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भारतीय अर्थव्यवस्था को भारतीय रिजर्व बैंक के दो महत्वपूर्ण तोहफे

वैश्विक स्तर पर विश्व के कई देशों में आर्थिक गतिविधियों पर संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे हैं। अमेरिका में तो श्री डॉनल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद से नित नई घोषणाएं की जा रही है। कभी टैरिफ को बढ़ाया जा रहा है तो कभी टैरिफ को लागू करने की तारीखों में परिवर्तन किया जा रहा है तो कभी टैरिफ को कम किया जा रहा है। कुल मिलाकर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अफरा तफरी का माहौल बन गया है। अभी हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ट्रम्प एवं अमेरिका के एक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली मंत्री श्री एलान मस्क के बीच युद्ध छिड़ गया है एवं अब वे एक दूसरे पर गम्भीर आरोप लगाते हुए दिखाई दे रहे हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का इन सब बातों से बहुत नुक्सान होता हुआ दिखाई दे रहा है। बेरोजगारी भत्ता लेने वाले नागरिकों की संख्या में वृद्धि हो रही है, अमेरिकी कम्पनियों द्वारा कर्मचारियों की छंटनी पर विचार किया जा रहा है एवं आर्थिक विकास दर कम हो रही है। दूसरी ओर, रूस यूक्रेन के बीच युद्ध खत्म होने के आसार अभी भी दिखाई नहीं दे रहे हैं। एक तरह से इजराईल, हम्मास के बीच युद्ध अभी भी जारी ही है। चीन एवं अमेरिका के बीच में आई खटास भी कम होने का नाम नहीं ले रही है।

वैश्विक स्तर पर इन समस्त घटनाओं के बीच भारतीय अर्थव्यवस्था नित नई ऊचाईयों को छूने की ओर अग्रसर है। भारत में नागरिक शांतिपूर्ण तरीके से भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के प्रति कटिबद्ध हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों के उपक्रम एवं निजी क्षेत्र की कम्पनियां देश के आर्थिक विकास को गति देने में अपने प्रयास लगातार तेज करते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसी क्रम में, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा दिनांक 6 जून 2025 को द्विमासिक मुद्रा नीति की घोषणा करते हुए, देश की अर्थव्यवस्था को गति देने के उद्देश्य से, दो महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं। एक, रेपो दर में 50 आधार बिंदुओं की कमी करते हुए इसे 6 प्रतिशत की दर से नीचे लाकर 5.5 प्रतिशत कर दिया गया है। केलेंडर वर्ष 2025 में रेपो दर में यह लगातार तीसरी कटौती की गई है एवं कुल मिलाकर रेपो दर में 100 आधार बिंदुओं की कमी की जा चुकी है। फरवरी 2025 एवं अप्रेल 2025 घोषित की गई मुद्रा नीति के माध्यम से रेपो दर में दोनों बार 25 आधार बिंदुओं की कमी की गई थी। रेपो दर उस दर को कहते हैं, जिस दर पर भारतीय रिजर्व बैंक विभिन्न बैंकों को आवश्यकता पड़ने पर ऋण उपलब्ध कराता है एवं विभिन्न बैंक रेपो दर को आधार दर बनाते हुए इस दर पर कुछ आधार बिंदु (जमाराशि की लागत एवं लाभ की राशि का समायोजन करते हुए) जोड़ते हुए, ब्याज की दर पर, अपने ग्राहकों को ऋणराशि उपलब्ध कराते हैं।  

दूसरे, भारतीय रिजर्व बैंक ने नकद आरक्षित अनुपात में सीधे ही 100 आधार बिंदुओं की कमी करते हुए इसे 4 प्रतिशत की दर से घटाकर 3 प्रतिशत की दर पर ला दिया है। इससे, भारत में बैकों के पास 2.5 लाख करोड़ रुपए की अतिरिक्त राशि ऋण प्रदान करने के उद्देश्य से उपलब्ध हो जाएगी एवं सिस्टम में तरलता बढ़ जाएगी। नकद आरक्षित अनुपात उस अनुपात को कहते हैं, जिस पर विभिन्न बैंकों को अपने मांग एवं जमा देयताओं की राशि पर इस अनुपात की दर से नकदी राशि भारतीय रिजर्व बैंक के पास जमा करानी होती है। अतः यह राशि इन बैंकों की पहुंच से बाहर हो जाती है एवं ऋण के रूप में इसे बैंक के ग्राहकों को उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। यदि नकद आरक्षित अनुपात को कम कर दिया जाता है तो बैंकों के पास यह राशि ऋण के रूप में प्रदान करने के लिए उपलब्ध हो जाती है। इससे स्पष्टत: बैंकों की लाभप्रदता में सुधार होता है।

भारतीय रिजर्व बैंक के उक्त महत्वपूर्ण दोनों निर्णयों से वैश्विक स्तर पर विपरीत परिस्थितियों के बीच भारत में उत्पादों की आंतरिक मांग उत्पन्न करने में सहायता मिलेगी क्योंकि बैंक अपने ग्राहकों को प्रदान की जाने वाली ऋणराशि पर ब्याज दरों को कम करेंगे। इससे, विशेष रूप से व्यक्तिगत ऋण, गृह ऋण, वाहन ऋण, आदि सस्ते होंगे और अब प्रति माह ग्राहकों द्वारा इन ऋणों पर अदा की जाने वाली मासिक किश्त की राशि में कमी आएगी और इन नागरिकों के पास खर्च करने के लिए अतिरिक्त राशि उपलब्ध होने लगेगी, जिसे वे अन्य पदार्थों को खरीदने में खर्च कर सकेंगे। साथ ही, ऋण पर ब्याज राशि कम होने से विभिन्न उत्पादक कम्पनियों की लाभप्रदता में वृद्धि होगी क्योंकि उन्हें अब बैंकों से लिए गए ऋण पर कम ब्याज देना होगा। लाभप्रदता में होने वाली इस अतिरिक्त वृद्धि के चलते यह कम्पनियां अपनी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने के बारे में गम्भीरता से विचार करेंगी क्योंकि उत्पादों की होने वाली मांग में वृद्धि की पूर्ति जो करनी है।

भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जून 2025 माह में घोषित मौद्रिक नीति को अर्थशास्त्रियों एवं बैंकिंग जगत के विशेषज्ञों द्वारा हाल ही के वर्षों में घोषित की गई सबसे बेहतरीन मौद्रिक नीति माना जा रहा है। इस मौद्रिक नीति को भारत के शेयर बाजार ने भी दिनांक 6 जून 2025 को त्वरित सकारात्मक उत्तर दिया और निफ्टी एवं सेन्सेक्स में एक प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है। ब्याज दरों से जुड़े क्षेत्रों विशेष रूप से बैंकिंग, रीयल एस्टेट एवं ऑटो क्षेत्र की कम्पनियों के शेयरों में जोरदार उछाल देखने को मिला है। दरअसल अधिकतर अर्थशास्त्री रेपो दर में 25 आधार बिंदुओं की उम्मीद कर रहे थे परंतु भारतीय रिजर्व बैंक ने 50 आधार बिंदुओं की कमी की घोषणा करते हुए अपनी आक्रात्मक नीति का परिचय दिया है। अतः रेपो दर में उम्मीद से अधिक कटौती होने पर निवेशकों का भारतीय कम्पनियों, विशेष रूप से वे कम्पनियां जो घरेलू मांग एवं ऋण पर निर्भर रहती हैं, पर भरोसा बढ़ा है।            

भारतीय कम्पनियों की लाभप्रदता एवं उत्पादों की बिक्री में लगातार हो रहे तेज सुधार के चलते इन भारतीय कम्पनियों की साख अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी बढ़ेगी। आगे आने वाले समय में यह कम्पनियां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का स्वरूप भी ले सकती हैं। और फिर, ब्याज दरों में लगातार की जा रही कमी के चलते इन कम्पनियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की उत्पादन लागत भी कम होगी जिससे इन कम्पनियों के उत्पाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धी बन सकेंगे। हां, भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने स्टैन्स को अकोमोडेटिव से न्यूट्रल जरूर कर दिया है जिसके चलते भारतीय रिजर्व बैंक रेपो दर में आगे आने वाले समय में आवश्यकता पड़ने पर बढ़ौतरी कर सकता है। जबकि अकोमोडेटिव स्टैन्स में रेपो दर में केवल कमी करने की सम्भावना निहित रहती है। परंतु, आगे आने वाले समय में यदि मंहगाई की दर पर नियंत्रण बना रहता है जिसकी सम्भावना भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा भी की गई है और औसत मंहगाई दर के अनुमान को 4 प्रतिशत से घटाकर 3.70 प्रतिशत कर दिया गया है। अतः बहुत सम्भव है कि भारतीय रिजर्व बैंक को न्यूट्रल स्टैन्स के बावजूद रेपो दर में कमी ही करनी पड़ सकती है।    

कुल मिलाकर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मंहगाई की दर में आई कमी एवं विकास दर में आई सुस्ती को देखते हुए रेपो दर एवं नकद आरक्षित अनुपात में आक्रात्मक रूप से की गई कटौती को एक सक्रिय निर्णय कहा जा सकता है। इससे अर्थव्यवस्था में खपत एवं निवेश को बढ़ावा मिलेगा, उत्पादों की मांग में वृद्धि होगी, उद्योग जगत अपनी उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने के उद्देश्य से अपने पूंजीगत खर्चों को बढ़ाने पर विचार करेगा। चूंकि भारत में मुद्रा स्फीति की दर अब नियंत्रण में है अतः भारतीय रिजर्व बैंक ने देश में विकास दर को बढ़ाने को प्राथमिकता दी है। हालांकि अपने स्टैन्स को न्यूट्रल रखकर मुद्रा स्फीति एवं वैश्विक स्तर पर विभिन्न जोखिमों पर भी नजर बनाए रखने का आभास दिया है। इसीलिए विभिन्न अर्थशास्त्रियों एवं बैंकिंग जगत के विशेषज्ञों द्वारा इस मुद्रा नीति को एक क्रांतिकारी कदम बताया जा रहा है।  

प्रहलाद सबनानी

मैंl वह बड़ा बेटा हूँ

बौद्धिक आतंकवाद
बौद्धिक आतंकवाद

✍️ डॉ. सत्यवान सौरभ


मैं वह बड़ा बेटा हूँ,
जिसने हँसकर जीवन की आग पिया है।
जिसने चुपचाप लुटा अपना यौवन,
और घर का भाग्य सिया है।

जो माँ की छाया बना रहा,
पिता की लाठी बन कर चला,
भाई की पढ़ाई में खो गया,
बहन की शादी में गल गया।

सपनों का शव ढोता रहा,
अपनों का ऋण ढोता रहा।
न मोल मिला, न बोल मिला,
बस जिम्मेदारियों का तोल मिला।

जब-जब थका, तो कह दिया गया —
“अब तू बदल गया है रे,
अब तू खुदगर्ज़ हो गया है!”
मेरे त्यागों को गिना नहीं गया,
मेरी गलतियाँ उभारी गईं।

मैं वह बेवकूफ बेटा हूँ,
जो घर की नींव में दबा था,
जिसके सपनों का चिता जलाया गया,
पर पूजा नहीं गया।

मैंने चूल्हा जलाया, तो रोटी सबने खाई,
मैंने छत बनाई, तो चैन सबने पाया,
पर जब अपने लिए छाया मांगी,
तो मुझे ही स्वार्थी कहकर ठुकराया।

हे समाज! तू क्यों मौन रहा,
जब मेरा अस्तित्व कुचला गया?
तू क्यों तालियाँ बजाता रहा,
जब मेरा आत्मसम्मान झुलसा गया?

