कला-संस्कृति गीता : जीवन का ज्ञान

गीता : जीवन का ज्ञान

डॉ. नीरज भारद्वाज गीता ज्ञान, भक्ति, कर्म, साधना योग आदि सभी का भंडार है। गीता को जिसने समझ लिया उसका यह जीवन अर्थात इहलोक और…

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कला-संस्कृति सनातन संस्कृति में छिपा है पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान

सनातन संस्कृति में छिपा है पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान

प्रो. महेश चंद गुप्ता भारतीय सनातन संस्कृति और पर्यावरण के बीच युगों पुराना नाता है। एक सनातन संस्कृति ही है, जिसमें प्रकृति को केवल अस्तित्व का आधार ही नहीं बल्कि पूजनीय माना गया है। आधुनिक विज्ञान में जिस पर्यावरणीय संतुलन की वकालत की जाती है, उस संतुलन को सनानत परंपराओं में सदियों से साधा जा रहा है। सनातन संस्कृति में प्रत्येक प्राकृतिक तत्व को दिव्य माना गया है। हमारे लिए सूर्य, जल, वायु और वनस्पति सबको देवतुल्य हैं। जरूरत के समय पेड़ों को काटने से पहले उनकी अनुमति मांगने और तुलसी पत्र तोड़ते समय विनम्र भाव से क्षमा मांगने की विनम्रता केवल हमारी संस्कृति में ही है। हम सूर्यास्त के बाद फूल-पत्तियां इसलिए नहीं तोड़ते क्योंकि तब तब वे विश्राम की अवस्था में होते हैं। न केवल भारत में बल्कि विदेशों मेंं बसा हिंदू समुदाय भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा है। इस बात को अब  विदेशों में भी स्वीकार कर इससे प्रेरणा ली जाने लगी है।  ब्रिटेन के इंस्टीट्यूट फॉर द इम्पैक्ट ऑफ फेथ इन लाइफ (आईआईएफएल) की ओर से हाल में किए गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है। अध्ययन की रिपोर्ट में उल्लेख है कि पर्यावरण सुरक्षा के मुद्दे पर ब्रिटेन में हिंदू समुदाय बाकी समुदायों की तुलना में सबसे ज्यादा सक्रिय है। अधिकांश हिंदू पर्यावरण के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं। कण-कण में भगवान के होने का विश्वास उनका प्रेरणास्रोत है। 64 फीसदी हिंदू ‘रीवाइल्डिंग’ यानी इको सिस्टम को नई जिंदगी देने में शामिल हैं। 78 फीसदी हिंदू अपनी आदतों मेंं इसलिए बदलाव लाते हैं ताकि पर्यावरण को नुकसान कम हो। 44 प्रतिशत हिंदू  पर्यावरणीय संगठनों से जुड़े हैं। अध्ययन में हिंदू, मुस्लिम और ईसाई समुदायों के पर्यावरण संबंधी नजरिये और गतिविधियों का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट से पता चलता है कि ब्रिटेन के 82 फीसदी ईसाई धर्म को पर्यावरण सुरक्षा से जोड़ते हैं पर उनके सुरक्षा संबंधी काम सबसे कम हैं। 31 फीसदी ईसाई जलवायु परिवर्तन को ही नकारते हैं, जो किसी भी धार्मिक समूह में सबसे ज्यादा है। 92 प्रतिशत मुस्लिम व 82 प्रतिशत ईसाई मानते हैं कि उनका धर्म पर्यावरण की देखभा करने की जिम्मेदारी देता है लेकिन उनकी यह सोच व्यवहार में नहीं बदलती। अगर हिंदू पर्यावरण संरक्षण के लिए सक्रिय हैं तो इसका मुख्य कारण यह है कि हिंदू धर्म में ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना निहित है जो संपूर्ण सृष्टि को एक परिवार के रूप में देखने की शिक्षा देती है। यही भाव हममेें प्रकृति के प्रति एकात्मता का भाव विकसित करता है। आज जब पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की चुनौती से जूझ रही है, तब सनातन संस्कृति की यह सोच और व्यवहार मानवता के लिए एक प्रेरणा बन सकता है।  