आश्विन शरद नवरात्रि दिनांक 22 सितम्बर सोमवार से प्रारंभ होगा। इस बार नवरात्रि 10 दिनों की रहेगी। दुर्गाष्टमी 30 सितम्बर को रहेगी। दुर्गा नवमी 1 अक्टूबर की रहेगी। इस बार मां दुर्गा का आगमन सोमवार के दिन हो रहा है, इसलिए इस बार उनका वाहन हाथी होगा। मान्यता है कि हाथी पर आगमन होने से सुख समृद्धि और शांति की प्राप्ति होती है। माताजी की घट स्थापना के शुभ मुहूर्त्त इस प्रकार हैं –
अमृत वेला प्रातः 6.23 से 7.53 बजे तक
शुभ वेला प्रातः 9.23 से 10.53 बजे तक
अभिजित वेला दोप. 11.59 से 12.47 बजे तक
चल वेला दोप. 1.53 से 2.23 बजे तक
लाभ वेला दोप. 2.23 से 4.52 बजे तक
अमृत वेला दिन में 4.52 से सायं 6.22 बजे तक।
माताजी की घट स्थापना के शुभ मुहूर्त्त
अनुत्तरित सवाल है सीमावर्ती राज्यों में घुसपैठ
संदर्भः- असम में घुसपैठ और बदलती जनसांख्यिकी पर प्रधानमंत्री मोदी का बयान-
प्रमोद भार्गव
अनुत्तरित सवालों को नए ढंग से राजनीतिक मुद्दों में बदलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विलक्षण षैली रही है। इस परिप्रेक्ष्य में जम्मू-कश्मीर को विशेश दर्जा देने वाली धारा-370, 35-ए, तीन तलाक और राम मंदिर जैसे आजादी के बाद से अनुत्तरित चले आ रहे प्रश्नों के समाधान के बाद मोदी ने असम की धरती से घुसपैठ करने और कराने वालों को कड़ा संदेश दिया है। उन्होंने दरांग में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठियों की मदद से जनसांख्यिकीय घनत्व बदलने की साजिश चल रही है, जो राश्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है। हमारी सरकार घुसपैठियों को देश के साधन-संसाधन पर कब्जा नहीं करने देगी।‘ घुसपैठियों को मदद देने वालों को सीधी चुनौती देते हुए मोदी ने कहा, ‘घुसपैठियों को हटाने में हम अपना जीवन लगा देंगे। घुसपैठियों को पनाह देने वालों को देश कभी माफ नहीं करेगा। कांग्रेस जब सत्ता में थी, तब इन्हें संरक्षण देती रही, जिससे घुसपैठिए हमेशा भारत में बस जाएं और भारत का राजनीतिक भविश्य तय करें। कांग्रेस के लिए देशहित से बड़ा, अपने वोट-बैंक का हित रहा है। किंतु अब यह नहीं चलेगा।‘
बंगाल, असम और पूर्वोत्तर राज्यों में स्थानीय बनाम विदेशी नागरिकों का मसला एक बड़ी समस्या बन गया है। जो यहां के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक जीवन को लंबे समय से झकझोर रहा है। असम के लोगों की शिकायत है कि बांग्लादेश म्यांमार से बड़ी संख्या में घुसपैठ करके आए मुस्लिमों ने उनके न केवल आजीविका के संसाधनों को हथिया लिया है, बल्कि कृषि भूमि पर भी काबिज हो गए हैं। इस कारण राज्य का जनसंख्यात्मक घनत्व बिगड़ रहा है। लिहाजा यहां के मूल निवासी बोडो आदिवासी और घुसपैठियों के बीच जानलेवा हिंसक झड़पें भी होती रहती हैं। नतीजतन अवैध और स्थाई नागरिकों की पहचान के लिए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिकता पत्रक बनाने की पहल हुई। इस निर्देश के मुताबिक 1971 से पहले असम में रह रहे लोगों को मूल नागरिक माना गया है। इसके बाद के लोगों को अवैध नागरिकों की सूची में दर्ज किया गया है। इस सूची के अनुसार 3.29 करोड़ नागरिकों में से 2.89 करोड़ लोगों के पास नागरिकता के वैध दस्तावेज हैं। शेष रह गए 40 लाख लोग फिलहाल अवैध नागरिकों की श्रेणी में रखे गए हैं। इस तरह के संवेदनशील मामलों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। दरअसल घुसपैठिए अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाते हैं, तो यह उन राजनीतिक दलों को वजूद बचाए रखने की दृष्टि से खतरे की घंटी है, जो मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करते हुए घुसपैठ को बढ़ावा देकर अवैध नागरिकता को वैधता देने के उपाय करते रहे हैं।
असम में अवैध घुसपैठ का मामला नया नहीं है। 1951 से 1971 के बीच राज्य में मतदाताओं की संख्या अचानक 51 प्रतिशत बढ़ गई। 1971 से 1991 के बीच यह संख्या बढ़कर 89 फीसदी हो गई। 1991 से 2011 के बीच मतदाताओं की तादात 53 प्रतिशत बढ़ी। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से यह भी देखने में आया कि असम में हिंदू आबादी तेजी से घटी है और मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ी है। 2011 की जनगणना में मुस्लिमों की आबादी और तेजी से बढ़ी। 2001 में जहां यह बढ़ोत्तरी 30.9 प्रतिशत थी, वहीं 2011 में बढ़कर 34.2 प्रतिशत हो गई। जबकि देश के अन्य हिस्सों में मुस्लिमों की आबादी में बढ़ोत्तरी 13.4 प्रतिशत से 14.2 फीसदी तक ही हुई। असम में 35 प्रतिशत से अधिक मुस्लिमों वाली 2001 में विधानसभा सीटें 36 थी, जो 2011 में बढ़कर 39 हो गईं। गौरतलब है कि 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्र होने के बाद से 1991 तक हिंदुओं की जनसंख्या में 41.89 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि इसी दौरान मुस्लिमों की जनसंख्या में 77.42 फीसदी की बेलगाम वृद्धि दर्ज की गई। इसी तरह 1991 से 2001 के बीच असम में हिंदुओं की जनसंख्या 14.95 प्रतिशत बढ़ी, जबकि मुस्लिमों की 29.3 फीसदी बढ़ी। इस घुसपैठ के कारण असम में जनसंख्यात्मक घनत्व गड़बड़ा गया और सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला षुरू हो गया। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा बोडो आदिवासियों ने भुगता। इसी के दुष्फल स्वरूप कई बोडो उग्रवादी संगठन अस्तित्व में आ गए।
बांग्लादेशी घुसपैठियों की तादाद बक्सा, चिरांग, धुबरी और कोकराझार जिलों में सबसे ज्यादा है। इन्हीं जिलों में बोडो आदिवासी हजारों साल से रहते चले आ रहे हैं। लिहाजा बोडो और मुस्लिमों के बीच रह-रहकर हिंसक वारदातें होती रही हैं। पिछले 18 साल में ही हिंसा की 15 बड़ी घटनाएं घटी हैं। जिनमें 600 से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। घटनाएं घटने के बावजूद इस हिंसा का संतोशजनक पहलू यह रहा है कि हिंसा के मूल में हिंदू, ईसाई, बोडो आदिवासी और आजादी के पहले से रह रहे पुश्तैनी मुसलमान नहीं हैं। विवाद की जड़ में स्थानीय आदिवासी और घुसपैठी मुसलमान हैं।
इन धुसपैठियों को भारतीय नागरिकता देने के काम में असम राज्य कांग्रेस की राश्ट्र विरोधी भूमिका रही है। घुसपैठियों को अपना वोट बैंक बनाने के लिए कांग्रेसियों ने इन्हें बड़ी संख्या में मतदाता पहचान पत्र एवं राशन कार्ड तक हासिल कराए। नागरिकता दिलाने की इसी पहल के चलते घुसपैठिए कांग्रेस को झोली भर-भर के वोट देते रहे हैं। कांग्रेस की तरूण गोगाई सरकार इसी बूते 15 साल सत्ता में रही। लेकिन लगातार घुसपैठ ने कांग्रेस की हालत पतली कर दी थी। फलस्वरूप भाजपा सत्ता में आ गई। इस अवैध घुसपैठ के दुश्प्रभाव पहले अलगाववाद के रूप में देखने में आ रहे थे, लेकिन बाद में राजनीति में प्रभावी हस्तक्षेप के रूप में बदल गए। इन दुश्प्रभावो को पूर्व में सत्तारूढ़ रहा कांग्रेस का केंद्रीय व प्रांतीय नेतृत्व जानबूझकर वोट बैंक बनाए रखने की दृश्टि से अनदेखा करता रहा है। लिहाजा धुबरी जिले से सटी बांग्लादेश की जो 134 किलोमीटर लंबी सीमा-रेखा है उस पर कोई चौकसी नहीं है। नतीजतन घुसपैठ आसानी से जारी है। असम को बांग्लादेश से अलग ब्रह्मपुत्र नदी करती है। इस नदी का पाट इतना चौड़ा और दलदली है कि इस पर बाड़ लगाना या दीवार बनाना नामुमकिन है। केवल नावों पर सशस्त्र पहरेदारी के जरिए घुसपैठ को रोका जाता है। लेकिन अब नरेंद्र मोदी और असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व सरमा के घुसपैठियों के विरुद्ध कड़े रुख के चलते इनकी वापसी भी षुरू हुई है।
दरअसल 1971 से ही एक सुनियोजित योजना के तहत पूर्वोत्तर भारत, बंगाल, बिहार और दूसरे प्रांतों में घुसपैठ का सिलसिला जारी है। म्यांमार से आए 60,000 घुसपैठिए रोहिंग्या मुस्लिम भी कश्मीर, बेंगलुरु और हैदराबाद में गलत तरीकों से भारतीय नागरिक बनते जा रहे हैं। जबकि कश्मीर से हिंदू, सिख और बौद्धों को धकिया कर पिछले 3 दशक से शरणार्थी बने रहने को विवश कर दिया है। प्रधानमंत्री राजीव गांधी सरकार ने तत्कालीन असम सरकार के साथ मिलकर फैसला लिया था कि 1971 तक जो भी बांग्लादेशी असम में घुसे हैं, उन्हें नागरिकता दी जाएगी और बाकी को भारत की जमीन से निर्वासित किया जाएगा। इस फैसले के तहत ही अब तक सात बार एनआरसी ने नागरिकों की वैध सूची जारी करने की कोशिश की, लेकिन मुस्लिम वोट-बैंक की राजनीति के चलते कांग्रेस, वामपंथी और तृणमूल एनआरसी का विरोध करते रहे हैं।
बांग्लादेश के साथ भारत की कुल 4097 किलोमीटर लंबी सीमा-पट्टी है, जिस पर जरूरत के मुताबिक सुरक्षा के इंतजाम नहीं हैं। इस कारण गरीबी और भुखमरी के मारे बांग्लादेशी असम में घुसे चले आते हैं। क्योंकि यहां इन्हें कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल अपने-अपने वोट बैंक बनाने के लालच में भारतीय नागरिकता का सुगम आधार उपलब्ध करा देते हैं। मतदाता पहचान पत्र जहां इन्हें भारतीय नागरिकता का सम्मान हासिल करा देता है, वहीं राशन कार्ड की उपलब्धता इन्हें बीपीएल के दायरे में होने के कारण मुफ्त अनाज की सुविधा दिला देती हैं। आसानी से बन जाने वाले बहुउद्देश्यीय पहचान वाले आधार कार्ड भी इन घुसपैठियों ने बड़ी मात्रा में हासिल कर लिए हैं। इन सुविधाओं की आसान उपलब्धता के चलते देश में घुसपैठियों की तादाद चार करोड़ से भी ज्यादा बताई जा रही है।