अब मत रोक मुझे,
अब मत कह “कर्तव्य निभा”,
अब मैं भी जीऊँगा
अपने लिए,
अपनी राह चला।

अब जो बीत गया, वह बीत गया,
अब बड़ा बेवकूफ बेटा नहीं,
एक प्रश्न बनकर जीएगा।
अब हर घर में कोई बेवकूफ बेटा
मौन नहीं रहेगा —
बलिदान नहीं,
विचार करेगा,
प्रश्न करेगा,
विद्रोह करेगा।

— डॉ सत्यवान सौरभ

राखीगढ़ी: भारत की स्त्री-केंद्रित सभ्यता की झलक

इतिहास की परतों में छुपी स्त्री, संस्कृति और सभ्यता का पुनर्पाठ

हरियाणा स्थित राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल है, जहाँ से मिले 4600 साल पुराने महिला कंकाल, शंख की चूड़ियाँ और ताम्र नृत्यांगना की प्रतिमा सभ्यता में स्त्री की केंद्रीय भूमिका को रेखांकित करते हैं। डीएनए विश्लेषण ने ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ पर सवाल उठाए हैं और भारत की सांस्कृतिक निरंतरता को सिद्ध किया है। राखीगढ़ी अब केवल एक पुरातात्विक खोज नहीं, बल्कि भारत के अतीत की आत्मा से संवाद का जीवंत माध्यम है।

हरियाणा के हिसार जिले का एक सामान्य-सा गांव राखीगढ़ी, अब वैश्विक पुरातात्विक विमर्शों का केंद्र बन चुका है। 1997-99 के दौरान हुए उत्खननों ने इसे हड़प्पा सभ्यता के सबसे बड़े स्थलों में गिना जाना शुरू किया, और 2012 में विश्व विरासत कोष की ‘खतरे में पड़ी धरोहरों’ की सूची में इसकी उपस्थिति ने वैश्विक ध्यान खींचा। परन्तु इसके बाद जो मिला – एक महिला का 4600 वर्ष पुराना कंकाल, उसके बाएं हाथ की शंख की चूड़ियाँ, और ताम्र की बनी एक नृत्यांगना प्रतिमा – उन सभी ने इतिहास और पुरातत्व के स्थापित आख्यानों को चुनौती देना शुरू कर दिया।

राखीगढ़ी से मिला स्त्री कंकाल सिर्फ एक पुरातात्विक खोज नहीं है, यह उन असंख्य ‘मौन स्त्रियों’ की प्रतीकात्मक उपस्थिति है जिन्हें सभ्यता की कहानी से सदा बाहर रखा गया। यह कंकाल लगभग 4600 वर्ष पुराना है, और अद्भुत रूप से संरक्षित अवस्था में मिला। उसकी बाईं कलाई पर शंख की चूड़ियाँ मिलीं – यह उस समय के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों की ओर संकेत करती हैं। डीएनए विश्लेषण से यह पता चला कि इस महिला के आनुवंशिक संबंध प्राचीन ईरानियों और दक्षिण-पूर्व एशियाई शिकारी-संग्राहकों से तो हैं, लेकिन स्टेपी चरवाहों से कोई संबंध नहीं मिला – जिनसे अक्सर भारत में आर्यों के आगमन को जोड़ा जाता है। यह निष्कर्ष ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को एक बड़ा झटका देता है और यह संकेत देता है कि भारतीय उपमहाद्वीप में सांस्कृतिक विकास अपनी निरंतरता में हुआ।

मोहेंजोदाड़ो की विश्वप्रसिद्ध कांस्य नर्तकी की तरह, राखीगढ़ी से भी एक ताम्र प्रतिमा मिली है जिसे “डांसिंग गर्ल” कहा जा रहा है। यह मूर्ति न केवल सौंदर्यबोध और कलात्मकता का प्रमाण है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि उस काल में नारी की उपस्थिति सांस्कृतिक और सार्वजनिक जीवन में कितनी सशक्त रही होगी। यह मान्यता को चुनौती देती है कि प्राचीन सभ्यताओं में स्त्रियां केवल घरेलू क्षेत्र में सीमित थीं।

कंकाल मिलने के स्थल पर अग्निवेदिकाओं के अवशेष भी मिले हैं, जो यह संकेत करते हैं कि शवदाह की परंपरा उस समय भी प्रचलित थी। अग्नि, जिसे वैदिक परंपरा में शुद्धिकरण और संस्कार का प्रतीक माना गया है, उसका हड़प्पा काल में इतना महत्वपूर्ण स्थान होना यह दर्शाता है कि वैदिक और हड़प्पा परंपराएं एक-दूसरे से पूर्णतः असंबंधित नहीं थीं।

कुछ विद्वान मानते हैं कि महाभारत युद्ध लगभग 5000-5500 वर्ष पूर्व हुआ था। यदि यह मान लिया जाए, तो राखीगढ़ी की स्थापना इस युद्ध से पहले की मानी जा सकती है। एक किंवदंती यह भी है कि महाभारत युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिकों की विधवाएं यहीं शरण लेने आई थीं, और यही से इस स्थान का नाम ‘राखीगढ़ी’ पड़ा – ‘राख’ यानी मृत्यु की राख, और ‘गढ़ी’ यानी शरण। ऐसी मिथकीय व्याख्याएं ऐतिहासिक सत्य नहीं हैं, परंतु वे यह दर्शाती हैं कि स्थानीय जनमानस में राखीगढ़ी की सांस्कृतिक स्मृति कितनी गहरी है।

राखीगढ़ी से मिले महिला कंकाल का जीनोमिक विश्लेषण केवल पुरातत्व नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास-लेखन में एक बड़ा मोड़ है। स्टेपी डीएनए की अनुपस्थिति सीधे उस विचारधारा को चुनौती देती है जिसने लंबे समय तक ‘आर्य आक्रमण’ को भारत में सभ्यता के आगमन का कारण बताया। इस अध्ययन ने इतिहास, नृविज्ञान और भाषाविज्ञान के विशेषज्ञों को एक बार फिर यह सोचने पर विवश किया है कि क्या आर्य बाहर से आए थे या यहीं के थे? क्या वैदिक संस्कृति और हड़प्पा संस्कृति में कोई ‘टकराव’ नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक प्रवाह था?

राखीगढ़ी की खोजों के परिणाम अब एनसीईआरटी जैसे शैक्षिक निकायों के पाठ्यक्रम में भी दिखाई दे रहे हैं। हड़प्पा सभ्यता को अब केवल एक ‘अतीत’ नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की निरंतरता के रूप में पढ़ाया जा रहा है। संस्कृत भाषा की उत्पत्ति, द्रविड़ भाषाओं के विकास और हड़प्पावासियों की भाषा पर भी अब नए सिरे से अध्ययन हो रहे हैं। यह केवल पुरातत्व नहीं, राष्ट्र की आत्मा की खोज है।

2012 में वर्ल्ड मॉन्यूमेंट फंड ने राखीगढ़ी को एशिया के उन 10 धरोहर स्थलों में शामिल किया जो विनाश के कगार पर हैं। अफगानिस्तान का मेस आयनाक, चीन का काशगर और थाईलैंड का अयुथ्या भी इस सूची में शामिल हैं। भारत में अक्सर पुरातत्व स्थलों को विकास के नाम पर या अनदेखी की वजह से नुकसान पहुंचता है। राखीगढ़ी का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम इसे पर्यटन केंद्र मात्र बनाना चाहते हैं या जीवित शोध प्रयोगशाला।

राखीगढ़ी की महिला चुप है, पर उसकी चूड़ियाँ बोलती हैं। उसका सिर उत्तर की ओर है – शायद भविष्य की ओर, या शायद प्रश्न की ओर। ‘डांसिंग गर्ल’ स्थिर है, फिर भी आंदोलित करती है। यह स्थल अब सिर्फ पुरातत्व नहीं, राजनीति, शिक्षा, संस्कृति और अस्मिता की बहस का हिस्सा बन चुका है।

यह सवाल केवल अतीत को जानने का नहीं है, यह तय करने का भी है कि हम किस अतीत को स्वीकार करते हैं – लादे गए इतिहास को या खोजे गए इतिहास को?राखीगढ़ी केवल मिट्टी में दबा कोई पुराना नगर नहीं, बल्कि हमारी सभ्यता की उस जड़ का नाम है जिसे सदियों से अनदेखा किया गया। यहाँ से मिली महिला की चूड़ियाँ, नृत्यांगना की प्रतिमा और अग्निवेदियाँ हमें यह बताती हैं कि हड़प्पा काल कोई पुरुष-प्रधान, युद्ध-केंद्रित समाज नहीं था—यह एक सांस्कृतिक, स्त्री-केंद्रित और समृद्ध सभ्यता थी। डीएनए विश्लेषणों ने न केवल आर्य आक्रमण सिद्धांत की पुनर्व्याख्या की है, बल्कि भारत के भीतर एक जैविक-सांस्कृतिक निरंतरता की पुष्टि भी की है। 

राखीगढ़ी हमारे अतीत की वह भूली हुई स्त्रीगाथा है, जिसे अब इतिहास की मुख्यधारा में स्थान मिलना चाहिए—सम्मान के साथ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से।

सिंदूर का पौधारोपण के निहितार्थ

डॉ.वेदप्रकाश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संकल्प से सिद्धि के नायक के रूप में जाने जाते हैं। वे एक ऐसे राष्ट्रीय और वैश्विक व्यक्तित्व हैं जो जब किसी कार्य का संकल्प लेते हैं तो उसे समुचित योजना बनाकर सिद्धि तक भी पहुंचाते हैं। वे आरंभ से ही विभिन्न चुनौतियों को दूर करते हुए भारतवर्ष की शक्ति व शौर्य के जागरण और विकसित भारत के संकल्प को लेकर चल रहे हैं।
      विगत दिनों पहलगाम में हुए आतंकी हमले में सुनियोजित ढंग से पुरुषों को निशाना बनाया गया। निहत्थे पर्यटकों का धर्म पूछकर उन्हें मौत के घाट उतारा गया। अनेक महिलाओं की मांग से सिंदूर मिटाया गया। आतंकियों के इस दुष्कृत्य ने समूचे देश और विश्व को झकझोर दिया। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह संकल्प लिया  कि जिन लोगों ने भारत की माताओं- बहनों की मांग से सिंदूर मिटाया है, हम उन्हें ही मिटा देंगे। परिणामस्वरूप ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया गया और कुछ ही समय में सैकड़ों आतंकवादियों को मौत के घाट उतारते हुए उनके ढांचे और अड्डों को भी मिट्टी में मिलाया गया।

 प्रधानमंत्री अपने विभिन्न उद्बोधनों में बार-बार कह चुके हैं कि आतंकवाद किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जाएगा। अब यदि सीमा पार से गोली चली तो भारत उसका जवाब गोले से देगा। ऑपरेशन सिंदूर ने उनके इस संकल्प को स्पष्ट कर दिया। ध्यातव्य है कि ऑपरेशन सिंदूर में भारतीय सेना का पराक्रम और उसका प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा। देशभर में सामान्य जनता ने विभिन्न कार्यक्रमों से सेना के इस उत्कृष्ट प्रदर्शन की न केवल प्रशंसा की अपितु हर परिस्थिति में देश सेना के साथ है, यह भरोसा भी दिया।


      हाल ही में 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने आवास पर सिंदूर का पौधा रोपा है। यह पौधा विगत दिनों उन्हें गुजरात की उन वीरांगना महिलाओं ने भेंट किया था, जिन्होंने 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान नष्ट हुई  एयरस्ट्रिप को रातों-रात तैयार करने में असाधारण साहस और देशभक्ति का परिचय दिया था। पौधारोपण के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा- यह पौधा देश की नारी शक्ति के शौर्य और प्रेरणा का प्रतीक बनेगा। वे पहले भी विभिन्न अवसरों पर देश की नारी शक्ति के शौर्य,प्रेरणा एवं उनके सम्मान की रक्षा हेतु प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुके हैं।


       पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद को गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के संदर्भ से भी समझने की आवश्यकता है। वहां वर्णन है कि वनवास के लिए निकले श्रीराम ने अगस्त्य मुनि के आश्रम में पहुंचकर उनसे अपने वनवास की अवधि के लिए शांत और एकांत स्थान पूछा। मुनि ने उन्हें निवास हेतु गोदावरी नदी के निकट दंडक वन में पंचवटी नामक स्थान बताया। पंचवटी ऐसा स्थान है जहां अनेक प्रकार के फल-फूल वाले पेड़ और वनस्पतियां हैं। इस रमणीय स्थान पर निवास करते हुए जब श्रीराम का वनवास बीत रहा था, तभी वहां खर दूषन आदि राक्षस उत्पात मचाते हैं, जिनमें से कई श्रीराम के हाथों मारे जाते हैं और फिर  लंकापति राक्षस राज रावण छल से माता सीता का हरण कर लेता है। फिर कुछ समय बाद नारी शक्ति के सम्मान की रक्षा और आसुरी प्रवृत्ति की समाप्ति हेतु समूची लंका का विध्वंस सर्वविदित है। कुछ इसी प्रकार का कृत्य पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों के पहलगाम हमले में भी सामने आया,जिसके विध्वंस हेतु ऑपरेशन सिंदूर चला और अभी भी जारी है।


      विगत वर्ष भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर एक पेड़ मां के नाम इस अभियान को शुरू किया था,जिसके अंतर्गत देशभर में जगह-जगह वृक्षारोपण हुआ और अब तक लगभग 109 करोड़ पौधे रोपे जा चुके हैं। इस बार विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 5 जून को विश्व की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण और उसे हरित बनाने के लिए 700 किलोमीटर लंबे अरावली ग्रीन वॉल प्रोजेक्ट का शुभारंभ किया है। सर्वाधिक है कि अरावली पर्वत श्रंखला में खनन, सूखा, अतिक्रमण, जलवायु परिवर्तन और विकास कार्यों के चलते पर्वत क्षेत्र और हरियाली लुप्त होती जा रही है। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में सभी पर्यावरणीय चुनौतियों के समाधान को लेकर सरकार प्रतिबद्ध है। यह एक बहुत बड़ी योजना और संकल्प है जिसे दिल्ली, हरियाणा,राजस्थान और गुजरात को अपने अपने क्षेत्र में बड़े प्रयास करते हुए सिद्धि तक पहुंचाना होगा।