यह अध्ययन पर्यावरण संकट और जलवायु परिवर्तन के खतरों के दृष्टिगत बहुत महत्वपूर्ण है। इस अध्ययन से न सिर्फ सनातन संस्कृति और पर्यावरण के संबंधों का पता चलता है, वहीं यह बात भी साबित होती है कि दशकों पहले कामकाज के सिलसिले में विदेशों में बस गए हिंदू आज भी अपनी संस्कूति को आत्मसात किए हुए हैं। हिंदू सनातन धर्म में पर्यावरण केवल आध्यात्मिकता या पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है बल्कि यह संपूर्ण सृष्टि के प्रति एक गहरी जागरूकता और सम्मान की भावना से ओत-प्रोत है। हमारी संस्कृति में प्रकृति और जीव-जंतुओं को पूजनीय मानते हुए उनके संरक्षण पर जोर दिया गया है। इससे हिंदू धर्म में पर्यावरण संरक्षण केवल नैतिक दायित्व नहीं है बल्कि धार्मिक आस्था और दैनिक जीवन का अभिन्न अंग भी है। हमारे पुरखों को पर्यावरण से कितना प्रेम था, इसका पता उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं से चलता है। सनातन धर्म में यह मान्यता है कि संपूर्ण सृष्टि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश पंचतत्वों से बनी है। इन पंचतत्वों को संतुलित रखना जीवन का मूल उद्देश्य है। इसी कारण पर्यावरण की शुद्धता और संतुलन बनाए रखना हिंदू दर्शन का प्रमुख भाग है। सनातन संस्कृति में पग-पग पर पर्यावरण संरक्षण के उपाय किए गए हैं। भूमि पूजन, गोवर्धन पूजा के बहाने पृथ्वी पूजन की परंपरा अनायास थोड़े बन गई है। नदियों को देवी मानकर पूजने के पीछे गंगा, यमुना, नर्मदा, कृष्णा आदि तमाम नदियों की पवित्रता को बनाए रखने की मंशा ही तो है। हवन और यज्ञ में प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का उपयोग करने के पीछे पर्यावरण को शुद्ध करने की भावना निहित है। हमारे पुरखों ने योग और प्राणायाम के जरिए शुद्ध वायु का महत्व कितने वैज्ञानिक ढंग से समझाया है। पुरखों ने आकाश को अनंत ऊर्जा का स्रोत माना एवं ध्यान और साधना के माध्यम से इसका संतुलन बनाए रखने का संदेश दिया तो इसके पीछे भी तो प्रकृति के प्रति श्रद्धा भाव ही है। पेड़ों और वनस्पतियों को देवतुल्य मानकर उनकी पूजा के पीछे उनके संरक्षण की भावना ही तो है। हमारे पुरखों ने सदियों पहले जिस तुलसी को मां लक्ष्मी का स्वरूप मानकर हर घर में लगाने की परंपरा शुरू की, उसके औषधीय गुणों को आज वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। हमारे यहां प्राचीन काल में ही ऋषि-मुनि आश्रमों में वन लगाने को प्राथमिकता दी गई और आज भी मंदिरों और आश्रमों में वृक्षारोपण को पवित्र कार्य के रूप में करके उसका अनुसरण किया जा रहा है। हमारे देश मेंं पर्यावरण संरक्षण हमारी शिक्षा पद्धति का प्राचीन काल से ही भाग रहा है। हमारे ऋषि-मुनि पर्यावरण शुद्ध रखने के लिए हवन-यज्ञ करते थे। इससे  वातावरण को साफ एवं समय पर वर्षा में मदद मिलती थी। आधुनिक काल में भी ऐसे उदाहरण हैं, जब हवन-यज्ञ के बाद वर्षा होते देखी गई है। मौजूदा समय में तो प्राचीन परंपराओं का अनुसरण करने की ज्यादा