Home Blog Page 22

नक्सली चीफ के मरने पर तुर्की के वामपंथियों का रोना, किस बात का संकेत है?

रामस्वरूप रावतसरे

नक्सल चीफ बसवराजू की मौत के बाद एक चौंकाने वाली घटना सामने आई। तुर्की के एक वामपंथी उग्रवादी संगठन ने भारत सरकार की निंदा करते हुए एक वीडियो बयान जारी किया जिसमें एक नकाबपोश ने बसव राजू को ‘क्रांतिकारी योद्धा’ बताते हुए श्रद्धांजलि दी।

भारत सरकार के ऑपरेशन को ‘राज्य प्रायोजित हिंसा’ करार दिया गया। वीडियो ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय नक्सलियों और तुर्की के वामपंथी उग्रवादियों के बीच वैचारिक और नैरेटिव कनेक्शन मौजूद हैं। इसके अतिरिक्त तुर्की के राजनयिक कदम भी भारत के लिए चिंता का विषय बने हुए है। तुर्की के राजदूत ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री इशाक डार से मुलाकात कर भारत के खिलाफ एकजुटता जताई थी। यही नहीं, उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर को पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन बताया और कथित निर्दोष नागरिकों की मौत पर शोक व्यक्त किया था। तुर्की के विदेश मंत्री हकान फिदान ने भी पाकिस्तानी उप प्रधानमंत्री से बात कर कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के आधार पर हल निकालने की बात कही।

तुर्की के अलावा फिलीपींस के कुछ वामपंथी समूहों द्वारा भी बसवराजू को श्रद्धांजलि दी गई है। सोशल मीडिया पर फिलीपींस के कम्युनिस्ट गुरिल्ला संगठनों और कुछ मानवाधिकार समूहों ने भी भारत की कार्रवाई की आलोचना की है। जानकारी के अनुसार, दक्षिण अमेरिका, यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया में सक्रिय कई लेफ्ट विंग उग्रवादी संगठनों ने भी बसव राजू के समर्थन में बयान दिए हैं। इससे यह पुष्टि होती है कि भारतीय माओवादी संगठनों के अंतरराष्ट्रीय विचारधारात्मक और नैरेटिव कनेक्शन मौजूद हैं।

नम्बाला केशव राव उर्फ बसवराजू उर्फ गगन्ना, आंध्र प्रदेश का रहने वाला था। उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी लेकिन युवावस्था में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित होकर सीपीआई (माओवादी) से जुड़ गया। 2018 में उसने संगठन के तत्कालीन महासचिव गणपति की जगह ली और नक्सल संगठन का महासचिव बन गया जो संगठन में सबसे बड़ा पद होता है। वह संगठन की सेंट्रल कमेटी और पॉलिट ब्यूरो का प्रमुख सदस्य था। बसवराजू को ताड़मेटला, झीरम घाटी, बुरकापाल और जेल ब्रेक जैसे कई बड़े नक्सली हमलों का मास्टरमाइंड माना जाता है। बसवराजू पर छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से 1.5 करोड़ और केंद्र सरकार की ओर से 10 करोड़ रुपये का इनाम घोषित था। जानकारों के अनुसार वह माओवादी नेटवर्क का रणनीतिकार था और न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विचारधारा, हथियारों की आपूर्ति और फंडिंग जैसे मसलों पर भी सक्रिय भूमिका निभा रहा था।

   21 मई 2025, बुधवार को छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के जंगलों में डीआरजी (डिस्ट्रीक रिजर्व गार्डस) और सुरक्षाबलों ने एंटी नक्सल ऑपरेशन में बड़ी सफलता हासिल की। मुठभेड़ में करीब 30 नक्सली ढेर किए गए जिनमें कई शीर्ष नेता भी शामिल थे। इस ऑपरेशन में बसवराजू की भी मौत हो गई जिसकी पुष्टि बाद में हुई। यह ऑपरेशन नक्सली आंदोलन के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ माना जा रहा है। इसे उसी तरह का ऑपरेशन बताया जा रहा है जैसे अमेरिका द्वारा ओसामा बिन लादेन या श्रीलंका द्वारा प्रभाकरन के खिलाफ चलाया गया था।

भारत के कई राज्यों जैसे छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, झारखंड, ओडिशा आदि में नक्सली हमलों की साजिश और संचालन में उसकी भूमिका रही है। 2010 से लेकर अब तक हुए कई बड़े नक्सली हमलों की योजना और नेतृत्व बसवराजू ने किया था। वह लंबे समय से भूमिगत था और कहा जाता है कि वह जंगलों में घूम-घूमकर रणनीति बनाता था जिससे उसे पकड़ना बेहद मुश्किल था। बसवराजू की मौत भारत की सुरक्षा एजेंसियों के लिए एक ऐतिहासिक सफलता है। इससे न केवल नक्सल नेटवर्क का शीर्ष नेतृत्व ध्वस्त हुआ है बल्कि इससे संगठन के वैचारिक मनोबल को भी भारी नुकसान पहुँचा है।

लेकिन जिस प्रकार तुर्की, फिलीपींस और अन्य देशों में बसवराजू की मौत पर प्रतिक्रियाएँ आई हैं, उससे यह स्पष्ट होता है कि नक्सल आंदोलन अब केवल भारत की आंतरिक चुनौती नहीं है। यह एक अंतरराष्ट्रीय वैचारिक नेटवर्क का हिस्सा बन चुका है जिसमें वामपंथी उग्रवादियों, मानवाधिकार संगठनों और राजनीतिक विरोधियों का समर्थन और सहयोग मौजूद है।

 जानकारों  की माने तो आने वाले समय में भारत को इस अंतरराष्ट्रीय नैरेटिव को चुनौती देने के लिए राजनयिक मोर्चे पर सख्त नीति, सोशल मीडिया पर निगरानी, और विचारधारात्मक काउंटर नैरेटिव विकसित करने की आवश्यकता होगी जिससे भारत में नक्सल आंदोलन की जड़ों को फिर से हरा होने से पूर्णतया रोका जा सके। जिस प्रकार भारत सरकार काम कर रही है , उससे लगता भी यही है कि जमीनी सफलता के बाद नक्सल आंदोलन की वैचारिक और राजनीतिक जमीन को भी वह बंजर करेगी।

रामस्वरूप रावतसरे

भारतीय मेटल एक्सपोर्ट पर पड़ेगा सीधा असर

संजय सिन्हा

अमेरिका ने ग्लोबल ट्रेड वॉर के क्षेत्र में  एक फैसला लिया है। इस फैसले से भारत को नुकसान हो सकता है। दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने  4 जून से स्टील और एल्यूमीनियम के आयात पर अमेरिकी टैरिफ को दोगुना करके 50% कर दिया है। इससे भारतीय मेटल एक्‍सपोर्ट पर सीधा असर पड़ने की आशंका है। कारण है कि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर लिया गया है। इससे ग्‍लोबल सप्‍लाई चेन में व्यवधान पैदा हो सकता है। भारत ने इस पर प्रतिक्रिया जताते हुए विश्व व्यापार संगठन (WTO) में जवाबी शुल्क लगाने का संकेत दिया है। वहीं, विशेषज्ञों का मानना है कि इस कदम से अमेरिकी घरेलू उद्योगों पर दबाव बढ़ेगा। पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ेगा क्योंकि अमेरिका आर्थिक राष्ट्रवाद को प्राथमिकता दे रहा है। ट्रंप की यह पॉल‍िसी भारत के स्‍टील और एल्यूमीनियम एक्‍सपोर्टर्स के लिए बड़ा झटका है। इससे उनकी प्रॉफिटेबिलिटी कम हो जाएगी।

विशेषज्ञों का मानना है कि यह पॉलिसी भारत पर एक प्रत्यक्ष हमला है। इसके गंभीर आर्थिक परिणाम हो सकते हैं। विशेषज्ञों  ने ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी के लिए तीन अमेरिकी कानूनी उपकरणों का जिक्र किय है। उन्‍होंने कहा है  कि 1974 के अमेरिकी व्यापार अधिनियम की धारा 301 अमेरिका को अनुचित व्यापार प्रथाओं के खिलाफ शुल्क लगाने की अनुमति देती है जो विशेष रूप से चीन को टारगेट करती है।1962 के व्यापार विस्तार अधिनियम की धारा 232 राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिमों पर केंद्रित है। इसका इस्‍तेमाल स्‍टील, एल्यूमीनियम और ऑटोमोटिव इम्‍पोर्ट पर टैरिफ लगाने के लिए किया गया है।अंतरराष्ट्रीय कानून राष्ट्रपति को व्यापक रूप से शुल्क लगाने के लिए आपातकालीन शक्तियां देता है। इसका इस्‍तेमाल ट्रंप ने ‘लिबरेशन डे’ टैरिफ शुरू करने के लिए किया।

‘लिबरेशन डे’ टैरिफ में 10% का ब्‍लैंकेट टैरिफ और 57 देशों से आयात पर विशिष्ट देश के लिए ऊंचे टैरिफ (जैसे भारत पर 26% और चीन पर 245% तक) शामिल थे हालांकि, विशेषज्ञों  ने एक कानूनी मोड़ की ओर इशारा किया। उन्‍होंने कहा, ’28 मई, 2025 को अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय व्यापार न्यायालय ने फैसला सुनाया कि IEEPA-आधारित ‘लिबरेशन डे’ टैरिफ अवैध थे जिसमें कहा गया था कि व्यापार घाटा IEEPA के तहत आवश्यक ‘असामान्य और असाधारण खतरे’ मानक को पूरा नहीं करता है।’

डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से स्टील और एल्यूमीनियम के आयात पर टैरिफ को दोगुना कर दिया है जिससे भारतीय निर्यातकों को नुकसान होगा। भारत ने डब्ल्यूटीओ में जवाबी शुल्क लगाने का संकेत दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे अमेरिकी उद्योगों पर दबाव बढ़ेगा और महंगाई बढ़ने की आशंका है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर फिर ‘बम’ गिराया है। ग्‍लोबल ट्रेड वॉर में एक और कदम बढ़ाते हुए उन्‍होंने 4 जून से स्टील और एल्यूमीनियम के आयात पर अमेरिकी टैरिफ को दोगुना करके 50% कर दिया है। इससे भारतीय मेटल एक्‍सपोर्ट पर सीधा असर पड़ने की आशंका है। कारण है कि यह फैसला राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर लिया गया है। इससे ग्‍लोबल सप्‍लाई चेन में व्यवधान पैदा हो सकता है। भारत ने इस पर प्रतिक्रिया जताते हुए विश्व व्यापार संगठन (WTO) में जवाबी शुल्क लगाने का संकेत दिया है। वहीं, विशेषज्ञों का मानना है कि इस कदम से अमेरिकी घरेलू उद्योगों पर दबाव बढ़ेगा। पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ेगा, क्योंकि अमेरिका आर्थिक राष्ट्रवाद को प्राथमिकता दे रहा है। ट्रंप की यह पॉल‍िसी भारत के स्‍टील और एल्यूमीनियम एक्‍सपोर्टर्स के लिए बड़ा झटका है। इससे उनकी प्रॉफिटेबिलिटी कम हो जाएगी। विशेषज्ञों का मानना है कि यह पॉलिसी भारत पर एक प्रत्यक्ष हमला है। इसके गंभीर आर्थिक परिणाम हो सकते हैं।ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के संस्थापक अजय श्रीवास्तव ने इसे सीधा हमला करार द‍िया है। उन्‍होंने कहा क‍ि भारतीय स्‍टील और एल्यूमीनियम उत्पादों को अब भारी अमेरिकी शुल्क का सामना करना पड़ रहा है। इससे मार्जिन कम होगा और प्रतिस्पर्धात्मकता प्रभावित होगी।

श्रीवास्तव ने ट्रंप की टैरिफ पॉलिसी के लिए तीन अमेरिकी कानूनी उपकरणों का जिक्र किया। उन्‍होंने कहा कि 1974 के अमेरिकी व्यापार अधिनियम की धारा 301 अमेरिका को अनुचित व्यापार प्रथाओं के खिलाफ शुल्क लगाने की अनुमति देती है, जो विशेष रूप से चीन को टारगेट करती है।1962 के व्यापार विस्तार अधिनियम की धारा 232 राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिमों पर केंद्रित है। इसका इस्‍तेमाल स्‍टील, एल्यूमीनियम और ऑटोमोटिव इम्‍पोर्ट पर टैरिफ लगाने के लिए किया गया है।

‘लिबरेशन डे’ टैरिफ में 10% का ब्‍लैंकेट टैरिफ और 57 देशों से आयात पर विशिष्ट देश के लिए ऊंचे टैरिफ (जैसे भारत पर 26% और चीन पर 245% तक) शामिल थे।महत्वपूर्ण बात यह है कि फैसले ने धारा 232 टैरिफ को गैरकानूनी नहीं ठहराया। इससे ट्रंप को अदालत के हस्तक्षेप के तत्काल जोखिम के बिना स्‍टील और एल्यूमीनियम टैरिफ बढ़ाने की अनुमति मिल गई।

अमे‍र‍िका में महंगाई बढ़ने की आशंका

आर्थिक परिणाम पहले से ही दिखाई दे रहे हैं। अमेरिकी स्टील की कीमतें पहले से ही अधिक हैं। ये लगभग 984 डॉलर प्रति टन हैं। यूरोपीय कीमतों 690 डॉलर और चीनी कीमतों 392 डॉलर से यह बहुत ज्‍यादा है। फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गनाइजेशन (FIEO) ने हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा स्टील और एल्युमीनियम पर आयात शुल्क को 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने की घोषणा पर चिंता व्यक्त की है। संगठन ने कहा है कि इससे भारत के स्टील और एल्युमीनियम निर्यात, विशेष रूप से मूल्यवर्धित और तैयार स्टील उत्पादों और ऑटो-कंपोनेंट में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इस घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, FIEO के अध्यक्ष एस.सी. रल्हन ने कहा कि अमेरिका द्वारा स्टील और एल्युमीनियम आयात शुल्क में प्रस्तावित वृद्धि से भारत के स्टील निर्यात पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा, विशेष रूप से स्टेनलेस स्टील पाइप, स्ट्रक्चरल स्टील कंपोनेंट और ऑटोमोटिव स्टील पार्ट्स जैसी अर्ध-तैयार और तैयार श्रेणियों में।

उन्होंने कहा, “ये उत्पाद भारत के बढ़ते इंजीनियरिंग निर्यात का हिस्सा हैं और उच्च शुल्क अमेरिकी बाजार में हमारी मूल्य प्रतिस्पर्धात्मकता को कम कर सकते हैं।” भारत ने वित्तीय वर्ष 2024-25 में अमेरिका को लगभग 6.2 बिलियन डॉलर मूल्य के स्टील और तैयार स्टील उत्पादों का निर्यात किया, जिसमें इंजीनियर्ड और फैब्रिकेटेड स्टील घटकों की एक विस्तृत श्रृंखला और लगभग 0.86 बिलियन डॉलर के एल्युमीनियम और उसके उत्पाद शामिल हैं। अमेरिका भारतीय स्टील निर्माताओं के लिए शीर्ष गंतव्यों में से एक है, जो उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादन और प्रतिस्पर्धी मूल्य निर्धारण के माध्यम से धीरे-धीरे अपने बाजार में हिस्सेदारी बढ़ा रहे हैं। FIEO के अध्यक्ष ने आगे कहा कि हालांकि यह समझ में आता है कि यह निर्णय अमेरिका में घरेलू नीतिगत विचारों से उपजा है, टैरिफ में इतनी तेज वृद्धि वैश्विक व्यापार और विनिर्माण आपूर्ति श्रृंखलाओं को हतोत्साहित करने वाले संकेत भेजती है।इस फैसले की घोषणा के बाद स्टील निर्माता कंपनी क्लीवलैंड-क्लिफ्स इंक (Cleveland-Cliffs Inc) के शेयरों में बाजार बंद होने के बाद 26% की तेजी दर्ज की गई। निवेशकों को उम्मीद है कि टैरिफ बढ़ने से घरेलू कंपनियों को लाभ होगा।

ट्रंप ने यह घोषणा यूएस स्टील के मॉन वैली वर्क्स प्लांट से की, जो एक समय अमेरिका की औद्योगिक ताकत का प्रतीक था। अब यह क्षेत्र ट्रंप के लिए चुनावी दृष्टि से भी बेहद अहम है। पेंसिल्वेनिया जैसे राज्यों में इस तरह की घोषणाएं उन्हें मजदूर वर्ग के बीच समर्थन दिलाने में मदद कर सकती हैं।

गौरतलब है कि ट्रंप ने जनवरी में सत्ता में लौटते ही स्टील और एल्युमिनियम पर 25% टैरिफ लगाया था। अब यह दूसरी बार है जब उन्होंने शुल्क बढ़ाया है। इससे पहले 2018 में उन्होंने चीन पर 50 अरब डॉलर मूल्य के औद्योगिक उत्पादों पर टैरिफ लगाया था।नए टैरिफ के दायरे में केवल कच्चा स्टील ही नहीं बल्कि स्टेनलेस स्टील सिंक, गैस रेंज, एसी की कॉइल, एल्युमिनियम फ्राइंग पैन और स्टील डोर हिंज जैसे उत्पाद भी शामिल हैं। 2024 में इन उत्पादों का कुल आयात मूल्य 147.3 अरब डॉलर रहा, जिसमें दो-तिहाई हिस्सा एल्युमिनियम और एक-तिहाई स्टील का था।

वाणिज्य विभाग के मुताबिक, अमेरिका 2024 में 26.2 मिलियन टन स्टील आयात कर चुका है, जो इसे यूरोपीय संघ को छोड़कर दुनिया का सबसे बड़ा स्टील आयातक बनाता है। ऐसे में इस टैरिफ का असर व्यापक रूप से उद्योग और आम उपभोक्ताओं की जेब पर भी पड़ सकता है।

संजय सिन्हा

सांस की कीमत पूछी गई

साँस-साँस को मोहताज किया,
जीवन को नीलाम किया।
मासूम थी, बस एक साल की,
फिर भी व्यवस्था ने इनकार किया।

“वेंटिलेटर चाहिए?” — पूछा गया,
“सिफ़ारिश है?” — तौल कर कहा।
दोपहर से लेकर रात तलक,
बच्ची की साँसों ने दस्तक दी हर पल।

कभी सिस्टम की फाइल में अटकी,
कभी डॉक्टरों के मुँह के फेर में भटकी।
कंधे पर बैठी थी ममता की पुकार,
पर अस्पताल ने लगाया इंतज़ार।

PGI की गलियों में चीख गूँजती रही,
परदीवारें खामोश रहीं, मशीनें बंद पड़ी रहीं।
नही थी वो वोट, न पहचान की सिफारिश,
बस थी एक जान – मासूम, बेगुनाह, बेपरवाह।

सिस्टम का क्या दोष कहें?
यहाँ तो जिंदा रहने के लिए भी पहचान चाहिए।
गरीब की बेटी हो या किसान का बेटा,
बिना जुड़ाव, बिना सत्ता — नहीं मिलता हक़ जीने का।

— डॉ सत्यवान सौरभ

दर्द से लड़ते चलो

(आत्महत्या जैसे विचारों से जूझते मन के लिए)

ज़िंदगी जब करे सवाल,
और उत्तर न मिले हर हाल,
तब भी तुम थक कर बैठो नहीं,
आँखों में आँसू हो, पर बहो नहीं।

देखा है मैंने अस्पतालों में,
साँसों को बचाने की जंग में,
कोई ज़मीन बेचता है,
कोई गहने गिरवी रखता है।
जीवन को जीने की कीमत,
हर दिन वहाँ कोई चुकाता है।

तो क्यों तुम जीवन से भागो?
क्यों यूँ ही टूट कर बिखर जाओ?
मरना नहीं चाहता मन,
वो बस दर्द से छुटकारा चाहता है।
थोड़ा रुको, थोड़ा सहो,
समय की नदी को बहने दो।

एक दिन सूरज फिर उगेगा,
अंधेरे का तम भी सिमटेगा।
वो दर्द जो असह्य लगता है आज,
कल बन जाएगा बीते कल का राज।

जो जीते हैं, वही लड़ते हैं,
जो लड़ते हैं, वही जीतते हैं।
तुम्हारा होना ही एक जीत है,
हर साँस तुम्हारी उम्मीद की रीत है।

मत करो उस अंतिम सन्नाटे की पुकार,
तुम ज़रूरी हो इस संसार।
उठो, जियो, फिर से मुस्कुराओ,
दर्द से लड़ो — खुद को गले लगाओ।

— डॉ सत्यवान सौरभ

दुल्हन फर्जी, रिश्ता असली बेवकूफी का!


