अव्वल दर्जे के चरित्रहीन होने के चलते कल मेरे अजीज ने मुझे अपनी दिली तमन्ना बताते हुए कहा, ‘हे मित्र! मेरा जन्म पुन: हो और गलती से मुझे का सरकारी कर्मचारी का चोला मिले तो मैं इसी विभाग में इसी पद को प्राप्त होऊं ताकि रिश्वत लेने के लिए नए सिरे से मन को न मारना पड़े। बस कुर्सी पर बैठे और धंधा चालू! वैसे अगले जन्म में मैं विवाह के पचड़े में पड़ूंगा तो नहीं पर अगर पड़ना ही पड़े तो घरवाली ये न मिले, मुझे रिश्वतखोर बनाने में पचहतर प्रतिशत हाथ इसी का है। इससे अच्छा तो पड़ोसी की मिल जाए, गंवार है पर पति को गिरने के लिए रोज दस बजे जागने से पहले धक्का तो नहीं देती। अगर मैं गलती से इस जन्म में आजकल ही रिश्वत लेता हुआ पकड़ा जाऊं तो पता है पकड़े जाने के बाद मेरा बसेरा कहां हो?’
‘कहां हो! मैं तो चाहता हूं कि किसी नजदीक की ही कारागार में हो ताकि मैं तुम्हें रोज घर की ताजी रोटी लेकर आ सकूं । सच कहूं, जनता की नजरों में तुम जो हो सो हो, पर मेरी नजरों में तुम केवल और केवल मेरे दोस्त हो धर्मेंद्र और अमिताभ बच्चन की शोले वाले, ‘मैंने अपने लंगोटिए के प्रति अपनी अटूट निष्ठा व्यक्त करते हुए कहा तो वह गुस्साते बोला, ‘ये पुरानी फिल्मी दोस्ती परे कर! जब देखो फिल्मों से बाहर ही नहीं निकल पाता। रही बात घर की रोटियों की तो अब घर की रोटियों में वह ऊर्जा कहां जो तिहाड़ कारागार की रोटियों मे है। अगर कारागार में मेरा बसेरा हो तो बस मेरा बसेरा तिहाड़ कारागार में हो। भगवान भी अगर मुझसे पूछे कि हे बंदे! रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने के बाद भी क्या स्वर्ग जाना चाहेगा तो मैं हाथ जोड़ कर कहूंगा कि हे भगवान! अगर मैं सौभाग्यवश आपकी कृपा से रिश्वत लेता हुआ पकड़ा जाऊं तो मुझे बिना परेशानी के तिहाड़ कारागार भिजवा देना जहां हमारे देश की ईमानदारी, राष्ट्रीयता, देश भक्ति, आदर्शों के कुशल चितेरे, देश के गौरव पूज्यपाद राजा साहब हाथ में बैडमिंटन घुमाते मचल रहे हों, कुबेर सहोदर कलमाड़ी साहब नोटों को गिनने के बदले अखबार के षब्दों को गिन रहे हों। दाईं ओर परम श्रध्देय षर्मा जी हनुमान चालीसा पढ़ रहे हों तो बगल में प्रात: स्मरणीय ललित जी कसरत कर रहे हों। सामने कालरूपी पंजाबन मैया को सुलाने के लिए देवी रूपा गुप्ता लोरी गा रही हों तो बगल में कुलश्रेष्ठ शरद जी टीवी चैनल को नया रूप देने के लिए टीवी की दुनिया में खोए हों। वाह! क्या स्वर्गिक दृश्य होगा इन दिनों तिहाड़ कारागार का! बंद आंखों से देखने पर भी मन बाग-बाग हो उठता है। जब वहां जाकर देखूंगा तो राम जाने मेरा क्या हाल होगा!