जरूरत हैं क्योंकि नदियों का जल कम एवं प्रदूषित हो रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और विश्व के कई तटीय शहरों के डूब जाने का अंदेशा है। प्राचीन गुरुकुलों में पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया जाता था तो मौजूदा दौर मेंं भी कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में पर्यावरण संरक्षण पर शोध एवं अध्ययन, अधिकाधिक पेड़ लगाने और पर्यावरण अनुकूलता के लिए स्वच्छ वातावरण को प्राथमिकता दी जा रही है। हमारी मान्यता है कि शुद्ध एवं साफ वातावरण मेंं लक्ष्मी का वास होता है और इससे समृद्धि आती है, हमारे इस विचार को विदेशों में अपनाया गया है। विभिन्न देशों में विश्वविद्यालयों के लंबे-चौड़े, खुले परिसर एवं वहां सघन हरियाली इसका प्रमाण है। सनातन संस्कृति मेंं जैव विविधता को बनाए रखने के लिए जहां गाय को माता का दर्जा दिया गया है, वहीं नाग पंचमी पर सांपों की पूजा कर उनके महत्व को भी स्वीकारा गया है। गंगा दशहरा और कार्तिक स्नान जैसे त्योहारों के माध्यम से जल शुद्धता बनाए रखने का संदेश दिया गया है। अद्र्धकुंभ, कुंभ और महाकुंभ मेंं नदियों की सफाई और उनकी महत्ता पर बल दिया गया है। अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदू धर्म कर्म पर आधारित है। इसमें मान्यता है कि इस जीवन में हम जो करते हैं, उसका असर अगले जन्म पर पड़ता है। अच्छे कर्म से बुरे कर्म मिटते हैं और अगला जन्म बेहतर होता है। इसीलिए पर्यावरण के प्रति दायित्व बोध बना हुआ है। हमारे युवा इसमेंं सबसे अग्रणी हैं 18-24 वर्ष के 46 फीसदी धार्मिक युवा ईश्वर को पर्यावरणविद् के रूप में देखते हैं। आज समूची दुनिया जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन की समस्याओं से जूझ रही है। इन समस्याओं का समाधान भारतीय सनातन संस्कृति में खोजा जा सकता है। हमारी महान परंपराएं समूची दुनिया में पर्यावरण संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण मार्गदर्शक बन सकती हैं। हिंदू धर्म में पुराने कपड़ों और सामान का पुन: उपयोग करने की परंपरा रीसाइक्लिंग और अपशिष्ट प्रबंधन का प्राचीन रूप नहीं तो क्या है। हमारे यहां शाकाहार को बढ़ावा इसलिए दिया गया क्योंकि हमारे पूर्वज जानते थे कि शाकाहार को बढ़ावा देने से कार्बन उत्सर्जन कम होता है और पर्यावरणीय संतुलन बना रहता है। हमारी संस्कृति मेंछठ पूजा में जल और सूर्य का महत्व, संक्रांति में तिल और गुड़ तथा होली में प्राकृतिक रंग जैव विविधता को संरक्षण के परिचायक हैं।  हिंदू सनातन धर्म और पर्यावरण संरक्षण की भावना परस्पर गहराई से जुड़े हुए हैं। यह जुड़ाव केवल धार्मिक नियमों का पालन करने तक सीमित नहीं है बल्कि एक संपूर्ण जीवन शैली है जो प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन, सम्मान और संरक्षण को प्राथमिकता देती है। अगर आज पूरी दुनिया इन सिद्धांतों को अपना ले तो न सिर्फ पर्यावरण संकट को कम किया जा सकता है बल्कि जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों से भी निपटा जा सकता है। प्रकृति की रक्षा करना केवल हमारा धर्म नहीं बल्कि हमारा नैतिक उत्तरदायित्व भी है। प्रो. महेश चंद गुप्ता