      प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने आवास पर रोपा सिंदूर का पौधा पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ  नारी शक्ति, सांस्कृतिक परंपरा और उनके सम्मान की रक्षा का संकल्प एवं प्रतीक भी है। आज हमें यह भी समझने की आवश्यकता है कि भारत की लड़ाई जितनी प्रदूषण के विरुद्ध और प्रकृति पर्यावरण की रक्षा के लिए है। उतनी ही भारत विरोधी ताकतों और आतंकवाद जैसी मानसिकता के विरुद्ध भी है। प्रधानमंत्री द्वारा सिंदूर के पौधे का रोपण यह संदेश देता है कि जब तक आतंकवाद एवं भारत विरोधी ताकतें भारत को कमजोर करने का प्रयास करेंगे, नारी शक्ति के सिंदूर को मिटाने का प्रयास करेंगे। तब तब भारत पूरी ताकत के साथ जवाब देगा। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा रोपा गया सिंदूर का पौधा जन सामान्य के लिए भी प्रेरणा का सूचक है। इस पौधे से प्रेरणा लेकर जन-जन भी नारी शक्ति के सम्मान एवं उसकी रक्षा के लिए एक एक पौधे का रोपण अवश्य करें।

 ऋषिकेश स्थित परमार्थ निकेतन पूज्य स्वामी चिदानंद सरस्वती जी के नेतृत्व में विभिन्न अवसरों पर प्रेरक गतिविधियों का केंद्र बन चुका है। विश्व पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर पूज्य स्वामी जी ने पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव की उपस्थिति में यह घोषणा की कि देशभर में पांच ‘सिटी- पंचवटी’ सिंदूर वाटिकाएं तैयार की जाएंगी। उन्होंने कहा कि इस कार्य के लिए ऋषिकेश, गंगोत्री-यमुनोत्री, प्रयागराज, अयोध्या आदि शहरों में जन भागीदारी से पंचवटी सिंदूर वाटिका तैयार करने का उद्देश्य जन मन में ऑपरेशन सिंदूर की स्मृति, सेना के शौर्य एवं नारी शक्ति के सम्मान का भाव निहित रहेगा। ध्यान रहे जलवायु परिवर्तन आज एक राष्ट्रीय और वैश्विक चुनौती बनती जा रही है। वृक्षों की अंधाधुंध कटाई और बढ़ता प्रदूषण मानवता के लिए संकट बनता जा रहा है। अनेक नदियां मर चुकी है अथवा करने के कगार पर हैं। ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। जल स्रोत भयंकर प्रदूषण की गिरफ्त में हैं। वायु प्रदूषण भी तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में वृक्षारोपण एक बड़ा समाधान सिद्ध हो सकता है। आज आवश्यक है देश के छोटे बड़े प्रत्येक शहर में पंचवटी वाटिकाएं बनें। सरकार के साथ-साथ संत समाज और जन भागीदारी से यह काम आसान हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया पौधारोपण हमें प्रकृति पर्यावरण के संरक्षण-संवर्धन का भी संदेश देता है। आइए हम सभी अपने-अपने ढंग से प्रकृति पर्यावरण के संरक्षण- संवर्धन हेतु प्रयास करें।


डॉ.वेदप्रकाश

उत्तराखंड में विरोधी मुहिम: बड़े बड़ों की गर्दन नपी

जयसिंह रावत

उत्तराखंड, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है, पिछले तीन वर्षों से एक ऐसी सरकार के नेतृत्व में बदलाव की राह पर है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति को न केवल शब्दों में बल्कि कार्यों में भी लागू कर रही है। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने 2021 में सत्ता संभालने के बाद से भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने का संकल्प लिया। 2022 से 2025 तक, उत्तराखंड विजिलेंस विभाग ने 150 से 200 से अधिक सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर कार्रवाई की जिनमें कई को निलंबित किया गया और कुछ को सलाखों के पीछे भेजा गया। यह मुहिम न केवल उत्तराखंड में सुशासन का प्रतीक बन रही है, बल्कि पूरे देश के लिए एक मिसाल पेश कर रही है। इस लेख में हम धामी सरकार की इस भ्रष्टाचार विरोधी जंग की उपलब्धियों, प्रमुख कार्रवाइयों, प्रभावों और भविष्य की चुनौतियों का विश्लेषण करेंगे।

सख्त कार्रवाइयाँ: छोटे-बड़े सभी निशाने पर

मुख्यमंत्री धामी का यह संदेश साफ है। उनकी सरकार ने छोटे कर्मचारियों से लेकर उच्च पदस्थ अधिकारियों तक को जवाबदेह बनाया। आईएएस रामविलास यादव को आय से अधिक संपत्ति के आरोप में निलंबित किया गया जबकि आईएफएस किशन चंद पर वन विभाग में अनियमितताओं के लिए कार्रवाई हुई। हरमिंदर सिंह बवेजा (उद्यान निदेशक), अमित जैन (आयुर्वेद विश्वविद्यालय), भूपेंद्र कुमार (परिवहन निगम), महिपाल सिंह (लेखपाल) और रामदत्त मिश्र (उप निबंधक) जैसे अधिकारियों पर रिश्वतखोरी और वित्तीय गड़बड़ियों के लिए कठोर कदम उठाए गए।

हरिद्वार भूमि घोटाला इस मुहिम का सबसे बड़ा उदाहरण है जिसमें दो आईएएस, एक पीसीएस सहित 12 लोग निलंबित हुए। नैनीताल में ₹1.20 लाख की रिश्वत लेते पकड़े गए कोषाधिकारी, चमोली में ₹30,000 की रिश्वत के साथ आबकारी इंस्पेक्टर जयवीर सिंह, और बागेश्वर में ₹50,000 की रिश्वत लेते सैनिक कल्याण अधिकारी सुबोध शुक्ला के मामले ने भ्रष्टाचार की गंभीरता को उजागर किया।

स्थानीय स्तर पर भी सख्ती

नैनीताल में मुख्य कोषाधिकारी और एकाउंटेंट को ₹1.20 लाख की रिश्वत लेते पकड़ा गया। चमोली में आबकारी इंस्पेक्टर जयवीर सिंह को ₹30,000 की रिश्वत के साथ गिरफ्तार किया गया। बागेश्वर में जिला सैनिक कल्याण अधिकारी सुबोध शुक्ला को ₹50,000 की रिश्वत लेते पकड़ा गया, जो सैनिक कल्याण जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भ्रष्टाचार की गंभीरता को उजागर करता है। रुड़की में अपर तहसीलदार का पेशकार रोहित ₹10,000 की रिश्वत लेते गिरफ्तार हुआ। इन कार्रवाइयों ने स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार को रोकने में विजिलेंस की सक्रियता को रेखांकित किया। विभिन्न स्रोतों के अनुसार, 150 से 200 से अधिक कर्मचारी और अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े गए। सोशल मीडिया पर “ धामीक्लीनअपभ्रष्टाचार “ट्रेंड ने इस मुहिम को जनता तक पहुँचाया, जिससे जन जागरूकता में वृद्धि हुई।

रणनीति: तकनीक, पारदर्शिता और जन भागीदारी

धामी सरकार ने भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के लिए एक बहुआयामी रणनीति अपनाई है। विजिलेंस विभाग को तकनीकी और मानव संसाधनों से सशक्त किया गया। मुख्यमंत्री धामी ने स्वयं विजिलेंस अधिकारियों को टैबलेट्स प्रदान किए, ताकि जांच प्रक्रिया तेज और प्रभावी हो। “भ्रष्टाचार मुक्त उत्तराखंड 1064” एप और टोल-फ्री नंबर ने जनता को सीधे शिकायत दर्ज करने का आसान रास्ता दिया। धामी ने निर्देश दिए कि शिकायतों का त्वरित निस्तारण हो और गैर-विजिलेंस मामलों को संबंधित विभागों को भेजा जाए। डिजिटल पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए ऑनलाइन शिकायत पोर्टल और डिजिटल भुगतान प्रणालियों को लागू किया गया, जिसने रिश्वतखोरी की संभावनाओं को कम किया। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत कठोर सजा सुनिश्चित की गई, जिसमें कई मामलों में दोषियों को जेल भेजा गया। जन जागरूकता अभियान ने जनता को भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित किया। गुप्त सूचनाओं के आधार पर कई कार्रवाइयाँ हुईं, जो इस बात का सबूत हैं कि जनता अब इस मुहिम का हिस्सा बन रही है। धामी ने सोशल मीडिया का भी प्रभावी उपयोग किया। उनके बयान, जैसे “देवभूमि में भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं”, ने जनता के बीच उत्साह जगाया। “धामीक्लीनअप भ्रष्टाचार “ जैसे हैशटैग ने इस अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनाया।

प्रभाव: जनता का विश्वास और सुशासन की राह

धामी सरकार की इस मुहिम का उत्तराखंड में गहरा प्रभाव पड़ा है। सरकारी कार्यालयों में रिश्वतखोरी की घटनाएँ कम हुई हैं और जनता का प्रशासन पर विश्वास बढ़ा है। हरिद्वार भूमि घोटाले में बड़े अधिकारियों के निलंबन ने यह संदेश दिया कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। सख्त भू-कानून और अंकिता हत्याकांड में त्वरित कार्रवाई ने धामी की जवाबदेही और पारदर्शी शासन की प्रतिबद्धता को और मजबूत किया। सोशल मीडिया पर जनता ने इस मुहिम की खुलकर सराहना की। उदाहरण के लिए, एक यूजर ने लिखा, “धामी जी ने दिखा दिया कि इच्छाशक्ति हो तो भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सकती है।” यह अभियान न केवल उत्तराखंड, बल्कि अन्य राज्यों के लिए भी प्रेरणा बन रहा है। डिजिटल उपायों ने सरकारी प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाया जिससे आम जनता को सरकारी योजनाओं का लाभ लेना आसान हुआ।

चुनौतियाँ: लंबा रास्ता बाकी

इस मुहिम की सफलता के बावजूद कई चुनौतियाँ अभी बनी हुई हैं। उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई में समय और संसाधनों की जरूरत होती है। बड़े अधिकारियों के खिलाफ जटिल जांच प्रक्रियाएँ और कानूनी अड़चनें प्रक्रिया को धीमा कर सकती हैं। आंकड़ों की अस्पष्टता भी एक मुद्दा है। कार्रवाइयों की सटीक संख्या और विवरण में कुछ भिन्नता दिखती है, जो पारदर्शिता पर सवाल उठाती है। सरकार को इस दिशा में और स्पष्टता लानी होगी। प्रणालीगत सुधारों की कमी भी एक बड़ी चुनौती है। केवल कार्रवाइयाँ भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकतीं। डिजिटल प्रक्रियाएँ, प्रशासनिक जवाबदेही और संस्थागत सुधार दीर्घकालिक समाधान हैं। इसके अलावा, जन जागरूकता को और व्यापक करना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी कई लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से हिचकते हैं। इसके लिए जागरूकता अभियानों को और गति देनी होगी।

पुष्कर सिंह धामी की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम ने उत्तराखंड को सुशासन की राह पर ला खड़ा किया है। 150 से अधिक कार्रवाइयाँ, डिजिटल पहल और जनता की भागीदारी इस अभियान की ताकत हैं। लेकिन यह केवल शुरुआत है। भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के लिए निरंतर प्रयास, प्रणालीगत सुधार और जन जागरूकता जरूरी है। धामी का संकल्प कि “देवभूमि में भ्रष्टाचार के लिए कोई जगह नहीं”, एक नारा नहीं, बल्कि एक दृष्टि है। यह दृष्टि उत्तराखंड को न केवल भ्रष्टाचार मुक्त, बल्कि समृद्ध और पारदर्शी राज्य बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। क्या यह मुहिम देवभूमि को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का सपना पूरा करेगी? यह समय और सरकार की प्रतिबद्धता ही बताएगा लेकिन इतना तय है कि धामी की यह जंग उत्तराखंड के लिए एक नई सुबह की शुरुआत है।

जयसिंह रावत

एक बार फिर से भड़कता दिख रहा रूस-यूक्रेन युद्ध

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राजेश जैन

फरवरी 2022 में शुरू हुआ रूस-यूक्रेन युद्ध चौथे साल में चल रहा है। लाखों लोगों की जान जा चुकी है, शहर उजड़ चुके हैं और अब दुनिया की नजरें इस सवाल पर टिकी हैं — आखिर कौन जीत रहा है यह युद्ध? क्या यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की रूस के ताकतवर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को मात दे रहे हैं या फिर रूस धीरे-धीरे अपनी रणनीति में सफल हो रहा है?

