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    राहुल के निशाने पर सरकार या विपक्ष?

    अनिल धर्मदेश

    2024 के आम चुनाव से पहले खुद इंडिया ब्लॉक ने राहुल गांधी को गठबंधन का नेता मानने से इनकार कर दिया था। ममता और केजरीवाल का विरोध देख कांग्रेस बैकफुट पर थी। ऐन चुनाव के वक्त किसी फजीहत से बचने के लिए पार्टी ने किसी प्रकार मल्लिकार्जुन खड़गे को गठबंधन का अध्यक्ष बनवा लिया था। राहुल चाहे विपक्ष से पीएम कैंडिडेट नहीं बन सके पर खड़गे के अध्यक्ष चुने जाने से कांग्रेस की बड़े भाई वाली भूमिका किसी प्रकार सुनिश्चित हो सकी और यहीं से शुरू हुई राहुल को देश का नेता नंबर दो यानी विपक्ष का नेता नंबर एक बनाने की कवायद। 

    आज कांग्रेस के थिंकटैंक की दृष्टि स्पष्ट है कि केंद्र से लेकर राज्यों तक मोदी का अगर कोई प्रतिद्वंद्वी हो तो वह सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी हों। 2024 के आम चुनाव और उसके बाद पांच राज्यों के चुनावों के नतीजों पर कांग्रेस के आंतरिक मंथन से यही निकलकर आया कि राज्यों में पार्टी की पकड़ बहुत कमजोर हो चुकी है, विशेषकर उन राज्यों में, जहाँ कोई तीसरा दल मजबूत है। यूपी, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली, पंजाब और बंगाल तक कांग्रेस पार्टी को भाजपा से अधिक नुकसान स्थानीय दल पहुंचा रहे हैं। कमजोर संगठन और बड़े चेहरे के अभाव के कारण चुनावों में क्षेत्रीय दलों के साथ आपसी खींचतान के बावजूद कांग्रेस को बहुत कम सीटें दी जाती हैं। इतनी कम कि वह राज्य में उसके गठबंधन की सरकार बन जाने पर भी पार्टी किसी परजीवी से अधिक नहीं दिखाई पड़ती। खस्ताहाल संगठन के भरोसे अकेले चुनाव लड़ना फिलवक्त कांग्रेस के बस का काम नहीं है। कांग्रेस के लिए गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य ज्यादा अच्छे हैं, जहाँ बुरी तरह चुनाव हार जाने पर भी वह भाजपा का अकेला विकल्प बनी रहती है।

    तीसरी शक्ति की उपस्थिति वाले राज्यों में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व स्थापित करने के लिए ही पिछले दो-तीन वर्षों से लगातार राहुल गांधी कोई न कोई नया मुद्दा उठाकर राष्ट्रीय चर्चाओं के केंद्र में हैं फिर चाहे वह चीन द्वारा भारत की जमीन हड़पने का आरोप हो या अमेरिका में ही प्रतिबंधित कर दी गयी वित्तीय सलाहकार कंपनी हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान और बाद में सरकार और सेना पर उंगली उठाना हो या अब वोट चोरी का मुद्दा। राहुल के ये हमले प्रथम दृष्टया तो केंद्र सरकार पर हैं मगर इनके गर्भ में भाजपा विरोधी विचारधारा के मध्य उनकी राष्ट्रीय लोकप्रियता को शीर्ष तक पहुंचाना ही असल मकसद है। संक्षेप में कहें तो निशाने पर कोई और दिख रहा है जबकि निशाना है कहीं और ही।

    राहुल गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर मोदी से मोर्चा लेने में सक्षम दिखाने के प्रयास 2018 से ही प्रारंभ हो चुके थे। संसद में कठोर बयानबाजी के शुरुआती प्रयास को सरकार ने अपनी साख-रक्षा में चौतरफा हमले से कमजोर कर दिया। उल्टा सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगकर पार्टी की किरकिरी ही हो गयी। इसके बाद पैदल यात्राओं का प्रयोग हुआ पर इसमें अत्यधिक समय और श्रम खर्चने के बाद भी अल्पसंख्यक समाज के बीच राहुल की वह छाप स्थापित नहीं हो सकी जिसकी अपेक्षा की जा रही थी। ऐसे में आगामी बिहार चुनावों से पहले कांग्रेस मीडिया की सुर्खियों के माध्यम से विपक्षी वोटों के खेमे में राहुल की लोकप्रियता को इस हद तक गहरा करना चाह रही है कि कांग्रेस अपने दम पर 30-35% तक वोट प्राप्त कर सके। कम से कम 25 फीसद तो हो ही। प्रयास यह है कि कांग्रेस का पुराना वोटर यानी मुस्लिम समुदाय राज्यों के चुनाव में भी पार्टी के साथ आए। कुछ दशकों से विधानसभा चुनावों में यह वोटर क्षेत्रीय दलों के साथ चला जाता है। यही कारण है कि क्षेत्रीय दल राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा तरजीह नहीं देते। 

    यह विपक्षी वोटबैंक में सेंध लगाने की कांग्रेस पार्टी की महत्वाकांक्षा ही है जिसके कारण सभी गैर एनडीए दल मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए लगातार गैर लोकतांत्रिक प्रयोग कर रहे हैं। जानकारों का मानना है कि 2024 चुनावों के बाद इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन भी पसोपेश में है। केंद्र में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन के बाद राज्यों के चुनाव में किसे समर्थन दिया जाए, इसे लेकर निश्चत रूप से असमंजस है जबकि दिल्ली चुनावों में कांग्रेस ने आआपा की हार सुनिश्चित कराकर विपक्षी वोटबैंक लॉबी को अपनी ताकत का अहसास भी करा ही दिया है। यही कारण है कि बिहार में आरजेडी हो या यूपी में सपा, दोनों ही पार्टियाँ कांग्रेस के निर्णय को लेकर सतर्क भी हैं और राहुल गांधी के साथ सहयोगी भी। लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के कार्यक्रम निरस्त करने वाले विपक्षी दल आज कांग्रेस पार्टी के कैम्पेन में खुद सहयोगी बनकर खड़े हैं। मतलब कांग्रेस की रणनीति के पासे इस वक्त बिल्कुल सही पड़ रहे हैं।

    राहुल गांधी की सरकार विरोधी छवि आखिरी आदमी तक स्थापित हो जाने के बाद राज्यों में सीट बंटवारे के वक्त पार्टी को बैकफुट पर नहीं रहेना पड़ेगा। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण यह है कि 2029 के लोकसभा चुनाव में मोदी के समक्ष विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा होने के नाते राहुल गांधी को चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार प्रोजेक्ट कराने का रास्ता भी खुल जाएगा। कांग्रेस की आक्रामकता बता रही है कि 2029 के लोकसभा चुनाव में समूचा विपक्ष साथ दे या न दे, पार्टी राहुल गांधी को निश्चित रूप से चुनाव पूर्व ही बतौर पीएम कैंडिडेट प्रस्तुत करेगी।

     भाजपा के रणनीतिकार कांग्रेस की समूची मुहिम पर करीब से नजर बनाए हुए हैं हालांकि उन्हें विपक्षी वोटबैंक में राहुल की प्रसिद्धि बढ़ने से अधिक परेशानी नहीं है क्योंकि सीधे चुनाव में भाजपा अधिकतर कांग्रेस पर भारी पड़ती आयी है। यही कारण है कि राहुल गांधी के सनसनीखेज आरोपों के बावजूद पार्टी और सरकार का रुख अपेक्षाकृत लचीला है। भाजपा भी कई मौकों पर दो दलीय या राष्ट्रीय दलों वाले लोकतंत्र की पक्षधर रही है।

    अनिल धर्मदेश

    जब डॉनल्ड ट्रंप की नीतियां भारत के ख़िलाफ़ हैं तो फिर मोदी की नीतियां अमेरिकी हितों पर चोट क्यों न दें?

    कमलेश पांडेय

    जब भारत के गांवों में किसी से विवाद बढ़ने पर और घात-प्रतिघात की परिस्थितियों के पैदा होने पर पारस्परिक हुक्का-पानी या उठक-बैठक, खान-पान बन्द करने के रिवाज सदियों से चलते आए हैं तो फिर वैश्विक दुनियादारी में हम लोग इसे लागू क्यों नहीं कर सकते ताकि हमारे मुकाबिल खड़े होने वाले देशों को ठोस नसीहत मिल सके। वहीं, अक्सर यह भी कहा जाता है कि जो ज्यादा तेज बनता है, वह तीन जगहों पर बदबू फैलाता है जबकि चतुर व्यक्ति की कोशिश रहती है कि वह तीनों जगहों पर अपनी गमक व महक छोड़े। अव्वल दर्जे पर रूस, अमेरिका और चीन के साथ भारतीय सम्बन्धों पर फ्रांस, इजरायल, जापान जैसे दूसरे दर्जे के महत्वपूर्ण देशों के साथ भारतीय सम्बन्धों पर, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया जैसे तीसरे महत्वपूर्ण देशों के साथ भारत के सम्बन्धों पर भी यही बात लागू होती है।

    यूँ तो पड़ोसी देशों से जुड़ी हमारी नीतियों में, मुस्लिम बहुल अरब देशों से जुड़ी हमारी नीतियों में, आशियान देशों से जुड़ी हमारी नीतियों में, जी-सेवन, ब्रिक्स, जी-20, एससीओ, नाटो, मध्य एशिया, यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया से जुड़ी लुक ईस्ट की नीतियों या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े भारतीय नीतियों के दृष्टिगत हमारी गुटनिरपेक्ष सोच सदैव सराहनीय रही है लेकिन जब हम अपने वैश्विक संरक्षक रूस के साथ, दुःख के दोस्त/मददगार इजरायल के साथ खुलेआम खड़े होने से हिचकते हैं तो कहीं न कहीं अशांति को प्रश्रय देते हैं और भारत के साथ मित्रता का छल रचने वाला अमेरिका यही तो चाहता है।

    अमेरिका, यूरोप को साथ लेकर जब भी रूस को दबाना चाहे तो हमें खुलेआम रूस के साथ खड़ा होना चाहिए ताकि अमेरिका संभल जाए। इसी प्रकार जब इजरायल को अरब देश दबाना चाहें तो हमें इजरायल को संरक्षण देना चाहिए ताकि अरब देश सुधर जाएं। इसी प्रकार जब चीन भारत के पड़ोसियों में दिलचस्पी ले, आशियान देशों, अरब देशों, यूरोपीय देशों, अफ्रीकी देशों में अपनी पैठ बढ़ाए तो जापान, रूस, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील को साधकर संतुलित प्रतिरक्षात्मक नीति अपनाएं क्योंकि अमेरिका और चीन हमारे साथ शत्रुतापूर्ण चालें हमेशा चलते रहेंगे। पाकिस्तान परस्त तुर्की, अमेरिका परस्त सऊदी अरब आदि कभी हमारे स्वाभाविक मित्र नहीं हो सकते। इसलिए वैश्विक कूटनीति में रूस, इजराइल, जापान, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के कूटनीतिक व प्रतिरक्षात्मक महत्व हैं जिसके दृष्टिगत ही हमें कोई भावी कदम बढ़ाने चाहिए।

    इसके लिए हमें पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे इस्लामिक दुश्मनों के दिनदहाड़े सफाए की योजना हमें बनानी पड़ेगी। अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव, कम्बोडिया, थाईलैंड आदि पड़ोसी देशों को दुनियावी लाभ देकर पटाये रखना चाहिए और इन्हें भारतीय परिसंघ में शामिल करने योग्य कूटनीति अपनानी चाहिए। जिस तरह से रूस (यूएसएसआर) विरोधी नाटो की तर्ज पर इजरायल विरोधी इस्लामिक नाटो बना है, उसके दृष्टिगत हिन्दू और बौद्ध बहुल देशों को एकजुट करके भारतीय परिसंघ बनाना होगा ताकि जब अमेरिका या चीनी इशारे पर भारत के खिलाफ इस्लामिक देश एकजुटता दिखाएं तो दक्षिण-पूर्व एशियाई बौद्ध देश भारत की मदद करें। इसी नजरिए से चीन से भी चतुराई पूर्वक सम्बन्ध बनाए रखना भारत के हित में होगा। वहीं, इजरायल को सहयोग देकर इनके मन में भय बनाए रखना होगा कि भारत अकेला नहीं है। हमारी विशाल आबादी और रूसी-इजरायल तकनीकी सहयोग दुनिया के किसी भी हिंसक गठबंधन पर भारी पड़ेंगे।

