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भगदड़ में सतर्कता और समझदारी ही सबसे बड़ी सुरक्षा

हाल ही में बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर भगदड़ मचने से 11 लोगों की मौत हो गई और 33 लोग घायल हो गए, यह बहुत ही दुखद और हृदयविदारक घटना है। वास्तव में भगदड़ की घटनाएं तब घटित होतीं हैं जब भीड़ अपना नियंत्रण खो देती है। बहुत बार अफवाहों के फैलने , खौफ,डर या घबराहट और सीमित जगह के कारण भी भगदड़ की घटनाएं घटित हो जातीं हैं। खराब भीड़ प्रबंधन, जैसे कि पर्याप्त सुरक्षाकर्मी या निकास के लिए स्पष्ट मार्ग न होना, भी भगदड़ का कारण बन सकता है‌। बेंगलुरु में जो घटना घटित हुई है, उसमें एक लाख से भी ज़्यादा फ़ैंस रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु की जीत (18 साल बाद आईपीएल ट्रॉफी की जीत का जश्न मनाने के लिए) का जश्न मनाने के लिए स्टेडियम के बाहर जमा हुए थे। वास्तव में, जब यह हादसा हुआ, उस समय स्टेडियम का गेट नहीं खुला था और बड़ी संख्या में लोग एक छोटे से गेट को धक्का देकर तोड़ने की कोशिश कर रहे थे कि इसी दौरान अचानक भगदड़ मच गई। बताता जा रहा है कि वहां करीब एक लाख लोगों के आने की उम्मीद थी, लेकिन संख्या दो लाख से भी अधिक के आसपास पहुंच गई और स्टेडियम के इर्द-गिर्द भी काफ़ी लोग जीत का जश्न मनाने के लिए जमा हो गए थे। यह ठीक है कि किसी टीम की जीत पर दर्शकों का उत्साह स्वाभाविक ही होता है लेकिन इतने बड़े आयोजन की तैयारियां बहुत ही माकूल होनी चाहिए, क्यों कि आइपीएल का हमारे देश में एक बड़ा क्रेज है और ऐसे आयोजनों पर काफी भीड़ उमड़ती है। हजारों सुरक्षा कर्मी भी भीड़ को नियंत्रित नहीं कर पाए, और ऐसा तब घटित होता है जब मैनेजमेंट सही नहीं होता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि यह पूरी घटना कहीं न कहीं प्रशासन की लापरवाही और भीड़ प्रबंधन में विफलता को ही दर्शाती है। यदि समय रहते भीड़ को नियंत्रित करने के वैकल्पिक उपाय, जैसे कि पर्याप्त वैरिकेडिंग, अतिरिक्त पुलिस बल की तैनाती, आपातकालीन निकासी की व्यवस्था इत्यादि पहले से की गई होती तो ऐसी हृदयविदारक घटना को टाला जा सकता था। घटना के संदर्भ में मीडिया के हवाले से यह भी सामने आया है कि आरसीबी ने अपने प्रशंसकों को मुफ्त पास बांटे, जिसकी वजह से अचानक भीड़ इतनी बढ़ गई। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भगदड़ की इस त्रासदी के दर्द ने जीत की ख़ुशी को ख़त्म कर दिया है। सच तो यह है कि लोग आरसीबी की आईपीएल में जीत के जश्न का गवाह बनने आए थे, लेकिन इस त्रासदी ने अनेक परिवारों को वह दर्द दिया है,जो वो शायद ही कभी भुला पायेंगे। हमारे देश में अब तक भगदड़ की अनेक घटनाएं सामने आ चुकीं हैं, लेकिन दुःख इस बात का है कि हम ऐसी त्रासदियों से सबक नहीं लेते हैं और थोड़ी सी लापरवाही के कारण बहुत बार बड़ी घटनाएं घटित हो जातीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि भगदड़ एक गंभीर खतरा है, जिससे बचने के लिए हमें सतर्क रहने और उचित उपाय करने चाहिए। पाठकों को ज्ञात होगा कि कुछ समय पहले ही उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुंभ मेला के दौरान मौनी अमावस्या के दिन मची भगदड़ में 30-40 लोगों की मौत हो गई थी।वास्तव में,भगदड़ भीड़ प्रबंधन की असफलता या अभाव की स्थिति में पैदा हुई मानव निर्मित आपदा है। अक्सर भगदड़ मचने के पीछे जो कारण निहित होते हैं उनमें क्रमशः मनोरंजन कार्यक्रम,एस्केलेटर और मूविंग वॉकवे, खाद्य वितरण, जुलूस, प्राकृतिक आपदाएँ, धार्मिक आयोजन, धार्मिक/अन्य आयोजनों के दौरान आग लगने की घटनाएँ, दंगे, खेल आयोजन, मौसम संबंधी घटनाएँ आदि शामिल होते हैं। बैरिकेड्स, अवरोध, अस्थायी पुल, अस्थायी संरचनाएँ और पुल की रेलिंग का गिरना, दुर्गम क्षेत्र (पहाड़ियों की चोटी पर स्थित धार्मिक स्थल जहाँ पहुँचना मुश्किल है), फिसलन युक्त या कीचड़ युक्त मार्ग, संकरी गलियाँ एवं संकरी सीढ़ियाँ, खराब सुरक्षा रेलिंग, कम रोशनी वाली सीढ़ियाँ, बिना खिड़की वाली संरचना, संकीर्ण एवं बहुत कम प्रवेश या निकास स्थान, आपातकालीन निकास का अभाव भी बहुत बार भगदड़ के कारण बन सकते हैं। अप्रभावी भीड़ प्रबंधन तो भगदड़ मचने का कारण है ही। बहुत बार यह देखा जाता है कि किसी एक प्रमुख निकास मार्ग पर ही लोगों की निर्भरता होती है ,जो भगदड़ का कारण बन जाती है। आज अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि किसी कार्यक्रम विशेष के लिए क्षमता से अधिक लोगों को अनुमति दे दी जाती है। बहुत से स्थानों पर उचित सार्वजनिक संबोधन प्रणाली का भी अभाव होता है, जिससे सूचना देने में दिक्कत आती है। भीड़ अनेक बार गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार अपनाती है और सुरक्षा नियमों का ठीक से पालन नहीं करती है। बेंगलुरु में आरसीबी के जश्न के दौरान जो भगदड़ मची,उसका कारण स्टेडियम के पास बने एक नाले के अस्थायी स्लैब का टूटना बताया जा रहा है, जिस पर खड़े होकर लोग टीम को देखने की कोशिश कर रहे थे। मीडिया रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि जब स्लैब अचानक टूटकर गिरा, तो वहां मौजूद लोगों में अफरा-तफरी मच गई और भगदड़ जैसी स्थिति बन गई। मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी आया है कि बेंगलुरु के मेट्रो स्टेशन पर भी आरसीबी की विक्ट्री परेड देखने जाने वालों की भारी भीड़ जमा थी और वहां सुरक्षा के इंतजाम पर्याप्त नहीं थे। ये तो गनीमत रही की, मेट्रो स्टेशन पर कोई हादसा नहीं हुआ।हालांकि, यह भी सामने आया है कि बेंगलुरु ट्रैफिक पुलिस ने पहले से ही आरसीबी की विजय परेड को देखते हुए ट्रैफिक एडवाइजरी जारी की थी, लेकिन मौके पर सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं थे। भीड़ का आंकलन गलत साबित हुआ और क्राउड कंट्रोल पूरी तरह फेल हो गया। अंत में यही कहूंगा कि यदि बेंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम में व उसके बाहर अच्छी चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था और ट्रैफिक मैनेजमेंट होती तो ऐसी घटना को घटित होने से रोका जा सकता था। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए हर सुरक्षा प्रोटोकॉल की समीक्षा हो और उसे सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। हाल फिलहाल जरूरत इस बात की है कि सभी को मिलकर डैमेज कंट्रोल पर काम करना चाहिए तथा साथ ही साथ हादसे की न्यायिक जांच करवाई जानी चाहिए, ताकि घटना के वास्तविक कारणों का पता लगाया जा सके तथा भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए एहतियात बरती जा सके। यह समय एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का समय नहीं है, और इस पर तुच्छ राजनीति करने से राजनीतिक दलों व उनके नेताओं को बाज आना चाहिए। वास्तव में भीड़ प्रबंधन एक विज्ञान है और भीड़ को प्रबंधित करने के लिए आज अनेक तकनीकी उपकरण हैं, जिन्हें काम में लाया जा सकता था। वास्तव में सार्वजनिक आयोजनों के दौरान भीड़ को प्रबंधित करने के लिए पूर्व में ही गहन प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए तथा साथ ही साथ भीड़ को प्रबंधित करने के लिए हमारे पास अच्छी योजनाएं भी होनी चाहिए। अंत में यही कहूंगा कि भगदड़ को रोकने के लिए भीड़ प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए और लोगों को भगदड़ के दौरान कैसे सुरक्षित रहना है, इसकी जानकारी देनी चाहिए। कहना ग़लत नहीं होगा कि भगदड़ में सतर्कता और समझदारी ही सबसे बड़ी सुरक्षा है। इतना ही नहीं,भविष्य में इस तरह के बड़े व सार्वजनिक आयोजनों के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) तय की जानी चाहिए, और उसका अनुपालन भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। वास्तव में, सावधानी, संयम और जागरूकता ही हमें सुरक्षित रख सकती है।

सुनील कुमार महला

सर्वोच्च मानव धर्म है पर्यावरण संरक्षण

डॉ घनश्याम बादल

   जन्म के साथ ही प्रकृति मनुष्य को अपनी संरक्षण भरी अपनी गोद दे देती है. कुदरत ने उसे स्वच्छ जल, हवा, हरी – भरी पृथ्वी, निर्मल आकाश एवं अग्नि दिए हैं ‌। इन्हीं पांच तत्वों से मिलकर पर्यावरण का निर्माण होता है।

   ‌धरती पर मानव जीवन का अस्तित्व एवं उसके वर्चस्व में इन पांचों तत्वों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । मगर मानव ने ही पर्यावरण को इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि आज पर्यावरण संरक्षण एक अहम मुद्दा बन गया है।

   प्रकृति द्वारा प्रदत उपहारों को संरक्षित करना मानव का पहला धर्म  है। ईसाई, इस्लाम, हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, यहूदी, बहाई आदि सभी धर्म पर्यावरण के संरक्षण की प्रेरणा देते हैं ।

   आदि काल से ही धर्म और पर्यावरण में गहरा संबंध रहा है. उदाहरण के तौर पर बौद्ध धर्म का मत है कि सभी जीव जंतुओं एवं प्रकृति  का सम्मान करना चाहिेए। इसी प्रकार बहाई धर्म का मानना है कि प्राकृतिक ऐश्वर्य और विविधता मानव जाति पर ईश्वर की कृपा है, अतः हमे इसकी रक्षा करनी चाहिेए । आइए, देखते हैं विभिन्न धर्मग्रंथ पर्यावरण संरक्षण के बारे में क्या कहते हैं।

     हिंदू धर्म में तो प्रकृति को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ही । प्रकृति के विभिन्न रूपों को देवताओं  का रूप माना गया है। हिंदू धर्म के अनुसार, जीवन पाँच तत्त्वों- क्षिति  जल, पावक,  गगन व  समीर  से मिलकर बना है। इसे पुष्ट करते हुए तुलसीदास रामचरितमानस में एक चौपाई में कहते भी हैं ‘छिति,जल ,पावक, गगन समीरा पंच रचित अति अधम सरीरा’ अब इनसे बना शरीर भले ही अधम हो पर इन पांचों तत्वों को सनातन हिंदू धर्म में देवताओं का स्थान दिया गया है क्योंकि यह मानव को बहुत कुछ देते हैं।