अब तो सरस्वती-कम-लक्ष्मीरूपा कनिमोझी जी भी वहां आराम फरमाने आ गई हैं। उनकी कविताएं सुन अपने में देश प्रेम की भावना को विकसित करूंगा। इसी बहाने उनके साथ टीवी देखते हुए अपने फोटो खिचवा रिटायरमेंट के बाद राजनीति में मजे से प्रवेश कर नौकरी की रही सही कसर राजनीति में पूरी कर इस धरती पर अपने आने को सार्थ करूंगा।
इधर तो गर्मी के दिनों पूरा पूरा दिन घर बाकि तो सभी होते है पर घर कि बिजली सारा-सारा दिन गायब रहती है। पता नहीं किस अफसर के घर मजे से बेहया पसरी रहती है। इसी बहाने उदयीमन कवयित्री के सेल में पंखे के नीचे आराम से उनकी ताजी कविताएं सुन लिया करूंगा, अखबार पढ़ लिया करूंगा। घर में तो आजतक अखबार पढ़ने का दाव ही नहीं लगा। अखबार वाला अखबार घर में डालता बाद में है कि पड़ोसी अखबार मारने को उससे पहले तैयार रहता है।
सच कहूं मित्र! एक ही कारागार में ऐसी ऐसी महान विभूतियां का एक साथ संगम युगों के बाद होता है। एक साथ ऐसी महान हस्तियों के दर्शन हजारों सालों के बाद नसीब वालों को ही प्राप्त होते हैं। होगी जिसके लिए यह कारागार होगी, मेरे लिए तो यह महान हस्तियों की आराम स्थली है। आज की डेट में छोटी कारागारों में जाने से वह रूतबा नहीं बनता जो तिहाड़ कारागार में जाने से होता है। यहां से टुच्चे से टुच्चा बंदा भी इंटरनेशनल होकर ही बाहर निकलता है तो यमराज भी उससे डरता है। इसलिए मैं तो सुबह उठकर भगवान से यही मांगता हूं कि अगर आज रिश्वत लेता पकड़ा जाऊं तो बस तिहाड़ कारागार ही भिजवाना। मैं नहीं चाहता कि छोटी सी कारागार में जाकर अपने बच्चे चरित्र का बरबाद करूं।
मित्र! हो सके तो एक चुटकी चरण रज इधर भी ले आना प्लीज!
केरल विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं, और कांग्रेस मोर्चे की सरकार मामूली बहुमत से बन चुकी है। जीते हुए उम्मीदवारों एवं मतों के बँटवारे के आँकड़े भी मिलने शुरु हो चुके हैं… कुल मिलाकर एक भयावह स्थिति सामने आ रही है, जिस पर विचार करने के लिये ही कोई राजनैतिक पार्टी तैयार नहीं है तो इस समस्या पर कोई ठोस उपाय करने के बारे में सोचना तो बेकार ही है। आईये आँकड़े देखें…
कांग्रेस मोर्चे ने 68 हिन्दुओं, 36 मुस्लिमों और 36 ईसाईयों को विधानसभा का टिकिट दिया था, जिसमें से 26 हिन्दू 29 मुस्लिम और 17 ईसाई उम्मीदवार चुनाव जीते। राहुल बाबा भले ही दिल्ली में बैठकर कुछ भी मुँह फ़ाड़ें, हकीकत यही है कि तमिलनाडु में कांग्रेस पूरी तरह साफ़ हो गई है, जबकि केरल में जिस “कांग्रेस” सरकार के निर्माण के ढोल बजाये जा रहे हैं, असल में उम्मन चाण्डी की यह सरकार “मुस्लिम लीग” (ज़ाहिर है कि “सेकुलर”) और केरल कांग्रेस (ईसाई मणि गुट) (ये भी सेकुलर) नामक दो बैसाखियों पर टिकी है।
अब वर्तमान स्थिति क्या है यह भी देख लीजिये – केरल विधानसभा के कुल 140 विधायकों में से 73 हिन्दू हैं (शायद?), 37 मुस्लिम हैं और 30 ईसाई हैं, यह तो हुई कुल स्थिति…जबकि सत्ताधारी पार्टी (या मोर्चे) की स्थिति क्या है?