दरअसल बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठीये शरणार्थी बने रहते, तब तक तो ठीक था, अलबत्ता भारतीय गुप्तचर संस्थाओं को जो जानकारियां मिल रही हैं, उनके मुताबिक, पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था इन्हें प्रोत्साहित कर भारत के विरुद्ध उकसा रही है। सऊदी अरब से धन की आमद इन्हें धार्मिक कट्टरपंथ का पाठ पढ़ाकर आत्मघाती जिहादियों की नस्ल बनाने में लगी है। बांग्लादेश इन्हें हथियारों का जखीरा उपलब्ध करा रहा है। जाहिर है, ये जिहादी उपाय भारत के लिए किसी भी दृष्टि से शुभ नहीं हैं। लिहाजा समय आ गया है कि जो आतंकवादी देश की एकता अखंडता और संप्रभुता को सांगठनिक चुनौती के रूप में पेश आ रहे हैं, उन्हें देश से बेदखल किया जाए।
प्रमोद भार्गव
आधुनिक तकनीक के साथ कदम – ताल करता भारत
हाल ही में केंद्रीय मंत्री अश्वनी वैष्णव का आलेख तकनीक बनी शासन की भाषा समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ हैं।आज के दौर में यदि किसी राष्ट्र की असली ताकत को परखा जाए तो उसमें सेना, अर्थव्यवस्था और संसाधनों के साथ-साथ तकनीकी विकास को भी सबसे अहम माना जाता है। आधुनिक युग में तकनीक केवल जीवन को आसान बनाने का साधन भर नहीं रही, बल्कि यह शासन की नई भाषा बनकर समाज के हर वर्ग को जोड़ने और आगे बढ़ाने का माध्यम बन चुकी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने वह कर दिखाया, जो पहले असंभव सा लगता था। दरअसल, मोदी सरकार ने तकनीक को केवल प्रयोग तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे सुशासन और राष्ट्रनिर्माण का आधार बना दिया।
तकनीक से बढ़ी पारदर्शिता
भारत जैसे विशाल और विविधताओं से भरे देश में योजनाओं का लाभ सही पात्र तक पहुँचना हमेशा एक बड़ी चुनौती रही है। लेकिन आधार, डिजिटल आईडी, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर और ऑनलाइन पोर्टलों के जरिए यह सुनिश्चित किया गया कि बिचौलियों की भूमिका खत्म हो और योजना का लाभ सीधा जरूरतमंद तक पहुँचे। इस पारदर्शिता ने शासन में विश्वास को मजबूत किया है।
कार्य हुआ सुगम और त्वरित
पहले किसी सरकारी कार्य को पूरा करने में महीनों लग जाते थे, फाइलें दफ्तरों में घूमती रहती थीं और नागरिकों को चक्कर काटने पड़ते थे। लेकिन आज अधिकांश सेवाएँ ऑनलाइन उपलब्ध हैं। चाहे जन्म प्रमाण पत्र लेना हो, बिजली-पानी का बिल जमा करना हो, या फिर सरकारी योजनाओं में आवेदन करना हो—सब कुछ अब क्लिक पर संभव है। तकनीक ने शासन को लोगों के द्वार तक पहुँचा दिया है।
कोरोना काल का अनुभव
कोरोना महामारी ने मानव जीवन की चुनौतियों को बदल दिया। इस दौरान तकनीक ने ही जीवन की धारा को बनाए रखा। शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और प्रशासन सभी क्षेत्रों में डिजिटल माध्यम जीवनरेखा साबित हुए। आरोग्य सेतु और कोविन पोर्टल ने टीकाकरण को व्यवस्थित किया, जबकि ऑनलाइन कक्षाओं ने विद्यार्थियों की पढ़ाई को बाधित नहीं होने दिया। इस अनुभव ने साबित कर दिया कि तकनीक केवल सुविधा नहीं, बल्कि जीवन रक्षा का सशक्त साधन भी है।
भविष्य का स्वर्ण युग
आज भारत स्टार्ट-अप और नवाचार की दुनिया में तेजी से उभर रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, रोबोटिक्स, 5जी और डिजिटल पेमेंट सिस्टम में भारत की उपलब्धियाँ विश्व को चकित कर रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी तकनीकी पहुँच बढ़ रही है, जिससे किसानों को मंडी दाम, मौसम और नई कृषि तकनीकों की जानकारी सीधे मिल रही है। यह बदलाव आने वाले समय में भारत को तकनीक का वैश्विक नेता बना सकता है।
नागरिकों की भूमिका
सरकार ने अपनी इच्छाशक्ति और संकल्प से दिशा अवश्य दी है, लेकिन इस यात्रा को सफल बनाने के लिए नागरिकों की सहभागिता अनिवार्य है। जब तक समाज का हर वर्ग तकनीकी साक्षरता की ओर कदम नहीं बढ़ाएगा, तब तक इसका पूरा लाभ नहीं मिल पाएगा। विशेषकर युवाओं को चाहिए कि वे तकनीक को केवल मनोरंजन का साधन न बनाकर राष्ट्रनिर्माण और सामाजिक सेवा में भी उसका प्रयोग करें
सपना साकार हो रहा है, वह हमें विश्वास दिलाता है कि आने वाला समय तकनीकी दृष्टि से भारत का स्वर्ण युग होगा। पारदर्शिता, सुशासन और विकास का यह मार्ग तभी और सशक्त होगा जब हर नागरिक इस यात्रा में सहभागी बनेगा। यही नए भारत की असली तस्वीर होगी।
– सुरेश गोयल धूप वाला
न्याय की रीढ़ पर वार: क्यों जरूरी है अधिवक्ता संरक्षण कानून
पवन शुक्ला
_अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम की माँग उत्तर प्रदेश में लगातार तेज़ हो रही है। हापुड़ से वाराणसी तक हुई घटनाओं ने वकीलों की असुरक्षा को उजागर किया है। विधि आयोग और बार काउंसिल अपनी सिफ़ारिशें सरकार को दे चुके हैं। अब ज़रूरत है कि विधानमंडल तुरंत अधिनियम लागू कर न्यायपालिका की रीढ़ को मज़बूती दे।
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में वकील समाज का अभिन्न हिस्सा है। अदालत की चौखट पर जब आम नागरिक न्याय की उम्मीद लेकर पहुँचता है, तो उसका सबसे बड़ा सहारा अधिवक्ता ही होता है। अधिवक्ता न केवल अपने मुवक्किल का पक्ष रखते हैं, बल्कि न्यायपालिका और जनसाधारण के बीच एक सशक्त सेतु का कार्य करते हैं। किंतु दुखद है कि जो वर्ग कानून और व्यवस्था की रक्षा करता है, वही आज खुद असुरक्षित है।
अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम की शुरुआत जुलाई 2021 में हुई, जब बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने इसका मसौदा प्रस्तुत किया। इसमें अधिवक्ताओं को हिंसा, धमकी और उत्पीड़न से बचाने के लिए कानूनी सुरक्षा के ठोस प्रावधान रखे गए। 2022 में संसद की स्थायी समिति ने मसौदे की समीक्षा कर संशोधनों की सिफारिश की। इसके बाद मार्च 2023 में राजस्थान पहला राज्य बना जिसने यह अधिनियम पारित कर अधिवक्ताओं को सुरक्षा का कवच दिया और अन्य राज्यों में भी उम्मीद जगाई।
उत्तर प्रदेश में यह माँग 29 अगस्त 2023 की हापुड़ घटना के बाद और तीव्र हो गई। उस दिन पुलिस ने न्यायालय परिसर में निहत्थे अधिवक्ताओं पर बेरहमी से लाठीचार्ज किया। न्याय की रक्षा करने वाले स्वयं न्यायालय परिसर में ही अपमानित और घायल किए गए। यह दृश्य पूरे प्रदेश की बार एसोसिएशनों को झकझोर गया और अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम की माँग को और प्रबल बना दिया। इसके विरोध में 4 सितंबर 2023 को उत्तर प्रदेश बार काउंसिल ने तीन-दिवसीय हड़ताल की घोषणा की और अदालतों में कामकाज ठप हो गया।
हापुड़ घटना के बाद 5 सितंबर 2023 को योगी सरकार ने तीन सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति का दायित्व था कि वह अधिवक्ताओं से सुझाव लेकर एक प्रारंभिक रिपोर्ट तैयार करे और सरकार को अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम लागू करने के संबंध में ठोस दिशा-निर्देश दे। 9 सितंबर 2023 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अधिवक्ताओं की समस्याओं को देखते हुए एक न्यायिक समिति गठित की। समिति को 16 सितंबर से बैठकें शुरू करने का निर्देश दिया गया। अधिवक्ताओं ने पुलिस की बढ़ती दखलअंदाजी, मनमानी गिरफ्तारी और सुरक्षा की कमी की शिकायतें कीं। सितंबर के अंत तक 40 से अधिक शिकायतें मिलीं। अक्टूबर 2023 में अंतरिम रिपोर्ट में अधिवक्ताओं पर हमले को न्यायिक कार्यवाही में गंभीर बाधा बताया गया। इसके बाद उत्तर प्रदेश बार काउंसिल ने भी अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम का मसौदा तैयार कर राज्य विधि आयोग को सौंपा। विधि आयोग ने नवंबर 2023 में अपनी सिफारिशें दीं, जिनमें अदालत परिसरों में सीसीटीवी कैमरे लगाने, अधिवक्ताओं को सुरक्षित और पक्के चैंबर उपलब्ध कराने, सामूहिक बीमा योजना लागू करने और महामारी जैसी आपात परिस्थितियों में उन्हें न्यूनतम पंद्रह हजार रुपये मासिक आर्थिक सहायता देने का सुझाव शामिल था। आयोग ने यह भी कहा कि किसी अधिवक्ता की गिरफ्तारी मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना न हो और गिरफ्तारी की स्थिति में 24 घंटे के भीतर संबंधित बार एसोसिएशन को सूचना दी जाए। अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम के प्रारूप में अधिवक्ताओं पर हिंसा, धमकी, उत्पीड़न, संपत्ति का नुकसान और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन को संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध माना गया है। दोषी पाए जाने पर छह महीने से पाँच वर्ष तक की सजा और पचास हजार से दस लाख रुपये तक का जुर्माना होगा, जबकि पुनरावृत्ति की स्थिति में यह सजा दस वर्ष तक बढ़ाई जा सकेगी। अदालत को पीड़ित अधिवक्ता को मुआवजा देने का अधिकार होगा।
लेकिन अधिवक्ता समाज को अपेक्षित परिणाम अब तक नहीं मिले। प्रयागराज में अधिवक्ता अखिलेश शुक्ला की दिनदहाड़े हत्या ने यह संदेश दिया कि पेशेवर दायित्व निभाने वाले वकील भी असुरक्षित हैं। 17 सितंबर 2025 को वाराणसी जिला न्यायालय परिसर में पुलिस और वकीलों के बीच टकराव हुआ, जिसमें उपनिरीक्षक मिथिलेश कुमार गंभीर रूप से घायल हुए और लगभग 70 अधिवक्ताओं पर मुकदमा दर्ज किया गया। इस घटना के बाद अधिवक्ताओं ने काम का बहिष्कार किया और अदालतों का वातावरण तनावपूर्ण हो गया। 19 सितंबर 2025 को चंदौली में अधिवक्ता कमला यादव की हत्या उनके ही भाई द्वारा कर दी गई और मुरादाबाद में एक महिला अधिवक्ता पर रासायनिक हमला हुआ। यह घटनाएँ इस तथ्य को पुष्ट करती हैं कि मौजूदा कानूनी प्रावधान अधिवक्ताओं की सुरक्षा के लिए पर्याप्त नहीं हैं। इन घटनाओं ने अधिवक्ता बिरादरी के आत्मविश्वास को गहरा आघात पहुँचाया। “हम अपने परिवार और बच्चों को हर रोज़ यह आश्वासन नहीं दे पा रहे कि हम सुरक्षित लौटेंगे। यह स्थिति अधिवक्ता बिरादरी के आत्मविश्वास को तोड़ रही है।” —वाराणसी के एक वरिष्ठ अधिवक्ता (स्थानीय अखबार से बातचीत, 2024)। युवा वकील और कानून पढ़ रहे छात्र-छात्राएँ अब सवाल करने लगे हैं कि क्या न्याय के लिए लड़ना उनके जीवन के लिए खतरा बन जाएगा। जब अधिवक्ता भयभीत रहेंगे, तो कौन नागरिक का पक्ष निर्भीक होकर अदालत में रख पाएगा? “अधिवक्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना केवल पेशेवर संरक्षण नहीं, बल्कि पूरे समाज के न्याय की सुरक्षा है।” —बार काउंसिल ऑफ यूपी, 2024।
