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हिंदुस्तान की विदेश नीति : बदलते वैश्विक परिदृश्य में नई दिशा और चुनौतियाँ

अशोक कुमार झा

21वीं सदी की अंतरराष्ट्रीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में हिंदुस्तान का स्थान तेजी से बदल रहा है। एक ओर यह पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, दूसरी ओर दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक ताक़त। इसकी 1.4 अरब से अधिक जनसंख्या, विशाल युवा शक्ति, मजबूत आईटी और अंतरिक्ष तकनीक, परमाणु क्षमता, रक्षा ताक़त और सांस्कृतिक धरोहर इसे वैश्विक मंच पर एक निर्णायक खिलाड़ी बनाते हैं।

लेकिन इस ऊँचाई के साथ-साथ चुनौतियाँ भी उतनी ही बड़ी हैं। बदलती वैश्विक राजनीति, चीन का उभार, अमेरिका-रूस का टकराव, आतंकवाद, जलवायु संकट और तकनीकी प्रतिस्पर्धा – इन सबके बीच हिंदुस्तान की विदेश नीति को संतुलन साधते हुए आगे बढ़ना पड़ रहा है।

1. विदेश नीति की ऐतिहासिक जड़ें

हिंदुस्तान की विदेश नीति की नींव पंडित जवाहरलाल नेहरू ने रखी। उन्होंने इसे असंपृक्त आंदोलन (Non-Aligned Movement) से जोड़ा। उनका मानना था कि शीत युद्ध के समय किसी एक गुट (अमेरिका या सोवियत संघ) के साथ पूरी तरह खड़े होने से हिंदुस्तान की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सीमित हो जाएगी।

  • नेहरू युग : पंचशील सिद्धांत (1954) – आपसी सम्मान, संप्रभुता और हस्तक्षेप न करने के उसूल।
  • इंदिरा गांधी युग : बांग्लादेश मुक्ति संग्राम (1971), परमाणु परीक्षण (1974), और सोवियत संघ के साथ संधि।
  • राजीव गांधी युग : तकनीकी सहयोग और आधुनिक कूटनीति की शुरुआत।
  • अटल बिहारी वाजपेयी युग : 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण और अमेरिका से नए रिश्तों की नींव।
  • मनमोहन सिंह युग : 2005 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौता, आर्थिक वैश्वीकरण को गति।
  • नरेंद्र मोदी युग : आक्रामक, सक्रिय और व्यक्तित्व-प्रधान कूटनीति।

2. विदेश नीति के मूल तत्व

आज हिंदुस्तान की विदेश नीति केवल “सुरक्षा” तक सीमित नहीं बल्कि बहुआयामी है। इसके मुख्य तत्व हैं –

  1. रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) : किसी एक ध्रुव पर निर्भर न रहकर संतुलन बनाना।
  2. नेबरहुड फर्स्ट : पड़ोसी देशों के साथ प्राथमिकता से संबंध।
  3. एक्ट ईस्ट : दक्षिण-पूर्व एशिया और प्रशांत क्षेत्र में सक्रियता।
  4. ग्लोबल साउथ का नेतृत्व : विकासशील देशों की आवाज़ उठाना।
  5. डायस्पोरा डिप्लोमेसी : प्रवासी भारतीयों को विदेश नीति का हिस्सा बनाना।
  6. सांस्कृतिक कूटनीति : योग, आयुर्वेद, बॉलीवुड और भारतीय सभ्यता के जरिए वैश्विक छवि गढ़ना।

3. पड़ोसी देशों के साथ संबंध

(क) पाकिस्तान :

  • सबसे बड़ी चुनौती आतंकवाद।
  • पुलवामा हमले के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक ने नई नीति स्पष्ट की – “आतंकवाद का जवाब कूटनीति नहीं, सख्त कार्रवाई से।”
  • पाकिस्तान की अस्थिरता हिंदुस्तान के लिए सुरक्षा जोखिम है।

(ख) चीन :

  • सीमा विवाद (डोकलाम, गलवान संघर्ष)।
  • व्यापारिक निर्भरता – चीन से सबसे अधिक आयात।
  • हिंद महासागर और एशिया में शक्ति संतुलन की प्रतिस्पर्धा।

(ग) नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार :

  • “नेबरहुड फर्स्ट” नीति इन्हीं पर केंद्रित है।
  • नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता, श्रीलंका का आर्थिक संकट, म्यांमार में सेना का शासन – इन सबका असर सीधे हिंदुस्तान पर पड़ता है।
  • बांग्लादेश के साथ भूमि सीमा समझौता और नदी जल बंटवारे का प्रश्न महत्वपूर्ण है।

4. वैश्विक महाशक्तियों के साथ संबंध

(क) अमेरिका :

  • हिंदुस्तान-अमेरिका संबंध आज “नेचुरल पार्टनरशिप” कहे जाते हैं।
  • QUAD (हिंदुस्तान, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया) – चीन को संतुलित करने की रणनीति।
  • प्रौद्योगिकी, रक्षा, 5G, अंतरिक्ष और व्यापार में साझेदारी।

(ख) रूस :

  • दशकों से रक्षा सहयोग का आधार।
  • यूक्रेन युद्ध के बाद पश्चिमी दबाव के बावजूद हिंदुस्तान ने रूस से सस्ता तेल खरीदा।
  • यह “राष्ट्रहित पहले” की नीति का उदाहरण है।

(ग) यूरोप :

  • फ्रांस हिंदुस्तान का प्रमुख रक्षा साझेदार (राफेल विमान)।
  • जर्मनी और ब्रिटेन के साथ भी आर्थिक और शैक्षणिक सहयोग बढ़ रहा है।

5. पश्चिम एशिया और मध्य एशिया

  • खाड़ी देशों से ऊर्जा सुरक्षा (तेल और गैस आयात)।
  • 80 लाख से अधिक प्रवासी भारतीयों का योगदान।
  • इजरायल और अरब देशों के बीच हिंदुस्तान की “संतुलनकारी भूमिका”।
  • ईरान के चाबहार बंदरगाह से हिंदुस्तान को मध्य एशिया और अफगानिस्तान तक पहुँच।

6. हिंद महासागर और समुद्री रणनीति

  • हिंद महासागर को “21वीं सदी का खेल का मैदान” कहा जा रहा है।
  • चीन की बढ़ती उपस्थिति (String of Pearls रणनीति) को संतुलित करने के लिए हिंदुस्तान “SAGAR – Security and Growth for All in the Region” नीति पर काम कर रहा है।
  • अंडमान-निकोबार, लक्षद्वीप और मालदीव जैसे क्षेत्रों में समुद्री ताक़त को मजबूत किया जा रहा है।

7. ग्लोबल साउथ और G20

  • हिंदुस्तान ने G20 अध्यक्षता के दौरान “ग्लोबल साउथ” को मंच दिया।
  • जलवायु परिवर्तन, खाद्य सुरक्षा, ऋण संकट और डिजिटल अंतराल जैसे मुद्दों पर विकासशील देशों की आवाज़ बुलंद की।
  • यह विदेश नीति का नया आयाम है, जिससे हिंदुस्तान “नेतृत्वकारी शक्ति” के रूप में उभरा है।

8. प्रवासी भारतीय और सांस्कृतिक कूटनीति

  • अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, खाड़ी देशों और अफ्रीका में करोड़ों प्रवासी भारतीय रहते हैं।
  • वे न केवल धन भेजते हैं, बल्कि हिंदुस्तान की सकारात्मक छवि भी बनाते हैं।
  • योग दिवस (21 जून) को संयुक्त राष्ट्र में मान्यता मिलना, आयुर्वेद और बॉलीवुड की लोकप्रियता – ये सब सांस्कृतिक कूटनीति के उदाहरण हैं।

9. भविष्य की चुनौतियाँ

  1. चीन-अमेरिका टकराव में संतुलन।
  2. आतंकवाद और साइबर हमले
  3. जलवायु संकट और ऊर्जा सुरक्षा
  4. कृत्रिम बुद्धिमत्ता और तकनीकी प्रतिस्पर्धा
  5. संयुक्त राष्ट्र सुधार और सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की लड़ाई।

10. निष्कर्ष

हिंदुस्तान की विदेश नीति अब रक्षात्मक से आक्रामक और प्रतिक्रियात्मक से सक्रिय हो चुकी है। यह नीति स्पष्ट रूप से “राष्ट्रहित सर्वोपरि” के सिद्धांत पर टिकी है।

आज हिंदुस्तान केवल दक्षिण एशिया की शक्ति नहीं बल्कि वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है। अगर यह नीति संतुलन, दूरदर्शिता और व्यावहारिकता के साथ आगे बढ़ी तो आने वाले दशकों में हिंदुस्तान न केवल “विकासशील दुनिया की आवाज़” रहेगा बल्कि वैश्विक महाशक्ति के रूप में स्थापित होगा।

 अशोक कुमार झा

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वैश्विक कूटनीति के ‘मोदी मॉडल’ से मचे अंतरराष्ट्रीय धमाल के मायने

कमलेश पांडेय

वैश्विक कूटनीति के ‘मोदी मॉडल’ से एक के बाद एक मचे अंतरराष्ट्रीय राजनयिक धमाल के मायने ब्रेक के बाद निरंतर दिलचस्प होते जा रहे हैं क्योंकि ये अमेरिकी नेतृत्व वाली एक ध्रुवीय दुनिया से इतर बहुपक्षीय दुनिया को कतिपय मामलों में ग्रेस प्रदान करते हैं। समकालीन दुनियादारी में अमेरिकी हैकड़ी पर लगाम लगाते हुए भारत ने रूसी-चीनी खेमे के द्विध्रुवीय दुनिया के साथ खड़े होने की जो चतुराई  दिखाई है, वह इसलिए कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर उपेक्षित, पददलित और पिछड़े देशों यानी ग्लोबल साउथ के दूरगामी हितों को साधा जा सके। 

अब पूरी दुनिया में चीन के नेतृत्व में आयोजित हुए एससीओ की बैठक से जुड़ी पीएम नरेंद्र मोदी, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग  की आपसी पर्सनल केमिस्ट्री वाली तस्वीर वायरल हो चुकी है, इसलिए वैश्विक कूटनीतिक विशेषज्ञ उसका लगातार विश्लेषण कर रहे हैं और आए दिन बदलती दुनियादारी में अपनी माकूल जगह तलाश रहे हैं जबकि भारत के साथ दोस्त बनकर गद्दारी की फितरत रखने वाला अमेरिका अब अपना सिर धुन रहा है। 

चौंकाने वाली बात यह है कि लगातार भारत विरोधी विषबमन करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और उनके आर्थिक सलाहकार पीटर के इतर अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने भारत-अमेरिकी संबंधों को फिर से संभालने की कोशिश की है जिसके बाद केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का भी एक बयान सामने आया है जो सकारात्मक संदेश देता है कि ट्रेड डील के लिए अमेरिका के साथ बातचीत चल रही है हालांकि, ऑपरेशन सिंदूर के  बाद जो अमेरिकी हठधर्मिता सामने आई है, उसके दृष्टिगत भारत को अब चीन की तरह ही अमेरिका के साथ भी अपनी शर्तों पर फूंक फूंक कर कदम आगे बढ़ाना पड़ेगा क्योंकि ये लोग भरोसे के लायक नहीं हैं, खासकर वैश्विक वफादार मित्र रूस की तरह।

अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक विशेषज्ञ बताते हैं कि टैरिफ पर अड़ियल रुख के बावजूद ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो अमेरिका के लिए भारत के रणनीतिक महत्व के विविध आयाम को समझते हैं। मार्को रुबियो उनमें से ही एक हैं। देखा जाए तो उनका बयान ही नहीं बल्कि उसकी टाइमिंग भी काफी अहम है। जिस दिन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते को एकतरफा बताया, उसी दिन रुबियो ने इस साझेदारी को 21वीं सदी का निर्णायक रिश्ता करार दिया। यही नहीं, उन्होंने दोनों देशों की जनता के बीच बनी मित्रता को इंडिया-यूएस पार्टनरशिप का आधार बताकर हाल में आई कटुता को एक हद तक दूर करने का जो प्रयास किया है, वह उनकी दूरदर्शिता और बौद्धिक परिपक्वता की निशानी है।

जानकार बताते हैं कि दुनियावी तौर पर वयोवृद्ध राष्ट्रपति ट्रंप की छवि एक ऐसे अड़ियल राजनेता की बन चुकी है जिसकी आदतें और नीतियां अस्थिर हैं और वो व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के आधार पर बदलती रहती हैं। जो राष्ट्रपति ट्रंप कभी पीएम मोदी के लिए कुर्सियां लगाते व पकड़े दिखाई देते हैं, वहीं उनके लिए अपमानित करने वाली बात कहेंगे, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता लेकिन ट्रंप ने बिल्कुल वैसा ही किया है। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में भी कई ऐसे बयान दिए थे जिनके बारे में बाद में व्हाइट  हाउस को सफाई तक देनी पड़ी। चाहे भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर मसले पर मध्यस्थता का प्रस्ताव हो या फिर अमेरिकी चुनाव में दखल के मामले में रूस को क्लीनचिट देना- ट्रंप ने अपने विदेश विभाग को कई बार असमंजस में डाल दिया था। वहीं, बंगलादेश में हिन्दू उत्पीड़न की उन्होंने जिस तरह से जबर्दस्त मुखालफत की, उससे हिन्दू बहुल देश भारत में उनसे सहानुभूति हुई लेकिन ऑपरेशन सिंदूर और टैरिफ अटैक से जुड़ी शर्मनाक बयानबाजियों ने उनके तमाम सद्गुणों को धत्ता बता दिया।

वहीं अगर मौजूदा वैश्विक और द्विपक्षीय हालात को देखें, तो ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भी अब भी कुछ वैसा ही होता दिखाई पड़ रहा है। भले ही ट्रंप का रवैया बातचीत के सारे रास्ते बंद करने का है लेकिन अमेरिकी रणनीतिकार जानते हैं कि इससे चीजें और बिगड़ती चली जाएंगी। ऐसे में भारत की वैश्विक भूमिका को अब हल्के में नहीं लिया जा सकता । इसलिए अमेरिकी प्रशासन अब गम्भीर हो चुका है क्योंकि पश्चिमी मीडिया पीएम मोदी की चीन यात्रा और वहां पर रूसी राष्ट्रपति पूतिन से हुई उनकी मुलाकात को अमेरिकी डिप्लोमैसी के लिए एक बड़े झटके के रूप में देख रहा है जिससे उबरने में अब उसे वर्षों मेहनत करनी पड़ेगी।

हालांकि, भारत ने भी कूटनीतिक मामलों में हमेशा से ही चतुराई से काम लिया है, इसलिए उसने कभी भी द्विपक्षीय संवाद का रास्ता बंद नहीं किया है। हालिया केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल का बयान इस बात का सबसे बड़ा सबूत है। निःसन्देह दुनिया भर में कारोबारी रिश्तों का विस्तार करने के बावजूद भी नई दिल्ली ने वॉशिंगटन के साथ पुराने संबंधों को नहीं छोड़ा है। इस कड़ी में यह भी अहम है कि दोनों देशों की सेनाएं संयुक्त अभ्यास के लिए अलास्का में जुटी हुई हैं। 

भारत-अमेरिका दोनों पक्ष यही चाहते भी हैं कि बातचीत लगातार जारी रहे क्योंकि  दो दशकों की मेहनत के बाद उन्होंने अपने संबंधों को यह ऊंचाई दी थी। यह कड़वा सच है कि इस दौरान यह द्विपक्षीय रिश्ता कभी भी तीसरे देश को देखकर निर्धारित नहीं हुआ। इसलिए भारत ने फ्रांस, इंग्लैंड, जापान, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, रूस, चीन, ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब, ईरान, आसियान देश आदि सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध विकसित किये। लिहाजा मौजूदा अनुभवी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की सरकार को यह बात समझते हुए बातचीत के रास्ते खुले रखने चाहिए। उन्हें यह समझना होगा कि कुछ मामलों में ड्रैगन के व्यवहार से यूएस के बरक्स चीन के विश्वसनीय ताक़त होने पर संदेह होता है, इसलिए अमेरिका का भविष्य उज्जवल हो सकता है बशर्ते कि वह भारत को साधकर चल सके।

कमलेश पांडेय

भागवत ने विपक्ष की बड़ी उम्मीद तोड़ दी

राजेश कुमार पासी

मोदी को तीसरा कार्यकाल मिलने से विपक्ष में हताशा बढ़ती जा रही है । दूसरी तरफ जो पूरा इको सिस्टम मोदी को सत्ता से हटाना चाहता है, वो भी असहाय महसूस कर रहा है । 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों और उनके इको सिस्टम को लग रहा था कि इस बार वो मोदी को सत्ता से बाहर कर देंगे लेकिन उनकी उम्मीद टूट गई। अल्पमत की सरकार होने पर उनकी उम्मीद फिर जाग गई कि नीतीश और नायडू की बैसाखियों पर टिकी यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाएगी क्योंकि मोदी को गठबंधन सरकार चलाने का अनुभव नहीं है। एक साल बाद विपक्ष को समझ आ गया है कि निकट भविष्य में इस सरकार को कोई खतरा नहीं है। ऐसे में संघ प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान ने विपक्ष को उम्मीदों से भर दिया ।

 मोदी जब सत्ता में आये थे तो उन्होंने भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं को सक्रिय राजनीति से बाहर कर दिया था । इससे ये संदेश गया कि भाजपा अब बूढ़े नेताओं को पार्टी में रखने वाली नहीं है। विशेष रूप से भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी को जब भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो कहा जाने लगा कि पार्टी अब 75 साल से ज्यादा उम्र वाले नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा रही है। इस बात की अनदेखी कर दी गई कि जब आडवाणी जी को भाजपा ने चुनावी राजनीति से बाहर किया तो उनकी उम्र 75 वर्ष से कहीं ज्यादा 92 वर्ष थी । इसी तरह मुरली मनोहर जोशी को भी भाजपा ने 85 वर्ष की आयु में टिकट नहीं दिया था और उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था ।  विपक्ष ये विमर्श कहां से ले आया कि भाजपा अब 75 साल से ज्यादा उम्र के नेताओं को सक्रिय राजनीति से बाहर का रास्ता दिखा रही है। जब आडवाणी जी पार्टी में एक सांसद के रूप में 92 वर्ष तक रह सकते हैं तो 75 साल वाला फार्मूला कहां से आ गया

               भाजपा विरोधी जान चुके हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता से हटाना उनके वश की बात नहीं है। उन्होंने पूरी कोशिश करके देख लिया है कि मोदी की लोकप्रियता कम होने का नाम नहीं ले रही है। उनके लगाए आरोपों का जनता पर कोई असर नहीं होता है। विपक्ष नए-नए मुद्दे लेकर आता है लेकिन उसके मुद्दे जनता के मुद्दे नहीं बन पाते हैं। यही कारण है कि हताशा में विपक्ष देश विरोध तक चला जाता है।  जब मोहन भागवत ने 75 साल में रिटायर होने के मोरोपंत पिंगले के कथन का जिक्र किया था तो विपक्ष में बहुत बड़ी उम्मीद पैदा हो गई थी । उन्हें लगा कि मोदी को सत्ता से हटाना बेशक मुश्किल हो लेकिन जब संघ प्रमुख कह रहे हैं कि 75 साल वाले नेता को रिटायर हो जाना चाहिए तो मोदी भी रिटायर हो जाएंगे । उनकी उम्मीदों पर पानी फेरते हुए भागवत ने बयान दिया है कि मैंने किसी के लिए नहीं कहा कि उसे 75 साल में पद छोड़ देना चाहिए। उन्होंने दूसरी बात यह कही कि मैं भी 75 साल का होने जा रहा हूँ और मैं भी पद नहीं छोड़ने जा रहा हूँ।

विपक्ष को लग रहा था कि अगर भागवत पद छोड़ देंगे तो मोदी पर नैतिक दबाव आ जायेगा और उन्हें भी पद छोड़ना पड़ेगा। भागवत के इस बयान से कि वो भी पद छोड़ने वाले नहीं है, विपक्ष की सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है। कितने ही लोग अपने-अपने प्रधानमंत्री मन में बना चुके थे, उनके सपने टूट गए। विपक्ष ही नहीं, भाजपा के भी कुछ लोग अपनी गोटियां बिठा रहे थे. उनकी भी उम्मीद खत्म हो गई है।  संघ प्रमुख के बयान से यह सोचना कि मोदी भी रिटायर हो जाएंगे, विपक्ष की राजनीतिक नासमझी है । मेरा मानना है कि 2029 का चुनाव तो भाजपा मोदी के नेतृत्व में लड़ने वाली है और संभावना इस बात की भी है कि 2034 का चुनाव भी मोदी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा ।  अंत में उनका स्वास्थ्य निर्णय लेगा कि वो कब तक पद पर बने रहते हैं।

राजनीति में भविष्यवाणी नहीं की जाती लेकिन मेरा मानना है कि मोदी खुद सत्ता छोड़कर जाएंगे. उन्हें न तो विपक्ष सत्ता से हटा सकता है और न ही भाजपा में कोई नेता ऐसा कर सकता है । राजनीति में वही पार्टी का नेतृत्व करता है जिसके नाम पर वोट मिल सकते हैं। इस समय मोदी ही वो नेता हैं जिनके नाम पर भाजपा वोट मांग सकती है। जब तक मोदी राष्ट्रीय राजनीति में हैं, भाजपा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती और न ही संघ कुछ कर सकता है। भाजपा पर संघ का प्रभाव है, इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन भाजपा के काम में एक हद तक ही संघ दखल दे सकता है। भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व को बदलना संघ के लिए भी मुश्किल काम है क्योंकि इसी नेतृत्व के कारण संघ के सारे काम पूरे हो रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा कैडर आधारित पार्टी है और इस समय कैडर पूरी तरह से मोदी के पीछे खड़ा है। कैडर के खिलाफ जाकर भाजपा के नेतृत्व को बदलने के बारे में सोचना संघ के लिए भी मुश्किल है।