    कहना न होगा कि एक ओर जहां चीन-भारत से निपटने के लिए अमेरिका ईसाई, यहूदी और इस्लाम को एकजुटता प्रदान करने वाले अब्राहम परिवार को बढ़ावा दे रहा है, वहीं, पाकिस्तान के सहयोग से इस्लामिक देशों को एकजुट करके भारत को भयभीत रखना चाहता है। चूंकि पाकिस्तान पर चीन का हाथ है, अमेरिका विरोधी ईरान से चीनी सांठगांठ है, इसलिए भारत को अतिशय सावधान रहने की जरूरत है। जिस तरह से अमेरिका ने रूसी तेल खरीददारी के दृष्टिगत भारत पर अप्रत्याशित तरीके से टैरिफ बढ़ाकर मित्रघाती होने का परिचय दिया, उसी तरह से अब ईरान के भारतीय हित वाले चाबहार बंदरगाह को प्रतिबंधों से दी गई छूट वापस ले ली है। भले ही ऐसा करके ट्रंप प्रशासन ईरान पर दबाव बनाना चाहता है लेकिन इससे भारत को भी बड़ा झटका लगेगा। देखा जाए तो 50 प्रतिशत टैरिफ थोपने के बाद अमेरिका का यह एक और भारत विरोधी कदम है जिससे चीन को परोक्ष मदद मिलेगी और भारतीय हितों को चोट पहुंचेगी।

    देखा जाए तो अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दूसरी बार सत्ता संभालने के साथ ही चाबहार को मिली छूट खत्म करने के एग्जिक्यूटिव ऑर्डर पर साइन कर दिए थे पर अब आगामी 29 सितंबर से इसे लागू करने का आदेश जारी हुआ है। इसके बाद अगर कोई कंपनी या संस्था चाबहार के संचालन में शामिल होती है तो उस पर भी अमेरिकी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। यह भारतीयों के दूरगामी हितों के खिलाफ दूसरी महत्वपूर्ण कार्रवाई है। उसमें भी खास बात यह कि भारत इस बंदरगाह (पोर्ट) पर अरबों रुपये का निवेश कर चुका है और यहां एक टर्मिनल भी बना रहा है लेकिन अब अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से उसके लिए यहां काम करना मुश्किल हो सकता है। इससे भारत का निवेश भी डूब सकता है।

    सच कहूं तो ईरान के चाबहार पोर्ट का मामला भी बहुत कुछ रूसी तेल जैसा है। जब यूक्रेन युद्ध रोकने के लिए रूस पर अमेरिका दबाव नहीं बना पाया तो उसने तेल के व्यापार पर भारत और चीन पर दोष डालना शुरू कर दिया। यही कहानी ईरान के साथ है। पिछले दिनों इस्राइल-ईरान टकराव और उसमें अमेरिकी दखल के बावजूद तेहरान झुकने को तैयार नहीं हुआ था तो अब मैक्सिमम प्रेशर की बात कही जा रही है। चाबहार पर बैन उसी अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है। यह भी रूस जैसा मामला ही है और ईरान के साथ रूस और भारत दोनों के सम्बन्ध बेहतर हैं। इसलिए अमेरिका ने इसे अपना दूसरा निशाना बनाया है। इससे जाहिर है कि अमेरिका निज लक्ष्यप्राप्ति के लिए हरसंभव दांव चलेगा और भारत अमेरिकी भूलभुलैया में आज नहीं तो कल अवश्य फंसेगा!

    कहना न होगा कि भारत के लिए चाबहार पोर्ट का रणनीतिक और कारोबारी महत्व है। भारत के लिए चाबहार बंदरगाह की अहमियत व्यापार से अधिक रणनीतिक यानी प्रतिरक्षात्मक है। यह पोर्ट उसे पाकिस्तान को बाईपास कर सीधे अफगानिस्तान, मध्य एशिया तक पहुंच देता है। वहीं, चाबहार पोर्ट उस इंटरनैशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर का अहम हिस्सा है जिसकी शुरुआत भारत, रूस और ईरान ने मिलकर की थी। यदि इसे सड़क और रेल नेटवर्क से जोड़ दिया जाए, तो यह कॉरिडोर सीधे यूरोप तक पहुंचने का आसान, सस्ता और छोटा रास्ता देता है।

    वहीं, परिवर्तित अमेरिकी नीति में चीन का फायदा दृष्टिगोचर हो रहा है क्योंकि चाबहार पोर्ट पर बैन से भारत या ईरान नहीं, बल्कि खुद अमेरिका पर भी असर डाल सकता है। क्योंकि इस पोर्ट को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह का जवाब माना जा रहा है जो चीन के महत्वाकांक्षी बीआरआई प्रॉजेक्ट का हिस्सा है। ऐसे में यदि इस क्षेत्र से भारत हटा, तो सीधा फायदा चीन को होगा। इससे वॉशिंगटन की वजह से पेइचिंग को रणनीतिक व्यापारिक बढ़त मिल जाएगी। इसलिए यह ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन की सबसे बड़ी खामी कही जाएगी कि विरोधियों पर पकड़ बनाने की उसकी हर कोशिश उसके ही दोस्तों को नुकसान पहुंचाती है। लगता है कि वह अब ठान चुका है कि अमेरिका की कीमत पर किसी को आगे नहीं बढ़ने देगा अंजाम चाहे जो भी हो। भारत को इससे ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है।

    कमलेश पांडेय

    आजाद भारत के महानायक डॉ0 अम्बेडकर का संकल्प

    डॉ0 अम्बेडकर संकल्प दिवस – 23 सितंबर 1917


    ओ पी सोनिक  


        भारत में स्कूली जीवन से ही पढ़ाया-सिखाया जाता है कि ‘वसुधैव  कुटुम्बकम’ यानी कि पूरी दुनिया ही एक कुटुम्ब है। दुनिया में मानवता को जिन्दा रखने के लिए इससे बेहतर कोई विचार नहीं हो सकता। फिर क्या कारण हैं कि समुद्र पार की यात्राएं धर्म विरूद्ध घोषित कर दी जाती हैं। जिन विद्यालयों में कुटुम्बकम का पाठ पढ़ाया जाता है, उन्हीं विद्यालयों में अम्बेडकर को सामाजिक अस्पृश्यताओं से जूझना पड़ता है। अम्बेडकर से समय की समस्याएं आजादी के बाद भी समाज में देखी जा सकती हैं। स्कूलों में किसी दलित बच्चे द्वारा मटके से पानी पीने के प्रयासों में शिक्षक द्वारा जातिगत रूप से प्रताड़ित किया जाता है। दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ते हुए देखना गंवारा नहीं होता। भारत में दलितों के नरसंहारों का भी अपना इतिहास रहा है। ऐसी तमाम घटनाएं बताती हैं कि भारत में सामाजिक रूप से समता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं हो पा रहे हैं पर यह सच है कि भारतीय समाज में सामाजिक विषमताओं की जड़ें जितनी गहरी हैं,  सामाजिक परिवर्तन का इतिहास भी उतना ही पुराना है। बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फूले और अम्बेडकर से लेकर कांशीराम ने वंचित वर्गों को सामाजिक विषमताओं से मुक्ति दिलाने के लिए सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष को जारी रखा।


        किसी भी समाज में सामाजिक परिवर्तन की परंपरा को जारी रखने के लिए संकल्पों एवं प्रतिज्ञाओं का अपना महत्व होता है। संकल्प की महत्ता को 23 सितंबर 1917 को वडोदरा में डॉ0 अम्बेडकर द्वारा लिए गए संकल्प से समझा जा सकता है। भारतीय इतिहास में यह दर्ज है कि बचपन से ही उन्हें सामाजिक विषमताओं का सामना करना पड़ा। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद समाज की संकीर्ण मानसिकता ने उन्हें अपमानित करने का काम किया। जब वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर भारत लौटे और बड़ौदा नरेश के साथ हुए समझौते के अनुसार बड़ौदा राज्य में सैनिक सचिव की नौकरी स्वीकार की। बड़ौदा नरेश के फरमान के बावजूद उन्हें न तो शासकीय सम्मान मिला और न ही सामाजिक सम्मान। इतना ही नहीं, जातिवादी व्यवस्था के कारण बड़ौदा में किराए पर मकान नहीं मिल पाया.  उस समय अस्पृश्यता की जड़ें लगभग सभी धर्मों  से जुड़़ी थीं। पारसी के यहॉं उन्हें किराए पर रहने का अवसर तो मिला पर वहॉं भी उन्हें जातीय उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। डॉ0 अम्बेडकर को यह अनुभव हुआ कि उनकी शिक्षा और योग्यता के बावजूद उन्हें केवल अछूत होने के कारण सामाजिक सम्मान नहीं मिलता। इन्हीं कटु अनुभवों ने उनके भीतर यह दृढ़ निश्चय पैदा किया कि जब तक समाज की संरचना नहीं बदलेगी, तब तक वंचितों के जीवन में परिवर्तन संभव नहीं होगा । उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के संकल्प को भारतीय संविधान की रचना करके पूरा किया है ।


       डा0 अम्बेडकर ने जहॉ सामाजिक परिवर्तन का संकल्प लिया था, उस संकल्प भूमि पर उनके अनुयायी प्रतिवर्ष संकल्प दिवस मनाते हैं। हजारों लोग बगैर किसी आह्वान के इकट्ठा होते हैं और सामाजिक परितर्वन के संकल्प को दोहराते हैं। इस संकल्प भूमि को  राष्ट्रीय महत्व का स्मारक बनाने के सरकारी प्रयास भी जारी है। संकल्प दिवस के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 23 सितंबर 2017 को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने संकल्प भूमि स्मारक का शिलान्यास किया था। 8 जुलाई 2022 राष्ट्रीय संस्मारक प्राधिकरण ने भारतीय संविधान के निर्माता एवं महान समाज सुधारक डॉ0 अम्बेडकर से जुड़े दो स्थलों को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित करने की सिफारिश की थी। वडोदरा स्थित संकल्प भूमि बरगद के पेड़ परिसर जहॉं डॉ0 अम्बेडकर ने 23 सितम्बर 1917 को अस्पृश्यता उन्मूलन का संकल्प लिया था, यह स्थान सौ साल से भी अधिक पुराना है और डॉ0 अम्बेडकर द्वारा सामाजिक परिवर्तन के लिए शुरू किए गए संघर्ष का गवाह रहा है। राष्ट्रीय संस्मारक प्राधिकरण ने सतारा स्थित प्रताप राव भोसले हाई स्कूल को भी राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किए जाने की सिफारिश की है। इसी स्कूल में डॉ0 अम्बेडकर ने प्राथमिक शिक्षा पूरी की थी।
       भारत में समय समय पर बाबा साहब डॉ0 अम्बेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं की चर्चा विभिन्न मंचों से होती रहती है। सभी उपस्थितों को शपथ दिलायी जाती है कि सभी जीवन में उक्त प्रतिज्ञाओं का पालन करेंगे। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार में दलित वर्ग से मंत्री बने एक नेता 22 प्रतिज्ञाओं को लेकर इतने चर्चित हुए कि उन्हें पहले मंत्री पद और बाद में पार्टी को भी छोड़ना पड़ा। फिर उन्होंने एक ऐसी पार्टी ज्वाइन कर ली, बाबा साहब डा0 अम्बेडकर ने दलितों को जिससे दूर रहने को कहा था, यानी कि 22 प्रतिज्ञाओं के चक्कर में एक बड़ी राजनीतिक प्रतिज्ञा को तिलांजलि  दे दी गयी। अक्सर भारतीय राजनीति गिरगिट से भी ज्यादा रंग बदलती है। दलित वर्ग में ऐसे कई नेताओं के उदाहरण यहॉं दिए जा सकते हैं  जिन्होंने अम्बेडकरवाद की हुंकार भरते भरते गॉंधीवादी राजनीति के सामने समर्पण कर दिया। थोड़ी देर के लिए मान लें कि अगर डॉ0 अम्बेडकर भी गॉंधीवादी राजनीति के सामने समर्पण कर देते  तो क्या वो आज के अम्बेडकर बन पाते। दलित नेताओं को बस इतनी सी बात समझने की जरूरत है।
        डॉ0 अम्बेडकर के उक्त संकल्प के कई गहरे संदेश निकलते हैं। उनका मानना था कि किसी भी व्यक्ति का मूल्य जन्म से नहीं बल्कि उसके कर्म और आचरण से तय होना चाहिए। आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के लिए आवश्यकता पड़ने पर परंपराओं को तोड़ देना चाहिए। राजनीतिक आजादी तभी तक सार्थक है, जब समाज के सभी वर्गों को समान अधिकार और अवसर मिलें। 21वीं सदी का भारत तकनीक और अर्थव्यवस्था में भले ही आगे बढ़ रहा हो, पर जातीय भेदभाव, सामाजिक असमानता और धार्मिक कट्टरता आज भी भारत के लिए चुनौतियॉं बनी हुई हैं। ऐसे में डॉ0 अम्बेडकर का बड़ौदा संकल्प हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ केवल राजनीतिक आजादी नहीं बल्कि सामाजिक और मानसिक गुलामी से मुक्ति भी है। भारत के इतिहास में डॉ0 अम्बेडकर एक ऐसे महामानव के रूप में स्मरण किए जाते हैं, जिन्होंने केवल अपने व्यक्तिगत उत्थान का मार्ग नहीं चुना बल्कि पूरे समाज के लिए समानता और न्याय का पथ प्रशस्त किया। उनकी सोच और संघर्ष ने शोषित एवं वंचित वर्गों को आत्मसम्मान और अधिकारों की चेतना दी। डॉ0 अम्बेडकर का जीवन कई निर्णायक पड़ावों से गुजरा परन्तु 23 सितम्बर 1917 का दिन विशेष महत्व रखता है। भारतीय पटल से दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम का संदेश देने के लिए जरूरी है कि डॉ0 अम्बेडकर के उक्त संकल्प को पूरा किया जाए।

    ओ पी सोनिक  

    भागलपुर ने दी राष्टकवि दिनकर को ख्याति

    जन्मदिन (23 सितम्बर पर विशेष )

    कुमार कृष्णन

    भागलपुर से ही राष्टकवि रामधारी सिंह दिनकर को ख्याति मिली।इसे उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है।

    उनके मुताबिक-

    ” 1933 में सुप्रसिद्ध इतिहासकार काशी प्रसाद जायसवाल नें भागलपुर में बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व किया था।इसके आयोजक थे पं शिवदुलारे मिश्र.

