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…फिर भी मेरा देश महान

स्वतंत्रता के बाद हमारे देश ने हर क्षेत्र में तरक्की की है। स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिकों ने अपने कीर्तिमान हर क्षेत्र में रचे हैं। हमारे कीर्तिमान और हमारी उपलब्ध्यिां राजनीति, विज्ञान, आर्थिकी, सामाजिक क्षेत्रों से लेकर खेलों और प्रतिस्पर्धाओं तक हर जगह कायम रही हैं। हमने अपने पड़ोसी देशों को भी प्रत्येक क्षेत्र में मात दी है। अगर पड़ोसी देशों की बात की जाए तो चीन व पाकिस्तान को मात देने के लिए अभी हम थोड़े पीछे है। लेकिन डरने की बात नहीं है हम जल्द ही उन्हें भी पीछे छोड़ देंगे।

अब आप के जहन में एक सवाल आ रहा होगा कि आखिर हम किस बात में अपने पड़ोसी देश चीन और पाकिस्तान से पीछे हैं। तो जानिएं ! जनाब पहले तो हम जनसंख्या के मामले में चीन से पीछे है और भ्रष्टाचार के मामले में पाकिस्तान से भी पीछे हैं। जहां हमारा देश सबसे बड़ा लोकतांत्रिक है वहीं अब इसकी गिनती सबसे बड़े भ्रष्टतंत्र में शामिल होती जा रही है। आये दिन हो हरे घोटालों से हमारा देश भ्रष्टाचार के क्षेत्र में बहुत तरक्की कर रहा है जिसे देखकर यह कहना गलत नहीं होगा कि भ्रष्टाचार के मामले में हम अन्य मुल्कों को जल्द ही पीछे छोड़ने वाले हैं।

दुनिया भर के 110 देशों भ्रष्ट देशों में हमने अपनी स्थिति 87 वें स्थान पर कायम कर ली है। जबकि कुछ समय पहले हम 85 वें स्थान पर थे। पूरी दुनिया के भ्रष्ट देशों में अचानक दो पदक ऊपर बढ़ जाने के पीछे का कारण भी साफ है। पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित काॅमनवेल्थ गेम्स में हमने करोड़ों रूपये के घोटले किए। अभी काॅमनवेल्थ गेम्स में फैलाई हुई गंदगी साफ करने के लिए भ्रष्टाचार निरोधक कामगार लगाये ही गये थे कि एक और बढ़ा घोटाला सामने आता है जिसने भारत सरकार की नींव हिला कर रख दी। हाल ही में चल रहे गर्मा गर्म 2जी घोटाले ने भारतीय नेताओं की पोल पट्टी खोलकर रख दी है। इतना ही नहीं कारगिल के शहीदों के परिजनों को ‘आदर्श हाऊसिंग सोसायटी’ नामक जो आशयाना बनाकर तैयार किये गये थे वो भी इन मोटी धोन्ध वाले नेताओं ने हजम कर लिए। उन्होंने तो इसकी डकार भी नहीं मारी।

अगर मामले यहीं खत्म हो जाते तो भी कोई बात थी। लेकिन मामला यहां खत्म नहीं होता। इसके बाद एक और बड़ा मामला उभरकर सामने आता है जिसमें भारतीय मुद्रा को भारी मात्र में विदेशी बैंकों में जमा करके रखा हुआ है। अभी हाल में ही एक गोपनीय रिपोर्ट के अनुसार स्विटजलैंडों की भारतीयों ने पूरे 280 लाख करोड़ रूपये जमा कर रखे हैं।

जहां हमारी सरकार बिदेशी बैंकों से हर नये काम के लिए कर्जा ले-लेकर हम भारतीयों को यह एहसास करा रही है कि हम आर्थिक स्तर पर बहुत कमजोर है। तो दूसरी ओर स्विटज बैंकों में जमा भारतीयों का यह पैसा बता रहा है कि हमारे नेतागण देश की भोली भाली जनता को सिबाह बेवकूफ बनाने के और कुछ भी नहीं कर रही है। स्विटज बैंकों में भारतीयों का जितना पैसा जमा है अगर उस पैसों को भारतवर्ष की बैंकों में जमा कर दिया जाए तो ये मान कर चलिए कि हमारी आधी से भी ज्यादा समस्याएं खत्म हो जाएंगी।

बिदेशी बैंकों में जमा पैसे को अगर भारत में वापस ला दिया गया तो अशिक्षा, बेरोजगारी, आर्थिक तंगी, भुखमरी और गरीबी जैसी तमाम समस्याओं पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि ये बातें लिखने पढ़ने में ही अच्छी लगती हैं। हम लिखने के सिबाह कुछ कर नहीं सकते और जो कर सकते हैं वो कभी इस तरह की भावुक बातें सोचते नहीं।

देश की सबसे बड़ी पंचायत उच्च न्यायालय के न्यायधीश खुद इस बात की गवाही दे की देश भ्रष्टाचार की स्थिति गंभीर होती जा रही है। उनका कहना था कि ‘यहां एक भ्रष्ट अफसर रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है तो दूसरी ओर वह रिश्वत देकर छुट भी जाता है।’ बात एक दम सच्ची है। जहां भ्रष्टाचार से सरकार चल रही हो वहां आप किस पर भरोसा कर सकते हैं। देश में सरकार चलाने वाले भी वही लोग है जिनके पूर्वजों ने भ्रष्टाचार की नींव रखी थी। अगर उनके बंसज आज भ्रष्ट होते जा रहे हैं तो उसमें कौन सी नई बात है।

आजादी के बाद बने पहले प्रधान मंत्री द्वारा सन् 1948 में पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया गया था जिसके अंतर्गत देश का विकास किया जाना था। लेकिन आज कितने लोग हैं जो जानना चाहते है कि पंचवर्षीय योजना के तहत क्या कार्य किये गये हैं ? प्रत्येक वर्ष कितना पैसा पंचवर्षीय योजनाओं के नाम पर खर्चा जाता है यह जानने वाला कोई नहीं ? इसके अलावा अभी हाल ही में भ्रष्टाचार को कम करने और सरकारी विभागों से आम जनता को सूचाना का अधिकार दिलाने के लिए 2005 में सूचना का अधिकार लागू किया गया, उसका भी कोई कारगर उद्देश्य पूरा होता नजर नहीं आया।

अधिकारी सूचना के नाम पर एक फाईल बनाकर रखते है। जो कि जनता को देने के काम आती है। वहीं दूसरी ओर उनके व्यक्तिगत रिकोर्ड भी तैयार किये जाते हैं जिसमें उनके द्वारा किये गये हेर-फेर की काली करतूतें लिखी होती हैं। अब वो भी करे तो क्या करें ? आखिर पूरा सरकारी तंत्र ही भ्रष्ट अफसरों से भरा पड़ा है। उन्हें भी तो बेईमानी की कमई का हिस्सा अपने आलाधिकारियों को पहुंचाना पड़ता है।

खोजकर्ताओं ने तो यहां तक खोज निकाला है कि भ्रष्टाचार क्या है और उसकी परिभाषा व उसके प्रकार क्या हैं ? हम अगर अपने देश की बात करें तो यहां भ्रष्टाचार की परिभाषा उपहार से लगाई जाती है जिसके अन्तर्गत भ्रष्टाचार को भी तीन भागों में बांटा गया है। पहला नजराना, जो किसी अधिकारी या कर्मचारी से काम करने के लिए दिया जाए। दूसरा जबराना, जब कोई अधिकारी या कर्मचारी आपका काम करने के लिए कुछ मांगे, या जबरदस्ती पैसे की मांग रखे, उसे जबराना कहा गया। उसके बाद तीसरा होता है शुक्राना, जो अधिकारी द्वारा बिना मांगे ही अपना काम होने पर हम उनकी टेबिल तक पहंुचाते है।

इस देश की अजीव ही बिडम्बना है। एक भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए दूसरी भ्रष्टाचार निरोधी टीम खड़ी कर दी जाती है। फिर भ्रष्टाचार निरोधी जांच के नाम पर देश गरीब जनता का लाखों-करोड़ों रूपये उन पर न्यौछावर कर दिये जाते है। यह सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं लेता। एक के बाद एक भ्रष्टाचार और फिर उस भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक और भ्रष्टाचार निरोधक दस्ता तैयार कर दिया जाता है।

देश के लिए भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ी समस्या बनता जा रहा है। जहां देश के प्रथम प्रधान मंत्री ने भी इस बात का समर्थन किया था कि ‘देश में चलाई जा रही विकास योजनाओं का दसवां हिस्सा जरूरतमंदों तक पहुंचता है।’ और अब आजादी के 63 साल के बाद भी हमारे देश के (वर्तमान) प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह का भी यही मानना है कि ‘केन्द्र से भेजे गये पैसों का 20 प्रतिशत ही जरूरतमंदों को मिल पाता है।’ तो इस स्थिति में हम किस पर यकीन कर सकते हैं। जब देश की सबसे बड़ी पंचायत उच्च न्यायलय और देश की सरकार चलाने वाला मुखीया भी यही माने कि देश में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है। तो फिर स्थिति को साफ करने के लिए रह क्या जाता है ?

सरकारों को तीजोडियां भरने से और जनता को अपना पेट भरने के लिए दो जून की रोटी कमाने से फुरसत नहीं इस स्थिति में कौन इन भ्रष्ट नेताओं की खबर लेगा। मेहगाई अपना मुंह फैलती जा रही है और गरीब उसके आगोश में सिमटा जा रहा है। जहां देश के भावी नेता और मंत्री मण्डल घोटालों में लगे हैं वहीं यहां की जनता उनके तमाशे को खुली आँखों से तमाशाई होकर देख रही है। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर देश भक्ति के दो-चार गीत गाकर, तीरंगे को सलामी देकर हमारे सारे कर्तव्य खत्म हो जाते है। अब इस माहौल में तो अभिनेता नाना पाटेकर का डायलाॅग याद आता है…‘‘सौ में से अस्सी बेईमान…फिर भी मेरा देश महान।’’

भारतीय वामपंथ के पुनर्गठन की एक प्रस्तावना / अरुण माहेश्‍वरी

(”आत्मालोचना क्रियात्मक और निर्मम होनी चाहिए क्योंकि उसकी प्रभावकारिता परिशुद्ध रूप में उसके दयाहीन होने में ही निहित है। यथार्थ में ऐसा हुआ है कि आत्मालोचना और कुछ नहीं केवल सुंदर भाषणों और अर्थहीन घोषणाओं के लिए एक अवसर प्रदान करती है। इस तरह आत्मालोचना का ‘संसदीकरण हो गया है’।”(अन्तोनियो ग्राम्‍शी : राजसत्ता और नागरिक समाज))

1- सशस्त्र नवंबर क्रांति ने 1917 में रूस में जो नयी व्यवस्था कायम की वह 70 वर्ष चली। 1989 में उसका पतन कुछ इस प्रकार हुआ जैसे कोई सूखा पत्ता पेड़ से अनायास ही गिर जाता है। उस सत्ता परिवर्तन के अंतिम दिन जब सोवियत सत्ता की ओर से सड़कों पर टैंक उतारे गयें, तब वही टैंक येलत्सीन की वीरता के प्रदर्शन के मंच बन गये। क्रांति और प्रतिक्रांति के अनिवार्य रूप से हथियारबंद और हिंसक होने अर्थात इतिहास में बलप्रयोग को लेकर एक प्रकार की अंधआस्था वाले मस्तिष्‍कों को उस घटना ने चौंकाया था, क्योंकि मार्क्‍स की समझ के ठीक विपरीत उन्होंने सिर्फ इतिहास की ही नहीं, ऐतिहासिक परिघटनाओं के स्वरूपों अर्थात बलप्रयोग की सूरतों की भी अपनी खास प्रकार की अपरिवर्तनशील चौखटाबंद समझ विकसित कर ली थी। जिस प्रकार उंगली के इशारों पर उस पूरी व्यवस्था का अंत हुआ, उससे एक बात साफ थी कि उस समाज के लिये वैसी ‘समाजवादी व्यवस्था’ की कोई उपयोगिता नहीं रह गयी थी, जैसी तत्कालीन सोवियत संघ में थी। रणधीर सिंह के शब्दों में, “It was a system virtually ready for history’s broom.”

2- 15वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के संदर्भ में सोवियत संघ के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम का स्मरण अप्रासंगिक नहीं है। इसी लेखक ने पश्चिम बंगाल में लगातार छठी बार वाममोर्चा सरकार की जीत के संदर्भ में एक पूरी किताब लिखी है : ‘पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति’। दुनिया के इतिहास की यह विरल घटना कि किसी पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता वाले संघीय गणतंत्र के एक अंग राज्य में लगातार तीन दशकों तक कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व का मोर्चा चुनाव में जनता के मतदान से विजयी होता जा रहा है, यह किसी के लिये भी इसके सामाजिक गभीतार्थों के गंभीर अध्ययन की मांग करता है। इसी जरूरत के तहत लिखी गयी वह पूरी पुस्तक पष्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किये गये व्यापक सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों, सत्ता के संतुलन में आये बदलाव के इतिहास का आख्यान बन गयी और बिल्कुल सही उस पूरे सामाजिक उपक्रम को एक ‘मौन क्रांति’ की संज्ञा प्रदान की गयी। लेकिन उसी पुस्तक के उपसंहार में इस दौरान सामने आए नये सामाजिक यथार्थ और उसके कार्यभारों के संदर्भ में सीपीआई(एम) को सैद्धांतिक और व्यवहारिक, दोनों स्तरों पर खुद को नये सिरे से प्रासंगिक बनाने की जिस नितांत जरूरी जद्दोजहद की ओर संकेत किया गया है, यही वह पहलू है जिसका सीघा संबंध इस लोकसभा चुनाव और इससे जुड़े तमाम प्रसंगों से है।

3- ग्रामीण सत्ता-संरचना में परिवर्तन जनतंत्र के बाकी कार्यभारों को तेजी से उभार कर सामने लाता है। इनमें शहरीकरण और औद्योगीकरण के प्रश्‍न शामिल है। इन प्रश्‍नों के आर्थिक पहलू के अलावा व्यापक सांस्कृतिक पहलू भी है, जिन्हें आधुनिक जीवन की नैतिकता की समस्याएं कहा जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान ग्रामीण ‘मौन क्रांति’ की प्रभुत्व षैली (hegemony) से हासिल नहीं किया जा सकता है। यह जनता के व्यापक समर्थन पर टिकी हुई पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था में रहते हुए एक जन-क्रांतिकारी रणनीति को तैयार करने की समस्या है। राजसत्ता के दमनकारी उपायों से इस व्यवस्था के लिये जनता के व्यापक हिस्सों का समर्थन हासिल नहीं किया गया है। बनिस्बत घुमा कर कहे तो कहा जा सकता है कि लोगों का बड़ा हिस्सा चीजों को चलाने की उस प्रणाली से खुश है, जिस प्रणाली पर पूंजीपति वर्ग उन्हें चलाना चाहता हैं।

4- इसीलिये वामपंथियों के सामने इस खास जनतांत्रिक नैतिकता के निर्वाह के साथ क्रांतिकारी विकल्प तैयार करने की समस्या है। और, गौर करने लायक बात यह है कि आधुनिक जीवन की जनतांत्रिक नैतिकता के ऐसे ही तमाम प्रश्‍न हैं जिनके सही समाधान देने में असमर्थ विश्‍व कम्युनिस्ट आंदोलन आज तक पूंजीवादी जनतंत्र की चुनौतियों के सामने लचर दिखाई पड़ता है। इटली के कम्युनिस्ट विचारक ग्राम्‍शी ने अपने प्रभुत्व सिद्धांत के तहत योरोपीय परिस्थितियों में कम्युनिस्टों के प्रमुख कार्यभारों में विचारधारात्मक और नैतिक स्तर पर अपनी श्रेष्‍ठता स्थापित करने की जिस चुनौती की बात कही थी, यूरोकम्युनिज्म से लेकर फ्रांस के 60 के दशक के कैम्पस विद्रोह तक की सारी कोशिशों का मूल सार किसी न किसी रूप में इन्हीं प्रश्‍नों का उत्तर हासिल करना था। ये जनतंत्र की नैतिक चुनौतियां है। सभ्य समाज के इन नैतिक प्रश्‍नों को ऐसे ही दरकिनार नहीं किया जा सकता है। खुद माक्र्स ने सारा जीवन जनतंत्र और स्वतंत्रता के इन्हीं मूल्यों के लिये संघर्ष किया। मसलन, अखबारों की स्वतंत्रता की बात को ही लिया जाए। मार्क्‍स ने लिखा, ”अखबारों की स्वतंत्रता की अनुपस्थिति अन्य सभी स्वतंत्रताओं को कोरा भ्रम बना देती है। स्वतंत्रता का एक रूप ठीक वैसे ही दूसरे को शासित करता है जैसे शरीर का एक अंग दूसरे को करता है। जब भी किसी एक स्वतंत्रता पर प्रश्‍न उठाया जाता है तो स्वतंत्रता के सामान्य रूप पर प्रश्‍न उठा दिया जाता है। जब स्वतंत्रता के एक रूप को खारिज किया जाता है तो सामान्य तौर पर स्वतंत्रता को ही खारिज कर दिया जाता है।” मार्क्‍स के लेखन में जनतंत्र के प्रति अटूट निष्‍ठा के भी ऐसे असंख्य उदाहरण मौजूद है।

5- लेनिन ने एक देश में समाजवादी क्रांति की संभाव्यता पर अपने समय में चली ऐतिहासिक बहस में कहा था कि जब विकसित औद्योगिक देशों में क्रांति होगी तब विश्‍व समाजवाद का नेतृत्व भी उन्हीं देशों के हाथ में होगा। यहां वे सिर्फ विकसित देशों की आर्थिक शक्ति की ओर ही संकेत नहीं कर रहे थे, उनका संकेत कुछ ऐसी सामाजिक-आर्थिक और बौध्दिक संरचनाओं की ओर भी था जो आधुनिक समाज की जरूरतों से उत्पन्न हुए थे, मानव सभ्यता की प्रगति के सूचक थे और उन्हें पिछड़े हुए देशों की परिस्थितियों में प्राप्त नहीं किया जा सकता था। लेनिन के शब्दों में, ”समाजवाद बड़े पैमाने के पूंजीवाद द्वारा सृजित तकनीकी और सांस्कृतिक उपलब्धियों के उपयोग के बिना असंभव है।”(जोर हमारा) यहां ‘सांस्कृतिक’ शब्द पर गौर करने की जरूरत है।

6- इन सबके बावजूद, आज भी जनतंत्रीकरण कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे की एक बड़ी समस्या बना हुआ है। इसका प्रमाण यह है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की सैद्धांतिकी के बारे में व्यापक सहमति के बावजूद संकट के हर नये मुकाम पर इसी सांगठनिक सिद्धांत को कसौटी पर चढ़ाया जाता है और आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन के दायरे में इस सिद्धांत के औचित्य-अनौचित्य पर एक प्रकार की अंतहीन बहस जारी है। जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद संगठन के ढांचे को तैयार करने का एक औपचारिक सिद्धांत तो बना हुआ है, प्रष्न इसे संगठन के संचालन की आभ्यांतरित संस्कृति में तब्दील करने का है। गहराई से देखने पर पता चलता है कि जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के बजाय संगठन नौकरशाही कमांड व्यवस्था और पूरी तरह से पूंजीवादी नवउदारतावाद की दो अतियों के बीच डोल रहा है। यह रूझान पार्टी की कार्यनीतिक लाइन को भी समान रूप से कैसे प्रभावित करता है, इसे हम आगे देखेंगे।

7- जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद की तरह ही जनतांत्रिक दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन में दूसरे जिस पद पर सबसे अधिक विवाद हुआ है, वह है ‘सर्वहारा की तानाशाही” का पद। रूसी क्रांति के कुछ दिनों बाद ही 1920 में बट्रेड रसल रूस की यात्रा पर गये थे और उन्होंने लेनिन, ट्राटस्की और गोर्की से भी मुलाकात की थी। उस यात्रा के बाद ही उन्होंने एक किताब लिखी, ‘द प्रैक्टिस एंड थ्योरी आफ बोलशेविज्म’। इसमें वे अपने अनुभवों से बताते हैं कि ”ब्रिटेन में स्थित रूस के मित्र जब सर्वहारा की चर्चा करते है तब वे शाब्दिक अर्थ में सर्वहारा की ही बात कर रहे होते हैं, और जब वे तानाशाही की बात करते है, तब वे उच्च स्तरीय जनतंत्र कह रहे होते हैं, लेकिन रूस के कम्युनिस्ट जब सर्वहारा की बात करते हैं तो इससे उनका तात्पर्य रूस की कम्युनिस्ट पार्टी से होता है, और जब तानाशाही की बात करते हैं, तब वे शाब्दिक अर्थ में तानाशाही की चर्चा कर रहे होते हैं।” दरअसल शब्द संप्रेषण के औजार होते हैं। जिन शब्दों से हम अपने आशय को पूरी तरह से संप्रेशित नहीं कर सकते, उनसे चिपके रहना कहा की बुध्दिमानी है। पानी का जिक्र करते समय उसे उसके वैज्ञानिक नाम एचटूओ से पुकारना कोई मायने नहीं रखता। इसीप्रकार किसी भी जनतांत्रिक राजनीतिक विमर्ष में ‘सर्वहारा की तानाशाही’ पद के प्रयोग से पैदा होने वाले विभ्रम की आषंका को बनाये रखने का क्या मायने है? सोवियत संघ के पराभव के कारण के तौर पर आज सर्वस्वीकृत ढंग से सर्वहारा की तानाशाही के पार्टी की तानाशाही में और फिर पार्टी की तानाशाही के शुद्ध रूप में पार्टी के प्रभुत्वशाली गुट और फिर एक व्यक्ति की तानाशाही में बदल जाने की जो बात कही जाती है, उससे भी सर्वहारा की तानाशाही संबंधी इस बहस के तात्पर्य को समझा जा सकता है।

8- कम्युनिस्ट पार्टियां संगठन के जिस कथित लेनिनवादी सिद्धांत पर बल देती है, उसीके प्रवक्ता लेनिन नहीं मानते थे कि पार्टी के संगठन का कोई सार्विक और सर्वमान्य ढांचा होता है। वे पार्टी को सामाजिक रूपांतरण की खास ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में वर्ग संघर्श को निष्चित राजनीतिक दिशा प्रदान करने का उपकरण मानते थे। पार्टी संगठन से उनकी यही अपेक्षा थी कि वह हर देश के यथार्थ के अनुरूप हो और संघर्षों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करे। उनके शब्दों में, ”कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन का ऐसा कोई अंतिम (absolute) रूप नहीं है, जिसे हर स्थान और काल के लिये सही माना जाए। संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की परिस्थितियां लगातार बदल रही है, और इसीलिये सर्वहारा के हरावल को भी हमेशा संगठन के प्रभावशाली रूप की तलाश करनी होगी। इसीप्रकार, किसी भी देश की खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रत्येक पार्टी को संगठन के अपने विशेष रूपों को विकसित करना होगा।”