बेशक संघ भाजपा का मातृ संगठन है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी से बड़ा व्यक्तित्व आज कोई दूसरा नहीं है, संघ प्रमुख भी नहीं । भाजपा और संघ में कहा जाता है कि व्यक्ति से बड़ा संगठन होता है लेकिन मोदी आज संगठन से बड़े हो गए हैं। क्या यह सच्चाई संघ को नजर नहीं आ रही है। मेरा मानना है कि संघ भी इस सच की अनदेखी नहीं कर सकता । अगर कहीं भी संघ के मन में ऐसा विचार आया होगा कि भाजपा की कमान एक उम्र के बाद मोदी की जगह किसी दूसरे नेता को देनी चाहिए तो सच्चाई को देखते हुए वो पीछे हट गया है। मोदी जी की जगह किसी और को नेतृत्व सौंपने के परिणाम की कल्पना संघ ने की होगी तो उसे पता चल गया होगा कि मोदी को हटाने का भाजपा और संघ को कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है ।

                क्या संघ को अहसास नहीं है कि मोदी सरकार आने के बाद उसका सामाजिक और भौगोलिक विस्तार लगातार हो रहा है। वो इससे अंजान नहीं है कि अगर भाजपा सत्ता से बाहर गयी तो उसकी सबसे बड़ी कीमत संघ को ही चुकानी होगी । अगर मोदी के कारण संघ का भाजपा पर नियंत्रण कम हो गया है तो उसका राष्ट्रीय महत्व भी बहुत बढ़ गया है। अगर मोदी के जाने के बाद भाजपा के हाथ से सत्ता चली जाती है तो संघ को भाजपा पर ज्यादा नियंत्रण मिलने का कोई फायदा होने वाला नहीं है। देखा जाए तो संघ एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है, राजनीतिक संगठन नहीं है। राजनीतिक उद्देश्य के लिए उसने भाजपा का निर्माण किया था जो पूरी तरह से फलीभूत हो रहा है। अगर भाजपा के जरिये संघ के न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्य भी पूरे हो रहे हैं तो संघ को भाजपा से कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि संघ ने बहुत सोच समझ कर पीछे हटने का फैसला कर लिया है। संघ को सत्ता की ताकत का अहसास अच्छी तरह से हो गया है और वो यह भी जान गया है कि भाजपा का लगातार सत्ता में रहना कितना जरूरी है। भाजपा के लगातार तीन कार्यकाल तक सत्ता में रहने की अहमियत का अंदाजा संघ को है इसलिए वो नहीं चाहेगा कि उसकी दखलंदाजी से भाजपा को अगला कार्यकाल मिलने में बाधा उत्पन्न हो जाए।

 भागवत ने कहा है कि भाजपा का अगला अध्यक्ष कौन होगा, ये भाजपा को तय करना है. संघ का इससे कोई लेना देना नहीं है । उनके इस बयान से साबित हो गया है कि संघ ने भाजपा में दखलंदाजी से दूरी बना ली है। इसका यह मतलब नहीं है कि भाजपा और संघ में दूरी पैदा हो गई है बल्कि संघ ने अपनी भूमिका को पहचान लिया है। उसको यह बात समझ आ गई है कि उसका काम भाजपा को सत्ता पाने में मदद करना है लेकिन सत्ता कैसे चलानी है, ये उसे तय नहीं करना है। संघ को पता चल गया है कि सत्ता पाने के बाद देश चलाना भाजपा का काम है और संघ का काम सत्ता के सहयोग से अपने संगठन को आगे बढ़ाने का है । वैसे भी जिन लोगों के हाथ में भाजपा की बागडोर है, वो संघ से निकले हुए उसके स्वयंसेवक ही हैं । संघ को अहसास हो गया है कि वो किसी को पार्टी का नेता बना सकता है लेकिन जनता का नेता बनाना उसके हाथ में नहीं है।  2014 के बाद मोदी अब भाजपा के नेता या संघ के कार्यकर्ता नहीं रह गए हैं बल्कि वो देश के नेता बन गए हैं। संघ जानता है कि मोदी की इस समय क्या ताकत है, इसलिए वो मोदी को कोई निर्देश देने की स्थिति में नहीं है। विपक्ष को मोदी के रिटायर होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए थी लेकिन अब उसे समझ आ जाना चाहिए कि उसे जल्दी मोदी से छुटकारा मिलने वाला नहीं है । जब तक मोदी का स्वास्थ्य अनुमति देगा, वो भाजपा का नेतृत्व करते रहेंगे । 

राजेश कुमार पासी

‘सराहना’ के बाद ‘व्‍यावसायिक सफलता’ के इंतजार में अलाया एफ

सुभाष शिरढोनकर

28 नवंबर 1997 को मुंबई में एक्‍ट्रेस पूजा बेदी की बेटी के तौर पर पैदा हुई एक्‍ट्रेस अलाया एफ की शुरूआती पढाई मुंबई के जमुना बाई नर्सरी स्कूल में हुई। उसके बाद वह आगे की पढाई उन्होंने न्यूयार्क यूनिवर्सिटी से पूरी की। अलाया ने न्यूयार्क फिल्म ऐकेडमी से एक साल का एक्टिंग कोर्स भी किया है।

अलाया एफ की जर्नी दूसरे स्‍टार किडस से थोड़ा अलग रही । उन्‍होंने सैफ अली खान के साथ फैमिली कॉमेडी फिल्म ‘जवानी जानेमन’ (2020) से बॉलीवुड में डेब्‍यू किया था।  इस डेब्यू फिल्‍म के साथ ही उन्‍होंने सभी का ध्यान खींचा। इसमें एक अलग तरह के किरदार को बखूबी निभा कर उन्‍होंने इस बात का संकेत दिया कि वह इस इंडस्‍ट्री में लम्बी पारी खेलने का इरादा लेकर आई है।

पहली फिल्म के जरिए ढेर सारी संभावनाएं पैदा करने के बाद कई मेकर्स उनके साथ अपनी फिल्में शुरू करने की योजना बनाने लगे थे लेकिन तभी कोराना आ गया । उसके बाद उनको दूसरी फिल्‍म के लिए 2 साल तक इंतजार करना पड़ा। 

फिल्म ‘जवानी जानेमन’ (2020) के बाद अब तक वे ‘फ्रेडी’ (2022), एकता कपूर की सुपरनैचुरल थ्रिलर ‘यू टर्न’ (2023), अनुराग कश्यप की फिल्म ‘ऑलमोस्ट प्यार विद डीजे मोहब्बत’ (2023), ‘बड़े मियां छोटे मियां’ (2024) और ‘श्रीकांत’ (2024) जैसी फिल्मों में दिखाई दे चुकी हैं।

फिल्‍म ‘ऑलमोस्ट प्यार विद डीजे मोहब्बत’ (2023) में उनके अपोजिट करण मेहता थे। एक सिंगर से प्रभावित होकर उसके प्‍यार में पड़ जाने वाली लड़की कहानी पर बेस्‍ड यह फिल्‍म हालांकि बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई लेकिन फिल्‍म में अलाया ने अपने काम से हर किसी पर गहरा असर छोड़ा।

फिल्‍म ‘श्रीकांत’ (2024) में अलाया एफ और राजकुमार राव पहली बार एक साथ पर्दे पर नजर आए। फिल्‍म में काम करते हुए राजकुमार राव ने अलाया एफ को आज के दौर की सबसे होनहार अभिनेत्रियों में से एक बताया।

एक नेत्रहीन उद्योगपति श्रीकांत बोला की बायोपिक फिल्‍म ‘श्रीकांत’ (2024) में अलाया एफ ने आलिया भट्ट की तरह अपने किरदार को बेहद  वास्‍तविक अंदाज में निभाकर हर किसी को हतप्रभ कर दिया था। 

अलाया एफ ने जिस तरह फिल्मों में मजबूत महिलाओं वाले किरदार निभाये और खासकर कार्तिक आर्यन के साथ फिल्म ‘फ्रैडी’ (2022) में कैनाज नाम की लड़की का किरदार निभाया जिसमें पोजेटिव और नेगेटिव दोनों तरह के शेड थे।

डिज्‍नी प्‍लस हॉट स्‍टार पर ऑन स्‍ट्रीम हुई फिल्‍म ‘फ्रैडी’ (2022) साल 2016 में रिलीज हुई कन्नड़ फिल्म यू-टर्न का हिंदी रीमेक थी। इस फिल्‍म के लिए हर किसी ने अलाया के काम की जमकर सराहना की।

उस किरदार में अलाया को देखने के बाद बॉलीवुड की देसी गर्ल प्रियंका चौपड़ा को लगा कि अलाया का वह किरदार ‘एतराज’ में उनके व्‍दारा निभाये गये किरदार की तुलना में ज्‍यादा स्‍स्‍ट्रॉग था। अलाया एफ के काम की प्रशंसा करते हुए प्रियंका ने उस वक्‍त उन्‍हैं बॉलीवुड की अगली संभावित सुपरस्टार तक बता दिया था ।  

अलाया की जमकर प्रशंसा करते हुए प्रियंका चोपड़ा ने कहा था, ‘मुझे वाकई अलाया बहुत पसंद है  क्‍योंकि उनका नजरिया बहुत यूनिक है।  वह दूसरों की तरह बनने की कोशिश नहीं करती हैं।’

अलाया एफ एक एक्ट्रेस होने के साथ-साथ फिटनेस फ्रीक भी हैं और अपनी फिगर को मेंटेन करने के लिए खूब मेहनत भी करती हैं। कई हिंदी फिल्मों में नजर आ चुकी अलाया गोल्‍डी सोहेल के म्‍यूजिक वीडियो में भी नजर आ चुकी हैं।  

अलाया अपनी मां पूजा बेदी के साथ सोनी टीवी के एक रियलिटी शो ‘मां एक्‍सचेंज’ (2011) में एक पार्टिसिपेंट के तौर पर शामिल हुईं, अलाया के ग्‍लैमर और बेपनाह खूबसूरती ने ऑडियंस पर गहरा असर छोड़ा कि वह अचानक चर्चाओं में आ गई थीं।

दमदार अभिनय के साथ ही शानदार फिटनेस को लेकर भी सुर्खियों में रहने वाली अलाया एफ सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहती हैं और आये दिन अपनी खूबसूरत फोटोज फैंस के साथ शेयर करती हैं।