फर्जी रिश्तों का व्यापार: शादी नहीं, ठगी का धंधा

भारत में शादियों को लेकर एक सांस्कृतिक उत्सव, पारिवारिक प्रतिष्ठा और भावनात्मक जुड़ाव की भावना जुड़ी होती है। लेकिन जब इस पवित्र रिश्ते को ठगों का व्यवसाय बना दिया जाए, तो यह सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरे समाज के विश्वास की हत्या होती है। हरियाणा के हिसार से सामने आया ताज़ा मामला इसी सामाजिक बीमारी की खतरनाक तस्वीर पेश करता है — जहाँ दुल्हन, उसके माता-पिता और पूरा रिश्ता ही नकली निकला। यह घटना सिर्फ एक समाचार नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है: "अब भी नहीं चेते तो हर घर को अपनी आबरू खुद बचानी होगी।"


- प्रियंका सौरभ

हिसार पुलिस ने हाल ही में ऐसे गिरोह का पर्दाफाश किया है जो विवाह के नाम पर लोगों को ठगने का सुनियोजित कारोबार चला रहा था। आरोपी पहले से कई फर्जी शादियाँ कर चुका था। इस बार, न केवल दुल्हन नकली थी, बल्कि उसके 'माता-पिता' भी फर्जी निकले। एक भोला-भाला युवक, जो जीवनसाथी की तलाश में था, शादी के सपने लिए इस जाल में फँस गया और लौटे तो खाली जेब, टूटी उम्मीदें और गहरी मानसिक चोट के साथ।

सोचिए, जब किसी के जीवन की सबसे बड़ी खुशी को शातिर गिरोह पैसे कमाने का साधन बना लें, तब कानून और समाज की जिम्मेदारी क्या बनती है?



आंकड़ों की चिंता से ज़्यादा ज़रूरत जागरूकता की

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, हर साल भारत में हजारों लोग विवाह के नाम पर ठगी का शिकार होते हैं। 2023 में ही देशभर में लगभग 3200 से अधिक फर्जी विवाह और उनसे जुड़ी ठगी की शिकायतें दर्ज हुईं। इनमें से अधिकांश में महिला और उसके तथाकथित परिजनों ने विवाह के बाद धन, जेवर और नकद लेकर फरार होने की योजना पहले से बनाई होती है।

इस बढ़ती प्रवृत्ति का सबसे दुखद पहलू यह है कि ऐसे अपराधों में शामिल महिलाएं न केवल कानून का मजाक उड़ाती हैं, बल्कि असल में शोषित और ज़रूरतमंद महिलाओं की आवाज को भी कमजोर करती हैं।



कानून की कमजोरी या सिस्टम की सुस्ती?

ऐसे मामलों में सबसे बड़ा सवाल उठता है: क्या हमारा कानूनी सिस्टम इतना सुस्त है कि शादी जैसे गंभीर और सामाजिक तौर पर महत्वपूर्ण विषय में भी फर्जीवाड़ा बेरोकटोक जारी रह सके? विवाह पंजीकरण प्रणाली को यदि सख्त और डिजिटल तरीके से लागू किया जाए, तो ऐसे 90 प्रतिशत मामलों को शुरुआती स्तर पर ही रोका जा सकता है।

इसके लिए ज़रूरी है:

1. आधार वेरिफिकेशन से जुड़ा विवाह पंजीकरण: हर शादी का डिजिटल दस्तावेजीकरण और पहचान सत्यापन अनिवार्य किया जाए।


2. शादी ब्यूरो और मैरिज एजेंटों की निगरानी: जिन संस्थानों के माध्यम से रिश्ता तय हो, उनकी पृष्ठभूमि की जांच और पंजीकरण जरूरी बनाया जाए।


3. फर्जीवाड़ा रोकने के लिए विशेष अदालतें: ऐसे मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएँ ताकि पीड़ितों को न्याय जल्दी मिले।



समाज की भोली सोच और अंधा भरोसा

कई बार ऐसे मामलों में लोग यह सोचकर धोखा खा जाते हैं कि रिश्ता तय करने वाले लोग ‘परिचित’ हैं या ‘समाज के जानकार’। रिश्तों के नाम पर 'प्रस्ताव' भेजना, फिर थोड़ा दिखावा, एक-दो मुलाकातें, और शादी का दबाव — यही ट्रेंड बन चुका है।

फिर आती है समाज की सबसे बड़ी विडंबना: लड़की के परिवार को कम सवाल पूछे जाते हैं, जबकि लड़के के घरवालों से लाख शर्तें मानी जाती हैं। यह असंतुलन भी ठगों के लिए रास्ता आसान करता है।



महिलाओं की छवि पर भी असर

फर्जी दुल्हन गिरोह की खबरें समाज में महिलाओं को शक की निगाह से देखने की प्रवृत्ति को और बढ़ावा देती हैं। यह न केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए खतरनाक है, बल्कि असल पीड़ितों को भी न्याय से वंचित करता है। जब कोई महिला सही नियत से रिश्ता बनाना चाहती है, तब समाज का यह अविश्वास उसे शर्मिंदगी और मानसिक पीड़ा देता है।

ऐसे में ज़रूरी है कि कानून ऐसे फर्जीवाड़ों को जड़ से खत्म करे, ताकि महिलाओं के प्रति समाज का विश्वास भी सुरक्षित रह सके।



मीडिया की जिम्मेदारी और भूमिका

आजकल मीडिया भी ऐसे मामलों को सनसनीखेज बनाकर परोसता है। ‘दुल्हन फरार’, ‘फर्जी सास-ससुर’, ‘लुटेरा परिवार’ जैसे शीर्षक बिकते हैं, लेकिन इससे आगे की पड़ताल — जैसे कि ठगों के नेटवर्क, एजेंटों की भूमिका, और पुलिस की निष्क्रियता — अक्सर छूट जाती है।

मीडिया को चाहिए कि वह समाज को जागरूक करे, न कि सिर्फ मज़ाक उड़ाए या TRP के लिए खबरों को मसालेदार बनाए। यह पत्रकारिता की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह लोगों को जानकारी दे, चेतावनी दे और सही कदम उठाने की दिशा दिखाए।



पीड़ितों को शर्म नहीं, समर्थन चाहिए

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तब पैदा होती है जब ठगी के शिकार हुए लोग समाज में मज़ाक बन जाते हैं। पीड़ित लड़का या उसका परिवार जब पुलिस के पास जाता है, तो अक्सर ‘तू ही बेवकूफ है’, ‘थोड़ा देख-परख लिया होता’, ‘लड़की की फोटो में ही शक था’ जैसे ताने सुनने को मिलते हैं।

ऐसी सोच को बदलना होगा। पीड़ितों को मदद, काउंसलिंग और कानूनी समर्थन चाहिए, न कि समाज से दुत्कार। अगर समाज पीड़ित के साथ खड़ा हो, तो अपराधियों की हिम्मत नहीं होगी दोबारा किसी के साथ ऐसा छल करने की।



ठगी की नई तकनीकें, पर पुलिस की पुरानी आदतें

आजकल ठग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं — फर्जी दस्तावेज, फर्जी पहचान, और यहां तक कि Deepfake वीडियो और नकली सोशल मीडिया प्रोफाइल्स भी इस्तेमाल किए जा रहे हैं। लेकिन पुलिस अब भी पुराने तरीके अपनाकर जांच करती है — थाने बुलाना, पूछताछ करना, ‘कुछ दिन बाद आना’। जब तक पुलिस साइबर अपराध की आधुनिक तकनीकों से लैस नहीं होगी, तब तक ये अपराधी आगे निकलते रहेंगे।

हर जिले में साइबर सेल को विवाह संबंधित ठगी मामलों में विशेष प्रशिक्षण देना समय की मांग है।



शिक्षा और चेतना ही असली हथियार

सरकार और समाज को मिलकर एक व्यापक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए:

स्कूलों-कॉलेजों में युवाओं को रिश्तों में सतर्कता के बारे में जानकारी देना।

पंचायत और ग्राम सभाओं में शादी से पहले पहचान सत्यापन और कानूनी समझ को बढ़ाना।

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर विवाह तय करने वालों के लिए एक गाइडलाइन और चेकलिस्ट जारी करना।


क्योंकि जब तक लोग खुद सतर्क नहीं होंगे, तब तक कोई भी कानून या एजेंसी उन्हें ठगी से नहीं बचा सकती।



निष्कर्ष: रिश्तों की दुनिया में अब ज़रूरत है ‘सच’ की शिनाख्त

जिस समाज में शादी जैसा पवित्र रिश्ता भी धोखे और अपराध का माध्यम बन जाए, वहाँ आत्मावलोकन की ज़रूरत है। आज हमें यह तय करना होगा कि हम रिश्तों को भावनाओं से नहीं, समझदारी और जिम्मेदारी से जोड़ें।

क्योंकि अब समय आ गया है कि हम हर रिश्ते से पहले सवाल पूछें:

क्या सामने वाला सच बोल रहा है?

क्या दस्तावेज असली हैं?

क्या यह रिश्ता भरोसे पर टिका है या किसी स्वार्थ पर?


जब तक हम यह नहीं करेंगे, तब तक ‘फर्जी दुल्हनें’ असली घरों को उजाड़ती रहेंगी। और फिर हर बार खबरों में यही लिखा जाएगा:

> “दुल्हन फर्जी, रिश्ता असली बेवकूफी का!”