सामान्य तौर पर होता यह है कि किसी भी विधानसभा में विधायकों का प्रतिनिधित्व राज्य की जनसंख्या को प्रतिबिंबित करता है, सत्ताधारी मोर्चे यानी सरकार या मंत्रिमण्डल में राज्य की वास्तविक स्थिति दिखती है… लेकिन केरल के इतिहास में ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि “सत्ताधारी मोर्चा” केरल की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा… कैसे? 140 सीटों के सदन में कांग्रेस मोर्चे को 72 सीटें मिली हैं, इन 72 में से 47 विधायक या तो ईसाई हैं या मुस्लिम… यानी केरल मंत्रिमण्डल का 65% हिस्सा “अल्पसंख्यकों” का हुआ, जबकि केरल में 25% जनसंख्या मुस्लिमों की है और 20% ईसाईयों की। इसका मोटा अर्थ यह हुआ कि 45% जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने के लिये 65% विधायक हैं, जबकि 55% हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने के लिये सिर्फ़ 35% विधायक (जिसमें से पता नहीं कितने मंत्री बन पाएंगे)… ऐसा कैसे जनता का प्रतिनिधित्व होगा?
आँकड़ों से साफ़ ज़ाहिर है कि विगत 10-15 वर्ष में मुस्लिमों और ईसाईयों का दबदबा केरल की राजनीति पर अत्यधिक बढ़ चुका है। इस बार भी सभी प्रमुख मंत्रालय या तो मुस्लिम लीग को मिलेंगे या केरल कांग्रेस (मणि) को… मुख्यमंत्री चांडी तो खैर ईसाई हैं ही। एक निजी अध्ययन के अनुसार पिछले एक दशक में मुस्लिम लीग और चर्च ने बड़ी मात्रा में जमीनें खरीदी हैं और बेचने वाले अधिकतर मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार थे, जो अपनी सम्पत्ति बेचकर कर्नाटक या तमिलनाडु “शिफ़्ट” हो गये…। एक और चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि केरल के सर्वाधिक सघन मुस्लिम जिले मलप्पुरम की जन्मदर में पिछले और वर्तमान जनगणना के अनुसार 300% का भयानक उछाल आया है। केन्द्रीय मंत्री ई अहमद ने दबाव डालकर, मलप्पुरम में पासपोर्ट ऑफ़िस भी खुलवा दिया है। मदरसा बोर्ड के सर्टीफ़िकेट को CBSE के समकक्ष माने जाने की सिफ़ारिश भी की जा चुकी है, अलीगढ़ मुस्लिम विवि की एक शाखा भी मलाबार इलाके में आने ही वाली है, जबकि शरीयत आधारित इस्लामिक बैंकिंग को सुप्रीम कोर्ट द्वारा झटका दिये जाने के बावजूद उससे मिलती-जुलती “अण्डरग्राउण्ड बैंकिंग व्यवस्था” मुस्लिम बहुल इलाकों में पहले से चल ही रही हैं।
हालात ठीक वैसे ही करवट ले रहे हैं जैसे किसी समय कश्मीर में लिये थे। ज़ाहिर सी बात है कि जब सत्ताधारी गठजोड़, राज्य की जनसंख्या के प्रतिशत का वास्तविक प्रतिनिधित्व ही नहीं करता, तो अभी जो नीतियाँ दबे-छिपे तौर पर जेहादियों और एवेंजेलिस्टों के लिये बनती हैं, तब वही नीतियाँ खुल्लमखुल्ला बनेंगी…। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के विधायकों और कार्यकर्ताओं में इसे लेकर “बेचैनी” नहीं है, लेकिन वह भी सत्ता का लालच, वोट बैंक की मजबूरी और केंद्रीय नेतृत्व के चाबुक की वजह से वही कर रहे हैं जो वे नहीं चाहते…। नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA), अब्दुल नासेर मदनी और PFI के आतंकी नेटवर्क की सघन जाँच कर रही है, इसकी एक रिपोर्ट के अनुसार त्रिवेन्द्रम हवाई अड्डे के समीप बेमापल्ली नामक इलाका सघन मुस्लिम बस्ती के रूप में आकार ले चुका है। विभिन्न सुरक्षा एवं प्रशासनिक एजेंसियों की रिपोर्ट है कि एयरपोर्ट के नज़दीक होने की वजह से यहाँ विदेशी शराब, ड्रग्स एवं चोरी का सामान खुलेआम बेचा जाता है, परन्तु विभिन्न मुस्लिम विधायकों और मंत्रियों द्वारा जिला कलेक्टर पर उस इलाके में नहीं घुसने का दबाव बनाया जाता है। वाम मोर्चे के पूर्व गृहमंत्री कोडियरी बालाकृष्णन ने एक प्रेस कान्फ़्रेंस में स्वीकार किया था कि PFI और NDF के कार्यकर्ता राज्य में 22 से अधिक राजनैतिक हत्याओं में शामिल हैं। यह स्थिति उस समय और विकट होने वाली है जब केन्द्र सरकार द्वारा “खच्चर” (सॉरी सच्चर) कमेटी की सिफ़ारिशों के मुताबिक मुस्लिम बहुल इलाकों में मुसलमान पुलिसकर्मी ही नियुक्त किये जाएंगे।
2011 के चुनाव परिणामों के अनुसार, 55% हिन्दू जनसंख्या के होते हुए भी जिस प्रकार केरल का मुख्यमंत्री ईसाई है, सभी प्रमुख मंत्रालय या तो मुस्लिमों के कब्जे में हैं या ईसाईयों के…तो आप खुद ही सोच सकते हैं कि 2015 और 2019 के चुनाव आते-आते क्या स्थिति होगी। जिस प्रकार कश्मीर में सिर्फ़ मुसलमान व्यक्ति ही मुख्यमंत्री बन सकता है, उसी प्रकार अगले 10-15 साल में केरल में यह स्थिति बन जायेगी कि कोई ईसाई या कोई मुस्लिम ही केरल का मुख्यमंत्री बन सकता है। जब यह स्थिति बन जायेगी तब हमारे “आज के सेकुलर” बहुत खुश होंगे… ये बात और है कि केरल में सेकुलरिज़्म को सबसे पहली लात मुस्लिम लीग और PFI ही मारेगी…। क्योंकि यह एक स्थापित तथ्य है कि जिस शासन व्यवस्था अथवा क्षेत्र विशेष में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 40 से 50% से अधिक हो जाता है, वहाँ “सेकुलरिज़्म” नाम की चिड़िया नहीं पाई जाती…
जबकि इधर, “सेकुलरिज़्म और गाँधीवाद का डोज़”, हिन्दुओं की नसों में कुछ ऐसा भर दिया गया है कि हिन्दू बहुल राज्य (महाराष्ट्र, बिहार) का मुख्यमंत्री तो ईसाई या मुस्लिम हो सकता है……देश की 80% से अधिक हिन्दू जनसंख्या पर इटली से आई हुई एक ईसाई महिला भी राज कर सकती है, लेकिन कश्मीर का मुख्यमंत्री कोई हिन्दू नहीं… जल्दी ही यह स्थिति केरल में भी दोहराई जायेगी…।
फ़िलहाल इन “ताकतों” का पहला लक्ष्य केरल है। जातियों में बँटे हुए हिन्दुओं को रगड़ना, दबोचना आसान है, इसीलिये समय रहते “चर्च” पर दबदबा बनाने की गरज से ही ईसाई प्रोफ़ेसर के हाथ काटे (Professor hacked in Kerala by PFI) गये थे (और नतीजा भी PFI के मनमुताबिक ही मिला और “चर्च” पिछवाड़े में दुम दबाकर बैठ गया)। ज़ाहिर है कि केरल के “लक्ष्य” से निपटने के बाद, अगला नम्बर असम और पश्चिम बंगाल का होगा…जहाँ कई जिलों में मुस्लिम जनसंख्या 60% से ऊपर हो चुकी है… बाकी की कसर बांग्लादेशी भिखमंगे पूरी कर ही देंगे…