सुभाष शिरढोनकर

ब्राह्मण:तेल की खरीद में जातीय विभाजन की आग

संदर्भ-अमेरिकी व्यापारी पीटर नवारो बेहूदा बयान –


प्रमोद भार्गव
धर्म और जाति भारत की कमजोर कड़ियां रही हैं। इसकी षुरूआत फिरंगी हुकूमत ने भारत में धर्म के आधार पर बंगाल के विभाजन के साथ की थी, जो कालांतर में अंग्रेजों की कुटिल चाल के परिणाम में भारत विभाजन का मुख्य आधार बनी। अब अमेरिका के भारत विरोधी वाचाल व्यापारी पीटर नवारो एक बार इसी नुस्खे को तूल देकर जातीय वैमन्स्य को चिंगारी भड़काने की कोशिश में हैं। भारत पर लगाए 50 प्रतिशत टैरिफ को लेकर अमेरिका से असंतुश्ट देशों में खासतौर से रूस, भारत, चीन अर्थात आरआईसी ट्राइका षंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में मजबूती से खड़ा होता दिखा। इससे अमेरिकी राश्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नींद हराम हो गई। नतीजतन इसी परिप्रेक्ष्य में ट्रंप के आधिकारिक व्यापारिक सलाहकार पीटर नवारो ने रूस से तेल आयात पर निशाना साधते हुए कहा कि ‘ब्राह्मण भारतीय जनता की कीमत पर मुनाफाखोरी कमा रहे हैं।‘ दरअसल एससीओ का तियानजिन में एकत्रीकरण ट्रंप के टैरिफ के विरुद्ध अंतरराश्ट्रीय दबाव का ऐसा प्रभावी संकेत है, जो न केवल अमेरिका, बल्कि जी-7 और यूरोप की आर्थिक षक्ति को भी संतुलित करने की दिशा में आगे बढ़ने का संकेत दे रहा है।
नवारो ने ‘फॉक्स न्यूज संडे‘ को दिए साक्षत्कार में कहा कि ‘देखिए, नरेंद्र मोदी दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के महान नेता हैं, लेकिन वे रूस के राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राश्ट्रपति षी जिनपिंग के साथ खड़े हैं। मैं कहना चाहूंगा कि भारतीय जनता समझे कि यह क्या हो रहा है। आपके पास जो ब्राह्मण हैं, वे भारतीय लोगों की कीमत पर मुनाफाखोरी कर रहे हैं। हमें इसे रोकने की जरूरत है। यानी पूंजीपति देश का एक उद्योगपति भारत की जनता को बताएगा कि वह क्या करे ? मसलन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की जनता नसमझ है। देश की वह जनता नादान है, जिसने आपातकाल में तानाशाह के रूप में पेश इंदिरा गांधी की सरकार को बदल दिया था ? इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारी बहुमत से जीते राजीव गांधी की सत्ता को इसलिए बेदखल कर दिया था, क्योंकि साहबानो प्रकरण को लेकर राजीव गांधी इस्लामी कट्टरवादियों के दबाव में आ गए थे। इसी जनता ने उन मनमोहन सिंह को सत्ताच्युत कर दिया था, जिन्होंने देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों को सौंप देने की वकालत षुरू की थी और फिर इसी जनता ने देश की कमान उन नरेंद्र मोदी को सौंप दी थी, जो अपने बाल्यकाल में पिता की मदद के लिए रेल के डिब्बों में चाय बेचा करते थे।
इन्हीं मोदी को जागरूक मतदाताओं ने फिर से 2019 में जिताया, क्योंकि सुरक्षा सैनिकों को ले जाने वाले एक वाहन को पुलवामा में आत्मघाती आतंकी हमलावर, सीआरपीएफ के 46 जवानों की शहादत का कारण बना था। इस जघन्य घटना का बदला लेने के लिए मोदी ने बालाकोट में वायुसेना से सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देकर आतंकी समूह जैश-ए-मोहम्मद के प्रशिक्षण शिविरों को जमींदोज कर दिया। 2024 के आम चुनाव में इन्हीं मोदी पर देश देश की जनता ने फिर विश्वास किया और तीसरी बार सत्ता की कुंजी मोदी को सौंप दी। साफ है, जनता उन विदेशी उपदेशकों के बहकावे में आने वाली नहीं है, जो मोदी पर नाजायज दबाव बनाकर अपने अनैतिक हित साधने के फेर में हैं। दोहरे मापदंड वाले ट्रंप भारत को रूस से तेल खरीदने पर अतिरिक्त शुल्क के रूप में जुर्माना लगा रहे हैं, जबकि भारत, चीन और यूरोपीय देशों की तुलना में कम ईंधन खरीदता है। पीटर नवारो इन देशों के ब्राह्मणों, अर्थात कुलीन वर्ग या कारपोरेट घरानों के लिए क्या कहेंगे ?
नवारो भारत के विरुद्ध अनर्गल प्रलापों के लिए जाने जाते हैं। नवारो ने इसके पहले, यूक्रेन संघर्श को ‘मोदी का युद्ध आंशिक रूप से नई दिल्ली होकर गुजरता है‘ का लांछन लगाया था। इसका सटीक उत्तर पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने यह कहते हुए दिया है कि ‘नवारो ने भारत पर रूसी राश्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की युद्ध-मशीन को वित्तपोशित करने का आरोप लगाया है, जबकि फरवरी 2022 में रूस के यूक्रेन पर किए हमले के बहुत पहले से पेट्रोलियम उत्पादों का चौथा सबसे बड़ा निर्यातक देश रहा है। उसी मात्रा में आज भी रूस तेल निर्यात कर रहा है। अर्थात निवारों का बयान भारत, रूस और चीन की एससीओ की बैठक में देखने में आई जुगलबंदी का नतीजा है। चूंकि अब ट्रंप अपने ही देश में बेतुके अड़ियल रुख के कारण घिरते जा रहे हैं। अवाम में नाराजी बढ़ रही है। अमेरिका के अरबपति रे डेलियो ने तो यहां तक कह दिया कि ‘ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका 1930 के दशक जैसी तानाशाही की ओर बढ़ रहा है। निवेशक ट्रंप के डर से चुप हैं। धन एवं मूल्यों की खाई और टूटता भरोसा अमेरिका को चरमपंथी नीतियों की ओर धकेल रहा है।‘
निवारो का जातिसूचक बयान एक ऐसी साजिश का सूचक है, जो भारत में शहरी नक्सली और वर्णभेदी वामपंथी बीजरूप में आजादी के बाद से ही बोते रहे हैं। जिससे भारत जातीय कुचक्र की आग में जलने लग जाए। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत में जाति की जड़ें आज भी गहरी हैं। लेकिन बीते 75-80 सालों में जनता बौद्धिक-विवेक के रूप में इतनी परिपक्व हो गई है कि वह अब किसी बाहरी व्यक्ति के बहकावे में आने वाली नहीं है। वह जानती है कि भारत में तेल का व्यापार करने वाले जो भी चंद उद्योगपति हैं, उनमें ब्राह्मण कोई नहीं है। यह बयान केवल भारतीय समाज की सामाजिक संरचना में व्यर्थ हस्तक्षेप और जातिगत विद्वेश भड़काने की निर्लज्ज कोशिश है। हालांकि यह संभवतः अपवाद है कि किसी परदेशी उद्योगपति के मुख से जातिगत व्यवस्था को भारत सरकार की विदेश नीति से जोड़कर प्रस्तुत किया गया है। नवारो ने जातिसूचक शब्द ब्राह्मण का जो प्रयोग किया है, उसे अभिजात्य या कुलीन वर्ग को लांछित करने के रूप में भी देखा जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य सागरिका घोष का कहना है कि बोस्टन ब्रह्माण शब्द अमेरिका में न्यू इंग्लैंड से जाकर बसे धनी वर्ग के लिए प्रयोग में लाया जाता था। भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने भी इस शब्द को एलीट क्लास से जोड़ा है। दरअसल एक समय अमेरिका के बोस्टन में धनी सुशिक्षित प्रोटेस्टेंटों का एक समुदाय था। ये लोग 18वीं और  19वीं सदी में ताकतवर समुदाय थे। ये अमेरिका के उपनिवेशवादियों के वंशज थे। इन लोगों ने व्यापार में अपने को खफा दिया और सफलता के शिखर छू लिए। इन्हें बोस्टन ब्राह्मण या कुलीन कहा गया। ये बोस्टन के आम लोगों से अलग रहते थे और अभिजात्य जीवन-शैली जीते थे।
     वैदिक युग में भारत में कोई जाति या वर्ण नहीं थे। कालांतर में जाति का उदय हुआ। जिनकी ज्ञानार्जन और अनुसंधान में रुचि थी, वे ब्राह्मण कहलाए। जिनमें बल था, वे क्षत्रिय और जो व्यापार करने लग गए, वे वैश्य कहलाए।जो मूलतःश्रम और कृषि कार्य से जुड़े रहे, वे षूद्र कहलाए। यही बड़ा उत्पादक समूह रहा है और वर्तमान में भी है।ब्राह्मण परशुराम ने क्षत्रिय सहस्त्रबाहु अर्जुन को पराजित कर सत्ता हस्तगत कर ली थी, परंतु उन्हीं के शेष रहे वंशजों को सत्ता सौंप कर ज्ञान की सर्वोच्चता स्थापित कर दी थी। वे परशुराम ही थे,जिन्होंने गोवा के कोंकण क्षेत्र में समुद्र से भूमि खाली करके हजारों वनवासियों को खेती शुरू कराई। इनका यज्ञोपवीत संस्कार कर इन्हें ब्राह्मण बनाया और अक्षय तृतीया के दिन सामूहिक विवाह कराए। युद्ध में विधवा हुई महिलाओं के भी विवाह कराये। अब भारत में शैक्षिक उन्नति, सह-शिक्षा और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में पेशेवर युवक-युवतियों की बड़ी संख्या में भागीदारी के चलते अन्तर्जातीय व अन्तर्धार्मिक विवाह आम बात हो गई है। बहुत कुछ जातीय कुचक्र टूट गया है। अलबत्ता यह भी देखने में आ रहा है कि जिस किसी भी वर्ग या जाति के लोग राजनीति, नौकरी या व्यापार में सशक्त होते जा रहे हैं, वे उसी बा्रह्मणवादी व्यवस्था के अनुगामी बनते जा रहे हैं, जिसे एक एमय वे कोसते रहे हैं। भारत में निरंतर जातीय समन्वय बढ़ रहा है। अतएव अब वे किसी परदेसी के  बचकाने बयान के बहकावे में आने वाले नहीं हैं।  


 प्रमोद भार्गव

कुदरत का संदेश

कुदरत का रूठना भी ज़रूरी था,
इंसान का घमंड टूटना भी ज़रूरी था।
हर कोई खुद को खुदा समझ बैठा,
उस वहम का छूटना भी ज़रूरी था।

पेड़ कटे, नदियाँ रोईं, पर्वत भी कांपे,
धरती माँ की कराहें कौन था आँके।
लोभ में अंधा हुआ इंसान इतना,
उसको आईना दिखाना भी ज़रूरी था।

आंधियाँ, तूफ़ान, बारिश का प्रहार,
दे गए चेतावनी – बचो, संभलो बार-बार।
जीवन का असली सच बताना भी ज़रूरी था,
नश्वरता का एहसास कराना भी ज़रूरी था।

कुदरत ने सिखाया – मत बनो अभिमानी,
बूँद-सी है तेरी ज़िंदगी की कहानी।
विनम्र रहो, और धरती को बचाओ,
प्रकृति का ज्ञान जगाना भी ज़रूरी था।