    अपनी कविता ‘हिमालय’ ‘के प्रति’ उपकार मानता हूं। जनता में मेरा नाम पहले पहल इसी कविता के कारण फैला किंतु उससे भी पूर्व इस कविता ने जायसवाल जी का स्नेहभाजन बना दिया।”

    दिनकर के शब्दों में -“यह कविता अचानक लिखी गयी। बात यों हुई ,जब सम्मेलन देखने भागलपुर पहुंचा तो मुझे पता चला कि दूसरे दिन जो कवि सम्मेलन होनेवाला है,उसके लिए कविता का विषय ‘हिमालय ‘ रखा गया है। मैं भागलपुर के ही लालूचक में एक मित्र के घर ठहरा। स्थान संकोच के कारण सोने की जगह बरामदे पर मिली। मुझे जो खाट मिली, नसखट थी। इसी पर जगे-जगे रात भर में कविता लिखी। दूसरे दिन कवि सम्मेलन में जब पाठ किया तो जायसवाल जी समेत पूरी सभा झूम उठी। श्रोताओं की मांग पर उतनी लंबी कविता को तीन-चार बार पढ़वा कर मुझे प्रोत्साहन और गौरव प्रदान किया।”

    ( संस्मरण और श्रद्धांजलियां)

    दिनकर जी का भागलपुर से रागात्मक रिश्ता रहा है। भागलपुर के सुलतानगंज से बनैली स्टेट की पत्रिका ” गंगा’ में उनकी कविता प्रकाशित होती रही।10 जनवरी 1964 से 3 मई 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। उनकी स्मृतियों का साक्षी खलीफाबाग स्थित ‘चित्रशाला” है जहां वे काव्यपाठ करते थे। हरिकुंज जी, डा विष्णु किशोर झा ‘ बेचन’, बंगला के प्रसिद्ध साहित्यकार वलायचांद मुखोपाध्याय ‘ वनफूल’ की बैठकी जमती थी। भागलपुर के गोलाघाट स्थित छावनी कोठी उनका निवास था। भागलपुर का भगवान पुस्तकालय के चप्पे-चप्पे में उनकी स्मृतियां है। 

    सुनुँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युग-धर्म का हुंकार हूँ मैं

    कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का, प्रलय गांडीव का टंकार हूँ मैं।“

    जीवन भर अपनी रचनाओं में जन-जागरण के लिए हुंकार की गर्जना भरने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर न केवल हिंदी साहित्य के भंडार को विविध विधाओं द्वारा भरने का यत्न करते रहे बल्कि क्रांति-चेतना के प्रखर प्रणेता बनकर अपनी कविताओं के जरिए राष्ट्र प्रेम का अलख जगाते रहे। दरअसल राष्ट्रीय कविता की जो परम्परा भारतेन्दु से शुरू हुई, उसकी परिणति हुई दिनकर की कविताओं में। उनकी रचनाओं में अगर भूषण जैसा कोई वीर रस का कवि बैठा था तो मैथिलीशरण गुप्त की तरह लोगों की दुर्दशा पर लिखने और रोनेवाला एक राष्ट्रकवि भी।

    दिनकर यशस्वी भारतीय पंरपरा के वे अनमोल रत्न हैं जिन्होंने अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से देश निर्माण और स्वतंत्रता के संघंर्ष में स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर दिया था।

    कलम आज उनकी जय बोल जैसी प्रेरणादायक कविता के प्रणेता दिनकर जितने बड़े ओज, शौर्य, वीर और राष्ट्रवाद के कवि हैं उतने ही बड़े संवेदना, सुकुमारता, प्रेम और सौंदर्य के कवि है। दिनकर ने अपनी रचनाओं में संवेदनाओं का बड़ा मर्म चित्रण किया है। प्रणभंग से लेकर हारे से हरिनाम तक में इसे आसानी से देखा जा सकता है।

    दिनकर की लेखनी में अगर हर्ष है तो पीड़ा भी है। खुशी है तो वेदना भी है। निराशा है तो आशा की उम्मीद भी है। व्यवस्था के प्रति क्षुब्धता है तो एक नई सवेरा की उम्मीद भी है। हताशा है तो उससे उबरने की ताकत भी है।

    दरअसल दिनकर की काव्य योजना उस युग से आरम्भ होती है जब गोरी सरकार के अत्याचारों के प्रतिरोध में देश का हर नवजवान सीना तान कर खड़ा था। ये वो समय था जब देश का झितिज नवयुवकों की छाती से निकलते हुए ख़ून से लाल हो रहा था। कोड़े खाते हुए निर्दोष जनता के मुँह से निकलती हुई वन्दे मातरम् की हर आवाज़ एक नई आगाज़ का संदेश दे रही थी और फाँसी पर झूलते हुए निर्भीक चेहरे भविष्य के पट पर लिखे हुए इतिहास की आहट दे रहे थे।

    उस दौर में दिनकर ने इतिहास की इन घटनाओं को कसौटी पर कसते हुए लिखा–

    “जब भी अतीत में जाता हूँ/ मुर्दों को नहीं जिलाता हूँ/ पीछे हटकर फेंकता बाण/ जिससे कम्पित हो वर्तमान ।

    बचपन से ही दिनकर में राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इतिहास और साहित्य के ज्ञान ने उन्हें उपनिवेशवाद और सामंतवाद के गठबंधन के विरुद्ध खड़ा होने पर मज़बूर कर दिया। उनके उग्र विचारों में अगर राष्ट्रीय चेतना संपन्न कवि का रूप उभर कर सामने आया तो उसमे तत्कालीन परिवेश और पृष्ठभूमि का बहुत बड़ा योगदान था।

    स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ज्यादातर कवि गाँधी और मार्क्स के विचारों के द्वन्द में झूल रहे थे। दिनकर भी इससे अछूते नहीं थे। एक ओर गाँधी जी की अहिंसक नीति और सत्याग्रह तो दूसरी ओर चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह के क्रांति कार्य थे। अहिंसक सत्याग्रह की राजनीति से युवाओं की आस्था हिलने लगी थी।

    दिनकर ने अपनी इस मन:स्थिति को हिमालय कविता में काफी सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया।

    “रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,

    जाने दे उनको स्वर्ग धीर,

    पर, फिरा हमें गाण्डीव गदा,

    लौटा दे अर्जुन भीम वीर” ।

    हिमालय से दिनकर की जो उपनिवेशवाद विरोधी उग्र राष्ट्रीय काव्य धारा चली उसकी परिणति हुंकार, कुरुक्षेत्र और परशुराम की प्रतिक्षा में देखने को मिली।

    लेकिन दिनकर जितने कठोर उपनिवेशवाद को लेकर थे उतने ही संवेदनशील मानवता को लेकर भी थे। उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत के विभाजन को लेकर दिनकर ने जैसे देश की आत्मा का पूरा दर्द इन शब्दों में ढाल दिया है-

    “हाथ की जिसकी कड़ी टूटी नहीं/ पाँव में जिसके अभी जंजीर है/ बाँटने को हाय तौली जा रही/ बेहया उस कौम की तकदीर है”।

    वहीं दूसरी ओर दिनकर ने आज़ादी को नया सूर्योदय भी कहा और इसका पूरा श्रेय भारत की जनता को दिया। दिनकर ने स्वतंत्रता का अपने निराले अंदाज में स्वागत किया और पहले गणतंत्र दिवस के अवसर पर उनकी लिखी कविता बाद में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1974 के संपूर्ण क्रांति की नारा बनी।

    “सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी/ मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है/ दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/ सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”।

    दिनकर की कविताओं में अगर विद्रोह है, विस्फोट है, तो जीवन की निर्बाध गति भी है। दिनकर की कला में स्वप्नों का सौन्दर्य नहीं है, उसमें जीवन के संघर्षों का सौन्दर्य है। विपथगा कविता में दिनकर समाज में व्याप्त विषमता और व्यवस्था के प्रति बगावती तेवर अपना लेते हैं।

    “श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, बच्चे भूखे अकुलाते हैं/ माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।“

    दिनकर की दृष्टि मुख्य रूप से अपने युग पर ही केंद्रित रहती थी। वे अपने युग की हर साँस को पहचानते थे और इसका विस्फोट उनकी कविताओं और रचनाओं में खूब देखने को मिला।

    दिनकर की कविताओं में अगर विद्रोह है, विस्फोट है, तो जीवन की निर्बाध गति भी है। दिनकर की कला में स्वप्नों का सौन्दर्य नहीं है, उसमें जीवन के संघर्षों का सौन्दर्य है। विपथगा कविता में दिनकर समाज में व्याप्त विषमता और व्यवस्था के प्रति बगावती तेवर अपना लेते हैं।

    “श्वानों को मिलते दूध-वस्त्र, बच्चे भूखे अकुलाते हैं/ माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।“

    दिनकर की दृष्टि मुख्य रूप से अपने युग पर ही केंद्रित रहती थी। वे अपने युग की हर साँस को पहचानते थे और इसका विस्फोट उनकी कविताओं और रचनाओं में खूब देखने को मिला।

    उन्होंने न केवल अपने साहित्य के जरिए रूढ़ियों का डटकर विरोध किया बल्कि दलितों, शोषितों पर हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ जमकर आवाज़ भी उठाई। जाति व्यवस्था को केंद्र में रखकर दिनकर ने अपना सबसे लोकप्रिय प्रबंध काव्य रश्मि रथी लिखा। रश्मि रथी में दिनकर ने कर्ण के जरिए जाति व्यवस्था से उत्पन्न अनेक विसंगतियों और सामाजिक कुरूतियों पर प्रश्न खड़े किए हैं। दिनकर की रश्मि रथी उनकी वाणी की उस शक्ति का प्रतीक है जिसने हर तरह की विषमता का खुलकर मुकाबला किया।

    “ऊंच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है/ दया धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।/ क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग/ सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।“

    परिस्थितियों के दबाव में कभी-कभी दिनकर आक्रान्त भी हो जाते थे। 1962 में भारत पर हुए चीनी आक्रमण ने उनके अन्तर्मन को झकझोर दिया। इस हमला ने अहिंसा और गाँधीवाद के प्रति दिनकर की आस्था को जड़ से हिला दिया। सारा देश झुब्ध और आवेशित था। दिनकर का पौरुष एक बार फिर हुंकार उठा। वो परशुराम की प्रतीक्षा के माध्यम से राष्ट्र के आहत स्वाभिमान के प्रतीक बनकर फूट पड़े।

    “ गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से/ क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।/ यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है/ मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।“

    बहुयायामी प्रतिभा के धनी दिनकर की कविता भी बहुरंगी है। वे केवल ओज, शौर्य और सहजता के कवि ही नहीं है। वे प्रेम, सौंदर्य और गीतात्मकता के कवि भी है। वस्तुत: दिनकर राष्ट्रीयता और श्रृंगार को लेकर शुरू से ही दुविधाग्रस्त रहे। उनका चेतन मन जहाँ परिस्थितियों के दबावों से ग्रस्त रहा वहीं उनका अवचेतन प्रेम सौन्दर्य के सरोवर में आकंठ डूबा रहा। वे प्रणव के सरोवर में केवल डूबते और उतराते ही नहीं रहे बल्कि प्रेम और सौन्दर्य के सत्य को जान लेने के लिए भी लगातार प्रयासरत रहे। उनके अनेक कविताओं में रूमानियत और सौन्दर्य की ये प्रवृति दिखाई देती है।

    रसवन्ती, मानवती से शुरू हुई दिनकर की सौन्दर्य कविता उर्वशी में अपने चरम पर पहुँच गई। उर्वशी में दिनकर का एक नया रूप दिखा। दरअसल उर्वशी दिनकर की रूमानी संवेदना की चरम पराकाष्ठा है।

    भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित इस रचना में काम जैसे मनोभाव को स्वीकार करने और उसे आध्यात्मिक गरिमा तक पहुँचाने के लिए जिस साहस की जरूरत थी वो दिनकर में मौजूद था। उर्वशी में अर्द्धनारिश्वर का अर्थ समझाते हुए कहते हैं- जिस पुरूष में नारित्व नहीं वह अधूरा है और जिस नारी में पुरुषत्व नहीं वह भी अपूर्ण है। दरअसल दिनकर में पौरुष की हुंकार थी तो स्त्री का प्रेम भी।