ड्रोन वार ने बदले समीकरण

विश्लेषकों का मानना है कि तुर्की में रूस और यूक्रेन के बीच हुई बातचीत के बाद स्थिति और उलझ गई है। पुतिन ने साफ कर दिया है कि उन्हें सिर्फ एक ही बात स्वीकार है—यूक्रेन का सरेंडर। दूसरी ओर, यूक्रेन कुछ शर्तों पर रियायत देने को तैयार है लेकिन रूस अपने कठोर रुख से टस से मस नहीं हो रहा।  यूक्रेन, टेक्नोलॉजी के मोर्चे पर, रूस को कड़ी टक्कर दे रहा है। हाल ही में यूक्रेनी ड्रोन हमलों ने रूस के बमवर्षक विमानों को भारी नुकसान पहुंचाया है। रूस ने सोचा भी नहीं होगा कि यूक्रेन रूस के 4000 किलोमीटर अंदर घुसकर उसके एयरबेस उड़ा सकता है लेकिन उसने ऐसा किया। अब 5 एयरबेस पर हमले का नुकसान तो बड़ा है और रूसी राष्ट्रपति पुतिन का गुस्सा भी स्वाभविक है। ऐसे में  रूस-यूक्रेन युद्ध एक बार फिर से भड़कता दिख रहा है और शांति की उम्मीदें लगभग मंद हो गई हैं।

लंबी है युद्ध के हताहतों की सूची

मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस युद्ध में अब तक करीब 14 लाख लोग हताहत हो चुके हैं। यूक्रेन के 75 हजार से ज्यादा सैनिक या तो मारे जा चुके हैं या गंभीर रूप से घायल हुए हैं। रूस की कुर्स्क पर भारी कार्रवाई के बाद यूक्रेनी सेना को पीछे हटना पड़ा। इसके बाद रूस ने पलटवार करते हुए सूमी प्रांत पर हमला शुरू कर दिया है। सूमी की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यदि रूस इस पर कब्जा कर लेता है तो वह सीधे कीव की ओर जमीनी हमला कर सकता है। इससे यूक्रेन की राजधानी की सुरक्षा व्यवस्था कमजोर हो जाएगी। फिलहाल, यूक्रेनी सेना रूस के कब्जे वाले इलाकों में जवाबी कार्रवाई कर रही है। उन्हें अमेरिका और यूरोपीय देशों से तकनीकी और खुफिया जानकारी मिल रही है जिससे उन्हें हमलों की रणनीति बनाने में मदद मिलती है। इसके अलावा, यूक्रेन में अब अपने ही ड्रोन बनाने की फैक्ट्री और विशेषज्ञ तैयार हो चुके हैं।

कम नहीं यूक्रेन की चुनौतियां

हालांकि यूक्रेन को आधुनिक तकनीक और समर्थन मिल रहा है लेकिन उसकी चुनौतियां भी कम नहीं हैं। जैसे ड्रोन हमले रूसी सेना को धीमा कर सकते हैं लेकिन उन्हें पूरी तरह रोक नहीं सकते, – रूस लगातार मिसाइल और बमबारी करता जा रहा है, यूरोप और अमेरिका से हथियारों की सप्लाई बनाए रखना ओर नए हथियारों के लिए सैनिकों को ट्रेनिंग देना भी यूक्रेन के लिए बड़ी चुनौती है।

यह है रूस की रणनीति

रूस की रणनीति अब यह है कि यूक्रेनी सेना की सप्लाई लाइन को काटा जाए, उन्हें घेरा जाए और धीरे-धीरे एक-एक इलाके पर कब्जा किया जाए। इसके लिए रूसी सेना छोटे-छोटे समूहों में काम कर रही है ताकि वे ड्रोन हमलों से बच सकें। यूक्रेन की गैर पारंपरिक रणनीतियां—जैसे लंबी दूरी तक ड्रोन से हमला—रूस के लिए परेशानी बन चुकी हैं, लेकिन रूस अब भी उनके खिलाफ कोई ठोस समाधान नहीं निकाल पाया है। इससे संकेत नहीं मिलते कि रूस हमला धीमा करने वाला है।  

क्रीमिया से आगे भी है रूस की मांगें  

इस समय रूस ने 5 यूक्रेनी प्रांतों के 19% हिस्से पर कब्जा कर लिया है। इनमें से 12% इलाके पर वह पहले ही 2014 में कब्जा कर चुका था। पुतिन की चाहत है कि यूक्रेन की 25% जमीन रूस के अधीन आ जाए जिसमें एक बफर ज़ोन भी शामिल हो। आपको बता दें कि रूस क्रीमिया पर 2014 में कब्जा कर चुका है लेकिन उसकी  मांग सिर्फ क्रीमिया तक सीमित नहीं है, अब वह उन इलाकों को भी यूक्रेन से चाहता है, जिन पर उसकी सेना ने अभी तक कब्जा नहीं किया है, लेकिन रूस अपना दावा करता है। इसके अलावा, वह चाहता है कि युद्ध खत्म होने के बाद यूक्रेन की सेना, उसके हथियार और उसकी सीमाएं नियंत्रित कर दी जाएं—कुछ-कुछ वैसा ही जैसा प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के साथ किया गया था।

कोई स्पष्ट विजेता, न शांति की आस

इस समय दोनों पक्षों के पास न तो निर्णायक जीत है और न ही शांति का कोई साफ रास्ता। इस लंबी और थकाऊ लड़ाई के बाद भी यह तय नहीं हो पाया है कि कौन जीत रहा है। रूस की धीमी लेकिन स्थायी बढ़त को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, वहीं यूक्रेन भी टेक्नोलॉजी और नाटो समर्थन के दम पर लगातार जवाबी कार्रवाई कर रहा है। अगर किसी तरह से शांति समझौता हो भी जाता है, तब भी यह जरूरी नहीं कि संघर्ष थम जाएगा। जानकारों का मानना है कि यूक्रेन के भीतर गुरिल्ला युद्ध चलता रहेगा और नाटो देश रूस के लिए लंबे समय तक परेशानी बने रहेंगे। फिलहाल दुनिया को इंतजार है कि यह युद्ध कब और कैसे खत्म होगा ?


राजेश जैन

प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में बढ़ता वैचारिक पक्षपात

गजेंद्र सिंह
 

हाल ही में विश्व के दो सर्वाधिक प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों — मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) और हार्वर्ड विश्वविद्यालय — के दीक्षांत समारोहों में दिए गए भाषणों ने वैश्विक स्तर पर तीखी बहस को जन्म दिया है। इन मंचों पर छात्रों द्वारा व्यक्त विचारों ने न केवल राजनीतिक और वैचारिक रुझानों को उजागर किया बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि आज शैक्षणिक परिसर किस प्रकार वैचारिक ध्रुवीकरण का केंद्र बनते जा रहे हैं। जहाँ कभी विश्वविद्यालय ज्ञान, तर्क और संवाद के निष्पक्ष मंच हुआ करते थे, वहीं अब वे धीरे-धीरे एकतरफा सक्रियता और वैचारिक कब्जे का माध्यम बनते जा रहे हैं। यह प्रवृत्ति न केवल शैक्षणिक तटस्थता के लिए चुनौती है, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता और समावेशिता की आत्मा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करती है।

MIT की स्नातक कक्षा अध्यक्ष, मेघा वेमुरी ने अपने दीक्षांत भाषण में इस्लामिक कफिया धारण करते हुए इज़राइल और MIT के अमेरिकी रक्षा विभाग से संबंधों की सार्वजनिक रूप से आलोचना की । उन्होंने ग़ाज़ा युद्ध की एकपक्षीय निंदा की किंतु 7 अक्टूबर को हमास द्वारा इज़राइल में किए गए उस क्रूरतापूर्ण हमले का कोई उल्लेख नहीं किया जिसमें 1,200 से अधिक निर्दोष नागरिक मारे गए — जिसे होलोकॉस्ट के बाद यहूदियों पर सबसे भीषण हमला माना गया है। उनके वक्तव्य में न तो इज़रायली या यहूदी समुदाय की पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति व्यक्त की गई और न ही किसी प्रकार की संवेदनशीलता प्रदर्शित की गई। साथ ही, उन्होंने इस्लामी कट्टरपंथ के नाम पर विश्वभर में हुए अन्य जघन्य आतंकी हमलों — जैसे पेरिस का बाताक्लान थिएटर नरसंहार (2015), श्रीलंका के ईस्टर बम विस्फोट (2019), चार्ली हेब्दो हत्याकांड, और नाइस चर्च हमला — पर भी मौन साधे रखा। इतना ही नहीं, वे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों — विशेषकर हिंदुओं — पर हो रहे व्यवस्थित उत्पीड़न, चीन में उइगर मुसलमानों के साथ हो रहे मानवाधिकार हनन, आईएसआईएस द्वारा यज़ीदी महिलाओं को गुलाम बनाए जाने, तथा ब्रिटेन में ग्रूमिंग गैंग द्वारा नाबालिग लड़कियों के शोषण जैसे गंभीर वैश्विक मुद्दों पर भी पूरी तरह से मौन रहीं। शायद उनसे इन मुद्दों पर व्यापक संवेदनशीलता और संतुलित दृष्टिकोण की अपेक्षा इसलिए की गई, क्योंकि उन्होंने अपने भाषण में मानवाधिकारों और मानव उत्पीड़न जैसे गंभीर विषयों को उठाया था। यह स्वाभाविक था कि जब कोई व्यक्ति सार्वजनिक मंच से ऐसी बातें करता है तो यह माना जाता है कि उसकी समझ इन विषयों पर गहन, व्यापक और निष्पक्ष होगी अन्यथा, किसी सामान्य विचारक या छात्र से इस स्तर की वैचारिक गहराई और जिम्मेदारी की अपेक्षा करना कहीं न कहीं बेमानी और भ्रामक है।

इसी क्रम में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह के दौरान स्नातक छात्र वक्ता युरोंग “लुआना” जियांग — जो एक चीनी नागरिक हैं और चीन की ‘बायोडायवर्सिटी कंजर्वेशन एंड ग्रीन डेवलपमेंट फाउंडेशन’ से संबद्ध हैं — ने अपने भाषण में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की आधिकारिक भाषा का प्रयोग करते हुए “मानवता के लिए साझा भविष्य” (Shared Future for Mankind) का आह्वान किया। यह वाक्य महज़ एक आदर्शवादी वक्तव्य नहीं बल्कि चीन की बेल्ट एंड रोड पहल (BRI) और उसकी सॉफ़्ट पावर रणनीति का प्रमुख वैचारिक स्तंभ है, जिसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर चीन के प्रभाव का विस्तार करना है। विशेष ध्यान देने वाली बात यह है कि युरोंग जियांग के पिता भी उसी संगठन में एक वरिष्ठ कार्यकारी पद पर कार्यरत हैं जिससे उनके वक्तव्य की वैचारिक पृष्ठभूमि और उद्देश्य को लेकर और भी प्रश्न उठते हैं

यह घटनाएं कोई अपवाद नहीं हैं बल्कि एक व्यापक और गहराती हुई प्रवृत्ति का हिस्सा हैं। कोलंबिया, स्टैनफोर्ड और यूसी बर्कले जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में हाल के वर्षों में ऐसे विरोध प्रदर्शन देखने को मिले हैं जो केवल वैचारिक असहमति तक सीमित नहीं रहे बल्कि शारीरिक टकराव, स्थायी धरनों और कक्षाओं के स्थगन तक जा पहुँचे हैं। ‘फाउंडेशन फॉर इंडिविजुअल राइट्स एंड एक्सप्रेशन’ (FIRE) की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि 88% अमेरिकी कॉलेज छात्र मानते हैं कि उनके परिसर का माहौल खुली बहस और वैचारिक विविधता को प्रोत्साहित नहीं करता। वर्ष 2022 में FIRE ने कुल 145 ऐसे मामलों को दर्ज किया जिनमें आमंत्रित वक्ताओं के निमंत्रण रद्द कर दिए गए—और इनमें से लगभग 63% मामले वामपंथी विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों के थे। इसी प्रकार, ‘हेटेरोडॉक्स अकादमी’ के 2023 के सर्वेक्षण में यह उजागर हुआ कि 59% छात्र वैचारिक विरोध और सामाजिक बहिष्कार के भय से अपने विचारों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने से बचते हैं। विशेष रूप से, 74% ऐसे छात्र जिन्होंने स्वयं को ‘रूढ़िवादी’ (conservative) के रूप में पहचाना, उन्होंने कक्षा में अपनी राजनीतिक मान्यताएं व्यक्त करते समय असहजता महसूस करने की बात स्वीकार की।

पश्चिमी विश्वविद्यालयों के छात्र कार्यकर्ता गाज़ा युद्ध और रोहिंग्या शरणार्थी  के विरोध में मुखर प्रदर्शन करते हैं लेकिन अन्य वैश्विक मानवीय संकटों और अत्याचारों के प्रति उनकी चुप्पी कई प्रश्न खड़े करती है। वे कश्मीर, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में हिंदू समुदाय की जातीय सफाई ,व्यवस्थित अत्याचार और हिन्दू शरणार्थी, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक लड़कियों के साथ व्यवस्थित बलात्कार और जबरन धर्म परिवर्तन तथा चीन के शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों की जबरन नसबंदी और सामूहिक नजरबंदी जैसे गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों पर मौन रहते हैं। हाल ही में हुए 2025 के पहलगाम आतंकी हमले, जिसमें हिंदू तीर्थयात्रियों की धार्मिक पहचान की पुष्टि कर इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा उनकी निर्मम हत्या की गई, उस पर भी उन्होंने कोई सार्वजनिक निंदा नहीं की। इसी प्रकार, ब्रिटेन में कई वर्षों तक चले संरचित ‘ग्रूमिंग गैंग’ मामलों—जहाँ अधिकांश पीड़ित नाबालिग लड़कियाँ थीं और अधिकांश आरोपी इस्लामिक  कट्टरपंथी पृष्ठभूमि से—पर भी कार्यकर्ताओं ने चुप्पी साधे रखी है। तालिबान द्वारा अफगान महिलाओं पर लगातार जारी दमन, जिसमें लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध और कठोर ड्रेस कोड जैसी अमानवीय नीतियाँ शामिल हैं, उसे भी अपेक्षित विरोध नहीं मिला । यह चयनात्मक नैतिकता दर्शाती है कि कई बार मानवाधिकारों की बात केवल सुविधाजनक वैचारिक सीमाओं के भीतर की जाती है, न कि एक सार्वभौमिक और न्यायसंगत दृष्टिकोण से ।

