आर्थिकी अमेरिका में लगातार बिगड़ती आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति

अमेरिका में लगातार बिगड़ती आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति

काल चक्र का बदलता स्वरूप विश्व में कई गतिविधियां एक चक्र के रूप में चलती रहती है। एक कालखंड के पश्चात चक्र कभी नीचे की ओर जाता है एवं एक अन्य कालखंड के पश्चात यह चक्र कभी ऊपर की ओर जाता हुए दिखाई देता है। विदेशी व्यापार के मामले में वर्ष 1750 तक पूरे विश्व में भारत की तूती बोलती रही है, परंतु इसके पश्चात यूरोपीयन देशों ने विस्तारवादी नीतियों के चलते अपने आर्थिक हित साधते हुए विभिन्न देशों पर अपना कब्जा जमा लिया। ब्रिटेन, फ्रांन्स, डच जैसे देशों ने एशियाई देशों एवं कुछ अफ्रीकी भू भाग पर पर अपना कब्जा जमाया तो स्पेन आदि देशों ने अमेरिकी महाद्वीप पर अपना कब्जा जमाया। समय के साथ चक्र कुछ इस प्रकार चला कि वर्ष 1950 आते आते अमेरिका पूरे विश्व में सबसे अमीर देशों की श्रेणी में शामिल हो गया और ब्रिटेन, जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि ब्रिटेन की महारानी के राज्यों में सूरज कभी डूबता नहीं है, का आर्थिक दृष्टि से ढलान शुरू हो गया और आज ब्रिटेन के आर्थिक एवं सामाजिक ढांचे की  स्थिति हम सभी के सामने है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था हाल ही में पूरे विश्व में छठे स्थान पर पहुंच गई है तथा अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी के पश्चात भारत आज विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। जबकि वर्ष 1750 के पश्चात जब ब्रिटेन ने भारत पर अपना कब्जा स्थापित कर लिया था उसके बाद भारत की स्थिति यहां तक बिगड़ी थी कि पूरी विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत के विदेश व्यापार की हिस्सेदारी वर्ष 1750 के 32 प्रतिशत से घटकर वर्ष 1947 में 3 प्रतिशत के नीचे आ गई थी। परंतु, एक बार फिर कालचक्र अपना रंग दिखाता हुआ नजर आ रहा है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ ही वहां का सामाजिक ताना बाना भी छिन्न भिन्न होता हुआ दिखाई दे रहा है।  दरअसल, अमेरिका ने पूंजीवादी नीतियों को अपनाकर अपने नागरिकों में केवल आर्थिक उन्नति को ही विकास के एकमात्र मार्ग के रूप में चुना था, इससे वहां के नागरिकों में किसी भी प्रकार से धन अर्जन करने की प्रवृत्ति विकसित हुई एवं सामाजिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक ताना बाना छिन्न भिन्न हो गया। परिवार व्यवस्था समाप्त हो गई जिसका परिणाम आज हमारे सामने हैं कि आज अमेरिका में नागरिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना, मेडीकेयर योजना, मेडीकैड योजना, प्रौढ़ नागरिकों को सुविधाएं एवं केंद्र (फेडरल) सरकार के कर्मचारियों को अदा की जा रही पेंशन, आदि योजनाएं सरकार द्वारा नागरिकों के हितार्थ अमेरिका में चलानी पड़ रही हैं। इन योजनाओं पर खर्च किए जा रहे 2 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की भारी भरकम राशि का लाभ करोड़ों अमेरिकी नागरिक प्रतिवर्ष उठा रहे हैं। यह राशि अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद का 14 प्रतिशत है। सुरक्षा