पाक भारत के दम को आजमाने की भूल न करें

0

 – ललित गर्ग –

भारत ने पहलगाम के नृशंस एवं बर्बर आतंकी हमले का जिस पराक्रम एवं शौर्य से बदला लिया, लेकिन विडम्बना है कि उस एकदम स्पष्ट सन्देश से पाकिस्तान ने कोई सबक नहीं लिया, पाकिस्तान की ऐसे सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक से भी अक्ल नहीं आयी। पाकिस्तान ऐसे कुत्ते की दूम है, जिसे चाहे कितना ही तरोड़ों-मरोडो वह टेढ़ी की टेढ़ी ही रहने वाली है। लेकिन इस बार भारत ने एक बड़ा सबक लिया है कि पाक के किसी भी झांसे एवं घड़ियाली आंसुओं में वह नहीं आयेगा। इसीलिये भारत हर मोर्चे पर सतर्क एवं सावधान है। भारत ने गैर-सामरिक एवं सामरिक मोर्चे पर सर्तकता दिखाते हुए तमाम समीकरण ही नहीं बदले हैं बल्कि भारत की सुरक्षा एवं आतंकवाद के खिलाफ सख्ती को तीक्ष्ण धार दी है। अब कोई भी आतंकी हमला युद्ध की चुनौती के रूप में लिया जाएगा और उसकी कड़ी एवं विध्वंसक प्रतिक्रिया ही होगी। भारत किसी परमाणु ब्लैकमेलिंग का शिकार नहीं होगा। आतंकियों और उनके समर्थकों में कोई भेद नहीं किया जाएगा। भारत आतंकवाद एवं कश्मीर के मामले में किसी भी महाशक्ति की मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेगा। भारत ने हाल की स्थितियों में जो भी निर्णय लिये स्व-विवेक से लिये, अमेरिका की इसमें कोई भूमिका नहीं रही। पाक भारत के दम को कमतर न आंके और उसे आजमाने की भूल न करें।
भारत के कतिपय राजनीतिक दल एवं कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि जब भारत विजयी स्थिति में आगे बढ़ रहा था तब उसने शांति की पहल क्यों स्वीकार की? भारत ने बड़ी जीत हासिल कर ली थी और उससे भी बड़ी जीत के लिये उसकी तैयारी थी तो संघर्ष विराम क्यों किया? इसका जवाब भारत के शीर्ष नेतृत्व ने एकदम सरल तरीके से दिया है कि भारत ने अपने सभी लक्ष्य हासिल किए। भारतीय सेना को छह-सात मई की रात पाकिस्तान के आतंकी अड्डों को नष्ट करने के बाद उसके प्रमुख एयरबेस इसलिए नष्ट करने पड़े, क्योंकि उसने अपने यहां के आतंकी अड्डों को निशाना बनाए जाने से चिढ़कर भारत पर मिसाइल और ड्रोन दागने शुरू कर दिए थे। लाहौर और सियालकोट के एयर डिफेंस ध्वस्त कर दिए गए। 11 पाकिस्तानी एयरफील्ड बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुए। इनमें रावलपिंडी स्थित सामरिक महत्व वाला नूर खान बेस, सरगोधा में मुशाफ बेस और जैकबाबाद में शाहबाज बेस प्रमुख हैं। चूंकि भारतीय सेना की अभूतपूर्व जवाबी कार्रवाई से पाकिस्तान बुरी तरह पस्त पड़ गया, इसलिए उसने सैन्य कार्रवाई रोकने की गुहार लगाई-भारत से भी और अमेरिका से भी। लेकिन यह स्पष्ट है कि अमेरिका की सैन्य कार्रवाई रोकने में कोई भूमिका नहीं थी।
भारत आपरेशन सिंदूर इस शर्त पर स्थगित करने को तैयार हुआ कि इसके आगे की कार्रवाई में पाक की जनता को ही अधिक नुकसान एवं परेशानी झेलनी थी। भारत ऐसा नहीं चाहता था कि पाक आकाओं की नासमझी का शिकार आम-जनता हो। भारत ने आतंकी ढांचे को ध्वस्त कर दिया और जब पाकिस्तान ने भारतीय नागरिकों को निशाना बनाया तब भी भारतीय प्रतिक्रिया संयमित एवं उचित दायरे में रही। पाक दुष्प्रचार की पोल खोलने के लिए खुद प्रधानमंत्री आदमपुर एयरबेस गए। वह जिस सी-130जे सुपर हरक्युलिस से उतरे वही पाक के दावों को झुठलाने के लिए बहुत था। पाक के झूठे दावे अनेक बार तार-तार हुए है। अब भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संकल्प व्यक्त किया है कि आतंकियों और उनके आकाओं की कोई भी हरकत के परिणाम उनकी कल्पनाओं से भी परे होंगे। भारत कभी झूकेगा नहीं, युद्ध जैसी स्थितियां अस्तित्व बचाने के लिये ही है, किसी पर आधिपत्य करने के लिये नहीं।
भारत- पाक के बीच सैन्य टकराव रुक जाने पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह श्रेय लेने में देर नहीं लगाई कि उनके हस्तक्षेप के कारण दोनों देश हमले रोकने को राजी हुए। यह दावा झूठा ही नहीं, बल्कि बेबुनियाद था। ट्रंप ने इसे संघर्ष विराम की संज्ञा देते हुए कहा कि मैंने व्यापार का हवाला देकर दोनों देशों की लड़ाई रोकी। इस पर भारत ने साफ कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति से व्यापार को लेकर कोई बात नहीं हुई। ट्रंप का दावा उस समय थोथा भी साबित हो गया, जब अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय व्यापार न्यायालय ने उनकी इस दलील को ठुकरा दिया कि उन्होंने ट्रेड की बात करके ही भारत और पाक के बीच सैन्य टकराव थामा। न्यूयार्क स्थित इस संघीय अदालत ने उनकी टैरिफ नीति को भी अवैध बता दिया। इससे सिद्ध हो गया कि ट्रंप जो कुछ कह रहे, वह सही नहीं, राजनीतिक महत्वाकांक्षा का बेहूदा प्रदर्शन है।
भारत अभी भी पाक लिये सख्त बना हुआ है, क्योंकि उसकी भूलें अक्षम्य है। भारत की पाक के खिलाफ सख्त कार्रवाइयों में मुख्य हैं सबसे प्रमुख सिंधु जल समझौते को स्थगित करना, चूंकि पाक सिंचाई संबंधी आवश्यकता के लिए एक बड़ी हद तक सिंधु और उसकी सहायक नदियों के पानी पर निर्भर है, इसलिए भारत के फैसले से उसे बड़ा झटका लगना स्वाभाविक है। पाक की कृषि एवं खाद्य सुरक्षा के लिए इस फैसले के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इसके साथ ही भारत ने पाक के साथ तमाम व्यापारिक रिश्ते
समाप्त कर दिये हैं। जिससे पाक की अर्थ-व्यवस्था प्रभावित हो रही है। भारत की ऐसी जवाबी कार्रवाइयों से पाकिस्तान में खलबली मची हुई है। लेकिन इन सबके बावजूद पाक सुधरने को तैयार नहीं है। पाक की दुनियाभर में तीव्र भर्त्सना और निन्दा हो रही है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य के रूप में पाकिस्तान के पहलगाम हमले की जिम्मेदारी लेने वाले रेजिस्टेंस फोर्स की लानत-मलानत ही हुई, पाक की किसी भी बात को तवज्जो नहीं दी गयी, बल्कि उसे फटकार लगी। पाक का टूटना बिखरना खयाली पुलाव नहीं, बल्कि यह उसके आतंकी षडयंत्रों की नियति है।
पहलगाम की घटना स्पष्ट रूप से यह एक सोची-समझी आतंकी साजिश थी। इसका मकसद सांप्रदायिक तनाव को भड़काना और कश्मीर में फल-फूल रहे पर्यटन को नुकसान पहुंचाना था। वहां शांतिपूर्ण चुनाव होने एवं चुनी हुई सरकार का सफलतापूर्वक चलना भी पाक के लिये नागवार गुजर रहा था। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद अथक प्रयासों से आ रही शांति एवं समृद्धि के दम पर हालात सामान्य होते जा रहे थे। उसे पाक आका एवं आतंकी छिन्न-भिन्न करना चाहते थे। पाक रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने 25 मई को स्काई न्यूज पर साक्षात्कार में आतंकी ढांचे से जुड़े सवाल के जवाब में कहा, ‘हम तीन दशकों से आतंक को पालना-पोसने का गंदा काम अमेरिका और ब्रिटेन के लिए करते आए हैं।’ पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने भी आतंकी ढांचे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए कहा कि पाकिस्तान का एक अतीत रहा है। जबकि वास्तविकता यही है कि आतंक पाक का अतीत ही नहीं, बल्कि वर्तमान भी है। यह उसकी मौजूदा नीति है, इसी के तहत पाक समय-समय पर भारत की शांति को क्षत-विक्षत करने की कुचेष्ठा करता रहा है।
अपनी कार्रवाई में भारत ने नागरिक या सैन्य ठिकानों को निशाना नहीं बनाया, लेकिन आतंकी ढांचे पर सटीक एवं प्रभावी प्रहार किया। अपनी विश्वसनीयता के लिए भारत ने साक्ष्य भी प्रस्तुत किए कि यह कोई खुफिया अभियान न होकर एकदम खुली चेतावनी थी। भारत अब भी अपनी बात पर कायम है कि अगर पाक शांति चाहता है, पडोसी धर्म को निभाना चाहता है तो पहले उसे अपने यहां आतंकी ढांचा समाप्त करना होगा। आतंक के साथ न वार्ता हो सकती है और न व्यापार। पानी और खून भी एक साथ नहीं बह सकते। भारत का रुख एकदम स्पष्ट है और अब पाक को तय करना है कि वह क्या चाहता है। भारत पाक और चीन की कुचालों को समझता है, इसीलिये रक्षा परियोजनाओं में देरी पर भारतीय वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमरप्रीत सिंह की चिंता और सवाल वाजिब हैं। दोतरफा मोर्चे पर जूझ रही सेना के आधुनिकीकरण में तेजी लाने की भी जरूरत है। इसके लिए केवल विदेशी सौदों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, मेक इन इंडिया प्रॉजेक्ट के तहत भी उत्पादन बढ़ाना होगा। इन्हीं जरूरतों को देखते हुए भारत अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने में जुटा है। लेकिन भारत युद्ध नहीं चाहता, शांति एवं अमन ही उसका लक्ष्य है। भारत ने वैसे भी ‘नो फर्स्ट यूज’ की नीति अपना रखी है यानी देश परमाणु हथियारों का पहले इस्तेमाल नहीं करेगा। किसी ऐसे मुल्क के खिलाफ भी भारत एटमी वेपन नहीं निकालेगा, जिसके पास परमाणु हथियार नहीं हैं। भारत ने यह ताकत हासिल की है सुरक्षा के लिए, आक्रामकता दिखाने और आक्रमण के लिए नहीं।

वैश्विक विस्मृति के शिकार तियानमेन चौक के शहीद

राकेश सैन

वर्तमान युग लोकतंत्र का है. इस प्रणाली की लाख खामियों के बावजूद आधुनिक दुनिया अपने आप को लोकतांत्रिक व्यवस्था कहलवाना पसंद करती है। यहां तक कि मजहबी राजनीतिक व्यवस्था वाले देश भी अपने नाम में किसी न किसी तरह लोकतंत्र शब्द को शामिल करके स्वयं को प्रगतिशील साबित करने का प्रयास करते हैं पर आश्चर्य की बात है कि लोहावरणवादी कम्युनिस्ट व्यवस्था को जबरन ढो रही चीन की जनता ने आज से चार दशक पहले लोकतंत्र के पक्ष में आवाज उठाई तो उसे टैंकों ने रौंद दिया और आज लोकतांत्रिक वैश्विक समाज उस घटना को लगभग भूल सा गया लगता है। दरअसल 4 जून, 1989 में चीन के बीजिंग का तियानमेन चौक बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों का केन्द्र बना जिसे चीन के कम्युनिस्ट शासकों ने बुरी तरह कुचल दिया। 