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खान-पान ‘मखाना खेती’ को केंद्र की सौगात

‘मखाना खेती’ को केंद्र की सौगात

डॉ. रमेश ठाकुर  ‘मखाना उत्पादक’ देशों में हिंदुस्तान का स्थान विश्व में अव्वल पायदान पर पहले से है ही, केंद्र की नई पहल ने अब और पंख लगा दिए हैं। दशकों से वैश्विक पटल पर भारतीय मखानो का समूचे संसार में निर्यात होता आया है। डिमांग में अब और बढ़ोतरी हुई है। ताल, तालाबों व जलाशयों में की जाने वाली मखाने की खेती बिहार में सर्वाधित होती है। ये खेती पूरे बिहार में नहीं, बल्कि मात्र 10 जिलों तक ही सीमित हैं जिनमें दरभंगा, सहरसा, मधुबनी, सुपौल, कटिहार, अररिया, पूर्णिया, मधेपुरा, किशनगंज, और खगड़िया जिले प्रमुख हैं। एक वक्त था जब मात्र दो जिले अररिया और मधुबनी में ही मखाना उगाया जाता था। पर, बढ़ती आमदनी को देखते हुए अब 10 जिलों में मखाने की खेती होने लगी है।  मखाने की खेती में बूस्टर डोज के लिए अब केंद्र सरकार ने भी अपने दरवाजे खोले हैं। ‘मखाना बोर्ड’ स्थापित करने का निर्णय हुआ है। बीते महीने आम बजट-2025-26 में केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण ने बकायदा संसद में ‘मखाना बोर्ड’ स्थापित करने की घोषणा की। मखाने की खेती में वृद्धि हो, बीज-खाद में सरकारी सब्सिडी मिले और फसल में भरपूर आमदनी हो, जैसी तमाम मांगों को लेकर किसान लंबे समय से सरकार से डिमांड कर रहे थे, जिसे अब पूरा किया गया। पहले क्या था? जब मखाने की फसल पककर तैयार होती थी, तो बिचौलिए और ठेकेदार औने-पौने दामों में मखाना खरीदकर विदेशी बाजारों में उच्च भाव में बेचते थे। ऐसी हरकतों पर निगरानी की कोई सरकारी व्यवस्था नहीं थी? किसानों की मेहनत को बिचौलिए खुलेआम लूटते थे। इन सभी से छुटकारा पाने के लिए केंद्र व राज्य सरकार से किसान ‘मखाना बोर्ड’ बनाने की मांग लंबे समय से कर रहे थे, जिसे केंद्रीय स्तर पर अब जाकर स्वीकार किया गया है। बिहार के अलावा मखाने की खेती हल्की-फुल्की उत्तर प्रदेश, झारखंड व मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी की जाती है। पर, वहां किसान ज्यादा रूचि नहीं लेते। विदेशों में भारतीय मखाने की ब़ढ़ती मांग को देखते हुए केंद्र सरकार ने अपने मौजूदा बजट में मखाना बोर्ड बनाने का निर्णय लिया। भारत में अमूमन एक किलो मखाने की कीमत 25 सौ से लेकर 4 हजार रुपए तक है। जबकि, विदेशों में पहुंचते-पहुंचते मखाना की कीमत दोगुनी हो जाती है। किसानों के अलावा केंद्र सरकार को भी परस्तर फायदा होने लगा है। मखाने का तकरीबन उत्पादन भारत में होती है, यूं कहें इस खेती पर एकछत्र राज्य है। यूरोप के कुछ निचले भागों में मखाना उगाया जाने लगा है। लेकिन वो स्वादिष्ट नहीं होता, स्वाद वाला मखाना सिर्फ भारत का होता है। बिहार में अब करीब 4000 गांवों, जिनमें 870 ग्राम पंचायतों और 70 प्रखंड़ों में मखाने की खेती होने लगी है। मखाने की खेती से करीब 10 हजार से ज्यादा किसान अब जुड़ चुके हैं।  