9- संगठन की विफलता सामाजिक यथार्थ और विश्‍व परिस्थितियों की समझ में कमी की भी सूचक होती है; अर्थात सांगठनिक समस्या का सीधा संबंध पार्टी के कार्यक्रम की समस्या से है। पूंजीवाद की विफलताओं और जनता के व्यापक असंतोष ने भारत में यत्र-तत्र वामपंथ को आगे बढ़ने के बड़े अवसर दिये। विभिन्न स्तर के निकायों के चुनावों में काफी जीतें हासिल हुई। एकाधिक राज्यों में सरकार बनाने का अवसर मिला। इन्हीं अनुभवों से पार्टी कार्यक्रम में ऐसी सरकारों की भूमिका को सुनिष्चित करने वाली धाराएं (पूर्व कार्यक्रम की धारा 112 और सन् 2000 में त्रिवेंद्रम के विशेष सम्मेलन द्वारा पारित कार्यक्रम की धारा 7.17) जुड़ीं, वर्ना अन्तर्राष्‍ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अनुभवों से बनाये गये पार्टी के कार्यक्रम में चुनाव के बल पर किसी संघीय गणतंत्र के अंगराज्य में भी सरकार बनाने की संभावनाओं तक का अनुमान नहीं लगाया गया था, केंद्र सरकार में जाना तो दूर की बात। बोल्‍शेविक उसूलों में चुनाव में बहुमत प्राप्ति के जरिये सत्ता पर आना पूरी तरह से असंभव माना जाता था। 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के सवाल पर चली बहस के समय पार्टी कार्यक्रम में केंद्र में सरकार बनाने की इस प्रकार की किसी संभावना के बारे में दिशा-निर्देश न होना भी चर्चा का एक विषय था और केंद्रीय कमेटी के उक्त फैसले के ठीक बाद हुई सीपीआई(एम) की पार्टी कांग्रेस में ही कार्यक्रम में संषोधन करके इस प्रकार की संभावना के लिये स्पष्‍ट व्यवस्था की गयी। कहने का तात्पर्य यह कि लेनिन की समझ के अनुसार भारतीय संविधान और भारत की ठोस राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों के साथ संगति रखते हुए पार्टी के कार्यक्रम और संगठन संबंधी निर्णय लिये गये होते, तो अपनी रणनीति और कार्यनीति को कहीं ज्यादा सही और कारगर बनाया जा सकता था, अपने ही कामों का कहीं ज्यादा सही आकलन किया जा सकता था। यह तो जैसे अनायास ही पार्टी के संघर्षों ने अपने प्रभाव के राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में सत्ता के संतुलन को बदल कर ऐसा परिवर्तन कर दिया कि जिसे ‘मौन क्रांति’ कहा जा सकता है। फिर भी आज तक इन अत्यंत महत्वपूर्ण अनुभवों के आधार पर भारतीय क्रांति के अब तक के विकास पथ का एक सुसंगत सैद्धांतिक ढांचा तैयार करने में पार्टी की प्रकट विफलता बेहद चौंकाने वाली है। पश्चिम बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम के सिलसिलेवर अध्ययन के उपरांत उसे ‘मौन क्रांति’ का नाम इस अदने से लेखक ने दिया है, पार्टी के लिये इसप्रकार का दावा आज भी उसकी कल्पना के बाहर है। अपने खुद के अनुभवों का सही आकलन न कर पाना किसी के लिये भी आगे के सही वस्तुनिश्ठ रास्ते को निर्धारित करना कठिन बना देता है। भारतीय वामपंथ के साथ भी कहीं ऐसा ही कुछ तो नहीं घट रहा है?

10- भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास ऐसी कई बातों को सामने लाता है। यहां के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने दुनिया के दूसरे देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की तरह ही ‘कम्युनिस्ट अन्तर्राष्‍ट्रीय’ को मुख्य रूप से अपने दिशा निदेशक के तौर पर स्वीकारा था। इससे पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के निर्माण में उसे जहां कुछ तैयारशुदा सूत्र मिल गये, वहीं उन सूत्रों को देश की ठोस परिस्थितियों के अनुसार ढाल कर अपनाने में उसे काफी ज्यादा शक्ति और समय जाया करने का हरजाना भी देना पड़ा है। कभी-कभी तो उसकी समग्र नीतियां सोवियत संघ की विदेश नीति के हितों के ज्यादा अनुरूप रही, भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के हितों के अनुरूप नहीं। कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरूआती दौर की कमियों को मार्क्‍सवाद के प्रयोग का ककहरा सीखने वाले शिशु की स्वाभाविक समस्या माना जा सकता है। वह दौर भी एक केंद्र से पूरे विश्‍व के कम्युनिस्ट आंदोलन को संचालित करने के कठमुल्ला सोच का दौर था। कम्युनिस्ट अन्तर्राष्‍ट्रीय के दस्तावेजों में उन दिनों जिस अधिकार और जोषो-खरोश के साथ सारी दुनिया के घटनाक्रमों के बारे में राय दी जाती थी, वह आज काफी आष्चर्यजनक लगता है। लेकिन, तब से अब तक विश्‍व कम्युनिस्ट आंदोलन का पूरा दृश्‍यपट ही बदल गया है। एक केंद्र से सब देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों को संचालित करने की आज कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। भारत के कम्युनिस्टों ने क्रांति के निर्यात की एक सबसे हास्यास्पद कोशिश भारत में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की शह पर तैयार किये जारहे मुक्तांचलों के रूप में देखी थी। इसके बावजूद समग्रत: विचार करने पर लगता है जैसे आज भी सोच-विचार की अपनी खुद की पद्धति के विकास की ऐतिहासिक अक्षमता से भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन को उबरना बाकी है। यह काम भारत की वास्तविक परिस्थिति के विश्‍लेषण, संघर्ष की यहां की परंपरा की पहचान तथा परिवर्तन की संभावनाओं की ठोस समझ के आधार पर ही शुरू किया जा सकता है।

11- आज तक जाति और वर्ग के संबंधों की पहेली अबूझ बनी हुई है। भारतीय समाज में जाति प्रथा एक क्षयिश्णु संस्था है। पूंजीवादी विकास के साथ-साथ इसकी मृत्यु अवधारित है। तथापि, राजनीति में जातिवाद का प्रभाव काफी उग्र दिखाई देता है। यह गरीबों और गरीबों को आपस में लड़ाने का शासक वर्गों का सबसे जघन्य हथियार है, और इसीलिये ’67 के बाद के भारी राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में जातिवाद का प्रयोग पूंजीवादी-सामंती ताकतों द्वारा अपने वर्चस्व को कायम रखने की वैसी ही एक बदहवास प्रतिक्रियावादी कोशिष रही है, जैसी सांप्रदायिकता के जरिये है। साम्राज्यवाद के बरक्स भी जातिवादी पार्टियों की स्थिति कम खतरनाक नहीं है। कभी बहुजन समाज पार्टी को बिल्कुल सही, भारतीय राजनीति में अमेरिकी हस्तक्षेप के तौर पर देखा जाता था। लेकिन अब बसपा सहित सभी प्रकार की जातिवादी और नग्न साम्राज्यवाद-परस्त ताकतों को तीसरे विकल्प की ताकतों के तौर पर सम्मानित स्थान पर रखा जाता है। ऐसा कोई भी मोर्चा क्या कभी साम्राज्यवाद-विरोधी, सामंतवाद-विरोधी जनतांत्रिक मोर्चे के निर्माण के मार्ग को प्रषस्त कर सकता है? जातिवादी राजनीति के चरम प्रतिक्रियावादी रूप के प्रति कम्युनिस्ट आंदोलन की साफ समझ के अभाव के कारण ही उसने हिंदी प्रदेशों में पूरे कम्युनिस्ट आंदोलन को लील लिया है।

12- आजादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के साथ कम्युनिस्टों के संबंधों का अपना एक लंबा इतिहास है। कांग्रेस के साथ कभी ऊपर से तो कभी नीचे से संयुक्त मोर्चा बनाना, कभी उसके अंदर रह कर काम करना, कभी पूरी तरह से स्वतंत्र रहना- आजादी की लड़ाई के दौरान भारत के कम्युनिस्टों की इन कार्यनीतियों का गहरा संबंध भारत के राष्‍ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के आकलन में समय-समय पर होने वाले बदलावों से जुड़ा रहा है। इसकी मूल दिशा औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की लड़ाई को तेज करने की ही रही। लेकिन सन् 42 के समय आश्‍चर्यजनक रूप में इसमें एक बुनियादी फर्क दिखाई दिया। शुरू में जिस विश्‍वयुद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध मान कर उसके प्रति अपना रुख तय किया गया था, उसी युद्ध को सोवियत संघ पर हिटलर के हमले के बाद ब्रिटिष कम्युनिस्ट नेता हैरी पॉलिट के निर्देश पर जन युद्ध घोशित किया गया, जबकि तब भी युद्ध की प्रमुख शक्तियां साम्राज्यवादी ही थी। फलत: कम्युनिस्ट पार्टी तत्कालीन ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के लगभग विरोध में खड़ी दिखाई दी। उस काल में फासिस्टों और नाजियों के खिलाफ मित्र शक्तियों में शामिल ब्रिटिश सरकार के प्रति क्या रुख अपनाया जाए, इस सवाल पर तत्कालीन पूरे राजनीतिक क्षेत्र में व्यापक भ्रांतियां थी। कांग्रेस के मंच पर भी इस विषय में नाना प्रकार की आवाजें सुनाई देती थी। कम्युनिस्ट पार्टी के आकलन के मूल में विश्‍व परिस्थिति का यह आकलन भी काम कर रहा था कि नाजियों और फासिस्टों के खिलाफ मित्र शक्तियों की जीत से उपनिवेशवाद के खात्मे के युग का श्रीगणेश होगा। बाद का समूचा घटनाक्रम इस आकलन के सच को प्रमाणित करता है। इसके बावजूद यह भी एक बड़ी सचाई है कि सन् 42 के भारत छोड़ो आंदोलन से अपने को अलग रखने के कारण उस समय पार्टी भारत की आम जनता से काफी अलग-थलग होगयी, जिसके लिये आज तक कम्युनिस्ट आंदोलन से सफाई मांगी जाती है। और, आज तक यह सवाल अनुत्तारित ही है कि भारत में तब ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनाए गये नरम रवैये से हिटलर के खिलाफ सोवियत संघ को अपनी लड़ाई में क्या मदद मिली? दुनिया के किसी भी कोने में कम्युनिस्टों का जनाधार बढ़ने से साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को बल मिल सकता है, किसी भी वजह से उसमें कमी से नहीं। लेनिन के शब्दों में, ”केवल एक ही प्रकार की व्यवहारिक अन्तर्राष्‍ट्रीयता है अर्थात अपने ही देश में क्रांतिकारी आंदोलन के विकास के लिए हार्दिक उद्योग करना और प्रत्येक देश के इसी प्रकार के आंदोलन का समर्थन (प्रचार, सहानुभूति और सम्मान के द्वारा) करना।” आचार्य नरेन्द्रदेव ने इसी संदर्भ में बिल्कुल सही कहा था कि ”इसको छोड़ कर सब आत्मप्रवंचना है।”

13- अंतर्राष्‍ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन से प्राप्त ‘क्रांति के विज्ञान’ के सूत्रों का अंधानुकरण ही रूसी क्रांति की तर्ज पर सत्ता के केंद्रों को आकस्मिक विद्रोह के जरिये दखल करों की सन् 48 की दूसरी पार्टी कांग्रेस की संकीर्णतावादी लाईन का कारण बना और पुन: उसके बाद चीन के लांग मार्च की तर्ज पर तेलंगाना के सीमित किसान संघर्श को सत्ता दखल करने की लड़ाई तक खींचने की दूसरी बड़ी गलती का सबब बना। 62 वर्षों के संसदीय जनतंत्र के लंबे राजनीतिक इतिहास के अनुभवों के बावजूद इसकी सीखों को भारतीय क्रांति की अपनी समझ में शामिल करने के स्वत:स्फूर्त प्रयत्न आज भी नदारद है; जनता के जनवादी राज्य में बहुदलीय व्यवस्था की तरह की चीजों को स्वीकारने का कारण भी भारतीय राजनीति के अनुभव नहीं, सोवियत संघ में समाजवाद के पराभव के अनुभव रहे हैं। ”यह प्रश्‍न कि (समाजवाद के तहत) अन्य राजनीतिक पार्टियां रहेगी या बहुदलीय व्यवस्था कायम रहेगी, क्रांति और सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया में इन पार्टियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका पर मुख्य रूप से निर्भर करता है।”(‘कुछ विचारधारात्मक प्रश्‍नों पर’, सोवियत संघ और पूर्वी युरोप में समाजवाद के पराभव की पृश्ठभूमि में लिया गया पार्टी का प्रस्ताव, 1992)

14- कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसी चीज काफी पहले ही अपना अस्तित्व गंवा चुकी है, समाजवादी शिविर नाम की कोई चीज भी नहीं बची है। इसके बावजूद भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन ने अपने लिये अंतर्राश्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का एक वर्चुअल संसार बना रखा है और चीन, क्यूबा, उत्तर कोरिया अथवा वियतनाम की तरह के देशों की तमाम नीतियों के बारे में उसके आकलन में उसके इस आत्म-सर्जित आभासित यथार्थ का दबाव हमेशा देखने को मिलता है। अपने ‘पवित्र अंतराष्‍ट्रीयतावद’ के निर्वाह के चलते हम इन देशों की नीतियों का न खुल कर आकलन कर पाते हैं और न ही उनके अनुभवों से सही सबक ले पाते हैं। इधर लातिन अमेरिका में नये सिरे से वामपंथ के उभार के बारे में भी हमारे इसी रवैये के कारण पार्टी सदस्यों का आलोचनात्मक विवेक कमजोर हुआ है।

15– भारतीय संविधान में निहित क्रांतिकारी संभावनाओं के बारे आज भी सीपीआई(एम) के कार्यक्रम में कोई उल्लेख नहीं है, जबकि यहां के कम्युनिस्ट आंदोलन ने खुद इन संभावनाओं का भरपूर प्रयोग किया है। कामरेड बी.टी.रणदिवे ने इस संविधान के बारे मे लिखा था कि ”अपनी सारी कमियों और कमजोरियों के साथ यह संविधान जनतंत्र के विस्तार में आगे की ओर बढ़ा हुआ एक काफी बड़ा कदम है और शायद नवस्वाधीन देशों में इसकी बहुत थोड़ी मिसालें हैं।” सामाजिक विकास के वस्तुगत कारणों की सिनाख्त और विष्लेशण में असमर्थता के सही कारणों की तलाश करने के बजाय अक्सर हम पार्टी की सफलता और विफलता के लिये ‘क्रांतिकारी नैतिकता’ से जुड़े प्रष्नों को पूरी तरह से जिम्मेदार मानने लगते हैं। चुनावों में पराजय के लिये पार्टी के आत्मगत तैयारी के सवालों पर बल देने लगते हैं, और नीतियों के प्रश्‍नों की अनदेखी करते हैं। यह ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूलभूत दर्शन के विरुद्ध है। क्रांतिकारी राजनीति सिर्फ नैतिकता का प्रष्न नहीं है। समाजवाद नैतिक चयन नहीं, ऐतिहासिक अनिवार्यता है। क्रांति के खास चरण में अपनी ऐतिहासिक भूमिका की सही पहचान के आधार पर सही कार्यनीति के बिना सिर्फ कथित क्रांतिकारी सांगठनिक शुद्धता से कुछ हासिल नहीं होसकता। इसीप्रकार, बिना एक सिद्धांतनिष्‍ठ प्रभावशाली संगठन के भी किसी भूमिका का निर्वाह संभव नहीं है।

16- जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, पार्टी के संगठन की विफलताएं उसके कार्यक्रम को प्रभावित करती रहीं है, वहीं कार्यक्रम की कमियों ने संगठन के स्वरूप पर असर डाला है। पार्टी संगठन का बोल्‍शेविक स्वरूप स्वाभाविक तौर पर किसी भी क्रांतिकारी दल के लिये एक आकर्षक और आदर्श स्वरूप होगा क्योंकि उसी के जरिये दुनिया में पहली बार शासक वर्गों की ताकत के खिलाफ उत्पीड़ित जनों की क्रांति को संभव बनाया जा सका था। अंग्रेज इतिहासकार एरिक हाब्सवाम ने इस संगठन के बारे में सही लिखा था कि संगठन के उस स्वरूप ने ”छोटे से संगठनों को भी अपने अनुपात से कहीं अधिक प्रभावशाली बना दिया था, क्योंकि इसके जरिये पार्टी अपने सदस्यों से असाधारण निष्‍ठा और त्याग-बलिदान हासिल कर सकती है जो किसी भी सेना के अनुशासन और तालमेल से ज्यादा होता है और किसी भी कीमत पर पार्टी के फैसलों पर अमल करने पर पूरी तरह से संकेंद्रित कर देता है।”

17- लेकिन गौर करने लायक बात यह है कि संगठन की जो तकनीक रूस में, जो एक पिछड़ा हुआ समाज था और जहां आततयी राजा का शासन था, जबर्दस्त रूप में सफल हुई, उसे भारत के एक भिन्न समाज और भिन्न प्रकार की राजनीतिक परिस्थितियों में हूबहू लागू नहीं किया जा सकता था। पार्टी को एक जन-क्रांतिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने का यहां की पार्टी का निर्णय भी इसी सच को प्रतिबिम्बित करता है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फैसला संगठन के उस कथित लेनिनवादी रूप से मेल नहीं खाता था जो रूस की परिस्थितियों में उत्पन्न सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है और चीन की खास परिस्थितियों में उत्पन्न चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का रहा है। यह भारत के विशेष आधुनिक राजनीतिक इतिहास की पृष्‍ठभूमि में लिया गया भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का फैसला था, जिसकी दूसरे किसी विकासशील देश में भी कोई नजीर नहीं मिलती है। यह एक क्रांतिकारी पार्टी को जनता के तमाम हिस्सों की प्रतिनिधित्वकारी पार्टी बनाने की जरूरत को समझते हुए लिया गया फैसला था।

18- दुर्भाग्य से पार्टी को ऐसे निर्णय तक पहुंचने में काफी ज्यादा विलंब हुआ। संसदीय जनतंत्र के सच और दूसरे आम चुनाव में ही केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में राज्य सरकार के गठन के बावजूद कम्युनिस्ट आंदोलन को हमेशा राजसत्ता के हिंसक दमन का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल में 70 के दशक का अर्द्ध-फासिस्ट दमन इसीका एक और चरम उदाहरण था। शासक वर्गों में बढ़ते हुए तानाशाही के रूझान के चलते ही कम्युनिस्ट आंदोलन अपने पुराने सांगठनिक ढांचे से मुक्त नहीं हो पाया; जनता की जनवादी क्रांति की उसकी परिकल्पना भी पुराने प्रकार के हथियारबंद संघर्ष के रास्ते से चिपकी रही। यही वजह है कि भारत में सन् 1975 के पहले का जो संगठन हथियारबंद क्रांति की तैयारियों में लगा हुआ था, पार्टी के प्रभाव के सीमाई क्षेत्रों, लगुआ इलाकों और संचार संबंधी नक्षों की तैयारी कर रहा था और गुजरात से लेकर बिहार तक भ्रष्‍टसचार तथा एकदलीय तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश के आंदोलन के प्रति एक सीमा तक उदासीन सा था, वह संगठन ’75 के आंतरिक आपातकाल के खिलाफ संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई का नेतृत्व नहीं दे सकता था। हथियारबंद लड़ाई के कार्यक्रम ने जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण को कभी पार्टी के एजेंडे पर नहीं आने दिया। सन् ’75 के आंतरिक आपातकाल के अनुभव के बाद ही वह विचार का मुद्दा बन पाया। 1979 में सीपीआई(एम) के सलकिया प्लेनम में जनक्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का नारा दिया गया। लेकिन इस बीच जो लंबा समय गंवा दिया गया, उसके नुकसान की पूर्ति कहां संभव थी!

