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जाति जनगणना विभाजन का नहीं, विकास का आधार बने

 – ललित गर्ग-

पहलगाम की क्रूर एवं बर्बर आतंकी घटना के बाद मोदी सरकार लगातार पाकिस्तान को करारा जबाव देने की तैयारी के अति जटिल एवं संवेदनशील दौर में एकाएक जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लेकर न विपक्षी दलों को बल्कि समूचे देश को चौकाया एवं चमत्कृत किया है। सरकार का यह निर्णय जितना बड़ा है, उतना ही चुनौतीपूर्ण भी। मोदी सरकार का जातिगत जनगणना के लिए तैयार होना सुखद और स्वागतयोग्य है। पिछले कुछ समय से जातिगत जनगणना की मांग बहुत जोर-शोर से हो रही थी। कुछ राज्यों में तो भाजपा भी ऐसी जनगणना के पक्ष में दिखी थी, पर केंद्र सरकार का रुख इस पर बहुत साफ नहीं हो रहा था। अब अचानक ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में राजनीतिक मामलों की उच्चस्तरीय कैबिनेट समिति की बैठक में यह फैसला ले लिया गया। बाद में केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मीडिया को बताया कि आगामी जनगणना में जातिगत गणना भी शामिल रहेगी। यह कदम जहां देश के राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों को बदलेगा, वही  सामाजिक असमानताओं को दूर करने और वंचित समुदायों के उत्थान के लिए लक्षित नीतियों को लागू करने में मील का पत्थर साबित होगा।
जातिगत जनगणना 1931 यानी अखंड भारत में अंग्रेजी सत्ता ने कराई थी। भारत में जनगणना की शुरुआत अंग्रेजी हुकूमत के दौर में, सन 1872 में हुई थी और 1931 तक हुई हर जनगणना में जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज किया गया। आजादी के बाद सन् 1951 में जब पहली बार जनगणना कराई गई, तो तय हुआ कि अब जाति से जुड़े आंकड़े नहीं जुटाए जाएंगे। स्वतंत्र भारत में हुई जनगणनाओं में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़े डेटा को ही पब्लिश किया गया। 2011 में मनमोहन सरकार ने जातिवार जनगणना कराई अवश्य, लेकिन उसमें इतनी जटिलताएं एवं विसंगतियां मिलीं कि उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। इसके बाद कुछ राज्यों ने जातियों की गिनती करने के लिए सर्वे कराए, क्योंकि जनगणना कराने का अधिकार केवल केंद्र को ही है। हालांकि भाजपा ने बिहार में जाति आधारित सर्वे का समर्थन किया, लेकिन जातिगत जनगणना को लेकर वह मुखर नहीं रही। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अवश्य इसका समर्थन किया। लेकिन अब एकाएक भाजपा को जातिगत जनगणना करना अपने हित में दिखाई दिया क्योंकि अपनी नीतियों एवं योजनाओं के बल पर भाजपा ने पिछड़ी जातियों और दलितों की गोलबंदी कर सत्ता का सफर आसान बनाया है।
जातिगत जनगणना का भारतीय राजनीति और समाज-व्यवस्था पर व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव पडेगा। कांग्रेस और कुछ क्षेत्रीय दल इसकी पुरजोर मांग करने में लगे हुए थे। सबसे ज्यादा जोर राहुल गांधी दे रहे थे, जबकि नेहरू से लेकर नरसिंह राव तक ने इसकी जरूरत नहीं समझी। यह तय है कि जातिगत जनगणना कराने के फैसले पर जहां कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल इसका श्रेय लेना चाहेंगे, वहीं भाजपा इसे सामाजिक न्याय एवं समता-संतुलित समाज-निर्माण केंद्रित अपनी पहल बताएगी। जाति आधारित जनगणना सामाजिक न्याय में सहायक बनेगी या नहीं, लेकिन इससे जातिवादी राजनीति के नए दरवाजे खुलेंगे एवं आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर राजनीति की धूरी बनेगा। कांग्रेस एवं विपक्षी दलों ने अपने संकीर्ण एवं स्वार्थी राजनीतिक नजरिये से यह मांग इसलिए उठाई थी ताकि इस आधार पर आगे आरक्षण के मुद्दे को गर्माया जा सके और जातीय गोलबंदी कर चुनावी फायदा लिया जा सके। लेकिन भाजपा-सरकार ने जाति जनगणना का ऐलान कर इस मुद्दे को अपनी पाली में ले लिया है। भले ही इसके आंकड़े आने के बाद आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग से भाजपा कैसे निपटेगी, यह बड़ी चुनौती उसके सामने है। वैसे भी इस तरह की पहल जिन राज्यों में हुई है, वहां भी इसे लेकर विवाद चल रहा है। ऐसे विवाद भाजपा के लिये एक नयी चुनौती बनेंगे। जाति आधारित जनगणना से भारतीय समाज के नये कोने-अंतरे-चुनौतियां सामने आयेगी। लेकिन जातिगत जनगणना के समर्थकों का मानना है कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। जनगणना में दलितों और आदिवासियों की संख्या तो गिनी जाती है और उन्हें राजनीतिक आरक्षण भी मिला हुआ है लेकिन पिछड़ी और अति पिछड़ी (ओबीसी और ईबीसी) जातियों के कितने लोग देश में हैं इसकी गिनती नहीं होती है। जनगणना एक बहुत बड़ी कवायद है और अगर इसमें जातिगत गणना को भी शामिल किया जा रहा है, तो काम और भी सावधानी एवं सतर्कता से करना होगा। हजारों जातियां हैं और उनकी हजारों उप-जातियां हैं। सबको अलग-अलग गिनने के लिए देश को अपनी डिजिटल शक्ति का उपयोग करना पड़ेगा।
निश्चित ही नयी राजनीतिक एवं नीतिगत स्थितियां समस्याएं खड़ी होगी। अब सभी जातियों की गिनती होगी। यह गिनती मुस्लिम, ईसाई और अन्य समुदायों में भी होनी चाहिए, क्योंकि कोई दावा कुछ भी करे, जाति और उसके आधार पर विभेद सब जगह है। इससे भी ज्यादा आवश्यक, बल्कि अनिवार्य यह है कि जातिगत जनगणना जातिवाद की राजनीति का हथियार न बने और वह भारतीय समाज को विभाजित न करने पाए। इस अंदेशे को दूर करने के कुछ ठोस उपाय होने ही चाहिए कि जाति आधारित जनगणना जातीय विभाजन का कारण न बनने पाए। यह अंदेशा इसलिए है, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि कई राजनीतिक दल खुले रूप से जाति की राजनीति करते हैं। माना जाता है कि देश की आबादी में 52 फ़ीसदी लोग पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति के हैं। ओबीसी समुदाय के नेताओं का मानना है कि इस हिसाब से उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी काफ़ी कम है। राजनीतिक दल इन समुदायों का समर्थन हासिल करने के लिए जाति जनगणना का समर्थन कर रहे हैं।
भारत में जाति जनगणना आजादी के बाद रुकी, पर अब सामाजिक न्याय, नीतिगत सुधार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए इसकी जरूरत महसूस की जा रही है। पारदर्शिता और सावधानी से किया गया यह कदम समावेशी विकास का आधार बन सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जाति आधारित जनगणना को एक समतामूलक समाज निर्माण के दृष्टिकोण से समर्थन देने के संकेत दिए हैं। संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा कि यह संवदेनशील मामला है और इसका इस्तेमाल राजनीतिक या चुनावी उद्देश्यों के लिए नहीं बल्कि पिछड़ रहे समुदाय और जातियों के कल्याण के लिए होना चाहिए। जाति जनगणना के आंकडे प्रस्तुत होने से राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी कितनी कम है, यह डर संभवतः भाजपा को सता रहा था। लेकिन भाजपा का यह डर या तो ख़त्म हो गया है, या फिर उसने बिहार में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में चुनावी लाभ लेने के लिए ये क़दम उठाया है। भाजपा इसके खि़लाफ़ थी, उसने जातिगत जनगणना को देश को बांटने की कोशिश करने वाला बताया था। लेकिन एनडीए में शामिल भाजपा की ज्यादातर सहयोगी पार्टियां इसके पक्ष में हैं।
जातिगत जनगणना के आंकड़े 2026 या 2027 के अंत में आएंगे और तब तक बिहार और यूपी के चुनाव हो चुके होंगे। इसलिए इसका चुनावी लाभ लेने की बात सही नहीं है। वैसे भी भाजपा ने हाल के वर्षों में पिछड़ों और दलितों समुदाय को अपने साथ जोड़ने में कामयाबी हासिल की है। भाजपा इस जातिगत गणना से ये भी दिखाना चाहती है कि पिछड़ों के एक-आध समुदाय को छोड़ दें तो ओबीसी समुदाय का बड़ा हिस्सा उसके साथ है। वैसे तो विभिन्न राजनीतिक दल अमुक-अमुक जातियों का नेतृत्व करने के लिए केवल जाने ही नहीं जाते, बल्कि ऐसा दावा भी करते हैं। इसलिये जाति आधारित जनगणना का लाभ है तो हानि भी है। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि जातिगत जनगणना वंचितों-पिछड़ों के उत्थान में सहायक बने, लेकिन यदि वह विभाजन को बल देती है और देश की एकजुटता प्रभावित करती है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं होगा। जनगणना के आंकड़े सरकार और जनता के लिए खुले और पारदर्शी होने चाहिए, ताकि सामाजिक संबंधों, आर्थिक अवसरों और राजनीतिक गतिशीलता की नई एवं समानतामूलक दिशाएं उद्घाटित हो सके और भारतीय समाज की विविधता की एक व्यापक सकारात्मक तस्वीर प्रस्तुत की जा सके। कोई भी आंकड़ा तभी सराहनीय है, जब उससे विकास तेज करने में मदद मिलती हो, एक समतामूलक एवं संतुलित समाज की संरचना को बल मिलता हो।

पहलगाम में आतंकी हमला: राष्ट्र के साथ खड़े होने का समय

प्रश्न पूछने के अवसर भी आएँगे, अभी राष्ट्र के साथ खड़े होने का समय है। राष्ट्र सर्वोपरि।

हाल की पहलगाम घटना में एक हिंदू पर्यटक को आतंकवादियों ने धार्मिक पहचान के आधार पर निशाना बनाया। यह घटना केवल एक हत्या नहीं, बल्कि भारत की आत्मा पर हमला है। आतंकवादियों का उद्देश्य कश्मीर को अस्थिर करना नहीं, बल्कि पूरे भारत में डर और नफरत का माहौल फैलाना है। ऐसे समय में हमें आलोचना से परे राष्ट्रहित में खड़ा होना चाहिए और एकजुटता दिखानी चाहिए। देश के मनोबल को गिरने से बचाना हमारी जिम्मेदारी है, और हमे सभी मतभेदों से ऊपर उठकर “राष्ट्र सर्वोपरि” की भावना के साथ खड़ा होना चाहिए।