   हिंदू धर्म में पृथ्वी को देवी का रूप माना गया है और इसके विभिन्न अंगों पर्वत, नदी, जंगल, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि को दैवीय कथाओं व पुराणों से जोड़कर देखा जाता है। श्रीमद्भागवतगीता में भी कहा गया है कि ईश्वर सर्वव्यापी है तथा विभिन्न रूपों में सभी प्राणियों में विद्यमान है इसलिये व्यक्ति को सभी जीवों की रक्षा करनी चाहिये।

इस्लाम धर्म में भी कहा गया है कि, पृथ्वी का मालिक खुदा है तथा यहाँ इंसान की भूमिका ख़लीफा अर्थात् खुदा के न्यासी की है एवं इंसान का कार्य पृथ्वी और इसके विभिन्न अवयवों की रक्षा करना है। कुरान के अनुसार, सृष्टि की रचना जल से हुई है तथा जल को व्यर्थ करना इस्राफ (पाप) है। इसके अलावा किसी भी प्राकृतिक संसाधन का अनावश्यक उपयोग करना इस्लाम में वर्जित माना गया है।

ईसाई मत के मतानुसार भी सभी जीवों की रचना ईश्वर के प्रेम का रूप है तथा मानव को जैविक विविधता तथा ईश्वर के निर्माण को नष्ट करने का अधिकार नहीं है। ईसाई धर्म  मनुष्य को सृष्टि के अन्य जीवों की रक्षा उत्तरदायी मानता है। इसके अलावा यह भी संसाधनों के सीमित उपयोग और उनके संरक्षण पर ज़ोर देता है।

   बौद्ध धर्म भी पूर्णतः प्रेम, सद्भाव तथा अहिंसा पर आधारित है। बौद्ध धर्म ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ पर आधारित है जिसे करण-कारण का सिद्धांत भी कहते हैं। इसे हिंदू धर्म के कर्म के सिद्धांत के समान माना जा सकता है अर्थात् मानव के व्यवहार का प्रभाव उसके पर्यावरण पर पड़ता है।  बौद्ध धर्म भी जीव संसाधनों के अतिदोहन को वर्जित करताा है और सभी जीवों की परस्पर निर्भरता में विश्वास करता है ।

 जैन धर्म में अहिंसा को सर्वाधिक  महत्व  दिया गया है तथा किसी भी जीव-जंतु, वनस्पति आदि को नुकसान पहुँचाना वर्जित माना गया है। जैन धर्म के अनुयायियों के लिये प्रकृति व इसके सभी जीव जंतुओं को समान माना गया है तथा इनका संरक्षण और इनके प्रति समान व्यवहार करना जैन धर्म की मूल शिक्षा है। जैन धर्म में जीव जंतुओं की हत्या पर पूर्ण निषेध है इसी निषेध के चलते जैनी चौमास व्रत का भी पालन करते हैं।

   सिखों के धार्मिक ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि संसार में स्थित सभी वस्तुएँ ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही कार्य करती हैं तथा ईश्वर उनकी रक्षा करता है। ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के अनुसार, सभी जीव-जंतु, वृक्ष, नदी, पर्वत, समुद्र आदि को ईश्वर का रूप माना गया है।

   हिब्रू बाइबिल तोराह में प्रकृति के संरक्षण के लिये अनेक नैतिक बाध्यताएँ दी गई हैं। तोराह के अनुसार, “जब ईश्वर ने आदम को बनाया, उसने उसे स्वर्ग के बगीचे दिखाए और कहा मेरे कार्यों को देखो, कितना सुंदर है ये? मैंने जो भी बनाया है वह सब तुम्हारे लिये है। तुम्हें इसकी रक्षा करनी है और यदि तुमने इसे नष्ट किया तो तुम्हारे बाद इसे ठीक करने वाला कोई नहीं होगा।”

    पर्यावरण व प्रकृति के संरक्षण के लिये विभिन्न धार्मिक समूहों द्वारा वैश्विक या स्थानीय स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं।

पाकिस्तान में स्थित कब्रगाहों में प्राचीन वृक्षों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं क्योंकि इनको काटना गुनाह माना जाता है. लेबनान के मैरोनाईट चर्च ने हरीसा  के जंगलों को पिछले 1,000 वर्षों से संरक्षित रखा है।  थाईलैंड के बौद्ध भिक्षुओं ने संकटग्रस्त जंगलों की रक्षा हेतु वहाँ छोटे-छोटे विहारों की स्थापना की है तथा उन्हें पवित्र जंगल घोषित किया गया है । जर्मनी के चर्चों ने स्थानीय समुदायों के सहयोग से सौर ऊर्जा प्रणाली अपनाई है । अमेरिका में रहने वाले अफ्रीकी मूल के लोगों द्वारा’क्वान्ज़ा’ नाम का त्यौहार प्रकृति संरक्षण का एक  उदाहरण है। इसी प्रकार स्वीडन के लूथरन चर्च के सहयोग से स्वीडन में नेशनल फॉरेस्ट स्टेवर्डशिप है।

वस्तुतः हम किसी भी धर्म का अनुशीलन करें परंतु यदि हम पर्यावरण को ही धर्म मान ले तो पर्यावरण की रक्षा स्वयं हो जाएगी।

आज की सबसे बड़ी ज़रूरत तो यही है कि भले ही हम किसी धर्म को मानें या ना मानें लेकिन पर्यावरण को सबसे बड़ा धर्म मानना ही हमारा सबसे बड़ा मानव धर्म हो।  केवल नारों के भरोसे न रहकर प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है कि वह पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे तथा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों में न तो स्वयं शामिल हो एवं न ही अपनी जानकारी के चलते उन गतिविधियों को कहीं होने दे।

गंगा तेरा पानी अमृत …

गंगा दशहरा  विशेष : 

डॉ० घनश्याम बादल 

   इस बार पर्यावरण दिवस एवं गंगा दशहरा एक साथ पड़ रहे हैं. जहां पर्यावरण दिवस भौतिक शुद्धता का प्रतीक है जिससे प्रदूषण पर चोट की जाती है और पर्यावरण की रक्षा का संकल्प लिया जाता है, यही हमारी संस्कृति भी है और जीवन शैली भी। 

जब बात धर्म एवं संस्कृति की की जाती है तो हम जानते हैं कि गंगा भारतीय धर्म व संस्कृति का अभिन्न अंग है । कभी मन के कलुषों को धोने के लिए तो कभी तन को गंगा सा चंगा करने के लिए, कभी घूमने, तीर्थाटन,पर्यटन , दान व पुण्य के बहाने हम गंगा से भेंट करने का अवसर ढूंढ लेते हैं पर हमें खास अवसर देते हैं त्यौहार । 

   ज्येष्ठ मास की शुक्लपक्ष की दशमी तिथि को पड़ने वाला पर्व गंगा दशहरा गंगा के धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व को रेखांकित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण पर्व है । गंगा दशहरा एक पर्व मात्र नहीं वरन् हमें हमारी संस्कृति की ओर ले जाने व पापों के नाश करने का अनोखा पर्व है । यह पर्व भारत की आत्मा में बसने वाले त्यौहारों में से एक है । शायद इसी पर्व की वजह से गंगा को पापनाशिनी की संज्ञा भी दी गई है। 

दस विशेष ज्योतिष योग:

आज के दिन दस विशेष ज्योतिष योग एक साथ इकट्ठे होते हैं, इस वजह से भी इसे दशहरा नाम मिला है । ज्योतिष के जानकारों का कहना है कि गंगा दशहरा पर ज्येष्ठ मास, शुक्लपक्ष, दशमी तिथि, बुधहस्त नक्षत्र, व्यतिपात योग, गर करण, आनंद योग, कन्या राशि का चंद्रमा, वृष राशि का सूर्य एक साथ होते हैं. यही वजह है इसे दशहरा  नाम मिलने का क्योंकि यह दस योगों को हरा या प्रसन्न करने वाला पर्व है । 

 नष्ट होते दस पाप

 मान्यता है कि गंगा दशहरे के दिन यदि कोई व्यक्ति गंगा में प्रवेश करके‘‘ ओउम् नमो भगवती, हिलि हिलि गंगा, मिलि मिलि  गंगा , पावय पावय स्वाहा ….’’ का जाप दस बार कर लेता है तो उसके दस पाप  काम, क्रोध्, लोभ, मद, मोह, डाह, ईर्ष्या, द्वेष, दूषित विचार व हिंसाभाव नष्ट हो जाते हैं। सोचिये जिसके यें दस पाप नष्ट हो गए वह तो सोने सा खरा हो जाएगा । स्कंद पुराण के अनुसार दस पापों के हरने के कारण ही यह स्नान पर्व  दश-हरा कहलाया ।

क्या कहते हैं मिथक 

 आज के ही दिन महाराजा सगर के प्रपौत्र भागीरथ के तप से प्रसन्न हो कर शिव ने गंगा को पृथ्वी पर अपनी केशराशि में रोककर सुरक्षित उतारा था , ज्ञात हो कि यें  सगर पुत्र रानी कुशनी व सुमति के बेटे थे जो अगस्त्य मुनि के शाप से भस्म हो गए थे और उनके तर्पण के लिए कहीं भी जल तक नहीं मिला था क्योंकि अगस्त्य ने उन्हे मुक्ति न मिलने देने के लिए पृथ्वी का सारा जल पी लिया था, तब भागीरथ ने तप करके पहले ब्रह्मा और विष्णु  व बाद में शिव को प्रसन्न करके गंगा को पृथ्वी पर लाने में कामयाबी पाई थी , जिसके जल से उनके पुरखों को मुक्ति मिली । तब से गंगा को मोक्षदायिनी कहा गया  ।

समृद्धि व खुशहाली लाती

भारत के लिए गंगा आज भी समृद्धि व खुशहाली लाती है गंगा के बिना समृद्धिशाली भारत की कल्पना बेमानी है । यह भारत के लिए महज एक नदी मात्र नहीं वरन् पाप नाशिनी, मुक्तिदायिनी व सींचन की सबसे बड़ी साधिका, जल के रूप में जीवन देने वाली , कृषि का आधार  तथा विद्युत उत्पादन का स्रोत है । 

 ‘शिवोऽहं’ का भाव का जागरण

गंगा हममें ‘शिवोऽहं’ का भाव जाग्रत करती है ।  गंगावतरण एक आध्यात्मिक पक्ष है जो मनुष्य के तीनों गुणों को जाग्रत करती है. ब्रह्मा के रूप में रजोगुण, विष्णु के रूप में सतो गुण व  शिव के रूप में तमो गुण के संतुलन के लिए प्रेरित करता है  गंगावतरण का प्रसंग ।  

कर्म की महत्ता 

भागीरथ यहां मानव के कर्म की महत्ता को प्रतिपादित करते हैं, तप  कर्म का रूप है व गंगा उसके कर्म का पुरस्कार । यह कहीं गीता के ‘‘कर्मण्येवऽध्किारस्ते मा फलेषु कदाचन ’’ के सिद्धांत को भी पुष्ट करता है क्योंकि यदि आरम्भ से ही फल की इच्छा मन में घर कर गई तो तपश्चर्या जैसा कष्ट साघ्य कर्म हो ही नहीं सकता है । यह पर्व मूलाधर;ब्रह्मा से हृदयचक्र ;विष्णु और उससे भी आगे सहस्रनर  शिव की प्राप्ति का मार्ग दिखाता है ।