यह चयनात्मक चुप्पी — खासकर उन लोगों की ओर से जो नैतिक ऊँचाई का दावा करते हैं — एक गहरे दोहरे मानदंड को उजागर करती है। इससे विविध पृष्ठभूमियों से आने वाले छात्रों में असहजता बढ़ती है। जब विश्वविद्यालय केवल कुछ विशेष विचारों को प्रमुखता देते हैं, तो वे न केवल समावेशिता और एकता को ठेस पहुँचाते हैं, बल्कि अपनी वैश्विक प्रतिष्ठा और नैतिक प्रामाणिकता को भी खतरे में डालते हैं।

आज विश्वविद्यालय ज्ञान-विनिमय और बौद्धिक विकास के केंद्र न रहकर वैचारिक प्रदर्शन के मंच बनते जा रहे हैं। कक्षाओं से लेकर दीक्षांत तक, ये मंच अब उपलब्धियों के उत्सव के बजाय कुछ गिने-चुने विचारों के प्रचार के साधन बनते दिखते हैं। इससे वे मूल मूल्य — जैसे विचारों की स्वतंत्रता, असहमति के प्रति सहिष्णुता, और सत्य की खोज — पीछे छूटते जा रहे हैं।

“कथा” आज रणनीतिक शक्ति बन गई है । जब संस्थान एकतरफा सक्रियता या राज्य-प्रेरित संदेशों को मंच देते हैं, तो वे अनजाने में भू-राजनीतिक प्रभावों के उपकरण बन सकते हैं और उन्हीं छात्रों को हाशिए पर डालते हैं जिन्हें वे सशक्त बनाने का दावा करते हैं।

आलोचना हो — लेकिन संदर्भपूर्ण । भावनाएं प्रकट हों — मगर दूरदर्शिता और समझदारी के साथ । यह जटिल दुनिया वैचारिक एकरूपता नहीं बल्कि विविध दृष्टिकोणों की मांग करती है — और हमारे युवा मस्तिष्क इससे कम के अधिकारी नहीं हैं।

गजेंद्र सिंह

राजनीति को नई दिशा देते विपक्षी दलों के नये चेहरें

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– ललित गर्ग –

सिंदूर ऑपरेशन के बाद पाकिस्तान दुनिया से सहानुभूति बटोरने के लिये जहां विश्व समुदाय में अनेक भ्रम, भ्रांतिया एवं भारत की छवि को छिछालेदार करने में जुटा है, वहीं भारत का डर दिखा-दिखा कर ही पाक अनेक देशों से आर्थिक मदद मांग रहा है। इन्हीं स्थितियों को देखते हुए दुनिया के सामने भारत का पक्ष रखने के लिए केंद्र सरकार ने जिस तरह से सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों का गठन किया है और इन दलों में विपक्षी दलों के सांसद एवं नेताओं ने भारत का पक्ष बिना आग्रह, दुराग्रह एवं पूर्वाग्रह के दुनिया के सामने रखा, उसकी जितनी सराहना की जाये, कम है। इन विपक्षी नेताओं ने विदेश में भारतीय राष्ट्रवाद को सशक्त एवं प्रभावी तरीकों से व्यक्त किया। देश ने इन नेताओं को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते और एक लय में आगे बढ़ते देखा, जबकि संसद में वे केवल आपस में लड़ते दिखलाई देते थे। यह सराहनीय पहल भारत के लिये एक बड़ी उपलब्धि बनी है, जो भारत की भविष्य की राजनीति के भी नये संकेत दे रही है। क्योंकि इसने भारत में एक नए एवं सकारात्मक राजनीतिक नेतृत्व को उभरता हुआ दिखाया है। यूं तो सात दलों के सभी सदस्यों ने भरपूर तरीके से शानदार प्रदर्शन करते हुए भारत का पक्ष रखकर दुनिया को भारत के पक्ष में करने की सार्थक पहल की है, लेकिन कांग्रेस के शशि थरूर एवं एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी एक नये किरदार में नजर आये हैं। थरुर को लेकर कांग्रेस पार्टी में प्रारंभ से ही विरोध एवं विरोधाभास की स्थितियां बनी हुई।
विदेशों में सटीक एवं प्रभावी भारतीय पक्ष रखने के कारण शशि थरुर जहां असंख्य भारतीयों की वाह-वाही लूट रहे हैं, वहीं कांग्रेस पार्टी में उनका भारी विरोध हो रहा है। चर्चा एवं विवादों में चल रहे शशि थरूर केरल के तिरुवंतपुरम से चार बार के कांग्रेस के सांसद हैं। वे एक ऐसे कूटनीतिज्ञ राजनेता हैं, जो अपने राजनीतिक कौशल का प्रदर्शन करना जानते हैं। वे एक ऐसे स्वतंत्र सोच एवं साहसी निर्णय लेने वाले नेता भी हैं जो अपनी पार्टी के रुख से अलग भी स्टैंड लेते रहे हैं। लेकिन ताजा सन्दर्भों में वे कांग्रेस के लिए अब असहज सच्चाई बन गए हैं। क्योंकि थरूर ने वह सब कुछ किया है जिसकी पार्टी में इजाजत नहीं है। प्रतिनिधि मण्डल में थरूर के नाम पर कांग्रेस ने आपत्ति जताई थी, क्योंकि कांग्रेस ने केंद्र को थरूर का नाम नहीं दिया था। थरूर ने कहा था- मैं सम्मानित महसूस कर रहा हूं, जब भी राष्ट्रीय हित की बात होगी और मेरी सेवाओं की जरूरत होगी, तो मैं पीछे नहीं रहूंगा।’ थरूर ने कांग्रेस छोड़ने की अटकलों के सवाल पर कहा- जब आप देश की सेवा कर रहे हों, तब ऐसी चीजों की ज्यादा परवाह नहीं करनी चाहिए। हमारे राजनीतिक मतभेद भारत के बॉर्डर के बाहर जाते ही खत्म हो जाते हैं। सीमा पार करते ही हम पहले भारतीय होते हैं। थरूर इन दिनों अमेरिकी सहित कई देशों के दौरे पर हैं, जहां वे ऑपरेशन सिंदूर को लेकर बने मल्टी पार्टी डेलीगेशन को सुपर लीड कर रहे हैं। सरकार के समर्थन में बोलने पर कांग्रेस के अनेक नेता थरुर की खिंचाई करने में जुटे हैं। उन्हीं में एक नेता उदित राज ने थरूर को भाजपा का सुपर प्रवक्ता तक बता दिया है। जबकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी और सत्तारूढ़ भाजपा पर ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत-पाकिस्तान युद्धविराम को लेकर लगातार हमलावर हैं।
4 जून 2025 को राहुल गांधी ने तब हद ही कर दी जब उन्होंने दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दबाव में आत्मसमर्पण कर दिया। इतना ही नहीं ये सब कहने का अंदाज भी उनका इतना खराब था कि जैसे कोई दुश्मन देश का बंदा बोल रहा हो। राहुल गांधी ने यह भी कहा था कि, मैं भाजपा और आरएसएस वालों को अच्छे से जान गया हूं, इनको थोड़ा सा दबाओ तो डर कर भाग जाते हैं। राहुल ने आगे कहा, उधर से ट्रंप ने फोन किया और इशारा किया कि मोदीजी क्या कर रहे हो? नरेंदर, सरेंडर और ‘जी हुजूर’ करके मोदीजी ने ट्रंप के इशारे का पालन किया। राहुल गांधी के इस भ्रामक एवं गुमराह करने वाले बयान का थरुर ने जोरदार तरीके से जबाव दिया एवं कांग्रेस पार्टी को ही घेरा। राष्ट्रपति ट्रम्प की भारत-पाक के बीच मध्यस्थता के बयान पर थरूर बोले- मैं यहां किसी विवाद को हवा देने नहीं आया हूं। अमेरिकी राष्ट्रपति का सम्मान है। हमें नहीं पता उन्होंने पाकिस्तान से क्या कहा, पर हमें किसी की सलाह की जरूरत नहीं थी।
आग्रह-दुराग्रह से ग्रसित होकर कांग्रेस के नेता एक-दूसरे को नीचा दिखाने की ही बातें कर रहे हैं, इन कांग्रेसी नेताओं में दायित्व की गरिमा और गंभीरता समाप्त हो गई है। राष्ट्रीय समस्याएं और विकास के लिए खुले दिमाग से सोच की परम्परा उनमें बन ही नहीं रही है। जब मानसिकता दुराग्रहित है तो ”दुष्प्रचार“ ही होता है। कोई आदर्श संदेश राष्ट्र को नहीं दिया जा सकता। राष्ट्र-विरोधी राजनीति एवं सत्ता-लोलुपता की नकारात्मक राजनीति हमें सदैव ही उल्ट धारणा (विपथगामी) की ओर ले जाती है। ऐसी राजनीति राष्ट्र के मुद्दों को विकृत कर उन्हें अतिवादी दुराग्रहों में परिवर्तित कर देती है। राहुल गांधी एवं कांग्रेस ने राष्ट्रीय संकट में भी यही सब करके आम जनता से अधिक दूरियां बना ली है। शशि थरुर ने तो बड़ी लकीरें खींच दी, कांग्रेस कब ऐसी लकीरें खिंचने की पात्रता विकसित करेंगी? हर राजनीतिक दल को कई बार अग्नि स्नान करता पड़ता है, पर आज कांग्रेस तो ”कीचड़ स्नान“ कर रहा है। जहां तक कांग्रेस नेताओं का सवाल है, एक और निहित संदेश सामने आया कि सिर्फ गांधी परिवार ही कांग्रेस का नेतृत्व नहीं कर सकता जबकि भारत की सबसे पुरानी पार्टी में अभी भी प्रतिभाओं का खजाना है, उसके पास अनुभवी नेता हैं, जो जटिल मुद्दों को समझने और नेतृत्व देने में सक्षम हैं।
बड़ी लकीरें तो प्रतिनिधिमण्डल में गये अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने भी खींची है। जिनमें एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने विश्व की राजधानियों में भारत की स्थिति और मौजूद विकास को भी रेखांकित किया है। ओवैसी- जो भारत के अल्पसंख्यकों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को उठाने के लिए जाने जाते हैं- उन्होंने पाकिस्तान को कड़ी भाषा में आड़े हाथों लिया। यहां तक कि उन्होंने पाकिस्तान द्वारा जारी की गई फर्जी तस्वीरों का जिक्र करते हुए कहा कि नकल के लिए भी अकल चाहिए! ओवैसी की  राष्ट्रवादी सोच तो समय-समय पर सामने आती रही है। इस तरह मुस्लिम नेतृत्व अगर उदारता दिखाता तो देश के करोड़ों मुसलमानों के प्रति एक विश्वास और भाईचारे की भावना बढ़ती है। ओवैसी ने तो सबकी निगाहें अपनी ओर खींच ली थीं। इसी तरह डीएमके सांसद कनिमोझी करुणानिधि ने अपनी तल्ख और चतुराई भरे अंदाज से भारतीयों एवं दुनिया का दिल जीत लिया है। सांसद कनिमोझी ने स्पेन में अपने हिस्से का पक्ष रखते हुए भारत की राष्ट्रीय भाषा एकता और विविधता का जिक्र कर ऐसी बात कही है जिसके बाद वो जमकर वाहवाही लूट रही हैं। कनिमोझी ने इसके साथ ही कहा कि “हमारे अपने मुद्दे हो सकते हैं, अलग-अलग विचारधाराएं हो सकती हैं, संसद में हमारे बीच तीखी बहस हो सकती है, लेकिन जब भारत की बात आती है, तो हम एक साथ खड़े होते हैं, यही संदेश हम लेकर आए हैं।’ उनकी ये बातें इसलिए भी खास हैं क्योंकि जहां एक ओर उनकी पार्टी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में प्रस्तावित त्रि-भाषा नीति को चुनौती देते हुए गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपने की बात कर रही है। वहां कनिमोझी एकता और विविधता को राष्ट्रीय भाषा बताते हुए अपना पक्ष रख रही हैं। डीएमके सांसद का ये अंदाज सुर्खियों का विषय बना है और लोग जमकर इसकी तारीफ कर रहे हैं। इसी तरह शिवसेना यूबीटी की प्रियंका चतुर्वेदी ने भारत को न केवल बुद्ध और गांधी, बल्कि श्रीकृष्ण की भूमि भी बताया, जिन्होंने पांडवों से आग्रह किया था कि धर्म की रक्षा के लिए आवश्यक हो तो युद्ध करने से न हिचकिचाएं। अब यह देखना बाकी है कि क्या सरकार ऐसे और कूटनीतिक प्रयासों में विपक्षी नेताओं का इस्तेमाल करना जारी रखेगी। 

असम में सोलर प्रोजेक्ट रुका, हुई आदिवासी संघर्ष की जीत

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आख़िरकार ज़मीन की लड़ाई ने रंग दिखाया। कार्बी आंगलोंग की पहाड़ियों में बसे हजारों आदिवासी परिवारों की जंग ने एशियन डेवलपमेंट बैंक (ADB) को झुका दिया है। बैंक ने 500 मेगावाट के जिस सोलर पार्क प्रोजेक्ट के लिए 434 मिलियन डॉलर की फंडिंग मंज़ूर की थी, उसे अब रद्द कर दिया गया है।

यह सिर्फ़ किसी प्रोजेक्ट का कैंसलेशन नहीं है — यह एक पूरी कौम की जीत है, जिन्होंने “विकास” के नाम पर अपनी ज़मीन, जंगल, और अस्मिता की कुर्बानी देने से इनकार कर दिया।

क्या था मामला?