17 सितंबर की वाराणसी घटना के बाद 20 सितंबर 2025 को विधान परिषद सदस्य अशुतोष सिन्हा ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम को तत्काल लागू करने की माँग की। उन्होंने कहा कि यदि सरकार अब भी ठोस कदम नहीं उठाती तो अधिवक्ता समाज का धैर्य टूट जाएगा। इसी तरह उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष परेश मिश्रा ने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर वाराणसी में पुलिस की कथित बर्बरता की मजिस्ट्रेटी जांच और अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम के त्वरित क्रियान्वयन की माँग की। आज स्थिति यह है कि बार काउंसिल और विधि आयोग दोनों अपनी रिपोर्ट और सुझाव सरकार को दे चुके हैं, राजस्थान अधिवक्ता संरक्षण अधिनियम लागू कर उदाहरण प्रस्तुत कर चुका है, किंतु उत्तर प्रदेश में अधिवक्ताओं को अब भी सुरक्षा की गारंटी नहीं मिली है। “यदि अधिवक्ता सुरक्षित नहीं होंगे, तो न्यायपालिका की रीढ़ टूट जाएगी। यह केवल वकीलों का प्रश्न नहीं, लोकतंत्र की आत्मा का प्रश्न है।” —उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के चेयरमैन शिव किशोर गौड़।
यहाँ मुद्दा केवल वकीलों की अभिरक्षा और सम्मानजनक वातावरण का नहीं है, बल्कि न्यायपालिका की आत्मा का है। अधिवक्ता वह दीपक हैं जो अंधेरे में न्याय की लौ जलाए रखते हैं और समाज को अन्याय के अंधकार से मार्गदर्शन देते हैं। यदि यह दीपक डगमगा जाए, तो न केवल अधिवक्ताओं का अस्तित्व संकट में पड़ेगा, बल्कि नागरिकों के न्याय पाने का अधिकार भी कमजोर पड़ जाएगा। हापुड़ की लाठियाँ, प्रयागराज का खून, वाराणसी का टकराव और मुरादाबाद का अमानवीय हमला हमें यह चेतावनी दे रहे हैं कि अब देर की कोई गुंजाइश नहीं है। यह अधिनियम वकीलों के जीवन की ढाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र की सांस है। उत्तर प्रदेश की विधान सभा और विधान परिषद को इस पर अब और मौन नहीं रहना चाहिए। अधिवक्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित कर न्याय की ज्योति को बचाना हम सबकी साझा जिम्मेदारी है। यही समय है, यही अवसर है—यदि अभी नहीं तो शायद कभी नहीं।
बोडोलैंड की समस्या, मोदी और हिमंता
असम में बोडो समुदाय के द्वारा किया गया बोडोलैंड आंदोलन पिछले कई दशकों से सुर्खियों में रहा है। वास्तव में बोडो लोगों ने अपने अस्तित्व की पहचान के लिए इस आंदोलन को प्रारंभ किया था। ध्यान रहे कि इन बोडो लोगों की पहचान को बाहरी प्रवासियों ने आकर धुंधला कर दिया था। उनकी पैतृक भूमि पर इन बाहरी प्रवासियों का धीरे-धीरे कब्जा हो गया था। अपनी ही जमीन पर और अपने ही घर में ये बोडो लोग अल्पसंख्यक हो गए। उसके बाद इन पर एक दूसरे समुदाय ने अपनी तानाशाही चलानी आरंभ की।
अपने अस्तित्व और अपनी पहचान की रक्षा के लिए तब बोडो लोगों ने आंदोलन का मार्ग अपनाया। अपने आंदोलन के माध्यम से इन लोगों ने यह स्पष्ट कर दिया कि उनका यह आंदोलन अपनी पहचान की रक्षा, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की स्थापना को लेकर है। जिसमें भाषा और संस्कृति के संरक्षण का विषय भी सम्मिलित है। आजादी से भी पहले अंग्रेजों के शासनकाल में कभी यहां पर एक बाहरी समुदाय ने तेजी से जाकर बसना आरंभ किया था। उस समय असम का बहुत सा जंगल वीरान पड़ा हुआ था। तब नेहरू की अदूरदर्शी सोच ने इस संकट को और भी गहराने दिया था। कांग्रेस के नेता नेहरू ने तब कहा था कि खाली स्थान की ओर हवा अपने आप ही भाग लेती है। सावरकर ने नेहरू की इस सोच और नीति का विरोध किया था।
कांग्रेस की यह प्रवृत्ति रही है कि वह अपने नेताओं की अदूरदर्शी सोच का खुलासा होने के उपरांत भी उसी के साथ खड़ी रहती है। वह नहीं चाहती कि किसी नीति के गलत परिणाम आने के बाद इतना साहस दिखाया जाए कि अतीत में जो कुछ हुआ वह गलत था और अब हम सामने खड़ी समस्या का राष्ट्रहित में उचित समाधान करना चाहेंगे।
अपनी इसी सोच के कारण कांग्रेस ने बोडो लोगों की वास्तविक समस्या की ओर से आंख बंद कर लीं और उन्हें सामने खड़ी समस्या से अकेले जूझने के लिए उन्हीं के भाग्य पर छोड़ दिया। बोडो लोगों के सामने यदि खाई थी तो पीछे कुंआ था। ऐसी स्थिति में उन्होंने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आंदोलन का मार्ग पकड़ा। असम राज्य में स्थित बोडोलैंड की यह समस्या 1960 से सुलगनी आरंभ हुई। 1980 के दशक में यह समस्या तेजी से बढ़ी। परिणाम यह निकला कि बोडोलैंड की मांग के समर्थन में चल रहा आंदोलन हिंसक हो गया। तब 2003 में एक समझौता हुआ। जिसके परिणामस्वरूप जो संगठन अलग बोडो राज्य की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन कर रहे थे, उन्होंने हिंसा के रास्ते को छोड़कर राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ जुड़कर काम करने के प्रति वचनबद्धता व्यक्त की। सरकार ने स्वायत्त बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद का गठन कर बोडो निवासियों को यह आभास कराया कि उनकी उचित मांगों का सरकार उचित सीमा तक समाधान करने के लिए तत्पर है। यद्यपि यह मौलिक प्रश्न इसके उपरांत भी निरुत्तरित रह गया कि बोडो लोग जिस प्रकार अवैध प्रवासन और सांस्कृतिक मिश्रण के कारण अपनी जातीय पहचान के लिए संकट अनुभव कर रहे थे, उस संकट का समाधान कैसे होगा ?
बोडो लोगों को अपनी पैतृक भूमि पर अपना नियंत्रण स्थापित करना था। उन्हें इस प्रकार की सुरक्षा की एक भावना अपने चारों ओर विकसित होते हुए देखनी थी, जिसके अंतर्गत वे अपनी परंपराओं, धार्मिक रीति रिवाजों तथा अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने में सफल हो सकते हैं। इसके उपरांत भी लोग आंदोलन को छोड़कर राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ एक बार चलना चाहते थे।
कांग्रेस देश में तुष्टिकरण की नीति की जनक रही है। यदि कहीं पर उसकी नीतियों के कारण बहुसंख्यक समाज को लाभ पहुंच रहा हो तो वह ऐसे लाभ के प्रति अपने ‘ राजधर्म’ का परिचय देते हुए या तो मौन हो जाती है या कोई ऐसी नीति अपना लेती है जो बहुसंख्यक समाज के लिए घातक हो। यही कारण था कि कांग्रेस अपने शासनकाल में कभी बोडो निवासियों की समस्याओं को उचित नहीं कह पाई।
यह बहुत ही सौभाग्य की बात है कि इस समय असम का नेतृत्व हिमांता के रूप में एक ऐसा चेहरा कर रहा है जो अपनी साहसिक कार्य शैली के लिए जाना जाता है। उनकी निर्णायक क्षमता अतुलनीय है। बड़े से बड़े संकट के समक्ष भी वे सीना तानकर खड़े हो जाते हैं। यही कारण है कि इस सुदूरवर्ती पूर्वोत्तर राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में वे लगभग सारे देश में जाने जाते हैं।
हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भी “बोडो समस्या” का स्थाई समाधान चाहते हैं। प्रधानमंत्री मोदी बोडो निवासियों के बारे में वह सब कुछ जानते हैं जो अब से पूर्व के प्रधानमंत्री या तो जान नहीं पाए थे या उन्होंने जानने का प्रयास नहीं किया था। कश्मीर की विवादित धारा 370 सहित अनेक ऐसी समस्याएं रही हैं, जिन्हें पूर्व के प्रधानमंत्री सुलझाने के प्रति गंभीर नहीं दिखाई दिए थे। उनकी मान्यता थी कि यह समस्या मेरे कार्यकाल में सुलझ नहीं पाएगी। आज हमारे देश भारत के लिए कई प्रकार की चुनौतियां अपने पड़ोसी देशों से मिलती हुई दिखाई दे रही हैं।आज जब सारा विश्व समाज चाहे पड़ोसी म्यांमार, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान हो या दूरस्थ सूडान, यमन, इज़राइल–फिलिस्तीन सत्ता और राजनीतिक व्यवस्थाओं से असंतोष के चलते युवाओं के भीतर असंतोष का भाव व्याप्त है। तब अपने बोडोलैंड में वहां के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री व गृहमंत्री मिलकर जिस प्रकार के शान्ति प्रयास कर रहे हैं, उसके अच्छे परिणाम हमें देखने को मिल रहे हैं। सोशल मीडिया पर वहां के पृथकतावादी तत्वों के जुलूस को दिखाकर देश में यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया जा रहा है कि ये लोग भारत के विरोध में और विशेष रूप से प्रधानमंत्री के विरोध में नारे लगा रहे हैं। जबकि यह सच नहीं बताया जा रहा है कि ये वही लोग हैं, जो असम के बोडो क्षेत्र में आकर यहां के मूल निवासियों के लिए कभी समस्या बने थे और आज भी बने हुए हैं। यदी आज उस समस्या का उपचार हो रहा है (और उससे पीड़ा रोग को हो रही है ना कि रोगी को ) तो उस ,पीड़ा को भी इस प्रकार दिखाया जाना देशद्रोह से कम नहीं है कि यह पीड़ा एक दिन हमारे देश के प्रधानमंत्री और असम के मुख्यमंत्री को ही उखाड़ कर फेंक देगी। इस समय देश में राजनीतिक विभ्रम फैलाकर सत्ता हथियाने के लिए कई गिद्ध भांति भांति के प्रयास कर रहे हैं। उनसे देशवासियों को सावधान रहने की आवश्यकता है। ध्यान रहे की रोग का सही उपचार हो रहा है । हमें इसके अच्छे परिणाम की कामना करनी चाहिए।