गंगा की उपेक्षा चिन्ताजनक

आज के संदर्भो में गंगा दशहरा पर्व गंगा के प्रति उपजे उपेक्षाभाव की चिन्ता भी जाग्रत करता है , हमारे पर्यावरणविद् लगातार गंगा पर आए संकट से सजग कर रहे हैं , साधु संत भी गंगा पर बनने वाले बांधों, उसके जल प्रवाह को रोकने,नियंत्रित करने , उससे जलविद्युत बनाने जैसे कार्यों का विरोध कर रहे हैं जो कुछ जायज़ और कुछ नाजायज़ है । हां , गंगा की पवित्रता को बनाए रखने की उनकी चिंता  उचित है क्योंकि जिस गति से गंगा में प्रदूषण बढ़ रहा है उससे तो वह मोक्षदायिनी की बजाय रोगदायिनी ही बनती जा रही है ।

समय की मांग

 आज समय की मांग है कि गंगा को हर हाल में पावन रखा जाए, उसमें गिरते मल मूत्र, औद्यागिक दूषित जल व कचरे को रोका जाए, उसकी नियमित सफाई की जाए, उसके जल को खेतों तक जाने दिया जाए , जरुरत से ज्यादा पानी रोका न जाए व नई पीढ़ी को भी उसके महत्त्व से परिचित कराया जाए । 

   गंगा की स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए सरकार ने भी गंगा की पवित्रता और स्वच्छता को नमामि गंगे कार्यक्रम के द्वारा पर्याप्त महत्व दिया है । पर, सारे प्रयासों के बावजूद भी गंगा की निर्मलता का लक्ष्य नहीं प्राप्त की जा सका जो चिंता का विषय है । आशा है गंगा की सफाई व उसकी निर्मलता पर और ध्यान दिया जाएगा तथा आमजन भी रुढ़िवादी चिंतन को छोड़ आस्था के साथ गंगा को निर्मल करने में अधिक से अधिक योगदान करेंगे । 

गंगा दशहरा जरूर मनाएं

अस्तु, गंगा दशहरा जरूर मनाएं पर आज के दिन दान करना न भूलें, भले ही इसे तिलादि के रूप में करें , धर्मिक दृष्टि से करें , आत्मिक सुख के लिए करें या  फिर जरुरतमंदों की सहायता के लिये,  हर दृष्टि से यह दान गंगाा दशहरे पर आपको लाभ ही पहुंचाएगा । और इन सबसे बढ़कर पर्यावरण एवं विज्ञान की दृष्टि से गंगा की स्वच्छता में योगदान जरूर करें जिसे सबसे बेहतर तरीका है गंगा में किसी भी प्रकार की गंदगी ना डालें एवं वर्ष में काम से कम 10 दिन गंगा की सफाई में स्वयंसेवक के रूप में अपना योगदान दें जिससे गंगा एक बार फिर से निर्मल शीतल और मोक्षदायिनी बन सके। 

डॉ घनश्याम बादल

गंगा दशहरा : मां गंगा के धरती पर “अवतरण” का पर्व

गंगा दशहरा पर्व पर विशेष…

प्रदीप कुमार वर्मा

मां गंगा में पवित्र स्नान का पर्व। दशों दिशाओं के शुभ होने से शुभ कार्य का पर्व। हिंदू धर्म में दान और पुण्य का पावन पर्व। और पतित पावनी मां गंगा के पृथ्वी पर अवतरण का पर्व। देश और दुनिया में हर साल ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा दशहरा के रूप में मनाया जाता है। ब्रह्म पुराण व वाराह पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के दशमी तिथि को हस्त नक्षत्र में गर करण, वृष के सूर्य व कन्या के चन्द्रमा में गंगा धरती पर अवतरित हुई थी। सप्तमी को स्वर्ग से आने के बाद तेज वेग को थामने के लिए भगवान शिव ने अपनी जटाओं में मां गंगा को धारण किया। जिसके बाद ज्येष्ठ महीने की दशमी को जटाओं से पृथ्वी पर अवतरित किया था। इस मुहूर्त में स्नान, दान व मंत्र जाप का पूर्ण शुभ फल प्राप्त होता है। इस खास दिन पर मां गंगा और शिवजी की पूजा-उपासना से जाने-अनजाने में हुए कष्टों से छुटकारा मिलता है। 

      पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक गंगा दशहरा मनाने की परंपरा मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के वंशजों से जुड़ी है। राजा सगर की दो रानियां केशिनी और सुमति की कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्ति के लिए दोनों रानियां हिमालय में भगवान की पूजा अर्चना और तपस्या में लग गईं। तब ब्रह्मा के पुत्र महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी से राजा को 60 हजार अभिमानी पुत्र की प्राप्ति होगी। जबकि, दूसरी रानी से एक पुत्र की प्राप्ति होगी। केशिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जबकि सुमति के गर्भ से एक पिंड का जन्म हुआ। उसमें से 60 हजार पुत्रों का जन्म हुआ। एक बार राजा सगर ने अपने यहां पर एक अश्वमेघ यज्ञ करवाया। राजा ने अपने 60 हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी। लेकिन देवराज इंद्र ने छलपूर्वक 60 हजार पुत्रों से घोड़ा चुरा लिया और कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। 

     सुमति के 60 हजार पुत्रों को घोड़े के चुराने की सूचना मिली तो सभी घोड़े को ढूंढने लगे।  तभी वह कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे। कपिल मुनि के आश्रम में उन्होंने घोड़ा बंधा देखा तो आक्रोश में घोड़ा चुराने की निंदा करते हुए कपिल मुनि का अपमान किया।  यह सब देख तपस्या में बैठे कपिल मुनि ने जैसे ही आंख खोली तो आंखों से ज्वाला निकली,जिसने राजा के 60 हजार पुत्रों को भस्म कर दिया। इस तरह राजा सगर के सभी 60 हजार पुत्रों का अंत हो गया और उनकी अस्थियां कपिल मुनि के आश्रम में ही पड़ी रही। राजा सगर जानते थे कि उनके पुत्रों ने जो किया है, उसका परिणाम यही होना था। लिहाजा सभी के मोक्ष के लिए कोई उपाय खोजने बेहद जरूरी था। मोक्षदायिनी गंगा के द्वारा ही सभी पुत्रों की मुक्ति संभव थी। इसलिए राजा सागर सहित उनके वंश के अन्य राजाओं द्वारा पवित्र गंगा मैया को धरती पर लाने के प्रयास शुरू हुए।

        पौराणिक मान्यता के अनुसार राजा सगर के वंशज भगीरथ ने अपनी तपस्या से मां गंगा को धरती पर अवतरित कराया था।  गंगा जब पहली बार मैदानी क्षेत्र में दाखिल हुई, तब जाकर हजारों सालों से रखी राजा सगर के पुत्रों की अस्थियों का विसर्जन हो पाया और राजा सगर के पुत्रों को मुक्ति मिली। यही कारण है कि आज भी देश के कोने-कोने से लोग अस्थि विसर्जन और कर्मकांड करने के लिए हरिद्वार आते हैं। यही नहीं  हिंदू धर्म में गंगा दशहरा के दिन दान और गंगा स्नान का बड़ा महत्व है। शास्त्रों के अनुसार गंगा में स्नान करने से सभी प्रकार के पाप, दोष, रोग और विपत्तियों से मुक्ति मिलती है।  वहीं,  मान्यता यह भी है कि गंगा दशहरा पर अन्न, भोजन और जल समेत आदि चीजों का दान करता है तो उसे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। दशहरा पर्व पर गंगा स्नान के माध्यम से 10 तरह के पापों की मुक्ति का विधान शास्त्रों में है।

     गंगा दशहरा पर पितरों के लिए दान का विशेष महत्व है। इस दिन पितरों के नाम से दान करने से उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है। वहीं इस दिन गरीबों और जरूरतमदों को फल, जूता, चप्पल, छाता, घड़ा और वस्त्र दान करने का भी विधान है।  आचार्य पंडित श्याम सुंदर शर्मा बताते हैं कि इस बार सबसे खास बात यह है कि गंगा दशहरा पर चार शुभ संयोग बन रहे हैँ। इस दिन गंगा स्नान, दान-पुण्य और पूजन करने से दस प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर गंगा या किसी पवित्र नदी में स्नान करें। यदि संभव जल तीर्थ जाना संभव न हो तो घर में गंगाजल मिलाकर स्नान करें। इसके बाद  मां गंगा का ध्यान करते हुए मंत्रों का जाप करें।

       पतित पावनी गंगा को मोक्ष दायिनी कहा गया है। इसी वजह से मान्यता है कि गंगा में डुबकी लगाने से मनुष्य को मरने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। वहीं, उसके पूर्वजों को भी शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा दशहरा के दिन सभी गंगा मंदिरों में भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। वहीं,इस दिन मोक्षदायिनी गंगा मैया का विधिवत पूजन-अर्चना भी किया जाता है। गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालु जन जिस भी वस्तु का दान करें उनकी संख्या दस होनी चाहिए और जिस वस्तु से भी पूजन करें उनकी संख्या भी दस ही होनी चाहिए। ऎसा करने से शुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है। गंगा दशहरे का फल ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा स्नान करने से व्यक्ति के दस प्रकार के पापों का नाश होता है। इन दस पापों में तीन पाप कायिक, चार पाप वाचिक और तीन पाप मानसिक होते हैं इन सभी से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है।

प्रदीप कुमार वर्मा

बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया की जटिल पर्यावरण समस्या

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विश्व पर्यावरण दिवस- 5 जून, 2025
– ललित गर्ग –