— डॉ सत्यवान सौरभ

शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण देश के समक्ष बड़ी चुनौती 

05 सितंबर 2025 शिक्षक दिवस पर विशेष

शिक्षक समाज में उच्च आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता है। किसी भी देश या समाज के निर्माण में शिक्षा की अहम भूमिका होती है, कहा जाए तो शिक्षक समाज का आईना होता है। हिन्दू धर्म में शिक्षक के लिए कहा गया है कि आचार्य देवो भवः यानी कि शिक्षक या आचार्य ईश्वर के समान होता है। यह दर्जा एक शिक्षक को उसके द्वारा समाज में दिए गए योगदानों के बदले स्वरूप दिया जाता है। शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूजनीय रहा है। कोई उसे गुरु कहता है, कोई शिक्षक कहता है, कोई आचार्य कहता है, तो कोई अध्यापक या टीचर कहता है ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है। सही मायने में कहा जाये तो एक शिक्षक ही अपने विद्यार्थी का जीवन गढता है। और शिक्षक ही समाज की आधारशिला है। एक शिक्षक अपने जीवन के अन्त तक मार्गदर्शक की भूमिका अदा करता है और समाज को राह दिखाता रहता है, तभी शिक्षक को समाज में उच्च दर्जा दिया जाता है।

माता-पिता बच्चे को जन्म देते हैं। उनका स्थान कोई नहीं ले सकता, उनका कर्ज हम किसी भी रूप में नहीं उतार सकते, लेकिन एक शिक्षक ही है जिसे हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता के बराबर दर्जा दिया जाता है। क्योंकि शिक्षक ही हमें समाज में रहने योग्य बनाता है। इसलिये ही शिक्षक को समाज का शिल्पकार कहा जाता है। गुरु या शिक्षक का संबंध केवल विद्यार्थी को शिक्षा देने से ही नहीं होता बल्कि वह अपने विद्यार्थी को हर मोड़ पर उसको राह दिखाता है और उसका हाथ थामने के लिए हमेशा तैयार रहता है। विद्यार्थी के मन में उमडे हर सवाल का जवाब देता है और विद्यार्थी को सही सुझाव देता है और जीवन में आगे बढ़ने के लिए सदा प्रेरित करता है।

एक शिक्षक या गुरु द्वारा अपने विद्यार्थी को स्कूल में जो सिखाया जाता हैं या जैसा वो सीखता है वे वैसा ही व्यवहार करते हैं। उनकी मानसिकता भी कुछ वैसी ही बन जाती है जैसा वह अपने आसपास होता देखते हैं। इसलिए एक शिक्षक या गुरु ही अपने विद्यार्थी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। सफल जीवन के लिए शिक्षा बहुत उपयोगी है जो हमें गुरु द्वारा प्रदान की जाती है। विश्व में केवल भारत ही ऐसा देश है यहाँ पर शिक्षक अपने शिक्षार्थी को ज्ञान देने के साथ-साथ गुणवत्ता युक्त शिक्षा भी देते हैं, जो कि एक विद्यार्थी में उच्च मूल्य स्थापित करने में बहुत उपयोगी है। जब अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति आता है तो वो भारत की गुणवत्ता युक्त शिक्षा की तारीफ करता है। 

किसी भी राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी है तो उस देश को आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता अगर राष्ट्र की शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी तो वहाँ की प्रतिभा दब कर रह जायेगी बेशक किसी भी राष्ट्र की शिक्षा नीति बेकार हो, लेकिन एक शिक्षक बेकार शिक्षा नीति को भी अच्छी शिक्षा नीति में तब्दील कर देता है। शिक्षा के अनेक आयाम हैं, जो किसी भी देश के विकास में शिक्षा के महत्व को अधोरेखांकित करते हैं। वास्तविक रूप में ज्ञान ही शिक्षा का आशय है, ज्ञान का आकांक्षी है- विद्यार्थी और इसे उपलब्ध कराता है शिक्षक।

एक शिक्षक द्वारा दी गयी शिक्षा ही शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास का मूल आधार है। प्राचीन काल से आज पर्यन्त शिक्षा की प्रासंगिकता एवं महत्ता का मानव जीवन में विशेष महत्व है। शिक्षकों द्वारा प्रारंभ से ही पाठ्यक्रम के साथ ही साथ जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है। शिक्षा हमें ज्ञान, विनम्रता, व्यवहार कुशलता और योग्यता प्रदान करती है। शिक्षक को ईश्वर तुल्य माना जाता है। आज भी बहुत से शिक्षक शिक्षकीय आदर्शों पर चलकर एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। लेकिन इसके साथ-साथ ऐसे भी शिक्षक हैं जो शिक्षक और शिक्षा के नाम को कलंकित कर रहे हैं, और ऐसे शिक्षकों ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है, जिससे एक निर्धन शिक्षार्थी को शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है और धन के अभाव से अपनी पढाई छोडनी पडती है। आधुनिक युग में शिक्षक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिक्षक वह पथ प्रदर्शक होता है जो हमें किताबी ज्ञान ही नहीं बल्कि जीवन जीने की कला सिखाता है।

आज के समय में शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण हो गया है। शिक्षा का व्यवसायीकरण और बाजारीकरण देश के समक्ष बड़ी चुनौती हैं। पुराने समय में भारत में शिक्षा कभी व्यवसाय या धंधा नहीं थी। इससे छात्रों को बडी कठिनाई का सामना करना पड रहा है। शिक्षक ही भारत देश को शिक्षा के व्यवसायीकरण और बाजारीकरण से स्वतंत्र कर सकते हैं। देश के शिक्षक ही पथ प्रदर्शक बनकर भारत में शिक्षा जगत को नई बुलंदियों पर ले जा सकते हैं।

गुरु एवं शिक्षक ही वो हैं जो एक शिक्षार्थी में उचित आदर्शों की स्थापना करते हैं और सही मार्ग दिखाते हैं। एक शिक्षार्थी को अपने शिक्षक या गुरु प्रति सदा आदर और कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। किसी भी राष्ट्र का भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का महत्व यहीं समाप्त नहीं होता क्योंकि वह ना सिर्फ हमको  सही आदर्श मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं बल्कि प्रत्येक शिक्षार्थी के सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है।

किसी भी देश या राष्ट्र के विकास में एक शिक्षक द्वारा अपने शिक्षार्थी को दी गयी शिक्षा और शैक्षिक विकास की भूमिका का अत्यंत महत्व है। आज शिक्षक दिवस है, आज का दिन गुरुओं और शिक्षकों को अपने जीवन में उच्च आदर्श जीवन मूल्यों को स्थापित कर आदर्श शिक्षक और एक आदर्श गुरु बनने की प्रेरणा देता है।

– ब्रह्मानंद राजपूत

अपने दीपक स्वयं बनो  की प्रेरणा है ‘शिक्षक’

डॉ. पवन सिंह

“दुनिया सुनना नहीं, देखना पसंद करती है कि आप क्या कर सकते हैं”…. ओर अपने अंदर छिपी इसी असीम शक्ति की पहचान करवाना, मैं कौन हूँ ओर क्या कुछ कर सकता हूँ इस भाव को परिणाम में बदलने के लिए प्रेरित करने की प्रेरणा है शिक्षक। आज शिक्षक दिवस है और हममें से कोई भी ऐसा नहीं, जिसके जीवन में इस शब्द का महत्व न हो। हम आज जो कुछ भी है या हमने जो कुछ भी सिखा या जाना है उसके पीछे किसी न किसी का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग व उसे सिखाने की भूमिका रही है। इसलिए आज का दिन प्रत्येक उस व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का व उन सीखे हुए मूल्यों के आधार पर खुशहाल समाज निर्माण में अपनी भूमिका तय करने का दिन भी है। शिक्षक यानि गुरु शब्द का तो अर्थ ही अंधकार (अज्ञान) से प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाने वाला है। भारत में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का श्री गणेश भी हो चुका है। पूरी शिक्षा नीति को देखने पर ध्यान आता है कि उसके क्रियान्वयन व सफ़ल तरीके से उसे मूर्त रुप देने का अगर सीधा-सीधा किसी का नैतिक दायित्व बनता है तो वह शिक्षकों का ही है। वर्तमान के आधार को मजबूत करते हुए, भविष्य के आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना को चरितार्थ करने व भारत को आगे बढ़ाने के सपनों को अपनी आँखों में भर कर निरंतर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा व भाव जागरण का आधार भी शिक्षक है। जिंदगी में उत्साह व भारत के प्रति उत्तरदायित्व से भरी हुई पीढ़ियों का निरंतर निर्माण करते रहना, यही शिक्षकत्व की पहचान है और यही शिक्षक दिवस की सार्थकता भी।    

जीवन का दायित्वबोध है शिक्षक: शिक्षक जो जीवन के व्यावहारिक विषयों को बोल कर नहीं बल्कि स्वयं के उदाहरण से वैसा करके सिखाता है। शिक्षक जो बनना नहीं गढ़ना सिखाता है। शिक्षक जो केवल शिक्षा नहीं बल्कि विद्या सिखाता है। शिक्षक केवल सफ़ल होना नहीं, असफ़लता से भी रास्ता निकाल लेना सिखाता है। शिक्षक जो तर्क व कुतर्क के अंतर को समझाता है। शिक्षक जो केवल चलना नहीं, गिरकर उठना भी सिखाता है। शिक्षक जो भविष्य की चुनौतीयों के लिए तैयार होना सिखाता है। शिक्षक जिसे समाज संस्कार, नम्रता, सहानुभूति व समानुभूति की चलती फिरती पाठशाला मानता है। कहा जाता है कि एक शिक्षक का दिमाग देश में सबसे बेहतर होता है…एक बार सर्वपल्ली राधाकृष्णन के कुछ छात्रों और दोस्तों ने उनका जन्मदिवस मनाने की इच्छा ज़ाहिर कि इसके जवाब में डॉक्टर राधाकृष्णन ने कहा कि मेरा जन्मदिन अलग से मनाने की बजाय इसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए तो मुझे बहुत गर्व होगा। इसके बाद से ही पूरे भारत में 5 सितंबर का दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी कारण इस दिन इस महान शिक्षाविद को हम सब याद भी करते हैं।

एक नज़र डॉ. राधाकृष्णन सर्वपल्ली:-डॉ. राधाकृष्णन ने 12 साल की उम्र में ही बाइबिल और स्वामी विवेकानंद के दर्शन का अध्ययन कर लिया था। उन्होंने दर्शन शास्त्र से एम.ए. किया और 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में सहायक अध्यापक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई। उन्होंने 40 वर्षो तक शिक्षक के रूप में काम किया। वह 1931 से 1936 तक आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसके बाद 1936 से 1952 तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर रहे और 1939 से 1948 तक वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर आसीन रहे। उन्होंने भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन किया। साल 1952 में उन्हें भारत का प्रथम उपराष्ट्रपति बनाया गया और भारत के द्वितीय राष्ट्रपति बनने से पहले 1953 से 1962 तक वह दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इसी बीच 1954 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें ‘भारत रत्न’ की उपाधि से सम्मानित किया। डॉ. राधाकृष्णन को ब्रिटिश शासनकाल में ‘सर’ की उपाधि भी दी गई थी। इसके अलावा 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा ‘विश्व शांति पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया था। अत: हम कह सकते है कि वे जीवनभर अपने आप को शिक्षक मानते रहे और उन्होंने अपना जन्मदिवस भी इसी परिपाटी का पालन करने वाले शिक्षकों के लिए समर्पित कर दिया।