    “मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं/ उर्वशी ! अपने समय का सूर्य हूँ मैं।“

    दरअसल दिनकर ने अपने सार्वजनिक जीवन में प्रगतिशील और आधुनिक समाजवादी चिंतन को पर्याप्त महत्व दिया। गाँधी जी के व्यक्तित्व ने उनके चिंतन को एक ख़ास दिशा दी तो नेहरू के सामासिक संस्कृति के दर्शन ने दिनकर के राष्ट्रीय चिंतन को बहुत दूर तक प्रभावित किया। दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय इस चिंतन की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति थी। संस्कृति के चार अध्याय ने उन्हें गद्य लेखक के रूप में बौद्धिक समाज में पूरी प्रतिष्ठा के साथ स्थापित कर दिया।

    समय के साथ-साथ दिनकर की कविता भी बदलती रही। स्वतंत्रता से पहले दिनकर आज़ादी के लिए अलख जाते रहे तो स्वतंत्रता के बाद आम जनता की आवाज़ बन गए। आज़ादी से पहले भी भारत की जनता दिनकर के दिल पर राज करती थी और आज़ादी के बाद भी रही। तभी तो जिस दिनकर की वीर रस में डूबी कविताओं के बगावती तेवर देखकर अँगरेज़ भी घबराते थे वही दिनकर आज़ादी के बाद देश की आवाज़ बन गए और फिर देश के राष्ट्रकवि।

    दिनकर 1952 से 1963 तक राज्यसभा के सांसद रहे और दिल्ली का सच देखते रहे। दिल्ली के विलासपूर्ण जीवन और गाँवों की बदहाली पर उन्होंने 1954 में ‘भारत का यह रेशमी नगर’ कविता लिखा।

    “दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी, दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है/

    प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है।“

    दिनकर ने कभी भी अपने साहित्य के आदर्शों को लेकर समझौता नहीं किया। उन्होंने भ्रष्टाचार में डूबे देश के कटु सच को बिना किसी डर-भय के कहने में कभी कोताही नहीं बरती—

    “टोपी कहती है, मैं थैली बन सकती हूँ।/ कुरता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो।/ ईमान बचाकर कहता है, आँखें सबकी/ बिकने को हूँ तैयार खुशी से जो दे दो।“

    इतना ही नहीं, वे देश और जनता की सुख-दुख से अंजान बने नेताओं और बुद्धिजीवियों को आगाह करने से भी नहीं चूकते ।

    “समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तथस्ट हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।“

    दरअसल दिनकर का मुख्य सरोकार जनता के लिए था, उनके दुःख दर्द लिखने, उनकी पीड़ा कहने से था। उनके दुख और बदहाली उन्हें हर हाल में उद्वेलित करते रहे, आजादी से पहले भी और आजादी के बाद भी। आज़ादी के बाद भी जब किसानों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं दिखा तो दिनकर कह उठे-

    “जेठ हो कि पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है/ छूटे कभी संग बैलों का ऐसा को याम नहीं है/ मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है/ वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।“

    हिंदी साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब रहे हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों। जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी। दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था।

    राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जीवन भर करोड़ों लोगों की आवाज बनकर देश में गूंजते रहे। दिनकर के चले जाने से वह कंठ मौन हो गया जिसने अपने गर्व भरे स्वरों में घोषित किया था-

     “सुनूँ क्या सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा/ स्वयं युग धर्म का हुंकार हूँ मैं”।

    कुमार कृष्णन

    सामाजिक समरसता : राष्ट्र निर्माण का आधार

    • पवन‌ शुक्ला (अधिवक्ता)

    महात्मा गांधी ने कहा था—“हमारी एकता हमारी विविधता में ही है; जब तक हम मिलकर नहीं रहेंगे, तब तक भारत सशक्त नहीं हो सकता।” यह वाक्य केवल एक चेतावनी नहीं, बल्कि भविष्य का संकल्प भी है। भारत की असली ताक़त उसकी गंगा-यमुनी संस्कृति में है, जहाँ विभिन्न आस्थाएँ, भाषाएँ और परंपराएँ मिलकर जीवन की धारा को प्रवाहित करती हैं।

    आज तकनीक और सोशल मीडिया के युग में यह एकता और भी अनिवार्य हो गई है। एक क्लिक से संदेश करोड़ों तक पहुँचता है, विचार वायुमंडल में तीर की तरह उड़ते हैं। यह शक्ति हमें जोड़ भी सकती है और बाँट भी सकती है। शब्द अमृत भी बन सकते हैं और विष भी। ऐसे समय में सामाजिक समरसता केवल आदर्श नहीं, बल्कि वह धड़कन है जो राष्ट्र के हृदय को जीवित रखती है।

    कबीर ने कहा था—“जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।” यह पंक्ति बताती है कि मनुष्य की पहचान उसकी जाति या धर्म से नहीं, बल्कि उसकी चेतना और कर्म से होती है। यही विचार सामाजिक समरसता का मूल है। यदि समाज इस दृष्टि को अपनाए, तो कोई भी दीवार स्थायी नहीं रह सकती और कोई भी विभाजन मनुष्यता को बाँट नहीं सकता।

    रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस विविधता को भारत की आत्मा कहा। वे लिखते हैं—“यदि हम विविधता को दबाएँगे, तो राष्ट्र की आत्मा क्षीण हो जाएगी।” टैगोर की दृष्टि में भारत एक बगीचा है, जिसमें असंख्य फूल हैं; कोई लाल, कोई नीला, कोई सफ़ेद—सब मिलकर ही बगीचे की शोभा बढ़ाते हैं।

    डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस सत्य को और गहराई दी। उन्होंने कहा—“राजनीतिक समानता व्यर्थ है यदि सामाजिक और आर्थिक समानता न हो।” संविधान ने हमें अधिकार दिए, परंतु उन अधिकारों को जीवंत करने का कार्य सामाजिक समरसता ही कर सकती है। यदि समाज का कोई भी हिस्सा हाशिये पर रह जाए, तो पूरा राष्ट्र कमजोर हो जाता है।

    इसीलिए कहा जा सकता है—
    “सच्ची ताक़त उस समाज की होती है, जो अपनी विविधताओं को बोझ नहीं, बल्कि पूँजी समझता है।”

    आज की राजनीति कभी-कभी विभाजन की दीवारें खड़ी करने का प्रयास करती है। पर हमें इतिहास से सीखना चाहिए। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाषचंद्र बोस और मौलाना आज़ाद—सभी अलग-अलग राहों पर चले, परंतु उनके हृदय में एक ही अग्नि जल रही थी—भारत की स्वतंत्रता। उनकी समरसता ही हमारे संघर्ष की सच्ची विजय थी।

    समरसता राष्ट्र निर्माण की तीन सीढ़ियाँ बनाती है—
    पहली, यह विश्वास का दीप जलाती है।
    दूसरी, यह सहयोग का सेतु बनाती है।
    तीसरी, यह शांति का आकाश रचती है।
    और इन तीनों के बिना कोई भी राष्ट्र दीर्घकाल तक टिक नहीं सकता।

    सोशल मीडिया को भी इसी दिशा में साधन बनाया जा सकता है। यदि नफरत की एक चिंगारी लाखों को जला सकती है, तो प्रेम की एक किरण लाखों को रोशन भी कर सकती है। युवा पीढ़ी के पास यह शक्ति है कि वह तकनीक को जोड़ने का माध्यम बनाए और भविष्य को सुनहरी रोशनी से भर दे।

    लोकतंत्र भी तभी सशक्त होगा जब वह समरसता पर खड़ा होगा। लोकतंत्र केवल मतपेटियों तक सीमित नहीं है; यह वह पुल है जो दिलों को जोड़ता है। नेताओं का धर्म है कि वे दीवारें नहीं, पुल बनाएँ। नागरिकों का कर्तव्य है कि वे संदेह नहीं, विश्वास बोएँ।

    “समरसता कोई आदर्श नहीं, बल्कि वह श्वास है जिसके बिना समाज जीवित नहीं रह सकता।”
    यह श्वास यदि थम जाए, तो राष्ट्र भी थम जाएगा। और यदि यह श्वास निरंतर बहे, तो राष्ट्र प्रगति की दौड़ में कभी पीछे नहीं रहेगा।

    यही कारण है कि आज का भारत समरसता को अपने विकास का सबसे बड़ा मंत्र बनाए। विविधताओं को धरोहर मानकर ही यह राष्ट्र सशक्त और स्थायी रह सकता है। तकनीक यदि संवाद और सहयोग का सेतु बने, राजनीति यदि सेवा और सहजीवन का मार्ग बने, तो समाज में न केवल विश्वास और समानता का वातावरण पनपेगा, बल्कि राष्ट्र की आत्मा भी प्राणवंत होगी।

    भारत की नियति यही है कि वह अपनी बहुरंगी संस्कृति और सामूहिक चेतना के सहारे विश्व को राह दिखाए। जब हर नागरिक स्वयं को सम्मानित और आवश्यक अनुभव करेगा, तब भारत केवल एक भूगोल नहीं रहेगा—वह एक जीवंत आत्मा बनकर जगत को यह सन्देश देगा कि सच्चा विकास साथ चलने में है और सशक्त राष्ट्र की नींव सामाजिक समरसता में है।

    पजामा संभलता कोन्या, शौक बन्दूकां का राख्खें

    सुशील कुमार ‘ नवीन ‘ 

    हरियाणवी में एक बड़ी प्रसिद्ध कहावत है कि सूत न कपास, जुलाहे गेल लठ्ठम लठ। अर्थात् खुद के पास कुछ भी नहीं है, दूसरों से उलझते फिरें। एक बार राह चलते एक व्यक्ति जान बूझकर दूसरे से टकरा गया। यही नहीं बहस कर उसे ललकारने भी लगा। जिससे टकराया था वो बात को बढ़ाना नहीं चाहता था, सो बात को वहीं खत्म कर निकल रहा था, पर टकराने वाला तो हर हाल में लड़ने की तैयारी में था। बहस बढ़ने लगी। बात हाथापाई तक पहुंच गई। थप्पड़ मुक्का जोर पकड़ने ही वाले थे कि जानबूझकर टकराने वाला बोला- तुझे थोड़ी सी शर्म नहीं आती जो भूखे आदमी से लड़ रहा है। दम है तो पहले कुछ खिला पिला,फिर लड़के दिखा। 

         इंसानियत की भावना दिखाते हुए पहले उसे पेटभर खिलाया गया। खाना पेट में जाते ही टोन बदल गई और वो फिर गाली गलौज करने लगा। इस पर दोनों गुत्थमगुत्था हो गए। कभी वो ऊपर तो कभी वो नीचे। इसी दौरान उसका कुर्ता कुर्ता फट गया। फटा तो वो वैसे ही पहले से पड़ा था। कुर्ता फटते ही नया ड्रामा शुरू कर दिया। जोर-जोर से रोने लगा। कहा – अब क्या पहनूंगा, मेरे पास तो यही कुर्ता था। दूसरा बोला-कोई बात नहीं, पहले लड़ाई कर ले, फिर तेरे कुर्ते का भी इंतजाम करेंगे।

        लड़ाई फिर शुरू हो गई। अबकी बार छलनी स्टाइल बनियान के चीथड़े उड़ गये। रोना फिर शुरू हो गया। बोला-कुर्ते के साथ बनियान दोगे तो ही लडूंगा। यह भी स्वीकार हो गया। थोड़ी देर बाद जोर आजमाइश हुई तो इस बार पाजामे का नाड़ा टूट गया। उसने फौरन कहा कि लड़ाई तो रोकनी होगी,मेरे पाजामे का नाड़ा टूट गया है। थोड़ी देर रुको, मैं अभी पाजामा बदलकर आया। दूसरे ने कहा कि कोई बात नहीं, चड्डी पहन रखी होगी। लड़ाई के बाद पाजामा बदल लेना। जवाब दिल दहलाने वाला था। बोला-यहां खाना तो मांग-मांगकर खाना पड़ रहा है। चड्डी कहां से खरीदूं? 