मखाने के लिए ‘उत्तम तालाब प्रणाली’ की आवश्यकता होती है, जो सिर्फ बिहार के तराई इलाकों में ही मिलती है। केंद्र सरकार मखाने की खेती पर इसलिए भी ज्यादा फोकस करके चल रही है क्योंकि इससे देश को सालाना 25 से 30 करोड़ की विदेशी मुद्रा जो प्राप्त होने लगी है। विदेशों से मांग में बेहताशा बढ़ोतरी हुई है। चिकित्सा रिपोर्ट के मुताबिक मखाना सेहत के लिए बेहद लाभदायक बताया गया है जिसमें प्रोटीन की 9.7 फीसदी, कार्बोहाइड्रेट 76 फीसदी, नमी 12.8 प्रतिशत, वसा 0.1 फीसदी, खनिज लवण 0.5 फीसदी, फॉस्फोरस 0.9 और लौह के मात्रा 1.4 मिली ग्राम तक होती है। मखाने के इस्तेमाल से हार्ट-अटैक जैसे गंभीर बीमारी से भी बच जा सकता है। मखाने की उन्नती के लिए केंद्र सरकार द्वारा ‘बोर्ड’ बनाने का निर्णय निश्चित रूप से बूस्टर डोज जैसा है इससे मखाना किसानों की आमदनी में न सिर्फ इजाफा होगा, बल्कि उनके उधोग से जुड़े हिताकारों और उपभोक्ता कानून के संरक्षण में उत्साहवर्धक सुखद परिणाम भी देखने को मिलेंगे। मौजूदा आंकड़ों पर नजर डाले तो भारत मखाना की वैश्विक मांग का तकरीबन 90 से 95 फीसदी भरपाई करता है। बजकि, मखाने का उत्पादन सिंगापुर, यूएसए,कनाडा,जर्मनी, मलेशिया और एशियाई देशों में भी होता है। लेकिन डिमांड भारतीय मखानो की सर्वाधिक होती है। अकेला अमेरिका ही भारत से करीब 25 फीसदी मखानस खरीदता है। ग्लोबल स्तरीय स्वास्थ्य की एक सर्वे रिपोर्ट की माने तो अमेरिकी नागरिक सब्जियों में भी मखाने का इस्तेमाल करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक मखाना सर्वाधिक अमेरिकी लोग खाते हैं। उन्हें सिर्फ भारतीय मखाने चाहिए होते हैं। यही कारण है कि भारत में पिछले एक दशक में मखाने का उत्पादन 180 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा है। खेती में लगातार किसान विस्तार कर रहे हैं। निश्चित रूप से ‘मखाना बोर्ड’ बनने के बाद और इस फसल में और पंख लगेंगे।  नई पहल के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की टीमें भी लगातार मखाना खेती का दौरा कर रही हैं। मखाना को वह वैज्ञानिक ढंग से कराने लगे हैं। किसानों के लिए मखाने का उत्पादन अब अन्य फसलों के मुकाबले फायदे का सौदा बन गया है। एक एकड़ मखाने की खेती में किसान कम से कम 3 से 4 लाख रूपए प्रत्येक फसल में कमा लेते हैं। मखाने की नर्सरी नवंबर माह में लगती है। बिहार में मखाने की खेती को ‘पानी की फसल’ भी कहते हैं। क्योंकि ये शुरू से अंत तक जलमग्न रहती है। मखाने की करीब 4 महीने बाद, फ़रवरी-मार्च में रोपाई होती है। रोपाई के बाद पौधों में फूल लगने लगते हैं। अक्टूबर-नवंबर में फसल पक जाती है और उसकी कटाई शुरू होती है। मखाने की खेती में तीन से चार फ़ीट पानी हमेशा भरा रहता है। मखाने के फल कांटेदार होते हैं। उन्हें कीटनाशकों से बचाना किसी चुनौती से कम नहीं होता। अच्छी बात ये है कुदरती आपदाएं जैसे औले पड़ना, बेमौसम बारिश का होना, मखाने की फसल का कुछ नहीं बिगाड़ पाती। कुलमिलाकर मखाना बोर्ड बनने के बाद भारतीय किसानों का ध्यान इस मुनाफे की खेती की ओर तेजी से आर्कर्षित जरूर हुआ है। डॉ. रमेश ठाकुर