-डॉ सत्यवान सौरभ

यह नारा उस समय और अधिक सार्थक हो उठता है जब एक निर्दोष पर्यटक, अपनी पत्नी के साथ छुट्टियां मनाने गया हो और आतंक की गोली का शिकार हो जाए। पहलगाम की ताज़ा घटना, जिसमें एक हिंदू युवक को टारगेट कर आतंकवादियों ने गोली मार दी, सिर्फ एक हत्या नहीं, बल्कि भारत की आत्मा पर हमला है। और ऐसे समय में यह कहना—”प्रश्न पूछने के अवसर भी आएँगे”—कोरी बचाव की भाषा नहीं, बल्कि राष्ट्रहित में संयम की पुकार है।

पहलगाम की घटना: घृणा का एकतरफा निशाना

जम्मू-कश्मीर का पहलगाम, जहां का प्राकृतिक सौंदर्य लोगों को आकर्षित करता है, अब आतंक का नया निशाना बन गया है। इस बार किसी सैनिक को नहीं, किसी पुलिसकर्मी को नहीं, बल्कि एक आम हिंदू नागरिक को निशाना बनाया गया—जो अपनी पत्नी के साथ पर्यटक बनकर वहां गया था। आतंकियों ने स्पष्ट धार्मिक पहचान देखकर हमला किया। यह हमला दो स्पष्ट संदेश देता है। पहला यह कि पाकिस्तान-समर्थित आतंकी अब भी भारत में धार्मिक विभाजन फैलाने पर आमादा हैं। दूसरा यह कि उनका उद्देश्य केवल कश्मीर को अस्थिर करना नहीं, बल्कि पूरे भारत में डर और नफ़रत का माहौल बनाना है।

पाकिस्तान: आतंक का पालक

इस हमले की जिम्मेदारी लेने वाले संगठनों की जड़ें पाकिस्तान की धरती में हैं। चाहे वो लश्कर-ए-तैयबा हो, या TRF जैसे नए नाम वाले पुराने चेहरे—इनकी फंडिंग, ट्रेनिंग और संरक्षण सब पाकिस्तान से आते हैं। ये आतंकवादी संगठन अब न सिर्फ कश्मीर को चोट पहुंचा रहे हैं, बल्कि पूरे भारत की धार्मिक एकता और पर्यटक स्थलों की शांति को भी लक्ष्य बना रहे हैं। जब भारत आक्रोशित होता है, तो यह आक्रोश केवल सैनिक कार्रवाई तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह आम भारतीय के भीतर भी जागता है—जो अपने देश के सम्मान और सुरक्षा को सर्वोपरि मानता है।

सवाल बनाम एकता: वक़्त का तकाज़ा

लेकिन इस समय कुछ लोग, खासकर बौद्धिक तबके के कुछ हिस्से और राजनीति के एक विशेष वर्ग से जुड़े लोग, इस घटना को “कश्मीर में असंतोष” कहकर आतंकियों को परोक्ष वैचारिक समर्थन देने लगते हैं। कुछ मीडिया संस्थान इसे एक सामान्य अपराध बताकर इसकी धार्मिक प्रकृति को छुपाने की कोशिश करते हैं। ये वही लोग हैं जो हर बार आतंक के हमलों को या तो साजिश बताकर नजरअंदाज करते हैं या फिर ‘भूल जाओ, आगे बढ़ो’ जैसे शब्दों में लपेट देते हैं। लेकिन इस बार मामला सिर्फ एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं, बल्कि भारत की आत्मा की चीख है, जिसे चुपचाप सह लेना नैतिक अपराध होगा।

प्रश्न पूछने का अधिकार, लेकिन पहले संयम जरूरी है

ऐसे में कुछ लोग कहेंगे, “प्रश्न पूछना तो लोकतंत्र का हक़ है!”—बिल्कुल है। लेकिन क्या यह हक़ इतना बेसब्र हो चुका है कि एक घायल पत्नी की आँखों में आँसू सूखने से पहले ही हम प्रेस कॉन्फ्रेंस की मांग करने लगें? क्या एक जवान की शहादत के शव को मिट्टी भी नसीब न हो और हम सड़कों पर ‘क्यों हुआ?’ के नारों में उलझ जाएं? सवाल पूछिए, ज़रूर पूछिए, लेकिन तब जब देश का मनोबल गिरा न हो, जब अपनों के आँसू थमे हों, जब धुआँ छँट जाए। अभी वक्त है एक स्वर में खड़े होने का, एकजुटता में जवाब देने का।

हमारी ज़िम्मेदारी: वीरता सिर्फ सीमा पर नहीं होती

यह समझना ज़रूरी है कि देशभक्ति केवल वर्दी में नहीं, विचार में भी होती है। जब कश्मीर में एक हिंदू नागरिक को सिर्फ इसलिए मारा जाए क्योंकि वह हिंदू है, और तब भी देश के भीतर कुछ लोग चुप रहें, या मुद्दे से ध्यान भटकाएं, तो यह नैतिक पराजय होती है। वह वीरता क्या काम की, जो बंदूक थामे बिना चुपचाप अत्याचार को सहन करे? क्या लेखकों, कलाकारों, विचारकों और नागरिकों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं? क्या हम सिर्फ ट्रेंडिंग हैशटैग तक सीमित रह गए हैं?

सच्चाई को स्वीकार करना: धार्मिक टारगेटिंग का विरोध

इस घटना के बाद सबसे बड़ा कार्य है—सच्चाई को साफ-साफ स्वीकारना। धार्मिक टारगेटिंग हुई है और उसे इसी रूप में स्वीकार कर उसका विरोध करना चाहिए। सेकुलरिज्म का मतलब यह नहीं कि सच्चाई से आँखें फेर ली जाएं। सेकुलरिज्म की सच्ची परीक्षा तभी होती है जब आप पीड़ित की जाति या धर्म देखकर नहीं, उसके दर्द को देखकर खड़े होते हैं। भारत की आत्मा बहुलता में विश्वास करती है, लेकिन वह बहुलता तब तक ही जीवित है जब तक आप सच्चाई से भाग नहीं रहे।

समर्थन: हमारी ताकत है

सोशल मीडिया के इस दौर में झूठ फैलाना आसान है, लेकिन सच का साथ देना ज़्यादा ज़रूरी है। अफवाहों से ज़्यादा खतरनाक है—चुप्पी। हमें चाहिए कि हम तथ्य साझा करें, संवेदनशीलता के साथ। सरकार, सेना और सुरक्षाबलों का मनोबल सिर्फ हथियारों से नहीं, हमारे शब्दों और समर्थन से भी बढ़ता है। इस कठिन समय में यदि हम एक भी गलत संदेश दे बैठें, तो हम आतंकवादियों के हाथों में अप्रत्यक्ष रूप से हथियार सौंपते हैं।

एकजुटता का समय: पहलगाम की घटना और भारत का सवाल

इस घटना ने भारत के सामने एक बार फिर वही सवाल खड़ा कर दिया है—क्या हम एक हैं, या टुकड़ों में बंटे हुए हैं? जब पहलगाम में एक परिवार उजड़ता है, तो सिर्फ कश्मीर नहीं, पूरा देश घायल होता है। उस महिला की चीखें जो अपने पति की लाश के सामने बदहवास होकर रोती रही, वह केवल एक पत्नी का रोदन नहीं था, वह भारत माता की कराह थी। और इसका उत्तर हम केवल आँसू पोंछकर नहीं, एकजुट होकर दे सकते हैं।

संकल्प का समय: राष्ट्र सर्वोपरि

यह सही है कि हर घटना पर सरकार से जवाबदेही मांगी जानी चाहिए, लेकिन वह एक प्रक्रिया है, जो समय लेकर संस्थानों से पूरी होती है। लेकिन जनता का काम क्या है? सिर्फ सवाल करना? या फिर ज़रूरत पड़ने पर उस राष्ट्रध्वज के नीचे खड़े होना, जिसकी छाया में हम सांस लेते हैं? लोकतंत्र बहस का नाम है, लेकिन उस बहस की गरिमा तब ही रहती है जब वह उचित समय पर हो। संकट की घड़ी में बहस नहीं, भरोसा चाहिए। जब हम युद्ध में होते हैं, तब हम रणनीति पर चर्चा नहीं करते—हम योद्धाओं का साथ देते हैं।

एक आँसू, एक जवाब

इसलिए आज जरूरत है कि हम उस एक पर्यटक को एक प्रतीक मानें—उस भारत का प्रतीक, जो अपने परिवार के साथ छुट्टियाँ मनाने निकलता है, अपनी ज़िंदगी में विश्वास रखता है, और फिर अचानक एक आतंक की गोली से छिन जाता है। हमें यह याद रखना होगा कि अगर हम आज नहीं जागे, तो कल कोई और पहलगाम में मारा जाएगा, और तब भी हम यही कहेंगे—”बहुत अफ़सोस है।”

लेकिन अब समय अफ़सोस का नहीं, संकल्प का है। संकल्प इस बात का कि हम सच्चाई से डरेंगे नहीं। हम धर्म के नाम पर मारे गए किसी भी नागरिक के लिए एकजुट होंगे। हम आतंक के हर स्वरूप के खिलाफ एक स्वर में बोलेंगे। हम आलोचना करेंगे, लेकिन तब जब देश की आँखें नम न हों। हम सवाल उठाएंगे, लेकिन तब जब देश की आत्मा घायल न हो।

पहलगाम में मारे गए युवक की पत्नी ने जो चीखें मारीं, वो सिर्फ एक परिवार का दर्द नहीं था—वो भारत की अस्मिता की पुकार थी। और उसका जवाब यह होना चाहिए कि देश एक है, सभी मतभेदों से ऊपर उठकर, एक स्वर में बोले: “राष्ट्र सर्वोपरि।”

प्रश्न पूछिए, पर तब जब धुआँ छँट जाए।

घाटी के आँसू

घाटी जहाँ फूल खिलते थे, अब वहाँ सिसकती शाम,
वेदना की राख पर टिकी, इंसानियत की थाम।
कहाँ गया वह शांति-सूर्य, जो पूरब से उठता था?
आज वहाँ बस मौन है, जहाँ कल गीत बहता था।

पहलगाम की घाटियाँ, रोईं बहाये नीर।
धर्म पे वार जो हुआ, मानवता अधीर।
संगिनी का चीखना, गूँजा व्याकुल शोर।
छिन गया पल एक में, उसका जीवन भोर।

हिंदुस्तानी रक्त में, साहस भरा अपार।
आतंकी के हर कदम, होंगे अब लाचार।
श्रद्धा पे जो वार है, वह कायरता जान।
ऐसे नरपिशाच की, कब होगी पहचान?

वो जो चला तीर्थ को, दिल में लिए यकीन।
मार दिया उसको वहीं, क्यूँ इतना अधीन?
आस्था के मार्ग पर, अब भय का पहरा।
कहाँ गया वो ज़मीर, कहाँ गया सवेरा?