        दूसरे ने फौरन उसके दो धरे और यह कहकर भगा दिया कि जब खाने को रोटी नहीं है, पहनने को चड्डी नहीं है। तो लड़ना जरूरी है क्या। भीख मांग, भीख। आप भी सोच रहे होंगे कि कहानी किस संदर्भ में सुनाई गई है तो सुनें। एशिया कप में भारत-पाकिस्तान का रविवार का मैच तो अपने जरूर देखा होगा। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की कहावत पूरे मैच में लगातार देखने को मिली। बार-बार ऐसी हरकतें की गई कि भारतीय खिलाड़ी अपना संयम खो दें। बैट को बंदूक के रूप में चलाने का साइन किसी सीधी छेड़ से कमतर नहीं था। उसके बाद बैटिंग के दौरान शुभमन गिल और अभिषेक शर्मा से उलझना साफ दिखा रहा था कि ये पूरी प्लानिंग के साथ आज मैदान में आए थे कि किसी तरह बात बिगड़े और हमारी इज्ज़त रह जाए।

       इतिहास गवाह है कि जब-जब भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हुआ है। वो एक मैच न होकर मैदान-ए-जंग बना है। पाकिस्तान निचले पायदान की टीम से हार जाए सहन हो जायेगा,पर भारत से हार सहन नहीं होगी। तोड़ फोड़ होगी, गाली गलौज तो सामान्य बात ही है। 

        रविवार को दोनों के बीच दुबई में एशिया कप में दोबारा आमना-सामना हुआ, नतीजा वही। अभिषेक शर्मा और शुभमन गिल ने ऐसा उठा-उठाकर मारा कि दर्द कई दिन तक नहीं जाएगा। खास बात ये दर्द घाव पर मिर्च छिड़कने जैसा था। हालांकि उनके लिए ये अब कोई नई बात नहीं है। इस तरह की बेइज्जती तो वे कई बार करवा चुके हैं। भारत ने इन्हें हर जगह मात दी है। चाहे खेल का मैदान हो या फिर लड़ाई का। साइकिल ढंग से चलानी नहीं आती हो तो, लंबोर्गिनी चलाने के सपने नहीं देखने चाहिए। खेल के मैदान में ताकत खेलकर ही दिखाई जाती है। हरकतों से नहीं। बच्चों की बंदूकों से बच्चे ही डरते हैं, बड़े नहीं। सूर्या भाऊ ने मैच के बाद जो बात कही है वो और भी बिल्कुल सही बैठती है कि मैच के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस करने आए सूर्या ने साफ-साफ कह दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच अब कोई प्रतिद्वंद्विता (राईवइलरी) नहीं है। सूर्या की यह बात भी सही है। मुकाबला तो बराबर वालों में ही होता है। इसलिए पहले पाकिस्तान क्रिकेट में भारत के बराबर बने, फिर कोई बात हो।

    लेखक: 

    सुशील कुमार ‘नवीन’ 

    नवरात्रि का गूढ़ संदेश : आध्यात्मिक जागरण की नौ रातें

    उमेश कुमार साहू

    नवरात्रि केवल उत्सव, व्रत या आराधना का नाम नहीं है. यह जीवन की वह तपोभूमि है, जहाँ मनुष्य अपने भीतर छिपी दिव्यता से साक्षात्कार करता है। नौ रातों का यह पर्व हमें बाहरी शोरगुल और सांसारिक मोहजाल से उठाकर आत्मा की यात्रा पर ले जाता है, जहाँ शांति, संतुलन और अनंत शक्ति का प्रकाश व्याप्त है।

    देवी : शक्ति का शाश्वत स्वरूप

    सनातन संस्कृति में देवी केवल मूर्ति नहीं, बल्कि जीवंत ऊर्जा हैं।

    ·    दुर्गा हमें साहस और आत्मविश्वास देती हैं ताकि हम भय और अज्ञान का नाश कर सकें।

    ·    लक्ष्मी केवल धन की अधिष्ठात्री नहीं, बल्कि संतोष, आभार और समृद्धि की प्रेरणा हैं।

    ·    सरस्वती हमें बताती हैं कि सच्चा वैभव ज्ञान और विवेक में है।

    नवरात्रि का गूढ़ संदेश यही है कि हम अपने भीतर सोई हुई इन शक्तियों को जागृत करें और उन्हें जीवन का मार्गदर्शक बनाएं।

    नौ रातों का रहस्य

    हर रात का एक विशेष महत्व है। ये नौ रातें मानो आत्मा की सीढ़ियाँ हैं, जो हमें साधारण मनुष्य से ऊँची चेतना तक पहुँचाती हैं।

    ·    पहली तीन रातें हमें भीतर की नकारात्मक शक्तियों से संघर्ष का संदेश देती हैं।

    ·    मध्य की तीन रातें आत्मशुद्धि और संतुलन की साधना हैं।

    ·    अंतिम तीन रातें ज्ञान, भक्ति और आत्मज्ञान की ऊँचाई तक ले जाती हैं।

    दसवें दिन की विजयादशमी केवल राम की रावण पर विजय का प्रतीक नहीं, बल्कि हमारे भीतर की बुराइयों पर आत्मा की विजय का उत्सव है।

    आधुनिक जीवन में नवरात्रि का संदेश

    आज की दुनिया अस्थिरता, चिंता और तनाव से घिरी है। ऐसे समय में नवरात्रि हमें सिखाती है कि –

    ·    बाहरी दौड़-भाग में खोकर आत्मा को मत भूलो,

    ·    मन को शुद्ध किए बिना सच्चा सुख संभव नहीं,

    ·    सेवा, दया और प्रेम ही जीवन को सार्थक बनाते हैं।

    नवरात्रि का पर्व हमें यह भी याद दिलाता है कि पूजा केवल मंदिर की दीवारों तक सीमित न हो, बल्कि यह हमारे कर्म, व्यवहार और विचारों में झलके। जब हम किसी दुखी को सहारा देते हैं, किसी भूखे को भोजन कराते हैं, किसी निराश को आशा देते हैं, तभी असली पूजा होती है।

    स्त्री : शक्ति का मूर्त रूप

    नवरात्रि स्त्री शक्ति के सम्मान का भी संदेश देती है। हर नारी में सृजन, धैर्य और करुणा का वही दिव्य स्वरूप है, जिसे हम देवी कहते हैं। जिस समाज में स्त्री का सम्मान होता है, वहाँ शांति और समृद्धि स्वतः आती है। अतः नवरात्रि हमें स्त्री को केवल पूजनीय नहीं, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में समान अधिकार देने की प्रेरणा देती है।

    आत्मजागरण की ओर

    यदि हम नवरात्रि को केवल नृत्य, भजन और उपवास तक सीमित कर दें, तो इसका सार अधूरा रह जाएगा। असली नवरात्रि तब है, जब –

    ·    हम अपने भीतर के अंधकार को पहचानकर उसका नाश करें,

    ·    ईर्ष्या, अहंकार और लोभ जैसी प्रवृत्तियों को त्यागें,

    ·    सत्य, प्रेम और करुणा को जीवन का आधार बनाएं।

    नवरात्रि आत्मशक्ति के जागरण का पर्व है। जब हम भीतर की शक्ति को पहचानते हैं, तभी जीवन में सच्ची विजय प्राप्त होती है।

    नवरात्रि हमें यह सिखाती है कि ईश्वर कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही है। देवी की उपासना केवल दीपक और पुष्पों से नहीं, बल्कि आत्मचिंतन, संयम और सेवा से होती है। यदि हर मनुष्य इस पर्व का यह सच्चा संदेश अपने जीवन में उतार ले, तो संसार अज्ञान, हिंसा और अशांति से मुक्त होकर शांति, प्रेम और आध्यात्मिक प्रकाश से भर जाएगा।

    इस नवरात्रि, आइए बाहरी कोलाहल से परे हृदय में छिपी सुप्त शक्तियों को जगाएँ। यही सच्चा आध्यात्मिक जागरण है, यही नवरात्रि का सार है।

    उमेश कुमार साहू

    कर्ण की आराध्य देवी दशभुजी  दुर्गा 

    कुमार कृष्णन

    महादानी, महातेजस्वी एवं महारथी कर्ण महाभारतकालीन भारत के महानायकों में अपने शौर्य, और पराक्रमी राजा के रूप में परिगणित होते हैं। तत्कालीन  अंगदेश् के राजा के रूप में उनका अधिकांश समय मुंगेर में व्यतीत हुआ है। अपनी दानशीलता के लिए इतिहास के अमर व्यक्तित्व राजा कर्ण की अधिष्ठात्री देवी दशभुजी दुर्गा  के नाम से आज भी मुंगेर में स्थापित है और उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर पर स्थित प्रसिद्ध शक्ति पीठ चंडिका स्थान में उनकी आराधना की कथा जनश्रुतियों में आज भी व्याप्त है। वर्तमान में योगाश्रम के गंगा दर्शन को कर्णचौरा ही कहा जाता रहा है। इसी कर्णचौरा से महाराज कर्ण प्रतिदिन सवा मन सोना दान किया करते थे जो उन्हें देवी की आराधना और अपने बलिदान के फलस्वरूप प्राप्त होता था।

    कर्ण, पाण्डवों की माता कुंती के प्रथम पुत्र थे लेकिन कुमारी अवस्था में उनका जन्म होने के कारण उन्हें एक दलित मां-बाप के बेटे के रूप में जाना गया। उनकी माता का नाम राधा और पिता का नाम अधिरथ था। अधिरथ राजा धृतराष्ट्र के यहां सारथि  का काम करते थे। एक कथा के अनुसार राजा पृथु की पुत्री कुन्ती को महर्षि दुर्वासा के आदर-सत्कार का मौका मिला और उनके सत्कार से प्रसन्न हो ऋषि ने उन्हें ऐसा आशीर्वाद  दिया कि वे किसी भी दिव्य शक्ति को अपने पास बुला सकतीं थीं। ऋषि से प्राप्त आशीर्वाद का प्रयोग कौतुहलवश कुन्ती ने सूर्य के आह्वान से किया। सूर्य तुरंत उपस्थित हो गए और दोनों के ससंर्ग से कर्ण जैसा तेजस्वी और जन्मजात कवचकुण्डलधारी पुत्र उत्पन्न हुआ। चूँकि कर्ण का जन्म कुन्ती के कुमारी अवस्था में ही हुआ अतः कुन्ती ने उसे नदी में प्रवाहित कर दिया जिसका राधा और अधिरथ के यहां पालन पोषण हुआ। इसी कारण कर्ण को सूत पुत्र तथा राधेय नामों से भी जाना गया।

    राजघराने का वारिस नहीं होने के कारण कर्ण को कई अवसर पर अपमान एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ा। पांडवों की शिक्षा पूरी होने के उपरान्त शस्त्र विद्या के प्रदर्शन के समय कर्ण द्वारा दी गयी चुनौती को इस कारण स्वीकार नहीं की गयी कि वह सूत पुत्र है। दुर्योधन द्वारा इसी अवसर पर उसे अंगदेश का राजा घोषित करते हुए कर्ण के सिर पर राजमुकुट डाल दिया। दुर्योधन के इस व्यवहार से कर्ण उनके ऋणी बन गए और जीवनपर्यन्त इस कृतज्ञता का ज्ञापन मैत्री, समर्थन एवं सदैव सहयोग के लिए तत्पर रहकर किया ही, अपना बलिदान देकर भी अपने सत्चरित्र का परिचय दिया। कर्ण और अर्जुन के बीच बैर भाव की नींव भी उसी समय पड़ गयी। मत्स्य भेदन के समय यह बैर और गहरा गया जब कर्ण द्वारा मत्स्य भेदन के बाद उसे सूतपुत्र कहकर द्रोपदी द्वारा विवाह करने से इंकार कर दिया गया। फिर अर्जुन द्वारा मत्स्य भेदन करने पर द्रोपदी ने उनका वरण किया। 

    धनुर्विद्या में प्रवीणता के साथ कर्ण महादानी भी थे। उनकी दानशीलता अपने चरमोत्कर्ष पर तब पहुंची जब इंद्र द्वारा मांगे जाने पर उन्होंने अपने शरीर से छीलकर कवच और कुण्डल का दान किया और महाभारत युद्ध के समय कुन्ती की याचना पर उन्होंने अर्जुन को छोड़कर सभी पाण्डव पुत्रों के जीवन का अभयदान दे दिया। कर्ण का जीवनादर्श बड़ा उच्च कोटि का था। वे त्याग और मैत्री को सर्वाधिक महत्व देते थे और यही जीवन आदर्श उनको अति उच्च कोटि का मानव बनाता है। कर्ण के जीवनादर्श बड़े ऊँचे थे। मैत्री को सर्वाधिक महत्व देने वाले कर्ण को महाभारत युद्ध से पहले कृष्ण ने उन्हें दुर्योधन को छोड़कर युधिष्ठिर के साथ आने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए। पांडवों का अग्रज बताकर सम्राट बनाने की बात कही, भारत का चक्रवर्ती राजा बनाने का वादा किया परन्तु कर्ण पर इस प्रलोभन का कोई असर नहीं पड़ा। वो तो हिमालय के समान अडिग थे, उन्हें दुर्योधन के हित के सिवा कुछ भी नहीं प्रिय नहीं था। एक बार का दुर्योधन द्वारा दिया गया सम्मान उन्हें चक्रवर्ती बनने से ज्यादा प्रिय लगा।