- डॉ राकेश कुमार आर्य
अमेरिका – भारत संबंध : एक समीक्षा
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को उनके जन्म दिवस पर फोन करना वैसे तो राजनीतिक शिष्टाचार में आता है और यह कोई बड़ी बात भी नहीं है, परंतु जिन परिस्थितियों के बीच डोनाल्ड ट्रंप ने प्रधानमंत्री से बातचीत करने का बहाना खोजा है, उनके मध्य दोनों राष्ट्र – अध्यक्षों के मध्य इस प्रकार की ‘ चर्चा’ होना बहुत महत्वपूर्ण है।
हम सभी जानते हैं कि इस समय भारत और अमेरिका के संबंध नाजुक दौर से गुजर रहे हैं । रूस, चीन और भारत का एक साथ आना अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। इससे वह हतप्रभ रह गए हैं। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत इतनी बड़ी भूमिका में आ सकता है ? – जिससे अमेरिका ही अलग-थलग पड़ जाएगा। इसके परिणामस्वरुप अमेरिका में बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किये हैं। उनकी असफल विदेश नीति के चलते लोगों ने उनसे त्यागपत्र देने की बात कही है।उनके अपने निकटस्थ लोगों ने भी भारत के साथ संबंधों में आई तल्खी को लेकर ट्रंप प्रशासन को सचेत किया है । पिछले दिनों यह चर्चा भी चलती रही कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री मोदी से बातचीत करने का प्रयास किया ,परंतु प्रधानमंत्री मोदी ने उनका फोन नहीं उठाया। इन सब बातों के चलते यदि अब ट्रंप ने भारत के प्रधानमंत्री से उनके जन्मदिवस के अवसर पर टेलीफोन से बातचीत की है तो इसे ‘ बातचीत करने का एक बहाना ‘ मानना चाहिए। निश्चित रूप से इस समय उन्होंने एक ‘ विजेता प्रधानमंत्री’ से बातचीत की है। जिसने अमेरिका को उसकी औकात बताने का साहस किया है। और पहली बार उसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग कर देने में सफलता प्राप्त की है।
अमेरिका पर इस बात का भी नैतिक दबाव है कि भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का परिचय देते हुए इस समय रूस यूक्रेन युद्धविराम के लिए भी अपना समर्थन व्यक्त किया है। इसके साथ ही इसराइल से अपने बहुत ही भावपूर्ण संबंध होते हुए भी भारत ने फिलिस्तीन के समर्थन में अपना हाथ उठाया है। ऐसे में अमेरिका यह भली प्रकार जानता है कि भारत की स्वतंत्र विदेश नीति पर किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाया जा सकता। फिर भी यह बात मानी जा सकती है कि राजनीति में आप किसी से भी बहुत देर ‘ कुट्टी’ करके नहीं बैठ सकते। राजनीति में कुंठाओं के लिए स्थान नहीं होता। क्योंकि कुंठाएं राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास की प्रक्रिया को बाधित करती हैं। संकीर्णताओं और कुंठाओं को त्यागकर उनसे ऊपर उठकर बातचीत का कूटनीतिक संवाद निरंतर स्थापित रखना पड़ता है। इस दृष्टिकोण से दोनों देशों के शासनाध्यक्षों का बातचीत करना सुखद है। हमने यह भी देखा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने टैरिफ वार में जितना अधिक आक्रामक होकर भारत के बारे में अनाप-शनाप बका, उतना ही उनका राजनीतिक नुकसान हुआ। भारत ने अपनी कूटनीति के माध्यम से अमेरिकी राष्ट्रपति को धोकर रख दिया। इससे अमेरिकी राष्ट्रपति का बड़बोलापन उनके लिए स्वयं एक आफत बन गया। दोनों देशों के बीच शीर्ष स्तर पर संवाद स्थापित करने की ओर संकेत करते हुए अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने यह उम्मीद जताई है कि अंततः अमेरिका और भारत साथ आएंगे, क्योंकि यह वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अब अमेरिकी राष्ट्रपति ने आशा व्यक्त की है कि दोनों देश अतीत की कड़वाहटों को बुलाकर भविष्य पर ध्यान केंद्रित करके अपने संबंधों का निर्धारण करेंगे। यह एक अच्छा संकेत है। जिससे स्पष्ट होता है कि अमेरिका भी अब यह भली प्रकार जान गया है कि वह 21वीं सदी के सशक्त भारत के साथ सम्मानपूर्ण ढंग से बातचीत करके ही उसकी मित्रता का लाभ ले सकता है। यहां पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने 10 सितंबर को ही यह वक्तव्य दिया था कि भारत अमेरिका व्यापार वार्ताओं की बाधाओं को दूर करने पर बातचीत जारी रखेंगे।
उनका यह वक्तव्य अमेरिका भारत संबंधों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रकट करता है। जिसमें उन्होंने स्पष्ट तो ये नहीं कहा कि भारत को लेकर उनसे कुछ भूल हुई है, जिसे वह सुधारना चाहते हैं , परंतु उनके वक्तव्य का एक अर्थ ऐसा भी हो सकता है। भारत की वैश्विक मंचों पर निरंतर उपयोगिता इसलिए भी बढ़ती जा रही है कि भारत के बारे में लोगों की स्पष्ट धारणा यह है कि यह देश युद्धोन्मादी देश नहीं है। यह शांति चाहता है और शांति की वास्तविक अवधारणा को स्थापित करने के लिए उसके पास एक स्पष्ट चिंतन है। अमेरिकी राष्ट्रपति भारत की इस गंभीर जिम्मेदारी को भली प्रकार जानते हैं। साथ ही वैश्विक मंचों पर भारत के प्रति लोगों की इस स्वाभाविक धारणा को भी जानते हैं। इसलिए वह भारत को खोना नहीं चाहते।
अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। आईटी, सेवा क्षेत्र, ऊर्जा और तकनीकी निवेश में इन दोनों लोकतांत्रिक देशों के बीच गहरा सहयोग है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी गतिरोध को स्थाई शत्रुता में परिवर्तित करने के संकेत न देकर नरमी का संकेत देकर अमेरिकी राष्ट्रपति को यह स्पष्ट किया है कि दोनों देशों की जन अपेक्षाओं का सम्मान करना उनका उद्देश्य है। यह इसलिए भी आवश्यक है कि दो देशों के शीर्षस्थ राजनीतिक व्यक्तित्वों के टकराव से इतिहास में अनेक बार भयंकर जनहानि हुई है। आज भी यूक्रेन के राष्ट्रपति की व्यक्तिगत अहंकारी भावना के कारण ही यूक्रेन युद्ध में टूट चुका है। इसलिए व्यक्तिगत अहंकार को सीमित रखकर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देकर काम करना राजनीति की अनिवार्यता होती है। हमें प्रत्येक देश से अपने राष्ट्रीय हितों का सम्मान करवाना आना चाहिए, अर्थात झुकती है दुनिया झुकाने वाला चाहिए। यदि कोई देश हमारे राष्ट्रीय हितों का सम्मान कर रहा है अर्थात आपके सामने झुक गया है या झुकने का संकेत दे दिया है या झुकने को तैयार हो गया है तो उससे आगे जाकर उस देश से शत्रुता माल लेना अच्छा नहीं है। हम सबके लिए यह बहुत ही अच्छी सूचना है कि भारत अमेरिका रक्षा सहयोग पिछले एक दशक में बहुत तेजी से बढ़ा है। अमेरिका ने भारत को महत्वपूर्ण रक्षा तकनीक उपलब्ध कराई है। हां, इतना अवश्य है कि वह पाकिस्तान को लेकर भारत के साथ दोरंगी चाल खेलता रहा है । पाकिस्तान को अपेक्षा से अधिक सहयोग और समर्थन देना अमेरिका की कूटनीति हो सकती है या उसकी विदेश नीति का एक अंग हो सकता है । परंतु यह भारत के लिए कभी स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस बिंदु पर भारत को सदैव सतर्क रहने की आवश्यकता है। हमें जितना चीन से सावधान रहने की आवश्यकता है, उतना ही अमेरिका से भी सावधान रहने की आवश्यकता है। यद्यपि यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सीट के लिए एक बार अमेरिका तैयार हो सकता है, परंतु चीन नहीं। इस दृष्टिकोण से भारत को अपनी विदेश नीति को अत्यंत सावधानी के साथ साधने की आवश्यकता है। हमें अपनी दूरगामी रणनीति और विदेश नीति को निर्धारित करते समय इस तथ्य का भी ध्यान रखना पड़ेगा।
नेपाल में जो कुछ भी हुआ है उसमें किन-किन शक्तियों का हाथ रहा है ? इससे रहस्य का पर्दा बहुत कुछ हट गया है। धीरे-धीरे जो शेष है, वह भी हट जाएगा। वहां पर ‘ मोदी – मोदी’ के नारे लगे हैं। नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित करने के समर्थन में भी नारे लगे हैं। इसके साथ ही वहां की नई प्रधानमंत्री श्रीमती कार्की द्वारा भी भारत के प्रति सहयोगी और मित्रता पूर्ण दृष्टिकोण व्यक्त किया गया है, किंतु इन सबका वास्तव में क्या अर्थ है ? यह देखना अभी शेष है। ये सभी नारे या गतिविधियां हवाई बातें भी हो सकती हैं और इनका कोई राजनीतिक अस्तित्व भी हो सकता है। राजनीति में विभ्रम पैदा करना भी कूटनीति का एक अंग होता है। वास्तविकता बहुत कुछ देर बाद जाकर स्पष्ट होती है। कहने का अभिप्राय है कि नेपाल की घटनाओं से हमें बहुत अधिक सतर्क रहना है। किसी प्रकार की भ्रांति नहीं पालनी है। हां, यदि नेपाल हिंदू राष्ट्र बनता है तो उसे हिंदू राष्ट्र बनाने में भारत को अपना सहयोग अवश्य देना चाहिए। नेहरू की उस मूर्खता को दोहराने की आवश्यकता नहीं है, जब उन्होंने 1947 में नेपाल के तत्कालीन महाराजा के नेपाल के भारत में विलय के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। यदि आज की तारीख में नेपाल हिंदू राष्ट्र के रूप में ही भारत के साथ आना चाहता है तो भारत को इस कार्य में नेपाल की सहायता करनी चाहिए। यदि ऐसा होगा तो अमेरिका को एशियाई मामलों में हस्तक्षेप करने से दूर रखा जा सकेगा। इसके साथ ही नेपाल और भारत स्थाई रूप से एक साथ आकर काम करने पर सहमत हो सकेंगे। यदि नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाता है और भारत उसमें अपना सहयोग देता है तो इससे चीन की वास्तविकता का भी पता चल जाएगा कि वह वास्तव में ही भारत के साथ मित्रता पूर्ण संबंध चाहता है या फिर उसकी सोच में कोई दोगलापन है ?
वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद को लेकर अमेरिका भारत के साथ खड़ा हुआ दिखाई दिया है, परंतु इसी मुद्दे को लेकर जब भारत और पाकिस्तान में तनाव होता है तो अमेरिका दोगला हो जाता है। तब वह पाकिस्तान की ओर झुका हुआ दिखाई देता है। उसका यह दोगलापन अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उसके चरित्र को उजागर कर देने के लिए पर्याप्त है। भारत को यह सोचना होगा कि अमेरिका चाहे कितना ही निकट आने का नाटक करे, परंतु उसका राजनीतिक दोगलापन उसके स्वभाव में सम्मिलित होने के कारण उसका ‘ राष्ट्रीय चरित्र’ है। स्वभाव है। जिसमें परिवर्तन संभव नहीं है। यदि ऐसा है तो अमेरिकी राष्ट्रपति के इस टेलीफोन को एक अच्छा संकेत मानकर भी आप भविष्य के अमेरिका भारत संबंधों का एक निर्णायक मोड़ नहीं कह सकते। ….मंजिल अभी दूर है। रास्ते में कितने ही उतार चढ़ाव आएंगे और ऊबड़खाबड़ रास्तों से कितने ही स्थानों पर हमें फिसलने, गिरने और जोखिम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।…. यद्यपि इसका अभिप्राय यह नहीं कि रास्ता छोड़ दिया जाए या मित्रता के लिए बढ़ा हुआ हाथ झटक दिया जाए…. रास्ता भी नहीं छोड़ना है, मित्रता के लिए बढ़ा हुआ हाथ भी पकड़े रखना है ….और सावधान भी रहना है । बस, यही सोच कर आगे चलना होगा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
गाँव और शहर का रिश्ता कैसा हो
शम्भू शरण सत्यार्थी
मनुष्य का जीवन केवल उसके व्यक्तिगत अस्तित्व तक सीमित नहीं है. वह अपने आसपास के समाज, संस्कृति और वातावरण से गहराई से जुड़ा हुआ है। मानव सभ्यता की यात्रा आरम्भ से लेकर आज तक एक लम्बा और संघर्षपूर्ण इतिहास समेटे हुए है। इस यात्रा में गाँव और शहर दोनों की अपनी-अपनी भूमिका रही है। जहाँ गाँव ने मनुष्य को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं—अन्न, जल, आश्रय और आत्मीय संबंध—से जोड़ा, वहीं शहर ने उसे ज्ञान, तकनीक, व्यापार और आधुनिकता की राह दिखाई। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गाँव और शहर मानव जीवन के दो पंख हैं; यदि इनमें से एक भी कमजोर हो जाए तो समाज का संतुलन बिगड़ जाता है।
भारतीय संस्कृति और इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि हमारी सभ्यता की जड़ें गाँवों में ही बसी हुई हैं। प्राचीन काल में कृषि, पशुपालन और हस्तशिल्प के सहारे गाँव आत्मनिर्भर और सम्पन्न थे। यही आत्मनिर्भर गाँव भारत की असली पहचान थे। यहीं से हमारी संस्कृति, परंपराएँ और मूल्य जन्मे। यही कारण है कि महात्मा गांधी ने कहा था—“भारत की आत्मा उसके गाँवों में बसती है।” गांधीजी का यह कथन केवल भावनात्मक नहीं था, बल्कि ऐतिहासिक सच्चाई पर आधारित था।
यदि हम इतिहास की गहराई में उतरें तो पाएँगे कि प्राचीन भारत में गाँव और शहर दोनों का विकास साथ-साथ हुआ। सिन्धु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगर व्यापार और योजना का उदाहरण हैं, जबकि उनके चारों ओर बसे गाँव कृषि और पशुपालन के केंद्र थे। यही संतुलन भारत को समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाता था। वैदिक काल में भी अधिकांश लोग गाँवों में रहते थे और कृषि ही मुख्य आजीविका थी। गाँवों की संरचना उस समय इतनी सुदृढ़ थी कि वे अपने भीतर छोटे-छोटे गणराज्यों के रूप में कार्य करते थे।
परंतु समय के साथ जब साम्राज्यों का विस्तार हुआ और व्यापार का महत्व बढ़ा तो नगर और महानगर भी फलने-फूलने लगे। मगध, पाटलिपुत्र, तक्षशिला, वाराणसी, उज्जैन जैसे नगर अपने समय में शिक्षा और व्यापार के प्रसिद्ध केंद्र बने। फिर भी गाँवों की भूमिका कभी कम नहीं हुई। नगरों को आवश्यक अनाज, दूध, कपड़ा, लकड़ी, धातु आदि सब कुछ गाँवों से ही मिलता था। इस प्रकार गाँव और शहर का संबंध एक-दूसरे के पूरक का था, न कि प्रतिस्पर्धी का।
मध्यकालीन भारत में जब दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य का उदय हुआ, तब भी गाँवों की संरचना बनी रही। किसान अपने खेतों में अनाज उपजाते और शहरी बाज़ारों को आपूर्ति करते। गाँवों का समाज जातियों और पेशों में बँटा हुआ था, लेकिन वह सामूहिकता और आत्मनिर्भरता से सम्पन्न था। गाँवों की यह सामूहिकता ही उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी।
औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने भारत के गाँवों और शहरों की इस संरचना को गहरा आघात पहुँचाया। उन्होंने गाँवों से अनाज और कच्चा माल निकाला और शहरों में अपने कारख़ानों के लिए मजदूर तैयार किए। परिणामस्वरूप गाँव धीरे-धीरे निर्धन होते गए और शहर उपनिवेशवादी शोषण के केंद्र बन गए। यही वह दौर था जब गाँव और शहर के बीच का संतुलन टूटने लगा। किसान कर्ज़ में डूबने लगे, गाँवों की आत्मनिर्भरता ख़त्म होने लगी और शहरों में अमीरी-गरीबी का अंतर गहराने लगा। यही कारण था कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधीजी ने बार-बार गाँवों की ओर लौटने की बात की।
गांधीजी के अनुसार भारत का पुनर्निर्माण तभी संभव है जब उसके गाँव आत्मनिर्भर और मजबूत हों। उनका सपना था कि हर गाँव अपने भीतर छोटे गणराज्य की तरह कार्य करे, जहाँ शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और आत्मीयता सब कुछ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो। उन्होंने चरखा और खादी को गाँव की आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनाया। उनका मानना था कि शहरों की चकाचौंध और मशीनों का लालच मनुष्य को पतन की ओर ले जाएगा, जबकि गाँव की सादगी और श्रमशीलता उसे सच्चा सुख और शांति प्रदान करेगी।
लेकिन स्वतंत्रता के बाद भारत ने जिस विकास की राह पकड़ी, उसमें शहरों को प्राथमिकता मिली। उद्योग, कारख़ाने, आधुनिक शिक्षा संस्थान और सरकारी दफ़्तर अधिकतर शहरों में स्थापित किए गए। परिणामस्वरूप गाँव पीछे छूटते गए। गाँव का युवा बेहतर रोजगार और शिक्षा की तलाश में शहर की ओर भागने लगा। इस पलायन ने गाँव को खाली कर दिया और शहरों को भीड़ और प्रदूषण से भर दिया।आज की स्थिति यह है कि गाँव और शहर दोनों ही संकट से जूझ रहे हैं। गाँव बेरोज़गारी, किसानों की बदहाली, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से परेशान हैं। वहीं शहर प्रदूषण, अपराध, भ्रष्टाचार, ट्रैफिक और तनाव जैसी समस्याओं से घिर गए हैं। गाँव अपनी आत्मनिर्भरता खो चुके हैं और शहर अपनी मानवीय संवेदनाएँ।
यह विरोधाभास हमारे समाज के लिए खतरनाक है। इतिहास हमें यह सिखाता है कि गाँव और शहर परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि पूरक हैं। गाँव शहरों को अन्न, कच्चा माल और श्रमशक्ति प्रदान करते हैं, जबकि शहर गाँवों को आधुनिक तकनीक, बाज़ार और शिक्षा देते हैं। यदि दोनों का संतुलन बिगड़ता है तो समाज असंतुलित हो जाता है। यही कारण है कि आज पुनः इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि गाँव और शहर का रिश्ता कैसा हो और हम उन्हें किस दिशा में ले जाएँ।
शम्भू शरण सत्यार्थी
वर्तमान नेपाल के समक्ष चुनौतियां एवं समाधान
डॉ.बालमुकुंद पांडे
सन् 1997 से सन् 2012 के मध्य पैदा हुए लोगों को ‘ जेन जी’ या ‘ जेनरेशन ज़ूमर ‘ कहा जाता है। यह पीढ़ी उस दौर में पैदा हुई जब इंटरनेट का प्रभाव बहुत ज्यादा बढ़ गया था। ये युवा बड़े होकर सामाजिक प्लेटफार्मों पर अत्यधिक सक्रिय होकर अपने करियर, पेशा , अन्य व्यवहार, एवं व्यक्तित्व के आयाम का उन्नयन करके अपने उज्ज्वल भविष्य को सकारात्मक स्वरूप देने में सक्रिय रहे।
हालिया आंदोलन में नेपाल का प्रत्येक व्यक्ति एवं प्रत्येक वर्ग प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष स्तर पर जुड़ा है। इस आंदोलन में नेपाल के राजनीतिक दलों के नेताओं का भी समर्थन है। यह सोशल मीडिया ज्यादातर संयुक्त राज्य अमेरिका एवं चीन के हैं। केपी ओली जो चीन के काफी करीब थे एवं चीन से उनके संबंध भी बहुत मधुर थे , उन्होंने 6 से 7 महीने पहले इंटरनेट मीडिया प्लेटफॉर्म को अनिवार्य पंजीकरण करवाने के कानून पारित किए। इसके पीछे सरकार का मकसद कर (टैक्स) में फायदे से था। इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नियंत्रण के कारण युवाओं में सरकार एवं नौकरशाही के प्रति तीव्र आक्रोश व असंतोष उत्पन्न हो गया जो हिंसक क्रांति(Coupd etat) का स्वरूप ग्रहण कर लिया । लेखक नेपाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के तौर पर काम किए है और नेपाल के सामयिक विषयों में गंभीर पकड़ रखते है। इनका मानना है कि,” बाहर से देखने वालों को लग सकता है कि इस क्रांति से सत्ता का अचानक पतन हुआ है जबकि इसके पीछे युवाओं के मन में बहुत महीने पहले भ्रष्टाचार विरोधी जनाक्रोश था । सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध वर्तमान कारण है “।
नेपाल में राजनीतिक भ्रष्टाचार उच्चतम स्तर पर था। युवाओं में सरकार एवं राजनीतिक नेतृत्व के प्रति विक्षोभ उच्चतम स्तर का था। ‘ नेपोकिड्स’ का जीवन संभ्रांत वर्ग का हो चुका था। नेपाल की जनता को राजशाही से असंतोष व निराशा होने के कारण गणतांत्रिक गणराज्य को अपने राजनीतिक व संवैधानिक व्यवस्था में अंगीकार किए एवं निर्वाचित सरकार( लोकतांत्रिक सरकार ) को वरण किए। दुर्भाग्य से निर्वाचित होकर सत्ता तक पहुंचे प्रतिनिधि सत्ता संघर्ष में लिप्त हो गए। निर्वाचित प्रतिनिधियों के सरकार बनाने के परिणाम स्वरूप ‘ संसाधन’ एवं ‘ संवैधानिक शक्ति ‘ का प्रयोग व्यक्तिगत उत्थान के लिए करने लगे । सोशल प्लेटफॉर्म समकालीन में ऐसा त्वरित माध्यम हो चुका है कि सूचनाओं का संप्रेषण शीघ्र हो जा रहा है। इन कारणों से नेपाल के प्रत्येक एवं प्रमुख वर्ग में असमानता, असंतोष एवं अविश्वास का वातावरण उत्पन्न कर हो चुका था । इस क्रांति में ‘ जेन जी’ के सभी वर्गों ने सरकार के विरुद्ध बलात हिंसक मार्ग को अपनाया।
‘ जेन जी ‘ आंदोलन के साथ दिक्कत यह भी हैं कि उनके साथ कोई अनुभवी नेता नहीं है। उनकी अपनी विचारधारा नहीं है एवं इनका व्यवस्थित संगठन नहीं है। किसी भी आंदोलन की सफलता के लिए संगठन ,विचारधारा, एवं नेतृत्व की अति आवश्यकता होती है । नेता के अभाव में’ जेन जी’ लामबंद नहीं हो सके। उनकी कुछ मांगे थी और यह मांगे भी एक आवाज के रूप में नहीं आ रही थी। लोग अलग-अलग मांगे कर रहे थे। आंदोलन के लिए नेता का नेतृत्व अति आवश्यक है। नेता के अभाव में आंदोलन बिखरा हुआ नजर आता है। यह आंदोलन कुछ दिनों में भीडतंत्र (Mobocracy) में बदल चुकी थी।