इसकी पृष्ठभूमि में जाएं तो पता चलता है कि 1980 के दशक में चीन बड़े बदलावों से गुजर रहा था। सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ निजी कंपनियों और विदेशी निवेश को अनुमति देना शुरू कर दिया। चीनी नेता डेंग जियाओ पिंग को इससे अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलने और लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठने की आशा थी। इस कदम से राजनीतिक खुलेपन की उम्मीद भी जगी लेकिन उस समय कम्युनिस्ट पार्टी दो भागों में बंट गई। एक वर्ग वो जो तीव्र परिवर्तन की मांग कर रहा था तथा दूसरा वो कठोर राज्य नियंत्रण बनाए रखना चाहता था। इस दौरान छात्रों के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। इसमें भाग लेने वालों में वे लोग शामिल थे जो विदेश में रह चुके थे और नए विचारों तथा उच्च जीवन स्तर से परिचित थे।

1989 में अधिक राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग के साथ विरोध प्रदर्शन बढ़ गये। प्रदर्शनकारियों को एक प्रमुख राजनीतिज्ञ हू याओबांग से प्रोत्साहन मिला, जिन्होंने कुछ आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तनों की देखरेख की। दो वर्ष पहले राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें पार्टी के शीर्ष पद से हटा दिया था। अप्रैल में हू की मौत हो गई, उनके अंतिम संस्कार के दिन हजारों लोग एकत्रित हुए और उन्होंने अधिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा कम सेंसरशिप की मांग की। अगले सप्ताहों में, प्रदर्शनकारी तियानमेन चौक पर एकत्र हुए जिनकी अनुमानित संख्या दस लाख तक थी। तात्कालिक कम्युनिस्ट व्यवस्था ने इस दौरान न केवल हजारों निर्दोष नागरिकों, विशेषकर छात्रों और श्रमिकों का निर्मम दमन किया बल्कि करोड़ों चीनी नागरिकों के मौलिक संवैधानिक अधिकारों को भी रौंद दिया। 

3-4 जून की रात, चीन की जनमुक्ति सेना ने बख्तरबंद टैंकों और हथियारों से छात्रों पर हमला किया। हजारों की संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई। यह भयावह घटना इतिहास में चार जून की घटना या तियानमेन नरसंहार के नाम से दर्ज है जो आज भी चीन में एक वर्जित विषय बना हुआ है। घटना वाले दिन बीजिंग की सडक़ों पर वह भयावह मंजर शुरू हुआ। चीनी सेना ने राजधानी में प्रवेश कर गोलीबारी शुरू कर दी जिससे प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार 35-36 लोग मारे गए लेकिन यह तो केवल शुरुआत थी। 4 जून की सुबह करीब 4 बजे, जब तियानमेन चौक पर हजारों की संख्या में निहत्थे छात्र, नागरिक, बच्चे और बुजुर्ग शांतिपूर्वक लोकतंत्र और पारदर्शिता की मांग को लेकर एकत्र थे, तब कम्युनिस्ट सरकार ने क्रूरतम रूप का प्रदर्शन किया। सरकार ने न सिर्फ टैंक और हथियारबंद जवानों को तियानमेन चौक पर भेजा बल्कि लड़ाकू विमानों तक की तैनाती की। बिना किसी चेतावनी के गोलियां बरसाई गईं। निर्दोष लोगों को कुचला गया, दौड़ते बच्चों को निशाना बनाया गया, और चौक को रक्तरंजित कर दिया गया।

 यह कार्रवाई सिर्फ एक नरसंहार नहीं बल्कि  लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की भावना पर एक संगठित, राज्य-प्रायोजित प्रहार था। बीजिंग की सडक़ों पर मानव रक्त की नदियाँ बह रही थीं। यह कोई युद्ध का मैदान नहीं था बल्कि एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रदर्शन के खिलाफ राज्य द्वारा चलाया गया सुनियोजित नरसंहार था। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने छात्रों और नागरिकों की शांतिपूर्ण मांगों का उत्तर टैंकों और गोलियों से दिया। रात के अंधेरे में बीजिंग की सडक़ों पर टैंक गर्जना करने लगे और कुछ ही घंटों में लगभग 10,000 निर्दोष लोगों की जानें चली गईं। चीनी सरकार के अनुसार दो सौ लोग मरे और तीन हजार घायल हुए।

तियानमेन नरसंहार को लेकर वर्षों तक चीन सरकार ने मृत्यु संख्या को लेकर पूर्ण गोपनीयता बनाए रखी लेकिन समय के साथ कुछ अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज सामने आए जिन्होंने इस भयावह घटना की असली तस्वीर उजागर की। चीन में तत्कालीन ब्रिटिश राजदूत एलन डॉनल्ड ने 1989 में लंदन भेजे अपने एक गोपनीय टेलीग्राम में स्पष्ट रूप से कहा था कि इस सैन्य कार्रवाई में कम से कम 10,000 लोगों की मृत्यु हुई। यह टेलीग्राम घटना के 28 वर्षों बाद सार्वजनिक हुआ। हांगकांग बैप्टिस्ट विश्वविद्यालय में चीनी इतिहास, भाषा और संस्कृति के विशेषज्ञ ज्यां पिए कबेस्टन ने भी इस टेलीग्राम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘ब्रिटिश राजनयिकों द्वारा भेजे गए आँकड़े हैं और इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता।’

प्रसिद्ध चीनी लेखक और सामाजिक आलोचक लियाओ इयवु ने तियानमेन नरसंहार को लेकर अपनी लेखनी के माध्यम से चीनी सत्ता की क्रूरता को बेनकाब किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि चीन अब पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है। ‘बॉल्स ऑफ ओपियम’ नामक अपनी पुस्तक में, जो विशेष रूप से तियानमेन चौक की घटना पर आधारित है, उन्होंने लिखा, ‘लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हजारों लोगों को सेना ने निर्ममता से कुचल दिया।’ यह पुस्तक न केवल चीन में प्रतिबंधित कर दी गई बल्कि लियाओ को इस विचारधारा के खिलाफ बोलने के कारण जेल, गुप्त निगरानी और अंतत: निर्वासन तक का सामना करना पड़ा।

इस घटना के बाद भी चीनी सरकार ने दमनात्मक रवैया छोड़ा नहीं बल्कि अत्याचारों की सारी सीमाएं लांघ दी। 6 जून नरसंहार के तुरंत बाद चीन में स्थित विदेशी दूतावासों ने अपने-अपने नागरिकों को सुरक्षा कारणों से देश छोडऩे के निर्देश जारी किए ताकि इस घटना पर पर्दा डाला जा सके। 16 जून को आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं की व्यापक गिरफ्तारी शुरू हुई। विभिन्न विश्वविद्यालयों से जुड़े 1000 से अधिक छात्र नेताओं को चिन्हित कर हिरासत में लिया गया। अगले दिन 17 जून बीजिंग में 8 नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया। 20 जून को चीन ने सभी ट्रैवल वीजा पर रोक लगा दी। यह निर्णय इसलिए लिया गया ताकि कोई भी आंदोलनकारी देश छोडक़र अंतर्राष्ट्रीय समर्थन न प्राप्त कर सके और विरोध की आवाज को सीमा के भीतर ही दबा दिया जाए।

वैसे तियानमेन नरसंहार वामपंथी विचारधारा के चरित्र का कोई अपवाद नहीं बल्कि उसकी सतत अमानवीय प्रवृत्तियों की ही एक कड़ी है। इतिहास के पन्ने पलटने पर स्पष्ट होता है कि वामपंथी अधिनायकवाद का पूरा इतिहास ऐसे ही संविधान-विरोधी अत्याचारों और दमन की घटनाओं से अटा पड़ा है। लेनिन के नेतृत्व में ‘बोल्शेविक क्रांति’ के बाद लाखों विरोधियों का दमन, स्टालिन के ‘ग्रेट पर्ज’ के दौरान अनुमानित दो करोड़ से अधिक लोगों की हत्या और माओत्से तुंग के ‘ग्रेट लीप फारवर्ड’ और ‘कल्चरल रेवेल्यूशन’ में करोड़ों लोगों की मौतें, यह दिखाती हैं कि वामपंथी शासन अक्सर आलोचना और विरोध को कुचलने के लिए नरसंहार और दमन को ही नीति का रूप दे देता है।

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भारत के वामपंथी विचारक और संगठन भी उन्हीं वैश्विक व्यक्तित्वों लेनिन, माओ और स्टालिन से वैचारिक प्रेरणा लेते रहे हैं, जिनकी नीतियाँ अत्याचार, दमन और हिंसा से जुड़ी रही हैं। चाहे वह बंगाल और केरल की वामशासित सरकारों में राजनीतिक हिंसा का इतिहास हो, या फिर नक्सलवाद और अर्बन नक्सलिज्म के माध्यम से राज्यविरोधी हिंसक गतिविधियाँ, इन सबमें वामपंथी विचारधारा की भूमिका बार-बार सामने आती रही है। 

भारत-चीन युद्ध के दौरान जैसे भारत के कम्युनिस्टों ने दुश्मन देश का समर्थन कर अपने चरित्र का प्रमाण दिया, उसी तरह तियानमेन चौक नरसंहार पर भी उन्होंने चीन को मूक समर्थन दिया। ‘टाइम्स आफ इण्डिया’ में 16 जून, 1989 को प्रकाशित वी. आर. मणि के एक लेख ‘लेफ्ट स्टैंड ऑन चाइना कन्फलिक्ट’ में बताया गया  कि ‘1989 में जब चीन के तियानमेन चौक पर लाखों छात्र लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भ्रष्टाचार के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे, तब चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने उन पर टैंकों और बंदूकों से अत्यंत निर्मम दमन किया परंतु इस भीषण नरसंहार पर भारतीय वामपंथी दलों, विशेष रूप से सीपीआई (एम) और सीपीआई का रुख विरोधाभासी और मौन समर्थन देने वाला था। इन दलों ने न तो इस नरसंहार की स्पष्ट रूप से निंदा की और न ही चीन सरकार की आलोचना की। सीपीआई (एम) ने इसे चीन का आंतरिक मामला बताकर टालने का प्रयास किया और छात्रों की गतिविधियों को राजनीतिक अस्थिरता फैलाने वाला कहकर चीन की कार्रवाई को परोक्ष रूप से उचित ठहराया। 

टाइम्स आफ इण्डिया’ के ही 16 जनवरी, 1990 को प्रकाशित सम्पादकीय में बताया गया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) ने सार्वजनिक रूप से तियानमेन चौक नरसंहार का बचाव किया। पार्टी के मुखपत्र देशाभिमानी (मलयालम) ने तियानमेन के छात्र प्रदर्शनकारियों को उपद्रवी कहा और चीन सरकार की सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया। दु:खद बात है कि लोकतंत्र के पक्ष में उठी एक शक्तिशाली आवाज और चीनी लोगों के जनतंत्र के लिए दिए गए उस बलिदान को दुनिया ने भुला कैसे दिया?