बढ़ते तापमान, बदलते जलवायु एवं ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। जिससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। इंसानों को प्रकृति, पृथ्वी एवं पर्यावरण के प्रति सचेत करने के लिये विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को मनाया जाता है, जो पर्यावरण, प्रकृति एवं पृथ्वी के लिए सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय दिवस है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोज्य यह दिवस दुनिया भर के लाखों लोगों को हमारे ग्रह की सुरक्षा और पुनर्स्थापना के साझा मिशन के साथ एकजुट करता है। बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया की एक गंभीर एवं जटिल समस्या है, इसीलिये 2025 में इस दिवस की थीम प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने पर केंद्रित है। कोरिया गणराज्य वैश्विक समारोह की मेज़बानी करेगा। दशकों से प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया के हर कोने में फैल चुका है, यह हमारे पीने के पानी, हमारे खाने, हमारे शरीर, हमारे पर्यावरण में समा रहा है। इस प्लास्टिक कचरे की गंभीर समस्या से निपटने का एक वैश्विक संकल्प निश्चित ही एक समाधान की दिशा बनेगा। हर साल 430 मिलियन टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन होता है, जिसमें से लगभग दो-तिहाई केवल एक बार उपयोग के लिए होता है और जल्दी ही फेंक दिया जाता है।
1973 से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के नेतृत्व में पर्यावरण जागरूकता के लिए यह दिवस सबसे बड़ा वैश्विक अभियान बन गया है, जो आज की सबसे गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए 150 से अधिक देशों के विशाल वैश्विक दर्शकों को शामिल करता है। गत वर्ष इस दिवस की मेजबानी करते हुए सऊदी अरब ने भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखे से निपटने की क्षमता पर प्रकाश डालते हुए सकारात्मक प्रयासों का जश्न मनाया और पर्यावरण के मुद्दों पर काम करने वाले निजी और परोपकारी संगठनों के लिए अधिक समर्थन और वित्त पोषण की घोषणा की। यह सर्वविदित है कि इंसान व प्रकृति के बीच गहरा संबंध है। इंसान के लोभ, सुविधावाद एवं तथाकथित विकास की अवधारणा ने पर्यावरण का भारी नुकसान पहुंचाया है, जिसके कारण न केवल नदियां, वन, रेगिस्तान, जलस्रोत सिकुड़ रहे हैं बल्कि ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं, तापमान का 50 डिग्री पार करना जो विनाश का संकेत तो है ही, जिनसे मानव जीवन भी असुरक्षित होता जा रहा है। इन वर्षों में बढ़ी हुई गर्मी एवं तापमान ने न केवल जीवन को जटिल बनाया बल्कि अनेक लोगों की जान भी गयी। पूरी दुनिया में बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण, जलवायु अराजकता और जैव विविधता विनाश का एक जहरीला मिश्रण स्वस्थ भूमि को रेगिस्तान में बदल रहा है, संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र को मृत क्षेत्रों में बदल रहा है और मानव जीवन पर तरह-तरह के खतरे पैदा कर रहा है।
प्रकृति को पस्त करने, वायु एवं जल प्रदूषण, कृषि फसलों पर घातक प्रभाव, मानव जीवन एवं जीव-जन्तुओं के लिये जानलेवा साबित होने के कारण समूची दुनिया में बढ़ते प्लास्टिक एवं माइक्रोप्लास्टिक के कण एक बड़ी चुनौती एवं संकट है। पिछले दिनों एक अध्ययन में मनुष्य के मस्तिष्क में प्लास्टिक के नैनो कणों के पहुंचने पर चिंता जतायी गई थी। दावा था कि प्रतिदिन सैकड़ों माइक्रोप्लास्टिक कण सांसों के जरिये हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे तमाम नये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय शोध-सर्वेक्षण-अध्ययन चेतावनी दे रहे हैं कि हमारी सांसों, प्रकृति, पर्यावरण, पेयजल व फसलों में घातक माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी एक गंभीर संकट है। संकट तो यहां तक बढ़ गया है कि प्लास्टिक के कण पौधों की प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया को प्रभावित करने लगे हैं, जिससे खाद्य श्रृंखला में शामिल कई खाद्यान्नों की उत्पादकता में गिरावट आ रही है। ऐसा निष्कर्ष अमेरिका-जर्मनी समेत कई देशों के साझे अध्ययन के बाद सामने आया है। दरअसल, प्लास्टिक कणों के हस्तक्षेप के चलते पौधों के भोजन सृजन की प्रक्रिया बाधित हो रही है। इस तरह माइक्रोप्लास्टिक की दखल भोजन, हवा व पानी में होना न केवल प्रकृति, कृषि, पर्यावरण वरन मानव अस्तित्व के लिये गंभीर खतरे की घंटी ही है। जिसे बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिए और सरकारों को इस संकट से मुक्ति की दिशाएं उद्घाटित करने के लिये योजनाएं बनानी चाहिए, इसके लिये इस वर्ष की थीम से व्यापक बदलाव की संभावनाएं हैं।  
माइक्रोप्लास्टिक हमारे वातावरण का एक हिस्सा बन चुके हैं। प्लास्टिक की बहुलता एवं निर्भरता के कारण मौत हमारे सामने मंडरा रही है। हम चाहकर भी प्लास्टिकमुक्त जीवन की कल्पना नहीं कर पा रहे हैं, प्लास्टिक प्रदूषण के खतरों को देखते  हुए विभिन्न देशों की सरकारों ने ठान लिया है कि सिंगल यूज प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं होगी। भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूर्व में ही देश को स्वच्छ भारत मिशन के तहत प्लास्टिक कचरे से मुक्त करने की अपील करते हुए एक महाभियान का शुभारंभ कर चुके हैं। प्लास्टिक के कारण देश ही नहीं, दुनिया में विभिन्न तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। इसके सीधे खतरे दो तरह के हैं। एक तो प्लास्टिक में ऐसे बहुत से रसायन होते हैं, जो कैंसर का कारण माने जाते हैं। इसके अलावा शरीर में ऐसी चीज जा रही है, जिसे हजम करने के लिए हमारा शरीर बना ही नहीं है, यह भी कई तरह से सेहत की जटिलताएं पैदा कर रहा है। इसलिए आम लोगों को ही इससे मुक्ति का अभियान छेड़ना होगा, जागृति लानी होगी।
शोधकर्ताओं ने केरल में दस प्रमुख ब्रांडों के बोतलबंद पानी को अध्ययन का विषय बनाया है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्लास्टिक की बोतल के पानी का इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति के शरीर में प्रतिवर्ष 153 हजार प्लास्टिक कण प्रवेश कर जाते हैं। पिछली सदी में जब प्लास्टिक के विभिन्न रूपों का अविष्कार हुआ, तो उसे विज्ञान और मानव सभ्यता की बहुत बड़ी उपलब्धि माना गया था, अब जब हम न तो इसका विकल्प तलाश पा रहे हैं और न इसका उपयोग ही रोक पा रहे हैं, तो क्यों न इसे विज्ञान और मानव सभ्यता की सबसे बड़ी असफलता एवं त्रासदी मान लिया जाए? अमेरिका के जियोलॉजिकल सर्वे ने यहां बारिश के पानी के नमूने जमा किए। ये नमूने सीधे आसमान से गिरे पानी के थे, बारिश की वजह से सड़कों या खेतों में बह रहे पानी के नहीं। जब इस पानी का विश्लेषण हुआ, तो पता चला कि लगभग 90 फीसदी नमूनों में प्लास्टिक के बारीक कण या रेशे थे, जिन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है। ये इतने सूक्ष्म होते हैं कि हम इन्हें आंखों से नहीं देख पाते। लगातार पांव पसार रही माइक्रोप्लास्टिक की तबाही इंसानी गफलत को उजागर तो करती रही है, लेकिन समाधान का कोई रास्ता प्रस्तुत नहीं कर पाई। ऐसे में अगर विश्व पर्यावरण दिवस पर प्लास्टिक के संकट का दूर करने की कुछ ठानी है तो उसका स्वागत होना ही चाहिए। प्लास्टिक प्रदूषण की उससे भी ज्यादा खतरनाक एवं जानलेवा स्थिति है, यह एक ऐसी समस्या बनकर उभर रही है, जिससे निपटना अब भी दुनिया के ज्यादातर देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। कुछ समय पहले एक खबर ऐसी भी आई थी कि एक चिड़ियाघर के दरियाई घोड़े का निधन हुआ, तो उसका पोस्टमार्टम करना पड़ा, जिसमें उसके पेट से भारी मात्रा में प्लास्टिक की थैलियां मिलीं, जो शायद उसने भोजन के साथ ही निगल ली थीं। कनाडाई वैज्ञानिकों द्वारा माइक्रोप्लास्टिक कणों पर किए गए विश्लेषण में चौंकाने वाले नतीजे मिले हैं। विश्लेषण में पता चला है कि एक वयस्क पुरुष प्रतिवर्ष लगभग 52000 माइक्रोप्लास्टिक कण केवल पानी और भोजन के साथ निगल रहा है। इसमें अगर वायु प्रदूषण को भी मिला दें तो हर साल करीब 1,21,000 माइक्रोप्लास्टिक कण खाने-पानी और सांस के जरिए एक वयस्क पुरुष के शरीर में जा रहे हैं। अमेजन एवं फिलीपकार्ट जैसे आनलाइन व्यवसायी प्रतिदिन 7 हजार किलो प्लास्टिक पैकेजिंग बैग का उपयोग केवल भारत में करते हैं। इन कम्पनियों को भी प्लास्टिकमुक्त दुनिया के घेरे में लेने के लिये कठोर कदम उठाने चाहिए। संकट का एक पहलू यह भी है कि लोग सुविधा को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन प्लास्टिक के दूरगामी घातक प्रभावों को लेकर आंख मूंद लेते हैं।

खतरनाक रूप लेता रूस – यूक्रेन युद्ध

संजय सिन्हा

युद्ध पर विराम लगता नहीं दिख रहा। रूस और यूक्रेन के बीच पिछले तीन वर्षों से चल रहा युद्ध एक नई और खतरनाक करवट ले चुका है। इस्तांबुल वार्ता के कुछ ही घंटों बाद यूक्रेन ने अब रूसी कब्ज़े वाले इलाकों में गहरे और सामरिक रूप से संवेदनशील ठिकानों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। चंद दिन पहले रूसी एयरबेसों पर हुए भीषण ड्रोन हमले में यूक्रेन ने कम से कम 40 आधुनिक फाइटर जेट तबाह कर दिए थे जिससे रूस को बड़ा झटका लगा। अब, आगे बढ़ते हुए यूक्रेन ने ज़ापोरिझिया और खेरसॉन क्षेत्रों में बिजली ढांचों पर हमला कर दिया है जिससे 7 लाख से अधिक लोग अंधेरे में डूब गए हैं। रूसी अधिकारियों के मुताबिक  यूक्रेनी ड्रोन और तोपों के जरिए किए गए हमलों में ज़ापोरिझिया और खेरसॉन क्षेत्रों के बिजली सबस्टेशनों को भारी नुकसान पहुंचा है। इस हमले के बाद कम से कम 700,000 लोग अंधेरे में जीने को मजबूर हैं जिससे अस्पताल, जलापूर्ति और मोबाइल नेटवर्क जैसी जरूरी सेवाएं भी बाधित हो गईं।

इन हमलों का सबसे गंभीर असर ज़ापोरिझिया परमाणु संयंत्र पर पड़ा है। यह यूरोप का सबसे बड़ा न्यूक्लियर पावर प्लांट है और रूसी नियंत्रण में है। रूसी परमाणु एजेंसी रोसएटम के प्रमुख अलेक्सी लिक्हाचेव ने कहा, “स्थिति नियंत्रण में है लेकिन बेहद जटिल है।” विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अगर संयंत्र की बाहरी बिजली सप्लाई बाधित रहती है तो कूलिंग सिस्टम फेल हो सकता है और परमाणु रिसाव जैसी गंभीर स्थिति पैदा हो सकती है।

इस हमले पर यूक्रेन की ओर से फिलहाल कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन पश्चिमी मीडिया के मुताबिक यह 2022 में युद्ध शुरू होने के बाद से रूसी कब्ज़े वाले इलाकों पर सबसे बड़ा हमला हो सकता है। गौर करने वाली बात यह है कि यह हमला तुर्की में हुई रूस-यूक्रेन वार्ता के चंद घंटों बाद ही हुआ। वार्ता में रूस ने कहा कि वह तभी युद्ध समाप्त करेगा अगर यूक्रेन नए बड़े क्षेत्र सौंपे और अपनी सेना के आकार पर सीमाएं स्वीकार करे। वहीं यूक्रेन ने इस मांग को ‘औपनिवेशिक सोच से प्रेरित ज़मीनी कब्ज़ा’ बताया और दो टूक कहा कि वह कूटनीति और सैन्य बल दोनों से अपनी जमीन वापस लेगा। एक साहसिक और अप्रत्याशित हमले में यूक्रेन के सैन्य बलों ने रूसी क्षेत्र के भीतर जाकर लगातार कई हमले किए और रूस के लंबी दूरी तक मार करने वाले हथियारों या सामरिक बमबारी बेड़े को निशाना बनाया। रूस के अधिकारियों ने इस हमले की पुष्टि की है लेकिन यह नहीं बताया कि कितनी क्षति पहुंची है। रूस के सामरिक बमबारी बेड़े को हुई क्षति की भरपाई संभव नहीं है क्योंकि ये 1950 के दशक के हैं और इन्हें बनाने वाली इकाइयां बहुत पहले बंद हो चुकी हैं।

 यूक्रेन की सुरक्षा सेवा ने दावा किया कि उसने एक तिहाई बेड़े को निशाना बनाया है। यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमिर जेलेंस्की ने कहा कि रूस को करीब 7 अरब डॉलर मूल्य का नुकसान हुआ है परंतु जिस बात ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है और जो आने वाले महीनों और वर्षों तक सैन्य योजनाकारों और सामरिक विशेषज्ञों की चर्चा का विषय रहने वाली है, वह है इस हमले का तरीका। यूक्रेन ने यह हमला रेडियो नियंत्रित ड्रोन के माध्यम से किया। इन्हें सामान्य निर्माण सामग्री की तरह वाणिज्यिक कंटेनर ट्रकों में लादा गया और उसके बाद रूस में हवाई ठिकानों के आसपास के इलाकों में भेजा गया। एक खास समय पर इन सभी ड्रोन को उड़ाया गया और हवाई अड्‌डों पर खड़े विमानों को निशाना बनाया गया।