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कविता जीवन का आधार

जीवन का आधार

भाई अगर निभा रहा, फर्ज सभी हर बार।समझो उसकी संगिनी, पूजन की हकदार॥ जो नारी ससुराल को, देती मान अपार।उसका गौरव गूँजता, फैले सुख संसार॥…

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लेख नैतिक पतन के चलते खतरे में इंसानी रिश्ते

नैतिक पतन के चलते खतरे में इंसानी रिश्ते

समाज में कितना पतन बाकी है?  यह सुनकर दिल दहल जाता है कि कोई बेटा अपने ही माता-पिता की इतनी निर्ममता से हत्या कर सकता…

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आलोचना वाद को वाद ही रहने दें, विवाद न बनने दें…

वाद को वाद ही रहने दें, विवाद न बनने दें…

सुशील कुमार ‘नवीन’ गन कल्चर के नाम पर हरियाणा में कुछ गायकों के यू ट्यूब से डिलीट किए गए गानों पर इशारों-इशारों में रार जारी है। यह गायकों के साथ-साथ हरियाणवीं म्यूजिक इंडस्ट्रीज के लिए भी अच्छा संकेत नहीं है। मौका पड़ते ही एक दूसरे पर छींटाकशी या टोंटबाजी से बात सुधरने के चांस कम, बिगड़ने के ज्यादा है। दस दिन के अंतराल में जो नुकसान इंडस्ट्रीज को हुआ है, उसके नुकसान की भरपाई होने में बहुत समय लगेगा। समय रहते वाद को विवाद होने से बचाने की पहल जरूरी है। अब ये पहल सरकार करे या गायकों के चुनिंदा नुमाइंदे। इसके बिना कोई समाधान नहीं निकलने वाला।       देशभर में अपना विशेष स्थान रखने वाला हरियाणा पिछले दस दिन से अलग ही मूड में है। जिधर देखो, उधर गन कल्चर के नाम पर डिलीट किए गए गानों की चर्चा है। रोजाना सैकड़ों रील सोशल मीडिया पर अपलोड हो रही है। ध्यान रहे कि हरियाणा पुलिस ने इन दिनों गन कल्चर को बढ़ावा देने वाले गानों को निशाने पर लिया हुआ है। मुख्यमंत्री के निर्देशों के बाद से लगातार इस तरह के गानों की सूची बनाई जा रही हैं। जानकारी अनुसार अभी तक इस प्रकार के 10 गानों को यू ट्यूब से हटाया जा चुका है। माना जा रहा है कि इस तरह के 100 गाने और पुलिस के भेंट चढ़ने वाले हैं। जिन दस गानों के डिलीट होने की बात है, उनमें से सात एक ही गायक के बताए जा रहे हैं। ऐसे में उक्त गायक को दर्द होना तो लाजमी है। ये दर्द किसी दवा से कम होने वाला नहीं है। यह बात वो गायक भी जानते हैं और उनके चाहने वाले। नुकसान कितना होगा, यह अभी कोई नहीं जानता। हां जितना समय गुजरता जायेगा, नुकसान की मात्रा बढ़ती जायेगी। बौखलाहट, हड़बड़ाहट या बिना कुछ सोचे विचारे उठाए गए कदम लाभ की जगह नुकसान ही ज्यादा पहुंचाते हैं।       फिलहाल हो भी यही रहा है। सरकार में पदासीन एक गायक की सोशल मीडिया पर विरोध रूपी हौसला अफजाई फॉलोवर्स लगातार कर रहे हैं। उद्वेगजनक कटु सर्पित वाक् शिलिमुख घाव को हरा ही कर रहे हैं। रही सही कसर ये माइक वाले भाई पूरी कर रहे हैं। जैसे ही किसी एक का कोई बयान आता है तो अपनी फैन फॉलोइंग बढ़ाने के चक्कर में दूसरे के पास पहुंच जाते हैं। जब तक उसके श्रीमुख से दूसरे के लिए कोई कड़वी बात न निकले, माइक को हटाते ही नहीं। जैसे ही कुछ बोला, उसे दूसरे को हैशटैग कर उसकी प्रतिक्रिया की बाट जोहना शुरू कर देते हैं। इन महानुभावों की दरियादिली तो देखिए ये दूसरे पक्ष के बुलावे का इंतजार भी नहीं करते, खुद ही अपना झोला झंडी उठाकर पहुंच जाते हैं एक नई फिल्म बनाने को। पिछले दस-बारह दिनों से यही तो हो रहा है। इनकी एक खास बात और भी है कि अगला कुछ न भी कहना चाहे तो उसे बातों में ले कोई दुखती रग छेड़कर उससे कुछ उल्टा पुल्टा कहलवा ही देते हैं।    