19- किसी भी फैसले पर अमल में विलंब के अपने खास कारण होते हैं, और इससे खास प्रकार की विकृतियां भी पैदा होती है। जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण के फैसले के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ। भारत की राजनीतिक व्यवस्था की तुलना एक गरीब आदमी को लगे अमीरी के शौक से की जा सकती है। सामान्यत:, इतना गरीब और पिछड़ा हुआ देश संसदीय जनतंत्र के लिये अनुपयुक्त माना जाता है। फिर भी भारत के लोगों ने न सिर्फ इसे अपनाया बल्कि इसे अपनी पहचान का अभिन्न अंग बना लिया – यह बात सन् ’75 के आंतरिक आपातकाल के बाद के एक के बाद एक चुनावों से पूरी तरह स्थापित होगयी है। आज यह यहां की राजनीतिक व्यवस्था का नैसर्गिक अंग है। कम्युनिस्ट आंदोलन को इस सच को समझ कर आत्मसात करने में खासी देर हुई, जबकि आजादी के पहले से ही वह चुनावों में हिस्सा लेती रही है और आजादी के बाद, पहली लोकसभा चुनाव के समय से ही वह संसद में विपक्ष की एक प्रमुख ताकत रही है; आज तक माओवादी कहलाने वाले गुटों के लिये संसदीय जनतंत्र गले की हड्डी बना हुआ है।

20- पार्टी ने चुनाव लड़ें, महत्वपूर्ण जीतें हासिल की, राज्यों में सरकारें बनाई, राज्य सरकार चलाने का अपने तरीके का विश्‍व रिकार्ड कायम किया, कुछ इतने बड़े सामाजिक परिवर्तन कियें, जिन्हें क्रांतिकारी परिवर्तन कहा जा सकता है – इन सबके बावजूद इस पूरे उपक्रम के समानांतर पार्टी के सांगठनिक ढांचे में एक जन-क्रांतिकारी पार्टी की जरूरतों के अनुरूप सभी प्रकार के जरूरी परिवर्तन संभव नहीं हुए, उसे व्यापक रूप में प्रतिनिधित्वकारी नहीं बनाया जा सका। पार्टी के कार्यक्रम और संगठन के बीच का यह लगभग असमाधेय प्रतीत होने वाला अन्तर्विरोध ही उस संकट के मूल में है, जिस संकट का सामना आज पार्टी को करना पड़ रहा है और जिसका उल्लेख यहां शुरू में आधुनिक जीवन की नैतिक चुनौतियों के रूप में किया गया है।

21- भारत में जनतंत्र की रक्षा और विस्तार तथा जनतांत्रिक संस्थाओं और मर्यादाओं को कायम रखने के लिये लंबे संघर्षों के जरिये पार्टी ने भारतीय राजनीति में अपनी साख बनाई है। आजादी की लड़ाई में अपनी भूमिका के अलावा शुरू से राजनीतिक बंदियों की रिहाई, जन-जीवन की समस्याओं से जुड़ी लड़ाइयों, केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्विन्यास के जरिये भारत के संघीय ढांचे की रक्षा, धर्म-निरपेक्षता के सवाल पर वामपंथ के समझौताहीन रवैये और समाज के उत्पीड़ित और दलित जनों के लिये लगातार आवाज उठाने तथा सर्वोपरि, मजदूरों और किसानों के हितों की रक्षा के प्रष्न पर पार्टी के नेतृत्व में चलाये जाने वाले लगातार और अथक संघर्षों ने वामपंथ का अपना खास स्थान बनाया है। जिस समय 1999 में ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आया था, उसके पीछे भी वामपंथ द्वारा अर्जित जनतांत्रिक राजनीति के क्षेत्र की यही साख थी। यहां नेपाल के माओवादियों की तरह भारतीय वामपंथियों को संसद में सबसे ज्यादा सीट नहीं मिल गयी थी।

22- लेकिन समस्या तब खड़ी होती है, जब पार्टी अपनी इस साख के अनुभवों की सीखों को खुद के कार्यक्रम की समझ का अंग बनाने से चूक जाती है। ज्योति बसु को प्रधानमंत्री पद के प्रस्ताव के समय केंद्रीय कमेटी के कथित बहुमत की पुरानी कठमुल्ला समझ ने जो भूमिका अदा की, बाद में लोकसभा के अध्यक्ष पद की मर्यादा के सवाल पर भी उसकी झलक देखने को मिली। सत्ता के प्रति एक विशेष प्रकार का वैरागी और शुद्धतापूर्ण विशिष्‍टतावादी रवैया संसदीय जनतांत्रिक राजनीतिक परिवेश में वामपंथ की साख को बढ़ाता नहीं, बल्कि कम करता है। संसदीय राजनीति में शुद्ध रूप से पार्टी के निर्देशों के अनुसार देश की नीतियों को तय करने का जनादेश पाने का सपना बोल्षेविक पार्टी की तर्ज पर पूर्ण सत्ता (absolute power) हासिल करने की कठमुल्ला समझ का परिणाम है, जो निष्चित तौर पर पार्टी की जनतांत्रिक साख को हानि पहुंचाता है। यह समझ अंततोगत्वा सर्वाधिकारवाद का खतरा पैदा करती है, जनतांत्रिक चेतना के लोगों को पार्टी से अलग-थलग करती है।

23- साख की यही समस्या विश्‍व परिस्थिति के आकलन और उसमें भारत की स्थिति और भूमिका के बारे में एक कठमुल्ला सोच से भी पैदा होती है। चीन अमेरिका से ‘सर्वाधिक सुविधाप्राप्त राष्‍ट्र’ का दर्जा पाता है, नाना प्रकार के संधि-समझौता करता है, पारमाणविक संधि भी करता है, तथा अधिकांश विश्‍व मामलों में अमेरिका के साथ खड़ा भी दिखाई देता है। दुनिया की परिस्थिति का उसका अपना आकलन है। उसके इस आकलन में अनेक चरणों को देखा जा सकता है। जैसे-जैसे दुनिया बदली, चीन ने अपनी जरूरतों तथा बदलती विश्‍व परिस्थितियों के अनुसार अपनी विश्‍व रणनीति को बदला। इससे चीन को अपनी समाजवादी व्यवस्था को मजबूत करने में कितनी मदद मिली, कितनी नहीं मिली तथा चीन की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना का आज क्या स्तर है, यह बहस के इतर विषय है। इन पर निष्चित तौर पर इतिहास राय देगा। लेकिन जब हम भारत के संदर्भ में विचार करते हैं, तो भारत की विश्‍व रणनीति के बारे में हमारी सोच में किसी प्रकार का कोई क्रमिक विकास, लचीलापन या बदलाव दिखाई नहीं देता। 1989 में सोवियत संघ के पतन के साथ दुनिया की परिस्थिति में आये भारी परिवर्तन के बावजूद हमारी विदेश नीति संबंधी सोच गुट-निरपेक्ष आंदोलन के समय की परिस्थितियों में ही अटकी हुई है। इसीसे साम्राज्यवाद-विरोध भी कोरी लफ्फाजी भर बन कर रह जाता है।

24- भारत में साम्राज्यवाद-विरोध की परंपरा का इतिहास कांग्रेस दल को अलग करके कभी तैयार नहीं किया जा सकता है। इस विषय में आजादी के बाद कांग्रेस के ढुलमुलयकीन रवैये के बावजूद कोई यदि कांग्रेस को अलग रख कर साम्राज्यवाद के खिलाफ देश की सार्वभौमिकता की रक्षा की कल्पना करता हो तो यह मूर्खों के स्वर्ग में वास करने के अलावा कुछ नहीं होगा। भारत की स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता सिर्फ वामपंथियों के बूते बचाई जा सकती है, यह वस्तुनिष्‍ठ सच नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस नेतृत्व को हमेशा संदेह के घेरे में रखना एक खतरनाक खेल है। हमेशा इसी बात को दोहराते रहना कि हमारे नेता साम्राज्यवाद से लड़ेंगे नहीं, उससे समझौता कर लेंगे, जनता में एक प्रकार का निरुत्साह पैदा करता है। लोगों को इस निरुत्साह से निकालना ही कठिन हो जायेगा। हमारी लगातार चली आरही इस नकारात्मक नीति के घातक परिणाम साफ दिखाई देने लगे है। साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ छोटे से प्रभाव क्षेत्र वाले वामपंथियों के वश में नहीं है, यह भारत की सभी देशभक्त ताकतों की साझा लड़ाई है और इसमें कांग्रेस भी शामिल है। जब तक इस वास्तविकता को नहीं स्वीकारा जाता, भारत की जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना को जागृत नहीं रखा जा सकता है। इस बारे में शासक दल की पोल खोलने की कथित नीति साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्श की नीति नहीं कहलायेगी, बनिस्बत इसे इस संघर्ष से देशभक्त जनता के बड़े हिस्से को काटने की नीति कहा जा सकता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि कांग्रेस की साम्राज्यवाद के बरक्स समझौतावादी नीति की आलोचना न की जाए, लेकिन इसमें इतनी वस्तुनिष्‍ठता और संयम होना चाहिए ताकि हमारा आकलन जनता के बीच स्वीकृति पायें। लगातार यह कहना कि वे देश को अमेरिका के हाथ में बेच दे रहे है, सच से कोसों दूर है और हमारे प्रति जनता को निरुत्साहित करने के लिये काफी है। परमाणु संधि के संदर्भ में हमारा समग्र आकलन, यह प्रचार कि मनमोहन सिंह देश को बेच रहे हैं और बुश खरीद रहा है, कोरा बचकानापन था। 15वीं लोकसभा के लिए मतदान की समाप्ति के दूसरे दिन 14 मई 2009 को ‘इकोनामिक टाइम्स’ को दिये एक साक्षात्कार में कामरेड प्रकाश करात कहते हैं,”इस दौरान, भारत रूस, कजाखस्तान तथा अन्य देशों के साथ वार्ता चला सकता है। चूंकि हाइड एक्ट अमेरिका-केंद्रिक है, इसीलिये अमेरिकी कंपनियों के साथ सौदा करने के पहले इस पर फिर से काम करना होगा।” (“In the mean time, India could carry on with negotiations with say countries like Russia, Kazakhstan and others. Since Hyde Act is US-specific, we should rework that before dealing with American firms.”) का. प्रकाश का यह कथन ही इस विषय पर अपनाए गये चरम रुख के पीछे वस्तुनिष्‍ठता के अभाव को बताने के लिए काफी है।

25- किसी भी मामले में अंधता साख की समस्या पैदा करता है। अंध-अमेरिका विरोध भी। खुद अमेरिका में आज के आर्थिक संकट के चलते जो परिवर्तन हो रहे हैं, उनके प्रति पूरी तरह से आंख मूंद कर नहीं चला जा सकता है। अमेरिकी राजसत्ता के साथ ही अलग से अमेरिकी समाज पर भी नजर रखनी चाहिए। उस समाज के अन्तर्विरोधों को अनदेखा करने का कोई कारण नहीं है। अमेरिका की धरती पर मजदूर वर्ग के अधिकारों के लिये सबसे खूनी और ऐतिहासिक लड़ाइयां लड़ी गयी है। आज के अमेरिकी संकट की परिणतियों को भी पुराने ढंग के मानदंडों से शायद पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है।

26- गौर करने की बात यह है कि आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह 2007 के पहले की दुनिया से भी अलग है। आज भी अमेरिका दुनिया का सबसे शक्तिशाली सामरिक देश है, लेकिन विश्‍व अर्थ-व्यवस्था के इंजन के रूप में वह इसे और आगे खींचने में अक्षम है। पिछले अगस्त महीने से अमेरिका का जो ऋण संकट शुरू हुआ है, उससे उबरने के लिये सरकार द्वारा अब तक अरबों डालर बहा दिये जाने पर भी उस संकट का कोई किनारा दिखाई नहीं पड़ता है। वह हिमालय समान कर्ज के जिस बोझ के तले फंसा हुआ है, उससे निजात पाना उसके वश में नहीं है। आर्थिक ताकत के बल पर आंखें तरेर कर की जाने वाली नव-उदारवाद की सारी अनुशंसाएं, ‘वाशिंगटन कन्सेन्सस’ और वित्तीय विनियमन की लंबी-चौड़ी बातें अब सुनाई नहीं देती। आर्थिक सत्ता का न्यूयार्क से हट कर वाशिंगटन जाना ही नवउदारवाद के जनाजे के समान है। अमेरिकी उदारतावादी जनतंत्र को अब चिरस्थायी बता कर ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा के साथ निष्चिंत हो जाने वाला फ्रांसिस फुकुयामा फिर से सोच में पड़ गया है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव के बाद अमेरिकी ‘उदारतावादी जनतंत्र’ और उसके तमाम नवउदारवादी नुस्खों के पराभव का युग है। अमेरिकी अर्थ-व्यवस्था आज जिस प्रकार अति-उत्पादन के संकट में फंस गयी है और वहां जिस पैमाने पर राज्य के हाथ में ऋणों का संकेंद्रण हो रहा है, और जिसप्रकार अमेरिकी मजदूर वर्ग में यूनियनों के प्रति आग्रह बढ़ रहा है, उसे देखते हुए अमेरिकी राजनीति की अनंत अकल्पनीय संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता हैं। आज अमेरिका में किसी क्रांतिकारी माक्र्सवादी पार्टी की अनुपस्थिति का अर्थ यह नहीं है, वह आगे भी कभी नहीं होगी। कौन, कब और कैसे ‘साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी’ साबित हो जाए, कहना मुश्किल है। जरूरत मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के उभार की है। आज कम से कम इतना तो तय है कि संकट में फंसा अमेरिका मौजूदा विश्‍व अर्थ-व्यवस्था के भरोसेमंद सहारे की स्थिति को क्रमश: गंवा रहा है। यद्यपि आज भी अमेरिका ही आर्थिक और सामरिक, सभी दृष्टि से विश्‍व साम्राज्यवाद का सरगना है, इसमें जरा भी शक की गुंजाइश नहीं है। वही सारी दुनिया की षांतिकामी, स्वतंत्रताकामी और न्यायप्रिय जनता का प्रथम दुश्‍मन है।

27- आज के युग को आभासित यथार्थ (virtual reality) का युग भी कहा जाता है। यह बात पूरी तरह सच नहीं है, तथापि इससे पूरी तरह इंकार भी नहीं किया जा सकता है। जो दिखाई देता है, उसका गहरा संबंध जो दिखाया जा रहा है, उससे है। चोमस्की जिसे ‘निर्मित अभिमत’ ‘manufactured consent’ कहते हैं, वह इसी वर्चुअल की उपज है। ऐसे में पार्टी और माध्यम का संबंध काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। यहीं पर पुन: उस वैचारिक प्रभुत्व की स्थापना की लड़ाई सबसे जरूरी लड़ाई जान पड़ती है, जिसकी हमने ग्राम्‍शी के उल्लेख के साथ आगे चर्चा की है। इस काम के लिये पार्टी का प्रचारतंत्र, बुद्धिजीवियों की उसकी फौज, उसका सांस्कृतिक मोर्चा किसी भी दूसरे मोर्चों से कम महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन इन्हीं मोर्चों पर इधर के वर्षों में हमारी स्थिति बेहद निराशाजनक दिखाई देती है। आज हम साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र मे किसी प्रकार का विचारधारात्मक संघर्ष करते दिखाई नहीं देते हैं। बुद्धिजीवियों के साथ पार्टी के आदान-प्रदान की कोई प्रक्रिया नहीं दिखाई देती है।

28- आज की दुनिया से अधिक आर्थिक वैषम्य अतीत में कभी दिखाई नहीं दिया; इसी प्रकार आज की तरह विचारों और नैतिकता के मामले में विश्‍व-व्यापी एकसमानता पहले कभी देखने को नहीं मिली। दुनिया के स्तर पर सांस्कृतिक वैविध्य को जबर्दस्ती किसी दबाव के तले एक जैसा चपटा बना दिया जा रहा है। नव-उदारतावादी समाज के मूल्यों को हमारे गले में ठूसा जा रहा है। संचार के विकास के कारण भी राजनीति का स्वरूप इतना अधिक बदल गया है कि राजनीति के क्षेत्र को आज यदि विचारों के बाजार का क्षेत्र कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस बाजार में जनमत को तैयार करने के उपकरणों पर शासक वर्ग की इजारेदारी है। बाजार की अपनी खुद की एक नैतिकता है। मुक्त बाजार में विचार कत्ताई मुक्त नहीं है। बाजार का पंजा किसी सर्वाधिकारवादी राजसत्ता से भी कही ज्यादा फौलादी होता है, जो नागरिकों को अपने इशारों पर चलाता है। चोमस्की के शब्दों में, ”जनतंत्र के लिये प्रचार का वही महत्व है जो किसी तानाशाही निजाम के लिये दमन के यंत्र का है।” क्रांति से तात्पर्य यदि शासक वर्गों की राजसत्ता को पराजित करना है तो जनतांत्रिक व्यवस्था में शासक वर्गों के प्रचारतंत्र को पराजित करना होगा।

29- इस लिहाज से आज वस्तुगत रूप में सारी दुनिया में वामपंथ के पक्ष में सबसे अधिक सकारात्मक परिस्थितियां होने पर भी भारतीय वामपंथ की स्थिति कमजोर नजर आती है। आजादी की लड़ाई और उसके बाद के प्रलेस के जमाने में, और पुन: ’80 के दशक के बाद के जलेस के प्रारंभिक काल में भारत के बौद्धिक जगत में वामपंथियों की जो स्थिति दिखाई देती थी, आज वह नहीं है। गौर से देखने पर पता चलेगा कि संभवत: आज के भारतीय वामपंथ के साथ समग्र रूप में भारतीय बौद्धिकों का रिश्‍ता प्राय: नहीं रह गया है। वामपंथी राजनीति भी कोई सामाजिक विमर्श नहीं, कोरी तात्कालिकतओं में सिमटी हुई जान पड़ती है। वामपंथी नेतृत्व की बौध्दिक-सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई है। सांस्कृतिक विषय उसकी आखिरी प्राथमिकता में है।

30- पश्चिम बंगाल का अनुभव यह है कि पार्टी की राज्य स्तर की सर्वोच्च सांस्कृतिक उपसमिति तक की बैठकें बुद्धिजीवियों से उनकी समस्याओं अथवा सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्‍य की समस्याओं पर किसी प्रकार के संवाद के लिये नहीं होती। चुनाव या संकट की किसी दूसरी घड़ी में बहुत अल्प समय के लिये बुलाई गयी ऐसी बैठकों में निहायत औपचारिक और नौकरशाही ढंग से कविताएं और तुकबंदियां तैयार करने, नाटक अथवा कार्टून तैयार करने और कोई सभा-जुलूस संगठित करने के कुछ निर्देश भर जारी किये जाते हैं। जन-संगठनों की स्वायत्तता नाम की कोई चीज नहीं बची है। राज्य के प्रभारी नेता की सनक जनसंगठनों का नेतृत्व तय करती है। यह सब पार्टी के उसी कमांड ढांचे की परिणतियां है जिसमें किसी भी सेना की तरह ऊपर से आने वाला आदेश ही सर्वोपरि है, परस्पर विचार-विमर्श की गुंजाइश कम है।

31- जनसंगठनों के प्रति इस प्रकार के कमांड रवैये का सबसे घातक प्रभाव लेखक और सांस्कृतिक संगठनों पर पड़ा है। व्यापक लेखन और संस्कृति के जगत में पार्टी के लेखक और सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े लेखकों और संस्कृतिकर्मियों की स्थिति कमजोर हुई है। स्वभाव से प्रगतिशील, जनतांत्रिक और स्वतंत्र समझा जाने वाला लेखक इन संगठनों से जुड़ कर सबसे पहले अपनी इसी नैसर्गिक पहचान को गंवाता है। ‘प्रगतिशील’ लेखक प्रगतिशील नहीं रह जाता, संघर्ष के मैदान की कुछ बद्धमूल धारणाओं और नैतिकताओं का बंदी बन कर जीवन के अनेक मार्मिक और मानवीय पक्षों के खिलाफ खड़ग्हस्त दिखाई देने लगता है। प्रेम की रचनाएं लिखना भी इस कथित क्रांतिकारी सांस्कृतिक हलके में विचार का विषय होता है, प्रश्‍नातीत स्वाभाविकता नहीं। कलारूपों की अभिनवता, प्रयोग और सौंदर्य के प्रति सदा संशय का भाव बना रहता है। जाहिर है कि ऐसे में स्वतंत्रता तो उससे कोसों दूर दिखाई देती है। फलत: अक्सर प्रतिवाद का स्वर भी नितांत औपचारिकता बन जाता है। यह स्थिति वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों को सांस्कृतिक और लेखकीय जगत के लिये अप्रासंगिक बनाने के लिये काफी हैं।

32- जनसंगठनों के संचालन में गड़बड़ियों से पैदा होने वाली ऐसी विकृतियों पर पार्टी में चर्चा होती है, उन्हें दूर करने के प्रस्ताव भी लिये गये हैं, जन-संगठनों के बारे में पार्टी का एक पूरा दस्तावेज है, जो इन्हीं समस्याओं को संबोधित है। फिर भी, व्यवहार में उन फैसलों पर अमल के लिये पार्टी के जिस ढांचे की जरूरत है, वह दिखाई नहीं देता। जनतंत्र किसी भी सभ्य समाज का एक अभीश्ट लक्ष्य है। पार्टी में यह अनुलंघनीय होना चाहिए। जनतंत्र पर अधिकतम बल ही जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को तमाम विकृतियों से बचाने की सबसे बड़ी गारंटी बन सकता है। इसके आगे की समस्या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद को संगठन के संचालन की आभ्यांतरित, स्वाभाविक संस्कृति बनाने की समस्या है, जिसका हम पहले उल्लेख कर चुके हैं।

33- 1979 के सलकिया प्लेनम का दूसरा महत्वपूर्ण निर्णय हिंदी प्रदेशों में पार्टी को फैलाने के बारे में था, जिसकी काफी चर्चा होती है। इस विषय के ढेर सारे पहलू है। इस मामले में पार्टी की विफलता, एक जनक्रांतिकारी पार्टी के रूप में पार्टी का विकास न हो पाने का प्रमुख कारण है। वामपंथी आंदोलन के लिये हिंदी भाषी क्षेत्र आज तक अंधों का हाथी बना हुआ है। इधर स्थिति और ज्यादा खराब हुई है। वस्तुत: आज के वामपंथ से हिंदी निष्‍कासित है। वामपंथी राजनीतिक नेतृत्व हिंदी के बुद्धिजीवियों से शायद ही कभी कोई संवाद करता है। हद तब हो जाती है जब डा. अशोक मित्र पार्टी के मुखपत्र में हिंदी भाषा को ही जनसंघ की भाषा कह देते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदी अखबार अनुदित सामग्रियों से अटे होते हैं। ये न जन-संघर्षों को प्रेरणा दे सकते हैं, न किसी अन्य प्रगतिशील बौद्धिक विमर्श के मंच बन सकते है।

34- पार्टी के मौजूदा ढांचे की आलोचना करने का अर्थ यह नहीं है कि सामाजिक परिवर्तन के लिये किसी राजनीतिक हथियार की जरूरत से ही इंकार करना। उल्टे इतिहास इस बात का गवाह है कि पूंजीवाद-विरोधी कोई भी आंदोलन या शक्ति स्वत:स्फूर्त ढंग से नहीं पैदा होते। उन्हें अलग से बनाने की जरूरत होती है। जरूरत ऐसे राजनीतिक दल के विकास की है जो 21वीं सदी के समाजवाद की स्थापना की लड़ाई को नेतृत्व दे सके। आज की दुनिया 50 साल पहले की दुनिया से काफी अलग है। यह सोवियत संघ और पूर्वी योरप के देशों में समाजवाद के पराभव और अमेरिका के दुनिया के सबसे बड़े सामरिक शक्ति के देश के रूप में उभर कर सामने आने वाले समय की दुनिया है, जब अमेरिका का बराबरी में मुकाबला करने वाली कोई ताकत नहीं दिखाई देती है। यह वह दौर है जिसमें वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति की अग्रगति ने उत्पादन की प्रक्रिया तथा उसकी प्रकृति को भारी प्रभावित किया है। यह आर्थिक और सांस्कृतिक वैश्‍वीकरण तथा जनसंचार माध्यमों की बढ़ती हुई शक्ति का दौर है। यह वह दुनिया है कि जिसमें पूंजीवाद नवउदारवाद की निष्‍ठुरता की ओट में तकनीकी अग्रगति का अपने लाभ के लिये प्रयोग कर रहा है, निर्दयता से प्रकृति का नाश किया जा रहा है और विभिन्न सामाजिक समूहों तथा पूरे के पूरे राष्‍ट्रों को सामूहिक वंचना का शिकार बना रहा है।

35- ऐसे में वामपंथ के पुनर्निर्माण की जरूरत हैं। कहा जाए तो फौरी जरूरत है। राजनीति संभावनाओं की कला नहीं है। क्रांतिकारियों के लिये राजनीति असंभव को संभव बनाने की कला है। यह काम सिर्फ आत्मगत आग्रह से नहीं, मौजूदा शक्ति संतुलन को बदलने की यथार्थपरक दृष्टि और कार्रवाई से संभव है। तभी जो आज असंभव जान पड़ता है, वह कल संभव हो पायेगा। इसके लिये जरूरी है कि हम आज की जरूरतों के अनुरूप अपने राजनीतिक उपकरणों को तैयार करें। यह पार्टी के बोल्षेविक ढांचे के साथ अनालोचकीय तरीके से चिपके रह कर हासिल नहीं किया जा सकता है। इस ढांचे में निहित जो सैद्धांतिक कमजोरियां है, उनसे मुक्ति पाना ही होगा। पार्टी को सभी स्तरों पर अधिक जनतांत्रिक और संवादी बनाना ही होगा।