यह पहला मौका नहीं है जब यूक्रेन ने नियमित वाणिज्यिक लॉजिस्टिक को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। खबरें बताती हैं कि 2022 में क्राइमिया द्वीप को रूस से जोड़ने वाले केर्च पुल पर हुए हमले, जिसने कई सप्ताह तक रूस के सैन्य यातायात को बाधित किया था और जो प्रतीकात्मक रूप से बहुत प्रभावी था, उसे भी प्लास्टिक ढोने वाले एक ट्रक की आड़ में अंजाम दिया गया था। विस्फोटकों को प्लास्टिक के ढेर में छिपाया गया था और इसे आर्मीनिया और जॉर्जिया से होते हुए क्रीमिया की ओर भेजा गया था। ऐसे ही तरीके इस्तेमाल करके करीब 120 ड्रोनों की मदद से ताजा हमला किया गया। ये ड्रोन बहुत महंगे या किसी खास गुणवत्ता के नहीं थे।

 लब्बोलुआब यह कि अपेक्षाकृत छोटा और मुश्किलों से जूझ रहा देश, जिसके पास अपनी मजबूत वायु सेना तक नहीं है,  उसने आधुनिक लॉजिस्टिक्स और सस्ते ड्रोन की मदद से एक महाशक्ति के सामरिक बेड़े को क्षति पहुंचा दी जो उसके परमाणु प्रतिरोधक तंत्र का हिस्सा था। ड्रोन और वैश्वीकृत दुनिया में आपसी व्यापार संपर्क के इस मेल से सुरक्षा की दृष्टि से सर्वथा नई और अप्रत्याशित चुनौती उत्पन्न हुई है। भारत में इसे खासतौर पर महसूस किया जाएगा क्योंकि हमारे कई सामरिक क्षेत्र इस लिहाज से संवेदनशील हैं। इनमें कई तो प्रमुख औद्योगिक केंद्र भी हैं।

 राष्ट्रपति जेलेंस्की के मुताबिक यूक्रेन ने इस हमले की योजना 18 महीने पहले बनाई थी। जाहिर है यूक्रेन ने रूस में भी कुछ पकड़ बना रखी है. हालांकि उन्होंने दावा किया ऐसे सभी लोगों को पहले ही वापस बुला लिया गया है परंतु इस हमले की लागत की बात करें तो समय और संसाधन के मामले में इसमें ज्यादा खर्च नहीं आया। इस मामले में तो ये तरीके ऐसी सरकार ने आजमाए जो तीन साल से जंग में है परंतु ऐसी कोई वजह नहीं है कि छद्म युद्ध में लगे दूसरे गैर सरकारी तत्व इस तरीके को नहीं आजमाएंगे। भारत के योजनाकारों को अपनी सैन्य और अधोसंरचना संबंधी संवेदनशील स्थितियों का आकलन करते हुए ड्रोन की इस जंग जैसे हालात के लिए तैयार रहना होगा। इस तरह की जंग कतई आसान हो सकती है। कई गैर सरकारी तत्व 100-150 ड्रोन जुटा सकते हैं और उन्हें दूर से संचालित कर सकते हैं। बिना संदेह वाले ट्रक और वाणिज्यिक वाहनों का इस्तेमाल करके इन ड्रोन को हमले की जगह तक पहुंचाया जा सकता है। भारत पर किसी बड़े हमले के परिणाम, उस लागत के अनुपात में बहुत अधिक होंगे जो उस शत्रु ने सोची होगी। तो नए दौर के खतरों से अहम अधोसंरचना की रक्षा पर पुनर्विचार करने के सिवा कोई विकल्प नहीं है।

शेयरों में तेजी आ गई है। इन शेयरों में तेजी की मुख्य वजह दुनिया भर में बढ़ते जियो-पॉलिटिकल तनाव हैं।

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध ने हाल ही में फिर से भयानक रूप ले लिया है। 31 मई को रूस ने यूक्रेन पर युद्ध शुरू होने के बाद से अब तक का सबसे बड़ा ड्रोन हमला किया जिसमें 472 ड्रोन और 7 मिसाइल दागे गए। यूक्रेन ने दावा किया कि उसने 385 ड्रोन मार गिराए। इसके जवाब में, यूक्रेन ने 1 जून को इस्तांबुल में शांति वार्ता से ठीक एक दिन पहले रूस के सैन्य हवाई अड्डों पर बड़ा हमला किया। यूक्रेनी अधिकारियों के अनुसार, इस सरप्राइज ड्रोन अटैक में रूस के भीतरी इलाकों में तैनात 40 से ज्यादा लड़ाकू विमान नष्ट हो गए। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने इसे “शानदार ऑपरेशन” बताते हुए कहा कि यह इतिहास में दर्ज होगा। दोनों देशों के बीच बातचीत जारी है, लेकिन हालिया हिंसक घटनाओं ने आशंका जताई है कि युद्ध और भी भीषण रूप ले सकता है। इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी एजेंसी IAEA ने आरोप लगाया है कि ईरान ने परमाणु हथियार बनाने के लिए जरूरी समृद्ध यूरेनियम का उत्पादन बढ़ा दिया है। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, ईरान के पास अब 60% शुद्धता वाला 400 किलो से ज्यादा यूरेनियम है जो हथियार-ग्रेड सामग्री के लिए जरूरी 90% शुद्धता के करीब है।

ईरान और अमेरिका के बीच तनाव

इससे ईरान और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ गया है। अमेरिका ने कई दौर की वार्ता के बाद ईरान को परमाणु समझौते का नया प्रस्ताव भेजा है। ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची ने सोशल मीडिया पर लिखा कि “ईरान इस प्रस्ताव का जवाब अपने राष्ट्रीय हितों और जनता के अधिकारों के अनुरूप देगा।”

संजय सिन्हा

बर्बाद बांग्लादेश बन रहा एक नई मुसीबत


 

राजेश कुमार पासी

भारत का ये दुर्भाग्य है कि वो ऐसे देशों से घिरा हुआ है जो आर्थिक और राजनीतिक रूप से बर्बादी की ओर जा रहे हैं ।  पाकिस्तान तो अपनी पैदाइश से ही भारत का दुश्मन देश रहा है या यूं कहो कि उसकी पैदाइश ही भारत विरोध में हुई थी और वो उसी राह चल रहा है । पाकिस्तान तो ऐसा देश है जो हर हाल में भारत की तबाही चाहता है फिर चाहे इस चक्कर में वो खुद ही क्यों न बर्बाद हो जाये । श्रीलंका अपनी आर्थिक नीतियों के कारण बर्बाद हो चुका है लेकिन भारत की मदद से किसी तरह चल रहा है । नेपाल की आर्थिक हालत शुरू से खराब है और अफगानिस्तान तो पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द रहा है । पाकिस्तान से टूटकर बने बांग्लादेश से भारत के हमेशा मधुर सम्बन्ध रहे हैं, विशेष तौर पर अवामी लीग अध्यक्ष शेख हसीना के शासन काल में ये संबंध बहुत अच्छे रहे हैं। इसके बावजूद यह भी सच है कि बीएनपी की नेता खालिदा जिया के शासन में भी एक संतुलन कायम रहा है ।

शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत की मदद से बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजाद करवाया था, इसलिए उन्हें बांग्लादेश का राष्ट्रपिता भी कहा जाता है । शायद यही कारण है कि उनकी पुत्री शेख हसीना के शासनकाल में भारत के बांग्लादेश से अच्छे सम्बन्ध रहे हैं । शेख हसीना ने भारत से सम्बन्धों का भरपूर लाभ उठाया और बांग्लादेश को विकास के रास्ते पर ले गई । एक ऐसा भी समय आया जब बांग्लादेश प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत से आगे निकल गया । उन्होंने बांग्लादेश को पाकिस्तान से बेहतर देश बनाने की कोशिश की लेकिन मोहम्मद युनुस ने चीन और अमेरिका की मदद से उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया ।  तब से बांग्लादेश से भारत के लिए अच्छी खबर नहीं आ रही हैं । एक ऐसा देश जो भारत के लिए ज्यादा समस्या नहीं था, वो देश धीरे-धीरे भारत के लिए समस्या बनता जा रहा है । युनुस के शासन में बांग्लादेश अराजकता की ओर जा रहा है और अब वहां सत्ता के लिए संघर्ष शुरू हो गया है । पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की  राजनीतिक पार्टी अवामी लीग का पंजीकरण रद्द कर दिया गया है और उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान की यादों को मिटाया जा रहा है । शेख मुजीबुर रहमान को राष्ट्रपिता की जगह एक खलनायक बनाया जा रहा है जैसे उन्होंने पाकिस्तान से अलग देश बनाकर कोई गलती कर दी हो । 

              मोहम्मद यूनुस की सरकार दस महीने से शासन कर रही है लेकिन हर मोर्चे पर विफल साबित हो रही है। अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में योगदान को लेकर नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाले मोहम्मद यूनुस के शासन में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था लगातार गर्त में जा रही है। वास्तव में अर्थव्यवस्था के लिये कानून व्यवस्था बेहतर होनी चाहिए लेकिन यूनुस तो देश को अराजकता की ओर ले जा रहे हैं। वो एक तरफ लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म कर रहे हैं तो दूसरी तरफ कट्टरपंथी ताकतों को हवा दे रहे हैं। उनके कारण ही बांग्लादेश के कट्टरपंथी बांग्लादेशी हिंदुओ का उत्पीड़न कर रहे हैं । यूनुस चीन, अमेरिका और पाकिस्तान के हाथों में खेल रहे हैं और बांग्लादेश को लगातार भारत से दूर ले जा रहे हैं । पहले ही चीन के कर्ज में डूबे बांग्लादेश को धीरे-धीरे पूरी तरह से चीनी कर्ज के जाल में फंसाते जा रहे हैं। बांग्लादेश में मुद्रास्फीति लगातार ऊपर जा रही है ।  विदेशी मुद्रा भंडार नीचे की ओर जा रहा है क्योंकि देश के निर्यात लगातार कम हो रहे हैं। देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए मोहम्मद यूनुस को सिर्फ चीन से कर्ज लेना ही एकमात्र रास्ता दिखाई दे रहा है लेकिन यही भारत की बड़ी समस्या बन सकता है। पाकिस्तान की तरह बांग्लादेश भी चीन का गुलाम बन सकता है और इसका इस्तेमाल चीन भारत के खिलाफ रणनीतिक फायदे के लिए कर सकता है।

बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी का पंजीकरण बहाल कर दिया है । ये संगठन ही हिंदुओं के उत्पीड़न के पीछे है, पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी सोच रखता है। इस संगठन को पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना ने देश विरोधी गतिविधियों के कारण प्रतिबंधित कर दिया था। ये संगठन बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने का गलत मानता है और कहा जाता है कि इसने बांग्लादेश निर्माण के समय पाकिस्तान का साथ दिया था। मोहम्मद यूनुस ने इस संगठन के ऊपर से प्रतिबंध हटा दिया था और इसका पंजीकरण बहाल होने के पीछे भी इसी सरकार का समर्थन है । बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण ने शेख हसीना पर पिछले साल हुई हिंसा के लिए मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी है जिससे भारत के लिए भी समस्या खड़ी हो सकती है क्योंकि शेख हसीना को बांग्लादेश भेजने की मांग जोर पकड़ सकती है । जिस पाकिस्तान ने लाखों बांग्लादेशियों की हत्या की थी, आज युनुस सरकार उसी पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ा रही है । कितनी अजीब बात है कि बांग्लादेश को आज पाकिस्तान दोस्त नजर आ रहा है और उसे बचाने वाला भारत दुश्मन दिखाई दे रहा है । 