राकेश सैन

झूठ तुम्हारे हो गये – कितने लम्बे पैर

वीरेन्द्र सिंह परिहार

         2014 में केन्द्र की सत्ता में आने पर मोदी सरकार द्वारा क्रमशः 2016, 2019 और 2025 में सर्जिकल स्ट्राइक की गई जिसमें कई आतंकवादी मारे गये। मोदी सरकार का यह कदम अभूतपूर्व साहस से भरा था और इस बात का प्रमाण था कि देश अब सीमा-पार से आतंकवाद सहन करने वाला नहीं है। निश्चित रूप से मोदी सरकार के इन कदमों से एक ओर जहाँ देश में आतंकी गतिविधियों पर व्यापक स्तर पर विराम लगा, वही विश्व परिदृश्य में भारत की एक नई छवि उभरी इस तरह से पूर्व की तरह वह एक दब्बू राष्ट्र नहीं था वरन एक स्वाभिमान और ऊर्जा से सम्पन्न राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ने वाला राष्ट्र बन गया। एक तरह से वह इस मामले में अमेरिका और इजरायल की पक्ति में खड़ा हो गया, जो अपने दुश्मनों को घर में घुसकर मारते थे। निश्चित रूप से ऐसे साहस भरे कृत्यों का राजनीतिक लाभ तो मिलता ही है, देश का जनमानस संकीर्ण प्रवृत्तियों से मुक्त होकर एक व्यापक राष्ट्रवादी धारा में हिलोरे मारने लगता है। 6-7 अप्रैल को मोदी सरकार द्वारा पाकिस्तान के आतंकी अड्डो पर राफेल और सुखोई विमानों से मिसाइलों के माध्यम से हमला कर सैकड़ों आतंकवादियों को मिट्टी में मिला दिया। और तत्पश्चात पाकिस्तान के हमला करने पर उसे ऐसा मुहतोड़ जवाब दिया कि पाकिस्तान त्राहि-त्राहि कर उठा।

 देश की जनभावनाओं को मोदी सरकार के पक्ष में देखकर कांग्रेस पार्टी को ऐसा लगने लगा कि आतंकवाद के मामले पर मोदी के प्रति बढ़ते जन समर्थन के चलते वह भविष्य में राजनीतिक दृष्टि से बहुत घाटे में रहेगी। इस पर कांग्रेस पार्टी ने यह कहना शुरू कर दिया कि यूपीए सरकार के दौर में कई सर्जिकल स्ट्राईक की गई थी। यह बात और है कि हमने उन्हें प्रचारित नहीं किया। अब यह कहा जा सकता है कि भाई क्या सर्जिकल स्ट्राइक चोर जैसे होती है कि कोई जानने न पाये। भला कांग्रेस पार्टी राजनीति में इतना बीतरागी कैसे हो गई कि वह कोई उल्लेखनीय कृत्य करे और उसका श्रेय न ले। सवाल सिर्फ श्रेय लेने का नहीं. ऐसे कदमों का प्रचार-प्रसार बड़े स्तर पर किया जाना चाहिए क्योंकि एक तरफ तो इससे राष्ट्र के नागरिकों का मनोबल बढ़ता है, उन्हें यह एहसास होता है कि उनकी सरकार और नेतृत्व मजबूत एवं साहसी है जो वक्त पड़ने पर खतरा उठाने से नहीं झिझकते।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि यदि यूपीए सरकार के दौर में सर्जिकल स्ट्राइक हुई तो उसका सरकार के पास को अभिलेख एवं डेटा तो होना ही चाहिए जबकि एक आरटीआई के अनुसार वर्ष 2004 से 2014 के बीच जब मनमोहन सरकार सत्ता में थी तो उस दौर का कोई डेटा सरकार के पास उपलब्ध नहीं है। दूसरे इस झूठ को इस तरह से समझा जा सकता है कि इस सम्बन्ध में विभिन्न नेता अलग-अलग बाते करते हैं। स्वतः राहुल गाँधी जहाँ उस दौर में 03 सर्जिकल स्ट्राइक की बात करते हैं, वहीं उस समय रक्षा मंत्री रहने वाले शरद पवार 04 सर्जिकल स्ट्राइक की बाते करते हैं। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत 15 सर्जिकल स्ट्राइक की बाते करते हैं तो तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के.सी.आर. 11 सर्जिकल स्ट्राइक की बातें करते हैं। हद तो यह कि उस समय के वायुसेना चीफ बी.एस. धनौआ ने लिखा है कि वर्ष 2008 में जब पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद द्वारा मुम्बई में 26/11 हुआ और 250 करीब लोगो की हत्याएं हुई तो वायुसेना पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक के लिये तैयार थी लेकिन तत्कालीन यू.पी.ए. सरकार द्वारा उसकी अनुमति नहीं दी गई।

अब इतने बड़े मामले पर जब यूपीए सरकार ने कोई सर्जिकल स्ट्राइक नहीं की और कोई कदम नहीं उठाया तो बाकी समय में करने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता। इसी के चलते पाकिस्तानी हमारी सेना के जवानों के सीमा पार से सिर काट ले जाते थे। उस अवधि में पूरे देश में आये दिन कहीं-न-कहीं आतंकवादियों द्वारा बम धमाके होते रहते थे। पूरा देश एक संशय और भय के माहौल में जी रहा था। तर्क यह दिया जाता था कि पाकिस्तान के पास परमाणु बम है, इसलिये कोई कदम उठाने में बड़ा खतरा है। आतंकवादियों को तबके गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने भटके हुये भाई बताया था तो राहुल गाँधी की दृष्टि में लश्करे तोयबा से ज्यादा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खतरनाक था।

         मोदी सरकार की आतंकवाद के प्रति जीरो टालरेंस की नीति के चलते ही आतंकवादी घटनाओं पर कुछ उपवादों को छोड़कर पूरे देश में विराम लग गया। स्थिति यह है कि अब आतंकवाद कश्मीर घाटी के कुछ जिलों में छुटपुट रूप में ही और अंतिम सांसे छीन रहा है। मोदी सरकार के दौर में यदि पठानकोट, बालाकोट और पहलगाम हुआ तो उसका सौ गुना ज्यादा ताकत से जवाब दिया गया। अब जो सरकार जेहादी आतंकवाद को काउंटर करने के लिये निराधार हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी का प्रचार-प्रसार कर रही थी, वह भला आतंकवाद को लेकर सर्जिकल स्ट्राइक कैसे करती।

वीरेन्द्र सिंह परिहार

क्या पाकिस्तान 2029 से पहले “ध्वस्त” हो जाएगा?

शिवानन्द मिश्रा

क्या पाकिस्तान 2029 से पहले “ध्वस्त” हो जाएगा? संक्षिप्त उत्तर है: हाँ।

28 अप्रैल को असीम मुनीर और शाहबाज़ शरीफ़ ने क्रिप्टो फ़ंड WLF को पाकिस्तानी संपत्तियाँ बेच दी हैं।

बलूच, सिंध, पश्तून, POJK पहले से कहीं ज़्यादा गरम हो रहे हैं।

लेकिन पाकिस्तान कैसे ध्वस्त होगा?

 ध्वस्त होने का मतलब है अंदर से टूटना।

इसके कारण इस प्रकार हैं:

आर्थिक टाइम बम:

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था निरंतर संकट की स्थिति में है:

ऋण-से-जीडीपी अनुपात: 73.94%+

राजकोषीय घाटा: जीडीपी का ~7% (वित्त वर्ष 25 का पूर्वानुमान)

विदेशी मुद्रा भंडार: 3 महीने के आयात का समर्थन करने के लिए ~15 बिलियन डॉलर के आसपास है

मुद्रास्फीति: 2023 में 37%

2019 से मुद्रा में 250% की गिरावट आई है:

2018 में PKR/USD: ~120

2025 में PKR/USD: ~280-300

डिफ़ॉल्ट को केवल IMF बेलआउट के ज़रिए टाला जाता है।

वे विकास लक्ष्य से चूकने के कारण 5 बिलियन अमरीकी डॉलर का और ऋण मांग रहे हैं।

ऋण जाल कूटनीति और IMF निर्भरता:

पाकिस्तान ने 1958 से अब तक 25 से ज़्यादा IMF ऋण लिए हैं।

2023-24 में, IMF ने $3B बेलआउट को मंज़ूरी दी और मई 2025 में 1.7 बिलियन की और मंज़ूरी दी लेकिन पुनर्भुगतान बकाया है:

चीन, सऊदी अरब, UAE सहित 2026 तक $77B बकाया है।

वित्त वर्ष 25 में ऋण सेवा: संघीय राजस्व का >60%

पाकिस्तान ऋण चुकाने के लिए उधार ले रहा है = अस्थिर चक्र।

अब पाकिस्तान ने उस प्लेटफॉर्म पर अपनी संपत्तियों को टोकनाइज़ करने के लिए यूएस क्रिप्टो फंड के साथ एक डील साइन की है।

असीम मुनीर भी उस डील का हिस्सा थे। इसका क्या मतलब है?