धूप-छाँव का देश है, फिर भी सबका एक।
नफरत के सौदागरों, मत खेलो ये खेल।
चुप्पी साधे लोग जो, देख रहे तमाशा।
एक दिन पूछेगा वक्त, कहाँ थी तुम्हारी भाषा?

अब न मौन रहो, न सहो ये छद्म धर्म का दंश,
हर दिल में दीप जलाओ, करुणा से करें नवं अंश।
सत्य ही शस्त्र बने, स्वर ही अग्निवाण,
इस घाटी की पीड़ा में, छिपा है हिंदुस्तान।

स्वतंत्रता का स्वप्न

नारी की स्वतंत्रता की धारा,
चली हर मन में इक विचार सा।
बंधनों से बंधी नहीं वह,
स्वतंत्रता का है अब ख्वाब हमारा।

कभी कहा गया, तुम छोटी हो,
तुमसे न होगा कोई काम बड़ा।
पर भीतर की शक्ति ने कहा,
रखो ख्वाब, जियो तुम नया।

संवेदनाओं से भरी है उसकी बात,
गहरी नज़र में छुपा ज्ञान का साथ।
हर कदम पर लिखे हैं उसके गीत,
जो सच्चाई की ओर उसे ले जाए रीत।

हमें न चाहिए कोई दाम,
न कोई पुरस्कार, न कोई तमगा।
अपने विचारों से सजे-धजे,
हमें चाहिए बस अपार सवेरा।

सिर्फ़ हर बोझ को उठाना नहीं,
स्वतंत्रता की असली पहचान है —
अपनी राह खुद चुनना,
हर मुश्किल को अपने भीतर से पार करना।

हर वादा, हर विश्वास टूटे,
पर न हमारी ज़िन्दगी की राह।
हम आज़ाद हैं, हम संजीव हैं,
स्वतंत्रता से भरा है हर हमारा पक्ष।

यही हमारा संदेश है, यही है गीत,
नारी अपनी मुक्ति का ढूंढे न कोई मीत।
सच्ची स्वतंत्रता है जब मन का है विश्वास,
तब दुनिया बदलती है, हर कदम से नया प्रकाश।

—प्रियंका सौरभ

हिंदी साहित्य की आँख में किरकिरी: स्वतंत्र स्त्रियाँ

हिंदी साहित्य जगत को असल स्वतंत्र चेता प्रबुद्ध स्त्रियां अभी भी हजम नहीं होती। उन्हें वैसी ही स्त्री लेखिका चाहिए जैसा वह चाहते हैं। वह सॉफ्ट मुद्दों पर लिखे, परिवार, समाज, कुछ मनोविज्ञान, स्त्री-पुरुष संबंध। आधुनिकता का या आधुनिक स्त्री का पर्याय उनके लिए वह है कि बोल्ड लेखन कर सके, अश्लीलता को बोल्ड लेखन के नाम पर यह समाज स्त्री लेखिकाओं को खूब चढ़ाता है और उन्हें खूब बड़े-बड़े शब्दों से नवाज़ता है। यह सब वे स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर करता है।

वे भ्रमित स्त्रियां भी घर परिवार का विरोध, संस्कृति का विरोध, विकृत यौनिकता के समर्थन को ही बोल्ड और आधुनिक मान उनके हाथ के कठपुतली बनी हुई इठलाती रहती हैं। अफ़सोस कि उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कठपुतली हैं, उनसे जैसा चाहे वैसा लिखवाया जाता है और वह भी उन्हें आधुनिक, साहसी, बोल्ड, स्वतंत्र चेता, प्रबुद्ध शब्दों की चाशनी में लपेटकर। लिजलिजे साहित्य की रचना, विध्वंस, नकारात्मकता लिखना ही उन्हें बोल्ड और प्रबुद्ध कहलवाता है।

-प्रियंका सौरभ

हिंदी साहित्य जगत को असल स्वतंत्र चेता प्रबुद्ध स्त्रियां अभी भी हजम नहीं होती। उन्हें वैसी ही स्त्री लेखिका चाहिए जैसा वह चाहते हैं। वह सॉफ्ट मुद्दों पर लिखे, परिवार, समाज, कुछ मनोविज्ञान, स्त्री-पुरुष संबंध। आधुनिकता का या आधुनिक स्त्री का पर्याय उनके लिए वह है कि बोल्ड लेखन कर सके, अश्लीलता को बोल्ड लेखन के नाम पर यह समाज स्त्री लेखिकाओं को खूब चढ़ाता है और उन्हें खूब बड़े-बड़े शब्दों से नवाज़ता है। यह सब वे स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर करता है।

वे भ्रमित स्त्रियां भी घर परिवार का विरोध, संस्कृति का विरोध, विकृत यौनिकता के समर्थन को ही बोल्ड और आधुनिक मान उनके हाथ के कठपुतली बनी हुई इठलाती रहती हैं। अफ़सोस कि उन्हें पता ही नहीं होता कि वे कठपुतली हैं, उनसे जैसा चाहे वैसा लिखवाया जाता है और वह भी उन्हें आधुनिक, साहसी, बोल्ड, स्वतंत्र चेता, प्रबुद्ध शब्दों की चाशनी में लपेटकर। लिजलिजे साहित्य की रचना, विध्वंस, नकारात्मकता लिखना ही उन्हें बोल्ड और प्रबुद्ध कहलवाता है।

हिंदी साहित्य जगत के लिए आज भी स्वतंत्र चेतना वाली प्रबुद्ध स्त्रियाँ एक असहज कर देने वाला सच हैं। वे स्त्रियाँ जो अपनी स्वतंत्र बुद्धि की मालिक हैं, जो सोचती हैं, सवाल उठाती हैं, और झुकी हुई लेखिकाओं के पुराने सांचे में नहीं ढलतीं — वे साहित्यिक जमात को अब भी पचती नहीं हैं। आज भी उन्हें वैसी ही लेखिकाएँ चाहिए जो उनके निर्धारित खांचे में फिट बैठें: जो ‘सॉफ्ट’ मुद्दों पर लिखें — परिवार, समाज, थोड़ी सी मनोविज्ञान की बात, कुछ हल्के-फुल्के स्त्री-पुरुष संबंध।

जब हिंदी साहित्य के मंचों पर ‘आधुनिकता’ का जिक्र होता है, तो उसका भी एक निर्धारित ढांचा होता है। “आधुनिक” स्त्री लेखिका का मतलब उनके लिए वह है जो ‘बोल्ड’ हो — यानी अश्लीलता को ‘बोल्ड लेखन’ का नाम देकर परोसे। जिसे ‘यौनिक स्वतंत्रता’ के नाम पर उकसाया जाए — परिवार के विरोध, संस्कृति के उपहास और संबंधों की विकृति को ही आधुनिकता का पर्याय बताया जाए। और इस पूरी चालाकी को इतनी मिठास से लपेटा जाता है कि भ्रमित लेखिकाएँ स्वयं भी इस झूठ को सच मान बैठती हैं। वे गर्व से फूली नहीं समातीं कि वे कितनी ‘बोल्ड’, ‘स्वतंत्र’ और ‘आधुनिक’ बन गई हैं — जबकि वे महज़ उन साहित्यिक ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली बन चुकी होती हैं, जो उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार नचाते हैं। अफसोस, उन्हें कभी यह सवाल उठाने की फुर्सत नहीं होती — कि जिस स्वतंत्रता का पाठ उन्हें पढ़ाया जा रहा है, क्या वही पाठ उन पुरुष लेखकों ने अपनी घर की स्त्रियों को भी पढ़ाया है?

साहित्यिक समाज की मानसिकता यह है कि स्त्री लेखन सीमित रहे — कोमल भावनाओं, सौंदर्य, प्रेम, विरह, या सॉफ़्ट पोर्न के एक छुपे हुए दायरे में। यदि कोई स्त्री geopolitics, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, अंतरराष्ट्रीय संबंधों, समाजशास्त्र, राजनीति, शिक्षा, अर्थशास्त्र या नीतियों पर गंभीरता से लिखने का साहस करती है, तो वह असहज कर देती है। उनके मन में यह असहनीय बात घर कर जाती है कि “यह क्षेत्र तो पुरुषों के हैं।” स्त्रियों को बस शब्दों का श्रृंगार करना चाहिए — गहरे सवाल नहीं उठाने चाहिए। विचारों की गहराई, विश्लेषण की धार और बौद्धिक निर्भीकता — ये सब अभी भी हिंदी साहित्यिक परिदृश्य में ‘पुरुषों का गढ़’ माने जाते हैं।

जो स्त्री न किसी पुरस्कार की आकांक्षा में झुकती है, न किसी मंच के लालच में अपने विचारों से समझौता करती है, न किसी प्रसिद्ध आलोचक की कृपा-दृष्टि की भूखी होती है, जो स्त्री अपने विचारों, मूल्यों और चरित्र के प्रति सजग और अडिग है — वह हिंदी साहित्य जगत के लिए अब भी एक खतरनाक उपस्थिति है। ऐसी स्त्री का अपने खुद के विवेक की स्वामिनी होना, उसका स्वतंत्र होना — उन्हें डराता है, चिढ़ाता है, असहज कर देता है। वे उसे ‘अहंकारी’, ‘असंवेदनशील’, ‘कट्टर’ और ‘अति-बुद्धिजीवी’ जैसे तमगों से नवाज़ने लगते हैं, ताकि उसे हाशिए पर धकेला जा सके। लेकिन उनका सारा उपहास, सारी आलोचना उस स्त्री के लिए एक तुच्छ शोर मात्र है, जो जानती है कि उसका युद्ध बाहर के नहीं, बल्कि भीतर के अंधकार के विरुद्ध है।

यह विरोधाभास देखिए — जिन्होंने स्त्रियों को यौनिकता के नाम पर ‘आधुनिकता’ का पाठ पढ़ाया, वही अपने घर की स्त्रियों के लिए अब भी वही ‘पवित्रता’, ‘मर्यादा’, और ‘परंपरा’ की कसौटी लगाते हैं। उनके लिए ‘बोल्डनेस’ केवल बाहर की दुनिया की स्त्रियों के लिए है। घर की औरतें अब भी पर्दे में रहनी चाहिए, चुप रहनी चाहिए, विनम्र रहनी चाहिए।

जो स्त्रियाँ अपनी स्वतंत्रता को अश्लीलता में, अपनी आधुनिकता को आत्मवंचना में, और अपनी साहसिकता को पितृसत्तात्मक छद्म समर्थन में बेच आती हैं — वह असल में किसी क्रांति का हिस्सा नहीं बनतीं, बल्कि उस पितृसत्तात्मक साहित्यिक व्यवस्था की नई चेरी बन जाती हैं।

कठोर सत्य यह है कि — “स्त्री की मुक्ति” भी आज एक ब्रांड बन चुकी है। जिसका सौदा होता है, मंचों पर प्रदर्शन होता है, पुरस्कारों में बाँटा जाता है।