            खालिदा जिया की पार्टी बीएनपी ने पिछले हफ्ते ढाका में एक विशाल रैली का आयोजन किया और दिसम्बर तक चुनाव कराने की मांग की तो दूसरी तरफ सेना भी चाहती है कि बांग्लादेश में दिसम्बर तक चुनाव हो जायें । अगर चुनाव हो जाते हैं तो अवामी लीग की अनुपस्थिति में बीएनपी के सत्ता में आने की उम्मीद है  लेकिन समस्या यह है कि मोहम्मद युनुस अभी चुनाव नहीं कराना चाहते हैं । उन्हें पता है कि अगर चुनाव हुए तो उन्हें सत्ता से बाहर होना पड़ेगा । उनका लोकतंत्र विरोधी चेहरा सामने आ गया है । उनके मासूम चेहरे के  पीछे बैठा तानाशाह अब दिखाई देने लगा है ।  जमात-ए-इस्लामी और छात्र संगठन मोहम्मद युनुस का साथ दे रहे हैं कि वो चुनाव न करवायें । मोहम्मद युनुस को पाकिस्तान, चीन और अमेरिका के साथ-साथ देश में बैठे कट्टरपंथियों का पूरा समर्थन है क्योंकि युनुस के समर्थन से सभी अपना खेल खेल रहे हैं । पाकिस्तान के एक आतंकवादी नेता ने दावा किया है कि शेख हसीना को हटाने के पीछे उनका भी हाथ है । चीन और आतंकवादियों के समर्थन से सत्ता में आये युनुस भारत के खिलाफ चीन के साथ समझौते कर रहे हैं, हालांकि सेना ने इसमें टांग अड़ा दी है कि ऐसे फैसले लेने का अधिकार उनके पास नहीं है । ऐसे फैसले लेने के लिए निर्वाचित सरकार का इंतजार करना चाहिए ।

 सेना को लगता है कि युनुस बांग्लादेश की सम्प्रभुता के साथ समझौता करके चीन से हाथ मिला रहे हैं । सेना यह भी नहीं चाहती कि बांग्लादेश पूरी  तरह से भारत से कटकर चीन की गोद में चला जाए । भारत के लिए संवेदनशील चिकन नेक के पास लालमोनिरहट में चीन एयरबेस बनाने जा रहा है, जो कि भारत के लिए बेहद गंभीर मामला है । चिकन नेक  से लगभग 20 किलोमीटर  दूर चीन का अड्डा होना भारत के लिये खतरे की घंटी है । बांग्लादेश के साथ सीमा पर तनाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि अभी भी बांग्लादेश से घुसपैठ जारी है । दूसरी तरफ भारत गैरकानूनी रूप से भारत में घुसे बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं को वापिस भेज रहा है।  इससे भी बांग्लादेश नाराज दिखाई दे रहा है ।  इन हालातों में भारत चाहता है कि बेशक शेख हसीना की सत्ता में वापसी नहीं हो सकती लेकिन बांग्लादेश में कोई निर्वाचित सरकार आ जाए ताकि उससे बातचीत हो सके । भारत चाहता है कि किसी भी प्रकार मोहम्मद युनुस की घर वापसी हो जाये । ये व्यक्ति जब तक रहेगा, तब तक भारत का बांग्लादेश से संवाद नहीं हो सकता । ये व्यक्ति बिना किसी जिम्मेदारी के देश की सत्ता पर बैठा हुआ है और तानाशाह बनने की कोशिश कर रहा है । 

                मोहम्मद युनुस जब तक सत्ता में रहेगा, तब तक बांग्लादेश में हालात नहीं सुधर सकते । अगर जल्दी ही युनुस सत्ता से नहीं हटता है तो बांग्लादेश के हालात इतने खराब हो सकते हैं कि जिन्हें दोबारा ठीक करना संभव न हो सके । भारत अपने पड़ोस में एक और पाकिस्तान नहीं देखना चाहता लेकिन परिस्थितियां धीरे-धीरे वहीं जा रही हैं । बांग्लादेश के आर्थिक हालात बिगड़ने पर भारत में घुसपैठ बढ़ सकती है जिससे पहले ही भारत परेशान है । 4000 किलोमीटर की बांग्लादेश सीमा से घुसपैठ को पूरी तरह से रोकना संभव नहीं है क्योंकि वहां का भूगोल कुछ ऐसा है और दूसरी तरफ पूरी  तरह से अभी सीमा पर बाड़बंदी भी नहीं की गई है । बांग्लादेश में कट्टरपंथियों की बढ़ती ताकत से भारत इसलिए भी परेशान है क्योंकि ये लोग बंगलादेशी हिन्दुओं के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं । भारत के लिए उम्मीद की किरण एकमात्र यही है कि आज भी बांग्लादेश की बड़ी आबादी भारत के महत्व को समझती है । वो जानती है कि बिना भारत के सहयोग के बांग्लादेश को काफी समस्याओं को सामना करना पड़ सकता है । दूसरी बात यह भी है कि बांग्लादेश निर्माण के समय पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए अत्याचारों को पूरी जनता तो भूल नहीं गई होगी । बेशक वो लोग चुप हैं जो जानते हैं कि उनका देश गलत रास्ते पर जा रहा है लेकिन वो चुप्पी चुनावों में टूट सकती है । बांग्लादेशी कभी नहीं चाहेंगे कि उनका देश दूसरा पाकिस्तान बन जाये । सवाल यह भी है कि क्या भारत चुपचाप सब देख रहा है । ऐसा नहीं हो सकता कि भारत सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी हुई हो । भारत सरकार भी बांग्लादेश के महत्व को जानती है इसलिए जो किया जा सकता है, वो किया जा रहा होगा ।

राजेश कुमार पासी

पर्यावरण प्रदूषण मानवता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती

विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष
डगमगाते पर्यावरण को संभालने का समय
– योगेश कुमार गोयल

वर्तमान समय में पर्यावरण प्रदूषण सबसे बड़ी वैश्विक समस्या है। पिछले तीन दशकों से महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से ही जुड़ी है। मानवीय क्रियाकलापों के कारण प्रकृति में लगातार बढ़ते दखल के कारण पृथ्वी पर बहुत से प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। आधुनिक जीवनशैली, पृथ्वी पर पेड़-पौधों की कमी, पर्यावरण प्रदूषण का विकराल रूप, मानव द्वारा प्रकृति का बेदर्दी से दोहन इत्यादि कारणों से मानव और प्रकृति के बीच असंतुलन की भयावह खाई उत्पन्न हो रही है। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित वातावरण के बढ़ते खतरे हम अब लगातार अनुभव कर रहे हैं। इसीलिए पर्यावरण की सुरक्षा तथा संरक्षण के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 5 जून को पूरी दुनिया में ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा तथा संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) द्वारा 16 जून 1972 को स्टॉकहोम में पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए यह दिवस मनाने की घोषणा की गई थी और पहला विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून 1974 को मनाया गया था।
पर्यावरण की रक्षा और प्रकृति के उचित दोहन को लेकर हालांकि यूरोप, अमेरिका तथा अफ्रीकी देशों में 1910 के दशक से ही समझौतों की शुरूआत हो गई थी किन्तु बीते कुछ दशकों में दुनिया के कई देशों ने इसे लेकर क्योटो प्रोटोकाल, मांट्रियल प्रोटोकाल, रियो सम्मलेन जैसे कई बहुराष्ट्रीय समझौते किए हैं। अधिकांश देशों की सरकारें पर्यावरण को लेकर चिंतित तो दिखती हैं लेकिन पर्यावरण की चिंता के बीच कुछ देश अपने हितों को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण की नीतियों में बदलाव करते रहे हैं। प्रदूषित वातावरण का खामियाजा केवल मनुष्यों को ही नहीं बल्कि धरती पर विद्यमान प्रत्येक प्राणी को भुगतना पड़ता है। बड़े पैमाने पर प्रकृति से खिलवाड़ के ही कारण दुनिया के विशालकाय जंगल हर साल सुलगने लगे हैं, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को खरबों रुपये का नुकसान होने के अलावा दुर्लभ जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां भी भीषण आग में जलकर राख हो जाती हैं। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान दुनियाभर में पर्यावरण की स्थिति में सुधार देखा गया था, जिसने बता दिया था कि अगर हम चाहें तो पर्यावरण की स्थिति में काफी हद तक सुधार किया जा सकता है लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अपेक्षित कदम नहीं उठाए जाते। न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में निरन्तर हो रही बढ़ोतरी और मौसम का लगातार बिगड़ता मिजाज गहन चिंता का विषय बना है।
जलवायु परिवर्तन से निपटने को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं। अपनी पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ में मैंने विस्तार से यह स्पष्ट किया है कि धरती में रह-रहकर जो उथल-पुथल की प्राकृतिक घटनाएं घट रही हैं, उनके पीछे छिपे संकेतों और प्रकृति की मूक भाषा को समझना कितना जरूरी है। आधुनिकरण और औद्योगिकीकरण की दौड़ में हमने हर पल प्रकृति की नैतिक सीमाओं का उल्लंघन किया है और ये सब प्रकृति के साथ इंसान की ज्यादतियों का ही नतीजा हैं, जिसके भयावह परिणाम हमारे सामने हैं।
मानवीय क्रियाकलापों के कारण ही वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है कि हमें सांस के जरिये असाध्य बीमारियों की सौगात मिल रही है। सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तब तक नहीं खुलती, जब तक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाले धुएं ने वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील कर दिया गया है। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है, जिसके दुष्परिणाम स्वरूप ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ पिघल रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ने के कारण दुनिया के कई शहरों के जलमग्न होने की आशंका जताई जाने लगी है।
प्रकृति कभी समुद्री तूफान तो कभी भूकम्प, कभी सूखा तो कभी अकाल के रूप में अपना विकराल रूप दिखाकर हमें निरन्तर चेतावनियां देती रही है कि यदि हम इसी प्रकार प्रकृति के संसाधनों का दोहन करते रहे तो हमारे भविष्य की तस्वीर कैसी होने वाली है लेकिन हम हर बार प्रकृति का प्रचण्ड रूप देखने के बावजूद प्रकृति की इन चेतावनियों को नजरअंदाज कर खुद अपने विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं। यदि दुनियाभर में पर्यावरण प्रदूषण की विकराल होती वैश्विक समस्या को देखें तो स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर वैश्विक चिंता व्यक्त करने से आगे शायद हम कुछ करना ही नहीं चाहते। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक’ में बताया गया है कि पर्यावरण का संतुलन डगमगाने के कारण दुनियाभर में लोग तरह-तरह की भयानक बीमारियों के जाल में फंस रहे हैं, उनकी प्रजनन क्षमता पर इसका दुष्प्रभाव पड़ रहा है, उनकी कार्यक्षमता भी इससे प्रभावित हो रही है। लोगों की कमाई का बड़ा हिस्सा बीमारियों के इलाज पर ही खर्च हो जाता है। प्रकृति हमारी मां के समान है, जो हमें अपने प्राकृतिक खजाने से ढ़ेरों बहुमूल्य चीजें प्रदान करती है लेकिन अपने स्वार्थों के चलते हम अगर खुद को ही प्रकृति का स्वामी समझने की भूल करने लगे हैं तो फिर भला प्राकृतिक तबाही के लिए प्रकृति को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं?