की मद पर भी अमेरिका द्वारा 70,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का खर्च प्रतिवर्ष किया जाता है। बेरोजगारी बीमा लाभ योजना पर भी भारी भरकम राशि अमेरिकी सरकार द्वारा प्रतिवर्ष खर्च की जाती है। अमेरिका में सेवा निवृत्त हो रहे कर्मचारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है जिसके कारण इस मद पर व्यय की जाने वाली राशि में भी बेतहाशा वृद्धि हो रही है, साथ ही लगातार बढ़ रहा सुरक्षा खर्च, स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यय की लगातार बढ़ रही राशि के बीच वर्तमान में कर की दरों में वृद्धि नहीं करने के कारण बजटीय घाटे पर दबाव बढ़ता जा रहा है। इकोनोमिक रिपोर्ट आफ द प्रेजीडेंट के अनुसार अमेरिका में वर्ष 2000 में 23,600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का बजट आधिक्य था जो वर्ष 2001 में घटकर 12,600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया। परंतु, वर्ष 2002 में एक बार जो 15,800 करोड़ अमेरिकी डॉलर का बजट घाटा प्रारम्भ हुआ तो इसके बाद से वह बढ़ता ही गया है। वर्ष 2009 में तो बजट घाटा बढ़कर 141,300 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया, वर्ष 2010 में 129,400 करोड़ अमेरिकी डॉलर, वर्ष 2011 में 130,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर, वर्ष 2012 में 108,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर एवं वर्ष 2020 में 313,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर, वर्ष 2021 में 277,000 करोड़ अमेरिको डॉलर एवं वर्ष 2022 में 188,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा है।  अमेरिका में प्रति परिवार वास्तविक औसत आय वर्ष 1973 में (वर्ष 2015 में डॉलर की कीमत पर) 50,000 अमेरिकी डॉलर थी। अमेरिका के लगभग आधे परिवारों की वास्तविक औसत आय 50,000 अमेरिकी डॉलर से अधिक थी एवं शेष आधे परिवारों की 50,000 अमेरिकी डॉलर से कम थी, जिससे आय की असमानता आज की तुलना में कम दिखाई देती थी। वर्ष 1973 से वर्ष 2015 तक अमेरिका में उत्पादकता में 115 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है जबकि परिवारों की औसत आय (मुद्रा स्फीति के समायोजन के बाद) केवल 11 प्रतिशत ही बढ़ी है। यह भी, इस बीच, अमेरिकी महिलाओं को भारी मात्रा में प्रदान किए गए रोजगार के अवसरों के चलते सम्भव हो पाया है। इस प्रकार, मुद्रा स्फीति के समायोजन के पश्चात, अमेरिका में वर्ष 1973 के पश्चात औसत आय में वृद्धि नगण्य ही रही है। वर्ष 1973 से वर्ष 2007 के बीच अमेरिकी मध्यवर्गीय परिवारों ने उपभोग पर औसत खर्च को दुगने से भी अधिक कर दिया है। जिसके कारण इन परिवारों की बचत दर 10 प्रतिशत से घट कर 2 प्रतिशत हो गई है। बल्कि कई परिवारों को तो अपने मकानों पर ऋण लेकर एवं क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ऋण लेकर भी काम चलाना पड़ रहा हैं।  