पाकिस्तान की सभी सरकारी संपत्तियाँ उस प्लेटफॉर्म पर बिक्री के लिए हैं।

पाकिस्तान इसका इस्तेमाल बेलआउट के लिए पैसे पाने के लिए करेगा क्योंकि IMF ने 11 प्रतिबंधों के साथ उस पर शिकंजा कसा है।

जैसे-जैसे यह क्रिप्टो डील वास्तविक होती जाएगी, पाकिस्तान का पूरा वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होगा और इसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर अशांति और अस्थिरता पैदा होगी।

चीन इस डील से खुश नहीं है क्योंकि इससे कई चीनी पाकिस्तानी इंफ्रा प्रोजेक्ट प्रभावित हो सकते हैं।

यह सुनिश्चित करने के लिए कि चीन असीम मुनीर को अपने पक्ष में न कर ले, उन्हें हार के बाद भी फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया है।

पाकिस्तान ने यह डील क्यों की? क्योंकि एक और टाइम बम: बलूच, सिंधी, पश्तूनों ने अपने-अपने क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अशांति पैदा कर दी है।

ऑपरेशन सिंदूर के साथ, पाकिस्तान सशस्त्र बल पूरी तरह से विघटित अवस्था में हैं।

बलूच पहले की तुलना में अधिक आक्रामक तरीके से अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे हैं।

एक बार जब वे स्वतंत्र हो जाएंगे तो चीन पाकिस्तान को छोड़ देगा और बलूचिस्तान के साथ अपनी परियोजनाओं, दुर्लभ पृथ्वी खनिजों और अरब सागर में समुद्री पहुँच के लिए काम करेगा।

खैबर पख्तूनवा क्षेत्र में भी भारी अशांति है…

नागरिक अधिकारों और उपेक्षा सहित कई क्षेत्रों के लिए तालिबान से समर्थन।

तालिबान ने पिछले एक साल में विवादित पाकिस्तान अफगान सीमा पर पाकिस्तानी सेना से कई बार मुठभेड़ की और उन्हें मार गिराया।

पश्तूनों को स्वतंत्रता की लड़ाई में तालिबान से हर तरह का समर्थन मिल रहा है।

तालिबान सरकार काबुल नदी के पाकिस्तान में प्रवाह को रोकने के लिए बांध बना रही है।

इसलिए पाकिस्तान की बर्बाद अर्थव्यवस्था… सिंधु संधि निरस्तीकरण और अब अफगानिस्तान द्वारा बांध बनाने से और भी अधिक कमजोर हो गई है।

ये दोनों मिलकर पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद के 25% और पाकिस्तान के रोजगार के 40% को प्रभावित कर सकते हैं।

सिंध, पीओके भी बड़े पैमाने पर नागरिक अशांति का सामना कर रहे हैं जो अपनी स्वतंत्रता की मांग कर रहे हैं, हालांकि अभी तक यह उतना मजबूत नहीं है।

पाकिस्तान की कमज़ोर सेना के कारण ये अशांति बहुत जल्द ही बलूचिस्तान जैसे आंदोलन में तब्दील होने जा रही है। पाकिस्तान दुनिया का तीसरा सबसे ज़्यादा पानी की कमी वाला देश है। सिंधु संधि रद्द होने के बाद यह नंबर एक बन जाएगा। आने वाले महीनों में बड़े पैमाने पर नागरिक अशांति की आशंका है और आने वाले साल में यह और भी ज़्यादा बढ़ जाएगी।

और चीन… पाकिस्तान के अमेरिका के साथ सौदे और ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान के बंकरों में अमेरिकी परमाणु हथियारों के उजागर होने से नाराज़ है। चीन ने पाकिस्तान के उप प्रधानमंत्री को बुलाया और उनका स्वागत एक निचले दर्जे के कर्मचारी की तरह किया गया। चीन को पाकिस्तान में अपने निवेश पर जोखिम और ऑपरेशन सिंदूर में पाकिस्तान के खराब प्रदर्शन को देख रहा है, जहाँ चीनी रक्षा प्रणाली उजागर हो गई और दुनिया भर में अनुबंध रद्द हो रहे हैं। 

भारत को क्या करना चाहिए? भारत को पाकिस्तान को गर्त में धकेलने के लिए पिछले 7-8 सालों से जो किया है, उसे करने की ज़रूरत है। हमें पीओजेके के लिए जबरदस्ती करने की जरूरत नहीं है। पाकिस्तान खुद ही हमें थाली में परोस देगा।

नोटबंदी ने 2016 से उनकी वित्तीय स्थिति को बिगाड़ दिया है। ऑपरेशन सिंदूर ने आंतरिक स्वतंत्रता आंदोलनों और अपने सहयोगी चीन के साथ बाहरी दरार को हवा दी है और ..

इसे अमेरिका द्वारा उपनिवेश बनाने के लिए मजबूर किया है।

सिंधु घाटी संधि निरस्तीकरण ने इसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ यानी कृषि को बड़े जोखिम में डाल दिया है।

भारत को पीओजेके के लिए पाकिस्तान के साथ लंबे युद्ध में समय और पैसा बर्बाद करने और चीन को नाराज़ करने की ज़रूरत नहीं है।

पीओजेके, बलूचिस्तान, केएफपी और सिंध बहुत जल्द पैदा होंगे।

बलूचिस्तान सांस्कृतिक रूप से भारत के साथ जुड़ा हुआ है, 1947 को छोड़कर अनंत काल से भारत का हिस्सा रहा है। भारत को यह देखना चाहिए कि वह आर्थिक लाभ के लिए बलूचिस्तान का भागीदार है और चीन को बलूचिस्तान से कोई भी संबंध रखने से रोकता है। हमें समझदारी से और समय रहते कदम उठाने होंगे।

शिवानन्द मिश्रा

मेघना गुलजार की फिल्‍म ‘दायरा’ में करीना कपूर

सुभाष शिरढोनकर

एक्ट्रेस करीना कपूर अपनी एक्टिंग से हर बार फैंस का दिल जीत लेती हैं। उनकी फिल्मों का फैंस को बेसब्री से इंतजार रहता है हालांकि शादी और फिर दो बच्‍चों की मां बन जाने के बाद करीना आज पहले की तरह सक्रिय  नहीं हैं।

हाल ही में करीना कपूर ने अपने करियर के 25 साल पूरे किए लेकिन फैंस के दिलो दिमाग में उनका चार्म आज भी पहले की तरह कायम है।

करीना के नए प्रोजेक्ट की अनाउंसमेंट का फैंस लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। हाल ही में खबर आई कि  करीना कपूर, मेघना गुलजार की अपराध, सजा और न्याय के बीच के संघर्ष को पर्दे पर उजागर करती अपकमिंग फिल्म ‘दायरा’ में मेन लीड में नजर आएंगी। इस फिल्‍म में उनके अपोजिट साउथ के फेमस एक्टर पृथ्वीराज सुकुमारन होंगे।   

‘तलवार’ से लेकर ‘राजी’ तक फिल्‍म इंडस्‍ट्री को एक से बढकर एक कई फिल्‍में देने वाली निर्देशक मेघना गुलजार की  ‘सैम बहादुर’ (2023) की सफलता के बाद यह अगली निर्देशित फिल्म होने वाली है। इस फिल्‍म की कहानी हर किसी को उस समाज और उसकी संस्थाओं के बारे में सोचने पर मजबूर करती है, जिसमें हम सभी रहते हैं।

करीना कपूर की पहली फिल्म 2000 में रिलीज ‘रिफ्यूजी’ थी जिसमें वह अभिषेक बच्‍चन के अपोजिट नजर आई थीं। इस फिल्‍म से करीना की धीमी शुरुआत हुई।

फिल्म ‘रिफ्यूजी’ (2000) से करीना को कोई बड़ा बूस्ट नहीं मिला लेकिन इसके बाद करीना ने एक से बढ़कर एक अनेक अच्छी फिल्में करते हुए खूबसूरती और टेलेंट की जबर्दस्‍त धाक जमा ली।

करण जौहर की फिल्म ‘कभी खुशी, कभी कम’ (2001) में करीना कपूर ने मॉर्डन गर्ल पू का रोल प्ले किया जिसे काफी पसंद किया गया। इस रोल से उन्हें असल पहचान मिली। इसके बाद करीना का क्रेज लगातार बढता ही गया।  

‘चमेली’ (2004), ‘ओमकारा’ (2006), ‘जब वी मेट’ (2007) और ‘उड़ता पंजाब’ (2016) जैसी फिल्मों में करीना ने अपनी एक्टिंग की जबर्दस्‍त रेंज दिखाई। 

’वीरे द वैडिंग’ (2018) के बाद ‘गुड न्‍यूज’ (2019)  और ‘अग्रेजी मीडियम’ (2020) में भी करीना को काफी पसंद किया गया। ’फिदा’ (2004) के बाद ‘हीरोइन’ (2012) जैसी फिल्‍मों के नेगेटिव शेड वाले केरेक्टर में भी करीना कपूर का दमखम देखने लायक था। 

करीना और शाहिद कपूर ने एक साथ कई फिल्मों में काम किया जिनमें ‘फिदा’ (2004), ’36 चाइन टाउन’ (2006) ‘चुप चुपके’ (2006), ‘जब वी मेट’ (2007), ‘मिलेंगे मिलेंगे’ (2010) और ‘उड़ता पंजाब’ (2016) शामिल हैं।

इन फिल्‍मों में काम करते हुए करीना कपूर और शाहिद कपूर के अफेयर के खूब चर्चे हुए थे। दोनों ने लगभग 5 साल तक एक-दूसरे को डेट भी किया लेकिन उसके बाद उनका ब्रेकअप हो गया।

करीना कपूर ’कभी खुशी कभी गम’ (2001) ’अशोका’ (2001) ’डॉन: द चैस बिगेन्‍स अगेन’ (2006) ’रा वन’ (2011) और ‘चैन्‍नई एक्‍सप्रेस’ (2013) जैसी फिल्मों में शाहरूख के साथ काम कर चुकी हैं।  

करीना कपूर और सलमान खान के साथ वाली फिल्‍मों का बेहतरीन ट्रैक रिकॉर्ड रहा है।  दोनों ही ‘क्‍योंकि मैं झूठ नहीं बोलता’ (2001) ‘मैं और मिसेज खन्‍ना’ (2009), ‘बॉडीगार्ड’ (2011) ‘बजरंगी भाईजान’ (2015) और ‘भारत’ (2019) जैसी कई ब्लॉकबस्टर फिल्मों में साथ काम कर चुके हैं।

अक्षय कुमार के साथ भी करीना कपूर की जोड़ी को सिल्‍वर स्‍क्रीन पर काफी पसंद किया गया। दोनों ‘एतराज’ (2004), ‘तलाश’ (2008), ‘कम्‍बख्‍त इश्‍क’ (2009), ‘पटियाला हाउस’ (2011), ‘गब्‍बर इज बैक’ (2015) और ‘गुड न्‍यूज’ (2019) जैसी फिल्‍मों में साथ नजर आए।

आमिर खान के साथ भी करीना कपूर ने ‘‍थ्री ईडियट्स’ (2009) जैसी हिट फिल्‍म में काम किया है। हालांकि आमिर खान के अपोजिट वाली उनकी फिल्‍म ‘तलाश’ (2012) और ‘लाल सिंह चड्ढा’ (2022) नहीं चली।  