36- अपनी तमाम राजनीतिक और सांगठनिक कमजोरियों का कुल परिणाम आज पार्टी के एक ऐसे नौकरशाही स्वरूप के रूप में सामने आया है जिसमें आने वाले समय में काडर के रूप में चयन के लिये हमारे सामने अच्छों में श्रेष्‍ठ नहीं बल्कि बुरों में निकृष्‍ट के अलावा और कुछ नहीं रह जायेगा। एक नौकरशाही ढांचे में सिद्धांतविहीन, मानवीय संवेदनाओं से षून्य तिकड़मों में लिप्त होकर ही कोई व्यक्ति महत्व का स्थान हासिल कर सकता है। इन तिकड़मों में लचर और मिडियोकर चरित्र के लोग माहिर होते हैं। इसलिये सब कुछ यदि पूर्व की भांति ही चलता रहा तो पार्टी का नेतृत्व इन लचर और मिडियोकर लोगों से ही भरा होगा, दूसरा कोई विकल्प ही नहीं रह जायेगा। ऐसा नेतृत्व नीतियों के मामले में विसर्जनवादी और संगठन के मामले में नौकरशाही, कमांड सिद्धांत का हामी होगा। इसके लक्षण इधर साफ दिखाई दे रहे हैं।

जनता को विचारधारा से नहीं, विकास से मतलब

नीरज कुमार दुबे

राष्ट्रीय राजनीति में तीसरे मोर्चे की अगुवाई करती रही मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पिछले माह तक तीन राज्यों में सत्ता के बलबूते राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्यों और मुद्दों को प्रभावित करने की क्षमता रखती थी लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसे दो राज्यों से हाथ धोना पड़ा और वह अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर में पहुंच गई। यह सदमा माकपा को लंबे समय तक सालता रहेगा क्योंकि हाल फिलहाल कोई ऐसा मौका नहीं है जब उसे उबरने का मौका मिल सके। पिछले 34 वर्षों से वाम मोर्चा के किले के रूप में विख्यात पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की आंधी में वाम किले का भरभरा कर ढहना साबित करता है कि जनता में उनके खिलाफ कितना आक्रोश व्याप्त था। इस बात को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में माकपा को सीटों की संख्या के मामले में सिर्फ तृणमूल कांग्रेस ही नहीं बल्कि उसकी सहयोगी कांग्रेस ने भी पीछे छोड़ दिया है।

दो राज्यों में माकपा की पराजय से हालांकि यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि वाम विचारधारा के अंत की शुरुआत हो चुकी है लेकिन यदि पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव और पिछले कुछ चुनावों के परिणामों पर गौर किया जाये तो यही सार निकलता है कि जनता का आज किसी खास विचारधारा के प्रति झुकाव नहीं रह गया है वह सिर्फ काम को पसंद करती है और जो भी दल काम करता है उसे वह सिर आंखों पर बैठाती है। यदि हम खुद माकपा महासचिव प्रकाश करात के पिछले साल कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में दिए गए संबोधन, जिसमें उन्होंने कहा था कि वामपंथ आधुनिक परिवेश में प्रासंगिक नहीं रहा और उसके सिद्धांत वक्त की कसौटी पर खरे उतर नहीं पा रहे हैं तथा विचारधारा के स्तर पर भारत में वामपंथी पार्टियां अभी भी 1940 के दशक में ही हैं, पर गौर करें तो साफ प्रतीत होता है कि अपनी पार्टी के लिए ‘चाणक्य’ माने जाने वाले करात शायद भविष्य पहले देख चुके थे लेकिन फिर भी वह पार्टी का भविष्य बदल नहीं पाए।

माकपा ने हालांकि चुनावी हार के कारणों के विश्लेषण का काम नतीजे आने के तुरंत बाद ही शुरू कर दिया था लेकिन यह जगजाहिर है कि इसके लिए पार्टी महासचिव प्रकाश करात सर्वाधिक जिम्मेदार हैं। पिछले साल हुए विकीलीक्स खुलासों में अमेरिकी राजनयिक के 7 नवंबर 2007 के केबल संदशों का हवाला देते हुए अमेरिका की नजर में मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात को ‘जोर जबरदस्ती करके काम कराने वाला’ और ‘धन उगाही करने वाला नेता’ बताया गया था तो माकपा की भौहें तन गई थीं लेकिन उसे शायद तब समझ नहीं आया कि उन्होंने हरकिशन सिंह सुरजीत की जगह जिसको महासचिव बनाया है वह गलती दर गलती किये जा रहा है। यदि अमेरिका से असैन्य परमाणु करार के दौरान माकपा ने तल्खी नहीं दिखाई होती, कांग्रेस से संबंध नहीं बिगाड़े होते, सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निष्कासित नहीं किया होता और पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनावों में हार के बाद यदि वहां गलतियां सुधारने के प्रयास तेजी से किये होते तो आज माकपा शायद इतनी कमजोर नहीं होती।

पार्टी की हार के लिए प्रकाश करात की सर्वाधिक जिम्मेदारी सिर्फ इसलिए नहीं है कि वह पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे बल्कि इसलिए भी है कि उन्होंने हर निर्णय पार्टी पर कथित रूप से थोपा भी। इसके अलावा उन्होंने पार्टी में गुटबाजी को भी हवा दी। करात की पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य और केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन से कभी नहीं बनी। केरल में तो करात ने राज्य पार्टी महासचिव पी. विजयन को अच्युतानंदन के खिलाफ माहौल बनाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से हवा भी दी। जब अच्युतानंदन ने विजयन के आरोपों का जवाब दिया तो उन्हें पोलित ब्यूरो से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। करात की चलती तो वह अच्युतानंदन को पिछली बार ही नहीं बल्कि इस बार भी विधानसभा का टिकट नहीं देते जबकि अच्युतानंदन की साफ छवि और उनके द्वारा किये गये कार्यों की बदौलत ही माकपा केरल में बुरी हार से बच पाई। वरिष्ठ नेता ज्योति बसु, जिन्होंने पश्चिम बंगाल को माकपा के गढ़ के रूप में निर्मित किया था उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके राज्य में पार्टी की कभी ऐसी बुरी गति भी होगी, अच्छा हुआ कि उन्हें यह दिन अपने जीवनकाल में देखने को नहीं मिला।

वर्तमान में माकपा की सबसे बड़ी कमजोरी बन चुके करात को दंभी नेता माना जाता है। यदि ऐसा है तो आखिर उन्हें दंभ किस बात का है? सबने देखा कि संप्रग-1 सरकार के दौरान जब वामदल उसके सहयोगी थे तो किसी विषय पर मनमुटाव होने पर करात प्रधानमंत्री या सोनिया गांधी से ही बात करना पसंद करते थे ना कि उनके किसी प्रतिनिधि से। देखा जाए तो करात के पार्टी की कमान संभालने के बाद से लगातार माकपा का आधार घटा ही है। उत्तार भारत में पार्टी पहले से ही कमजोर थी और यह कमजोरी बरकरार रही। केरल, पश्चिम बंगाल में पार्टी पंचायत चुनाव हों या विधानसभा उपचुनाव, निकाय चुनाव हों या लोकसभा चुनाव, सभी में बुरी तरह हारी और अब विधानसभा चुनावों में हार के बाद पार्टी को अगले वर्ष राज्यसभा चुनावों के दौरान भी झटका लगेगा जब उसके कई सदस्य रिटायर होंगे और उनके पुनर्निर्वाचन के कोई आसार नहीं हैं। पार्टी के कई ऐसे नेता हैं जिन्हें थिंक टैंक माना जाता है और वह दिल्ली में पार्टी के राज्यसभा सांसदों के यहां ही डेरा जमाए हुए हैं अब उन्हें भी नया ठिकाना ढूंढना होगा। यही नहीं सीताराम केसरी की राज्यसभा सदस्यता समाप्त होते ही पार्टी का 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति में से प्रतिनिधित्व भी खत्म हो जाएगा।

चुनावी हार के बाद अब माकपा यह भले कह रही हो कि राज्य की जनता ने परिवर्तन के लिए वोट दिया और इसका फायदा तृणमूल नेता ममता बनर्जी को मिला। लेकिन उन्हें यह बताना चाहिए कि राज्य की जनता को आखिरकार परिवर्तन की जरूरत क्यों महसूस हुई? केंद्र की ओर से भरपूर मदद के बावजूद उसका फायदा सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं को ही दिया गया। राज्य के कई इलाके आज भी बदहाली के हालात से गुजर रहे हैं, हजारों गांवों में बिजली नहीं है, रोजगार का अभाव है, खुद सत्तारुढ़ पार्टी की ओर से समय समय पर आहूत हड़तालों और बंद के चलते उद्योगों का विश्वास डिगा हुआ है, स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है, कानून व्यवस्था के मोर्चे पर केंद्रीय गृह मंत्रालय राज्य में सबसे खराब हालात की बात करता रहा है, माओवादियों पर पार पाने में सरकार की विफलता रही, दशकों पुराने गोरखालैंड मुद्दे का हल नहीं हो पाया, सिर्फ कोलकाता की चकाचौंध और बरसों पुरानी मेट्रो की बदौलत ही आखिरकार कब तक राइटर्स बिल्डिंग पर लाल रंग का कब्जा रहता। जनता को परिवर्तन तो करना ही था उसने किया और उस उसी की प्रतिध्वनि अब माकपा के कानों में गूंज रही है।

लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि माकपा नेतृत्व अभी भी वास्तविकता से दूर भाग रहा है क्योंकि रस्सी जल गई पर बल नहीं गये, कहावत एक बार फिर तब चरितार्थ हुई जब माकपा ने यह कहा कि हमारी हार हुई है, लेकिन यह कहना गलत है कि हमारा सफाया हो गया है। एक ही राज्य में 173 सीटों के नुकसान को यदि सफाया नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए यह बात माकपा नेतृत्व को बतानी चाहिए। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सही ही कहा है कि माकपा का प्रदर्शन इसलिए खराब रहा क्योंकि पश्चिम बंगाल में वह लोगों से कट गई थी और लोगों का मूड भांपने में विफल रही। अब भाकपा महासचिव एबी वर्धन भी कह रहे हैं कि वाम नेताओं को अपना रवैया बदलना चाहिए नहीं तो राजनीति से बाहर होने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह वही वर्धन हैं जोकि परमाणु करार के समय कांग्रेस पर दबाव बनाते हुए संप्रग सरकार की कुछ घंटों की ही गारंटी दे रहे थे। उम्मीद की जानी चाहिए कि वाम नेता इस हार से सबक लेंगे और अपने बड़बोलेपन पर रोक लगाएंगे।

यकीनन सिंगूर और नंदीग्राम पश्चिम बंगाल सरकार की दो बड़ी गलतियां थीं जिन्हें यदि समय पर ठीक कर लिया गया होता तो पार्टी की ऐसी स्थिति नहीं होती। लेकिन माकपा बंगाल को अपने अभेध गढ़ के रूप में मानती थी और यह मानकर चलती थी कि कोई इसे भेद नहीं सकता लेकिन पिछले वर्ष निकाय चुनावों और उससे पहले लोकसभा चुनावों में माकपा नीत वाम मोर्चा की हार के बाद यदि पार्टी नेतृत्व चेत जाता तो राजनीतिक रूप से इस बड़े नुकसान से बच सकता था। माकपा नेतृत्व पिछले कुछ समय में मिली हर हार के बाद उसकी समीक्षा का दावा करता रहा लेकिन समीक्षा यदि सही ढंग से की ही नहीं गई। लोकसभा चुनावों में हार के बाद जब माकपा पोलित ब्यूरो की बैठक हुई थी तब भी उसमें सिर्फ खानापूर्ति ही की गई और पार्टी की ओर से बयान दिया गया कि पार्टी की सफलता और पराजय, दोनों के ही लिए सामूहिक जवाबदेही के सिद्धांत को मानते हुए प्रकाश करात को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता और वह पद पर बने रहेंगे।

वामपंथियों को सिद्धांतवादी मानने वालों के लिए वह झटके का ही समय था जब उन्होंने देखा कि भ्रष्टाचार को कांग्रेस की नीति का हिस्सा बताते वाले और परिवारवाद मुद्दे पर कांग्रेस सहित अन्य दलों पर प्रहार करते रहे करात को जयललिता से गठबंधन के समय भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं सालता और दूसरे दलों पर परिवारवाद का आरोप लगाते समय क्यों वह अपने गिरेबां में नहीं झांकते। सब जानते हैं कि वह जहां पार्टी महासचिव हैं वहीं उनकी पत्नी वृंदा करात राज्यसभा की सदस्य। यह सही है कि वृंदा की खुद की अपनी पहचान है लेकिन वामपंथी तो शुरू से ही त्याग की बात करते रहे हैं ऐसे में क्या करात अपनी पत्नी का नाम राज्यसभा उम्मीदवार के रूप में सामने आने पर दूसरा नाम नहीं सुझा सकते थे।

बहरहाल, बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान ममता बनर्जी को ‘दिल्ली में गूंगी गुड़िया’ कहने वाले प्रकाश करात चुनाव परिणाम के दिन खुद दिल्ली में रह कर भी गूंगे बने रहे जबकि वह कई बार हर छोटे बड़े मसले पर संवाददाताओं से खुद बातचीत करते रहे हैं। साफ है कि उन्हें मीडिया से बातचीत से पहले कई उन कथित तथ्यों को एकत्रित करना है जोकि उनके लिए मुंह छिपाने में मददगार हो सकें।

यह माकपा की हार है, वामपंथ की नहीं

राजीव रंजन प्रसाद

1) सचमुच अभी तो बदलाव हुआ नहीं है, बदलाव की संभावना उभरी है। इस उभार की अगली परिणति केन्द्र से यूपीए शासन का सत्ताच्यूत होना है। और भी कई जगह जो कथित विकास के डंके तले सरकारी रकम डकार रहे हैं; आमूल बदलाव वहाँ भी होंगे। जिन साम्राज्ञियों के यहाँ आदमकद मुर्तियाँ जनता के शोषण की शर्तों पर आकार ले रही हैं; वे ढूह में तब्दील होंगी।

2) ओसामा के अंत की तरह वामपंथी विचारधारा के अंत की भविष्यवाणी करने वाले नवप्रबुद्धों की टोली(भारत में मार्क्सवादियों ने खुद को काफी पहले से ही प्रबुद्ध घोषित कर रखा है) क्या गाँधी और लोहिया के विचारधारा को ठीक-ठीक समझती है? अगर नहीं तो वैक्लपिक सोच और राजनीति का बवंडर खड़ा करने के पीछे उसकी असली मंशा और निहितार्थ क्या है? यह माकपा की हार है, वामपंथ की नहीं।

3) मुझे स्मरण आ रहा है लोकप्रिय पुस्तक बालमुकुन्द गुप्त लिखित ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ का वह अंश जो ‘भारतमित्र’ के 30 मार्च 1907 ई0 में छपा था-‘जो जेल, चोर, डकैतों, दुष्ट, हत्यारों के लिए है जब उसमें सज्जनसाधु, शिक्षित, स्वदेश और स्वजाति के शुभचिन्तकों के चरण-स्पर्श हो तो समझना चाहिए उस स्थान के दिन फिरे।’ विडम्बना है कि आज देश की केन्द्र एवं अधिकांश प्रांतीय शासन-व्यवस्था जो कि सज्जनसाधु, शिक्षित, स्वदेश और स्वजाति के शुभचिन्तकों के लिए है; वह स्वार्थी, भ्रष्ट, बाहुबली, दागी, अपराधी और दुष्ट प्रकृति के राजनीतिज्ञों से अटी पड़ी है जिसका शायद ही दिन फिरे।

4) महानुभाव राजनीतिज्ञ भ्रम पाल सकते हैं, किन्तु जनता को अब बरगलाना या भरमाना आसान नहीं रहा। मुँहनोचवा मीडिया जो इस घड़ी पश्चिम बंगाल में ममतामयी राग अलाप रहा है; जल्द ही उसकी भौंहे तनी हुई दिखेंगी। मीन-मेख और आलोचना के नए प्रसंग शुरू होंगे। वाम पार्टी इस हार से उबरे तो ठीक;

अन्यथा भविष्य में जनता फिर उसे उबटन और राजतिलक लगा राज्याभिषेक करेगी; संभावना अतिक्षीण है। अतएव, नए सिरे से बहस-मुबाहिसे की सख़्त जरूरत है।

5) वह दिन लद गए जब ‘मार्क्स-मैनिफेस्टो’ और रूसी साहित्य जनता के भीतर सर्वहारा और बुर्जआ वर्ग को अलगाने में उत्प्रेरक का काम करती थी। जनता अपनी शर्तों पर विकास चाहती है। उसे नेहरु के देवालयों से मोहभंग हो गया है। उसके भीतर अपनी धरती-अपने आकाश के लिए जबर्दस्त लगाव पैदा हो चुका है। सेज की नवउदारवादी बसावट से उसे घृणा है। सिन्गूर, नन्दीग्राम और लालगढ़ माओवाद का अड्डा नहीं; बल्कि अपने हक के लिए हूज्जत करने वाले लोगों की जागरूक आबादी है।

6) पश्चिम बंगाल में पलते ताजा स्वप्न जिसके पालने में तृणमूल सरकार झुल रही है; को यही मीडिया यूटोपिया मान मातमी-धुन बजाना प्रसारित कर देगी।

क्योंकि यह अभिजन मीडिया है। एक ऐसे वर्ग की मीडिया जो बात तो गरीबों की करती है, पर गरीब नहीं है। वह घटना-क्षेत्र पर टीआरपी भुनाऊ राजनीतिज्ञ या असरदार चेहरे के साथ पहुँचती है, पहले हरगिज नहीं। चैनलों के शब्दवाचन से जनता के तन जलते और सिहरते अवश्य हैं, लेकिन मुक्ति नहीं मिलती है।

चैनल वाले कितने भी बेकार क्यों न हों, बेगार तो किसी कीमत पर नहीं हो सकते हैं। अतः पश्चिम बंगाल में सत्ता पलटी तो यह चालाक और हमलावर मीडिया मिशन-2012 के लिए कूच करेगा; लेकिन रूकेगा-थमेगा नहीं।

7) और भी बहुत कुछ…, लेकिन फिलहाल मैं दूसरों की सुनूं; उनका मुँह कुछ कहने के लिए खुल रहा है। जी, बोलिए जनाब!

परिचर्चा : पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम

दलगत स्थिति

राजनीतिक दल ——2006——-2011

तृणमूल कांग्रेस——-30———–184

कांग्रेस—————- 24———- 42

माकपा—————175———- 41

  • स्‍वतंत्र भारत में वामपंथ इन दिनों सबसे कमजोर स्थिति में है।
  • तीन राज्‍यों में प्रभावशाली वामपंथ पश्चिम बंगाल और केरल दोनों जगह से सत्ताच्‍युत होकर केवल त्रिपुरा में ही सत्तासीन है।
  • 13 मई 2011 को आए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम ने तो भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी है। राज्‍य में वामपंथ का लालकिला ढह गया।
  • मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य समेत उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश मंत्रियों को हार का मुंह देखना पड़ा।
  • ‘इतिहास का अंत, उपन्यास का अंत, सभ्यता का अंत, विचारधारा का अंत’ की तर्ज पर यहां तक कहा जा रहा है कि इसे भारत में वामपंथ के अंत के तौर पर देखा जाना चाहिए।
  • वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल में कृषि सुधार, भूमि सुधार, सांप्रदायिक दंगा मुक्‍त राज्‍य के बूते 34 साल तक राज किया। लेकिन उनके शासन में राज्‍य में उद्योग व्‍यवस्‍था चौपट हो गई, कानून व्‍यवस्‍था ध्‍वस्‍त हो गया, राजनीतिक हिंसा और गुंडागर्दी चरम पर रही।
  • तृणमूल कांग्रेस का गठन 1 जनवरी 1998 को हुआ था और माकपा का गठन 1964 में। ममता बनर्जी के नेतृत्‍व में एक तेरह वर्षीय पार्टी ने माकपा को हरा दिया। सादगी और अपने संघर्षशील तेवर की बदौलत ममता ने यह करिश्‍मा कर दिखाया।
  • सिंगुर और नंदीग्राम में किसानों पर तथाकथित मजदूरों की वामपंथी सरकार ने मजदूरों पर ही जुल्‍म ढाए यहीं से जनता ने वामपंथ से मुंह फेरना प्रारंभ कर दिया। उसके बाद पंचायत चुनाव, लोकसभा चुनाव और बाद में विधानसभा चुनाव में वामपंथियों की करारी हार हुई।

कुछ सवाल

  • क्‍या यह वामपंथियों की तानाशाही राजनीति के मुकाबले लोकतंत्र की जीत है।
  • क्‍या वास्‍तव में भारतीय राजनीति में वामपंथ अप्रासंगिक हो गया है।
  • क्‍या वामपंथियों को कार्ल मार्क्‍स प्रणीत सिद्धांत का ही राग अलापना चाहिए या फिर उसमें समयानुकूल संशोधन करते रहना चाहिए।
  • यह वामपंथ की हार है या माकपा की हार।
  • भारत में धर्म, जाति जैसे अनेक संवेदनशील मसलों पर वामपंथियों का ढुलमुल रवैया रहा। कुछ दिनों पहले कोच्चि में माकपा की बैठक में नमाज के लिए मध्यांतर की घोषणा कर दी गई। मुसलिम कार्यकर्ताओं को रोजा तोड़ने के लिए पार्टी की तरफ से नाश्ता परोसा गया। वहीं, याद करिए जब सन् 2006 में वरिष्ठ माकपा नेता और पश्चिम बंगाल के खेल व परिवहन मंत्री सुभाष चक्रवर्ती ने बीरभूम जिले के मशहूर तारापीठ मंदिर में पूजा-अर्चना की और मंदिर से बाहर आकर कहा, ‘मैं पहले हिन्दू हूं, फिर ब्राह्मण और तब कम्युनिस्ट’ तब इस घटना के बाद, हिन्दू धर्म के विरुद्ध हमेशा षड्यंत्र रचने वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) के अन्दर खलबली मच गई।
  • क्‍या मार्क्‍सवाद पर नए सिरे से बहस होना चाहिए।
  • क्‍या विचारधारा आधारित राजनीति का समय गया और अब विकास आधारित राजनीति का जमाना आ गया है।
  • मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी नक्‍सलियों से गठजोड़ करके सत्ता की कुर्सी तक पहुंची हैं, इसके दूरगामी प्रभाव क्‍या होंगे?