जोसेफ शूम्पटर के अनुसार अमेरिका में कार ने घोड़ा गाड़ी को खत्म कर दिया एवं कम्प्यूटर ने टाइपराइटर को खत्म कर दिया। इसे “रचनात्मक विनाश” (क्रीएटिव डेस्ट्रक्शन) का नाम दिया गया, क्योंकि इससे उत्पादकता का स्तर बढ़ा था, परंतु रोजगार के लाखों अवसर समाप्त हो गए थे। अमेरिका में आज 5 में से 4 रोजगार के अवसर, सेवा क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, जहां तुलनात्मक रूप से आय कम है। कृषि एवं उद्योग (विनिर्माण सहित) क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हो पा रहे हैं। 60 वर्ष पूर्व तक अमेरिका विदेशी व्यापार के मामले में आत्मनिर्भर था। अमेरिका में विभिन्न उत्पादों का जितना उपभोग होता था उन लगभग समस्त उत्पादों का उत्पादन भी अमेरिका में ही होता था। बल्कि, विदेशी व्यापार के मामले में तो उस समय अमेरिका के पास विदेश व्यापार आधिक्य शेष रहता था। आज अमेरिका में विभिन्न उत्पादों का जितना उत्पादन होता है उससे कहीं अधिक उपभोग होता है। अमेरिकी नागरिक आज अपनी आय से अधिक व्यय करता हुआ दिखाई देता है। अमेरिका में कई नए शहरों की बसावट के पहिले, समस्त बड़े नगरों में 75 प्रतिशत श्रमिक रेल्वे एवं बसों से यात्रा करते थे। परंतु आज केवल 5 प्रतिशत नागरिक ही पब्लिक वाहनों का उपयोग, एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने जाने के लिए, करते हैं। समस्त नागरिकों के पास अपनी अपनी कार है एवं केवल स्वयं ही उस कार में वे यात्रा करते हुए पाए जाते हैं। इससे पेट्रोल, डीजल एवं गैस की खपत में बेतहाशा बृद्धि दर्ज हुई है। द्वितीय विश्व युद्ध तक अमेरिका कच्चे तेल का एक निर्यातक देश हुआ करता था परंतु आज अमेरिका अपनी कच्चे तेल की कुल आवश्यकता का एक तिहाई भाग आयात करता है। अमेरिका में वर्ष 2000 में विदेशी व्यापार घाटा 38,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का था जो 2021 में बढ़कर 86,100 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। 1970 के दशक तक, लगभग प्रत्येक वर्ष, अमेरिका के पास विदेशी व्यापार आधिक्य हुआ करता था। परंतु, इसके पश्चात अमेरिका की स्थिति विदेशी व्यापार के मामले में लगातार बिगड़ती चली गई है। अमेरिका में उच्च आय वाले क्षेत्रों में रोजगार के अवसर लगातार कम हो रहे हैं। अमेरिका में प्रति घंटा औसत मजदूरी की दर वर्ष 1973 से (मुद्रा स्फीति की दर के समायोजन के पश्चात) लगभग नहीं के बराबर बढ़ी है। अमेरिका में आय की असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। फेडरल बजट घाटा अब अरक्षणीय (अनसस्टेनेबल) स्तर पर पहुंच गया है। विदेशी व्यापार घाटा के लगातार बढ़ते जाने से आज अमेरिका 100 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि का ऋण प्रतिदिन ले रहा है। देश में लगातार बढ़ रही गरीबी अब एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की ओर स्थानांतरित हो रही है। कुल मिलाकर उक्त वर्णित अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वर्तमान हालत को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पश्चिमी आर्थिक दर्शन पर टिका पूंजीवादी मॉडल पूर्णतः असफल हो रहा है। इसी कारण से अमेरिकी अर्थशास्त्रियों द्वारा भी अब यह कहा जाने लगा है कि पूंजीवादी मॉडल समाप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है अतः साम्यवाद एवं पूंजीवाद के बाद एक तीसरे आर्थिक रास्ते की अब सख्त आवश्यकता है, जो संभवत: केवल भारत ही उपलब्ध कर सकता है।    प्रहलाद सबनानी 