वास्तव में स्वतंत्र चेतना वाली स्त्री का विद्रोह बहुत सधा हुआ और अदृश्य होता है। वह अश्लील भाषा में नहीं, नकारात्मकता में नहीं, अपमानजनक बोल्डनेस में नहीं — बल्कि विचार की गहराई में, मुद्दों के सटीक विश्लेषण में, और अपनी लेखनी की ईमानदारी में प्रकट होता है।

वह प्रेम पर लिखती है, तो उसमें करुणा की जटिलता को समझाती है। वह राजनीति पर लिखती है, तो सत्ता के मंथन में जनता की पीड़ा का चित्र खींचती है। वह धर्म पर लिखती है, तो अंधविश्वास और असहिष्णुता के जाल को तोड़ती है।

वह जानती है कि साहित्य का असली उद्देश्य सच्चाई का उद्घाटन है — न कि सत्ता, लालच और यौनिक बाज़ार के हाथों गिरवी बन जाना।

हिंदी साहित्य को अब यह स्वीकार करना होगा कि स्त्रियाँ केवल “सजावट” या “संवेदनशीलता” का प्रतीक नहीं हैं। वे अब सवाल भी पूछती हैं, विश्लेषण भी करती हैं, तोड़ती भी हैं और गढ़ती भी हैं। और सबसे महत्वपूर्ण — वे अब किसी के एजेंडे का मोहरा नहीं बनना चाहतीं।

वे अपनी सोच की, अपने कलम की, अपने भविष्य की स्वयं निर्माता बन चुकी हैं। यह बदलाव साहित्यिक समाज को जितनी जल्दी समझ आ जाए, उतना बेहतर होगा — वरना उनकी दुनिया में केवल कठपुतलियाँ नाचती रहेंगी, और स्वतंत्र चेतना वाली स्त्रियाँ इतिहास में अपने लिए नए रास्ते खुद बनाती रहेंगी।

“जब एक स्त्री अपनी आवाज़ उठाती है, तो वह केवल अपनी बात नहीं करती, वह पूरे समाज की चुप्पियों को चुनौती देती है।”

26 साल का इंतजार और मेहनतकशों के हक में मोहन सरकार

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मनोज कुमार

कैलेंडर में दर्ज तारीख के हिसाब से हर साल एक मई को दुनिया के साथ हम लोग भी मई दिवस मनाते हैं. मजदूरों के हक-हूकुक की बातें करते हैं और इस दिन के साथ बिसरा देते हैं लेकिन मध्यप्रदेश मई दिवस के लिए 1 मई का इंतजार नहीं करेगा बल्कि हर साल सेलिबे्रट करेगा 25 दिसम्बर को. मोहन सरकार के एक फैसले ने ना केवल मई दिवस की तारीख का अर्थ ही बदल दिया बल्कि हजारों मजदूरों की आँखों से आँसू पोंछ लिए. हजारों मजदूर, 224 करोड़ रुपये और 26 सालों का लम्बा इंतजार. इन सालों में 26 बार मई दिवस आता-जाता रहा लेकिन आने-जाने वाली सरकारों के लिए यह एक आम मुद्दा था. न्याय के लिए बरसों से इंतजार करते करते अनेक मजदूरों की जीवनलीला खत्म हो गई. परिवार तंगहाली और बदहाली में जीता रहा. यहां-वहां से लेकर अदालत के दरवाजे तक इन मजदूरों ने गुहार लगायी लेकिन मामला सिफर रहा. सब कुछ हो रहा था लेकिन नहीं हुआ तो मजदूरों के हक में फैसला. करीब-करीब डेढ़ वर्ष पहले मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का परिवर्तन होता है और शिवराजसिंह चौहान के स्थान पर डॉ. मोहन यादव नए मुख्यमंत्री बनते हैं. कभी शिवराजसिंह चौहान मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री का प्रभार सम्हालने वाले डॉ. यादव से भी कोई बड़ी उम्मीद सालों से अपनी मजदूरी पाने के लिए लड़ते मजदूरों को नहीं थी. लेकिन समय का लेखा कौन जानता है. मुुख्यमंत्री डॉ. यादव ने अचानक से फैसला लिया और 26 सालों से अटकी उनकी मजदूरी का फैसला चंद मिनटों में कर दिया. डॉ. यादव के इस फैसले ने मोहन सरकार के प्रति लोगों में विश्वास का भाग जगा दिया. इसी के साथ 25 दिसम्बर, 2023 एक अमिट तारीख के रूप में मध्यप्रदेश के कैलेंडर में दर्ज हो गया है.  मामला मालवा की कभी शान और इंदौर की पहचान रही हुकमचंद कपड़ा मिल के बंद हो जाने के बाद बेकार और बेबस हुए मजदूरों का है. साल-दर-साल गुजरता रहा और सब कुछ स्याह अंधेरे में कैद रहा. अदालत ने आदेश दिया कि हुकमचंद कपड़ा मिल के मालिकाना हक की जमीन को बेच कर मजदूरों की मजदूरी का भुगतान किया जाए. अनेक कोशिशों के बाद भी जमीन कौड़ी के मोल पड़ी रही. कोई खरीददार सामने नहीं आया और ना ही पूर्ववर्ती सरकारों ने कोई ठोस फैसला लिया. निराशा में डूबते-उतरते हजारों मजदूरों को लग रहा था कि अब उन्हें न्याय नहीं मिलने वाला लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मोहन सरकार ने फैसला लिया और चंद मिनटों में सभी मजदूरों को उनका बकाया मजदूरी, ग्रेज्युटी और दीगर भुगतान देेने का रास्ता साफ कर दिया.

मोहन सरकार का यह फैसला चौंकाने वाला था लेकिन था जनहित का फैसला. मालवा की तासीर ही कुछ अलग किस्म की है और उज्जैन से आने वाले मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की तासीर भी मालवा की तरह ही है. वे स्वयं एक ऐसे परिवार से आते हैैं जिन्होंने मजदूरों का दर्द देखा है सो मुख्यमंत्री की नजर से नहीं बल्कि मनुष्य की नजर से उन्होंने इस मामले को देखा. देखा और समझा तो उन्होंने पहले भी था लेकिन मामला उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं था, सो खामोश रहे लेकिन सत्ता की बागडोर सम्हालते ही किसी और के अप्रोच किए बिना ही स्वयं संज्ञान लेकर मजदूरों की झोली में खुशी का फैसला डाल दिया. मोहन सरकार के इस फैसले से जैसे मालवा और खासतौर पर इंदौर झूूम उठा. इंदौर का मस्तिष्क शान से और गर्व से भर उठा. 

26 साल पहले हुकमचंद मिल बंद हुई थी। इसके बाद से मिल के पांच हजार से ज्यादा मजदूर वेतन, ग्रेच्युटी और अन्य लेनदारियों के लिए भटक रहे हैं। कोर्ट ने मिल की जमीन बेचकर मजदूरों का भुगतान करने का आदेश दिया था। कई बार नीलामी निकालने के बावजूद जमीन नहीं बिकी। हुकमचंद कपड़ा मिल के मामले में मोहन सरकार का यह फैसला दूरदर्शी था. अदालत के आदेश के बाद भी हुकमचंद कपड़ा मिल की जमीन ना बिक पाने पर उन्होंने सरकार के हक में लेकर नगर निगम इंदौर को सौंप दिया. अब इस जमीन पर आवासीय और व्यवसायिक गतिविधियां शुरू हो रही है. मध्यप्रदेश गृह निर्माण मंडल को यह जमीन सौंप कर जिम्मेदारी दी गई है कि आवासीय और व्यवसायिक गतिविधियां शुरू की जाए.  सरकार ने मिल की जमीन का लैंड यूज औद्योगिक से बदलकर वाणिज्यिक और आवासीय कर दिया है। मिल की कुल जमीन में से 10.768 हेक्टेयर जमीन का लैंड यूज वाणिज्यिक और 6.752 हेक्टेयर जमीन का लैंड यूज आवासीय किया गया है। 

 मुख्यमंत्री डॉ. यादव ने निर्देश दिए कि मध्यप्रदेश में जिन अन्य मिलों की देनदारियां शेष हैं, उन मिलों के प्रकरणों का निराकरण भी हुकुमचंद मिल के मॉडल के आधार पर कर मजदूरों को राहत दी जाए. यह एक सत्ताधीश का फैसला नहीं है औ ना ही इसे राजनीतिक चश्मे से देखा जाना चाहिए। यह एक मनुष्य का मनुष्य के लिए लिया गया फैसला है जिसे मानव कल्याण के रूप में देखा और समझा जाना चाहिए. जैसा कि डॉ. मोहन यादव के निर्देश हैं कि अन्य मिलों की देनदारियों को इसे ही मॉडल मानकर निपटारा किया जाए तो यह फैसले मध्यप्रदेश का ऐतिहासिक फैसला माना जाएगा.

एक समय था जब बड़े मजदूर संगठन हुआ करते थे. मजदूरों के हक के लिए वे सडक़ों पर उतर आते थे. कई बार उनकी मांगों को मान लिया जाता था तो कई बार ठुकरा दिया जाता था. धीरे-धीरे श्रमिक संगठन विलुप्त होते गए. मजदूर खुद के हक की लड़ाई खुद ही लड़ते रहे. मई दिवस का ताप समाप्त होता रहा और शायद यही कारण है कि 26 सालों से हुकुमचंद मिल के मजदूरों को उनका हक नहीं मिल पाया था. अभी और भी ऐसे मिल शेष हैं जिनके मामले निपटाया जाना है. अब श्रमिक संगठन कागज पर हैं और वे जमीन पर होते तो शायद हुकुमचंद मिल के श्रमिकों को 26 साल का इंतजार नहीं करना होता. खैर, अब मध्यप्रदेश के मेहनतकशों को श्रमिक संगठनों की जरूरत नहीं पड़ेगी जब सरकार ही उनके हक में फैसला ले रही है. शायद 1956 में मध्यप्रदेश की स्थापना के बाद मेहनतकशों के हक में ऐसा फैसला पहली बार किसी ने लिया है तो इसके लिए मोहन सरकार के हक में जाता है. मध्यप्रदेश अब गर्व से मई दिवस सेलिबे्रट करेगा.