असम सरकार और APDCL (Assam Power Distribution Company Limited) की मदद से कार्बी आंगलोंग जिले में एक विशाल सोलर पार्क बनाया जाना था। 2,400 हेक्टेयर ज़मीन — जिसमें ज़्यादातर खेती, जंगल, और पुश्तैनी ज़मीनें थीं — इस प्रोजेक्ट के लिए ली जानी थी।

लेकिन ये ज़मीनें सिर्फ़ खेत या जंगल नहीं थीं। ये वह धरती थी, जिससे कार्बी, नागा और आदिवासी परिवारों की संस्कृति, आजीविका, और पहचान जुड़ी हुई थी। भारत के संविधान के छठे शेड्यूल के तहत ये ज़मीनें संरक्षित हैं — लेकिन फिर भी प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल गई थी।

“हमसे पूछा ही नहीं गया”

ADB ने दावा किया कि समुदाय की “सहमति” थी, लेकिन सच्चाई कुछ और निकली। सिर्फ़ 23 में से 9 गांवों में ही कंसल्टेशन हुआ। हज़ारों लोगों को इस प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया। जरूरी दस्तावेज़ न तो स्थानीय भाषाओं में अनुवाद हुए, न ही सबके लिए उपलब्ध कराए गए।

और सबसे बड़ी बात — ज़मीन का मालिकाना हक़ तक नकार दिया गया। ADB की रिपोर्ट कहती है कि सिर्फ़ 8.2% ज़मीन समुदाय की है। लेकिन ज़मीन सिर्फ़ पट्टे का कागज़ नहीं होती — वह रिश्ता होता है, जो पीढ़ियों से चला आ रहा है।

औरतें, जंगल, और हाथी — सब पर खतरा

इस प्रोजेक्ट से सबसे ज़्यादा नुकसान महिलाओं को होता, जो खेती और आजीविका में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं। जंगलों में बांस के वो इलाके, जिनसे हाथियों का आवागमन होता है, वो भी खत्म हो जाते। और पास की देवपानी और नामबोर जैसी वाइल्डलाइफ़ सैंक्चुरीज़ को भी नुकसान होता।

यह जीत कैसे मुमकिन हुई?

यह कोई एक दिन का काम नहीं था। Karbi Anglong Solar Power Project Affected People’s Rights Committee ने सालों तक संघर्ष किया — शांतिपूर्ण धरने, मेमोरेंडम, प्रेस कॉन्फ्रेंस, और यहां तक कि ADB की बोर्ड मीटिंग में सीधे जाकर बात रखी।

असम से राज्यसभा सांसद अजीत कुमार भुइयां ने भी संसद में यह मुद्दा उठाया। और फिर जो हुआ, वह इतिहास बन गया।

अब आगे क्या?

संघर्ष समिति की मांग है कि अब राज्य सरकार और APDCL इस ज़मीन पर कब्ज़े की हर कोशिश हमेशा के लिए रोकें — और इन समुदायों के पारंपरिक ज़मीन अधिकारों को औपचारिक रूप से मान्यता दें।

NGO Forum on ADB के डायरेक्टर रैयान हसन कहते हैं, “सस्टेनेबल डेवेलपमेंट का मतलब यह नहीं कि आप आदिवासी ज़मीनें छीन लें। यह कैंसलेशन इस बात का सबूत है कि लोगों की आवाज़ सबसे ऊपर होनी चाहिए।”

लेकिन खतरा अभी टला नहीं है। Growthwatch की विद्या डिंकर कहती हैं कि ADB ने इस कैंसलेशन के बाद भी स्थानीय लोगों की सुरक्षा के लिए कोई पुख्ता योजना नहीं बनाई। “बैंक सिर्फ़ प्रोजेक्ट से पीछे नहीं हट सकता — उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जो लोग खतरे में थे, वो अब सुरक्षित हों।”

निचोड़ यही है:

सोलर एनर्जी ज़रूरी है, लेकिन उसके लिए ज़मीन नहीं लूट सकते। भारत को सोलर चाहिए — लेकिन ऐसा मॉडल जो लोगों को पीछे न छोड़े, बल्कि साथ लेकर चले। छतों पर सोलर, लोकल ग्रिड्स, और गांवों की साझेदारी वाला विकास — यही सच्चा ट्रांजिशन है।

आज कार्बी आंगलोंग के लोग यह बता रहे हैं कि विकास ज़मीन पर नहीं, लोगों के हक़ों पर टिकता है।

सबका स्वागत करता है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

– लोकेन्द्र सिंह 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सबके लिए खुला संगठन है। इसके दरवाजे किसी के लिए बंद नहीं है। कोई भी संघ में आ सकता है। कोई विपरीत विचार का नेता, सामाजिक कार्यकर्ता या विद्वान व्यक्ति जब संघ के कार्यक्रम में शामिल होता है, तब उन लोगों को आश्चर्य होता है, जो संघ को एक ‘क्लोज्ड डोर ऑर्गेनाइजेशन’ समझते हैं। जो संघ को समझते हैं, उन्हें यह सब सहज ही लगता है। इसलिए नागपुर में आयोजित संघ शिक्षावर्ग ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-2’ के समापन समारोह में जब मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के जनजाति वर्ग के कद्दावर नेता अरविंद नेताम को आमंत्रित किया गया, तब संघ को जाननेवालों को यह सहज ही लगा लेकिन संघ के प्रति संकीर्ण सोच रखनेवाले इस पर न केवल हैरानी व्यक्त कर रहे हैं अपितु वितंडावाद भी खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। हालांकि, उनके वितंडावाद की हवा स्वयं जनजातीय नेता अरविंद नेताम ने यह कहकर निकाल दी कि “वनवासी समाज की समस्‍याओं और चुनौतियों को संघ कार्यक्रम के माध्‍यम से रखने का सुअवसर मुझे मिला है”। उन्होंने संघ के संबंध में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह भी की है कि “इस संगठन में चिंतन-मंथन की गहरी परंपरा है। भविष्य में जनजातीय समाज के सामने जो चुनौतियां आनेवाली हैं, उसमें आदिवासी समाज को जो संभालनेवाले और मदद करनेवाले लोग/संगठन हैं, उनमें हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मानते हैं”। सुप्रसिद्ध जनजातीय नेता अरविंद नेताम श्रीमती इंदिरा गांधी और पीवी नरसिम्हा राव सरकार में मंत्री रहे हैं। उल्लेखनीय है कि संघ के कार्यक्रमों में महात्मा गांधी, डॉ. भीमराव अंबेडकर और जय प्रकाश नारायण से लेकर श्रीमती इंदिरा गांधी एवं प्रणब मुखर्जी तक शामिल हो चुके हैं। संघ ने कभी किसी से परहेज नहीं किया। संघ अपनी स्थापना के समय से ही सभी प्रकार के मत रखनेवाले विद्वानों से मिलता रहा है और उन्हें अपने कार्यक्रमों में आमंत्रित करता रहा है।

              राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संवाद में गहरा विश्वास है। वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत कहते हैं कि “अगर हम विचारों को एक किला बनाकर उसके अंदर अपने आपको बंद कर लेंगे, तो यह व्यावहारिक नहीं होगा”। संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार प्रतिष्ठित राजनेता थे। कांग्रेस, समाजवादी एवं कम्युनिस्ट नेताओं के साथ उनका गहरा परिचय था। संघ का दर्शन कराने के लिए डॉक्टर साहब लगातार विभिन्न विचारों के विद्वान व्यक्तियों एवं सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं से मिलते थे और उन्हें संघ में आमंत्रित करते थे। वे उस समय की चुनौतियों के संबंध में सबसे विचार-विमर्श करके समाधान के मार्ग तक पहुँचने का प्रयास करते थे। संघ के वर्तमान अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : स्वर्णिम भारत के दिशा-सूत्र’ में लिखते हैं कि “किसी विषय पर विभिन्न मत हो सकते हैं, किंतु जब हम समाज के प्रत्येक वर्ग से मिलते हैं, संवाद करते हैं, तो अवश्य ही समाधान निकलता है”।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1930 के दशक से ही समाज जीवन में सक्रिय लोगों को अपने कार्यक्रमों में बुलाता रहा है। दरअसल, एक और महत्वपूर्ण बात है यह कि संघ को विश्वास है कि जब तक कोई संघ से दूर है, तब तक ही वह संघ का विरोधी हो सकता है। लेकिन जैसे ही वह संघ के निकट आता है और संघ को जानने-समझने लगता है, तब वह संघ का विरोधी हो ही नहीं सकता। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो इस बात को सिद्ध करते हैं। भारत के पूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन और लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी संघ के आमंत्रण पर आ चुके हैं। लोकनायक जयप्रकाश नारायण सम्मानित समाजवादी नेता थे। प्रारंभ में संघ को लेकर उनके विचार आलोचनात्मक थे। लेकिन जब उन्होंने संघ को नजदीक से देखा तब उनके विचार पूरी तरह बदल गए। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि “यदि आरएसएस फासीवादी संगठन है तो जेपी भी फासीवादी है”। प्रख्यात समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और संघ के पदाधिकारियों के साथ मित्रतापूर्ण संवाद रहा है। आचार्य विनोबा भावे ने कहा है कि “मैं संघ का विधिवत सदस्य नहीं हूँ, फिर भी स्वभाव से, परिकल्पना से मैं स्वयंसेवक हूँ”। परम पावन दलाई लामा संघ के अनेक कार्यक्रमों में शामिल होते रहे हैं, उनका भी कहना है कि “मैं संघ का समर्थक हूँ। अनुशासन, देशभक्ति और समाज सेवा के लिए यह संगठन जाना जाता है”। वर्ष 1977 में आंध्रप्रदेश में आए चक्रवात के समय स्वयंसेवकों के सेवा कार्यों को देखकर वहां के सर्वोदयी नेता श्री प्रभाकर राव ने तो संघ को नया नाम ही दे दिया था। उनके अनुसार- “आरएसएस अर्थात् रेडी फॉर सेल्फलेस सर्विस”।

संघ के कार्यक्रम में जब भी कोई अन्य विचार का व्यक्ति आया है, तब संघ के कार्यकर्ताओं की ओर से कभी उनका विरोध नहीं हुआ। बल्कि स्वयं को अधिक प्रगतिशील एवं लोकतांत्रिक बतानेवाले लोगों ने ही आमंत्रित महानुभावों को रोकने के लिए भरसक प्रयास किए हैं। जब उनके सब प्रयत्न विफल हो जाते हैं, तब ये लोग आमंत्रित महानुभावों की छवि पर हमला करने लगते हैं। उन्हें ‘छिपा हुआ संघी’ घोषित कर देते हैं। याद हो, वर्ष 2018 में नागपुर के रेशिमबाग में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय वर्ष के समापन समारोह में जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के शामिल होने का समाचार सामने आया, तब कितना हो-हल्ला मचाया गया। प्रणब दा को रोकने के लिए पत्र लिखे गए, आह्वान किए गए। आखिर में प्रणब दा समारोह में पहुँचे और अपना उद्बोधन दिया। इस अवसर पर प्रणब दा न केवल आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के घर (संग्रहालय) गए, बल्कि वहाँ उन्होंने विजिटर बुक में लिखा- “मैं आज भारत माँ के महान सपूत डॉ. केबी हेडगेवार के प्रति सम्मान और श्रद्धांजलि अर्पित करने आया हूँ”।

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेता और दलित नेता दादासाहेब रामकृष्ण सूर्यभान गवई तथा कम्युनिस्ट विचारों वाले जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर भी संघ के कार्यक्रमों में आ चुके हैं। मीनाक्षीपुरम में कुछ हिंदुओं द्वारा धर्म परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार किए जाने की घटना के बाद श्री गवई ने स्वयं संघ के कार्यक्रम में आने की इच्छा व्यक्त की थी और अपने विचार रखे थे। केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार में मंत्री रहे जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने स्थानीय विरोधों के बावजूद तत्कालीन सरसंघचालक से संपर्क किया और बाद में पत्रकारों के सामने अपने विचार रखे थे।