नेपाल में भ्रष्टाचार के कारण आर्थिक संकट एवं बेरोजगारी बढ़ चुकी थी. 2023 में नेपाल में गरीबी 20. 27% थी जिसमें 20% से अधिक आबादी दैनिक न्यूनतम 1.9 अमेरिकी डॉलर (1.9$से कम) खर्च करती है। सन् 2025 में नेपाल को निम्न – मध्यम वाला देश माना जाता था। बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2024 के अनुसार, नेपाल में 0.085 बहुआयामी गरीबी सूचकांक मूल्य है जो यह दर्शाता है कि नेपाल की आबादी गरीबी, अभाव ,एवं कष्ट में अपना जीवन व्यतीत कर रही है। यह आंदोलन सत्ता पर काबिज राजनीतिक नेताओं के परिवारों व परिजनों की ऐसों आराम जिंदगी और उसकी तुलना में नेपाली युवाओं का कठिनाई का जीवन का परिणाम है। बेरोजगारी के कारण प्रत्येक सप्ताह नेपाल से 2000 युवा विदेश जा रहे हैं। विदेश में काम करके जो धनराशि अपने घर वालों को भेजते हैं, वह सकल घरेलू उत्पाद का 26% है। नेपाल की पूर्व सरकार ने इसको अवसर की तरह देखा है। विदेश से आ रही धनराशि की वजह से सरकारी कोष में फॉरेन एक्सचेंज बढ़ रहा था, इसलिए पूर्व सरकार युवाओं के लिए अच्छा करने के लिए भी तैयार नहीं थी। पूर्ववर्ती सरकार ज्यादा से ज्यादा युवाओं को विदेश भेजने के लिए प्रोत्साहित कर रही थी। इस असंतोष ने ‘ जेन जी ‘ आंदोलन के लिए उर्वरा भूमि तैयार की थी।
नेपाल में भ्रष्टाचार सबसे उच्चतम स्तर पर था । ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के 2024, भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक में, जिसमें 180 देशों में नेपाल को 34 अंक प्राप्त हुआ था, जो भ्रष्टाचार का उच्चतर स्तर है। नेपाल में भ्रष्टाचार की समस्या गहरी एवं बहुआयामी है। देश के राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक अस्थिरता का दौर रहा है। सरकारें बार-बार बदलती रही हैं। लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था की स्थिरता नीतियों के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नीतियों में निरंतरता ना होने के कारण जवाबदेही और उत्तरदायित्व का अभाव होता है, जिससे नीतियों का क्रियान्वयन नहीं हो पता है और विकास कार्य अवरूद्ध हो जाते हैं । विकास के कार्यों में निरंतरता का अभाव व स्थिर सरकार का ना होना नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था में विरोध का मार्ग बनाया है।
यह आंदोलन भ्रष्टाचार एवं कुशासन के खिलाफ था । व्यवस्था के विरोध में होना व्यवस्था के प्रति अविश्वास है। सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार की खबरें लगातार आने लगी थी। युवाओं का सामना भ्रष्टाचार, कुशासन , एवं बेरोजगारी से हो रहा था। नेपाल की यह पीढ़ी “टेक्नोसेवी “( तकनीकी रूप से सक्षम) होने की वजह से वह वैश्विक व्यवस्था के प्रति सजग, आसपास की बदल रही दुनिया एवं अन्य देशों में बदल रहे वातावरण एवं अन्य देशों में युवाओं के लिए खुल रहे अवसरों को समझ रहे थे। इसके विपरीत नेपाल में युवाओं को आर्थिक अवसर नहीं मिल रहा था जिससे उनके भीतर विक्षोभ पैदा होने लगे एवं व्यवस्था के प्रति असंतोष बढ़ने लगा था।
भारत नेपाल प्राकृतिक मित्र हैं। नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता व शासन में शासकीय अस्थिरता को उत्पन्न करती है जिसका फायदा अराजक तत्व, विद्रोही समूह, सीमा पर अपराधी एवं राज्येतर कर्ता (Non state actor) उठा सकते हैं । भारत एवं नेपाल के बीच खुली सीमा है इसलिए विधि एवं व्यवस्था में शासकीय अस्थिरता भारत के आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न कर सकते हैं। इससे सीमा पर तस्करी, मानव तस्करी एवं आतंकवादी घुसपैठ को बढ़ा सकती है। राजनीतिक संकट के कारण नेपाल में भारतीय निवेश, पारस्परिक व्यापार एवं आपूर्ति श्रृंखलाएं प्रभावित कर सकती हैं। भारत के लिए नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता परस्पर माधुर्य संबंधों में मंदक है जो क्षेत्रीय स्थिरता,अखंडता एवं राष्ट्रीयता के लिए नुकसानदेह है।
नेपाल दक्षिण एशिया का “बफर राज्य ” है जो शांति, स्थिरता, एकता एवं भू – भागीय संरचनात्मक एकता , एवं राजनीतिक एकता के उन्नयन के लिए अति आवश्यक देश है। नेपाल में राजनीतिक स्थिरता, सामाजिक, आर्थिक ,राजनीतिक एवं सांस्कृतिक संबंधों के लिए आवश्यक है। राजनीतिक एवं प्रशासकीय स्तर पर सुशासन की दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। नेपाल में’ विधि के शासन ‘ को क्रियान्वित करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। सभी नागरिकों के मानव अधिकारों को सुरक्षित एवं संरक्षित करने की आवश्यकता है। विधि के शासन को प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता है। नीति – निर्माण एवं क्रियान्वयन प्रक्रिया में नागरिकों की सहभागिता को सुनिश्चित करना सुशासन के लिए आवश्यक है। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए प्रभावी नियंत्रण की आवश्यकता है। नेपाल सरकार को एक ऐसा आधारभूत संरचना का निर्माण करना चाहिए जिससे नेपाली युवा रोजगार प्राप्त कर सकें। युवाओं को प्रतिभा पलायन के बजाय स्वदेश में रोजगार प्राप्त हो सके।
व्यवस्था व प्रशासन में पारदर्शिता से नागरिक समाज मजबूत होता है। शासकीय अंगों में पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार का क्रियान्वयन ,सरकार को पारदर्शी, जवाबदेह एवं नागरिक उन्मुख होना चाहिए। इससे शासकीय नीतियों का कुशल क्रियान्वयन हो, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण हो, सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार एवं नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सार्वजनिक सेवा वितरण के लिए कुशल प्रभावी एवं समान उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना चाहिए। सुशासन के लिए जनोन्मुखी बजट, बजट का सही क्रियान्वयन, विधि का शासन एवं राजनीतिक व प्रशासकीय नेतृत्व में ईमानदारी के अव्यय होना अति आवश्यक है। इन सभी का क्रियान्वयन करके व्यवस्था में विश्वास एवं उत्तरदायित्व का भावना लाई जा सकती है
वर्तमान में नेपाल को ‘ संतुलित विदेश नीति’ को अपनाना चाहिए। संतुलित विदेश नीति का आशय पड़ोसी देशों एवं वैश्विक स्तर पर मधुर संबंध बनाए रखना जिससे राष्ट्र – राज्यों के मध्य राष्ट्रीय हितों एवं राजनीतिक संबंधों का क्रियान्वयन हो सके। इससे राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा जा सकता है। राष्ट्रीय हितों के संतुलन से शक्तियों में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है।
नेपाल दक्षिण एशिया में एक ऐसा देश है जो अपने उदार नीतियों, लोकतांत्रिक मूल्यों, आदर्शों एवं हिंदुत्व के प्रति झुकाव के लिए जाना जाता है। नेपाल का दक्षिण एशिया में बहुत ही सार्थक व अर्थोपाय भूमिका है। समकालीन में नेपाल की राजनीतिक स्थिरता पड़ोसी देशों के लिए आवश्यक है।
डॉ.बालमुकुंद पांडे
सरकारी नौकरी: सुरक्षा या मानसिकता?
राजस्थान में चपरासी के 53 हजार 749 पदों पर भर्ती के लिए लाखों उच्च शिक्षित युवाओं के आवेदन करने से कई सवाल खड़े हो गए हैं
अमरपाल सिंह वर्मा
राजस्थान में हाल ही में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी (चपरासी) के 53 हजार 749 पदों पर भर्ती के लिए जो आवेदन आए, उसने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इन पदों के लिए कुल 24 लाख 75 हजार बेरोजगार युवाओं ने आवेदन किया है। इस भर्ती के लिए निर्धारित शैक्षणिक योग्यता दसवीं कक्षा पास है लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि आवेदकों में से करीब 75 प्रतिशत अभ्यर्थी दसवीं पास से कहीं ज्यादा शिक्षित हैं, यानी इंजीनियरिंग, प्रबंधन, वाणिज्य, कम्प्यूटर विज्ञान में स्नातक से स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई करने वाले युवा भी अब चपरासी बनने की कतार में खड़े हैं।
यह तस्वीर केवल राजस्थान की नहीं है बल्कि पूरे देश में बेरोजगारी का यही स्वरूप दिखाई देता है। जब लाखों पढ़े-लिखे युवा एक मामूली चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर हमारी शिक्षा व्यवस्था, रोजगार नीति और सामाजिक सोच युवाओं को किस दिशा में ले जा रही है? हमारे समाज में सरकारी नौकरी को अब भी सबसे सुरक्षित और सम्मानजनक कॅरियर माना जाता है। अब तो कन्या पक्ष विवाह के लिए भी सरकारी नौकरी वाले लडक़े को ही तरजीह देता है। स्थाई वेतन, पेंशन जैसी सुविधाएं और सामाजिक प्रतिष्ठा युवाओं को इस ओर आकर्षित करती है लेकिन आज चपरासी बनने के लिए भी जिस हद तक भीड़ उमड़ रही है, उसे जाहिर है कि सरकारी नौकरी के प्रति मोह एक जुनून बन चुका है।
युवा वर्ग स्वरोजगार, निजी क्षेत्र या पैतृक व्यवसाय की बजाय सरकारी नौकरी पाने के लिए वर्षों तक परीक्षाओं की तैयारी में अपनी ऊर्जा खर्च कर रहा है। खेती की ओर तो अब किसान पुत्र भी नहीं झांक रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि लाखों युवा न तो समय पर रोजगार पा रहे हैं और न ही अपनी क्षमता का सही उपयोग कर पा रहे हैं। कई बार तो योग्यताओं के असंतुलन के कारण स्थिति और भी विकट हो जाती है। जब एक एमबीए या बीटेक छात्र चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन करता है तो वह केवल खुद को ही नहीं बल्कि एक वास्तविक दसवीं पास बेरोजगार को भी प्रतिस्पर्धा से बाहर कर देता है।
राजस्थान में चपरासी भर्ती के लिए उच्च शिक्षित युवाओं की भीड़ उमडऩे से एक और गंभीर सवाल खड़ा हो गया है कि क्या हमारी शिक्षा युवाओं को वास्तव में रोजगार दिलाने लायक बना रही है? अगर लाखों स्नातक और स्नातकोत्तर केवल चपरासी बनने की चाह रखते हैं तो इसका सीधा मतलब है कि शिक्षा रोजगारोन्मुखी नहीं रही। शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री बांटना नहीं होना चाहिए बल्कि छात्रों को ऐसा कौशल और आत्म विश्वास देना चाहिए कि वे अपने दम पर रोजगार खड़ा कर सकें। दुर्भाग्य से आज अधिकांश युवा डिग्रीधारी तो हैं लेकिन कौशलहीन हैं। इसी वजह से वे निजी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते और अंतत: सरकारी नौकरी की दौड़ में लग जाते हैं।
सरकार ने कौशल भारत मिशन और अन्य योजनाओं के जरिए कौशल विकास पर जोर तो दिया है लेकिन उसकी पहुंच और असर अब भी सीमित है। आईटी, कृषि, निर्माण, स्वास्थ्य और सेवा क्षेत्र में असीमित संभावनाएं हैं लेकिन वहां प्रशिक्षित और दक्ष लोगों की कमी बनी हुई है। आज स्टार्टअप संस्कृति पूरे देश में फैल रही है पर हमारे ग्रामीण और कस्बाई इलाकों के लाखों युवा इससे वंचित हैं। बड़ा सवाल है कि इस समस्या का समाधान क्या है? इसके लिए काफी कुछ करने की जरूरत है। अगर उच्च शिक्षा के साथ युवाओं को कौशल आधारित प्रशिक्षण दिया जाए तो वे न केवल आत्म निर्भर बनेंगे बल्कि स्वरोजगार और उद्यमिता की राह भी चुन सकेंगे।