मौन की राख, विजय की आँच

प्रियंका सौरभ

छायाओं में ढलती साँझ सी,
वह हार जब आयी चुपचाप,
न याचना, न प्रतिकार…
बस दृष्टि में एक बुझा हुआ आकाश।

होठों पर थरथराती साँसें,
मन भीतर एक अनसुनी रागिनी,
जिसे किसी ने सुना नहीं,
जिसे कोई बाँध न सका आँसू की धार में।

वह पुरुष…
जो शिखरों का स्वप्न लिए
घाटियों में उतर गया था चुपचाप,
कहीं कोई पतझड़ था उसकी पीठ पर,
और वसंत अभी बहुत दूर।

पर जब मिली उसे विजय की पीली धूप,
तो वह कांप उठा —
जैसे बाँसुरी पहली बार गूंज उठी हो
किसी तपी हुई चुप्पी के कंठ से।

वह रोया नहीं, पर पलकों से
एक स्वर्ण रेखा फिसल गई —
विजय की नहीं थी वह,
वह हार के साथ जमी राख का गीलापन थी।

उसकी विह्वलता —
कोई जयघोष नहीं,
एक लंबा मौन टूटने की आवाज़ थी।

“विजय उसकी देह पर नहीं, आत्मा पर आई थी,
और आत्मा — मौन में ही गाती है…”

सनातन संस्कृति श्रेष्ठ जीवन दर्शन 

परन्तु सनातन के नाम पर पाखंड और अंधविश्वास समाज में बढ़ती विकृति

भारतीय सनातन संस्कृति को विश्व की सबसे प्राचीन, वैज्ञानिक और उत्कृष्ट जीवनशैली के रूप में जाना जाता है। यह मात्र एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित, नैतिक और सामाजिक रूप से समृद्ध बनाने की अद्वितीय व्यवस्था है। सहस्त्रों वर्षों पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने कठोर तप, अनुसंधान और चिंतन से मानव जीवन के लिए ऐसे नियम और व्यवस्थाएं निर्धारित कीं, जो आज भी पूर्णत: प्रासंगिक और वैज्ञानिक प्रमाणों से पुष्ट हैं।

भारतीय संस्कृति में जीवन को चार आश्रमों — ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास — में विभाजित कर व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन को चरणबद्ध और अनुशासित बनाया गया। इसके अतिरिक्त, मनुष्य के जीवन में 16 संस्कार निर्धारित कर प्रत्येक महत्वपूर्ण पड़ाव को पवित्र, सामाजिक और नैतिक दायित्वों से जोड़ा गया। इसी संस्कृति ने यह भी बताया कि मनुष्य न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सामाजिक प्राणी है और उसके आचरण, आहार-विहार और व्यवहार से सम्पूर्ण समाज प्रभावित होता है।

वैज्ञानिक पद्धति और यौगिक क्रियाओं का महत्व

सनातन संस्कृति ने मनुष्य के स्वास्थ्य और दीर्घायु जीवन के लिए योग, प्राणायाम और आयुर्वेद जैसी वैज्ञानिक पद्धतियों को जन्म दिया। आज पूरा विश्व योग और भारतीय जीवनशैली की उपयोगिता को स्वीकार कर रहा है। हमारे पूर्वजों ने यौगिक क्रियाओं और संतुलित आहार-विहार के माध्यम से न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी सुदृढ़ बनाए रखने की व्यवस्था की थी। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी अब यह स्वीकार किया है कि योग और प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धतियां कई असाध्य रोगों में कारगर सिद्ध हो रही हैं।

धर्म का वास्तविक अर्थ और उसकी भूमिका

सनातन संस्कृति में धर्म का अर्थ किसी विशेष पंथ अथवा सम्प्रदाय से नहीं, बल्कि मानव जीवन की अच्छाइयों को धारण कर उनके नियमों का पालन करना है। धर्म, वह व्यवस्था है जो व्यक्ति को कर्तव्यपरायण, समाजोपयोगी और राष्ट्रप्रेमी बनाती है। इसमें राष्ट्रधर्म को सर्वोपरि मानते हुए, समाज में प्रेम, सद्भावना और नैतिकता का संदेश दिया गया है।

पाखंड और अंधविश्वास : समाज में बढ़ती विकृति

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि वर्तमान समय में कुछ स्वार्थी, तथाकथित धर्माचार्य और पाखंडी बाबाओं ने सनातन संस्कृति का नाम लेकर समाज में भ्रम और अंधविश्वास फैलाना शुरू कर दिया है। तंत्र-मंत्र, गंडा-ताबीज और झाड़-फूंक जैसी अवैज्ञानिक गतिविधियों के माध्यम से ये भोले-भाले लोगों को ठगने में लगे हुए हैं। हैरानी की बात यह है कि पढ़े-लिखे और समझदार लोग भी इनके झांसे में आ रहे हैं।

हाल ही में एक राष्ट्रीय चैनल ने ऐसे पाखंडियों के विरुद्ध व्यापक मुहिम चलाई, जिसमें यह उजागर हुआ कि किस प्रकार इन ठगों ने धर्म और आस्था की आड़ में अंधविश्वास का व्यापार खड़ा कर रखा है।

सरकार और समाज की भूमिका

इस विकृति को समाप्त करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि ऐसे पाखंडियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करें। इसके साथ ही, समाज में जागरूकता लाने के लिए धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं भी आगे आएं। सच्चे सनातन धर्म के प्रचारकों और संत समाज को भी इस दिशा में सार्थक प्रयास करने होंगे।

धर्म के वास्तविक स्वरूप को जन-जन तक पहुँचाकर ही हम सनातन संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण रख सकते हैं। अंधविश्वास और पाखंड का उन्मूलन कर, सनातन संस्कृति के वैज्ञानिक और नैतिक पक्ष को समाज के सामने प्रस्तुत करना ही समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

भारतीय सनातन संस्कृति न केवल प्राचीन जीवनशैली है, बल्कि यह एक वैज्ञानिक, नैतिक और श्रेष्ठ जीवन दर्शन है। इसे पाखंडियों की गिरफ़्त से मुक्त कराना समाज, शासन और हर जागरूक नागरिक का दायित्व है। यदि हम समय रहते इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाते, तो आस्था के नाम पर अंधविश्वास का यह जाल और गहराता जाएगा।

– सुरेश गोयल धूप वाला 

जब आँसू अपने हो जाते हैं

डॉ सत्यवान सौरभ

जीवन के इस सफ़र में,
हर मोड़ पर कोई न कोई साथ छोड़ देता है,
कभी उम्मीद, कभी लोग —
तो कभी ख़ुद अपनी ही परछाईं पीछे रह जाती है।

हर हार सिर्फ हार नहीं होती,
वो एक आईना होती है —
जिसमें हम देखते हैं अपना असली चेहरा,
बिना मुखौटे, बिना तालियों के शोर के।

जब आँखें भर आती हैं,
पर सामने कोई कंधा नहीं होता,
तो वही पल —
हमें भीतर से लौह बना देता है।

हम उसी दिन बड़े हो जाते हैं,
जिस दिन किसी और के नहीं,
अपने ही आँसू अपने हाथों से पोंछते हैं,
और कहते हैं —
“अब और नहीं, अब मैं रुकूँगा नहीं।”

क्योंकि आँसू जब बहते हैं,
तो या तो कमज़ोरी बनते हैं,
या बनते हैं प्रेरणा —
एक विराट ललकार की तरह!

जैसे मैदान पर
विराट कोहली गिरते हैं,
तो उठते भी हैं —
वो भी ऐसे कि गेंदबाज़ की साँसें थम जाती हैं।

वो सीख हैं —
कि हार में भी गरिमा हो सकती है,
और जीत — सिर झुकाकर भी मिल सकती है।

कोई स्टेडियम नहीं चीखता
जब आप चुपचाप दर्द सहते हैं,
पर जब आप फिर उठते हैं,
तो पूरी दुनिया आपको सलाम करती है।


“बचपन आँसुओं में डूबता है,
पर बड़प्पन वहीं जन्म लेता है —
जहाँ आँसू सुखाकर,
इंसान मुस्कुराकर कहता है — चलो फिर से!”

पर्यावरण चेतना जगाती भारतीय संस्कृति 

डा. विनोद बब्बर 

पिछले दिनों भारत के प्रदेश तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद की उस शर्मनाक और आत्मघाती कृत्य की सोशल मीडिया पर बहुत चर्चा रही जिसमें हैदराबाद के फेफड़े कहे जाने वाली कांचागाची बोवली गांव से सटी वन भूमि पर उन 40, 000 से अधिक वृक्षों को काट दिया गया जो न केवल पूरे क्षेत्र को प्राणवायु दे रहे थे बल्कि लाखों जीव जंतुओं का आश्रय स्थल भी थे। राष्ट्रीय पक्षी मोर सहित हजारों पशु-पक्षियों का काल बनी इस घटना की व्यापक निंदा आलोचना हुई। अनेक ऐसे वीडियो भी सामने आए जिसमें मासूम खरगोश हिरण आंसू बहा रहे थे। द्रवित कर देने वाले इन दृश्यों का वहां की सरकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि उसे वह जमीन बेचकर बहुत बड़ी धनराशि प्राप्त होने वाली थी। उसने उच्चतम न्यायालय में बेरोजगारी का तर्क प्रस्तुत करते हुए उस भूमि पर उद्योग तथा व्यापारिक केंद्र स्थापित करने की दुहाई दी।

 यह संतोष की बात है कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने उस कुतर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि संपूर्ण देश रोजगार और विकास चाहता है लेकिन पर्यावरण की कीमत पर ऐसे अपराध की अनुमति नहीं दी जा सकती। वास्तव में तेलंगाना सरकार और उसके अधिकारियों की असंवेदनहीनता इस बात का प्रमाण है कि हम अपनी संस्कृति और उसमें समाहित जीवन मूल्यों से कट रहे हैं। इसलिए यह आज की परम आवश्यकता है भारतीय संस्कृति में जिस पर्यावरण चेतना को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है उसे स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर देश के हर बच्चे के हृदय में स्थापित किया जाए। 

भारतीय संस्कृति इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड को एक कुटुम्ब मानती है, जहाँ किसी का अलग अस्तित्व नहीं है। यह विचार पर्यावरण-सुरक्षा का सूत्र समेटे हुए है। जब हम अपनी सांस्कृतिक परम्परा की बात करते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम आधुनिकता को पूरी तरह से नकार रहे है। हमारा उद्देश्य आधुनिकता के नाम पर प्रकृति के सम्मान की परंपरा को दुत्कारते हुए अपने ही परिवेश को असंतुलित बनाने की बढ़ती प्रवृत्ति के विरुद्ध जनजागरण है। वर्तमान का सत्य यह है कि आज आधुनिकता और विकास के नाम पर हो रही अंधी दौड़ प्रकृति का दोहन कर रही है जिससे भविष्य अनिश्चित दिखाई देने लगा है। 

भारतीय दर्शन में समस्त संसार को जड़ और चेतन में विभाजित किया गया है। हर छोटे- बड़े जीव से पेड़ -पौधों तक चेतना है। इस चेतना को साकार बनाये रखने के लिए ‘आवरण’ चाहिए। ये आवरण पंचतत्वों से निर्मित है जिसे हम मिट्टी, जल, वायु, आकाश, अग्नि भी कहते हैं। इन तत्वों की संतुलित उपस्थिति का बने रहना प्राणी-जगत् के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। बस यही है पर्यावरण-संरक्षण। जब यह संतुलन बिगड़ जाए तो स्वाभाविक है कि जैविक समीकरण भी सलामत नहीं रहता। इससे प्रकृति का चक्र भी प्रभावित होता है जो अनेक प्रकार के विनाशों का कारण बनता है। बस यही है प्रदूषण।