अभी हाल के वर्षों में देखें तो, नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी, डीआरडीओ के पूर्व डायरेक्टर जनरल विजय सारस्वत, एचसीएल के प्रमुख शिव नाडर, नेपाल के पूर्व सैन्य प्रमुख रुकमंगुड कटवाल जैसे व्यक्तित्व संघ के विजयादशमी उत्सव में बतौर मुख्य अतिथि शामिल हो चुके हैं। पिछले एक दशक में नागपुर में आयोजित होनेवाले संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में आए प्रमुख महानुभावों में दैनिक पंजाब केसरी के संचालक एवं संपादक अश्वनी कुमार, आदिचुनचुनगिरी मठ (कर्नाटक) के प्रधान पुजारी श्री निर्मलानंदनाथ महास्वामी, आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन के संस्थापक श्री श्री रवि शंकर, धर्मस्थल कर्नाटक के धर्माधिकारी पद्मविभूषण डॉ. विरेन्द्र हेगडे, साप्ताहिक ‘वर्तमान’ (कोलकाता) के संपादक रंतिदेव सेनगुप्त, श्रीरामचंद्र मिशन (हैदराबाद) के अध्यक्ष दाजी उपाख्य कमलेश पटेल, श्री काशी महापीठ (वाराणसी) के 1008 जगद्गुरु डॉ. मल्लिकार्जुन विश्वाराध्य शिवाचार्य महास्वामी, श्री सिद्धगिरी संस्थान मठ (कोल्हापुर) के अदृश्य काडसिद्धेश्वर स्वामी और श्री क्षेत्र गोदावरी धाम बेट सराला के पीठीधीश श्री रामगिरी जी महाराज प्रमुख हैं। इसके अलावा देशभर में आयोजित संघ शिक्षा वर्गों के कार्यक्रम सहित अन्य कार्यक्रमों समाज जीवन के प्रतिष्ठित लोगों को संघ आमंत्रित करता है।

जनरल करिअप्पा ने की संघ कार्य की प्रशंसा :

वर्ष 1959 में पूर्व जनरल फील्ड मार्शल करियप्पा मंगलोर में संघ की एक शाखा के कार्यक्रम में गए थे। वहाँ उन्होंने कहा था कि संघ कार्य मुझे अपने हृदय से प्रिय कार्यों में से है। अगर कोई मुस्लिम इस्लाम की प्रशंसा कर सकता है, तो संघ के हिंदुत्व का अभिमान रखने में गलत क्या है? प्रिय युवा मित्रों, आप किसी भी गलत प्रचार से हतोत्साहित न होते हुए कार्य करो। डॉ. हेडगेवार ने आपके सामने एक स्वार्थरहित कार्य का पवित्र आदर्श रखा है। उसी पर आगे बढ़ो। भारत को आज आप जैसे सेवाभावी कार्यकर्ताओं की ही आवश्यकता है।

संघ के वर्ग एवं शाखा में महात्मा गांधी :

वर्ष 1934 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शीत शिविर वर्धा में महात्मा गांधी के आश्रम के पास ही लगा था। गांधीजी ने शिविर को देखने इच्छा प्रकट की। वर्धा के संघचालक अप्पाजी जोशी ने शिविर में उनका स्वागत किया। महात्मा गांधी ने बड़ी बारीकी से शिविर का निरीक्षण किया। उन्होंने अप्पाजी से पूछा कि इस शिविर में कितने हरिजन हैं? अप्पाजी ने जवाब दिया- “यह बताना कठिन है, क्योंकि हम सभी को हिंदू के रूप में ही देखते हैं। इतना हमारे लिए पर्याप्त है”। बाद में उनकी भेंट संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के साथ हुई। संघशिक्षा वर्ग में जाने की यह बात स्वयं महात्मा गांधी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कही। 16 सितंबर, 1947 की सुबह दिल्ली में संघ की शाखा पर जाकर महात्मा गांधी ने स्वयंसेवकों से संवाद किया। उन्होंने कहा- “बरसों पहले मैं वर्धा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक शिविर में गया था। उस समय इसके संस्थापक श्री हेडगेवार जीवित थे। स्व. श्री जमनालाल बजाज मुझे शिविर में ले गये थे और वहां मैं उन लोगों का कड़ा अनुशासन, सादगी और छुआछूत की पूर्ण समाप्ति देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ था। संघ एक सुसंगठित, अनुशासित संस्था है”।

संघ शिक्षा वर्ग में डॉभीमराव आंबेडकर :

समाज को समरसता के सूत्र में पिरोकर उसे संगठित और सशक्त बनाने वाले महानायकों में से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर भी संघ के प्रणेता डॉ. हेडगेवार के संपर्क में थे। बाबा साहेब 1937 और 1939 में संघ शिक्षा वर्ग में गए थे। 1937 में करहाड शाखा (महाराष्ट्र) के विजयादशमी उत्सव पर बाबा साहब का भाषण हुआ। इस दौरान वहां 100 से अधिक वंचित और पिछड़े वर्ग के स्वयंसेवक थे। जिन्हें देखकर डॉ. आंबेडकर को आश्चर्य तो हुआ ही बल्कि भविष्य के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ी। सन् 1939 में एक बार फिर बाबा साहब पुणे के संघ शिक्षा वर्ग के सायंकाल के कार्यक्रम में आए थे। यहाँ उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं तत्कालीन सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से हुई। इसी प्रकार, संघ से प्रतिबंध हटाने में डॉ. अंबेडकर का जो सहयोग प्राप्त हुआ, उसके प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव गोलवलकर ने सितंबर 1948 में दिल्ली में उनसे भेंट की।

संघ के कार्यक्रम में श्रीमती इंदिरा गांधी :

वर्ष 1963 में स्वामी विवेकानंद जन्मशती के अवसर पर कन्याकुमारी में ‘विवेकानंद शिला स्मारक’ निर्माण के समय भी संघ ने सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख राजनेताओं एवं सामाजिक संगठनों के प्रमुख व्यक्तियों को आमंत्रित किया। स्मारक निर्माण के समर्थन में विभिन्न राजनीतिक दलों के 323 सांसदों के हस्ताक्षर एकनाथ रानाडे जी ने प्राप्त किये थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने एकनाथ रानाडे जी के आमंत्रण पर ‘विवेकानंद शिला स्मारक (विवेकानंद रॉक मेमोरियल)’ के उद्घाटन कार्यक्रम में शामिल हुईं।

कुदरत के सबक को कब पढ़ेगा इंसान?

पाँच साल पहले कोविड-19 लॉकडाउन ने जहां दुनिया की अर्थव्यवस्था को झकझोरा, वहीं पर्यावरण को राहत दी। वायु प्रदूषण, ग्रीनहाउस गैसों और औद्योगिक उत्सर्जन में गिरावट ने साबित किया कि प्रकृति को सुधारना संभव है। नदियाँ स्वच्छ हुईं, आसमान नीला दिखा, और हवा शुद्ध हुई। यह लेख महामारी के माध्यम से प्रकृति की चेतावनी और भविष्य के लिए सतत विकास के रास्ते की ओर इशारा करता है। अब भी यही वक्त है चेतने का।

— डॉ. सत्यवान सौरभ

वैश्विक आर्थिक गतिविधियों में ठहराव का यह दौर बेशक चिंताजनक है, लेकिन पर्यावरण पर इसका अप्रत्याशित सकारात्मक असर दुनिया के लिए चेतावनी और सीख दोनों है। अनजाने में ही सही, जब मनुष्य ने अपनी गतिविधियाँ रोक दीं, तो कुदरत जैसे खुलकर सांस लेने लगी। पिछले कुछ महीनों से नदियों के बहाव में पारदर्शिता लौट आई, वायु प्रदूषण में अभूतपूर्व कमी देखी गई और आकाश फिर से नीला हो गया। यह सब देख कर मानो कुदरत पुकार कर कह रही हो— “हे मानव! अब तो संभल जा, पढ़ मेरी पीर!”

लॉकडाउन में सांस लेती धरती

पांच साल पहले कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन ने इंसानी गतिविधियों को थाम दिया। औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों का धुआं और अनावश्यक यात्रा सब पर रोक लगी। इसके परिणामस्वरूप, वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसी गैसों का स्तर घटा, जिससे दुनिया भर के बड़े शहरों में वायु गुणवत्ता में बेहतरी देखी गई। शोध बताते हैं कि साल 2020 में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 5% की रिकॉर्ड कमी दर्ज हुई। यह बताता है कि वायु प्रदूषण की जड़ें हमारी जीवनशैली में छिपी हैं।

गंगा और यमुना जैसी नदियों में पानी पहले से कहीं अधिक साफ दिखा। उत्तर भारत की मैदानी जमीनों से हिमालय के हिमाच्छादित शिखरों का दीदार संभव हुआ। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि मनुष्य ने एक बार के लिए ‘ठहरना’ सीखा। यह एक ऐसा ठहराव था जिसमें धरती को आराम मिला और पर्यावरण को राहत।

क्या यह स्थायी हो सकता है?

पाँच साल पहले लॉकडाउन एक आपातकालीन परिस्थिति थी, न कि समाधान। लेकिन इसने हमें यह अहसास जरूर दिलाया कि प्रदूषण और पारिस्थितिकीय क्षरण मानव निर्मित हैं और इन्हें कम किया जा सकता है— अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति और नागरिक संकल्प हो। लेकिन अफसोस, जैसे-जैसे लॉकडाउन हटा, वैसे-वैसे सब कुछ पहले जैसा होने लगा। प्रदूषण लौट आया, नदियाँ फिर से काली होने लगीं, कारखानों का धुआं फिर से आसमान ढंकने लगा।

हॉकिंग की चेतावनी और आज की सच्चाई

महान भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग ने चेतावनी दी थी कि यदि मनुष्य ने अपनी जीवनशैली और पर्यावरण के प्रति व्यवहार नहीं बदला तो उसे पृथ्वी को छोड़कर किसी अन्य ग्रह की शरण लेनी पड़ेगी। उनके अनुसार पृथ्वी की शेष उम्र महज 200 से 500 वर्षों की है। वे भविष्यवाणी करते थे कि या तो किसी धूमकेतु का टकराव, या सूर्य की विकिरण, या कोई महामारी पृथ्वी से जीवन मिटा देगी। कोविड-19 जैसी महामारी उनके कथन को और भी भयावह यथार्थ में बदल देती है।

अब भी समय है—परिवर्तन की राह

हमें यह स्वीकारना होगा कि अब विकास की परिभाषा बदलने की जरूरत है। ‘अर्थव्यवस्था की वृद्धि’ तब तक अधूरी है जब तक वह पारिस्थितिकीय स्थिरता को न छूती हो। हमें ‘स्मार्ट ग्रोथ’ से आगे बढ़कर ‘ग्रीन ग्रोथ’ की दिशा में सोचना होगा।

कम कार्बन उत्सर्जन वाली जीवनशैली अपनाना अब विकल्प नहीं, आवश्यकता बन चुकी है। यानी ऐसी जीवनशैली जो प्रकृति के साथ सामंजस्य में हो—उदाहरणस्वरूप साइकिल चलाना, सार्वजनिक परिवहन का उपयोग, स्थानीय उत्पादों को प्राथमिकता, ऊर्जा की बचत और उपभोग में संयम।

परिवहन और उद्योग में बदलाव जरूरी

भारत और विश्व के लिए अब समय है कि वह अपने उद्योग और परिवहन व्यवस्था को पर्यावरण-अनुकूल बनाए। जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करते हुए सौर, पवन और अन्य हरित ऊर्जा स्रोतों की ओर अग्रसर होना होगा। वाहनों में इलेक्ट्रिक टेक्नोलॉजी का उपयोग बढ़ाना, रेलवे और सार्वजनिक परिवहन को सुलभ और स्वच्छ बनाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

यह बदलाव न केवल प्रदूषण कम करेगा, बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव भी घटाएगा। वायु प्रदूषण से हर साल दुनिया भर में लगभग 70 लाख मौतें होती हैं। यह आंकड़ा जलवायु संकट की गंभीरता को दर्शाता है।

तत्काल और दीर्घकालिक कदमों की ज़रूरत

हमें ब्लैक कार्बन, मीथेन, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, ट्रोपोस्फेरिक ओजोन जैसे अल्पकालिक जलवायु प्रदूषकों को कम करने के लिए तत्काल नीतिगत फैसले लेने होंगे। इन गैसों का प्रभाव जलवायु पर तुरंत पड़ता है और इन्हें नियंत्रित करना तुलनात्मक रूप से आसान है।

भारत को एक राष्ट्रीय जनजागरूकता अभियान चलाना चाहिए जो जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जल और ऊर्जा संरक्षण जैसे मुद्दों को स्कूल-कॉलेजों से लेकर पंचायत स्तर तक ले जाए। क्योंकि यदि हमने पर्यावरण को नहीं समझा, तो कोविड-19 जैसे संकट आम बात हो जाएंगे।

पांच साल पूर्व कोविड-19: एक इशारा, एक अवसर था

कोरोना संकट ने हमें बहुत कुछ सिखाया—कैसे कम संसाधनों में भी जीवन जीया जा सकता है, कैसे घर में रहकर काम किया जा सकता है, कैसे जरूरतों को सीमित किया जा सकता है। यह एक ‘प्राकृतिक अनुशासन’ था जिसने हमें हमारे अति-उपभोक्तावाद पर सोचने को मजबूर किया।

अब हमें चाहिए कि इस संकट से निकली सीख को भविष्य की नीतियों और जीवनशैली में जगह दें। यह एक मौका है—एक ‘रीसेट बटन’। प्रकृति ने हमें चेताया है, अब हमें प्रतिक्रिया देनी होगी।

धरती की पुकार और हमारी ज़िम्मेदारी

हमारी धरती सिर्फ एक ग्रह नहीं, हमारा घर है। हमने उसे मां कहा है, लेकिन व्यवहार उपभोक्ता जैसा किया है। अब समय है कि हम केवल ‘धरती माता की जय’ बोलने की जगह धरती माता की रक्षा में खड़े हों। हमें जंगलों, नदियों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों और पूरे जैव विविधता तंत्र को बचाना होगा।

“धरती खाली-सी लगे, नभ ने खोया धीर!