    कर्ण की दानशीलता ने महाभारत युद्ध की दिशा ही बदल दी। एक बार इंद्र को कवच कुण्डल देना और दूसरी ओर युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव को अभयदान देकर उन्होंने अपनी दानशीलता पर होने वाले आक्षेप से अपने को बचाया। कर्ण को भगवान कृष्ण के वास्तविक रूप का ज्ञान था, फिर भी अंत तक वे अपने सिद्धांत पर डटे रहे और उनके प्रतिपक्ष में ही बोलते रहे। कर्ण का वध छलपूर्वक किया गया। अपने रथ के चक्के को बाहर कर रहे थे तो कृष्ण के उकसावे पर अर्जुन ने अनीति से उसका वध कर दिया। इस प्रकार अंग देश सम्प्रति मुंगेर के सत्यनिष्ठ, पराक्रमी, दानशील एवं तेजोमय व्यक्तित्व का अंत हुआ।

         कर्ण की आराध्य देवी  दशभुजी  थीं . यह स्थान बिहार के मुंगेर के मंगल बाजार में अवस्थित है। जन श्रुति है कि यह प्रतिमा महाभारत काल की है. यह मूर्ति दानवीर राजा कर्ण की अधिष्ठात्री देवी रही है। वर्तमान स्थिति में मूर्ति की स्थापना के लगभग दौ वर्ष हो चुके हैं। पूरी मूर्ति काले रंग के एक ही पत्थर की बनी हुई है। नवरात्रि में लाखों भक्त यहां अपनी पूजा अर्चना करते हैं। यहां पर बलि प्रथा वर्जित है। पहले यह मूर्ति पूरबसराय के किसी स्थान पर थी जहां यह वर्षो तक अज्ञात पड़ी रही। कालान्तर में इसे अंग्रेजों के शासनकाल में बैलगाड़ी से छुपा कर ले जाया जा रहा था परन्तु वर्तमान स्थान पर जहां मूर्ति पदस्थापित है, उससे आगे बैलों ने चलना बंद कर दिया, परिणामस्वरूप लोगों ने इसे दैवी कृपा मानते हुए उस स्थान पर ही मूर्ति को स्थापित कर दिया, जहां एक विशाल मंदिर बनाया गया। मुंगेर स्थित शक्तिपीठ चण्डिका स्थान में कर्ण प्रतिदिन अपने को एक जलते तैल कड़ाह में डालते हुए देवी की आराधना करता था। इससे देवी प्रसन्न होकर कर्ण को सवा मन सोना देती थी तथा उसकी हर मनोकामना पूर्ण करने का वरदान देकर उसे श्री सम्पन्न बना देतीं थी। आज भी  दशभुजी देवी, चण्डिका स्थान तथा मां गंगा के बीच एक त्रिकोण है जिसे एक तांत्रिक स्थल के रूप में जाना जाता है। यहीं पर कर्णचौरा के रूप में विख्यात स्थान मुंगेर योगाश्रम बना है जो उसके तांत्रिक स्वरूप को और समृद्ध बना देता है। दशभुजी मंदिर का जीर्णोद्धार कर नया रूप दिया गया है। मंदिर का उत्तरोतर विकास हो रहा है। यहां सालों भर लोग पूजा के लिए आते हैं लेकिन शारदीय नवरात्र पर भक्तों की जबरदस्त भीड़ उमड़ती है।

    कुमार कृष्णन

    अमेरिका का संरक्षणवाद क्या अमेरिकी एकाधिकार को ख़त्म कर देगा ?

     पंकज जायसवाल

    हाल के वर्षों में अमेरिका ने वैश्विक व्यापार और प्रवासन नीतियों में कड़ा रुख अपनाया है। दरअसल, अमेरिकी प्रशासन ने अपने “अमेरिका फर्स्ट” एजेंडे के तहत बाहरी दुनिया से आने वाले सामान और टैलेंट पर कई तरह की बाधाएं लगाई हैं। एक ओर अमेरिका ने अपने इनलैंड में आयातित सामानों को महंगा करने के लिए टैरिफ बढ़ाए हैं जिससे विदेशी वस्तुएं महंगी हो जाएं और अमेरिकी उपभोक्ता अधिकतर घरेलू उत्पादों की ओर आकर्षित हों। दूसरी ओर, H1B वीज़ा और अन्य कार्य वीज़ाओं की लागत बढ़ाकर अमेरिका बाहर से आने वाले उच्चकुशल टैलेंट के लिए भी बाधाएं खड़ी कर रहा है। इस प्रकार अमेरिका अपने दरवाजे तो बंद कर रहा है, अपने चारों तरफ बैरियर को मजबूत कर रहा है लेकिन इस प्रक्रिया में  सवाल यह है कि क्या अपने आपको अलग थलग  करने की इस प्रक्रिया में क्या अमेरिका के पास खुद का अपना इतना टैलेंट है? खुद का इतना उत्पादन या अन्य देशों से आयात का विकल्प यदि है तो ठीक है अन्यथा कुछ वर्षों में यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था के एकाधिकार को ख़त्म कर देगा. विश्व इकॉनमी में पुनर्चिन्तन को जागृत कर अमेरिका ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है, यह उपरोक्त सवालों के हाँ या ना के जवाब पर निर्भर करेगा. ऐसा कैसे हो सकता है, इसका विश्लेषण करते  हैं.

    अमेरिका ने प्रमुख देशों से आयातित सामानों पर टैरिफ बढ़ाकर अपने बाजार को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने का प्रयास किया है। यह कदम अमेरिका के औद्योगिक और विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने की दृष्टि से समझा जा सकता है लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह रणनीति दीर्घकाल में अमेरिका के लिए लाभकारी रहेगी? टैरिफ के कारण अमेरिका में आयात महंगा हो गया है, इससे अमेरिकी कंपनियों के लिए भी कच्चा माल और मशीनरी की लागत बढ़ी है। इसके परिणामस्वरूप उनके उत्पादन की लागत बढ़ी है. इससे केवल अमेरिका में ही नहीं, वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अमेरिकी उत्पाद अन्य देशों के मुकाबले महंगे हो सकते हैं। परिणामस्वरूप अमेरिका में घरेलू महंगाई के साथ उसका निर्यात भी महंगा हो सकता है. अगर अमेरिका के पास इस आयात के बैरियर को रोकने के बाद भी सस्ते आयात या उत्पादन का विकल्प है तो ठीक है अन्यथा यह निर्णय इसके खिलाफ ही जाने वाला है.

    H1B वीज़ा महंगा करने से अमेरिका के इनोवेशन और शोध में बाधा आनी ही आनी है. आज अमेरिका का दुनिया में एकाधिकार है. उसके मूल में उसका रिसर्च और इनोवेशन पर निवेश है लेकिन इस क्षेत्र में वह तकनीक और उच्चकुशलता के लिए विदेशी टैलेंट पर निर्भर है। Silicon Valley और अन्य टेक हब में विदेशियों की बड़ी संख्या काम कर रही है। H1B वीज़ा महंगा और कठिन करने का मतलब यह हुआ कि अब कंपनियों को बाहरी टैलेंट ढूंढना मुश्किल होगा। अगर अमेरिका के पास खुद पर्याप्त उच्चकुशल कर्मचारियों का भंडार नहीं है तो यह कदम अमेरिकी नवाचार और तकनीकी विकास को धीमा कर सकता है और उसे तकनीक की सिरमौर स्थिति से नीचे गिरा सकता है।

    यह नीति अमेरिका की आत्मनिर्भरता बनाम एकाधिकार की स्थिति में उसके अगुवा की स्थिति में संकट ला सकती है. यह अमेरिका को “आत्मनिर्भर” बनाने की दिशा में एक प्रयास हो सकती है लेकिन इसके साथ ही यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था के वैश्विक एकाधिकार को खतरे में डाल सकती है। यदि अमेरिका को अपने घरेलू संसाधनों और टैलेंट पर भरोसा करना संभव हो तो यह रणनीति सफल हो सकती है लेकिन अगर उत्पादन और कुशल मानव संसाधनों की कमी रही तो कुछ वर्षों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपनी वैश्विक प्रभुता खो सकती है। उसके पास पहले से चल रहे अपने मेगा इनोवेटिव प्रोजेक्ट पर नए टैलेंट के आने की स्पीड धीमी हो सकती है. अमेरिकी शोध कंपनिया बुरी तरह से प्रभावित होंगी. इससे आउटसोर्स पुनः बढ़ेगा।

    अमेरिका की इन नीतियों ने वैश्विक आर्थिक सोच को पुनः जागृत किया है। अन्य देशों को यह स्पष्ट संदेश गया है कि अमेरिका अब अपने हितों को प्राथमिकता देने की ओर बढ़ रहा है। इससे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं, निवेश प्रवाह और अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौतों में बदलाव की संभावनाएं बढ़ गई हैं। कई देशों ने अब अमेरिका पर निर्भरता कम करने और अपनी उत्पादन और तकनीकी क्षमताओं को सुदृढ़ करने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया है।

    अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा और विकल्प के नए आयाम बनने शुरू हो गए हैं. यदि अमेरिका के पास पर्याप्त घरेलू उत्पादन और उच्चकुशल मानव संसाधन उपलब्ध हैं तो यह नीति दीर्घकाल में सफल हो सकती है लेकिन यदि विकल्प सीमित हैं और वैश्विक सहयोग और आयात आवश्यक है तो अमेरिका ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। वैश्विक अर्थव्यवस्था अब अमेरिका के संरक्षणवाद और स्वायत्तता की रणनीति को लेकर सतर्क है।

     संक्षेप में कहा जाए तो अमेरिका का संरक्षणवाद, टैरिफ और H1B में बाधाएं इस बात पर निर्भर करेगी कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पास खुद का पर्याप्त उत्पादन और टैलेंट है या नहीं। यदि है, तो यह कदम अमेरिका को और अधिक आत्मनिर्भर और प्रतिस्पर्धी बना सकता है। यदि नहीं, तो यह अमेरिकी वैश्विक प्रभुता और नवाचार की स्थिति को कमजोर कर सकता है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में पुनर्विचार को प्रेरित करने के साथ-साथ यह नीति अमेरिका के लिए दीर्घकालीन चुनौती भी बन सकती है।

     अमेरिका के इस कदम से यह सवाल अनिवार्य रूप से उठता है: क्या एक देश अपने दरवाजे बंद कर, बाहरी सहयोग और संसाधनों पर निर्भरता कम करके दीर्घकालिक रूप से स्थिर रह सकता है या यह उसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में कमजोर कर देगा? जवाब हाँ या नहीं में सीमित नहीं है बल्कि यह उस क्षमता और संसाधनों पर निर्भर करेगा जो अमेरिका के पास वास्तव में हैं।

     पंकज जायसवाल

    झूठे दुष्कर्म के मामलों में पिसता पुरुष समाज

    राजेश कुमार पासी

    जब दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था तो पूरे देश में महिलाओं से होने वाले दुष्कर्म के प्रति गुस्सा भर गया था और जनता सड़कों पर आ गई थी । इस कांड के बाद ही संसद ने ऐसे मामलों को रोकने के लिए सख्त कानून बनाया था लेकिन ऐसे मामले रुक नहीं रहे हैं । दुष्कर्म विरोधी कानून बनने के बाद महिलाओं से होने वाली दरिंदगी रूकने की बजाये बढ़ गई है । निर्भया कांड से पहले वैसी बर्बरता बहुत कम देखने को मिलती थी लेकिन इस कानून के बाद ऐसी बर्बरता बार-बार हो रही है लेकिन अब जनता को गुस्सा नहीं आता है । ऐसा लगता  है कि समाज को ऐसी बर्बरता की आदत पड़ गई है । कोई भी यह विचार करने को तैयार नहीं है कि निर्भया कांड के बाद बने कानून का कोई अच्छा असर हुआ है या नहीं ।

    देखने में आ रहा है कि इस कानून का अच्छा असर हुआ है या नहीं लेकिन बुरा असर जरूर हुआ है । कुछ महीने पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने सूरज प्रकाश नाम के एक व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर खारिज कर दी और कहा कि जिस प्रावधान के तहत एफआईआर दर्ज की गई है, वह महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य अपराधों में से एक है । अदालत का कहना था कि पुरुषों को अनावश्यक रुप से परेशान करने के लिए यह एक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है । एक ऐसे ही मामले में अदालत ने पाया कि एक 30 साल की महिला ने एक 20 साल के युवा पर यौन-शोषण का आरोप लगाया है जबकि वो उसके साथ पिछले चार सालों से लगातार संबंध बना रही थी । रिश्ता बिगड़ने पर उसने युवक पर दुष्कर्म करने का आरोप लगा दिया और उसके माता-पिता को भी सहआरोपी बना दिया । अदालत को युवक के माता-पिता को आरोपी बनाने पर महिला द्वारा लगाए गए आरोपों की सच्चाई पर शक हो गया । अदालत ने यह कहकर मामला खारिज कर दिया कि कोई युवा एक 30 साल की महिला का चार साल तक यौन शोषण कैसे कर सकता है ।

    ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई है जिसमें महिलाएं अपने पुरुष साथी पर शादी का झूठा वादा करके यौन शोषण का आरोप लगा देती हैं और पुरुष वर्षों तक जेल में सड़ता रहता है । मामला झूठा साबित होने में भी कई साल लग जाते हैं और पुरुष तब तक जेल में सड़ता रहता है । वास्तव में आज पुलिस और अदालत इस कानून के दुरुपयोग से अच्छी तरह से परिचित हैं, इसलिए पुरुषों की बात भी सुनी जाने लगी है । समस्या यह है कि पुरुषों को निचली अदालतों से राहत नहीं मिल रही है । ज्यादातर  मामलों में पुरूषों को राहत उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जाकर ही मिलती है । इस कानून पर सुप्रीम कोर्ट कई बार सवाल खड़े कर चुका है लेकिन निचली अदालतों पर ज्यादा असर नहीं हो रहा है ।

    महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की दृष्टि से देखा जाए तो दुष्कर्म बेहद पीड़ादायक होता है और इससे महिलाओं का उबर पाना सहज नहीं होता है । यह न केवल शारीरिक पीड़ा देकर जाता है बल्कि जीवन भर के लिए मानसिक पीड़ा में तड़पने के लिए महिला को छोड़ जाता है । यही कारण है कि पुलिस-प्रशासन और अदालत ऐसे मामलों को बेहद गंभीरता से लेते हैं । जब कोई महिला किसी पुरुष पर दुष्कर्म का आरोप लगाती है तो उसके बयान को ही अंतिम सत्य मान लिया जाता है । देखा जाए तो दुष्कर्म के मामलों में पुलिस-प्रशासन और अदालतें पुरुषों के प्रति एक पूर्वाग्रह से भरी  रहती है कि दुष्कर्म का आरोप लगा है तो पुरुष  ही दोषी होगा । इसके कारण पुलिस और अदालतें पुरूषों के प्रति संवेदनहीन हो जाती हैं और सही तरीके से जांच भी नहीं होती है । पुलिस पर जल्दी से जल्दी आरोपपत्र दाखिल करने का दबाव होता है ताकि पुरुष को सजा सुनाई जा सके । अगर ऐसा मामला किसी गरीब व्यक्ति के खिलाफ दर्ज हो जाए तो उसकी सारी उम्र जेल  में बीत सकती है क्योंकि वो अपने लिए कोई अच्छा वकील भी नहीं कर सकता । सच यह है कि अगर किसी महिला के साथ दुष्कर्म होना बेहद  पीड़ादायक है तो किसी पुरुष के ऊपर झूठा दुष्कर्म का आरोप लगना उससे भी ज्यादा पीड़ादायक है । अगर दुष्कर्म महिला को शारीरिक और मानसिक चोट पहुंचाता है तो पुरुष को दुष्कर्म का झूठा केस उससे भी ज्यादा पीड़ा पहुंचाता है । 

                    समस्या यह है कि पुरुष को झूठे मामले में भी निर्दोष साबित होने तक चार-पांच साल या इससे भी ज्यादा जेल में गुजारने पड़ते हैं और जेल से छूटने के बाद भी समाज उसको निर्दोष नहीं मानता  ।  पिछले कुछ वर्षों से शादी का झूठा वादा करके दुष्कर्म करने के आरोपों की बाढ़ आ गई हैं । ऐसे ज्यादातर मामलों में पीड़िता और आरोपी लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे होते हैं । जब किसी कारणवश शादी नहीं हो पाती है तो लड़कियां अपने प्रेमी पर शादी का झूठा वादा करके संबंध बनाने के आरोप लगा देती है । कई मामलों में तो देखा जा रहा है कि लड़का-लड़की कई वर्षों तक साथ रहते हैं और जब उनका रिश्ता किसी कारणवश टूट जाता है तो लड़की बदला लेने के लिए लड़के पर शादी का झूठा वादा करके संबंध बनाने का आरोप लगा देती है । कई मामलों में पुरूष विवाहित होता है तो कई बार दोनों विवाहित होते हैं. इसके बावजूद शादी के नाम पर दुष्कर्म का मामला दर्ज करवा दिया जाता है ।  शादी के वादे पर किसी के साथ संबंध बनाना दुष्कर्म कैसे हो सकता है लेकिन कानून इस मामले में महिलाओं के साथ है । अगर संबंध सहमति से बन रहे हैं तो फिर दुष्कर्म का केस क्यों दर्ज किया जाता है ।

     दुष्कर्म सिर्फ जबरन बनाए गए संबंधों को ही माना जाना चाहिए लेकिन कानून की परिभाषा अलग है । ऐसा कोई कानून नहीं है जिसमें महिला शादी का झूठा वादा करके संबंध बनाती है तो उसके खिलाफ केस दर्ज किया जा सके । भारतीय संस्कृति शादी के बाद ही संबंध बनाने की बात करती है. अगर शादी के वादे पर संबंध बनाए जा रहे हैं तो दोनों ही बराबर के दोषी हैं । अब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों पर संज्ञान लेते हुए कहा है कि शादी के झूठे वादे पर संबंध बनाना,  दुष्कर्म तब ही माना जाएगा जब संबंध बनाने से पहले ही पुरुष की मंशा  शादी करने की न हो । अदालत  का कहना है कि हो सकता है कि  पुरुष शादी करना चाहता हो लेकिन कुछ समय बाद परिस्थितियां बदल  गई हों और वो शादी न कर पा रहा हो । अगर उसने कुटिलता से महिला को अपने प्रेम जाल में फंसाकर उसका यौन शोषण किया हो तो ऐसे मामलों में ही दुष्कर्म का केस दर्ज किया जाएगा । जिस मामले में यह दिखाई दे रहा हो कि पुरुष की मंशा तो शादी करने की थी लेकिन वो परिस्थितियों के कारण अपना वादा पूरा नहीं कर पा रहा है, उस मामले में पुरूष के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया जाएगा । 

                    दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अगर दो वयस्क  (चाहे उनमें से एक शादीशुदा ही क्यों न हो) आपसी सहमति से साथ रहते हैं या संबंध बनाते हैं तो उन्हें उसके परिणाम की जिम्मेदारी भी स्वीकारनी होगी । रिश्ता खराब होने के बाद उसे दुष्कर्म जैसे अपराध में बदलना ठीक नहीं है । अदालत ने नोट किया कि महिला शुरू से ही आरोपित की शादीशुदा स्थिति से वाकिफ थी, फिर भी दो वर्षों तक संबंध रखा । अदालत का कहना था कि किसी के शादीशुदा होने के बावजूद जब एक शिक्षित महिला अपनी मर्जी से किसी के साथ संबंध बनाती है तो उसे यह भी समझना चाहिए कि रिश्ता हमेशा विवाह में नहीं बदलता, कभी-कभी टूट भी सकता है । ऐसे मामलों में कानून का सहारा नहीं लेना चाहिए । वास्तव में महिलाएं बदला लेने के लिए दुष्कर्म के कानून का इस्तेमाल कर रही हैं ।

    सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में सतर्कता बरतने के लिए चार कदम उठाने के निर्देश दिए हैं । हाई कोर्ट के सामने जब ऐसा मामला आएगा तो उसे आरोपी से उसकी बेगुनाही के सबूत मांगने होंगे । सबसे पहले यह देखना होगा कि आरोपी द्वारा पेश किए गये सबूत, गवाह और तर्क विश्वसनीय  और अच्छी गुणवत्ता के हैं । दूसरे कदम में हाई कोर्ट को देखना होगा कि इसके आधार पर आरोपी निर्दोष साबित होता है । तीसरे कदम में हाई कोर्ट को देखना होगा कि महिला उन सबूतों को नकारती है या नहीं । चौथे कदम के रूप में हाई कोर्ट को यह देखना होगा कि अगर मामला आगे बढ़ता है तो आरोपी निर्दोष साबित हो सकता है । अगर चारों कदम उठाने के बाद हाई कोर्ट को सकारात्मक जवाब मिलता है तो हाई कोर्ट अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए मामले को खारिज कर सकता है । इससे न केवल एक निर्दोष व्यक्ति बेवजह जेल जाने से बच जाएगा बल्कि पुलिस और अदालत का वक्त भी  बर्बाद नहीं होगा ।

     मेरा मानना है कि यह काफी नहीं है । इस तरह के मामलों पर तब ही लगाम लगाई जा सकती है जब झूठे केस दर्ज करवाने वाली महिलाओं को भी सजा मिले । एक मामले में अदालत ने झूठा केस दर्ज करवाने के बदले में महिला को चार साल के लिए जेल भेज दिया था क्योंकि आरोपी को चार साल तक जेल में रहना पड़ा था । अगर अदालतें झूठे मामले दर्ज करवाने पर सजा देने लग जाएं तो ऐसे मामले आने बंद  हो जायेंगे । मेरा मानना है कि इस कानून में सुधार की बहुत जरूरत है । पुरूषों के खिलाफ कार्यवाही सिर्फ  महिला की शिकायत के आधार पर नहीं होनी चाहिए ।

    राजेश कुमार पासी

    संवादहीनता: परिवार और समाज की चुनौती

    आज के व्यस्त और डिजिटल जीवन में संवादहीनता परिवार और समाज की बड़ी चुनौती बन गई है। बातचीत की कमी भावनात्मक दूरी, गलतफहमियाँ और मानसिक तनाव बढ़ाती है। परिवार में बच्चे और बड़े एक-दूसरे की भावनाओं को साझा नहीं कर पाते, जबकि समाज में सहयोग और सामूहिक प्रयास कमजोर पड़ते हैं। इसका समाधान नियमित संवाद, साझा गतिविधियाँ, सकारात्मक सुनना और डिजिटल सीमाएँ तय करना है। संवादिता केवल बातचीत नहीं, बल्कि विश्वास, समझ और संबंधों की नींव है। इसे प्राथमिकता देकर हम परिवार और समाज को मजबूत और भावनात्मक रूप से स्वस्थ बना सकते हैं।

    – डॉ सत्यवान सौरभ

    आज का समय बहुत तेजी से बदल रहा है। तकनीकी प्रगति और व्यस्त जीवनशैली ने हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाया है, लेकिन इसके साथ ही एक गंभीर समस्या भी सामने आई है – संवाद हीनता। संवाद हीनता का अर्थ है बातचीत और विचारों के आदान-प्रदान की कमी। यह केवल शब्दों की कमी नहीं है, बल्कि एक ऐसी स्थिति है जिसमें लोग अपनी भावनाओं, समस्याओं और अनुभवों को साझा नहीं कर पाते। परिवार, मित्रता और समाज सभी पर इसका गहरा असर पड़ता है।

    परिवार जीवन का वह आधार है जहाँ बच्चे और बड़े अपने अनुभव साझा करते हैं और आपसी समझ विकसित करते हैं। लेकिन आज, व्यस्त जीवन, डिजिटल साधनों का अधिक प्रयोग और पीढ़ियों के अंतर ने पारिवारिक संवादिता को कमजोर कर दिया है। माता-पिता अपने काम और जिम्मेदारियों में इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों के साथ समय बिताना मुश्किल हो जाता है। वहीं, बच्चे स्कूल, कोचिंग और मोबाइल की दुनिया में उलझे रहते हैं। परिणामस्वरूप, घर में बैठकर खुलकर बातचीत करना लगभग कम होता जा रहा है।

    डिजिटल दुनिया ने जीवन को आसान बनाया है, लेकिन इसके दुष्परिणाम भी हैं। स्मार्टफोन, टीवी और सोशल मीडिया ने परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे से दूर कर दिया है। युवा सदस्य अधिक समय इन माध्यमों में व्यतीत करते हैं और आमने-सामने संवाद कम हो जाता है। ऐसे संवाद अक्सर सतही हो जाते हैं और भावनाओं की गहराई को व्यक्त नहीं कर पाते।

    पीढ़ियों का अंतर भी संवाद में बाधा डालता है। बुजुर्ग अनुभव और परंपरा पर भरोसा करते हैं, जबकि युवा आधुनिक दृष्टिकोण और स्वतंत्रता की ओर अधिक झुकाव रखते हैं। यह अंतर कभी-कभी परिवार में गलतफहमी और असहमति को जन्म देता है। छोटे-छोटे झगड़े या आलोचना भी भावनात्मक दूरी बढ़ा देती है और परिवार में मानसिक तनाव उत्पन्न करती है।

    संवाद हीनता केवल परिवार तक सीमित नहीं है। समाज में भी लोग अपनी राय, शिकायत या सुझाव साझा नहीं करते। इससे सहयोग और सामूहिक प्रयास कमजोर पड़ते हैं और गलतफहमियाँ बढ़ती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी मोहल्ले में सफाई या सुरक्षा संबंधी समस्या को साझा नहीं किया जाता, तो समाधान कठिन हो जाता है और विवाद पैदा हो सकते हैं।

    खामोशी का असर: परिवार और समाज पर संवादहीनता का बोझ

    संवाद हीनता के कई कारण हैं। व्यस्त जीवनशैली, डिजिटल उपकरणों का अत्यधिक उपयोग, डर या शर्म की भावना, मानसिक तनाव, सामाजिक दूरी और पीढ़ियों के बीच अंतर—ये सभी मिलकर लोगों को खुलकर संवाद करने से रोकते हैं। इसके नकारात्मक प्रभाव व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर दिखाई देते हैं। व्यक्ति में अकेलापन और मानसिक तनाव बढ़ता है, आत्मविश्वास कमजोर पड़ता है। परिवार में विश्वास और समझ की कमी होती है। समाज में सहयोग और सामूहिक प्रयास कम हो जाते हैं।