प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दें मां-बाप

डॉ घनश्याम बादल

बच्चों का पालन पोषण आज के ज़माने में कोई आसान नहीं है बल्कि उन्हें बचपन से ही सही दिशा दिखाने एवं उनके करियर संवारने के लिए माता-पिता को सजग रहना पड़ता है । एक ओर जहां उनके स्वास्थ्य एवं खान-पान पर ध्यान देना होता है वहीं उतना ही जरूरी है शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें सही मार्गदर्शन देना एवं उनकी मदद करना । यदि बचपन से ही उन्हें सही शैक्षिक मार्गदर्शन मिल जाए तो इससे उनका आत्मविश्वास ही नहीं बढ़ता है अपितु उनके सीखने की ललक और क्षमता दोनों में ही अभिवृद्धि होती है। ‌

बच्चों को घर पर शैक्षिक गाइडेंस देने के लिए पेरेंट्स को उचित एवं व्यवहारिक रणनीतियाँ अपनानी चाहिएं, जिससे पढ़ाई मज़ेदार और प्रभावी हो सके।

पढ़ाई हो नियमित

बिना पढ़ाई लिखाई के बच्चे का वर्तमान एवं भविष्य दोनों ही चौपट हो सकते हैं इसलिए उनकी शिक्षा दीक्षा पर माता-पिता को समुचित ध्यान देना चाहिए । बच्चों की पढ़ाई का समय एवं सीमा तय करते हुए व्यावहारिक होना बहुत ज़रूरी है। केवल एक आदर्शवादी टाइम टेबल बनाने से बात नहीं बनेगी बल्कि बच्चों की आयु, क्षमता, रुचि एवं एप्टीट्यूड देखकर रणनीति बनानी चाहिए ।

गृह कार्य में करें मदद

बच्चों के गृह कार्य एवं स्वाध्याय के लिए एक नियमित टाइमटेबल बनाएं ताकि पढ़ाई की आदत बने। इसमें खेलने और आराम का भी समय अवश्य शामिल करें ताकि संतुलन बना रहे। यदि आप बच्चे से हर समय पढ़ने की अपेक्षा करेंगे एवं उन्हें हर समय ‘पढ़ लो, पढ़ लो’ कहेंगें बच्चों पर अनावश्यक दबाव पड़ेगा एवं पढ़ाई में उसकी अरुचि भी विकसित हो सकती है। यह भी जरूरी है कि बीच-बीच में वे क्या पढ़ रहे हैं एवं उनकी क्या समस्या है इस पर भी जरूर ध्यान दें। उनके साथ मित्रवत व्यवहार करने की कोशिश करें लेकिन इतना भी नहीं कि वह आपकी बात मानने से ही इन्कार कर दे।

अध्ययन स्थल दें

कहावत है कि अध्ययन एवं चिंतन मनन के लिए एकांत स्थान का होना ज़रूरी है इसलिए बेहतर हो कि घर में एक कोना ऐसा रखें जहाँ बच्चे बिना किसी डिस्टरबेंस के पढ़ सकें। यदि घर में पर्याप्त स्थान है तो उनके लिए एक अलग स्टडी रूम या स्टडी टेबल की व्यवस्था ज़रूर करें ।

सहेजना सिखाएं

बच्चों को इस तरह का प्रशिक्षण भी जरूर दें कि अपनी ज़रूरी स्टेशनरी, किताबें और नोट्स व्यवस्थित रखें। बच्चों को अपना बैग विद्यालय के टाइम टेबल के अनुसार लगाना ज़रूर सिखाएं अन्यथा बच्चा विद्यालय में भी काफी समय पुस्तकें ढूंढने एवं बैग को व्यवस्थित करने में ख़राब कर करेगा।

आसान तरीका

एक आसान सा तरीका यह भी हो सकता है कि गृह कार्य करने के तुरंत बाद ही वह विद्यालय के अगले दिन के टाइम टेबल के अनुसार अपनी पुस्तकें एवं कॉपी तथा अन्य सामग्री बैग में व्यवस्थित कर ले। उसे यह भी प्रशिक्षण अवश्य दें कि विद्यालय में भी एक कालांश की पढ़ाई के बाद बच्चा कॉपी किताबें बैग में सबसे पीछे की ओर लगाता जाए जिससे हर बार आगे से किताबें,कॉपी एवं अन्य सामग्री आसानी से मिल जाएं। यदि यह रणनीति अपनाई जाएगी तो बच्चों को बार-बार बैग भी नहीं लगाना पड़ेगा ।

बैग भी चेक करें

माता-पिता को चाहिए कि समय-समय पर कभी बच्चे से स्वयं अपना बैग चेक कराएं और कभी उसकी अनुपस्थिति में भी उसका बैग ज़रूर चेक करें ताकि उसके बैग में अनावश्यक या अवांछित वस्तुएं या कॉपी किताबें आदि अव्यवस्थित न रहें।

छोटे लक्ष्य बनाएं

बच्चे छोटे होते हैं इसलिए उनके लक्ष्य भी छोटे-छोटे से ही तय करें एक साथ बड़ा या दूरगामी लक्ष्य उन्हें न दें। बड़े – बड़े चैप्टर्स को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटें। रोज़ का एक छोटा लक्ष्य तय करें जिससे बच्चा बोझ महसूस न करे।

बच्चों की रुचि देखें

अब वह ज़माना नहीं रहा जब सब कुछ आप स्कूल पर छोड़ देते थे । विद्यालय एवं शिक्षकों की भूमिका अब काफी सीमित हो गई है अतः बच्चों के अध्ययन में आपको भी सक्रिय होकर लगना पड़ेगा।

चार्ट्स, नोट्स, फ्लैश कार्ड्स, एक्टिविटीज़ और कहानियों से पढ़ाई में रुचि बढ़ाएं। वीडियोज़ और एजुकेशनल गेम्स का भी उपयोग कर सकते हैं । बच्चों की पीपीटी या प्रेजेंटेशन बनाने में तकनीकी मदद उनके उत्साह को दोगुना कर देगी।

खुद शामिल हों

हालांकि आज के व्यस्तता भरे जीवन में बच्चों के अध्ययन में खुद को शामिल करना आसान काम नहीं है लेकिन फिर भी यथासंभव बच्चों के साथ मिलकर पढ़ें या होमवर्क में उनकी मदद करें।उनसे सवाल पूछें और उन्हें सीखने का मौका दें इससे उनका आत्मविश्वास बढ़ता है।

धैर्य बनाए रखें

बच्चों को पढ़ाते वक्त सबसे ज्यादा परीक्षा मां-बाप के धैर्य की होती है यदि बच्चा एक दो बार में समझाने पर नहीं समझ पा रहा है तो अपना टेंपर लूज न करें बल्कि थोड़े समय के लिए बच्चे को फ्री कर दें । उसे खुद करके देखने दें , केवल अपनी ही तकनीकी उस पर न थोपें कई बार आप देखेंगे बच्चा मां बाप से बेहतर अपने आप कर देता है।

सकारात्मक प्रतिक्रिया दें

बच्चा जब कभी उत्साह से भरकर कोई कार्य करता है और आपको दिखाता है तो

उसकी तारीफ़ करें, केवल अच्छे मार्क्स की रट न लगाए रखें । अक्सर देखने में आता है कि बच्चे अंक तो अच्छे ले आते हैं लेकिन व्यावहारिक एवं सामाजिक जीवन में में उतना अच्छा नहीं कर पाते इसलिए अंकों को बच्चों की योग्यता से न जोड़ें तो ही बेहतर होगा। ग़लती पर डाँटने की बजाय सुधारने का तरीका सिखाएँ।

स्कूल के टच में रहें

कम से कम सप्ताह में एक बार यह जानें कि बच्चा क्या सीख रहा है और कहाँ कठिनाई हो रही है। स्कूल टीचर्स के भी संपर्क में रहें। अधिकतर माता-पिता शिक्षक अभिभावक संगोष्ठी में इतनी हड़बड़ी में जाते हैं कि केवल साइन करके वहां से निकलना चाहते हैं और बच्चे के बारे में नकारात्मक सुनना नहीं चाहते इसलिए जब भी आप इन संगोष्ठियों में जाएं तो पर्याप्त समय लेकर जाएं एवं यदि बच्चे के बारे में कुछ नकारात्मक बताया जा रहा है तो उसे भी धैर्य पूर्वक सुनें एवं उसका क्या हल हो सकता है उसके बारे में शिक्षकों का मार्गदर्शन लें । यदि आप शिक्षक से सहमत नहीं है तो प्रशासनिक अधिकारियों से बात करें।

प्रेशर न बनाएं

बेशक पढ़ाई जरूरी है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आप बच्चे पर इतना प्रेशर डाल दें कि वह तनाव ग्रस्त रहने लगे या उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाए । इसलिए ज़्यादा दबाव न डालें, ज़रूरत हो तो ब्रेक दें।तनाव या चिंता के संकेतों को समझें और प्यार से बात करें।

खेल-खेल में पढ़ाएं

शिक्षाविदों एवं मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि बच्चे खेलने एवं क्राफ्ट कार्य बहुत मन से करते हैं। अतः पढ़ाई में खेल व एक्टिविटी की मदद लें, जैसे “गणित की रेस”, सुडोकू , वर्ग पहेली, अंत्याक्षरी, ब्रिक गेम आदि।

सौ टके की एक बात

और अंत में सौ टके की एक बात। बच्चों को हर हाल में प्रोत्साहित करना है । कमियां भी बताएं तो इस तरीके से कि बच्चा हतोत्साहित न हो । यें छोटी-छोटी सी बातें यदि ध्यान में रखेंगे तो आप बच्चों की बहुत बड़ी मदद कर पाएंगे और यह करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यह बच्चा ही तो आपका भविष्य है ।

डॉ घनश्याम बादल

श्रम के महत्व को स्वीकार करने की आवश्यकता है

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बाल श्रम कानून

विश्व श्रम दिवस 1 मई 2025 पर विशेष

-संदीप सृजन

मानव सभ्यता के विकास में श्रम का योगदान अनमोल रहा है। प्राचीन काल से ही मानव ने अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित किया। चाहे वह पाषाण युग में औजारों का निर्माण हो, कृषि क्रांति के दौरान खेती की शुरुआत हो, या औद्योगिक क्रांति के समय मशीनों का विकास , श्रम ने हर युग में सभ्यता को नई दिशा दी। 

भारतीय संस्कृति में श्रम को उच्च स्थान प्राप्त है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कर्मयोग की महत्ता बताते हैं, जहां कर्म (श्रम) को जीवन का आधार माना गया है। “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” का यह संदेश स्पष्ट करता है कि श्रम करना हमारा कर्तव्य है, और इसका महत्व फल की अपेक्षा से कहीं अधिक है। इसी तरह, भारतीय परंपराओं में कारीगरों, शिल्पियों, और मेहनतकश लोगों को हमेशा सम्मान दिया गया है।

श्रम मानव जीवन का आधार है। यह न केवल व्यक्तिगत विकास और आत्मनिर्भरता का स्रोत है, बल्कि समाज के समग्र प्रगति और समृद्धि का भी मूलमंत्र है। श्रम के बिना न तो सभ्यता का विकास संभव है और न ही मानव समाज की उन्नति। फिर भी, आधुनिक समाज में श्रम के महत्व को पूरी तरह से स्वीकार करने में कमी देखी जाती है। कुछ लोग श्रम को केवल शारीरिक मेहनत तक सीमित मानते हैं, जबकि इसका दायरा इससे कहीं अधिक व्यापक है।