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राजनीति बुढ़ापे का स्वास्थ्य सुरक्षा कवच बनाने की सराहनीय पहल

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धर्म-अध्यात्म क्षमा है युद्ध एवं शत्रुता का समाधान

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लेख ग्रामीण क्षेत्रों में कारगर साबित हो रहा है आंगनबाड़ी केंद्र

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आर्थिकी भारत के मार्च 2026 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के संकेत

भारत के मार्च 2026 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के संकेत

भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.93 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है। जबकि, जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है एवं जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। भारत की आर्थिक विकास दर लगभग 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष बनी हुई है और जापान एवं जर्मनी की आर्थिक विकास दर लगभग स्थिर है अथवा इसके ऋणात्मक रहने की भी प्रबल सम्भावना है। इस दृष्टि से मार्च 2025 तक भारत जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं मार्च 2026 तक भारत जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। हाल ही के समय में जर्मनी एवं जापान की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की समस्याएं दृष्टिगोचर हैं, जिनके कारण इन दोनों देशों की आर्थिक विकास दर आगे आने वाले वर्षों में विपरीत रूप से प्रभावित रह सकती है।  द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात लगातार 4 दशकों तक जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन में तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहा। इस दौरान विनिर्माण इकाईयों के बल पर जर्मनी ने अपने आप को विश्व में विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित कर लिया था एवं विभिन्न उत्पादों, विशेष रूप से कार, मशीनरी एवं केमिकल उत्पादों का निर्यात पूरे विश्व को भारी मात्रा में किया जाने लगा था। पिछले 20 वर्षों के दौरान जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन के विकास का इंजिन बना हुआ था। चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से विकास कर रही थी अतः पिछले 20 वर्षों के दौरान चीन, जर्मनी से  लगातार मशीनरी, कार एवं केमिकल पदार्थों का भारी मात्रा में आयात करता रहा है। परंतु, अब परिस्थितियां बदल रही हैं क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खाने लगी है और चीन ने विभिन्न उत्पादों का जर्मनी से आयात कम कर दिया है। अतः अब जर्मनी अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। आज बदली हुई परिस्थितियों में चीन, जर्मनी में निर्मित विभिन्न उत्पादों का आयात करने के स्थान पर वह जर्मनी का प्रतिस्पर्धी  बन गया है और इन्हीं उत्पादों का निर्यात करने लगा है। दूसरे, पिछले लगभग 2 वर्षों से रूस ने भी ऊर्जा की आपूर्ति यूरोप के देशों को रोक दी है, रूस द्वारा निर्यात की जाने वाली इस ऊर्जा का जर्मनी ही सबसे अधिक लाभ उठाता रहा है। तीसरे, जर्मनी में प्रौढ़ नागरिकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और एक अनुमान के अनुसार जर्मनी में आगे आने वाले एक वर्ष से कार्यकारी जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की कमी आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इससे उपभोक्ता खर्च पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। चौथे, जर्मनी में नागरिकों की उत्पादकता भी कम हो रही है। जर्मनी में प्रत्येक नागरिक वर्ष भर में केवल 1300 घंटे का कार्य करता है जबकि OECD देशों में यह औसत 1700 घंटे का है। पांचवे, यूरोपीयन यूनियन में वर्ष 2035 में पेट्रोल एवं डीजल पर चलने वाले चार पहिया वाहनों के उत्पादन पर रोक लगाई जा सकती है जबकि इन कारों का निर्माण ही जर्मनी में अधिक मात्रा में होता है तथा जर्मनी की कार निर्माता कम्पनियों ने बिजली पर चलने वाले वाहनों के निर्माण पर अभी बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया है। साथ ही, जर्मनी ने नवाचार पर भी कम ध्यान दिया है एवं स्टार्ट अप विकसित करने में बहुत पीछे रहा है आज इन क्षेत्रों में अमेरिका एवं चीन बहुत आगे निकल गए हैं एवं जर्मनी आज अपने आप को असहाय सा महसूस कर रहा है। अतः जर्मनी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव आगे आने वाले लम्बे समय तक चलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।  