    इस समस्या को दूर करने के लिए कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं। सबसे पहले, नियमित संवाद का समय निर्धारित करना जरूरी है। परिवार के साथ भोजन, चाय या वीकेंड पर बातचीत को प्राथमिकता दी जा सकती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है सुनने और समझने की आदत। आलोचना से बचकर, एक-दूसरे की बात ध्यानपूर्वक सुनना और समझना संवादिता को बढ़ाता है। तीसरी बात है साझा गतिविधियों का महत्व। खेल, यात्रा, हॉबीज़ या सामाजिक कार्यों में परिवार और दोस्तों को शामिल करने से संवाद प्राकृतिक रूप से बढ़ता है।

    डिजिटल उपकरणों का संतुलित उपयोग भी जरूरी है। मोबाइल और टीवी से समय निकालकर आमने-सामने बातचीत को प्राथमिकता देना चाहिए। साथ ही, अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त करना भी आवश्यक है। डर या शर्म के कारण अपनी भावनाओं को दबाना संवादिता को और कमजोर करता है। बच्चों को भी अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

    संक्षेप में, संवादिता जीवन का वह आधार है जो रिश्तों, विश्वास और सहयोग को मजबूत करती है। संवाद हीनता केवल बातचीत की कमी नहीं है, बल्कि परिवार और समाज की संरचना को प्रभावित करने वाली गंभीर समस्या है। इसे समय रहते पहचानना और समाधान करना आवश्यक है। खुली बातचीत, सकारात्मक सुनना और साझा गतिविधियाँ न केवल परिवार और समाज को मजबूती देती हैं, बल्कि व्यक्तिगत विकास और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं।

    आज की चुनौती यह है कि हम अपनी व्यस्तता, डिजिटल साधनों और पीढ़ियों के अंतर के बावजूद संवादिता को प्राथमिकता दें। संवादिता ही वह माध्यम है जो हमें एक-दूसरे के करीब लाती है, समझ को गहरा करती है और समाज में सामूहिक सहयोग को बढ़ावा देती है। परिवार और समाज तभी सशक्त रह सकते हैं जब संवादिता मौजूद हो और इसे बढ़ावा दिया जाए। यही हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता और जिम्मेदारी है।

    अमेरिकी आत्मघाती वीजा बंदिशें, भारत के नये अवसर

    – ललित गर्ग –

    अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया भर के पेशेवरों, खासकर भारतीयों के सपनों पर एक नई काली छाया डाल दी है, उनके सपनों को चकनाचूर कर दिया है एवं एक बड़ा संकट खड़ा दिया है। 21 सितंबर की रात 12 बजे के बाद अमेरिका में प्रवेश करने वालों को एच1बी वीज़ा प्राप्त करने के लिए लगभग एक लाख डॉलर यानी करीब 88 लाख रुपये सालाना शुल्क देना होगा। यह निर्णय केवल एक प्रशासनिक आदेश नहीं, बल्कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा, प्रतिभा-प्रवास और अमेरिका-भारत संबंधों पर गहरा प्रभाव डालने वाला कदम है। अमेरिका के इस कदम के बाद भारत को अपनी आत्म-निर्भरता, स्वदेशी भावना एवं देश की प्रतिभाओं का देश में ही उपयोग को बल देना होगा। भारत अब दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने की ओर अग्रसर होने के साथ अवसरों की भूमि बन रहा है। इसलिये अमेरिका के निर्णय से ज्यादा परेशान होने की बजाय इसको सकारात्मक दृष्टि से लेने की जरूरत है।
    निश्चित ही अमेरिका दशकों से अवसरों की भूमि माना जाता रहा है। यहां आने का सपना रखने वालों के लिए एच1बी वीज़ा एक सुनहरा टिकट एवं उन्नत जीवन का आधार रहा है। हर साल हजारों भारतीय इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक और तकनीकी विशेषज्ञ इस वीज़ा के माध्यम से अमेरिका जाकर अपने सपनों को साकार करते रहे हैं। सिलिकॉन वैली की चमक और वहां भारतीय प्रतिभाओं का वर्चस्व इसका जीता-जागता प्रमाण है। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, आईबीएम और फेसबुक जैसी दिग्गज कंपनियों में उच्च तकनीकी पदों पर भारतीय मूल के लोगों की उपस्थिति सर्वाधिक है। भारतीय आईटी पेशेवरों के बिना अमेरिकी तकनीकी जगत की कल्पना करना कठिन है। एच-1 बी वीजा की फीस में अप्रत्याशित वृद्धि का फैसला भारतीय आइटी कंपनियों के साथ अमेरिकी हितों को भी चोट पहुंचाने वाला है। इनमें आइटी सेक्टर से इतर क्षेत्र की कंपनियां भी हैं। इसका प्रमाण यह है कि उनके फैसले की आलोचना अनेक अमेरिकी ही कर रहे हैं। यदि ट्रंप यह सोच रहे हैं कि एच-1बी वीजा धारकों की फीस एक हजार डालर से एक लाख डालर सालाना करने से भारतीय और अमेरिकी कंपनियां अमेरिका के युवाओं को नौकरी देने के लिए बाध्य हो जाएंगी तो यह उनकी भूल है, क्योंकि इन कंपनियों को जैसे और जितने सक्षम युवा पेशेवर चाहिए, वे अमेरिका में हैं ही नहीं। अमेरिकी राष्ट्रपति यह भी भूल रहे हैं कि अमेरिका के आर्थिक विकास में अप्रवासियों विशेषतः भारतीय प्रतिभाओं का सर्वाधिक योगदान है और यह केवल पेशेवर लोगों का ही नहीं, बल्कि कामगारों का भी है।
    भले ही ट्रंप प्रशासन का यह आदेश उनकी “अमेरिका फर्स्ट” नीति की अगली कड़ी है। उनका तर्क है कि विदेशी पेशेवर सस्ते श्रम के रूप में अमेरिकी नागरिकों की नौकरियां छीन रहे हैं। शुल्क इतना अधिक करके वे चाहते हैं कि केवल वही विदेशी पेशेवर अमेरिका आएं, जो न केवल उच्च योग्यता रखते हों बल्कि भारी शुल्क अदा करने की क्षमता भी रखते हों। लेकिन यह कदम अमेरिका के लिये ही आर्थिक दृष्टि से आत्मघाती साबित हो सकता है, क्योंकि अमेरिकी कंपनियों को उच्च कौशल वाले पेशेवरों की भारी ज़रूरत है और भारतीय आईटी पेशेवरों की कमी वहां सीधे तौर पर नवाचार और प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करेगी। ट्रंप के फैसले को आपदा नहीं, बल्कि अवसर के रूप में देखना चाहिए।
    पहले भारतीय प्रतिभा अमेरिका की ओर बहती थी, अब यह प्रवाह कनाडा, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर की ओर मुड़ सकता है। छात्र और युवा पेशेवर पहले से ही अमेरिकी वीज़ा नीतियों को लेकर असमंजस में रहते थे। अब यह आदेश उनके आत्मविश्वास और योजनाओं को और झकझोर देगा। हालांकि एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि कई युवा भारत में ही स्टार्टअप्स, शोध और नई तकनीक के क्षेत्रों में काम करने की ओर आकर्षित होंगे। भारत पर इस नीति का असर केवल युवाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यापक सामाजिक-आर्थिक असर डाल सकता है। भारतीय आईटी कंपनियां जैसे इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो आदि अमेरिका में बड़े पैमाने पर कार्यरत हैं। एच1बी वीज़ा पर निर्भरता ज्यादा होने के कारण उनका खर्च बढ़ेगा और प्रतिस्पर्धा कमजोर होगी। भारतीय पेशेवर हर साल अरबों डॉलर भारत भेजते हैं, वीज़ा बाधाओं से यह प्रवाह घटेगा। हजारों भारतीय छात्र अमेरिका में उच्च शिक्षा लेकर वहीं काम करने का सपना देखते हैं। अब शुल्क की बाधा उनके लिए अमेरिका को कम आकर्षक बनाएगी। साथ ही भारत में ही वैश्विक स्तर के शोध और नवाचार केंद्र विकसित करने की संभावना भी बढ़ेगी।
    अमेरिका और भारत के संबंध बीते दो दशकों में आर्थिक, रणनीतिक और तकनीकी सहयोग की नई ऊँचाइयों पर पहुंचे हैं। अमेरिका ने भारत को रणनीतिक साझेदार माना है। रक्षा, व्यापार और तकनीक में गहरे संबंध बने हैं और भारतीय प्रवासी अमेरिकी राजनीति और अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लेकिन ट्रंप के निर्णय से यह संदेश गया है कि अमेरिका भारत को साझेदार तो मानता है, लेकिन जब घरेलू राजनीति का दबाव आता है तो साझेदारी पीछे छूट जाती है। भारत-अमेरिका संबंधों का आधार लोगों से लोगों का संपर्क रहा है। यदि भारतीय पेशेवर अमेरिका में कम होते हैं तो यह आधार कमजोर होगा। इन जटिल से जटिलतर होती स्थितियों में भारतीय कंपनियों को देश में ही अपना कारोबार बढ़ाने के जतन करने चाहिए, क्योंकि आने वाले समय में ट्रंप कुछ और ऐसे कदम भारतीय हितों को आहत करने वाले उठा सकते हैं। उन्होंने भले ही टैरिफ के मामले में लचीला रवैया अपनाते हुए भारत से शीघ्र व्यापार समझौता होने की संभावना जताई हो, लेकिन वे अब भी भारतीय हितों के विपरीत काम करते दिख रहे हैं। वे केवल यही दबाव नहीं बना रहे कि भारत रूस से तेल खरीदना बंद करे, बल्कि उन्होंने ईरान के चाबहार बंदरगाह में भारत के लिए मुसीबत खड़ी करने का काम किया है। ट्रंप अपने फैसलों को इस रूप में रेखांकित कर रहे हैं कि उनसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पंख लग जाएंगे, लेकिन आठ माह का उनका कार्यकाल उनकी नाकामी ही बयान कर रहा है।
    चौंकाने वाले फैसले लेना भले ही ट्रंप की आदत हो, लेकिन सेवा क्षेत्र में पहली बार अपनी संरक्षणवादी नीति के दर्शन करा, वह भूल रहे हैं कि अमेरिका को बनाने में अप्रवासियों की बड़ी भूमिका रही है। सिलिकॉन वैली के करीब एक-तिहाई टेक-कर्मचारी भारतीय मूल के हैं। फॉर्च्यून 500 की लगभग डेढ़ दर्जन कंपनियों में शीर्ष पर भारतीय बैठे हैं, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के इंजन भी हैं। 2024 में 72 यूनिकॉर्न स्टार्टअप भारतीय मूल के लोगों के थे, जिनका कुल मूल्य करीब 195 अरब डॉलर आंका गया था। इन कंपनियों में अमेरिकी भी काम करते हैं। अमेरिकी आबादी में बमुश्किल डेढ़ फीसदी होने के बावजूद भारतीय पांच से छह फीसदी कर अदा करते हैं। नैसकॉम का यह कहना उचित ही है कि एच-1बी वीजा जैसे फैसलों का नकारात्मक असर अमेरिका में नवाचार के माहौल और रोजगार आधारित अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
    दुनिया के अन्य देशों की नीतियों से तुलना की जाए तो कनाडा प्रवासी पेशेवरों और छात्रों को आकर्षित करने के लिए वीज़ा और स्थायी निवास की नीतियों को सरल बना रहा है। जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया तकनीकी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए रेड कार्पेट बिछा रहे हैं, जबकि अमेरिका उल्टा रास्ता चुन रहा है जो दीर्घकाल में उसे वैश्विक प्रतिभा की कमी की ओर धकेल सकता है। भारत के लिए यह अवसर है कि वह प्रतिभाओं के पलायन को रोकने के लिए अपनी नीतियों और बुनियादी ढांचे को सशक्त बनाए। शिक्षा, शोध और स्टार्टअप संस्कृति को बढ़ावा देकर भारत अमेरिका के विकल्प के रूप में उभर सकता है। अमेरिका के लिए यह कदम उसके उस आदर्श को धूमिल करेगा जिसके अनुसार वह इमिग्रेशन की भूमि कहलाता है और उसकी वैश्विक नेतृत्व क्षमता को कमजोर करेगा। रवींद्रनाथ टैगोर की ये पंक्तियाँ यहां सार्थक लगती हैं-“स्वतंत्रता वह है, जहां ज्ञान निर्भय होता है और दुनिया सीमाओं से विभाजित नहीं होती।” अमेरिका की यह दीवार प्रतिभा की उड़ान को थाम नहीं पाएगी। भारतीय युवाओं को अब अपने ही देश को अवसरों की भूमि में बदलना होगा।