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव परिणाम एवं भारत में वामपंथी राजनीति पर आपकी क्‍या टिप्‍पणी है। कृपया अपने विचार से इस मुद्दे पर बहस को आगे बढ़ाएं।

भारतीय राजनीति के विचित्र चरित्र

अवनीश सिंह

भारतीय राजनीति के तीन किरदार मुझे भुलाये नहीं भूलते, या यूँ कहिये मैं उन्हें भुलाना नहीं चाहता। इनमें पहला नाम राजद सुप्रीमो लालू का आता है…जो एक दशक पहले अपनी बेबाक बयानबाज़ी के लिए मिडिया से लेकर आमजन तक काफी चर्चा में रहते थे। सुनने में आ रहा है की आजकल उनके राजनीतिक तबेले में रावडी देवी के अलावां कोई नहीं बचा है। इस बीच राजनीति में पुनर्वापसी को लेकर लालू ने जय-बीरू के अंदाज़ में पासवान के साथ शोले का रीमेक भी बनाने की कोशिश की जो बुरी फ्लाप हो गयी। दोनों नेताओं ने कहा था कि बिहार में लालू पासवान की आंधी बहने लगी है मगर नीतीश-मोदी के तूफान में वे दोनों ऐसे पटकाय गये कि अब मुंह लटकायें अपने-अपने घरों में बंद हैं।

इस क्रम में दूसरे नंबर पर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय का नाम है। जो इटलीपरस्त महारानी के प्रति अपनी वफादारी का सबूत देने के लिए तलवे चाटते हुए कुत्तों को भी शर्मसार कर रहें हैं। महोदय की बेबाकी और खोजी खुलासों ने विक्किलिक्स के संथापक जुलियन अन्साज़े को भी पीछे छोड़ दिया है। आजकल अपनी बयानबाज़ी के कारण इन्हें दिग्गिलिक्स के भी नाम से जाना जा रहा है। हिंदुत्व को गरियाना हो या भाजपा को लतियाना हो दोनों काम आजकल कांग्रेस ने इन्हीं के मजबूत कन्धों पर सौंपा है। इनकी धर्मनिरपेक्ष छवि ऐसी है कि बटाला हॉउस इनकाउन्टर से लेकर ओसामा के मरने तक इनकी दरियादिली मिशाल बन चुकी है। वैसे दिग्विजय के संदर्भ में इस बात की भी खूब चर्चा चलती है कि मुस्लिम मतों को बटोरने के लिए सोनिया गांधी ने उनको मुक्त-हस्त कर दिया है। हो सकता है कि इन्हें अपनी मुस्लिमपरस्ती के कारण भविष्य में लाहौर से सांसद बनने का आफर भी मिल जाये।

तीसरे नंबर पर हमारे पडोसी और हालत के मारे अमर सिंह हैं। सड़क छाप शायरी और अमर प्रोडक्शन की सीडियों से इन्होंने मिडिया में बहुत नाम कमाया है। समाजवादी पार्टी से लतियाकर निकले गए अमर बाबू हमेशा किसी न किसी प्रसंगवश चर्चा में बने रहते हैं। यहाँ तक की वो खुद अपने उपर दलाल का ठप्पा लगवाना पसंद करते हैं। राजनीति से लेकर कार्पोरेट तक सोनिया से लेकर सिने जगत की महान हस्तियों के लिए इन्होंने लम्बे समय तक दलाली का काम बड़ी ही ईमानदारी से निभाया है। इसी महानुभाव ने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के सिविल सर्वेंट भूषण परिवार की सीडी लांच कर अन्ना हजारे की मुहिम की हवा निकला, जिसके लिए देश की जनता इनकी आभारी है। अपनी करतूतों की वज़ह से अमर सिंह लोकतंत्र मे गंदगी फैलाने वाले इतिहास के पन्नो मे “अमर” पात्र के रूप मे मौज़ूद रहेंगे, यह तो निशित रूप से तय है।

अब होनी को कौन टाल सकता है। बेचारे अमर बाबू आजकल अपने टेप को लेकर चर्चा में बने हैं। वैसे, एक तरह से अमर सिंह इस तरह की सिचुएशन पसंद भी करते हैं, जहां कुछ विवाद हो और बयानबाजी जम कर हो। इस विवादास्पद टेप में अमर सिंह और बिपाशा नाम की एक महिला से बातचीत का रिकॉर्ड है। लोग यह मान रहे हैं यह आवाज 9 साल की दोस्ती के बाद जॉन अब्राहम से अलग हुई 32 साल की बॉलिवुड ऐक्ट्रेस बिपाशा बसु की है।

वहीं, अमर सिंह कह रहे हैं, जहां तक सफाई देने की बात है, वह मैं अपनी बीवी के अलावा और किसी को सफाई नहीं दूंगा। कहने को तो अमर सिंह सांसद है लेकिन इस मामले में जबाब सिर्फ पत्नी को देंगे…जनता गयी तेल लेने। अमर सिंह कि पत्नी इस दलाल की बीबी होने के गम में पहले ही रोती थी, अब तो सौतन बिपासा भी आ गई। सच कहा जाये तो अमर सिंह जैसा होनहार दलाल सौ सदी में एक बार पैदा होता है। अमर सिंह यह तो मानते हैं कि टेप में जो मेल-वॉयस है, वह उन्हीं की है, जब आवाज़ उनकी है तो जाहिर है दोनों टांगों के बीच के दर्द की कशिश भी उन्हीं की होगी। पर उनका कहना है कि मैं कोई साधु नहीं हूं, पर शैतान भी नहीं हूं, जैसा कि मुझे पेश किया जा रहा है। ये तो पता नही की आप संत है या शैतान लेकिन दलाल ज़रूर है।

यदि इन नेताओं का यही रवैया रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनता उनको एक स्वर से मानसिक दिवालिया घोषित कर देगी।

भाजपा का मुखौटा एक, कांग्रेस के चेहरे दो

लिमटी खरे

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को भाजपा का मुखौटा कहा गया था। इसके बाद भाजपा में किसी तरह का चेहरा सामने नहीं आया। भाजपा का चाल चरित्र और चेहरा भले ही बदल गया हो पर आज भी भाजपा का नाम आते ही जेहन में अटल बिहारी बाजपेयी का चेहरा आ जाता है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में वर्तमान वजीरे आजम डॉक्टर मन मोहन सिंह के न जाने कितने चेहरे सामने आते जा रहे हैं। कभी वे खुद को मजबूर बताकर अपनी खाल बचाने की कोशिश करते हैं तो कभी भ्रष्टाचार के मामले मंे शतुरमुर्ग के मानिंद अपनी गर्दन रेत में गड़ाने का उपक्रम करते नजर आते हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ईमानदार छवि के धनी मन मोहन सिंह को ध्यान में रखकर जनता ने कांग्रेस को जिताया किन्तु बाद में जनता को समझ में आने लगा कि जिसे उन्होंने चुना है वह लोकतंत्र का सबसे बड़ा लाचार लुटेरा है। मनमोहन के सहयोगी अगर लूटपाट मचा रहे हैं और वे चुप हैं इसका तात्पर्य है कि ‘अली बाबा‘ ने अपने ‘चालीस चोरों‘ को लूट खसोट की छूट मौन सहमति के रूप में दी है।

 

वाकई डॉ. मनमोहन सिंह ने इतिहास रच दिया है। आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कांग्रेस आजादी के उपरांत नेहरू गांधी परिवार की प्राईवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गई है। आजादी के बाद नेहरू गांधी परिवार के पंडित जवाहर लाल नेहरू, प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने देश के सबसे ताकतवर पद वजीरे आजम को संभाला। गैर कांग्रेसी सरकार में अटल बिहारी बाजपेयी ने ही पांच साल से ज्यादा समय तक लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित किया है। कांग्रेस में गैर नेहरू गांधी परिवार में डाॅक्टर साहेब सातवीं मर्तबा स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से देश को संबोधित करने का सौभाग्य पाएंगे।

दूसरी बार जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तब से पहली मर्तबा से अधिक कमजोर दिखाई पड़ने लगे। इसका कारण कांग्रेस के सत्ता और शक्ति के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ (श्रीमति सोनिया गांधी का सरकारी आवास) के सलाहकारों में कुछ मंझे और घाघ किस्म के राजनेताओं का जुड़ना ही था। अपने मन में 7, रेसकोर्स (प्रधानमंत्री का ईयरमार्क आवास) को आशियाना बनाने की चाहत पाले कांग्रेस के राजनैतिक चाणक्यों ने सोनिया गांधी को मनमोहन के खिलाफ तबियत से भरमाया और भ्रष्टों को लूट खसोट के लिए उकसाया।

कांग्रेस के बीसवीं सदी के अंतिम दशकों के चाणक्य स्व.अर्जुन सिंह ने इन हालातों को बेहतर भांपा और फिर उनके मौन ने कांग्रेस नेतृत्व की नींद उड़ा दी। इसी बीच एक के बाद एक लाखों करोड़ रूपयों के घपले और घोटालों की गूंज होने लगी। क्या टू जी स्पेक्ट्रम घोटाल, क्या कामन वेल्थ घोटाला, क्या एस.बेण्ड, क्या आदर्श सोसायटी, क्या सीवीसी पद पर थामस की नियुक्ति, हर मामले में कांगे्रसनीत केंद्र सरकार को मुंह की ही खानी पड़ी है। यहां तक कि देश की शीर्ष अदालत ने दो दो मर्तबा टू जी स्पेक्ट्रम मामले में वजीरे आजम की भूमिका पर ही गंभीर सवाल खड़े किए थे। अदालत का यह कहना कि इतने बड़े घोटाले के बाद आदिमत्थू राजा आखिर मंत्री पद पर क्यों बने हुए हैं? काग्रेस को गिरेबान में झाकने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है। काले धन के मामले में भी सरकार को बार बार अदालत द्वारा आड़े हाथों लेते हुए फटकार लगाई है।

जब पानी सर से उपर होता दिखा तो वजीरे आजम डाॅक्टर मनमोहन सिंह ने देश के चुनिंदा टीवी समाचार चेनल्स के संपादकों को बुलाकर अपना स्पष्टीकरण दिया और खुद को निरीह, मजबूर और निर्दोष बताने का प्रयास किया। समूचे देश ने उस वक्त मनमोहन सिंह को पानी पी पी कर कोसा कि अगर आप मजबूर हैं तो फिर कुर्सी से चिपके रहने की क्या मजबूरी है। अगर आप इस सब भ्रष्टाचार घपले घोटाले में शामिल नहीं हैं तो आप अपने पद से त्यागपत्र क्यों नहीं दे देते? मतलब साफ है कि आप भी ‘‘कथड़ी (एक तरह का फटे वस्त्रों से बना दुशाला) ओढ़कर घी पीने‘‘ में विश्वास रखते हैं। अगर आप यह कहने का साहस जुटा पा रहे हैं कि आप मजबूर हैं तो सवा करोड़ भारतवासियों को यह जानने का पूरा हक है कि आखिर यह मजबूरी क्या है और यह आप भारत के हर नागरिक की किस कीमत पर चुका रहे हैं।

हाल ही में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के दो साल पूरे हुए। प्रधानमंत्री ने सरकार में प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर शामिल घटक दलांे के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर जश्न मनाया। पता नहीं प्रधानमंत्री ने इस तरह खुशी मनाने का नैतिक साहस कैसे जुटाया? क्योंकि सरकार को भ्रष्टाचार के मामले में जिस करवट मिला उस करवट उसके अपने सहयोगियों ने कपड़ों के मानिंद धुना। पूर्व संचार मंत्री ए.राजा, कामन वेल्थ गेम्स आयोजन समिति के तत्कालीन अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी, सरकार की सहयोगी द्रमुक अध्यक्ष करूणानिधि की पुत्री कनिमोरी जैसी शख्सियतें सरकार की छवि पर कालिख लगाकर जेल में हैं। अनेक और एसे ही नगीनों का जेल इंतजार कर रहा है। इन परिस्थितियों में क्या संप्रग सरकार ने घपले घोटालों का जश्न मनाया है!

आदि अनादि काल से रियाया के हर दुख दर्द, सुख सुविधा का ध्यान रखना शासकों का प्रथम नैतिक दायित्व रहा है। आजाद भारत में पहली मर्तबा यह देखने को मिल रहा है कि शासकांे को अपना निजी खजाना वह भी जनता के गाढ़े पसीने की कमाई से भरने की फिक्र है। शासकों को इतना भी इल्म नहीं है कि वह मंहगाई के बोझ तले दबी जनता के रूदन को सुन पाए। नौ माह में नौ मर्तबा पेट्रोल के दाम बढ़ा दिए गए। डीजल और रसोई गैस इसी कतार में खड़े हैं। दूध के दामों में बार बार बढ़ोत्तरी की जा रही है। दाल तेल और अन्य खाद्य सामग्रियों की कीमतें आसमान को छू रही हैं। नहीं बढ़ रही हैं तो शराब की कीमतें।

लगता है वजीरे आजम डाॅक्टर मनमोहन सिंह वाकई में महात्मा गांधी के सच्चे अनुयाई हैं। बापू के तीन बंदर यह शिक्षा देते हैं कि बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो। वजीरे आजम बुरा सुनने से गुरेज ही करते हैं, रही बात देखने की तो जहां भी अनर्थ या भ्रष्टाचार, घपले घोटाले होते दिखते हैं वे अपनी आंखे बन्द कर लेते हैं और बचा बुरा बोलना तो व्यक्तिगत तौर पर वे भले आदमी हैं, सो बुरा बोलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। एक तरफ मनमोहन की छवि ईमानदार की बनी हुई है वहीं दूसरी ओर उनका दूसरा चेहरा भ्रष्टों को प्रश्रय देने वाला सामने आया है।

प्रधानमंत्री के इस नरम रवैए से कांग्रेस, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और खुद डाॅक्टर मनमोहन सिंह की छवि जमीन पर आ चुकी है। इसका सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष उदहारण अन्ना हजारे का आंदोलन था। अन्ना के आंदोलन से सरकार हिल गई। अन्ना ने लोकपाल विधेयक की तान छेड़ी है। सच है कि जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि जिसे वह जनादेश देती है अगर वह उसकी उम्मीदों पर खरा न उतरे तो उसे वापस बुलाने का अधिकार उसे होना चाहिए। अगर एसा हुआ तो पारदर्शिता आ सकती है। अन्ना हजारे द्वारा उठाए गए मुद्दों पर पहले भी काफी शोर शराबा हो चुका है। तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इस बात का समर्थन किया था कि जनता को अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार होना ही चाहिए।

स्वतंत्र भारत में सत्तर के दशक के बाद भ्रष्टाचार का केंसर तेजी से बढ़ा है। तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी ने खुद ही इस बात को स्वीकारा था कि केंद्र द्वारा दी गई इमदाद के एक रूपए में से महज पंद्रह पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं। उस दर्मयान एक लतीफा बहुत ही चला था। केंद्र की मदद को बर्फ की संज्ञा दी गई थी, जो एक हाथ से दूसरे हाथ जाने तक पिछलती रहती है। और जब अंतिम हाथ में पहुंचती है और उसे खर्च करने के लिए जब वह सोचता है तब तक वह पूरी ही घुल जाती है।

इस संदर्भ में मध्य प्रदेश मंे उप सचिव रहे स्व.आर.के.तिवारी दद्दा द्वारा उद्यत एक प्रसंग का जिकर लाजिमी होगा। दद्दा ने बतायाकि उन्होंने त्रि स्तरीय पंचायती राज की व्याख्या स्व.राजीव गांधी के समक्ष कुछ इस तरह की थी। सूबाई व्यवस्था में तीन स्तर पर काम होता है। पहला सचिवालय जिसे अंग्रेजी में सेक्रेटरिएट कहते हैं, यहां सब कुछ सीक्रेट है, अर्थात हो सकता है आपका काम पांच लाख में हो जाए या फिर एक बोतल शराब में, इसे दद्दा सेक्रेटरिएट के बजाए ‘सीक्रेटरेट‘ कहा करते थे। दूसरा है संचालनालय अर्थात डायरेक्ट रेट, यहां सब फिक्स है दो परसेंट लगेगा मतलब दो परसंेट न कम न ज्यादा। पंचायती राज का तीसरा स्तर है जिलों में जिलाध्यक्ष कार्यालय जिसे ‘कलेक्ट रेट‘ कहते हैं अर्थात जो कुछ आया उसे कलेक्ट करना।

आज देश के हर राज्य में कमोबेश यही आलम है। वहीं देश के प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ध्रतराष्ट्र की भूमिका में शांति के साथ जनता को लुटने दे रहे हैं। प्रधानमंत्री का दोहरा चरित्र देखकर आश्चर्य ही होता है। वजीरे आजम राज्य सभा से हैं, एवं आम धारणा बन चुकी है कि बिना जनाधार वाले लोग ही राज्य सभा की बैसाखी से संसदीय सौंध तक जाने का मार्ग चुनते हैं, ये रीढ़ विहीन होते हैं। अब समय आ चुका है प्रधानमंत्री को सारे मिथक तोड़ने ही होंगे, उन्हें कठोर और अप्रिय कदम उठाने ही होंगे, इस देश की नंगी भूखी जनता की चीत्कार सुनना ही होगा, वरना आने वाले समय में जो परिदृश्य बनेगा वह अद्भुत और अकल्पनीय तौर पर भयावह ही होने की उम्मीद है।

बाज़ारवाद का आतंक

चंद्र मौलेश्वर प्रसाद

देश की स्वतंत्रता के बाद भारत ने पहली पंचवर्षीय योजना लागू की थी, जिसमें खेती को प्राथमिकता दी गई। दूसरी पंचवर्षीय योजना एक ऐसी महत्त्वकांक्षी योजना थी जिसे साकार करने के लिए देश के प्रधानमंत्री ने पेट और कमर कसने की बात कही थी। देश ऐसे दौर से भी गुज़रा जब लोगों को रोज़मर्रा सुविधाओं के लिए दिन भर कतारों में खड़ा रहना पड़ता था। स्कूटर और कार तो विलास की श्रेणी में आते थे। स्कूटर खरीदने के लिए सालों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। कारों के नाम पर केवल हिंदुस्तान और फ़िएट ही सड़कों पर दिखाई देती थीं। जनता का यह त्याग उस समय रंग लाया जब वैश्विक बाज़ारवाद का दौर नब्बे के दशक में शुरू हुआ। ‘कंज़्यूमर इज़ द किंग’ का दौर चल पड़ा और उपभोक्ता को अपनी मर्ज़ी के सामान का चयन करने की सुविधा मिली। अब उसे लम्बी कतारों में खड़े होकर पानी या लाइट का बिल नहीं बांधना पड़ता था, ई-सेवा के एयर-कंडीशन्ड हॉल की सुविधा उपलब्ध थी।

उपभोक्ता को राजा का दर्जा देकर व्यवसायी और उद्योगपति लूट मचा रहे हैं। ग्राहक को अपनी ओर खींचने के लिए हर तरह का लालच दिया जा रहा है! उपभोक्ता की बाल-मानसिकता का लाभ उठाकर व्यापारी अपनी चीज़ों की ओर उसे आकर्षित कर रहे हैं। उपभोक्ता भी विज्ञापन के आकर्षण में आकर ऐसी वस्तुएं खरीद रहा है जो कल तक ऐश का सामान समझा जाता था। तकनीक का ऐसा जाल फैलाया जा रहा है कि घर की उपयोगी वस्तुएं भी बेकार लगने लगी हैं। सुराही और मटकों का स्थान रेफ़्रिजेटर ने ले लिया है। ताज़ा फ़लों के स्थान पर जूस के शीशे जमा हो रहे हैं।

देश प्रगति के पथ पर चल पड़ा था। मध्यम वर्ग सम्पन्न हो चला था। अब घर में सभी आवश्यक वस्तुएं आ गई थी। बाज़ार में वस्तुओं की मांग घटने लगी थी। मांग बढ़ाने के नित नये हथियार चलने लगे। अब लोगों में जेब से अधिक खरीदने की आदत पड़ गई।

बाज़ार ने एक और दाँव फेंका। ‘अभी पैसे नहीं है तो कोई बात नहीं, बैंक है ना!’ लोगों को उधार की आदत पड़ गई। कर्ज़ लेने के नियम सरल बनाए गए, ब्याज़ की दरें आकर्षक कर दी गईं और ग्राहक को आधुनिकता के मोह जाल में फंसाया गया। इंस्टालमेंट और बैंक लोन के चक्कर में अब मध्यम वर्ग पिसता जा रहा है। रही सही कसर क्रेडिट कार्ड ने कर दी। बस, कार्ड फेंको और सामान उठाओ!

बाज़ार का आतंक इस कदर छा रहा है कि हर व्यक्ति अपनी कमीज़ को दूसरे की कमीज़ से उजली देखना चाहता है, भले ही इसके लिए उसे कुछ हानि ही क्यों न उठानी पड़े। विज्ञापन का ऐसा आतंक छाया हुआ है कि हर प्रकार की झिझक या शर्म को ताक पर रख दिया गया है। बाल निखारने से लेकर बाल निकालने तक के विज्ञापन के बड़े-बड़े होर्डिंग दिखाई देने लगे। रही-सही कसर टीवी ने पूरी कर दी। महिलाओं के सभी दिन एक समान हो गए हैं; हर समय अब उछल-कूद रहे है। पुरुष अपनी यौन-तृप्ति के लिए अब खुशबूदार कंडोम का प्रयोग कर सकते हैं तो महिलाएँ यौन संबंध के ७२ घंटों में गर्भ के खतरे को दूर कर सकते हैं। ऐसे निर्लज्ज विज्ञापन भले ही बच्चों की समझ के बाहर हों पर उन्हें देख कर छोटी आयु में ही वे जवान हो रहे हैं। इसी का परिणाम है कि युवा पीढ़ी में अब हर प्रकार के अपराध देखे जा सकते हैं जिन में यौन अपराध सब से अधिक हैं।

यह सही है कि राष्ट्र की समृद्धि ने बाज़ारवाद के आतंक को जन्म दिया है। आंध्र प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने जब प्रदेश की समृद्धि के लिए इंफ़र्मेशन टेक्नालोजी की संस्थाओं को अपने संस्थान इस प्रदेश में खोलने का आह्वान किया था तो इस निर्णय के बाद पुलिस अधिकारियों को यह भी जता दिया था कि उन्हें और अधिक सतर्क रहना है। उन्होंने कहा था कि राज्य के विकास के साथ अपराध भी बढ़ता जाएगा और पुलिस पर अधिक ज़िम्मेदारी पड़ेगी जिसके लिए उन्हें तैयार रहना होगा।

आज हालत यह है कि घर कचरे से भरा पड़ा है। घर सिकुड़ कर फ़्लैट हो गए हैं पर लोगों की पिपासा तृप्त नहीं हुई। तब उद्योगजगत ने नई चाल चली। बाज़ार ने अलादीन के चिराग की नीति अपनाई- ‘पुरानी चीज़ के बदले नई चीज़ ले लो’। लोगों को अपने घर की अच्छी वस्तुएं भी पुरानी लगने लगी थी। मांग बढ़ने लगी और फिर बाज़ार का बाज़ार गर्म हो गया।

बाज़ारवाद के इस दौर में जब किसी को अपने अभाव का अहसास होता है और वह इस अभाव को दूर नहीं कर पाता तो उसमें लूटने-खसोटने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। धन के अभाव में अपराध की प्रवृत्ति जाग उठती है और वह किसी भी हाल में अपनी सुविधाओं को हासिल करना चाहता है। दूसरी ओर समृद्ध समाज अपने को कानून के ऊपर समझने लगता है। धन, राजनीतिक शक्ति और शराब के नशे में वे गैरकानूनी कृत्य करने लगते हैं। कार से कुचले जाने के कितने ही उदाहरण हैं जो इस बात का जीवित प्रमाण है।

बाज़ारवाद का आतंक उन छोटे व्यापारियों को भी कुचल रहा है जो स्वतंत्र रूप से अपनी आजीविका कमा रहे थे। बडे-बड़े मॉल और बड़े-बड़े संस्थानों के आगे छोटे व्यापारी टिक नहीं पाते। परिणाम यह हो रहा है कि कल तक जो अपनी दुकान का मालिक था, आज वह उसी जगह एक बड़े मॉल या संस्थान का नौकर बन गया है। ग्राहक भी आरामतलब हो गया है। एयरकंडीशन्ड मॉल में जाकर उसके अहम की तुष्टि भी हो जाती है भले ही दो रुपये अधिक देने पड़े!