सरकार की रोजगार नीतियों को व्यावहारिक बनाना होगा। समाज को भी सरकारी नौकरी की मानसिकता से बाहर आने की जरूरत है। हर जिले में उच्च स्तरीय कौशल केंद्र विकसित कर आईटी, कृषि, निर्माण, मशीनरी और सेवा क्षेत्र की जरूरतों के अनुसार युवाओं को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। यदि सरकार युवाओं को छोटे उद्योग-व्यवसाय शुरू करने के लिए आसान ऋण, तकनीकी सहयोग और बाजार उपलब्ध कराए तो उद्यमिता को बढ़ावा मिलेगा।
राजस्थान में चपरासी बनने के लिए लाखों युवाओं के उमडऩे से साफ है कि बेरोजगारी केवल आंकड़ों का खेल नहीं है बल्कि यह हमारी शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक सोच की विफलता का परिणाम है। स्वरोजगार भी सरकारी नौकरी जितना ही सम्मानजनक और सुरक्षित हो सकता है, युवाओं को यह भरोसा दिलाना होगा। परिवार और समाज को यह स्वीकार करना होगा कि रोजगार केवल सरकारी नौकरी तक सीमित नहीं है। स्वरोजगार, निजी क्षेत्र और पैतृक व्यवसाय भी उतने ही सम्मानजनक हैं। इनके जरिए न केवल आजीविका बल्कि समाज में मान-सम्मान भी हासिल किया जा सकता है।
अमरपाल सिंह वर्मा
ऋतु परिवर्तन और नवरात्र की वैज्ञानिकता
डा. विनोद बब्बर
नवरात्र ‘शक्ति-जागरण‘ पर्व है। पुराणों में शक्ति उपासना के अनेक प्रसंग हैं। भगवान राम ने रावण को पराजित करने से पूर्व शक्ति की उपासना थी तो श्रीकृष्ण ने योगमाया (देवी कात्यायनि) का आश्रय लेकर ही विभिन्न लीलाएं की। नवरात्र भारतीय गृहस्थ के लिए शक्ति-पूजन, शक्ति-संवर्द्धन और शक्ति-संचय के दिन हैं। नवरात्र में शक्ति की आराधना व्रतादि के द्वारा हम त्रिविध शक्ति का संचय कर भाव जीवन-यात्रा के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। वर्ष में दो बार 9 दिन ‘नवरात्र’ आते हैं, एक चैत्र वासन्तिक नवरात्र और दूसरे आश्विन में शारदीय नवरात्र। वास्तव ये अवसर ऋतु परिवर्तन के है। चैत्र में ग्रीष्म ऋतु आती है तो आश्विन में शरद का आगमन निकट होता है। क्या वृक्ष, लता, गुल्मादि वनस्पति, क्या जल, क्या आकाश और वायु-मण्डल सभी में परिवर्तन होने लगता है।
दोनो ही नवरात्रों के अवसर पर प्रकृति अपने यौवन पर होती है, अर्थात् धरती पर वृक्षों, लताओं, वल्लरियों, पुष्पों एवं मंजरियों पर हर तरफ हरियाली से साक्षात्कार होता है। खेत खलिहान लहलहाते हैं क्योंकि खरीफ और रबी की फसलें तैयारी की ओर होती है। जब प्रकृति अपनी सुगन्ध समीर का प्रसार करती है, उसी समय गली-गली शक्ति स्परूपा मां भगवती की उपासना के नौ दिनों हर तरफ उत्सवी माहौल रहता है।
यह समय जब न अधिक गर्मी है, न अधिक सर्दी है. मनुष्य शरीर को कष्ट दिये बिना सहजता से उपासना, व्रत कर सकता है। नौ दिन उपवास करना केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि स्वास्थ्य रक्षा का आवश्यक अवसर भी है। तुलसी दास ने भी श्री रामचरितमानस में उपवास के बारे में कहा है- भोजन करिउ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।
हमारे ऋषियों की देन विश्व की श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में भी उपवास का विस्तृत उल्लेख मिलता है। नवरात्र जैसे ऋतु संधि के अवसर पर इसे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए बहुत लाभदायक बताया गया है। आयुर्वेद में कहा गया है- ‘आहारं पचति शिखी दोषनाहारवर्जितः।‘ अर्थात् जीवनी-शक्ति भोजन को पचाती है। यदि भोजन न ग्रहण किया जाए तो जीवनी-शक्ति शरीर से विकारों को निकालने की प्रक्रिया में लग जाती है।
ऋतु संधि के अवसर पर लगभग प्रत्येक व्यक्ति का शरीर प्रभावित होता है। कारण है ऋतु-परिवर्तन मानव शरीर में छिपे हुए विकारों एवं ग्रंथि-विषों को उभार देता है। यह उसी का स्वाभाविक परिणाम होता है कि हम अक्सर सर्दी जुकाम, बुखार, पेचिश, मल, अजीर्ण, चेचक, हैजा, इन्फ्लूएंजा आदि रोगों के प्रभाव में आ जाते हैं। अतः यह उचित समय है जब हम उपवास द्वारा शरीर के रसायनों को संतुलित कर जीवनी-शक्ति को बढ़ाते है। यह बात विशेष रूप से समझने की है कि सामान्य उपवास और ऋतु संधि अर्थात् नवरात्र पर किये गये उपवास में अंतर है। नवरात्र में जब चहुँ ओर वातावरण विशेष ऊर्जा और उत्साह लिए होता है, हम उपवास के माध्यम से संयम, ध्यान और भक्ति को उनके वास्तविक अर्थों में समझ और अनुभव कर सकते हैं। यह अवसर हमारे शारीरिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास का महत्वपूर्ण काल होता है।
यह विशेष स्मरणीय है कि उपवास का हर धर्म, सम्प्रदाय में महत्व है। उपवास को वैज्ञानिक व्यवहार भी कहा जा सकता है जबकि नवरात्र उपवास को आध्यात्मिक स्पर्श देते हुए ऋतु परिवर्तन की इस बेला पर अंग-प्रत्यंग को ऊर्जा प्रदान करते हुए मन- मस्तिष्क को नवउत्साह और आनंद से सराबोर करता है।
संसार के अधिकांश रोगी इन दोनों मासों में या तो शीघ्र अच्छे हो जाते हैं या मुक्त हो जाते हैं। इसीलिए वेदों में -‘जीवेत् शरदः शतम्’- प्रार्थना करते हुए सौ शरत् काल पर्यन्त (वर्षाकाल पर्यन्त नहीं) जीने की प्रार्थना की गई है। उसमें वसन्त की अपेक्षा शरद् कुशलता से बीत जाए तो वर्ष भर जीने की आशा बंध जाती है इसी कारण वर्ष का अपर नाम ही ‘शरत्’ पड़ गया।
शास्त्रकारों ने सन्धिकाल के इन मासों में शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने के लिए नौ दिन तक विशेष व्रत का विधान किया है। घर में भगवती की आराधना के लिय जौं बोये जाते हैं इनको गर्मी पहुँचाने के लिए आक धतूरा आदि के पत्ते चाहिए, पूजन के लिए फूल भी आवश्यक है, अतः वैसे आप चाहे भ्रमण के लिए न जाते हों, पर इनको लाने के लिए तो आपका प्रातः उठकर वन की ओर जाना ही होगा। प्रातःकालीन प्राणपद वीरवायु का सेवन स्वास्थ्य के लिए अमित गुणकारी होता है। फूल और पत्तों के संग्रह के बहाने यह भ्रमण-‘वसन्ते भ्रमणं पथ्यम्’ -के अनुसार शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगा। इस दिन तक निरन्तर जाने से अब भ्रमण में कुछ आनन्द-सा आने लगा, अब आप बिना किसी के उठाए स्वयं प्रबुद्ध होकर भ्रमणार्थ जा सकते हैं। गृहकोण स्थित भगवती के मण्डप के सामने अहर्निश जलते हुए धृत और तेल के दीपों का सुस्निग्ध धूम और पूजन के समय जलाए जाने वाले धूप, अगर बत्ती, कर्पूरादि सुगान्धित पदार्थों का धूम इस सन्धिकाल में उत्पन्न होने वाले सभी कीटाणुओं का विनाश कर स्वयं हमें और हमारे परिजनों को में कीटाणुओं से होने वाले रोगों से मुक्ति का उपाय करता है।
नवरात्रों का समय शारीरिक-शक्ति का संवर्द्धक हैं, वहां मानसिक- शक्ति-संचय के लिए भी नवरात्र महत्वपूर्ण अवसर है। भगवती जगदम्बिका के सामने सप्तशती, देवी-भागवत, वाल्मीकि -रामायण, रामचरितमानस या इसी प्रकार के -सुप्त आत्माओं के प्राण फूँक देने वाले उदात्त चरित्रों के पारायण करने से आपकी मानसिक-शक्ति का विकसित होना निश्चित् ही हैं.
नवरात्र पूजन के अंतिम दिन कन्या पूजन का धार्मिक कारण यह है कि कुंवारी कन्याएं माता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती हैं।
मां दुर्गा उस पर अपनी कृपा बरसाती हैं। वैसे भी ‘सप्ताशती‘ के अनुसार ‘स्त्रियः समस्तास्तव देवि भेदाः।‘ अर्थात विश्व की सभी नारियाँ‘ भगवती के भेद या प्रकार है।
नव रक्त-संचारी वसन्त का प्रभाव शेष होने के कारण तन-मन में मादकता की तरंगे उठेंगी, परंतु संयम को अधिमान देते हुए इन दिनों व्रती रहना चाहिए। कहा भी गया है- ‘स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु’ – के अनुसार विश्व की सम्पूर्ण स्त्रियों को जगदम्बा का ही रूप समझते हुए वीर वीरांगनाओं के चरित्र-परायण द्वारा वह मानसिक बल सम्पादन करना है कि काम क्रोधादि तुच्छ शत्रु आपके मन पर विजय न पा सकें। इस प्रकार नवरात्र के अनुष्ठान का अध्यात्मिक महत्व होने के साथ-साथ शक्तिवर्द्धक होना तय है। ‘तज्जपस्दर्थभावनम्’ अर्थात् किसी भी ग्रंथ अथवा मंत्र का पारायण करते हुए उसके अर्थ को हृदयंगम करने, उसके गुणों को धारण करने से आत्मिक शक्ति विकसित होती हैं।
डा. विनोद बब्बर
शरणार्थियों के स्वागत का निर्णय आज जर्मनी की सबसे बड़ी समस्या बन कर उभरा है
रामस्वरूप रावतसरे
जर्मनी पहले और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यह देश दुनिया के बेताज बादशाह था। उसके बाद के दिनों में भी यह यूरोप की एक सबसे बड़ी ताकत थी लेकिन बीते एक दशक में यहां बहुत कुछ बदला है। कई बार ऐसा होता है कि सदियों से चली आ रही चीजें महज कुछ वर्षों में पूरी तरह बदल जाती हैं। आमतौर पर हम बेहद तेज गति से हुए ऐसे बदलावों की उम्मीद नहीं करते हैं लेकिन चाहे-अनचाहे ऐसा हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ है दुनिया के एक बड़े मुल्क के साथ। यह ऐसा मुल्क है जिसकी कभी पूरी दुनिया में तूती बोलती थी लेकिन बीते एक दशक में इस देश में भयंकर रूप से बदलाव हुआ है। यहां अचानक से इस्लाम मानने वाले मुस्लिम आबादी में भयंकर रूप से इजाफा हुआ है।
दरअसल, 10 साल पहले 2015 में जर्मनी ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया था जब तत्कालीन चांसलर एंजेला मर्केल ने सीरिया, अफगानिस्तान और इराक जैसे युद्धग्रस्त और आर्थिक रूप से अस्थिर देशों से आने वाले लाखों शरणार्थियों के लिए अपने देश के दरवाजे खोल दिए। मर्केल का यह कदम स्वागत संस्कृति के रूप में जाना गया, उस समय वैश्विक सुर्खियों में छाया रहा लेकिन महज एक दशक बाद इस निर्णय का प्रभाव जर्मनी के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ताने-बाने पर स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। इससे जर्मनी की राजनीति और सामाजिक धारणाओं को नया आकार मिला है।
वर्ष 2015 में जब सीरिया में गृहयुद्ध अपने चरम पर था और अफगानिस्तान व इराक जैसे देश हिंसा और अस्थिरता से जूझ रहे थे, तब लाखों लोग सुरक्षित आश्रय की तलाश में यूरोप की ओर बढ़े। यूरोप में जर्मनी एक ऐसा मुल्क है जो आर्थिक रूप से स्थिर और समृद्ध है। यह देश इन शरणार्थियों का प्रमुख गंतव्य बन गया. 2015 और 2016 में जर्मनी में 11.64 लाख लोगों ने पहली बार शरण के लिए आवेदन किया। इसमें से अधिकांश सीरिया, अफगानिस्तान और इराक से थे। 2015 से 2024 तक यानी नौ वर्षों में कुल 26 लाख आवेदन आए। इस तरह जर्मनी यूरोपीय संघ में ऐसे आवेदन हासिल करने वाला शीर्ष देश बन गया। मर्केल ने यह निर्णय मानवीय आधार पर लिया था लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह व्यावहारिकता से भी प्रेरित था।