अब तो मानव जाग तू, पढ़ कुदरत की पीर!”

आगे की राह: प्रकृति के साथ साझेदारी

जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरण का मसला नहीं है, यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौती भी है। यदि हमने पर्यावरण को अनदेखा किया, तो कृषि, स्वास्थ्य, रोजगार, और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्र भी संकट में आ जाएंगे।

आज की सबसे बड़ी ज़रूरत यह है कि हम विज्ञान, तकनीक और परंपरागत ज्ञान के समन्वय से ऐसी नीतियां बनाएं जो टिकाऊ विकास को संभव बनाएं। स्कूलों में जलवायु शिक्षा हो, गाँवों में हरित रोजगार के अवसर हों, शहरों में स्वच्छ परिवहन और स्वच्छ ऊर्जा की व्यवस्था हो।

अंत में – मानव बनाम प्रकृति नहीं, मानव + प्रकृति

यह संघर्ष “मनुष्य बनाम प्रकृति” का नहीं होना चाहिए। यह साझेदारी “मनुष्य + प्रकृति” की होनी चाहिए। प्रकृति को जीतना नहीं, समझना और संजोना है। कोविड-19 ने इस सच को हमारे सामने रख दिया है। अब यह हम पर है कि हम इस सच्चाई को स्वीकार करें या फिर विनाश की ओर आंख मूंद कर बढ़ते रहें।

बेंगलुरु में व्यवस्थाओं के अमानवीय चेहरे का बेनकाब होना

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– ललित गर्ग –

बढ़ते तापमान रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु ( आरसीबी ) की शानदार जीत के बाद आयोज्य जश्न के मातम, हाहाकार एवं दर्दनाक मंजर ने राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की पोल ही नहीं खोली बल्कि सत्ता एवं खेल व्यवस्थाओं के अमानवीय चेहरे को भी बेनकाब किया है। आरसीबी विक्ट्री परेड के दौरान चिन्नास्वामी स्टेडियम के पास अचानक मची भगदड़ में 11 लोगों की मौत हो गई जबकि 50 गंभीर रूप से घायल हुए हैं। भगदड़ में लोगों की जो दुखद मृत्यु हुई, यह राज्य प्रायोजित एवं प्रोत्साहित हत्या है। पुलिस का बंदोबस्त कहां था? चीख, पुकार और दर्द और क्रिकेट सितारों को देखने की दीवानगी एक ऐसा दर्दनाक एवं खौफनाक वाकया है जो सुदीर्घ काल तक पीड़ित और परेशान करेगा। प्रशासन की लापरवाही, अत्यधिक भीड़, निकासी मार्गों की कमी और अव्यवस्थित प्रबंधन ने इस त्रासदी को जन्म दिया। यह घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में सामने आई ऐसी घटनाओं की कड़ी का नया खौफनाक मामला है, जहाँ भीड़ नियंत्रण में चूक एवं प्रशासन एवं सत्ता का जनता के प्रति उदासीनता का गंभीर परिणाम एवं त्रासदी का ज्वलंत उदाहरण है।
क्रिकेट की दुनिया के सबसे बड़े वार्षिक उत्सव इंडियन प्रीमियर लीग के फाइनल मुकाबले में रॉयल चैलेंजर्स बंेगलुरु ने 18वें संस्करण में आईपीएल खिताब जीत लिया। इस कामयाबी से आईपीएल से विदाई ले रहे विराट कोहली के प्रति जन-उत्साह उमड़ा। लेकिन इस जीत के जश्न की चमक में प्रशंसकोें की चीखें एवं आहें का होना और उसे खिलाडियों एवं राजनेताओं द्वारा नजरअंदाज करना, अमानवीयता की चरम पराकाष्ठा है। दुर्घटना होने एवं आम लोगों की मौतें हो जाने के बावजूद जश्न जारी रहना, दुखद एवं शर्मनाक है। प्रशंसकों की अहमियत को कमतर आंकने के इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम ने न केवल राजनेताओं को बल्कि खिलाड़ियों को भी दागी किया है। घटना ने एक बार फिर हमारे अवैज्ञानिक व लाठी भांजने वाले भीड़ प्रबंधन की ही पोल खोली है। इस जीत के जश्न में हिस्सा लेने आई भीड़ का एक लाख तक होने का अनुमान था। लेकिन लंबे अंतराल के बाद मिली जीत ने लोगों के उत्साह को इस स्तर तक पहुंचा दिया कि स्टेडियम के आसपास तीन लाख से अधिक लोगों की भीड़ जमा हो गई। खुद कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया का मौत की खबरें मिलने के बावजूद खिलाडियों के साथ जश्न मनाने में जुटा रहना उनकी प्रचार भूख का भौंडा उदाहरण है। जब मौत के बाद वहां पसरा मातम देखकर सब स्तब्ध थे तो सिद्धारमैया क्यों अपने पद की गरिमा एवं जिम्मेदारी को धूमिल कर रहे थे? सोचिए लोगों की मौत के बाद अगर एक मिनट भी जश्न मना, तालियां बजीं, ठहाके लगे, फ्लाइंग किस दिए गए तो इससे ज्यादा अमानवीयता और निर्दयता क्या हो सकती है? जब खुद सरकार एक जश्न का मातम में बदलने का नेतृत्व करेगी तो आम लोगों का कांप उठना स्वाभाविक है।
बहरहाल, आईपीएल का आयोजन लगातार नई ऊंचाइयों को छूता हुआ व्यावसायिक क्रिकेट को नई ऊंचाइयां देने में जरूर सफल रहा है। फटाफट क्रिकेट के दुनिया के सबसे बड़े उत्सव में भारत के दो सर्वकालिक महान खिलाड़ियों विराट कोहली व एमएस धोनी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी। अंततः विराट कोहली का आईपीएल खिताब जीतने का लंबा इंतजार इस जीत के साथ खत्म हुआ। लेकिन धोनी पांच बार की विजेता चेन्नई सुपरकिंग को जीत का खिताब दिलाने से चूक गए। एक तरह से आईपीएल क्रिकेट से कोहली की यह शानदार विदाई साबित हुई। वे इस गरिमामय विदाई के हकदार भी थे। उनके करोड़ों प्रशंसकों की कतारे देख कर राजनेता भी उनकी साथ मंच सांझा करने को उत्सुक दिखे, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया, अन्य मंत्री एवं प्रशासनिक अधिकारी भी इसी फिराक में अपनी जिम्मेदारियों को भूल जश्न मनाते रहे और आमजनता अव्यवस्थाओं के कारण मौत में समाती रही। यह ऐसी दुखद घटना है जो अपनी निर्दयता एवं क्रूरता के लिये लम्बे समय तक कौंधती रहेगी। सिद्धारमैया के इस घटना की तुलना प्रयागराज कुंभ में हुए हादसे के करना उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही दर्शा रही है।
भारत में भीड़ से जुड़े हादसे अनेक आम लोगों के जीवन का ग्रास बनते रहे हैं। धार्मिक आयोजनों हो या खेल प्रतियोगिता, राजनीतिक रैली हो या सांस्कृतिक उत्सव लाखों लोगों को आकर्षित करते हैं, जहाँ भीड़ प्रबंधन की मामूली चूक भयावह त्रासदी में बदलते हुए देखी जाती रही है। उदाहरण के लिये, वर्ष 2022 में दक्षिण कोरिया के इटावन हैलोवीन समारोह में अत्यधिक भीड़ के कारण 150 से अधिक लोगों की जान चली गई थी। इसी तरह, वर्ष 2015 में मक्का में हज के दौरान मची भगदड़ में सैकड़ों लोगों की मौत हो गई थी। वर्ष 2013 में मध्य प्रदेश के रत्नागढ़ मंदिर में ढाँचागत कमियों से प्रेरित भगदड़ के कारण 115 लोगों की मौत हो गई थी। हालही में महाकुंभ के दौरान नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन एवं प्रयागराज में हुए हादसे में भी अनेकों लोगों की जान गयी। आग, भूकंप, या आतंकी हमलों जैसी आपातकालीन स्थितियाँ में भी भीड़ प्रबंधन की पौल खुलती रही है। आखिर दुनिया के सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश में हम भीड़ प्रबंधन को लेकर इतने उदासीन क्यों है? बड़े आयोजनों-भीड़ के आयोजनों में भीड़ बाधाओं को दूर करने के लिए, भीड़ प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचे में सुधार, सुरक्षाकर्मियों को पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान करना, जन जागरूकता बढ़ाना और आधुनिक तकनीकों का उपयोग करना अब नितान्त आवश्यक है।
रेलवे स्टेशन, मंदिर और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर भीड़ को संभालने के लिए पर्याप्त जगह और रास्ते नहीं हैं। कुछ स्थानों पर निकास मार्ग सीमित हैं या अनुपयुक्त हैं, जो भगदड़ का खतरा बढ़ाते हैं। भीड़ प्रबंधन के लिए पर्याप्त प्रशिक्षित एवं दक्ष सुरक्षाकर्मी नहीं हैं, जिससे सुरक्षा चूक होने की संभावना बढ़ जाती है। भीड़ प्रबंधन के लिए आधुनिक तकनीकों, जैसे कि एआई आधारित निगरानी और ड्रोन कैमरे का उपयोग सीमित है। लोगों को आपातकालीन निकास मार्गों, भीड़ नियंत्रण नियमों, और सुरक्षा उपायों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। गलत सूचना या अचानक दहशत से भीड़ अनियंत्रित हो सकती है और भगदड़ मच सकती है। भीड़ का व्यवहार कई बार अनियंत्रित हो जाता है, खासकर धार्मिक, खेल एवं सिनेमा आयोजनों में, जहां लोग भावनाओं में बहकर आगे निकलने की होड़ में लग जाते हैं। कई बार आयोजनकर्ताओं और पुलिस के बीच समन्वय की कमी होती है, जिससे सुरक्षा चूक हो सकती है। भीड़ प्रबंधन केवल विधि-व्यवस्था बनाए रखने का विषय नहीं है, बल्कि यह मानव जीवन की सुरक्षा, सार्वजनिक स्थानों की संरचना और आपातकालीन स्थितियों से निपटने की रणनीतियों से गहनता से संबद्ध है। दुर्भाग्यवश, कई बार आयोजकों और प्रशासनिक एजेंसियों द्वारा पर्याप्त सुरक्षा उपाय नहीं किये जाते, जिससे जानमाल की हानि होती है। इस परिदृश्य में, बड़े आयोजनों में भीड़ प्रबंधन की मौजूदा स्थिति, उससे जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ, हालिया घटनाओं से मिले सबक और प्रभावी समाधानों की चर्चा करना बेहद प्रासंगिक होगा, ताकि भविष्य में ऐसी त्रासदियों से बचा जा सके।
भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में धार्मिक उत्सव, खेल आयोजनों और राजनीतिक रैलियों में लाखों लोग जुटते हैं। ऐसे आयोजनों के लिये पुलिस, होम गार्ड, राष्ट्रीय आपदा मोचन बल और अन्य सुरक्षा एजेंसियों को तैनात किया जाता है। विश्व के विभिन्न विकसित देशों में भीड़ प्रबंधन के लिये अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। जापान जैसे देशों में रेलवे स्टेशनों और सार्वजनिक स्थानों पर अत्यधिक भीड़ के प्रबंधन के लिये ऑटोमेटेड एंट्री और एग्जिट सिस्टम स्थापित किये गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय देशों में स्टेडियमों, एयरपोर्ट्स एवं धार्मिक स्थलों पर भीड़ नियंत्रण के लिये एआई आधारित कैमरे, आपातकालीन अलर्ट सिस्टम और प्रशिक्षित सुरक्षाकर्मी मौजूद रहते हैं। हालाँकि भारत में बड़े आयोजनों के लिये प्रशासनिक तैयारियाँ की जाती हैं, फिर भी समय-समय पर कई कमियाँ उजागर होती रही हैं। लेकिन आरसीबी के चिन्नास्वामी स्टेडियम के जश्न के दौरान खामियां ही खामियां देखने को मिली। ऐसे बड़े आयोजनों में भीड़ प्रबंधन कोई आसान कार्य नहीं है। लाखों लोगों को नियंत्रित करने के लिये ठोस रणनीति, प्रशासनिक कौशल और अत्याधुनिक तकनीक की आवश्यकता होती है, जिसका इस आयोजन में सर्वथा अभाव रहा। आखिर इतने लोगों की मौत की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और दोषी लोगों को कड़ा दण्ड दिया जाना चाहिए।