श्रम का अर्थ केवल शारीरिक परिश्रम तक सीमित नहीं है। यह मानसिक, बौद्धिक, रचनात्मक और भावनात्मक प्रयासों को भी समेटता है। एक किसान जो खेतों में दिन-रात मेहनत करता है, एक वैज्ञानिक जो प्रयोगशाला में नए आविष्कारों के लिए कार्यरत है, एक शिक्षक जो विद्यार्थियों को ज्ञान प्रदान करता है, या एक माता-पिता जो अपने बच्चों के पालन-पोषण में समय और ऊर्जा लगाते हैं,ये सभी श्रम के विभिन्न रूप हैं। प्रत्येक कार्य, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, समाज के लिए मूल्यवान है।

श्रम का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह मानव को आत्मसम्मान और उद्देश्य प्रदान करता है। जब कोई व्यक्ति अपने प्रयासों से कुछ हासिल करता है, तो उसका आत्मविश्वास बढ़ता है और वह समाज में सकारात्मक योगदान दे पाता है। इसके विपरीत, श्रम के प्रति उदासीनता या अवहेलना न केवल व्यक्तिगत स्तर पर हानिकारक है, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी अवनति का कारण बन सकती है।

आधुनिक समाज में तकनीकी प्रगति और स्वचालन ने श्रम के स्वरूप को बदल दिया है। एक ओर जहां मशीनें और कृत्रिम बुद्धिमत्ता ने मानव श्रम को आसान बनाया है, वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों में यह भ्रांति उत्पन्न हुई है कि श्रम की आवश्यकता कम हो गई है। यह धारणा खतरनाक है, क्योंकि श्रम के बिना कोई भी समाज टिकाऊ ढंग से प्रगति नहीं कर सकता। 

साथ ही, आधुनिक समाज में श्रम को सामाजिक स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। कुछ कार्यों को उच्च और कुछ को निम्न माना जाता है। उदाहरण के लिए, एक कॉर्पोरेट कार्यालय में काम करने वाले व्यक्ति को समाज में अधिक सम्मान मिलता है, जबकि एक सफाई कर्मचारी या निर्माण मजदूर के श्रम को कम महत्व दिया जाता है। यह भेदभाव न केवल सामाजिक असमानता को बढ़ाता है, बल्कि श्रम के प्रति लोगों की मानसिकता को भी प्रभावित करता है।

श्रम को समाज में पूर्ण स्वीकृति मिलना बहुत आवश्यक है।  जब समाज सभी प्रकार के श्रम को समान रूप से महत्व देता है, तो सामाजिक भेदभाव कम होता है। प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह किसी भी पेशे में हो, अपने कार्य के लिए सम्मान प्राप्त करता है। यह सामाजिक एकता को बढ़ावा देता है और समाज में सकारात्मकता का संचार करता है। श्रम ही आर्थिक विकास का आधार है। जब समाज श्रम के महत्व को स्वीकार करता है, तो लोग अधिक मेहनत और लगन से काम करते हैं। इससे उत्पादकता बढ़ती है और अर्थव्यवस्था मजबूत होती है। विशेष रूप से विकासशील देशों में, जहां मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, श्रम की स्वीकृति और प्रोत्साहन आर्थिक प्रगति को गति दे सकते हैं।

आज की युवा पीढ़ी में कई बार मेहनत के प्रति उदासीनता देखी जाती है। यदि समाज श्रम के महत्व को प्रचारित करता है और मेहनतकश लोगों को सम्मान देता है, तो युवा इससे प्रेरित होंगे। वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए मेहनत करने के लिए प्रोत्साहित होंगे। श्रम केवल भौतिक लाभ तक सीमित नहीं है। यह व्यक्ति के नैतिक और आध्यात्मिक विकास में भी योगदान देता है। जब समाज श्रम को महत्व देता है, तो लोग अपने कार्य को कर्तव्य के रूप में देखते हैं, जिससे उनका जीवन अधिक सार्थक और उद्देश्यपूर्ण बनता है।

श्रम के महत्व को समाज में स्थापित करने और इसे पूर्ण स्वीकृति दिलाने के लिए स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों को श्रम के महत्व के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए। उन्हें यह समझाना होगा कि प्रत्येक कार्य, चाहे वह शारीरिक हो या बौद्धिक, समाज के लिए महत्वपूर्ण है। साथ ही, शिक्षा प्रणाली में व्यावसायिक प्रशिक्षण को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि युवा विभिन्न प्रकार के श्रम के लिए तैयार हों। समाज को उन रूढ़ियों को तोड़ना होगा जो कुछ कार्यों को निम्न मानती हैं। इसके लिए मीडिया, साहित्य, और सार्वजनिक मंचों का उपयोग करके सभी प्रकार के श्रम को सम्मान देने का संदेश प्रसारित किया जाना चाहिए। सरकार को श्रमिकों के लिए बेहतर नीतियां बनानी चाहिए, जैसे कि उचित वेतन, सुरक्षित कार्यस्थल, और सामाजिक सुरक्षा। इससे न केवल श्रमिकों का जीवन स्तर सुधरेगा, बल्कि समाज में श्रम के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण भी विकसित होगा।

आज विश्व तेजी से बदल रहा है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, स्वचालन, और तकनीकी प्रगति ने श्रम के स्वरूप को निश्चित रूप से प्रभावित किया है। लेकिन यह समझना महत्वपूर्ण है कि तकनीक श्रम का स्थान नहीं ले सकती; यह केवल श्रम को अधिक प्रभावी और कुशल बना सकती है। भविष्य में, समाज को श्रम के नए रूपों जैसे डेटा विश्लेषण, डिजिटल रचनात्मकता, और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित कार्यों को भी स्वीकार करना होगा। 

श्रम मानव जीवन और समाज का आधार है। यह न केवल आर्थिक और सामाजिक प्रगति का स्रोत है, बल्कि व्यक्तिगत विकास और आत्मसम्मान का भी आधार है। समाज को श्रम के महत्व को पूर्ण रूप से स्वीकार करना होगा, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य के लिए सम्मान प्राप्त कर सके और समाज में सकारात्मक बदलाव आ सके। शिक्षा, नीतिगत सुधार, और सामाजिक जागरूकता के माध्यम से हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं जहां श्रम को उसका उचित स्थान मिले। आइए, हम सभी मिलकर श्रम के प्रति सम्मान और गर्व की भावना को बढ़ावा दें, क्योंकि श्रम ही वह शक्ति है जो समाज को प्रगति के पथ पर ले जाती है। 

संदीप सृजन

गायन से भावों को साकार कर देते थे मन्ना डे

प्रख्यात गायक मन्ना डे के जन्मदिन (1 मईपर विशेष

मोहन मंगलम

सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मन्ना डे केवल गीत ही नहीं गाते थे बल्कि अपने गायन से शब्दों के पीछे छिपे भावों को भी खूबसूरती से सामने ला देते थे। शायद यही कारण है कि प्रख्यात हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति ‘मधुशाला’ को स्वर देने के लिए मन्ना डे का ही चयन किया था।

मन्ना डे का जन्म 1 मई 1919 को कलकत्ता के महामाया व पूरन चन्द्र डे के परिवार में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दु बाबुर पाठशाला से पूरी करने के बाद स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया और फिर विद्यासागर कॉलेज से स्नातक किया। कॉलेज के दिनों वे कुश्ती और मुक्केबाजी की प्रतियोगिताओं में खूब हिस्सा लेते थे। वे फुटबॉल के भी काफी शौकीन थे। 

मन्ना डे के चाचा संगीताचार्य कृष्ण चंद्र डे शास्त्रीय संगीत में पारंगत थे। घर पर संगीत के अनेक महारथी आते रहते थे। रात-रात भर गाना बजाना हुआ करता था। ऐसे में बालक मन्ना का संगीत के प्रति सहज ही आकर्षण बढ़ने लगा था। कृष्ण चन्द्र डे और उस्ताद बादल खान एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे। तभी बादल खान ने मन्ना डे की आवाज सुनी और कृष्ण चन्द्र से पूछा – “यह कौन गा रहा है?” इस पर मन्ना डे को बुलाया गया। उस्ताद के पूछने पर मन्ना ने कहा – “बस ऐसे ही गा लेता हूं।” बादल खान ने मन्ना की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद मन्ना अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे।

पढ़ाई पूरी करने के बाद मन्ना डे अपने चाचा के साथ 1942 में मुंबई आ गए। संगीत की अच्छी समझ होने के कारण उन्होंने फिल्मों में असिस्टेंट म्यूजिक डायरेक्टर के तौर पर काम करना शुरू किया। गायक के तौर पर मन्ना डे को सबसे बड़ा ब्रेक फिल्म ‘तमन्ना’ से मिला। इस फिल्म के गाने को मन्ना डे ने सुरैया के साथ मिलकर गाया। यह गाना बड़ा हिट रहा। इसके बाद तो मन्ना डे की गाड़ी चल पड़ी। 1943 में फिल्म ‘राम राज्य’ रिलीज हुई थी जिसमें मन्ना डे ने बतौर सोलो सिंगर एक गाने को अपनी आवाज दी थी। यह एकमात्र ऐसी फिल्म है, जिसे महात्मा गांधी ने देखा था।

सन् 1961 में संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘काबुलीवाला’ की सफलता के बाद मन्ना डे शोहरत की बुलंदियों पर जा पहुँचे। फिल्म ‘आवारा’ में उनके द्वारा गाया गीत “तेरे बिना चाँद ये चाँदनी!” बेहद लोकप्रिय हुआ। इसके बाद उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में अवसर मिलने लगे। 

गायकी को लेकर मन्ना डे के मन में अपार श्रद्धा थी। उन्हें मुश्किल गीत गाने में महारत हासिल थी। किसी भी निर्माता को अपनी फिल्म में शास्त्रीय गीत गवाना होता था तो वह सिर्फ मन्ना डे को ही साइन करता था। मशहूर गायक मोहम्मद रफी ने एक बार कहा था, “आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं लेकिन अगर मुझसे पूछा जाये तो मैं कहूँगा कि मैं मन्ना डे के गीतों को ही सुनता हूँ।”

मन्ना डे के गाये गीत हर तबके में काफी लोकप्रिय हुए। “लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे?”, “पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी!”, “सुर ना सजे, क्या गाऊँ मैं?”, “जिन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हँसाये कभी ये रुलाये!”,”तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा!” और “आयो कहाँ से घनश्याम?” जैसे गीत ही नहीं, उनके गाये “यक चतुर नार, बड़ी होशियार!”, “यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिन्दगी!”, “प्यार हुआ इकरार हुआ”, “ऐ मेरी जोहरा जबीं!” और “ऐ मेरे प्यारे वतन!” जैसे गीत आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं।