आज का अतिथि भी बाज़ारवाद की ज़द से नहीं बच सका है। एक समय था जब अतिथि का स्वागत ठंडे पानी और निंबू पानी से होता था। आज ‘ठंडा मतलब कोका कोला’ हो गया है। फ्रिज में से कोला खोला या आइसक्रीम निकाली और हो गया अतिथि का स्वागत! खिलाना हो तो पिज़ाडेन है ना- आधे घंटे में पिज़ा हाज़िर। यही रह गई है हमारे आतिथ्य के स्वागत संस्कार। बाज़ारवाद के इस आतंक से हमारा संस्कार भी नहीं बच पाया है।

जब तक मध्यम वर्ग की आय और आयु बढ़ती रहेगी, तब तक बाज़ारवाद का यह आतंक बरकरार रहेगा और ऐसा लगता है कि इस विशाल मध्य वर्ग का न तो अंत होगा और ना ही बाज़ारवाद के इस आतंक का….. बस, यही कहा जा सकता है- बाज़ आए हम ऐसे बाज़ारवाद से॥

कविता/ आचमन

क्लास के बाद क्लास बीतता जाता है

जिन्दगी के ग़ैरमामूली ब्लैकबोर्ड पर

तीन अँगुलियों से पकड़े गए चॉक के जरिये

केवल लफ़्जों की गिनती

उसके बाद ढंग-ढंग घंटे का बज जाना

उन तजुर्बेकार लिखावटों को नया डस्टर पोंछ लेता है ।

कुछ निशान रह जाते हैं, उस्ताद जिन्दगी गुजर जाती है ।

 

लम्बी से और लम्बी होती समय की छाया

जिन्दगी की देह पर लेपकर

सुन्दर के स्नान का समापन

फिर भूख के अन्न का आयोजन –

पूरा हो जाने पर , फिर कभी धारा के विपरीत

चलते हुए आचमन कर लेना होता है ।

 

पिताजी कहा करते थे ,

पहाड़ पर चढ़ने के पहले देह पर मिट्टी का लेप करो

पाँव मजबूत करो

पानी के बोतल को गले तक भर लिया करो ।

 

मैंने बात नहीं मानी

पहले तो पहाड़ समझकर पठार पार किया

उसके बाद, एक के बाद एक पहाड़ ढूँढ़ता रहा ।

दिन, महीने, साल बीतते गए ।

सारी देह मिट्टी से काली पड़ गई। पैरों में जञ्जीर ।

पानी का खाली बोतल ।

और फिर फिर वही दौड़–दौड़

पहाड़ कब्जे में कब आएगा ?

(मूलत: बांग्‍ला में तपन कुमार बन्द्योपाध्याय द्वारा रचित इस कविता का हिंदी में अनुवाद गंगानंद झा ने किया है)

कहानी/ फ़ैसला

दिव्या माथुर

सोफ़े पर अधलेटा सा सन्नी मेज़ पर अपनी टांगे पसारे टी वी पर समाचार देख रहा था. जेड गूडि की आकस्मिक मृत्यु की ख़बर सुन कर वह मन ही मन कलपने लगा कि वह कहाँ रेचल मूर से ब्याह रचा के फंस गया. जेड का इक्कीस साल का ब्वाय फ़्रैंड उसके बच्चों को पाले न पाले, मिलिनेयर तो हो ही गया. माँ की बात मान लेता तो आज वह भी एक सुन्दर सलोनी इंडियन लड़की से ब्याह रचाकर घर बसा चुका होता जो मिलियन लाती न लाती कम से कम माँ के पाँव दबाती और उसका सिर सहलाती. मीता भाभी की डाक्टर भतीजी लता भी इस भूतनी से तो अच्छी ही रहती. बंधे हुए वेतन के अलावा वह घर में सबकी सेहत का ध्यान रखती, चन्नी और भाभी भी ख़ुश हो जाते और जैसा कि चन्नी कहता रहता था कि सोसाइटी में उसकी इज़्ज़त भी बढ़ जाती. कम से कम, जैसे कि उसकी माँ कहती थी, रेचल मूर के ‘फ़किंग ये’ और ‘फ़किंग वो’ से उसके घर आँगन तो प्रदूषित नहीं होते.

‘इफ़ यू वर ए लिट्टल बिट स्मार्ट रेच, सन्नी वुड डांस एरायुंड यौर लिट्टल फ़िंगर.’ रेचल की बदमिज़ाज़ चील जैसी माँ नोरीन, रेचल को अलग भड़काती रहती थी.

‘मम, ही विल लीव मी फ़ौर शयोर.’ रेचेल को डर था कि माँ अमृत के बहकावे में आकर सन्नी उसे कहीं छोड़ ही न दे. ऐसा हैंडसम और कमाउ पति उस जैसी दसवीं पास को कहाँ मिलेगा?

‘यू फ़ूल, ईवन इफ़ ही वांट्ड टु, ही कांट.’ नोरीन सच ही कह रही थी. सन्नी चाहता भी तो रेचल को छोड़ नहीं सकता था दो बच्चों, कारा और शौन, का साप्ताहिक भत्ता भरते भरते उसका कचूमर निकल जाएगा. पिचहत्तर प्रतिशत वेतन रेचल को देकर उसके पास क्या बचेगा?

उसके हम-प्याला और हम-निवाला दोस्तों के अनुसार उसे रेचल को छोड़ने का विचार भी मन से निकाल देना चाहिए.

‘मस्ती करने से तुझे कौन रोकता है, सन्नी? ज़्यादा झिक झिक करे तो तू उसे फूलों का गुलदस्ता या एक सस्ता सा तोहफ़ा देकर उसका मुँह बंद रख सकता है.’ राजन ने सलाह दी.

‘होर कुज नई ते तेरी सैलेरी तो तेरे कोल रउगी, तू शान नाल गुलछर्रे उड़ा सकदा ए.’ कुलविन्दर ने कहा.

‘मेट, विद टू लिट्टल वंज़, वेयर विल शी फ़ाइंड टाइम टु फ़ौलो यू ऐनिवे?’ डैन्नी ने कहा.

‘यार, रोज़ रोज़ कोई क्या बहाने मारे?’ सन्नी बोला.

‘अरे, बहानों की कोई कमी है क्या? रोज़ रोज़ कितनी ट्रेनें कैंसल हो जाती हैं, सड़कों पर ट्रैफ़िक की हालत तो सभी को पता है; बिना नोटिस के ओवरटाइम करना पड़ता है…’ राजन ने बहाने गिनवाने शुरु किए.

‘ओए, तैनूं रात वी बार गुज़ारनी पवे तो सानु दस. अस्सी तेरी एलीबाई बनन नू तैय्यार हन, वरी नौट.’ आँख मारते हुए कुलविन्दर ने उसकी हिम्मत बढ़ाई.

‘यू आर ए मेट, कुलविन्दर.’ डैनी ने कुलविन्दर के गले में हाथ डालते हुए कुछ इस तरह कहा कि जैसे उसे एलीबाई की ज़रूरत हो.

‘ओए, यारां दे यार हां अस्सां.’ कुलविन्दर को अच्छा लगा कि डैनी ने उसके सामने दोस्ती का हाथ बढ़ाया था.

सन्नी ने ये सब तरीक़े पहले से ही आज़माने शुरु कर दिए थे और धीरे धीरे वह निडर भी होता जा रहा था. जहाँ अमृत उसके बहानों को नज़रान्दाज़ कर देती, नोरीन उसके झूठ एक नज़र में ताड़ जाती पर उसने नोरीन की परवाह करनी बिल्कुल छोड़ दी थी. नोरीन के सिखाए में आकर रेचल कभी कभी बच्चों समेत उसी के घर जा बैठती तो नोरीन को लगता कि जैसे उसने अपने पाँव पर ख़ुद ही कुल्हाड़ी मार ली हो क्योंकि सन्नी और अमृत उसे वापिस आने के लिए फ़ोन तक नहीं करते. अमृत रोज़ बेटे के लिए ताज़ा और स्वादिष्ट भोजन पकाती, वह मज़े से खाता और फिर बैठकर दोनों गप्पें मारते.

‘यू डोन्ट वांट अस टु बी हैप्पी.’ मुँह फुलाए वापिस आकर रेचल अमृत को दोषी ठहरा देती.

सन्नी सोचता कि न जाने वो कौन सा दिन था जब वह रेचल की सफ़ेद चमड़ी और हरी आँखों पर फ़िदा हो गया था. दोस्तों ने उसे चुनौती दी थी कि वह रेचल के साथ एक रात बिताए तो वे उसका लोहा मान जाएंगे. सन्नी से शर्त लगाने में उसके दोस्तों को मज़ा आता था क्योंकि वह बड़े से बड़ा जोखिम उठाने को झट तैय्यार हो जाता था. इस बार सन्नी को कोई मुश्किल नहीं हुई थी क्योंकि किशोरी रेचल तो मानो इसके लिए तैय्यार ही बैठी थी. वह तो उसके चुम्बनों से ही आतंकित हो गया था पर रेचल रोके नहीं रुकी थी. ईश्क का भूत जब दोनों के सिर से उतरा तब तक वे कारा नाम की एक बच्ची के माँ बाप बन चुके थे. उस समय रेचल केवल सतरह बरस की थी और सन्नी बीस का.

सन्नी की शादी धूमधाम से रचाने के सारे अरमान ख़ाक हो गए थे. रेचल के घरवालों ने सन्नी को एक कमीज़ तक नहीं दी, अमृत की तो बात ही छोड़ो. शादी का ख़र्चा और दावत भी अमृत के सिर पर थे. सन्नी की कमाई तो उसके एशो आराम के लिए ही काफ़ी नहीं थी. रेचल के सगे भाई और बहन, दो सौतेले भाई, सौतेला पिता, उसकी पत्नी और नोरीन के पीहर वाले सब सज धज के चले आए थे. कोक की बड़ी बोतलें वे सीधे मुँह लगाकर पी रहे थे. बियर के क्रेट के क्रेट ख़ाली हो गए थे और अभी सन्नी के दोस्त और अमृत के रिश्तेदार पहुंचे भी नहीं थे. एक अजब सा आलम था कि बेटे की माँ भागदौड़ कर रही थी और बहु के घरवाले मज़े कर रहे थे.

अमृत के हाथ पाँव जोड़ने पर चन्नी शादी के लिए लन्दन तो आ गया पर जैसे ही वह रेचल और उसके परिवार से मिला, उसने अपनी नाराज़गी साफ़ ज़ाहिर कर दी.

‘तो तूने अपने स्टैंडर्ड की कुड़ी ढूंढ ही ली? मीता की भतीजी से शादी कर लेता तो हमारे ख़ानदान का नाम ऊँचा कर सकता था पर नहीं तूने तो कसम खाई हुई है हमारा नाम डुबोने की.’ चन्नी ने ताना मारा. अमृत भी यही चाहती थी ताकि भाइयों के बीच की खाई किसी तरह पाट दी जाए. सन्नी ने उसकी एक नहीं सुनी थी और शायद इसीलिए चन्नी मीता और बच्चों को शादी में नहीं लाया था.

‘तू अपना स्टैंडर्ड कायम रख. जैसी भी हैं हम ख़ुश हैं, तुझसे माँगने तो नहीं आते.’ सन्नी बोला. दोनों में जम के बहस हुई और अंत में दोनों ने भविष्य में न मिलने की कसम खाई थी. सन्नी अपने पिता और भाई की तरह ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं था, जिसकी वजह से वे उसे हमेशा दुत्कारते रहते थे. कभी अमृत बीच बचाव करवाने की कोशिश करती भी तो वे सारा दोष उसपर ही मढ़ देते.

अमृत को याद आई अपने बड़े बेटे चन्नी की शादी, जिसमें मीता के घरवालों ने उन्हें ज़मीन पर पाँव नहीं रखने दिया था. कैसी ख़ातिर की थी और क्या नहीं दिया था दहेज में उन्होंने आसमान पर चढ़ाके जैसे किसी को ज़मीन पर धकेल दिया गया हो, ऐसा ही लगा था अमृत को जब मीता और चन्नी अमेरिका जा बसे थे. अमृत उनके बच्चों को देखने को तरस गई थी; आर्यन पाँच का हो चला था और छोटा अर्णव इस अक्तूबर में तीन बरस का हो जाएगा. बहुत ज़िद करने पर दो साल पहले चन्नी ने दो तस्वीरें भेजी थीं, न जाने वे अब कैसे लगते होंगे? पिता की मौत के वक्त जब चन्नी आया था तो सिर्फ़ दसवें तक ही रुका था. सब कुछ बेचारे सन्नी ने ही सम्भाला. अमेरिका लौटने के बाद चन्नी ने उसे फ़ोन तक नहीं किया कि माँ ज़िन्दा भी थी कि मर खप गई. फिर भी अमृत को चन्नी की बहुत याद आती थी. न जाने वह उसके परिवार को कभी देख भी पाएगी कि नहीं!

अमृत यही सोच के तसल्ली कर लेती थी कि चलो सन्नी और उसका परिवार तो उसके पास है. शुरु शुरु में तो रेचल भी एक आइडियल इंडियन बहु बनी रही, भारतीय गहने और कपड़े पहन कर वह सन्नी और सास को ख़ूब रिझाती. अमृत ने भी अपने कीमती ज़ेवर और भारी साड़ियाँ आदि पहना कर रेचल के ख़ूब लाड़ किए. अपनी गोरी बहु को अपने सम्बन्धियों और सहेलियों के बीच प्रदर्शित करते हुए उसका सिर गर्व से ऊँचा हो जाता था कि देखो गोरी होते हुए भी उनकी बहु कैसी विनम्र और सुघड़ थी. सन्नी और रेचल भी ख़ुश थे.

पोती के जन्म पर अमृत की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था क्योंकि उसके अपने दो बेटे ही थे; चन्नी और सन्नी यानि कि चन्दर और सुनील और चन्नी के भी कोई बेटी नहीं थी. बच्ची के नामकरन पर अमृत, नोरीन और रेचल की ख़ूब लड़ाई हुई. ’भला ‘कारा’ भी कोई नाम हुआ, कारा का मतलब हिन्दी में काला होता है.’ अमृत कहती रह गई पर नोरीन और रेचल के सामने उसकी एक नहीं चली.

‘मैं और सन्नी तो उसे राका ही कहकर बुलाएंगे, क्यों सन्नी?’ नोरीन और रेचल के मना करने के बावजूद कारा, राका के नाम से दादी और पिता की बात सुन लेती थी, विशेषत: जब बात उसके अपने फ़ायदे की होती. फिर जब पोता हुआ तो एक बार फिर वही जद्दोजहद पर इस बार सन्नी पहले से ही तैय्यार था. उसने बेटे का नाम ‘शान’ रखा था, रेचल और उसके घर वाले उसे ‘शौन’ पुकार कर ख़ुश थे.

शान के जन्म के बाद रेचल बदलने लगी. कारा ने अलग सिर उठा रखा था. चौबीसों घंटे वह रोती चिल्लाती, शान को पीटती या काटती. राका को दुतकारती हुई अमृत शान को सीने में छिपाए रखती कि कहीं कारा उसे मार ही न डाले. इसी वजह से अमृत और रेचल के बीच तनाव बढ़ने लगा. अमृत के सिले पंजाबी सूट्स रेचल उठा के जब औक्सफ़ैम में दे आई तो अमृत जल भुन के राख़ हो गई. सन्नी को मन ही मन में ख़ुश था क्योंकि रेचल का गोरा बेडौल शरीर सूट की सीवनों से बाहर निकलने को हाय हाय करता था. घर में पका खाना छोड़ कर रेचल फ़िश एण्ड चिप्स खाती या मैकडोनैल्ड चल पड़ती. सन्नी के सामने अमृत रेचल के आगे पीछे घूमती थी पर जब सन्नी घर में नहीं होता था तो उसे खरी खोटी सुनाती थी. रेचल सकपकाके कुछ कह देती तो सन्नी बिना वजह जाने उसे पीट देता. जब भी झगड़ा होता, सन्नी माँ की तरफ़दारी करता और रेचल अमृत को दोष देती. उसके हिसाब से अमृत को अपना घर अलग बसा लेना चाहिए था. चन्नी और मीता ने एक बार भी उसे अमेरिका आने को नहीं कहा था. वह जाए तो कहाँ जाए? उसने अपनी सारी जमा पूंजी सन्नी को पढ़ाने लिखाने और उसकी शादी में लगा दी थी. इस फ़्लैट के अलावा, उसके पास कुछ नहीं था. अपनी स्टेट पैंशन भी वह पोता पोती पर ख़र्च कर देती थी.

‘दिस इज माइ फ़्लैट, यू लीव.’ जब भी रेचल उसे बहुत दुखी करती, ग़ुस्से में अमृत कह उठती. वह चाहती तो उन्हें धक्का देकर बाहर निकाल सकती थी पर कोई अपने ही बच्चों और पोता पोतियों को बेघर कर सकता है?

रोज़ रोज़ की कलह से बचने के लिए अमृत ने काउंसिल के फ़्लैट के लिए आवेदन दे दिया. सन्नी को लिख कर देना पड़ा कि वह माँ को ‘डिसलौज’ यानि कि घर से खदेड़ रहा था, जो उसे बहुत खला. रेचल ने जब ज़िद की कि सन्नी ‘रीज़न’ के कौल्म्न में लिख दे कि दो बच्चों के लिए जगह पूरी नहीं पड़ रही थी इसलिए अमृत को अपने लिए दूसरी जगह ढूंढनी होगी; सन्नी ने उसके गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया.

जगह सचमुच तंग हो गई थी. सन्नी के बच्चे अमृत के कमरे में ही सोते थे. उनके कौट्स ने ही पूरे कमरे को घेर रखा था. अलमारी में कपड़े रखने और निकालने के लिए अमृत को कौट्स को सरकाना पड़ता था पर फिर भी उसने आज तक चूँ नहीं की थी.

ख़ैर, अमृत को जल्दी ही एक कमरे का फ़्लैट मिल गया पर अकेली काउंसिल फ़्लैट में वह करती तो क्या करती? अपराध भावना से ग्रस्त सन्नी दफ़्तर से सीधा माँ के पास चला आता. दिन में टौफ़ियाँ और खिलौने लिए अमृत राका और शान से मिलने चली आती. रेचल जलती भुनती रहती पर क्या करती; सन्नी से कुछ कहना ही बेकार था.

काउंसिल फ़्लैट्स के पीछे ही चेनीज़ पार्क था, जिसे कुछ बूढ़े बूढ़ियों ने मिलकर गोद ले लिया था. काउंसिल की मदद से उन्होंने इस पार्क की शक्ल बदल डाली थी. दूर दूर से लोग अपने बच्चों को लेकर यहाँ आते और पार्क में लगाए गए झूलों, स्लाइड्स और बच्चों के तमाम उपकरणों का उपयोग करते. आस पास के मृत निवासियों की याद में उनके परिवार वालों ने पार्क के चारों तरफ़ बैंचस लगवा रखे थे जिनपर बैठकर वृद्ध लोग अपने अपने परिवार का रोना रोते या गाना गाते, दूसरों के बच्चों को देखकर आहें भरते और शाम ढलते ही अपने अपने फ़्लैट्स में जाकर बन्द हो जाते.

सन्नी को तो माँ का एक कमरे का काउंसिल फ़्लैट भी स्वर्ग लगता था. सफ़ाई, शांति और सुकून तो रहता था वहाँ. क्या हुआ जो वैलकम होम के ज़्यादातर बाशिन्दे पैंसठ बरस के ऊपर थे. सदा मुस्कुराते हुए वे शालीनता से पेश आते; उनके पास हर एक के लिए समय था, चाहे कोई रास्ता पूछ रहा हो या अपने बिगड़े सम्बन्धों को रो रहा हो, ये लोग सभी को बड़े अपनेपन और स्नेह से सलाह देने को हमेशा तैय्यार रहते थे. अमृत के कहने पर सन्नी बूढ़े लोगों के छोटे मोटे काम कर दिया करता था. घर से ज़्यादा वह काउंसिल फ़्लैट्स के आस पास नज़र आने लगा था.

रात को रोते धोते बच्चों के बीच उधड़े हुए सोफ़े पर हाथ में बीयर का एक कैन लिए सन्नी रेचल की उपेक्षा करते हुए टी वी देखता. भिनकते बिस्तर में बिफ़रती रेचल को छोड़ सन्नी अकसर सोफ़े पर ही पसर जाता और टी वी पर कोई पोर्न फ़िल्म लगाकर मास्टर्बेट करता सो जाता. उसके घर होने या न होने से रेचल को कोई फ़र्क नहीं पड़ता चाहिए था पर नहीं, एक दिन उसे देर हो जाए तो रेचल के रौद्र रूप से आस पड़ौस के लोग भी नहीं बचते. नोरीन दौड़ी दौड़ी आती और बात और बिगड़ जाती. और तो और चार साल की कारा, जो बिल्कुल अपनी माँ और नानी पर गई थी, दिन भर ‘शट अप, शट अप’ चिल्लाती रहती थी. कारा को गालियाँ देते सुन रेचल और नोरीन को ख़ूब मज़ा आता था पर अपने कान बन्द किए अमृत राम राम जपने लगती. रेचल सन्नी की हर क्रिया कलाप पर नज़र रखती. वह कब उठा, उसने कितनी देर में बाथरूम में लगाई, फ़ोन पर किससे और कितनी देर बात की. नोरीन ने ही अपनी बेटी को ये सब बातें डाएरी में लिखने की हिदायत दी थी ताकि तलाक के समय जज सन्नी को पूरी तरह से दोषी ठहरा दे और उसे हर हफ़्ते ढेर सा पैसा देना पड़े.