सुभाष शिरढोनकर

कृषक की गाथा — मिट्टी से मन तक

मिट्टी की महक से है उसकी आराधना,
खेत-खलिहान में वो करता नित नमन।
धूप-छाँव में जो तपे, जो झूके न कभी,
कृषक है धरती का सबसे बड़ा सजन।

खून-पसीने से लिखी उसकी यह कहानी,
संघर्ष की लौ में जलती है आह्वान।
फसलें बोए, सपने रोपे, मन के वीर,
हरियाली से भर दे वह वीरान मैदान।

बूंद-बूंद में समेटे अमृत सावन के,
हवा की मादक छुअन में बसी है जान।
वर्षा की थाप से गूँज उठे खेतों की रागिनी,
जिसमें हर बीज फूले, फलें आन-बान।

पर अब आए संकट, जुल्म और परेशानियाँ,
खतरा मंडरा रहा मिट्टी के इस मान।
कीटनाशक, प्रदूषण ने मारा तन-मन,
बूंद-बूंद में घुला विष, हो गया विस्तार।

पर किसान न हार मानता, ना झुकता कभी,
रखे जोश अटल, अडिग, सीना तान।
धरती माँ की पुकार सुने, नई राह चुने,
प्रकृति संग करे संवाद, ले जीवन ज्ञान।

परिवार का भार, ऋण का दंश, सब झेले,
फिर भी मुस्कुराए, आशा की ज्योति जलाए।
साझा करे सपनों को, बाँटे सुख-दुख,
कृषक के मन में नव युग के संदेश गूंजे।

चलो उठो किसान, नयी किरणों को पकड़ो,
सुरक्षित जीवन, स्वच्छ धरती का सपना सजा लो।
मिट्टी के इस मर्म को हम सब समझें आज,
धरती पर फिर से बसाएं, अमृत के झरने।

ऐसा किसान जो मिट्टी का हो सच्चा सखा,
वही बदल सकता है विश्व का भाग्य सारा।
मेहनत, प्रेम, समर्पण हो उसका हथियार,
तो होगा जीवन पुष्पित, होगा सारा संसार।

— प्रियंका सौरभ

क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म और संयुक्त क्रियान्वयन से दूर होगी ग्लोबल वार्मिंग

अभी जून के महीने की शुरुआत ही हुई है और मार्च से ही लगातार ताबड़तोड़ गर्मी पड़ रही है। आज भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का लगातार सामना कर रहा है। आज संपूर्ण विश्व में सबसे बड़ी चिंताएं या तो पर्यावरण प्रदूषण को लेकर हैं अथवा ग्लोबल वार्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन को लेकर। ग्लोबल वार्मिंग को लेकर हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने एक रिपोर्ट जारी की है।रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि 80 प्रतिशत संभावना है कि साल 2025 और 2029 के बीच के साल 2024 से ज्यादा गर्म होंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो 

अगले पांच वर्षों में कम से कम एक साल 2024 से अधिक गर्म होने की संभावना है, जिसे अब तक का सबसे गर्म वर्ष माना गया है। जानकारी के अनुसार 1850-1900 के औसत तापमान की तुलना में सतही तापमान 1.2 डिग्री से 1.9 डिग्री सेल्सियस तक रह सकता है।यह बहुत ही चिंताजनक है कि साल 1880 से जब से तापमान के बारे में रिकार्ड रखना शुरू किया गया, उनमें से पिछले 11 साल, लगातार अब तक के रिकॉर्ड में सबसे गर्म रहे हैं। पाठकों को बताता चलूं कि रिपोर्ट में डब्लूएमओ ग्लोबल एनुअल टू डेकाडल क्लाइमेट अपडेट (2025-2029) ने यह भी अनुमान लगाया है कि 70 प्रतिशत संभावना है कि 2025-2029 के लिए पांच साल का औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगा, जिससे धरती पर लगातार और गंभीर हीटवेव, सूखा जैसे हालात होंगे।यह पिछले साल की साल 2024-2028 के लिए डब्लूएमओ रिपोर्ट में बताई गई 47 प्रतिशत संभावना और साल 2023-2027 के लिए 2023 रिपोर्ट में बताई गई 32 प्रतिशत संभावना से ज्यादा है। वास्तव में, यह सीमा अहम और महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि, यह पेरिस समझौते के लक्ष्यों में से एक है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि साल 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में दो डिग्री सेल्सियस से नीचे और यदि संभव हो तो 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का लक्ष्य रखा गया था। आज हम कोयला, तेल और गैस का औद्योगिक पैमाने पर इस्तेमाल लगातार कर रहे हैं और वैज्ञानिक यह बात मानते हैं कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य लगभग असंभव हो गया है, क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन अभी भी धरती पर बहुत तेजी से बढ़ रहा है। बहरहाल, यहां यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जब भी धरती का तापमान बढ़ता है तो इसके बहुत ही दूरगामी और व्यापक असर पड़ते हैं। मसलन, इससे संपूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्थाओं, हमारे दैनिक जीवन, हमारी पारिस्थितिकी प्रणालियों, वनस्पतियों , जीवों या यूं कहें कि हमारे पूरे नीले ग्रह पर इसका नकारात्मक प्रभाव बढ़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इससे (ग्लोबल वार्मिंग से) कहीं न कहीं सतत् विकास का जोखिम बढ़ता है। बहरहाल,रिपोर्ट के अनुसार, तापमान वृद्धि से चरम मौसमी घटनाएं और गंभीर होंगी, जैसे: अधिक गर्मी और भारी बारिश। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती है तो इससे सूखा, बर्फ का पिघलना, और समुद्र के जलस्तर में वृद्धि जैसी घटनाएं घटित होतीं हैं तथा समुद्र का तापमान भी बढ़ता है और इससे समुद्री जीवन प्रभावित होता है।ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, भारत, चीन और घाना में बाढ़, कनाडा में जंगल की आग ग्लोबल वार्मिंग के उदाहरण कहे जा सकते हैं। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि यूके मौसम विभाग(यूके मेट आफिस) ने भी 2025 के लिए एक जलवायु पूर्वानुमान रिपोर्ट जारी की है, जिसमें 2025 को अब तक के तीन सबसे गर्म वर्षों में से एक होने की संभावना व्यक्त की गई है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2025 में वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो सकता है। यहां पाठकों को यह भी बताता चलूं कि विश्व मौसम विज्ञान संगठन और यूके मेट आफिस दुनिया की दो सबसे शीर्षस्थ एजेंसियां हैं जो कि जलवायु पूर्वानुमान रिपोर्ट जारी करतीं हैं। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि मानवीय ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जलवायु परिवर्तन का आज एक मुख्य कारण है । ग्लोबल वार्मिंग पर इनके प्रभाव विनाशकारी हैं और यह अधिकाधिक आवश्यक होता जा रहा है कि इन उत्सर्जनों को कम किया जाए, ताकि मानव को ग्रह पर इतना दबाव डालने से रोका जा सके। स्थिति इतनी गंभीर है कि अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ( आईईए ) ने अनुमान लगाया है कि यदि हम इसी तरह जारी रखेंगे तो 2050 तक उत्सर्जन में 130% की वृद्धि होगी । यह विडंबना ही कही जा सकती है कि क्योटो प्रोटोकॉल जैसे समझौतों के बावजूद, कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वृद्धि जारी है। वैसे कमोबेश विश्व के लगभग सभी देश वैश्विक प्रदूषण के उच्च स्तर के लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन एक रिपोर्ट के अनुसार चीन (30 प्रतिशत), संयुक्त राज्य अमेरिका (15 प्रतिशत), भारत (7 प्रतिशत), रूस(5 प्रतिशत) और जापान (4 प्रतिशत) वैश्विक प्रदूषण के लिए जिम्मेदार देश हैं। इनमें भी चीन का निर्यात बाजार बहुत बड़ा है जो किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है। यहां यदि हम भारत की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में हैं। देश में वायु गुणवत्ता की सुरक्षा के लिए 1981 से ही कानून लागू है, लेकिन जीवाश्म ईंधनों के जलने की दर में काफी वृद्धि हुई है और इसके परिणामस्वरूप भारत विश्व में सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाले देशों की रैंकिंग में तीसरे स्थान पर है। वहीं पर रूस तेल, कोयला, गैस और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता के कारण बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करता है। यदि हम यहां पर जापान की बात करें तो जापान विश्व में जीवाश्म ईंधन का सबसे बड़ा उपभोक्ता और ग्रीनहाउस गैसों का पांचवा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। बहरहाल, यह दुर्भाग्य की बात है कि दुनिया के बड़े और विकसित देश आज कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं दिख रहे हैं। इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि दुनिया के समृद्ध देश आज कार्बन उत्सर्जन कम करने को अपना दायित्व नहीं मानते और न ही अपनी सामर्थ्य के अनुसार अधिक धन देने के लिए ही तैयार नजर आते हैं। हालांकि इसी बीच अच्छी बात यह भी है कि भारत ने 2070 तक कार्बन तटस्थता का लक्ष्य निर्धारित किया है, और यूरोपीय संघ ने 2050 तक ‘शुद्ध-शून्य’ उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है। कई अन्य देशों ने भी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उत्सर्जन में कमी करने के लक्ष्य निर्धारित किए हैं, जैसे कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना और नवीकरणीय ऊर्जा पर स्विच करना। पाठकों को बताता चलूं कि भारत ने उत्सर्जन तीव्रता में कमी लाने के लिए ‘कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग स्कीम, 2023’ को अधिसूचित किया है। इतना ही नहीं,भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा पर स्विच करने और ऊर्जा दक्षता में सुधार करने के लिए कई योजनाएं और नीतियां बनाई हैं, जैसे कि सौर ऊर्जा का उपयोग करना आदि। अंत में यही कहूंगा कि ग्लोबल वार्मिंग आज किसी देश विशेष की समस्या नहीं है, अपितु यह हम सभी की एक सामूहिक समस्या है और इसके लिए हमें एक दूसरे के सहयोग के साथ आगे आना होगा और पूर्ण प्रतिबद्ध और कृतसंकल्पित होकर काम करना होगा। वास्तव में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए वर्ष 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल  द्वारा  विकसित देशों को जो तीन विकल्प क्रमशः अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन व्यापार,क्लीन डवलपमेंट मेकनिज़्म और संयुक्त क्रियान्वयन पर मुस्तैदी और पूरी तन्मयता से काम करना होगा तभी हम इस गहराती समस्या से निपट सकेंगे।

सुनील कुमार महला