अब बात आती है कि ये स्थिति पैदा ही क्यों हुई? एक कहावत है कि दूसरों को अपने घर में झांकने का मौका दोगे तो कमियां तो बाहर जाएंगी ही। यही फिलहाल हरियाणा म्यूजिक इंडस्ट्रीज में हो रहा है। एक गायक का गाना थोड़ा पॉपुलर क्या हुआ, दूसरे को मिर्ची लग जाती है। कुछ नया कंटेंट की जगह उसी को नीचा दिखाने में न सिर और न पैर वाली अपनी अमूल्य रचना निर्मित कर अपने आप को सुप्रीम साबित करने का अलौकिक और अदभुत प्रयास करते हैं। एक दुनाली की बात करता है तो दूसरा पिस्टल की। एक पीलिए में मामा पिस्तौल की बात करता है तो दूसरा मुंह दिखाई में बंदूक की। एक पिस्टल से महंगा लहंगा बोलता है तो दूसरा कोर्ट में ही गोली चलवा देता है। एक लफंडर बनता है तो दूसरा चम्बल का डाकू। बदमाशी के ट्यूशन, जेल में खटोले आदि तो अभी बैन होकर ज्यादा चर्चा में है ही।   हरियाणा की प्रसिद्ध कहावत है कि गोह के जाए, सारे खुरदरे। अर्थात् सभी एक जैसे। वाद गीतों के बोल में रहे तब तक तो ठीक है पर जब एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास हो तो यही वाद विवाद बन जाता है। और हो भी यही रहा है। सरकार की सख्ती से इंडस्ट्रीज को ब्रेक से लग गए हैं। खुद कलाकार भी इस बात को स्वीकार रहे हैं कि नया कुछ लिखने, बनाने या रिलीज करने से पहले सब हिचक रहे हैं। सब को डर है कि फायदे की जगह नुकसान न हो जाए। जो हो गया वो हो गया। भविष्य में ऐसी स्थिति सामने न आए इस पर विचार आज पहले जरूरी है। इंडस्ट्रीज में विवादों से दूर मां बोली के लिए जीने वाले राममेहर महला, रामकेश जीवनपुरिया जैसे बहुत कलाकार हैं। उन्हें आगे करें। आपसी विरोधाभास को छोड़कर एकजुट हो बैठकर सरकार से बातचीत करे। लक्ष्य एक हो कि इंडस्ट्रीज की गरिमा बनी रहे। चर्चा होगी तो समाधान भी पक्का निकलेगा। सोशल मीडिया से तो समाधान होने वाला नहीं। बात बढ़ेगी तो सख्ती ज्यादा ही होगी, कम होने से रही। चाणक्य नीति में कहा गया है कि – प्रभूतं कार्यमपि वा तत्परः प्रकर्तुमिच्छति। सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते। छोटा हो या बड़ा, जो भी काम करना चाहें, उसे अपनी पूरी शक्ति लगाकर करें? यह गुण हमें शेर से सीखना चाहिए। इसलिए चिंतन-मनन करें। मिलने-मिलाने के बहाने क्या पता कुछ उम्मीद से ज्यादा ही मिल जाए। सुशील कुमार

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कला-संस्कृति सृष्टि चक्र का शाश्वत सनातन संवाहक भारतीय नवसम्वत्सर 

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(30 मार्च नवसंवत्सर विशेष आलेख) हिंदू नववर्ष-2025 यानी कि नये विक्रम संवत् का शुभारंभ 30 मार्च दिन रविवार से हो रहा है।इस दिन विक्रम संवत…

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28 मार्च का दिन म्यांमार और थाइलैंड के लिए एक बहुत ही बुरा दिन था। इस दिन यहां आए जोरदार व शक्तिशाली भूकंप ने दोनों…

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लेख वृद्धों के लिये उजाला बना सुप्रीम कोर्ट का फैसला

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-ललित गर्ग- देश ही नहीं, दुनिया में वृद्धों के साथ उपेक्षा, दुर्व्यवहार, प्रताड़ना, हिंसा तो बढ़ती ही जा रही है, लेकिन अब बुजुर्ग माता-पिता से…

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क्या सचमुच सिमट रही है दामन की प्रतिष्ठा?

समय के साथ परिधान और समाज की सोच में बदलाव आया है। पहले “दामन” केवल वस्त्र का टुकड़ा नहीं, बल्कि मर्यादा और संस्कृति का प्रतीक…

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