति के खिलाफ तो तुरंत एफआईआर लिख लेती है, लेकिन ताकतवर के खिलाफ ऐसा तत्काल नहीं करती। इसलिए नाइंसाफी के शिकार लोग अदालतों में निजी इस्तगासे दायर करके मामलों को संज्ञान में ला रहे हैं। ऐसे मामलों की संख्या पूरे देश में लगातार बढ़ रही है। इस वजह से पहली नजर में जो दायित्व पुलिस का है, उसका निर्वहन अदालतों को करना पड़ रहा है। अदालतों पर यह अतिरिक्त बोझ है। दिल्ली में पुलिस को लेकर जबरदस्त विडंबंना है। स्वतंत्र राज्य सरकार होने के बावजूद दिल्ली पुलिस केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। ऐसे में दिल्ली के मुख्यमंत्री भी बड़ी से बड़ी घटना मे ंपुलिस का प्रत्यक्ष दोश देखने के बावजूद, मामूली सिपाही के विरुद्ध भी कोई दण्डनीय कार्यवाही नहीं कर सकते। जबकि कानून व्यवस्था की प्रत्यक्ष जबावदेही राज्य सरकार की है।
राष्ट्रीय पुलिस आयोग भी पुलिस की मौजूदा कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं है। आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 60 फीसदी, ऐसे लोगों को हिरासत में लिया जाता है, जिन पर लगे आरोप सही नहीं होते। कारागारों में बंद 42 फीसदी कैदी इसी श्रेणी के हैं। ऐसे ही कैदियों के रखरखाव और भोजन- पानी पर सबसे ज्यादा धनराशि खर्च होती है। उत्तर प्रदेश में जो 2186 अपराधी हिरासत में लिए गए हैं, उनमें निरपराध भी हो सकते हैं। ऐसे मामलों में सीबीआई और पुलिस की नाकामी जाहिर होती है और निर्दोशों को बेवजह प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए राज्य सरकारों को पुलिस व्यवस्था में सुधार की जरूरत को नागरिक हितों की सुरक्षा के तईं देखने की जरूरत है, न कि पुलिस को राजनीतिक हित-साध्य के लिए खिलौना बनाए रखने के लिए ?

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