प्रदूषण सबसे पहले हमारे मन-मस्तिष्क में प्रवेश कर हमारी चेतना को बंदी बनाता है। जब मस्तिष्क आत्म केंद्रित और स्वार्थी होकर केवल निज सुख का ही चिंतन करता है तो वहीं से आरंभ होता है प्रदूषण।  हम लेना तो सब कुछ चाहते हैं लेकिन कुछ भी देने की सोच नहीं रखते। जबकि पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रकृति से सामंजस्य आवश्यक है। हमारे ज्ञान के स्रोत वेदों में इन दोनों तत्वों की चर्चा है जिसके अनुसार हमें प्रकृति से उतना ग्रहण करने का अधिकार जिससे प्रकृति की पूर्णता को क्षति न पहुंचे। परिवारों में माँ-दादी-नानी इसी भाव से तुलसी की पत्तियां तोड़ती थी।

प्राचीन भारतीय वाङ्मय-वैदिक-साहित्य ,पुराणों, धर्मशास्त्रों, रामायण, महाभारत, संस्कृत -साहित्य के अन्यान्य ग्रन्थों, पालि-प्राकृत साहित्य आदि की छानबीन करने पर पुरातन भारत की अरण्य-संस्कृति के मनोहर स्वरूप का साक्षात्कार होता है।

कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में अनेक रमणीय उद्यानों का संकेत मिलता है। ‘अग्निपुराण’ में कहा गया है कि जो मनुष्य एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह तीस हज़ार इन्द्रों के काल तक स्वर्ग में बसता है । जितने ही वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछे की उतनी ही पीढ़ियों को वह तार देता है । ‘मत्स्यपुराण’ में वृक्ष-महिमा प्रसंग में कहा गया है कि दस कुओं के समान एक बावड़ी, दस बावड़ियों के समान एक एक तालाब, दस तालाबों के समान एक पुत्र का महत्त्व है जबकि दस पुत्रों के समान महत्त्व एक वृक्ष का अकेले है।

पर्यावरण और जीवन का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है कि पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना पर्यावरण नहीं हो सकता। भारतीयता का अर्थ ही है-हरी-भरी वसुंधरा और उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल, नाचते मोर और कल-कल बहती नदियां। यहां तक कि भारतीय संस्कृति में वृक्षों और लताओं का देव-तुल्य माना गया है। जहां अनादिकाल से इस प्रार्थना की गूंज होती रही है- ‘हे पृथ्वी माता तुम्हारे वन हमें आनंद और उत्साह से भर दें।’ पेड़-पौधों को सजीव और जीवंत मानने का प्रमाण भारतीय वाङ्मय में विद्यमान है।

वेदों में पर्यावरण को अनेक तरह से बताया गया है, जैसे- जल, वायु, ध्वनि, वर्षा, खाद्य, मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी आदि। जीवित प्राणी के लिए वायु अत्यंत आवश्यक है। प्राणी जगत के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फैला हुआ है। 

ऋग्वेद में वायु के गुण बताते हुए कहा गया है- ‘वात आ वातु भेषजं मयोभु नो हृदे, प्रण आयूंषि तारिषत’ शुद्ध ताजा वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी है, आनंददायक है। वह उसे प्राप्त कर हमारी आयु को बढ़ाता है। वृक्षों से ही हमें खाद्य सामग्री प्राप्त होती है, जैसे फल, सब्जियां, अन्न तथा इसके अलावा औषधियां भी प्राप्त होती हैं और यह सब सामग्री पृथ्वी पर ही हमें प्राप्त होती हैं। 

अथर्ववेद में कहा है- ‘भोजन और स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियां इस भूमि पर ही उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं, क्योंकि वर्षा के रूप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है। वेदों में इसी तरह पर्यावरण का स्वरूप तथा स्थिति बताई गई है और यह भी बताया गया है कि प्रकृति और पुरुष का संबंध एक-दूसरे पर आधारित होता है।

नीम-पीपल आदि वृक्षों को घर-आँगन या आसपास लगाना हमारी परम्परा का विस्तार  है। वृक्ष हमारे जीवन में रचे-बसे हैं इसीलिए तो हमारी लोक-गाथाओं, लोकगीतों में  शुद्ध सुगंध शीतल समीर, खुला आकाश, निर्मल जलधारा को पर्याप्त सम्मान प्राप्त है।  पीपल जैसे पर्यावरण-रक्षक वृक्ष के महत्व की चर्चा जन-जन के हृदय में है। गौतम बुद्ध के ज्ञान का साक्षी यही बोधिवृक्ष रहा है तो विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गीता’ में श्री कृष्ण विराट रूप दिखाते हुए कहते हैं,  ‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणाम्’ अर्थात् हे अर्जुन! मैं वृक्षों में पीपल हूँ। 

हमारे समाज में पेड़ों को देवताओं के प्रतीक रूप में पूजा-अर्चना तथा सुरक्षा की लोक परम्परा हैं, जैसे तुलसी विष्णुप्रिया है, केला वृहस्पति का रूप है, बरगद शिव का निवास है, नीम देवी का वास है, पीपल विष्णु का प्रतिरूप है। जैन तेरापन्थ’ में तो गुरुदीक्षा के नियमों में से एक है, ‘हरे पेड़ को न काटना। 

पृथ्वी, नदियों-सरोवरों, आकाश, वायु आदि को देवत्व प्रदान कर, धरती व नदियों को माता और आकाश को पिता के रूप में अंगीकार कर भारतीय मनीषा ने जलवायु को प्रदूषण-मुक्त रखने के भाव को भी अमूर्त्त प्रेरणा दी है। वैदिक युग के तैंतीस देवता प्राकृतिक शक्तियों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं । ऋग्वेद का ‘अप् सूक्त’ और अथर्ववेद का ‘भूमिसूक्त’ क्रमशः जल व ज़मीन पर लिखी विश्व की सम्भवतः प्रथम कविता है। 

पेड़ों की अन्धाधुन्ध कटाई रोकने हेतु देशी तरीके से जन-संघर्ष का यहाँ शानदार इतिहास रहा है । ऐसा कौन जागरूक भारतीय हो सकता है जिसे 1731 की राजस्थान की इस घटना की जानकारी न हो। जोधपुर के समीप स्थित खेजड़ीली गाँव में, खेजड़ी वृक्ष को बचाने के लिए बिश्नोई समूह के 363 नर-नारियों ने अपने प्राणों की बलि दे दी । पेड़ों से चिपक कर उन्होंने उन्हें काटने का विरोध किया। बेशक उस समय अत्याचारी राजा के आदेश पर कुल्हाड़ियों ने उनके प्रतिं बेरहमी दिखाई लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ न गया। बाद में कटाई रोक दी गयी थी।

 टिहरी-गढ़वाल का ‘चिपको आन्दोलन जिसके प्रणेता सुन्दरलाल बहुगुणा रहे हैं,  स्वतन्त्र भारत में पेड़ों को बचाने में सफल एवं ऐतिहासिक आन्दोलन था। इसी प्रकार से जल संचय और जल संरक्षण के लिए भी अनेक प्रयास होते हैं। जल पुरुष रूप के नाम से सुविख्यात राजेन्द्र सिंह जी जल बिरादरी के माध्यम से नदियों की निर्मलता और निरन्तरता के लिए अभियान चलाये हुए हैं। उनके प्रयासों की सफलता राजस्थान, गुजरात में अनुभव की जा रही है जहाँ विलुप्त प्राय नदियों को उन्होंने जन चेतना के माध्यम से जीवित करने में सफलता प्राप्त की है।

प्राकृतिक तन्त्रों का संरक्षण और उनके बीच सन्तुलन स्थापित रखने का आशय यह है कि उनका उपयोग इस तरह हो, जिससे उनके मूल रूप में कम-से-कम परिवर्तन हो, जिस से आसान पुनःचक्रण (रि-साइकलिंग) द्वारा आसानी से उनकी क्षति-पूर्त्ति होती रहे और प्राकृतिक संसाधन यथासम्भव अपने मूल रूप में सुरक्षित रहें। यह तब संभव है, जब हम लालच से रहित होकर प्रकृति की उदारता का उपयोग करें,उपभोग नहीं। इसकी प्रेरणा ‘ईशावास्योपनिषद्‘ का प्रथम मन्त्र दे रहा है ‘इस संसार में जो कुछ है, वह सब ईश्वर से व्याप्त या ईश्वर का आवास है, इसलिए उन का उपभोग करना हो तो बिना उन में आसक्ति रखे, त्याग-भाव से उपभोग करें, कारण यह धन है किस का? अर्थात् किसी एक का तो है नहीं।

भारत भूमि में जन्म हमारा सौभाग्य है जहाँ ऋृषियों ने हमें जीवन-दृष्टि दी। पर्यावरण के हर अंग की स्वच्छता तथा सबके बीच सौमनस्य बनाए रखने के लिए सदा सचेष्ट रहने वाली मानसिकता से ही कभी मन्त्र रूपी शांतिपाठ सृजित हुआ होगा, जो सदियों से हमारी नित्य-प्रार्थना का अंग है।

ऋचाओं में पर्यावरण के तत्वों – पृथ्वी, जल, आकाश, वायु के प्रति सभी ऋषि नत्मस्तक होकर प्रणाम करते हैं अर्थात् भारत में नदियों को माँ तुल्य स्थान एवं सम्मान दिया गया है। वृक्षों के प्रति हमारे पूर्वजों की श्रद्धा सर्वविदित है। पीपल, तुलसी ही नहीं हर वृक्ष में प्राण है, यह अवधारणा सर्वप्रथम हमने ही विश्व को दी और संयोग से इसे अपने वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध करने वाले जगदीश चन्द बसु भी हमारे ही थे। 

अन्त में उस प्राचीन परम्परा का उल्लेख करना समीचीन होगा जो कुछ क्षेत्रों में आज भी जीवान्त है।  गाँव में जब भी कोई नया कुआँ बनता था, तो तब तक उसका उपयोग शुरु नहीं होता था, जब तक किसी बरगद-तरु के साथ उसके ब्याह की रस्म पूरी नहीं कर दी जाती थी। इसे अन्धविश्वास घोषित करने वाले नहीं समझ सकते कि इस लोकाचार में पर्यावरण के प्रति हमारी सांस्कृतिक चेतना की प्रतिबद्धता है जो वनस्पति और जल के परस्पर सकारात्मक सम्बन्धों की साकार अभिव्यक्ति है। तथाकथित विकासवादी शायद नहीं जानते हो कि इस मान्यता को आज के पर्यावरणविद भी सराहते हैं। उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित यह सोहाग-गीत वृक्षों संग जन-मन का अटूट रिश्ता की झलकक प्रस्तुत करता है जिसमें विदा होेती बेटी कहती है, ‘बाबा! नीम का पेड़ मत काटना, उस में चिड़ियाँ बसती हैं।’ पेड़ को मायके का प्रतीक मानते हुए बेटी संकेत में कह रही है कि उसे दूर देश भेज तो रहे पर बुलाना मत भूलना, अन्यथा यह देश छूट जाएगा।

आज हम सभी को अपने आप से पूछना चाहिए कि क्या हमने अपनी अगली पीढ़ियों को पर्यावरण चेतना के इन सूत्रों से परिचित करवाया? क्या हमने अपने और अपने प्रियजनों के जन्म दिवस पर वृक्षारोपण की परंपरा को आत्मसात किया? आधुनिकता के नाम पर पत्थरों के शहर तो हमने अनेकानेक बना डालें, लेकिन उनमें रहने वाले उन पत्थरदिलों को प्राण वायु कहां से मिलेगी, जो दस कदम चलने के लिए भी वाहनों के धुएं से अपने ही परिवेश को दूषित करते हैं? आवश्यक है अपने और अपनो के मन मस्तिष्क को उस मानसिक प्रदूषण से मुक्त करें जो भारतीय संस्कृति में निहित श्रेष्ठ जीवन दर्शन को अवैज्ञानिक और पिछड़ापन कहकर नकारते हैं।

डा. विनोद बब्बर