शिक्षा को मिशन का रूप देना होगा: डॉ. राधाकृष्णन अक्सर कहा करते थे, शिक्षा का मतलब सिर्फ जानकारी देना ही नहीं है। जानकारी का अपना महत्व है लेकिन बौद्धिक झुकाव और लोकतांत्रिक भावना का भी महत्व है, क्योंकि इन भावनाओं के साथ छात्र उत्तरदायी नागरिक बनते हैं। वे मानते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होगा, तब तक शिक्षा को मिशन का रूप नहीं मिल पाएगा। आज शिक्षा को मिशन बनाना होगा। शिक्षा की पहुँच इस देश के अंतिम घर के अंतिम व्यक्ति तक होनी चाहिए। इसके लिए केवल शिक्षकों को ही नहीं समाज को भी अपनी भूमिका निभानी होगी। प्रत्येक वो व्यक्ति जो अपने आपको शिक्षा देने में सक्षम समझता है उसे आगे आना होगा। अपने यहाँ अधिक से अधिक मोहल्ले एवं ग्रामीण शिक्षा केंद्र संचालित करने की चुनौती को उसे स्वीकार करना होगा। ताकि समाज का कोई भी वर्ग या स्थान शिक्षा से वंचित न रहे। उसे प्रतिदिन या सप्ताह में कुछ समय शिक्षा जैसे पुनीत कार्य के लिए लगाना होगा। इस कार्य के लिए उसे अपने जैसे बहुत से लोगों को खड़ा करना होगा व इस अभियान में सहयोगी बनने के लिए उनका भाव जागृत करना होगा।

शिक्षा स्व-रोज़गार के लिए: शिक्षक के नाते अब हमें शिक्षा को क्लास रूम से बाहर ले जाने की पहल करनी होगी यानि उसकी व्यावहारिकता पर ज्यादा ध्यान देना होगा। विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास को अपनी प्राथमिकता में लाना होगा। ताकि विद्यार्थी का कौशल उसके जीवन का हिस्सा बन सके और आगे उसे रोज़गार से जोड़ा जा सके। शिक्षा को फ़ॉर्मल एजुकेशन के साथ – साथ अनौपचारिक यानी इन-फ़ॉर्मल एजुकेशन बनाने की ओर भी अब हमें अपने प्रयासों को अधिक गति से बढ़ाने की आवश्यकता है। कोविड ने हमें आज इस विषय की ओर देखने की दृष्टि भी दी है ताकि भविष्य में किसी विकट परिस्थिति व आर्थिक संकट के समय स्व-रोज़गार के आधार पर हम आत्मनिर्भरता की भावना के साथ उस परिस्थिति का सामना कर सके।

सच्ची अभिव्यक्ति व प्रेरक शक्ति का दिन: तो आईये, आज शिक्षक दिवस के दिन इन सभी बातों का पुन: स्मरण कर, अपने हौंसलों की उड़ान को ओर बढ़ाते है। शिक्षक के दायित्वबोध को और अधिक संकल्प के साथ निभाते है। डॉ. राधाकृष्णन सर्वपल्ली के जीवन के विभिन्न प्रेरक पहलूओं से सीख ले,प्रत्येक व्यक्ति तक शिक्षा को ले जाने के अपने प्रयास को गति देते है। मैं से प्रारंभ कर इस शिक्षा रुपी अलख को लाखों – लाखों का सपना बनाते हैं। वास्तव में शिक्षक होने के नाते आज शिक्षक दिवस के दिन डॉ. राधाकृष्णन सर्वपल्ली के प्रति व अपने आदर्श प्रेरणादायी शिक्षकों के प्रति यही हमारी सच्ची अभिव्यक्ति व प्रेरक शक्ति होगी। यही सामूहिक संकल्पित शक्ति ही हमें 2047 के विकसित भारत की ओर अग्रसर भी करेगी तथा हमारा मार्ग प्रशस्त भी करेगी।  

शिक्षक तो अनमोल है…

नूर तिमिर को जो करें, बांटे सच्चा ज्ञान !
मिट्टी को जीवंत करें, गुरुवर वो भगवान !!

भरें प्रतिभा, योग्यता, बुनता सभ्य समाज !
समदृष्टि, सद्भाव भरें, पूजनीय ऋषिराज !!

जब रिश्ते हैं टूटते, होते विफल विधान !
गुरुवर तब सम्बल बने, होते बड़े महान !!

धैर्य और विवेक भरें, करते दुर्गुण दूर !
तप, बल से निर्मित करें, सौरभ निर्भय शूर !!

नानक, गौतम, द्रोण सँग, कौटिल्य संदीप !
अपने- अपने दौर के, मानवता के दीप !!

चाहत को पर दे यही, स्वप्न करे साकार !
शिक्षक अपने ज्ञान से, जीवन देत निखार !!

शिक्षक तो अनमोल है, इसको कम ना तोल !
मीठे हैं परिणाम बहुत, कड़वे इसके बोल !!

गागर में सागर भरें, बिखराये मुस्कान !
सौरभ जिसे गुरू मिले, ईश्वर का वरदान !!

डॉ. सत्यवान सौरभ

किताबों से स्क्रीन तक: बदलते समय में गुरु का असली अर्थ

शिक्षक दिवस विशेष

(ज्ञान के साथ संस्कार और संवेदनशीलता ही शिक्षक की सबसे बड़ी पहचान है) 

डिजिटल युग में शिक्षा का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। किताब से लेकर स्क्रीन तक की यह यात्रा ज्ञान तो दे रही है, लेकिन संस्कार और मानवीय मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं। ऐसे समय में शिक्षक का महत्व और भी बढ़ जाता है। शिक्षक ही वह पुल हैं जो बच्चों को वर्तमान से जोड़कर सुरक्षित भविष्य तक पहुँचाते हैं। मशीनें जानकारी दे सकती हैं, परंतु संवेदनशीलता और चरित्र निर्माण केवल गुरु ही कर सकता है। इस शिक्षक दिवस पर संकल्प यही हो कि तकनीक की दौड़ में संस्कारों की नदियाँ कभी सूखने न पाएं।

– डॉ. प्रियंका सौरभ

शिक्षक दिवस केवल एक औपचारिक अवसर नहीं है, बल्कि यह समाज और राष्ट्र की आत्मा को समझने का दिन है। जब भी हम गुरु या शिक्षक का नाम लेते हैं तो हमारे मन में एक ऐसा व्यक्तित्व उभरता है, जो केवल पढ़ाने वाला नहीं बल्कि जीवन को दिशा देने वाला होता है। भारतीय संस्कृति में शिक्षक को ‘आचार्य’ कहा गया है, जिसका अर्थ है आचरण से शिक्षा देने वाला। इसी दृष्टि से देखा जाए तो आज के दौर में शिक्षकों की जिम्मेदारी पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है, क्योंकि यह वह समय है जब तकनीक और स्क्रीन बच्चों की सोच और संवेदनाओं को प्रभावित कर रही है।

आज से कुछ दशक पहले शिक्षा का स्वरूप केवल पुस्तकों, कक्षा और संवाद तक सीमित था। विद्यार्थी शिक्षक की बातों को ध्यानपूर्वक सुनते थे और वही बातें उनके जीवन का आधार बनती थीं। लेकिन डिजिटल क्रांति ने इस परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया है। मोबाइल फोन, इंटरनेट और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के बढ़ते प्रभाव ने विद्यार्थियों के लिए अनगिनत अवसर तो खोले हैं, परंतु इसके साथ ही कई चुनौतियाँ भी खड़ी की हैं। जानकारी का महासागर अब हर बच्चे की उंगलियों पर उपलब्ध है, परंतु उसी महासागर में गलत जानकारी, भ्रामक सामग्री और असीमित मनोरंजन का जाल भी बिछा है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि इस विशाल और असंतुलित सूचना-संसार में बच्चों को सही मार्ग कौन दिखाएगा? इसका उत्तर है – शिक्षक।

शिक्षक की भूमिका अब केवल पाठ्यपुस्तक तक सीमित नहीं रह गई है। वह एक मार्गदर्शक, मूल्यनिर्माता और व्यक्तित्व निर्माता है। जब बच्चा मोबाइल पर स्क्रीन की दुनिया में खोया रहता है, तब शिक्षक का दायित्व है कि वह उसे वास्तविक जीवन की चुनौतियों से परिचित कराए। शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री पाना या नौकरी करना नहीं होना चाहिए, बल्कि यह भी होना चाहिए कि बच्चा समाज का जिम्मेदार नागरिक बने, उसमें करुणा, संवेदनशीलता और विवेक विकसित हो।

शिक्षक ही वह कड़ी है जो घर और समाज के बीच संतुलन कायम करता है। घर बच्चे को प्यार और संस्कार देता है, लेकिन उन्हें स्थायी बनाने का काम शिक्षक करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को केवल गणित या विज्ञान नहीं पढ़ाता, बल्कि यह भी सिखाता है कि कठिनाइयों का सामना कैसे करना है, असफलताओं से कैसे सीखना है और जीवन में ईमानदारी तथा सत्य का महत्व क्या है।

आज की शिक्षा प्रणाली पर विचार करें तो हम पाते हैं कि इसमें प्रतिस्पर्धा और अंकों की दौड़ हावी हो गई है। बच्चे अधिक अंक लाने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, अभिभावक भी उन्हें उसी दिशा में धकेलते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में मानवीय मूल्यों की नींव कमजोर हो रही है। यही कारण है कि समाज में आत्मकेंद्रित प्रवृत्तियाँ, नैतिक पतन और संवेदनहीनता बढ़ रही है। इस कमी को दूर करने वाला कोई है तो वह शिक्षक ही है। शिक्षक यदि चाहे तो बच्चों में सहयोग, सेवा, सहानुभूति और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना विकसित कर सकता है।

स्क्रीन का प्रभाव इतना गहरा हो गया है कि बच्चे वास्तविक संवाद से दूर होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर वे हजारों मित्र बना लेते हैं, लेकिन वास्तविक जीवन में अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। इस स्थिति से बाहर निकालने का काम केवल शिक्षक कर सकता है। कक्षा में जब शिक्षक बच्चों से संवाद करता है, तो वह केवल पढ़ाने का कार्य नहीं करता, बल्कि बच्चों की भावनाओं को भी छूता है। एक सच्चा शिक्षक वही है जो विद्यार्थियों को यह महसूस कराए कि वे महत्वपूर्ण हैं, उनकी समस्याएँ सुनी जाती हैं और उनका मार्गदर्शन किया जाएगा।

शिक्षक का महत्व केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं है। राष्ट्रनिर्माण में शिक्षक की भूमिका अत्यंत निर्णायक होती है। यह कहावत बार-बार दोहराई जाती है कि किसी देश का भविष्य उसके कक्षाओं में गढ़ा जाता है। यह कथन केवल आदर्श नहीं है, बल्कि कठोर सत्य है। यदि कक्षाओं में अच्छे शिक्षक होंगे, जो बच्चों को नैतिकता, ज्ञान और आत्मविश्वास से भरेंगे, तो वही बच्चे आगे चलकर अच्छे नागरिक, नेता, वैज्ञानिक और प्रशासक बनेंगे। लेकिन यदि शिक्षक केवल परीक्षा पास कराने तक सीमित रह गया, तो समाज का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।