’वेयर यू थिंक यू आर गोइंग, यू स्टुपिड वूमेन?’ कारा ने अपनी नानी की नकल उतारते हुए रेचल से पूछा जो कहीं बाहर जा रही थी. जवाब में रेचल ने उसके गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया.

‘यू सिल्ली काउ.’ कारा ने माँ को गाली दी और धम धम करती सीढ़ियों पर जा बैठी.

‘बी ए डियर, राका, से सौरी टु यौर मम.’ अमृत ने बीच बचाव कराना चाहा. ’यू स्टुपिड ईडियट.’ कारा ने अमृत को भी नहीं बख़्शा. ’स्टुपिड होगी तेरी माँ ते इडियट होगी तेरी नानी, बन्दरिया की औलाद.’ अमृत ग़ुस्से में बोली.

‘हाउ डेयर यू काल मी बन्दरिया?’ रेचल चीख़ने लगी. अमृत भूल जाती थी कि उसी ने रेचल को हिन्दी और पंजाबी सिखाने की कोशिश की थी और रेचल को उन लोगों की काफ़ी बातें समझ आ जाती थी.

‘ब्लडी बिच, मेरा सोने वर्गा मुंडा तेरे चक्करां विच फ़ँस गया.’ घर से निकलते हुए अमृत ने एक और तीर छोड़ा. शान को गोदी में लेकर वह अपने सीने को दबाती हुई बाहर निकल गई. लगा कि जैसे उसे दिल का दौरा पड़ने वाला हो. अमृत की अंग्रेज़ी गाली सुनकर सन्नी ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा.

‘यौर मदर हैज़ गौन कम्प्लीटली बौंकर्स, आइ फ़ियर व्हाट शी विल डु विद अवर सन, डू यू हियर मी?’ पाँव पटकती हुई रेचल अपने पति की ओर मुख़ातिब हुई.

’शी इज़ हिज़ ग्रैंडमदर, शी इज़ नौट गोइंग टु किल हिम, इज़ शी?’ रेचल की बात को काटता सन्नी ग़ुस्से में बोला.

‘ईवन इफ़ शी वाज़, वाट डू यू केयर?’ रेचल उसके पास सोफ़े में धँस गई.

‘एंड यू डू!’

‘व्हाट डू यू मीन?’ ‘नथिंग, आई मीन फ़किंग नथिंग.’ सन्नी सरक कर थोड़ा दूर जा बैठा.

‘ड्रौप डैड!’ रेचेल मुँह फेरते हुए चिल्लाई.

सन्नी एक झटके से उठा और खूंटी से अपनी जैकेट खींचता हुआ बाहर निकल गया. रेचेल चीखती हुई घर के बाहर तक चली आई. कारा को अकेले घर में छोड़ कर वह कहीं नहीं जा सकती थी.

अमृत चेनीज़ पार्क में बैठी एक दक्षिण भारतीय महिला से बात कर रही थी, जिसने नाक में सोने की चमकती हुई लौंग पहन रखी थी.

‘दिस इज़ माइ सन, सुनील.’ अमृत ने अपनी सहेली शालिनी को बेटे से मिलवाया. सन्नी ने झुक कर शालिनी के पांव छुए.

‘हैलो … ब्लैस यू.’ शालिनी ने झिझिकते हुए कहा. अमृत को भी अपने बेटे पर गर्व हो आया. ‘ते शौन दे नाल जे खेड़दी पई है, ओ एनादी दोती है शिखा.’ पास में ही शान और एक बच्ची प्लास्टिक की रंग बिरंगी कुदालों से मिट्टी खोद रहे थे.

’घर चलो माँ, ठंड बढ़ गई है, तुम्हारे सीने में फिर दर्द होने लगेगा.’ सन्नी ने कहा.

शान को कन्धे पर बैठाकर सन्नी माँ के साथ उनके फ़्लैट की ओर चल दिया.

‘रेचेल तेरी रा तकदी होवेगी.’ अमृत ने सिर्फ़ दिखावे के लिए सन्नी को याद दिलाया. मन ही मन तो वह ख़ुश थी कि सन्नी रेचल को छोड़ कर उसके पीछे चला आया था. ‘ते करे.’ सन्नी ने भी अमृत को ख़ुश करने के लिए एक छोटा सा उत्तर दे दिया.

शान और शिखा के साथ शालिनी और अमृत की दोस्ती भी बढ़ने लगी थी. अमृत शालिनी से अपनी घरेलु परेशानियों का ज़िक्र करती रहती थी और शालिनी हमेशा बड़े ध्यान से उसकी बातें सुनती थी पर एक महीने में एक बार भी उसने कभी अपने परिवार के बारे में कोई बात नहीं की थी. उसके सौम्य चेहरे पर हमेशा सुकून छाया रहता. उसकी बेटी अदिति भी तो माँ का कितना ख़याल रखती थी. जब भी दफ़्तर से आती, सीधे पार्क में आकर माँ के गाल पर एक प्यार भरा चुम्बन देती और उसे गले लगाकर शालिनी दुलार में भरकर उसका माथा चूम लेती. दामाद आनन्द भी वही सब करता था पर एक झिझक के साथ. एक दिन अमृत से रहा नहीं गया और उसने शालिनी से उनके इस सुकून का राज़ जानना चाहा.

‘काय को टैंशन लेने का अमृत?’ शालिनी ने एक वाक्य कहकर उसे टालना चाहा.

‘क्या करूँ, मेरे कार विच ते सबी अनहैप्पी हैं.’

‘तुम बगवान में बिलीव करता है न? सब उसपर काए नईं छोड़ देता? जो बी वो दे, तुमें उइच एक्सैप्ट करने का, क्या? तुमारे हात में कुच नई तो सारी टैंशन बी उसी को होने का, नई?’ शालिनी ठीक ही कह रही थी पर कहना एक बात है और उस पर अमल करना दूसरी.

‘सुपोज़, यौर डाटर तुमसे आके बोलता कि अम्मा मेरा हज़बंड गर आने को नई मांगता, हर वकत मां मां मां करता, हमारे सात काना नई काने का, बैटने का नई, गूमने का नए, अइ अइ ओ, क्या करने का अम्मा?’ शालिनी की हिन्दी पर अमृत को हंसी आ गई. शालिनी ने शायद उसके घर की कलह का कारण जान लिया था. अमृत को याद आया कि शादी के प्रारम्भिक दिनों में जब सन्नी रेचल के आगे पीछे नाचता था तो अमृत को कितना बुरा लगता था. अपने बेटी होती तो शायद अमृत को रेचल की परेशानी समझ आ जाती.

‘रेचल को तुमारा डाटर समजो तो प्रौबलम्स इल्ले, अमृत.’

‘मैं तो ओनु बेटी वर्गा प्यार दित्ता, शालिनी, पर वोहो नई बदली. यू नो, सन्नी ते शान नु इंडियन खाना एन्ना पसन्द ए कि मैं त्वानु की दस्सां, बट साड्डी रेचल एवरी सिंगल डे, सौसेज्स, बर्गर ते फ़िश एण्ड चिप्स बनाउन्दी ए. यू नो शाइनी, अस्सां हिन्दु पंजाबी बीफ़ नई खान्दे ने बट ओन्नु एसदी कोई परवा नई…’ अमृर का रिकार्ड शुरु हो गया था. ’अइ अइ ओ, तुम कितना दिन जिन्दा रैने का अमृत, तब्बी तो ओइच बनाएगा ओइच खाएगा. सादी के बाद तुम और सन्नी चेंज हुआ क्या जो तुम उसको चेंज करने को माँगता?’ शालिनी ने उसे टोका.

‘मैंन्नु लगदा ए कि त्वाडे वर्गी मेरी वी एक डाटर हुन्दी जिन्नु मैं समज सकदी कि ओहो कि चाहुन्दी ए.’ अमृत सोच में डूब गई.

‘अदिति मेरा बेटी नई, डौटर-इन-ला होता, अमृत.’ अविश्वास से आँखे फाड़े अमृत शालिनी को देख रही थी.

‘इफ़ यू रियली वांट टु मेक ए डिफ़रैंस, यू नीड टु सीरियसलि थिंक फ़्रौम देयर पौइंट औफ़ वियु.’

‘मैं कुज वी करन नु रैडी हाँ, शालिनी.’ अमृत अब भी विस्मित थी कि कोई बहु अपनी सास को ऐसे चूम सकती थी.

‘ओ के देन, अम तुमारा हैल्प करने का. थोड़ा बच्चा लोग का ध्यान रखने का अमृत, अम अबी आता.’

शालिनी उठ कर अपने फ़्लैट से कुछ ब्रोशर्स उठा लाई और अमृत को देते हुए कहा कि वह चाहे तो उसके साथ यूस्टन चल सकती थी जहाँ हर बुधवार को लैंडमार्क फ़ोरम का गैस्ट-डे होत्ता था. अमृत को लगा कि वह शायद न जा पाए क्योंकि उसकी अंग्रेज़ी बस कामचलाऊ थी. वैसे भी उसे अंग्रेज़ों के बीच झिझल होती थी.

घर आते ही अमृत ने कच्चा दूध पिया. शालिनी ने उसे बताया था कि कच्चे दूध से सीने की जलन मिट जाती है. रात को देर तक बैठकर उसने सारे ब्रोशर्स चाट डाले. उसे लगा कि उसमें लिखी हिदायतों से शायद वह परिवार में ख़ुशी ला सके. सभी हिदायतें बातें सर्वविदित थीं पर कभी कभी ज़िन्दगी से जूझते हुए लोग भूल जाते हैं वो छोटी छोटी बातें जो उन्हें ख़ुशी देती हैं. अतीत से भरे दिमाग़ में जगह ही नहीं रहती ताज़ा हवा के लिए.

शालिनी के हिम्मत बंधाने अमृत उसके साथ लैंडमार्क भवन जाने को तैय्यार हो गई. बहुत से लोग, जिन्होंने हाल ही में लैंडमार्क फ़ोरम कोर्स किया था, अपने मित्रों और परिवार को साथ लेकर आए थे. आनन्द और अदिति, भी आए हुए थे जो लैंडमार्क-वौलिंटियर्स थे. लोगों ने अपने अपने अनुभव बताने शुरु किए कि उन्हें इस कोर्स से क्या फ़ायदा हुआ, उनका जीवन रातों रात कैसे बदल गया आदि. यदि अदिति ने उसे शुरु में ही सावधान न कर दिया होता तो अमृत उठ के चल दी होती. उसे लगा कि ये सब दिखावा केवल प्रचार और प्रसार के लिए ही किया गया था जैसे कि चर्च के लोग घरों में जाकर जीसस के गुण गाते हैं.

ख़ैर, लैंडमार्क-वौलिंटियर्स के दबाव में आकर और शालिनि और उसके बहु बेटे की शर्माशर्मी में अमृत ने लैंडमार्क-फ़ोरम के लिए फ़ार्म भर दिये और क्रैडिट कार्ड से पैसे भी दे दिए. शालिनी अब एडवांस्ड कोर्स करने जा रही थी. इस कोर्स में कुछ तो ऐसा होगा ही कि शालिनी के बेटा-बहु पांच सौ पाउंड्स देने को भी तैय्यार थे. अमृत को बस यही दुख था कि शालिनी उसके साथ नहीं होगी.

‘माँ, तुम्हें तो कोई भी बेवकूफ़ बना सकता है.’ सन्नी को पता चलेगा तो वह ज़रूर कहेगा कि इतना पैसा बर्बाद करने की क्या ज़रूरत थी. अमृत ने सोचा कि अब जीवन में बचा ही क्या था, ये तीन सौ पाउंड उसके साथ तो जाएंगे नहीं. वह तो ये सोच के ख़ुश थी कि सन्नी और रेचल हैरान रह जाएंगे ये जानकर कि अमृत तीन दिन के लिए कहाँ ग़ायब हो गई!

सुबह आठ बजे से लेकर रात के दस बजे तक लगातार तीन दिन अमृत को लैंडमार्क भवन में रहना था. ग्यारह और तीन बजे चाय पानी के लिए आधा आधा घंटा और एक और सात बजे खाने के लिए एक एक घंटे का समय निर्धारित था. अमृत बोरियत की वजह से ऊंघ रही थी कि लीडर ने कहा कि वे सदस्य जो सोचते हैं कि वे समय और पैसे बर्बाद कर रहे हैं, अपने पैसे वापिस ले लें और चले जाएं. एक व्यक्ति सचमुच ही उठके चल दिया. अमृत को भी लगा कि यह अच्छा मौका था अपने पैसे वापिस लेके भाग लेने का पर अपनी कुर्सी पर जड़ हुई वह सोचती ही रह गई. न जाने उसके लिए शान हुड़क रहा हो! असली घी के परांठे पर बूरा बुरक कर रोज़ खिलाती थी अमृत उसे. रेचल तो उसे सौसेज और चिप्स खिला रही होगी. सन्नी को भी तीन दिनों तक सुपरमार्केट का रोस्ट्ड चिकन और सूप ही खाने को मिलेगा. सन्नी फ़्लैट पर नहीं आया तो पड़ौसियों के काम रुक जाएंगे आदि आदि. राम राम करते किसी तरह दोपहर के खाने का समय हुआ तो अमृत का समूह पास ही एक कैफ़े में जा बैठा ताकि उनका समय न व्यर्थ हो. अमृत ने चाय और एक जैकेट पोटेटो और्डर किया और बाकी के लोगों ने सैंड्विच और काफ़ी.

पहले ही दिन दोपहर के खाने के बाद एक लड़की और उसका ब्वायफ़्रैंड पांच मिनट देर से पहुंचे तो पूरे 98 सदस्यों को इसकी सज़ा मिली. दो घंटे सिर्फ़ ‘कमिटमैंट’ यानि कि प्रतिबद्धता पर चर्चा हुई. फिर किसी की हिम्मत नहीं हुई कि देर से आते.

शालिनी ने अमृत के लिए यूस्टन रोड पर ही एक कमरे का इंतज़ाम कर दिया था कि रात बेरात को उसे अकेले घर न आना पड़े. अमृत को ये आज़ादी और खुलापन अजीबोग़रीब लग रहा था. वह यूँ ही घबरा रही थी कि उसे कुछ समझ नहीं आएगा; वहाँ कई लोग विदेशों से थे जिनकी अंग्रेज़ी अमृत से भी गई-बीती थी.

लोगों के दुखड़े सुन सुनकर अमृत को लगा कि उनके मुकाबले में उसकी अपनी परेशानियाँ तो कुछ भी नहीं थीं. एक माँ अपने अकेलेपन को रो रही थी कि उसके बच्चे स्वार्थी हो गए थे, पत्नी कह रही थी कि पति उसकी मदद नहीं करता और पति कह रहा था कि पत्नी के पास उसके लिए समय नहीं था, एक मुसलमान युवक का पिता बचपन में रोज़ उसके साथ बलात्कार किया करता था; उसकी बीवी भी, जो इस कोर्स में उसके साथ ही थी, बलात्कार की शिकार थी. उसकी बातों से ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके परिवार में पुरुषों को बच्चियों के साथ बलात्कार जायज़ था. एक पोलिश लड़की थी जो आँधी पानी के लिए भी ख़ुद को ज़िम्मेदार समझती थी और जब देखो रोना शुरु कर देती थी. अमृत का दिमाग़ घूम गया. उसने तो जीवन में अपनी ग़लती कभी मानी ही नहीं; सदा यही सोचा कि वह ग़लत हो ही नहीं सकती.

पहले पहल तो अमृत को लगा कि ये लोग कैसे अपनी इतनी निजी बातें सबके सामने बता रहे हैं पर फिर लगा कि यहाँ कौन किसी को जानता है, अपने मन की भड़ास निकालने का इससे अच्छा मौका फिर कब मिलेगा! धीरे धीरे सभी खुलने लगे. खाड़ी के एक बहुत बड़े जनरल की बेटी थी, सादिया, जिसका कहना था कि माँ का प्यार अशर्त होना चाहिए पर उसकी माँ उसे पढ़ाई में हमेशा अव्वल आने पर ही प्यार देती थी. इस बात को लेकर इतनी बहस हुई कि टीम लीडर को बीच बचाव करना पड़ा. उसके बहुत से प्रश्न पूछने के बाद ये सामने आया कि पत्नी और बेटियों की आँखों के सामने जनरल की नृशंस हत्या कर दी गई थी. लीडर ने जानना चाहा कि कभी उसने ये जानने की कोशिश की कि देश में चल रहे दंगे फ़साद के बीच दो जवान बेटियों की विधवा माँ पर क्या बीती होगी. राजघराने में पली बढ़ी उसकी माँ एकाएक बाज़ार में खड़ी कर दी गई, घर बार से बेदखल. अपने दुख को भुलाकर उसने बेटियों को पढ़ाया लिखाया और उन्हें अपने पाँव पर खड़ा होने के लिए ललकारा. टीम लीडर ने कहा कि ऐसी स्थिति में माँ ने जो बहादुरी दिखाई, उसके लिए बेटियों को उसका आभार मानना चाहिए.

98 लोगों को सात सदस्यों के स्मूहों में बांट दिया गया था, जिन्हें अभ्यास और होमवर्क इकट्ठे बैठकर अथवा फ़ोन या ई-मेल के ज़रिये करना होता था. किसी एक सदस्य ने भी यदि अपनी ‘कमिटमैंट’ पूरी न की हो तो पूरे समूह को असफल माना जाता था. रात को नौ बजे घर पहुंचने के बाद भी सदस्य एक दूसरे को फ़ोन करते थे कि होमवर्क पूरा हो गया या नहीं. खाने या चाय के लिए बाहर जाते तो एक दूसरे को याद दिलाते कि चलो भागो समय हो गया था.

‘कमिट्मैंट, कमिट्मैंट ऐंड कमिट्मैंट दिस कोर्स इज़ आल एबाउट कमिट्मैंट ऐन्ड टेकिंग रिसपौंसिबिलिटि फ़ौर यौर ऐक्शंस.’ उठते बैठते फ़ोरम लीडर सभी को याद दिलाता रहता. उसके ‘लाइफ़ इज़ नथिंग, नो-थिंग’ वाले कथन पर कई लोग चिढ़ गए. ‘हाउ कैन लाइफ़ बी नथिंग?’ अमृत ने सोचा कि यदि जीवन कुछ नहीं तो वे सब यहाँ क्या कर रहे थे; ‘कुछ नहीं’ से लड़ने को तैय्यारी? ज़िम्मेदारी और प्रतिबद्धता इस कोर्स के दो प्रमुख नियम थे. अमृत को लगा कि यदि परिवार, पड़ौस और पूरे देश के लोग एक दूसरे की ख़ुशी का वादा करें तो संसार कैसे अच्छे से चले.

दूसरे दिन फ़ोरम लीडर ने लोगों के ‘रैकेटस’ के विषय में तफ़सील से बात की तो अमृत को लगा कि अपनी एक गलती स्वीकार कर लेने की बजाय वह एक हज़ार बहाने बनाना पसन्द करती थी. अपनी हर मूर्खता का उसके पासे एक जवाब होता था. ‘अमृत और ग़लत, हो ही नहीं सकता!’ अपनी ही बात वह ख़ुद मुस्कुरा उठी.

तीसरे दिन लगा कि सबने अपने मन की गांठे खोल डाली थीं, माँ बाप, भाई बहन, पति पत्नी से खुल कर बातें कीं तो समाधान ख़ुद ही सामने आ गए. कई लोगों ने जाना कि उनकी चुप्पी ही ख़ुशी में आड़े आ रही थी. कई थे जो अपने परिवार से बात करने को भी राज़ी नहीं थे पर ग्रूप के दबाव में आकर उन्हें वचन निभाना पड़ता था. सभी ने महसूस किया कि छोटी छोटी बातों को मन से लगाए लोग कितने दुखी थे. उनकी परेशानियाँ दुनिया की आम परेशानियाँ थीं. लोगों ने अपने दिलो दिमाग़ को इस कूड़े से भर रखा था और जगह ही नहीं बची थी कि वे कुछ और सोच सकें. लीडर ने कहा कि यदि सब लोग अपने दिमाग़ों को बेकार की बातों से खाली कर डालें तो ढेर सी जगह ख़ाली हो जाएगी, जिसे सकारात्मक विचारों और इरादों से भरा जा सकता था.

अमृत की कहानी कोई नई नहीं थी. उसने महसूस किया कि रेचल और सन्नी के बिगड़े हुए सम्बन्धों के लिए वह ख़ुद भी उतनी ही ज़िम्मेदार थी, जितने कि वे दोनों. सन्नी माँ के बहुत क़रीब था. जब रेचल उन दोनों के बीच आई तो सब गड़बड़ हो गया. ज़िन्दगी बदली तो दोनों सकपका गए और रेचल को दोष देने लगे. एक छोटी उम्र की लड़की से, जो भारतीय संस्कृति के विषय में कुछ नहीं जानती, वे ऊँची अपेक्षा रख रहे थे. भाषा रहन सहन, पहनावा, खान पान, सभी कुछ उसके लिए नया था. रेचल ने पूरी कोशिश की अपने को सन्नी के परिवार और देश के रीति रिवाज़ अपनाने की. जब ससुराल से कोई मदद नहीं मिली तो वह झक मार कर अपनी माँ के पास गई. अनपढ़ नोरीन ने उसे और उलझा दिया. जल्दी ही वह दो बच्चों की माँ बन गई. सन्नी ने कभी माँ की ही मदद नहीं की तो रेचल की क्या करता. घर और बच्चे को सम्भालने के अलावा, सन्नी को धुले और इस्त्री किए हुए कपड़े चाहिए थे, बढ़िया नाश्ता और खाना चाहिए था और शाम को जब रेचल चाहती कि कम से कम अब तो वह बच्चों को सम्भाले, तो वह उठकर पब चल देता था. रात को थका मांदा घर लौटता तो माँ की शिकायतें सुनकर रेचल को एक दो थप्पड़ भी जड़ देता.

अमृत को आज बहुत बुरा लग रहा था कि उसने रेचल के साथ बहुत ज़्यादती की थी. वह एक अच्छी लड़की थी. नोरीन के बहकावे में आकर यदि उसने तलाक के लिए अर्ज़ी दे दी तो बच्चों का क्या होगा? नोरीन के बच्चों की तरह बैठकर वे सिगरेट और शराब पिएंगे और ड्रग्स बेचेंगे. अमृत का दिल बैठ गया.