वैश्वीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव भी जर्मनी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है एवं अब पूरे विश्व में गैरवैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। आज प्रत्येक विकसित एवं विकासशील देश अपने पैरों पर खड़ा होकर स्वावलंबी बनना चाहता है। अतः जर्मनी जैसे देशों से मशीनरी एवं कारों का निर्यात कम हो रहा है साथ ही इन उत्पादों की तकनीकि भी लगातार बदल रही है जिसे जर्मनी की विनिर्माण इकाईयां उपलब्ध कराने में असफल सिद्ध हुई हैं। पिछले 5 वर्षों के दौरान जर्मनी अर्थव्यवस्था में विकास दर हासिल नहीं की जा सकी है। जर्मनी में सितम्बर 2023 माह में वोक्सवेगन (Volkswagen) कम्पनी ने अपनी दो विनिर्माण इकाईयों को बंद करने का निर्णय लिया है। यह कम्पनी जर्मनी में 3 लाख से अधिक रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर उपलब्ध कराती है तथा अन्य लाखों नागरिकों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं। इस कम्पनी ने जर्मनी में अपनी विनिर्माण इकाईयों में उत्पादन कार्य को काफी हद्द तक कम कर दिया है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से इस कम्पनी के उत्पादों की बिक्री लगातार कम हो रही है। पिछले 5 वर्षों के दौरान इस कम्पनी की बाजार कीमत आधे से भी कम रह गई है। इस कम्पनी की उत्पादन इकाईयों में चार पहिया वाहनों का निर्माण किया जाता रहा है परंतु अब इन उत्पादन इकाईयों में बिजली पर चलने वाली कारों के निर्माण में बहुत परेशानी आ रही है। बिजली पर चलने वाली कारों का जर्मनी में उत्पादन बढ़ाने के स्थान पर चीन से इन कारों का बहुत भारी मात्रा में आयात किया जा रहा है। अपनी आर्थिक परेशानियों को ध्यान में रखते हुए जर्मनी ने यूक्रेन को टैंकों की आपूर्ति भी रोक दी है। दरअसल कोरोना महामारी के बाद से ही, वर्ष 2020 के बाद से, जर्मनी की अर्थव्यवस्था अभी तक सही तरीके से पूरे तौर पर उबर ही नहीं सकी है।  एक अनुमान के अनुसार जर्मनी अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2024 में भी कम होने जा रहा है, यह वर्ष 2023 में भी कम हुआ था और इसके वर्ष 2025 में भी सुधरने की सम्भावना कम ही दिखाई दे रही है। जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद में वर्ष 2024 के दौरान 0.1 प्रतिशत की कमी की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। बेरोजगारी की दर भी 6.1 प्रतिशत के स्तर तक ऊपर जा सकती है। जर्मनी अर्थव्यवस्था केवल चक्रीय ही नहीं बल्कि संरचनात्मक क्षेत्र में भी समस्याओं का सामना कर रही है। इसमें सुधार की कोई सम्भावना आने वाले समय में नहीं दिख रही है। हालांकि यूरोपीयन यूनियन में जर्मनी की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परंतु फिर भी भारत, उक्त कारणों के चलते, जर्मनी की अर्थव्यवस्था को मार्च 2026 तक पीछे छोड़ देगा, ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।  इसी प्रकार, पिछले लगभग 30 वर्षों के दौरान जापान की अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति, ब्याज दरें एवं येन की कीमत स्थिर रही है। परंतु, हाल ही के समय में येन का अंतरराष्ट्रीय बाजार में अवमूल्यन हो रहा है एवं यह 160 येन प्रति अमेरिकी डॉलर के स्तर पर आ गया है, जो वर्ष 2009 के बाद से कभी नहीं रहा है।  जापान की अर्थव्यवस्था कई उत्पादों के आयात पर निर्भर करती है। जापान अपनी ऊर्जा की आवश्यकताओं का 90 प्रतिशत एवं खाद्य सामग्री का 60 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। जापान द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने से जापान में भी आयातित मुद्रा स्फीति की दर बढ़ रही है जो पिछले एक दशक के दौरान लगातार स्थिर रही है।  वर्ष 1955 से वर्ष 1990 के बीच जापान की अर्थव्यवस्था औसत 6.8 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से आगे बढ़ती रही। वर्ष 1990 तक जापान का स्टॉक मार्केट लगातार बढ़ता रहा एवं अचानक वर्ष 1990 में यह बुलबुला फट पढ़ा और जापान में आवासीय मकानों की कीमत 50 प्रतिशत तक गिर गई एवं व्यावसायिक मकानों की कीमत 85 प्रतिशत तक गिर गई। जापान के पूंजी बाजार में निक्के स्टॉक सूचकांक भी 75 प्रतिशत तक गिर गया।  जापान की अर्थव्यवस्था में तेजी के दौरान आस्तियों की बढ़ी हुई कीमत पर ऋण लिए गए थे परंतु जैसे ही इन आस्तियों की कीमत बाजार में कम हुई, नागरिकों को ऋणराशि की किश्तें चुकाने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा और इससे भी जापान में आर्थिक समस्याएं बढ़ी थी। दिवालिया होने वाले नागरिकों की संख्या बढ़ी और देश में अपस्फीति की समस्या प्रारम्भ हो गई थी। जापान की सरकार ने आर्थिक तंत्र में नई मुद्रा की मात्रा बढ़ाई और ब्याज दरों को लगभग शून्य कर दिया। इन समस्त उपायों से भी जापान में आर्थिक समस्याओं का हल नहीं निकल सका। वर्ष 2022 में जापान में भी विश्व के अन्य देशों की तरह मुद्रा स्फीति बढ़ने लगी थी परंतु जापान ने ब्याज दरों को नहीं बढ़ाया। अब कुल मिलाकर जापान अपनी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है एवं वहां पर आगे आने वाले समय में आर्थिक विकास के पटरी पर आने की सम्भावना कम ही नजर आती है अतः भारत जापान की अर्थव्यवस्था को मार्च 2025 तक पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।      प्रहलाद सबनानी

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राजनीति हरियाणा चुनावी मुद्दों से मिल रहे हैं सत्ता-विरोधी संकेत

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