आज आवश्यकता है कि शिक्षक स्वयं को भी समयानुकूल बनाएं। तकनीक से भागना समाधान नहीं है, बल्कि उसे सकारात्मक ढंग से अपनाना जरूरी है। शिक्षक यदि चाहे तो स्क्रीन और डिजिटल माध्यमों को शिक्षा के सहयोगी बना सकता है। ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म, शैक्षिक वीडियो, वर्चुअल प्रयोगशालाएँ और कृत्रिम बुद्धिमत्ता जैसी तकनीकें बच्चों की जिज्ञासा को बढ़ा सकती हैं। लेकिन इन सबके बीच मानवीय संवाद की जगह कोई नहीं ले सकता। मशीनें ज्ञान दे सकती हैं, परंतु संस्कार और संवेदनशीलता केवल शिक्षक ही दे सकता है।

शिक्षक दिवस पर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शिक्षक का सम्मान केवल औपचारिक कार्यक्रमों तक सीमित न रहे। यह सम्मान तभी सार्थक होगा जब हम उन्हें उचित सुविधाएँ, प्रशिक्षण और प्रेरणादायक वातावरण दें। आज भी कई शिक्षक सीमित संसाधनों में चमत्कार कर रहे हैं। वे अपने विद्यार्थियों के लिए अतिरिक्त समय निकालते हैं, नई विधियाँ खोजते हैं और बच्चों के जीवन को संवारते हैं। ऐसे शिक्षकों को न केवल प्रणाम करना चाहिए, बल्कि उनकी मेहनत को राष्ट्र की सबसे बड़ी संपत्ति मानना चाहिए।

महान दार्शनिक और शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि शिक्षक ही समाज की आत्मा होते हैं। उनकी शिक्षाएँ पीढ़ियों को प्रभावित करती हैं और उनके व्यक्तित्व से आने वाली रोशनी दूर-दूर तक फैलती है। आज जब हम शिक्षक दिवस मना रहे हैं, तो हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने शिक्षकों का सम्मान करेंगे, उनकी भूमिका को और सशक्त बनाएंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि आने वाली पीढ़ियाँ केवल जानकारी ही नहीं, बल्कि विवेक, संवेदनशीलता और संस्कार भी हासिल करें।

अंततः, स्क्रीन और तकनीक की इस तेज़ रफ्तार दुनिया में शिक्षक ही वह संतुलन हैं, जो ज्ञान और संस्कार की नदियों को सूखने नहीं देंगे। वे ही वह पुल हैं जो बच्चे को आज से जोड़कर भविष्य तक पहुँचाते हैं। इसलिए इस अवसर पर हमें केवल शिक्षक का सम्मान ही नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके संदेश को जीवन में उतारना भी चाहिए। यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी उस गुरु परंपरा को, जिसने हमें सिखाया है कि शिक्षा केवल रोजगार का साधन नहीं, बल्कि जीवन को सार्थक और समाज को उज्ज्वल बनाने का माध्यम है।

शिक्षक ज्ञानवान ही नहीं, चरित्रवान पीढ़ी का निर्माण करें

राष्ट्रीय शिक्षक दिवस – 5 सितम्बर 2025 पर विशेष
– ललित गर्ग –

शिक्षक ही सभ्यता और संस्कृति के असली शिल्पी होते हैं। विज्ञान, तकनीक और राजनीति चाहे जितनी प्रगति कर लें, यदि शिक्षा और शिक्षक दिशा न दें तो मानवता दिशाहीन हो जाती है। इसी कारण 5 सितम्बर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस मनाने की परंपरा आरंभ हुई। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन 5 सितंबर को होता है, जो भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य समाज में शिक्षक के महत्व, उनके योगदान और मार्गदर्शक भूमिका को सम्मान देना है। यह अवसर विद्यार्थियों और समाज को याद दिलाता है कि शिक्षक केवल ज्ञान देने वाले ही नहीं बल्कि आदर्श, प्रेरक और चरित्र-निर्माता भी होते हैं। आज जबकि नया भारत-सशक्त भारत-विकसित भारत निर्मित हो रहा है, तब शिक्षकों की भूमिका अधिक प्रासंगिक हो गयी है।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को आंध्र प्रदेश के तिरुत्तनी में हुआ था। वे एक महान दार्शनिक, विद्वान, शिक्षक और राजनेता थे। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और कलकत्ता विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में दर्शनशास्त्र पढ़ाया। उनकी पुस्तकें ‘इंडियन फिलोशॉफी’ ‘दी हिन्दू व्यूह ऑफ लाइफ’ और ‘दी आइडलिस्ट ऑफ लाइफ’ विश्व स्तर पर प्रसिद्ध हुईं। वे 1952 से 1962 तक भारत के उपराष्ट्रपति और 1962 से 1967 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। उन्हें 1954 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। जब वे राष्ट्रपति बने तो उनके कुछ शिष्यों और मित्रों ने उनका जन्मदिन मनाने की इच्छा व्यक्त की। इस पर उन्होंने विनम्रता से कहा कि यदि आप लोग मेरे जन्मदिन को विशेष रूप से मनाना चाहते हैं तो उसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाइए। तब से ही 5 सितम्बर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। डॉ. राधाकृष्णन का संदेश यही था कि शिक्षक समाज की रीढ़ हैं और उनका सम्मान करना ही वास्तविक राष्ट्र निर्माण है। निश्चित ही शिक्षकों का यह सम्मान केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि मानव सभ्यता के भविष्य का घोषणापत्र है।
यह दिवस राष्ट्र को शिक्षा, विज्ञान, शांति एवं प्रगति का सन्देश देने के लिए कृत संकल्पित है। भारत का इतिहास शिक्षा की गौरवमयी परंपरा से जुड़ा है। प्राचीन समय से भारत शिक्षा का बड़ा केन्द्र रहा है और उसने संसार में जगतगुरु की भूमिका निभाई है। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों ने भारत को जगतगुरु का दर्जा दिलाया। महान् दार्शनिक आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा था-“व्यक्तित्व-निर्माण का कार्य अत्यन्त कठिन है और यह केवल निःस्वार्थी एवं जागरूक शिक्षक ही कर सकता है।” यह वाक्य हमें याद दिलाता है कि शिक्षक केवल जानकारी देने वाला नहीं, बल्कि जीवन का मार्गदर्शक है। प्राचीन भारतीय दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य ‘सा विद्या या विमुक्तये’ रहा है, अर्थात् शिक्षा वही है जो मुक्ति दिलाए। लेकिन आधुनिक परिप्रेक्ष्य में यह ‘सा विद्या या नियुक्तये’ बन गई है अर्थात् शिक्षा वही है जो नौकरी दिलाए। यही कारण है कि स्कूलों और विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ने के बावजूद समाज में अपराध और भ्रष्टाचार भी बढ़ रहे हैं।
महात्मा गांधी का यह कथन आज भी प्रासंगिक है-“एक स्कूल खुलेगा तो सौ जेलें बंद होंगी।” परन्तु आज स्थिति इसके विपरीत है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ने इस दृष्टिकोण को बदलने का प्रयास किया है। इसमें केवल क्या पढ़ना है पर ही नहीं, बल्कि कैसे पढ़ना है, इस पर भी जोर दिया गया है। आलोचनात्मक सोच, समस्या-समाधान, उद्यमशीलता और नैतिकता को शिक्षा के केंद्र में रखा गया है। लेकिन इन सभी का केन्द्रबिंदु शिक्षक ही है। यदि शिक्षक प्रेरणाहीन, निरुत्साहित या असंवेदनशील होंगे तो कोई भी नीति सफल नहीं हो सकती। शिक्षा केवल किताबों और पाठ्यक्रम से नहीं, बल्कि शिक्षक की जीवंत उपस्थिति से सार्थक होती है। पूर्व राष्ट्रपति एवं वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा था-“अगर कोई देश भ्रष्टाचार मुक्त है और सुंदर दिमागों का राष्ट्र बन गया है, तो उसके लिए तीन प्रमुख व्यक्ति जिम्मेदार होंगे-पिता, माता और शिक्षक।” यह कथन शिक्षक के महत्व को सर्वाेच्च स्थान पर स्थापित करता है। भारत अमृतकाल की ओर बढ़ रहा है। 2047 तक विकसित भारत का स्वप्न तभी साकार होगा जब हमारे शिक्षक नई पीढ़ी को केवल ज्ञानवान नहीं, बल्कि चरित्रवान भी बनाएंगे।
राष्ट्रीय स्तर पर भी शिक्षा की भूमिका अत्यंत निर्णायक है। नेल्सन मंडेला ने कहा था-“शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिससे दुनिया बदली जा सकती है।” युद्ध और आतंक के बीज मानव मस्तिष्क में जन्म लेते हैं, इसलिए बचपन से ही शांति और सह-अस्तित्व के बीज बोने होंगे। बच्चों को अपने देश से प्रेम के साथ विश्व-प्रेम यानी मानवता का पाठ सिखाना होगा, तभी दुनिया से युद्ध, हिंसा, आतंक का खात्मा होगा। भारतीय संस्कृति का “वसुधैव कुटुम्बकम्” मूल मंत्र इसमें सहायक बन सकता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि शिक्षा और शिक्षक दोनों का स्वरूप धीरे-धीरे मिशन से व्यवसाय की ओर झुकता जा रहा है। ज्ञान की बोली लग रही है, शिक्षक और छात्र के संबंधों में अविश्वास और हिंसा की खबरें बढ़ रही हैं। शिक्षा का व्यापारीकरण रोकने और उसे मानवीय मूल्यों से जोड़ने की जिम्मेदारी सबसे पहले शिक्षकों पर ही आती है।
आज आवश्यकता केवल शिक्षा क्रांति की नहीं, बल्कि शिक्षक क्रांति की भी है। अच्छे पाठ्यक्रम, नई तकनीक और आधुनिक संस्थानों की व्यवस्था तभी सार्थक है जब उनके केंद्र में ऐसे शिक्षक हों, जो छात्रों को प्रेरणा दें, जो उनके सर्वांगीण विकास का माध्यम बनें। खेत, बीज और उपकरण के रहते हुए किसान न हो तो सब बेकार है। उसी प्रकार, विद्यालय, पाठ्यक्रम और तकनीक के रहते हुए यदि शिक्षक नहीं हैं तो सब निरर्थक है। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा था-“सर्वांगीण विकास का अर्थ है हृदय से विशाल, मन से उच्च और कर्म से महान।” शिक्षक ही ऐसे व्यक्तित्व गढ़ते हैं। शिक्षा के बदलते अर्थ ने समाज की मानसिकता को बदल दिया है। यही कारण है कि आज समाज में लोग केवल शिक्षित होना चाहते हैं, सुशिक्षित यानी गुण-सम्पन्न नहीं बनना चाहते। मानो उनका लक्ष्य केवल बौद्धिक विकास ही है। इन स्थितियों से शिक्षकों को बाहर निकलने में नई शिक्षा नीति से बहुत अपेक्षाएं हैं।
भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रमुख उद्देश्य बच्चों को केवल साक्षर बनाना नहीं, बल्कि उनमें सामाजिक और भावनात्मक कौशल का विकास करना है। 2030 तक स्कूली शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य इसी दृष्टि से रखा गया है। किंतु संसाधनों की कमी, प्रशिक्षित शिक्षकों की अनुपलब्धता और बदलते सामाजिक परिवेश की चुनौतियां इस दिशा में बड़ी बाधाएं हैं। इसके बावजूद भारत में शिक्षा की परंपरा इतनी प्राचीन और समृद्ध रही है कि विदेशी विद्वान भी इसकी प्रशंसा करते आए हैं। एफ. डब्ल्यू. टॉमस ने लिखा है-“भारत में शिक्षा विदेशी पौधा नहीं है। संसार का कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहां ज्ञान के प्रति प्रेम का इतने प्राचीन समय में आविर्भाव हुआ हो या जिसने इतना चिरस्थायी और शक्तिशाली प्रभाव डाला हो।” वर्तमान समय में शिक्षक की भूमिका भले ही बदली हो, लेकिन उनका महत्व एवं व्यक्तित्व-निर्माण की जिम्मेदारी अधिक प्रासंगिक हुई है। क्योंकि सर्वतोमुखी योग्यता की अभिवृद्धि के बिना युग के साथ चलना और अपने आपको टिकाए रखना अत्यंत कठिन होता है। फौलाद-सा संकल्प और सब कुछ करने का सामर्थ्य ही व्यक्तित्व में निखार ला सकता है। शिक्षक ही ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण करते हैं।
आर्थिक आपाधापी, आतंक, युद्ध एवं हिंसा के आधुनिक युग में शिक्षकों की भूमिका बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि वे छात्रों को न केवल ज्ञान देते हैं, बल्कि उन्हें जीवन में जरूरी कौशल भी सिखाते हैं। शिक्षक छात्रों के साथ सहयोग करते हुए उन्हें नैतिक मूल्यों एवं शांतिपूर्ण जीवन के बारे में भी समझाते हैं जो एक अच्छे नागरिक के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिये शिक्षक को ऐसे छात्र तैयार करने होंगे जो वैज्ञानिक-आध्यात्मिक हो, जिनमें बौद्धिकता एवं भावनात्मकता के साथ शारीरिक एवं मानसिक विकास हो। शिक्षक दिवस 2025 का वास्तविक संदेश यही होना चाहिए कि शिक्षक केवल पेशेवर नहीं, बल्कि समाज की आत्मा के निर्माता हैं। भारत यदि पुनः विश्वगुरु बनना चाहता है तो उसे केवल नई शिक्षा नीति ही नहीं, बल्कि निष्ठावान और दूरदर्शी शिक्षकों की फौज तैयार करनी होगी।