‘यू कैन नौट बी हैप्पी इफ़ वन पर्सन इन यौर लाइफ़ इज़ सफ़रिंग. इफ़ यू वांट टु बी हैप्पी, लर्न टु फ़ौर्गिव एंड लुक फ़ौरवार्ड टु ए रिन्यूड लाइफ़.’ फ़ोरम लीडर ने कहा तो अमृत ने उसी समय 98 लोगों के सामने खड़े होकर वादा किया कि वह अपने बहु और बेटे से माफ़ी माँग लेगी और घर की ख़ुशी के लिए अपने स्वाभिमान को त्याग देगी. परिवार या पड़ौस के दुख से कोई भी अप्रभावित नहीं रह सकता. ख़ुश रहना हो तो माफ़ कर दो या माफ़ी माँग लो और आगे की सोचो. कह तो दिया पर अमृत को लगा कि बेटे बहु से माफ़ी मांगना ऐसा आसान नहीं था. लौटरी की मशीन में घूमते नम्बरों की तरह विचार उसके मन में चक्कर लगा रहे थे. ‘सौरी’ कहने का उसे कोई आसान तरीक़ा नहीं मिला. रात के साढ़े नौ बजे उसके मित्रों ने उसे अपना वादा निभाने की याद दिलाई.

‘यू कैन डु इट अमृत, यू जस्ट हैव टु पिक अप दि फोन.’ उसकी ग्रुप लीडर आइलीन उसे प्रोत्साहित कर रही थी.

रात के दस बजे उसने सन्नी और रेचल को फ़ोन किया और उन्हें लैंडमार्क फ़ोरम के बारे में तफ़सील से बताया. अदिति से कहकर उसने ब्रोशर्स आदि सन्नी के घर पोस्ट करवा ही दिए थे. रेचल और नोरीन को लगा था कि अमृत की ये कोई नई चाल थी.

‘मैं त्वानु दोनां नूँ सौरी कैना चाहून्दी हां. तुस्सी दोनों वी आपणी सारी मिसअंडरस्टैंडिंग्स क्लियर करके नवी ज़िन्दगी शुरु करो. मैं थ्वानु बस ऐसे लई फ़ोन कीता सी.’ अमृत को लगा कि जैसे फ़ोन करने के बाद वह हल्की हो गई हो.

तीन लम्बे दिनों की लम्बी लम्बी उबाऊ बहसों का यदि निचोड़ निकाला जाए तो शायद आधे घंटे का भी मसाला न निकले पर इस सबसे गुज़र के ही शायद उसे निष्कर्ष समझ में आया था. हालांकि अमृत ने अपनी कठिनाई सबके सामने नहीं कुबूल की थी पर अन्य युवक और युवतियों, ख़ासतौर पर माँ, बहुओं और बेटों के खट्टे मीठे अनुभवों से उसने बहुत कुछ सीखा था. अमृत घर लौटी, जादु की एक छड़ी लिए जिसे घुमा के वह अपने परिवार को राह पर ला सकती थी.

सोमवार की सुबह सुबह अमृत बेटे के घर पहुंच गई. उसके क़दमों में एक नया उत्साह था. सारे काम रुकवा के उसने रेचल और सन्नी को अपने पास बैठाया. वे दोनों सकपकाए हुए तो तब से ही थे जब अमृत ने फ़ोन पर उन दोनों से माफ़ी माँगी थी

’शाम नू बच्चयाँ नु मेरे वल छोड़ के तुसी दोनों कहीं बार जाओ, ते ठंड़े दिमाग़ नाल गल्ल बात करो. यू नो, इफ़ वन औफ़ अस इज़ अनहैप्पी, नन औफ़ अस कुड बी हैप्पि.’ अमृत ने कहा तो सन्नी बौखला गया. ’आइ हैव आल्सो लरन्ट ए लौट फ़्रौम दि ब्रोशर्स. आइ ऐम सो सौरी मम, वी विल बी दे बैस्ट औफ़ फ़्रैंड्स फ़्रौम नाउ औन.’ रेचल की आवाज़ में परिपक्वता की एक नई झलक थी.

‘थैंक्स रेचल बेटे, साड्डी ते आप्णी कोई कुड़ी नई सी, फेर बी मैं तैनुं नई अपना सकी. पर जो होया, ओते राख़ सुट्टो. हुन मैं त्वाडी दोन्याँ दी लाइफ़ लई ते त्वाडे बच्चयाँ दे फ़्यूचर लई वी सोचदी हाँ.’ सन्नी उन दोनों को हैरानी से देख रहा था. रेचल ने सन्नी की ओर बड़ी आशा से देखा.

‘आइ एम सीरियस, पुत्तर, मेरे मरन तों पैल्ले तुसी दोनां फेर से हैप्पी रैन लगो जिस तरां मैरिज दे वेले रउन्दे सी.’

’ओके मौम.’ आदत के अनुसार सन्नी ने कहा.

’ओके मौम से नहीं चलूगा हुन पुत्रा. तुस्सी दोना नूं बदलना पउगा. सन्नी, तैन्नुं ते होर वी ज़ियादा. तू रेचेल दी मदद करेगा, उसकी कदर करेगा तो ओहो वी तेरी कदर करेगी. तुस्सी दोनां प्यार से रओगे ते बच्चे ख़ुद ई समज जानगे.’

‘मैं बदलूँ?’ सन्नी अब भी अड़ा था बदलने वाली बात सिर्फ़ रेचल पर लागू होनी चाहिए थी.

‘तैन्नु ते पुत्रा एडवांस कोर्स वी कराना पवुगा.’ अमृत ने हंसते हुए कहा तो रेचल खिलखिला के हंस पड़ी. वह सीधी और दिल की साफ़ थी, प्यार से समझाओ तो हर बात मान जाती थी.

‘हाँ पुत्तर जी, ये नया ज़माना है और तू अब इंडिया में नईं है, समझा?’ सन्नी अभी पच्चीस का हुआ था और शक्ल सूरत से चालीस का लगता था. बियर पी पीकर उसकी तोंद निकल आई थी. वीकेंड पर वह शेव तक नहीं करता था. रेचल चिल्लाती रहती पर वह बच्चों को हाथ तक नहीं लगाता था. बाईस साल की रेचल अभी ख़ुद ही बच्ची थी, जिसके ऊपर घर बार की सारी ज़िम्मेदारियाँ छोड़ दी गई थीं. ऊपर से सन्नी की रुखाई के लिए भी अमृत बेचारी रेचल को ही दोष देती रही थी, ये कह कहकर कि ‘आपणे मर्द नुं रिझा लई कुड़्याँ की पई नई कर दीं? शम नुं सन्नी जद घार आन्दा ए ते तूं लीरे पाके पई फिरदी ए.’ जब कि घर पहुंचकर सन्नी कभी रेचल की ओर देखता भी नहीं था. अमृत को आज अपनी और सन्नी की सभी ज़्यादतियाँ साल रही थीं. बस अब और नहीं.

’तुम दोनों मेरे सिर पे हाथ रख के प्रौमिस करो.’ सन्नी की देखा देखी रेचल ने भी अमृत के सिर पर हाथ रख दिया. अमृत ने हिन्दी और अंग्रेज़ी में लिखी शपथ का एक एक पन्ना दोनों को पकड़ा दिया.

’हम वादा करते हैं कि हम पूरी कोशिश करेंगे कि अपने बच्चों को एक साफ़ सुथरा और प्यार भरा वातावरण दें ताकि आगे चलकर वे भी अच्छे इंसान और आदर्श नागरिक बन सकें. भविष्य में कोई अनबन हुई तो हम उसे आपस में बैठकर सुलझा लेंगे.’ रेचल और सन्नी ने अमृत के वाक्यों को दोहराया. अमृत ने दोनों के गाल चूमकर उन्हें दुआ दी. रेचल ने माँ की पसन्द की सौंफ़ और इलाइची वाली चाय बनाई और फिर घंटों बैठकर उन तीनों ने अपने गिले शिकवे दोहराए. अमृत के बार बार माफ़ी माँगने पर उन दोनों को भी शर्म आई. दिल हल्के हुए तो उन्हें लगा कि कैसी कैसी बेकार की बातें मन में बिठाए वे मुँह सुजाए रहे.

इतवार की सुबह सन्नी और रेचेल बच्चों को छोड़ने अमृत के फ़्लैट पर पहुंचे तो देखा दरवाज़ा खुला था, माँ की आँखों की तरह.

अदृश्य उपस्थिति और आकलन की सुर्खियाँ

सुनील मिश्र

शिल्पा शेट्टी की नाराजगी हो सकता है, मीडिया के प्रति अब कम हो गयी हो। वैसे वे सहज और हँसमुख हैं, मसलों को ज्यादा तूल नहीं देतीं। अपनी हँसी और समझदारी से कठिनाइयों का भी निवारण कर लेती हैं। रिचर्ड गैरे ने एक कार्यक्रम में अकस्मात जब उनको लगभग बुरी तरह भींच कर चूम लिया था, तब भी क्षण भर को हतप्रभ होकर वे हँसने ही लगी थीं। बाद में इस घटना को भी उन्होंने सहज बताया, भले ही मीडिया ने उसको खूब प्रचारित किया, चैनलों ने उसके लाखों री-प्ले किए। विषय ने जब शिल्पा की तरफ से ही उसको तत्परता से ठण्डा होते देखा तो दो-एक दिन खबरे चल-चला के बात खत्म हो गयी।

मीडिया का मसला ऐसा ही है। वह सार्वभौम है, हर जगह उपस्थित और कायम। ऐसी तमाम जगहों पर जहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता, वहीं मीडिया की उपस्थिति हो सकती है, कैसे, यह शोध और जिज्ञासा का विषय है। खबरें तो उस बंगले के ड्राइंग रूम से भी निकलकर बाहर आ जाती हैं, जहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता। बात हो सकता है, घरेलू स्तर पर चर्चा के दायरे में आती हो मगर उसका बॉक्स बन जाता है। हिन्दी सिनेमा के महानायक सबसे ज्यादा परेशान मीडिया से रहा करते हैं। बेटे के ब्याह में उन्होंने मीडिया तो खैर छोडि़ए कई अपने खास मित्रों शुभचिन्तकों को ही नहीं बुलाया, लेकिन मीडिया ही से वैवाहिक रस्मों के फोटो और दृश्य बाहर आये। मीडिया ने ही इस बात की चिन्ता भी की कि जूनियर बच्चन के परिवार में नयी खुशी कब आयेगी, इस पर भी बिग बी खिन्न रहे। एकाध बार उन्होंने अपने ब्लॉग में यह सब लिखा भी कि मीडिया उनके परिवार के पीछे पड़ा है।

अब एक बार फिर मीडिया से इस बात की खबरें प्रचारित हैं कि ससुर और बहू में परस्पर खिन्नता या खटकने की स्थितियाँ बनी हैं। इसका कारण है मधुर भण्डारकर की नयी फिल्म जिसमें ऐश्वर्य मुख्य भूमिका निबाहने जा रही हैं। जिस तरह की फिल्म की स्क्रिप्ट है उसको देखकर लगता है कि शायद ऐश्वर्य को किरदार के अनुरूप ग्लैमरस दिखना पड़े जो परिवार को कभी पसन्द न आये शायद सो बिग और जूनियर दोनों बी ने इस मसले पर उनसे चर्चाएँ की हैं। ऐश्वर्य के अपने कमिटमेंट निर्देशक के संग हैं। मधुर भी परफेक्शनिस्ट हैं वे अपनी फिल्म के अनुरूप ही काम करेंगे। हालाँकि यह भी एक बात है कि क्या मधुर में इतना दुस्साहस है कि वे बड़े बच्चन की इच्छा के खिलाफ उस तरह का काम ऐश्वर्य से ले पायें जो अपेक्षित है?

गूढ़ प्रश्र हैं, इनका उत्तर वक्त ही बताएगा। मीडिया की सुचिन्तित दृष्टि के पीछे अपने लक्ष्य और आज के स्थापित किए हुए सिद्धान्त हैं, नयी पीढ़ी इस समूचे समय को अपनी तरह से देख और बरत रही है, सो दिखायी देने वाला परिदृश्य और दृश्य दोनों, दुतरफा प्रभाव के साथ भी प्रकट होंगे, आखिर अदृश्य उपस्थिति और आकलन की सुर्खियों पर निर्भर भी तो बहुत कुछ है।

कांग्रेस और ईसाई मिशनरियों द्वारा संपोषित है अन्ना अभियान

गौतम चौधरी

अन्ना का अनशन तुडवा दिया गया है और अब अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में अलख जगाने निकले हैं। कुछ लोग अन्ना को दूसरे गांधी के रूप में प्रचारित कर रहे हैं तो कुछ लोग उन्हें मोदी समर्थक होने पर पानी पी पी का गलिया रहे हैं। भारत की मीडिया इस पूरे राजनीतिक नाटक को आजादी की दूसरी लडाई घोषित करने पर तुली है। हर ओर से यही बात सुनने को मिल रही है कि अन्ना ने तो कमाल कर दिया और एक बार फिर से देश भ्रष्टाचार के मामले पर उठ खडा हुआ है। लेकिन जब संपूर्णता में विचार किया जाये तो एक प्रष्न मन को सालता है कि सचमुच इस देश से भ्रष्टाचार के रक्तबीज का अंत हो पाएगा? अन्ना के साथ वालों पर ही विचार किया जाये, जो लोग अन्ना के साथ हैं क्या वे दूध के धुले हैं? पहली बात तो यह है कि अन्ना के लिए देशभर में लोकमत जुआने का काम विदेषी पैसे पर पल रहे पंचसिताराई समाजसेवी संगठन एवं ईसाई मिशनरी के विद्यालय, महाविद्यायों के विद्यार्थी कर रहे हैं। इसके पीछे का कारण क्या हो सकता है, इसपर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

इधर समाचार माध्यमों ने इस आन्दोलन को हाथोंहाथ लिया। बाद में जब तर्क वितर्क होने लगे तो कुछ बुध्दिजीवियों ने इस मामले को समाचार वाहिनियों के टीआरपी से जोड दिया। अन्ना का अनशन और समाचार माध्यमों द्वारा कवरेज को देखकर ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा आन्दोलन स्वस्फूर्त नहीं बल्कि प्रायोजित है। सो अन्ना के इस अभियान को सहजता से लेना कई मामलों में घातक साबित हो सकता है। राजनीति के हिसाब से देखा जाये तो कांग्रेस का नंबर एक का दुष्मन भारतीय जनता पार्टी नहीं अपितु मराठी क्षत्रप शरद पवार का कुनवां है। कांग्रेस को महाराष्ट्र में शरद पवार से ही चुनौती मिल रही है। इधर कांग्रेसी महारानी सोनिया गांधी को इस बात का डर है कि अगर डॉ0 मनमोहन सिंह जम गये तो उनके लाडले राहुल के लिए खतरा बनकर उभरेंगे तब इटली की सत्ता को चुनौती देना आसान हो पाएगा। इसलिए सोनिया जी आजकल खासे चिंतित हैं। यही नहीं बाबा रामदेव, के0 एन0 गोविन्दार्चा और सुब्रमण्यम स्वामी की तिकडी ने कांग्रेस को और अधिक डरा दिया है। ऐसे में इस शक को बल मिलने लगा है कि आन्ना के इस पूरे आन्दोलन को कांग्रेस पार्टी एक खास योजना के लिए प्रयोजित कर रही है। चर्च संपोषित संगठनों और शैक्षणिक संस्थाओं के समर्थन को देखकर कहा जा सकता है कि इस मामले में चर्च की भी भूमिका है। ऐसा मानना गलत नहीं होगा कि अन्ना अभियान को कांग्रेस और ईसाई चर्च का समर्थन प्राप्त हो। यही नहीं इस आन्दोलन को अमेरिकी लॉबी वाले गैर सरकारी संगठनों का भी सहयोग मिल रहा है।

हालांकि अन्ना के इस अनशन से किसी को एतराज नहीं होना चाहिए। अन्ना और उनके रणनीतिक समर्थकों ने खीचतान कर भ्रष्टचार के खिलाफ लोहा लेने में कोई कमी भी नहीं की है लेकिन सवाल यह उठता है कि जो अधिवक्ता सर्वोच्च न्यायालय में मात्र एक घंटा समय देने के लिए 25 लाख रूपये लेता है वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का सफल सिपाही हो सकता है क्या? विदेषी पैसों पर सिनेमा बनाने वाले, विदेषी पैसों पर समाज सेवा का नाटक करने वाले तथा ईसाई मिशनरी विद्यालयों के बच्चों द्वारा यह लडाई लडी जा सकती है क्या? ऐसा संभव नहीं है। इसलिए अन्ना का अभियान 100 प्रतिशत असफल होगा। आज इस देश का संपूर्ण सरकारी विभाग भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया है। रेलवे का टिकट संग्राहक पैसे लेकर सीट बेच रहा है। विद्यालय में बिना घुस के प्रमाण-पत्र नहीं मिलता, बिना घुस का पुलिस प्राथमिकी नहीं लिखती, आज कोई ऐसा विभाग नहीं जहां बिना पैसे काम हो जाये। जो अखबार लगातार भ्रष्टाचार के खिलाफ लिख रहा है उसकी बुनियाद भष्टाचार पर टिकी है। इस देश का ऐसा कोई अखबार नहीं जो अपना सही प्रसार संख्या दिखाता हो। हर अखबार को सरकार के सूचना एवं लोकसंपर्क विभाग में कमीशन देकर विज्ञापन लेना पडता है। कमीशन के रेट खुले हैं। जो अखबार कमीशन नहीं देता उसे डीएभीपी तक का विज्ञापन नहीं दिया जाता। ऐसे देश में कोई यह कहे कि एक विधेयक के पारित होने मात्र से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा तो यह आकास-कुषुम के समान कल्पना है। देश के सर्वोच्च पंचायत में सूचना के अधिकार को कानूनी जामा पहनाया गया, तय किया गया कि हर विभाग सूचना मांगने वाले को सूचना उपलब्ध कराएगा लेकिन क्या आज ऐसा हो रहा है? एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा। विगत वर्षों गुजरात में किसानों ने आत्महत्या की। जब एक सूचना के अधिकार से जुडे कार्यकर्ता ने पूरे प्रदेश में हुई घटनाओं का ब्योरा मांगा तो प्रदेश के पुलिस विभाग ने सूचना देने से मना कर दिया। फिर वह कार्यकर्ता सूचना आयूक्त से मिला सूचना आयूक्त के आदेश पर पुलिस विभाग थोडी हडकता में आयी लेकिन उक्त कार्यकर्ता को एक पत्र लिखकर सूचित किया गया कि इस संदर्भ की सूचना विभाग के पास उपलब्ध नहीं है इसलिए वे प्रत्येक जिला केन्द्र के पुलिस मुख्यालय से यह सूचना प्राप्त करें। उक्त कार्यकर्ता ने प्रदेश के सूचना अधिकारी को संपर्क कर फिर से आवेदन दिया। इस बार सूचना अधिकारी ने पुलिस विभाग को कडे शब्दों में डांट पिलाई, बावजूद इसके पुलिस विभाग ने प्रदेश के 26 जिलों में से मात्र 13 जिलों में आत्महत्या करने वाले किसानों की सूचि दी और कहा कि अभी तक केन्दीकृत रूप से उनके पास इतनी ही सूचना उपलब्ध हो पायी है। तबतक दो साल का समय बीत चुका था। जो पुलिस अधिकारी उस समय पुलिस मुख्यालय का सूचना अधिकारी था आज वह अहमदाबाद महानगर पुलिस आयुक्त है। केवल गुजरात में ही अभी तक तीन आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। देशभर में ऐसी कई हत्याएं हुई है लेकिन हत्या करने वाला गिरोह अभी तक पुलिस गिरफ्त से बाहर है। बिहार में स्वण्0श्निर् ाम चतुर्भुज सडक परियोजना में काम करने वाले इमानदार अभियंता को मौत के घाट उतार दिया गया। उक्त अभियंता ने कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री कार्यालय को परियोजना में हो रही धांधली के लिए पत्र लिखा था और उसकी हत्या कर दी गयी। हालांकि हत्यारा पकडा गया, ऐसा बताया जाता है, लेकिन उस संदर्भ का प्रधानमंत्री कार्यालय से पत्र लिक करने वाला आदमी आजतक पुलिस की पकड से बाहर है। इस देश में गांधी मारे गये। राष्ट्रवादी चिंतक पं0 दीनदयाल को मार दिया गया, प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को ताशकंद में विश दिया गया, इन्दिरा गांधी को मार दिया गया, राजीव को बम से उडा दिया गया। इस देश में ऐसी कई घटनाए हुई है जिसका असली दोषी आज भी पुलिस और कानून के सिकंजों से बाहर है। देश में भ्रष्टाचार के, घोटाले के कई मामले उजागर हुए लेकिन किसी पर कोई कार्रवाई हुई क्या? बस जेल होता है।

कुल मिलाकर देखें तो अन्ना का अनशन भी एक राजनीतिक अभिनय है। अन्ना हो सकते हैं बढिया आदमी हों, यह भी सत्य है कि अन्ना के साथ काम में जुटे कुछ लोग अच्छे हैं लेकिन अन्ना के इर्द गीर्द रहने वालों पर भडोसा नहीं किया जाना चाहिए। अन्ना के अभियान को हवा देने की जिम्मेदारी जिन लोगों ने उठा रखी है वे सामाजिक कार्यकर्ता सदा से कांग्रेस के पुरोहित रहे हैं। उनका काम ही रहा है कि देश के विभिन्न सामाजिक संगठनों में प्रवेश का कांग्रेस का हित पोषण करना। फिर इनको पैसे देने वाली संस्थाओं पर पूंजीवादी अमेरिका और जडवादी ईसाइयों का अधिकार है। जो पूरी दुनिया को ईसाई बनाने पर तुले हैं। ऐसे में अन्ना के आन्दोलन को न तो देशहित से जोडकर देखा जाना चाहिए और न ही आम भारतियों का आन्दोलन माना जाना चाहिए। बाबा रामदेव से घबराई कांग्रेस अन्ना का उपयोग कर रही है तो दूसरी ओर सोनिया गांधी देश के प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह को दबाव में लाने के लिए अन्ना के माध्यम से निषाना साध रही है। इधर ईसाई मिशनरियों से संपोषित संस्था देश को अस्थिर करने के फिराक में जिसे अन्ना जैसे सीधे सपाटे व्यक्ति का कंधा उपलब्ध करा दिया गया है। इस मामले में क्या होगा यह तो समय बताएगा लेकिन फिहाल जो लोग अपनी गोटी लाल करने में लगे हैं उनके मार्ग में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ बुध्दिजीवियों ने रोडा अटका दिया। बहुत दिनों के बाद संघ ने बुध्दिमानी का काम किया है। भ्रष्टाचार के मामले पर संघ ने न केवल बाबा रामदेव की पीठ थपथपाई है अपितु अन्ना को भी अपना समर्थन दिया है। इसलिए जो लोग यह मान कर चल रहे हैं कि अन्ना का कंधा उन्हें सहुलियत से उपलब्ध होगा ऐसा संभव नहीं है। इस पूरे ऐपीसोड में भले लग रहा हो कि कांग्रेस और ईसाई चर्च को फायदा हुआ हो लेकिन ये लोग अपने बुने जाल में ही फसने वाले हैं।