अमेरिका समाचार चैनल सीसीएनएन ने इसको लेकर एक डिटेल रिपोर्ट छापी है। सीएनएन से बातचीत में हिल्डेशाइम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हानेस शमैन ने कहा- मर्केल का उद्देश्य यूरोपीय शरण प्रणाली को स्थिर करना था क्योंकि अन्य यूरोपीय देश इस संकट से निपटने के लिए तैयार नहीं थे हालांकि, इस निर्णय ने जर्मनी के सामने अप्रत्याशित चुनौतियां पैदा कर दी है। जर्मनी में एक दशक में करीब दो करोड़ लोगों ने शरण के लिए आवेदन किया बताया जा रहा है।
2015 में जर्मनी के लोगों ने शरणार्थियों का स्वागत गर्मजोशी से किया. म्यूनिख में स्थानीय लोग शरणार्थियों को भोजन और पानी बांटने के लिए सड़कों पर उतरे. अनस मोदमानी जैसे शरणार्थी जो 17 साल की उम्र में सीरिया से भागकर जर्मनी पहुंचे, इसे अपने जीवन का सबसे अच्छा पल बताया लेकिन यह स्वागत संस्कृति ज्यादा समय तक नहीं टिकी। 2016 की नववर्ष की पूर्व संध्या पर कोलोन में महिलाओं पर सामूहिक यौन हमलों की घटना हुई। इसमें शरणार्थियों को दोषी ठहराया गया। इस घटना ने मर्केल की नीतियों पर सवाल उठाए और सामाजिक माहौल को बदल दिया। इस घटना ने दक्षिणपंथी दल अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी को एक नया मंच प्रदान किया। उस वक्त तक इस दल को जर्मनी में बहुत पसंद नहीं किया जाता था। 2013 में स्थापित यह पार्टी हाशिए पर थी। यह पार्टी की नीतियां काफी हद तक हिटलर की नीति से प्रभावित है। यह अब जर्मनी की दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बन चुकी है। एएफडी ने शरणार्थी-विरोधी और आप्रवासन-विरोधी भावनाओं को हवा दी, जिसका असर हाल के चुनावों में साफ दिखाई देता है। इस बात की पुष्टि इस रिपोर्ट से होती है कि 2015 में केवल 38 फीसदी जर्मन शरणार्थियों की संख्या कम करने के पक्ष में थे लेकिन 2025 तक यह आंकड़ा 68 फीसदी तक पहुंच गया है। यानी अब जर्मन जनता शरणार्थियों को पसंद नहीं कर रही है।
वमर्केल की पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) के वर्तमान चांसलर फ्रेडरिक मर्ज ने शरणार्थी नीति में व्यापक बदलाव की घोषणा की है। मर्ज लंबे समय से मर्केल की नीतियों के खिलाफ थे। अब उन्होंने सीमा पर हजारों अतिरिक्त गार्ड तैनात करने और शरणार्थियों को सीमा पर ही रोकने की नीति अपनाई है हालांकि बर्लिन की एक अदालत ने इस कदम को गैरकानूनी ठहराया। मर्ज ने स्वीकार किया कि जर्मनी 2015 के संकट से निपटने में विफल रहा और अब इसे ठीक करने की कोशिश कर रहा है। 2024 में सीरिया में बशर अल-असद शासन के पतन के बाद एएफडी की सह-नेता एलिस वाइडेल ने मांग की कि जर्मनी में रह रहे सीरियाई शरणार्थी तुरंत अपने देश लौटें। यह बयान दर्शाता है कि आप्रवासन-विरोधी भावनाएं अब मुख्य धारा की राजनीति का हिस्सा बन चुकी हैं।
जर्मनी का शरणार्थी संकट न केवल इस देश की राजनीति को प्रभावित कर रहा है बल्कि पूरे यूरोप में आप्रवासन नीतियों पर बहस को तेज कर रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि मर्केल का निर्णय उस समय की परिस्थितियों में अपरिहार्य था लेकिन इसके दीर्घकालिक परिणामों ने जर्मनी को एक कठिन स्थिति में ला खड़ा किया है। प्रोफेसर डैनियल थाइम के अनुसार- जर्मनी में शरण आवेदनों की संख्या में हाल के वर्षों में कमी आई है लेकिन सामाजिक और राजनीतिक तनाव कम नहीं हुआ है। 2025 में जर्मनी में शरण आवेदनों की संख्या में और कमी देखी गई लेकिन यह मर्ज की नई नीतियों का परिणाम है या शरणार्थियों के लिए जर्मनी की आकर्षकता कम होने का, यह अभी स्पष्ट नहीं है। जो स्पष्ट है, वह यह कि जर्मनी का सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य स्थायी रूप से बदल गया है। एएफडी जैसी पार्टियों का उदय और आप्रवासन-विरोधी भावनाओं का बढ़ना इस बात का संकेत है कि मर्केल की दरियादिली अब अतीत की बात हो चुकी है। जर्मनी अब एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहां उसे अपने मानवीय मूल्यों और राष्ट्रीय हितों के बीच संतुलन बनाना होगा। शरणार्थी संकट ने न केवल जर्मनी की नीतियों को बदला है बल्कि इसने देश की आत्म-छवि और यूरोप में इसकी भूमिका पर भी गहरा प्रभाव डाला है।
रामस्वरूप रावतसरे
इंजीनियरिंग शिक्षा: अब कम होगी कंप्यूटर साइंस की सीटें
राजेश जैन
पिछले दशक में इंजीनियरिंग की कंप्यूटर साइंस, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, डेटा साइंस, मशीन लर्निंग जैसी टेक्नोलॉजी उन्मुख शाखाएं छात्रों और कॉलेजों, दोनों की पहली पसंद बन गयी थीं। कारण स्पष्ट हैं — उच्च सैलरी, नौकरी के ग्लोबल अवसर, इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी उद्योग की होड़ और डिजिटल इंडिया की महत्वाकांक्षाएं। इस सफलता की चमक ने यह सोच दी कि जितना हो सके सीएसई में सीटें बढ़ाओ। तेलंगाना हाई कोर्ट के ताज़ा फैसले ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है-कितनी बढ़ी हुई सीएसई सीटें अभी मांग के अनुरूप हैं? क्या यह वृद्धि स्थिर है या सिर्फ़ इरादा-मात्र है? अगर यह मांग कम हो गयी तो क्या भविष्य में बेरोज़गारी की लौ में झुलसेंगे छात्र?
हाल ही में तेलंगाना हाई कोर्ट ने राज्य सरकार के उस फैसले को सही ठहराया जिसमें कहा गया कि कंप्यूटर साइंस (सीएसई) की सीटें अब और नहीं बढ़ाई जा सकतीं। जिन कॉलेजों ने मनमानी करते हुए हजारों सीटें जोड़ ली थीं, उनकी संख्या घटाई जाएगी। कोर्ट का तर्क साफ था—मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़ना खतरनाक है। तेलंगाना के इस आदेश ने न सिर्फ वहां के प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेजों को झटका दिया, बल्कि पड़ोसी राज्यों के लिए भी चेतावनी की घंटी बजा दी। खासकर कर्नाटक ने तो तुरंत संकेत दे दिए हैं कि वे भी इसी दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।
क्यों बढ़ी कंप्यूटर साइंस की सीटें?
पिछले कुछ वर्षों में आईटी सेक्टर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डेटा साइंस और मशीन लर्निंग की तेज़ी से बढ़ती मांग ने छात्रों और कॉलेजों, दोनों को आकर्षित किया। यहां प्लेसमेंट पैकेज और नौकरी के मौके ज़्यादा दिख रहे थे। इसलिए सीएसई छात्रों की पहली पसंद बन गई । कॉलेजों ने इसे सुनहरा मौका समझा और एआईसीटी (ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन) से अप्रूवल लेकर बड़ी संख्या में सीटें बढ़ानी शुरू कर दीं। कुछ कॉलेजों ने तो हद ही कर दी। जहां पहले 200–300 सीटें थीं, वहां अचानक 1500–2000 सीएसई सीटें कर दी गईं।
एआईसीटी का रोल और विवाद
एआईसीटी का नियम है कि कोई भी कॉलेज बिना उसकी मंजूरी के सीट नहीं बढ़ा सकता लेकिन हाल के वर्षों में संस्था ने काफ़ी लचीला रवैया अपनाया।
यदि किसी कॉलेज के पास बिल्डिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर है तो उसे सीटें बढ़ाने की इजाज़त मिल जाती थी। कॉलेज इस नियम का फायदा उठाकर बड़ी संख्या में सीटें सीएसई में ट्रांसफर करने लगे। समस्या यह है कि एआईसीटी की मंजूरी तकनीकी आधार पर थी जबकि मार्केट की वास्तविक मांग और भविष्य की संभावनाओं का आकलन नहीं हुआ। यही वजह है कि अब राज्य सरकारें और अदालतें हस्तक्षेप कर रही हैं।
भविष्य की चुनौती: मांग बनाम आपूर्ति
सीएसई और एआई की डिमांड अभी ऊंचाई पर है लेकिन कोई भी मार्केट अनंत नहीं होता। यदि सीटें लगातार बढ़ती रहीं तो कुछ वर्षों बाद बेरोज़गारी का खतरा बढ़ेगा। टेक सेक्टर में छंटनी पहले से देखने को मिल रही है। दूसरी ओर, मैकेनिकल, सिविल, इलेक्ट्रिकल जैसी पारंपरिक शाखाओं में दाख़िला लेने वाले छात्रों की संख्या घट रही है। सरकारों को डर है कि यदि यही ट्रेंड जारी रहा तो भारत के पास पुल बनाने वाले इंजीनियर, स्टील इंडस्ट्री के विशेषज्ञ या इंफ्रास्ट्रक्चर इंजीनियर नहीं बचेंगे।
तेलंगाना से कर्नाटक तक और आगे…
तेलंगाना के फैसले के बाद अब कर्नाटक के उच्च शिक्षा मंत्री ने कहा है कि वे भी सीएसई सीट फ्रीज़ करने का नियम लाने पर विचार कर रहे हैं। इससे बड़े यानी टीयर-1 शहरों में प्राइवेट कॉलेजों का अनियंत्रित विस्तार रुकेगा और भविष्य की बेरोज़गारी कम होगी। यदि कर्नाटक ऐसा करता है तो महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों पर भी दबाव बनेगा। और एक बार यह सिलसिला शुरू हुआ तो यह पूरे भारत की इंजीनियरिंग शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करेगा।
अब क्या होगा?
सीएसई सीटें घटेंगी तो एडमिशन की दौड़ और भी कठिन हो जाएगी। छात्रों को मजबूरी में अन्य शाखाओं जैसे-मैकेनिकल, सिविल, इलेक्ट्रिकल, केमिकल की ओर रुख करना होगा। कॉलेज भी चालाकी दिखाएंगे और कहेंगे कि सीएसई नहीं तो एआई/डेटा साइंस ले लो लेकिन सरकारें उन पर भी सीमा तय कर सकती हैं। इसलिए अब वह दौर आने वाला है जब छात्रों को अपनी सोच बदलनी होगी और सिर्फ़ सीएसई पर निर्भर नहीं रहना होगा।
भारत की इंजीनियरिंग शिक्षा का बड़ा सवाल
भारत में इंजीनियरिंग कॉलेजों की सबसे ज़्यादा संख्या महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में है। यदि इन राज्यों ने सीएसई सीटों पर रोक लगा दी तो राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा असर दिखेगा। इंजीनियरिंग शिक्षा का संतुलन फिर से पारंपरिक शाखाओं की ओर झुक सकता है। इससे इंडस्ट्री की ज़रूरतें भी पूरी होंगी और सभी सेक्टर्स के लिए स्किल्ड इंजीनियर तैयार होंगे।
संतुलन ही समाधान
कंप्यूटर साइंस आज की तारीख में चमकदार ब्रांच है लेकिन हर चमकदार चीज़ हमेशा टिकाऊ नहीं होती। सरकार और कोर्ट की दलील यही है कि सिर्फ़ अल्पकालिक डिमांड देखकर सीटें बढ़ाना दूरदर्शिता नहीं है। छात्रों को भी चाहिए कि वे बाकी शाखाओं की संभावनाओं को समझें। इंफ्रास्ट्रक्चर, ऑटोमोबाइल, मैन्युफैक्चरिंग, एनर्जी जैसे सेक्टर भी भारत की रीढ़ हैं। आने वाले दो-तीन साल में यह नियम पूरे देश में लागू हो सकता है। ऐसे में छात्रों, अभिभावकों और कॉलेजों को अपनी रणनीति अभी से बदलनी होगी। कुल मिलकर तेलंगाना का कोर्ट यह फैसला भारत के इंजीनियरिंग शिक्षा इतिहास में एक टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है। यह न सिर्फ़ सीएसई की अंधी दौड़ को थामेगा बल्कि बाकी इंजीनियरिंग शाखाओं को भी नया जीवन देगा।
राजेश जैन