जंक फूड को ना, पोषण को कहें हां

राष्ट्रीय पोषण सप्ताह (1-7 सितम्बर) पर विशेष
– योगेश कुमार गोयल

भारत में प्रतिवर्ष लोगों को स्वस्थ जीवनशैली के लिए संतुलित आहार सुनिश्चित करने हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य से एक से सात सितम्बर के बीच ‘राष्ट्रीय पोषण सप्ताह’ मनाया जाता है। भारत सरकार के महिला और बाल विकास मंत्रालय के अंतर्गत खाद्य और पोषण बोर्ड प्रतिवर्ष एक विशेष थीम के साथ इसका आयोजन करता है, जो पूरे सप्ताह के दौरान होने वाली गतिविधियों और कार्यक्रमों की दिशा निर्धारित करती है। 2025 के राष्ट्रीय पोषण सप्ताह का विषय है ‘बेहतर जीवन के लिए सही भोजन करें’ जो समग्र कल्याण को बढ़ावा देने और कुपोषण को रोकने के लिए सभी आयु समूहों के लिए संतुलित आहार और स्वस्थ खाने की आदतों के महत्व पर जोर देता है। दरअसल स्वस्थ रहने के लिए पौष्टिक और संतुलित आहार के सेवन की आवश्यकता है लेकिन आज की बिगड़ी जीवनचर्या और गलत खानपान के कारण लोगों में तरह-तरह की बीमारियां पनप रही हैं। एक स्वस्थ और संतुलित आहार हमारे शरीर के विभिन्न अंगों को पोषण प्रदान करता है और हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में सहायक होता है। पोषण सप्ताह के अवसर पर बेहतर स्वास्थ्य के लिए लोगों को शरीर को पोषण देने वाली खानपान की चीजों के बारे में जागरूक करने के लिए कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। दरअसल स्वास्थ्य के मोर्चे पर भारत द्वारा बेहतर कार्य करने के बावजूद लोगों में सेहत को लेकर जागरूकता के अभाव के चलते रोगियों का आंकड़ा बढ़ रहा है, जो उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं पर बहुत भारी पड़ रहा है।
पोषण के महत्व को समझते हुए लोगों को खानपान, पोषण की पूर्ति और सेहत को लेकर जागरूक करने के लिए मार्च 1975 में राष्ट्रीय पोषण सप्ताह मनाए जाने की घोषणा सर्वप्रथम ‘अमेरिकन डायटेटिक्स एसोसिएशन’ द्वारा की गई थी, जिसे अब ‘न्यूट्रिशन एंड डाइट साइंस एकेडमी’ के नाम से जाना जाता है। 1980 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पोषण सप्ताह एक सप्ताह के बजाय पूरे एक माह तक मनाया जाने लगा लेकिन 1982 में निर्णय लिया गया कि इसे पूरे एक महीने के बजाय सितम्बर महीने के पहले सप्ताह में ही मनाया जाएगा। तभी से एक से सात सितम्बर तक ‘राष्ट्रीय पोषण सप्ताह’ मनाया जा रहा है। पोषण सप्ताह के अवसर पर लोगों को शरीर को पोषण देने वाले फल, सब्जियों और अन्य पौष्टिक खाद्य सामग्रियों को आजमाने के लिए प्रेरित किया जाता है। कुपोषण का मनुष्य के स्वास्थ्य और विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में कमी और आर्थिक पिछड़ेपन की समस्या भी उत्पन्न होती है।
पोषण स्वास्थ्य और कल्याण का केन्द्र बिंदु है, जो कार्य करने के लिए शक्ति एवं ऊर्जा प्रदान करता है और तंदुरुस्त एवं बेहतर महसूस करने में भी मददगार होता है। पर्याप्त पोषण का सेवन करने वाले व्यक्ति अधिक कार्य करते हैं जबकि खराब पोषण प्रतिरक्षा में कमी, बीमारी के जोखिम को बढ़ाने, शारीरिक एवं मानसिक विकास को क्षीण करने तथा कार्यक्षमता में कमी पैदा करने का कार्य करता हैं। अच्छे पोषण का उत्पादकता, आर्थिक विकास तथा अंततः राष्ट्रीय विकास पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है और अच्छा पोषण लोगों को स्वस्थ बनाए रखते हुए स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण भी करता है। इसीलिए नियमित शारीरिक गतिविधियों के साथ अच्छे पोषण को अच्छे स्वास्थ्य की आधारशिला माना जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पोषण का संबंध शरीर की आवश्यकतानुसार आहार के सेवन को माना गया है और कुपोषण को अपर्याप्त या असंतुलित आहार द्वारा खराब पोषण के रूप में परिभाषित किया गया है।
अच्छे पोषण से स्वस्थ बच्चे बेहतर तरीके से सीखते हैं लेकिन आज के दूषित खानपान और फास्टफूड वाली जीवनशैली में कुपोषण खासकर विकासशील देशों की प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं में से एक है। एक अनुमान के अनुसार दुनियाभर में एक तिहाई से भी ज्यादा बच्चों की मृत्यु में कुपोषण का बड़ा योगदान है और पूरी दुनिया में हर तीन कुपोषित बच्चों में से एक भारत में है। भारत को कुपोषण से मुक्ति दिलाने के लिए 8 मार्च 2018 को पोषण अभियान भी शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य खासतौर से 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों, किशोरियों, गर्भवती महिलाओं तथा स्तनपान कराने वाली माताओं की पोषण स्थिति में सुधार करना था और वर्ष 2022 के अंत तक देश से कुपोषण खत्म करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन पोषण अभियान फंड के इस्तेमाल में जिस तरह की उदासीनता देखी जाती रही है, उसे देखते हुए यह लक्ष्य हासिल करना अभी दूर की कौड़ी प्रतीत होता है। नीति आयोग की चौथी प्रगति रिपोर्ट से खुलासा हुआ था कि देश के 23 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों ने तो इस मद में आधे से भी कम फंड का इस्तेमाल किया। यदि हम वाकई देश को कुपोषण मुक्त राष्ट्र का दर्जा देना चाहते हैं तो उदासीनता की इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा।
हमारे भोजन में रंग और खुशबू देने वाले रासायनिक पदार्थ जैसे कुछ ऐसे तत्व भी होते हैं, जो पोषक तत्व नहीं होते लेकिन कार्बाेज, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज लवण, पानी इत्यादि प्रमुख पोषण तत्व हैं। यदि ये पोषण तत्व हमारे भोजन में उचित मात्रा में विद्यमान न हों, तो हमारा शरीर अस्वस्थ हो जाएगा। भोजन के वे सभी तत्व, जो शरीर में आवश्यक कार्य करते हैं, पोषण तत्व कहलाते हैं। ये आवश्यक तत्व जब हमारे शरीर की आवश्यकतानुसार सही अनुपात में उपस्थित होते हैं, तब उसे सर्वाेत्तम पोषण या समुचित पोषण की संज्ञा दी जाती है लेकिन जब पोषक तत्व शरीर में सही अनुपात में विद्यमान नहीं होते या उनके बीच में असंतुलन होता है तो वह कुपोषण कहलाता है यानी अधिक पोषण या कम पोषण दोनों को ही कुपोषण कहा जाता है। कम पोषण का अर्थ है आहार में किसी एक या एक से अधिक पोषण तत्वों की कमी और अधिक पोषण का अर्थ है एक या अधिक पोषक तत्वों की भोजन में अधिकता।
शरीर में पोषक तत्वों की अधिकता और कमी दोनों ही समान रूप से हानिकारक हैं, शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भोजन में उचित मात्रा में आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति होनी चाहिए। पोषक तत्वों के संतुलन और असंतुलन को इसी से समझा जा सकता है कि जब कोई व्यक्ति एक दिन में ऊर्जा खपत से अधिक ऊर्जा ग्रहण करता है तो वह वसा के रूप में शरीर में एकत्र हो जाती है, जिससे व्यक्ति मोटापे का शिकार हो सकता है। पौष्टिक भोजन स्वास्थ्य की महत्वपूर्ण आधारशिला है और अच्छे पोषण के लिए जरूरी है कि फास्ट फूड के बजाय घर में बने पारंपरिक और पौष्टिक आहार के सेवन को ही प्राथमिकता दें, मुख्य आहार के स्थान पर स्नैक्स का सेवन करने से बचें, चीनी और अस्वस्थ प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का सेवन सीमित मात्रा में करें, खाने से पहले फल-सब्जियों को अच्छी तरह से धोएं और यथासंभव कच्चे फल-सब्जियों का सेवन करें क्योंकि पकाने से कई पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं, कम से कम प्रसंस्करण आहार के साथ ताजा भोजन अवश्य करें।