मन्ना डे सन 1969 में फिल्म ‘मेरे हुजूर’ के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक, 1971 में बांग्ला फिल्म ‘निशि पदमा’ और 1970 में प्रदर्शित फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। भारत सरकार ने फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए सन् 1971 में मन्ना डे को ‘पद्मश्री’ और 2005 में ‘पद्मभूषण’ अलंकरण से सम्मानित किया। वहीं, सन 2007 में उन्हें फिल्मों का सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ प्रदान किया गया।

मन्ना डे ने 3000 से अधिक गानों को अपनी आवाज दी। हिन्दी एवं बांग्ला फिल्मी गानों के अलावा उन्होंने अन्य भारतीय भाषाओं में भी गीत रिकॉर्ड करवाये। मन्ना डे ने 90 के दशक में म्यूजिक इंडस्ट्री से पूरी तरह से दूरी बना ली थी। 1991 में आई फिल्म ‘प्रहार’ के गाने ‘हमारी मुट्ठी में’ गाने को उन्होंने अंतिम बार अपनी आवाज दी थी। 

मन्ना डे पार्श्वगायक तो थे ही, उन्होंने बांग्ला भाषा में अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो अन्य भाषाओं में भी छपी। उनकी जीवनी को लेकर अन्य लेखकों ने भी पुस्तकें लिखीं। 24 अक्टूबर 2013 को 94 साल की उम्र में मन्ना डे ने इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन अपने सुमधुर गीतों के माध्यम से वे सदैव अमर रहेंगे। 

मोहन मंगलम

बाल विवाह: बचपन के सपनों पर सामाजिक पहरा 

अमरपाल सिंह वर्मा

भारत में बाल विवाह आज भी एक बड़ी सामाजिक चुनौती बनी हुई है। यह सिर्फ एक परंपरा नहीं बल्कि लैंगिक असमानता, गरीबी, सामाजिक दबाव और असुरक्षा से जुड़ी एक गहरी समस्या भी है। विभिन्न स्तरों पर किए जा रहे प्रयासों के बावजूद देश में बाल विवाहों पर पूर्णतया अंकुश नहीं लग सका है। अक्षय तृतीया जैसे अबूझ सावे पर राजस्थान समेत देश के विभिन्न राज्यों में हजारों बच्चों को विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है, इनमें दुधमुंहे बच्चे भी होते हैं।


संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के अनुसार भारत में हर साल लगभग 15 लाख लड़कियों की 18 वर्ष से कम उम्र में शादी हो जाती है। इससे भारत दुनिया में सबसे अधिक बाल वधुओं वाला देश बन गया है, जहां वैश्विक संख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा है।


बाल विवाह बच्चों के बुनियादी अधिकारों का गंभीर उल्लंघन है। छोटी उम्र में विवाह के कारण बच्चों का बचपन असमय समाप्त  हो जाता है और वह शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के अवसरों से वंचित हो जाते हैं। विवाह के बाद कम उम्र में ही लड़कियों पर पारिवारिक जिम्मेदारियां आ जाती हैं। स्कूल छोडऩे की मजबूरी, आर्थिक आत्म निर्भरता से वंचित होना, घरेलू हिंसा और यौन शोषण का बढ़ा हुआ खतरा उनकी जिंदगी का हिस्सा बन जाता है। बाल विवाह के बाद नाबालिग लड़कियों के गर्भधारण की संभावना भी बढ़ जाती है, जिससे प्रसव संबंधी जटिलताएं और मातृ मृत्यु दर में वृद्धि जैसी समस्याएं पैदा होती हैं।


यह चिंता का विषय है कि बालिकाओं में कम उम्र में गर्भावस्था उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर डालती है। किशोरावस्था में शरीर पूरी तरह विकसित नहीं होता, जिससे गर्भावस्था और प्रसव के दौरान जटिलताएं बढ़ जाती हैं। प्रसव के दौरान रक्तस्राव, उच्च रक्तचाप, गर्भावस्था से संबंधित संक्रमण और शिशु मृत्यु जैसी घटनाएं सामने आती हैं।

  
बाल विवाह केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक स्तर पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। कम उम्र में विवाह के चलते लड़कियां शिक्षा अधूरी छोड़ देने पर मजबूर हो जाती हैं जिससे उनकी आर्थिक स्वतंत्रता सीमित रह जाती है। इससे पूरे समुदाय की सामाजिक और आर्थिक विकास प्रक्रिया प्रभावित होती है। इससे गरीबी, अशिक्षा और लैंगिक भेदभाव का दुष्चक्र बना रहता है। समाज की प्रगति में आधी आबादी की सहभागिता बाधित होने का परिणाम देश की समग्र विकास गति की धीमी पडऩे के रूप में सामने आता है।


भारत में बाल विवाह निषेध के लिए कई कानूनी प्रावधान हैं। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 इसके विरुद्ध कानूनी आधार प्रदान करता है। सुप्रीम कोर्ट ने 18 अक्टूबर 2024 को महत्वपूर्ण निर्देश जारी किए हैं जिसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को जिला स्तर पर बाल विवाह निषेध अधिकारियों की नियुक्ति का आदेश दिया गया है। अदालत ने जिला कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को भी अपने जिलों में बाल विवाह रोकने के लिए सक्रिय भूमिका निभाने का निर्देश दिया है लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इन निर्देशों की पूर्णतया पालना हो पा रही है?


हमारे देश में बाल विवाहों पर पूर्णतया अंकुश की बात अभी तक एक सपना ही है मगर सकारात्मक पक्ष यह है कि देश में बाल विवाह की दर में धीरे-धीरे गिरावट आ रही है। सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों, माताओं की साक्षरता दर बढऩे, लड़कियों के लिए शिक्षा के अवसरों में वृद्धि, शहरीकरण और बाल विवाह के खतरों के बारे मेंं जन जागरूकता बढऩे का इसमें बड़ा योगदान है। सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी पहल ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
लड़कियों की शिक्षा सुनिश्चित करना सबसे प्रभावी तरीका है। अगर लड़कियां शिक्षित होंगी तो वह बाल विवाह से बचने और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने में सक्षम होंगी। अनेक शिक्षित लड़कियों ने  छोटी उम्र में अपने विवाह का प्रतिरोध करके इसे साबित भी किया है। सरकार को उन लड़कियों को सम्मानित करना चाहिए जिन्होंने शिक्षा और आत्म निर्भरता के रास्ते को चुना और बाल विवाह से बच गईं। इससे अन्य बालिकाओं को  प्रेरणा मिलेगी।


विभिन्न समुदायों में बाल विवाह के दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता फैलानी होगी। इसमें धार्मिक नेताओं, पंचायत प्रतिनिधियों और सामाजिक संगठनों को इसमें सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। गरीब परिवारों को आर्थिक सहायता देना और बालिकाओं के लिए अधिकाधिक छात्रवृत्तियां उपलब्ध कराना बाल विवाह रोकने में मददगार हो सकता है। बाल विवाह की सूचना मिलने पर त्वरित कार्रवाई भी बाल विवाह के चलन को हतोत्साहित कर सकती है।


बाल विवाह ऐसा सामाजिक मुद्दा है, जिसे सरकार या प्रशासन पर नहीं छोड़ा जा सकता है। इसके लिए समाज को महत्वपूर्ण  भूमिका निभानी होगी। बाल विवाहों का चलन सामाजिक कारणों से ही बढ़ा है और समाज की पहल से ही इसे खत्म किया जा सकता है। बाल विवाह की रोकथाम के लिए केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है, इसके लिए बहुआयामी प्रयास करने होंगे। परंपरा के नाम पर बच्चों का विवाह उनके साथ अन्याय ही है, जिसे हर हाल में रोका जाना चाहिए।


अमरपाल सिंह वर्मा

भारत ने पाकिस्तान पर की वाटर एवं डिजिटल “स्ट्राइक”

प्रदीप कुमार वर्मा

जम्मू-कश्मीर के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पहलगाम की बैसारन घाटी में एक सप्ताह पूर्व इस्लामिक जेहादियों द्वारा इंसानियत के विरुद्ध कायराना हरकत को अंजाम देते हुए दो दर्जन से अधिक पर्यटकों की मौत के मामले में भारत ने कड़ा रुख अख्तियार किया है। पाकिस्तान से आए चार आतंकियों द्वारा की गई अंधाधुंध फायरिंग में उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, नेपाल,यूएई नेपाल और उड़ीसा के पर्यटक मौत का शिकार बने थे। इस कायराना आतंकी हमले के बाद पूरे देश में खासा आक्रोश है और देश का आवाम अब पाकिस्तान के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई की मांग कर रहा है। उधर,देश के आवाम की भावनाओं की कद्र करते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने भी पाकिस्तान के विरुद्ध कड़े कदम उठाते हुए आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब देने का ऐलान किया है। इस कार्रवाई में पाकिस्तान के चैनलों को बेन करने के साथ-साथ सिंधु जल समझौते को इस स्थगित करने जैसे कदम शामिल है। पीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारत ने इस बार आतंकियों के विरुद्ध संभावित सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक करने से पूर्व वाटर और डिजिटल “स्ट्राइक” की है।

          आतंकी हमले से गुस्साए भारत में सबसे पहले पाकिस्तान के विरुद्ध निर्णायक कार्रवाई के तहत वर्ष 1960 में हुए “सिंधु जल समझौते” को फिलहाल रोक दिया गया है। वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता के साथ वर्ष 1960 में  भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के जल पर समझौता हुआ था। इस समझौते पर पाकिस्तान की करीब 80 प्रतिशत खेती निर्भर है। भारत के हालिया फैसले पर वर्ल्ड बैंक भी स्पष्ट कर चुका है कि उसकी मध्यस्थता के दौरान कुछ समय के लिए संस्थान सिग्नेटरी रहा है। लेकिन अब ये दो मुल्कों के बीच का मामला है। भारत ने भी पाकिस्तान को भेजे अपने पत्र में साफ किया है कि वर्तमान हालात में सिंधु जल समझौते को आगे बढ़ाया जाना संभव नहीं है। जिसके चलते गर्मी के इस मौसम के साथ-साथ आने वाले दिनों में पाकिस्तान को उसकी जरूरत के हिसाब से पानी मिलने में संभावित संकट सामने आना तय है। पानी की किल्लत से पाकिस्तान में खेती-किसानी प्रभावित होगी तथा लोगों को पीने के लिए भी उनकी जरूरत का पानी नहीं मिल सकेगा। 

               रणनीति एवं सैन्य मामलों के जानकार भारत के इस कदम को आतंकी हमले के बाद  पाकिस्तान के विरुद्ध “वाटर स्ट्राइक” करार दे रहे हैं। जानकारों का यह भी कहना है कि सर्जिकल और एवं सर्जिकल स्ट्राइक की तुलना में भारत द्वारा की गई वाटर स्ट्राइक के दूरगामी में परिणाम होंगे। सिंधु जल समझौते के निरस्तीकरण के बाद पाकिस्तान में उत्पन्न होने वाले जल संकट से उसकी समस्या अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक गतिविधियां भी बुरी तरह प्रभावित होगी। इसके साथ ही भारत में पाकिस्तान के विरुद्ध “डिजिटल स्ट्राइक” भी कर दी है। पहलगाम में आतंकी हमले के बाद में विदेशी मीडिया द्वारा गलत रिपोर्टिंग करने के मामले में भारत ने पाकिस्तान के करीब डेढ़ दर्जन न्यूज़ एवं यूट्यूब चैनलों को बैन किया है। इनमें जिओ न्यूज़, डॉन न्यूज़ ए आरआई न्यूज, बोल न्यूज़, सुनो न्यूज़, जीएनएन टीवी,समा टीवी एवं समा स्पोर्ट्स शामिल है। इसके साथ ही आरजू कासमी तथा शोएब अख्तर के यूट्यूब चैनलों को भी भारत में बैन किया गया है।

          यह सभी पाकिस्तानी चैनल अपने कंटेंट में भड़काऊ तथा सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील सामग्री दिखा रहे थे तथा भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार कर रहे थे। इसके साथ ही इन चैनलों द्वारा भारतीय सेवा और सुरक्षा एजेंसियों को निशाना बनाते हुए भ्रामक नैरेटिव भी सेट किया जा रहा है। भारत के विदेश मंत्रालय ने बीबीसी को भी पत्र लिखकर पहलगाम आतंकी हमले के दौरान की गई रिपोर्टिंग पर सख्त एतराज जताया है।  इस संबंध में सरकार की ओर से भारत में बीबीसी के प्रमुख जैकी मार्टिन को पत्र भी लिखा गया है। पत्र में आतंकियों को चरमपंथी बताने पर गंभीर आपत्ति जताई गई है। यही नहीं, मंत्रालय ने बीबीसी की रिपोर्टिंग पर नजर रखने के लिए भी कहा है।  भारत के गृह मंत्रालय की सिफारिश पर की गई इस कार्रवाई को इंटरनेशनल स्तर पर पाकिस्तान के विरुद्ध भारत की “डिजिटल स्ट्राइक” माना जा रहा है।

               भारत द्वारा की गई डिजिटल स्ट्राइक के तहत भारत विरोधी गतिविधियों और दुष्प्रचार पर नजर रखने के लिए गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों की एक विशेष टीम बनाई गई है। यह टीम भारतीय और विदेशी डिजिटल मीडिया पर पहलगाम आतंकी हमले से जुड़ी सामग्री और ऑनलाइन गतिविधियों की जांच करेगी। इसके साथ ही टीम ऐसे लोगों की भी पहचान करेगी जो, भारत सरकार और सेना की नकारात्मक छवि पेश करने के लिए मनगढ़ंत और झूठे प्रचार में जुटी हुई है। सैन्य एवं कूटनीति के जानकारों का कहना है कि पहलगाम की वैसारन घाटी में हुआ यह हमला वर्ष 2019 में पुलवामा अटैक के बाद दूसरा सबसे बड़ा आतंकी हमला है। तब 14 फरवरी 2019 को आतंकवादी संगठन जैसे मोहम्मद के आत्मघाती हमलावर ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की गाड़ी को अपने निशाना बनाया था।  जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हुए थे। 

          इससे पूर्व 18 सितंबर  वर्ष 2016 उरी में आतंकी हमला हुआ था। जैश-ए-मोहमद द्वारा सेना की बिग्रेड पर किए गए इस हमले में 19 सैनिक शहीद हुए थे। बताते चलें कि इससे दो साल पूर्व रियासी में शिवखोड़ी से दर्शन करके लौट रहे श्रद्धालुयों की बस पर आतंकियों ने अंधाधुंध फायरिंग की थी। जिसमें कुल नो हिंदू दर्शनार्थियों की मौत हो गई थी। भारत में जहां पहले सिंधु जल समझौते को निरस्त करके तथा पाकिस्तान के चैनलों को बेन करके भारत के विरुद्ध वाटर एवं डिजिटल स्ट्राइक करके पाक के दुष्प्रचार को रोक दिया है। भारत का यह कदम सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक से पूर्व उठाया गया महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। रक्षा एवं सैन्य मामलों की जानकारों का कहना है की बहुत जल्दी ही भारत पाकिस्तान के विरुद्ध सर्जिकल अथवा एयर स्ट्राइक करेगा, जो पड़ोसी पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकवाद के विरुद्ध भारत का निर्णायक कदम होगा।

प्रदीप कुमार वर्मा

क्या कनाडा में भारतीय समुदाय ने खालिस्तानियों से मुंह फेर लिया है!

रामस्वरूप रावतसरे

कनाडा के संघीय चुनाव में एक बार फिर से जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी ने जीत हासिल कर ली है। मार्क कार्नी, जिन्होंने जस्टिन ट्रूडो के इस्तीफे के बाद कनाडा के शासन को संभाला था, वो लिबरल्स की जीत के बाद फिर से देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। हालांकि जस्टिन ट्रूडो के कार्यकाल में लिबरल पार्टी ने जनता का विश्वास खो दिया था लेकिन ट्रूडो के इस्तीफे और विपक्षी नेता पियरे पोइलिवर के बेहद खराब कैंपेन की वजह से मार्क कार्नी ने एक हारे हुए मैच को जीत में तब्दील कर दिया। लिबरल पार्टी ने डोनाल्ड ट्रंप के कनाडा विरोधी बयानबाजी को देश की संप्रभुता, अखंडता और राष्ट्रवाद से जोड़ दिया था, जिसका उन्हें जबरदस्त फायदा मिला। लिहाजा सवाल उठने लगे हैं कि जबकि कनाडा में एक बार फिर से लिबरल पार्टी की सरकार बनी है, क्या भारत के साथ संबंध सुधर पाएंगे?

    मार्क कार्नी ने पिछले दिनों भारत के साथ तनावपूर्ण संबंधों पर कहा था कि ’’मैं संकट के समय सबसे उपयोगी होता हूं।’’ उनके इस बयान को इस तरह से देखा गया है कि उनकी जीत नई दिल्ली और ओटावा के बीच द्विपक्षीय संबंधों में संभावित सुधार ला सकती है जो पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के कार्यकाल में काफी हद तक खराब हो गए थे। अपने चुनावी कैम्पेन के दौरान मार्क कार्नी ने कई मंदिरों का दौरा किया था और भारतीय समुदाय से जुड़ने की इच्छा जताई थी।

मार्क कार्नी ने इलेक्शन कैम्पेन के दौरान कहा था कि ’’कनाडा जो करने की कोशिश कर रहा है, वह समान विचारधारा वाले देशों के साथ हमारे व्यापारिक संबंधों में विविधता लाना है और भारत के साथ संबंधों को फिर से बनाने के अवसर हैं। उस वाणिज्यिक संबंध के इर्द-गिर्द मूल्यों की साझा भावना होनी चाहिए और अगर मैं प्रधानमंत्री होता तो मैं इसे बनाने के अवसर की तरह देखता।’’ मार्क कार्नी ने चुनाव अभियान के दौरान भारत को एक महत्वपूर्ण देश बताया था। इसके अलावा उन्होंने संकेत दिया था कि उनकी मंशा भारत के साथ संबंधों को सुधारने की है, खासकर कारोबारी संबंध को, क्योंकि कनाडा डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ युद्ध का नुकसान उठा रहा है। इसके अलावा मार्क कार्नी ने चुनावी कैम्पेन में अमेरिका के ऊपर से अपनी निर्भरता कम करने की बात कही थी, ऐसे में कनाडा के पास एक बड़े बाजार के तौर पर भारत ही बचता है, क्योंकि चीन के साथ उसके पहले से ही खराब संबंध हैं।

मार्क कार्नी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत और कनाडा के बीच सीईपीए पर फिर से बातचीत शुरू होने की संभावना बढ़ी है। ये एक ट्रेड डील है, जिसे ट्रूडो ने भारत से विवाद के बाद रोक दिया था। जून 2023 में ब्रिटिश कोलंबिया के सरे में एक गुरुद्वारे के बाहर कनाडा के नागरिक और खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद भारत और कनाडा के संबंध बिगड़ने लगे थे। जस्टिन ट्रूडो ने हत्या का आरोप भारतीय एजेंट्स पर लगाए थे जिसके बाद भारत-कनाडा संबंध 2023 में अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए थे। नई दिल्ली ने लंबे समय से ओटावा पर कनाडा के सिख प्रवासियों में चरमपंथ को बढ़ावा देने का आरोप लगाया था। जस्टिन ट्रूडो की सरकार में खालिस्तानी चरमपंथियों का वर्चस्व था।

   इसके अलावा जगमीत सिंह, जो खालिस्तान समर्थक हैं, उनकी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के समर्थन से जस्टिन ट्रूडो सरकार चला रहे थे, लिहाजा जगमीत सिंह को भारत कनाडा संबंधों के खराब होने की सबसे बड़ी वजह माना गया लेकिन इस बार जगमीत सिंह बुरी तरह से चुनाव हार गया है। वो तीसरे स्थान पर रहा है, जो खालिस्तानियों के लिए बहुत बड़ा झटका है। चुनाव कैम्पेन के दौरान भारतीय मूल के कनाडाई नागरिक आदित्य झा, जो एक कारोबारी हैं और जिन्हें कनाडा का सर्वाच्च सम्मान ऑर्डर ऑफ कनाडा मिल चुका है, उन्होंने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि ’’कनाडा के भारतीय समुदाय ने इस बार ऐसे तत्वों (खालिस्तानी) को हराने के लिए मतदान करने की योजना बनाई है और 30 से 35 सीटों को टारगेट किया गया है।’’ उन्होंने कहा था कि, ’’हिंदू समुदाय लिबरल पार्टी को नहीं बल्कि खालिस्तानियों को हराकर पार्टी के ऊपर से खालिस्तानियों के प्रभाव को खत्म करना चाहती है।’’

जगमीत सिंह का चुनाव हारना और उसकी न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को काफी कम वोट मिलने का मतलब है कि भारतीय समुदाय अपने मकसद में कामयाब रहा है। न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को 2025 के संघीय चुनाव में सिर्फ 7 सीटें मिली हैं जबकि पिछले इलेक्शन (2021) में उसे 24 सीटें मिली थीं। कनाडा में रहने वाले भारतीय समुदाय के कुछ लोगों का कहना है कि भारत विरोधी स्टैंड की वजह से भारतीय समुदाय, खासकर पंजाब के भारत समर्थक सिखों ने न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट नहीं दिया है। न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी का पूरा वोट बैंक तहस नहस हो गया है यानि संसद में उसका प्रभाव अब काफी कम हो गया है, लिहाजा नई सरकार के ऊपर खालिस्तानियों का प्रेशर नहीं रहेगा। जानकारों की माने तो कनाडा और भारत में मध्य फिर से सौहार्दपूर्ण संबंध बनेगें जिसका लाभ दोंनों देशों को होगा।

रामस्वरूप रावतसरे