सेकुलरिज़्म की जय हो… वामपंथ की जय हो… “एक परिवार” के 60 साल के शासन की जय हो…। यदि केरल के इन आँकड़ों, कश्मीरी पंडितों के बुरे हश्र और सेकुलरों तथा वामपथियों द्वारा उनके प्रति किये गये “बदतर सलूक” से भी कुछ नहीं सीखा जा सकता, तब तो हिन्दुओं का भगवान ही मालिक है…
भोपाल,23 मई,2011। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में शैक्षणिक सत्र 2011-12 में संचालित होने वाले विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश हेतु आवेदन करने की अंतिम तिथि 5 जून,2011 तक बढ़ा दी गयी है। पूर्व में यह तिथि 25 मई निर्धारित की गयी थी। प्रवेश परीक्षा पूर्व घोषित तिथि 12 जून, 2011 को सम्पन्न होगी। विश्वविद्यालय द्वारा मीडिया मैनेजमेंट, विज्ञापन एवं विपणन संचार, मनोरंजन संचार, कॉर्पोरेट संचार तथा विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी संचार में एम.बी.ए. पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। 2 वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत एम.जे. (पत्रकारिता स्नातकोत्तर), एम.ए.-विज्ञापन एवं जनसंपर्क, एम.ए.-जनसंचार, एम.ए.-प्रसारण पत्रकारिता, एम.एससी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं । तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रमों के अंतर्गत बी.ए.-जनसंचार, बी.एससी.- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बी.एससी.-ग्राफिक्स एवं एनीमेशन, बी.एससी.-मल्टीमीडिया तथा बी.सी.ए. पाठ्यक्रम संचालित हैं। एक वर्षीय पाठ्यक्रम के अंतर्गत विडियो प्रोडक्शन, वेब संचार, पर्यावरण संचार, योगिक स्वास्थ्य प्रबंधन एवं अध्यात्मिक संचार तथा भारतीय संचार परंपराएँ तथा पीजीडीसीए जैसे स्नातकोत्तर डिप्लोमा पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त एमसीए तथा बी.लिब. पाठ्यक्रम भी चल रहे हैं। मीडिया अध्ययन में एम.फिल. तथा संचार, जनसंचार, कंप्यूटर विज्ञान तथा पुस्तकालय विज्ञान में पीएच.डी. हेतु आवेदन आमंत्रित किये गए हैं। यह प्रवेश प्रक्रिया विश्वविद्यालय के भोपाल, नॉएडा एवं खंडवा स्थित परिसरों के लिए है। प्रवेश हेतु प्रवेश परीक्षा का आयोजन 12 जून 2011 को भोपाल, कोलकाता जयपुर, पटना, रांची, लखनऊ, खंडवा तथा दिल्ली/नोएडा केन्द्रों पर किया जायेगा। अधिक जानकारी विवरणिका और आवेदन पत्र हेतु दिनांक 16-22 अप्रैल 2011 के “रोजगार समाचार” तथा “एम्प्लोयेमेंट न्यूज़” एवं दिनांक 18-24 अप्रैल 2011 के “रोजगार और निर्माण” में प्रकाशित विज्ञापन देखें अथवा विश्वविद्यालय की वेबसाइट www.mcu.ac.in पर लागऑन करें या किसी भी परिसर में पधारें अथवा फोन करें 0755-2553523 (भोपाल), 0120-4260640 (नोएडा), 0733-2248895 (खंडवा)।विश्वविद्यालय के सभी पाठ्यक्रम रोजगारोन्मुखी हैं एवं मीडिया के क्षेत्र में रोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध कराते हैं।
बेटा लायक हो या नालायक, माता-पिता को तो उसका जन्मदिन मनाना ही होता है। यही हो रहा है आज जब यूपीए-2 अपने कार्यकाल के दो वर्ष पूरे कर अपना तीसरा जन्म दिवस मना रही है।
यदि सचमुच कुछ विशेष उपलब्धि सरकार के पास होती तो जश्न मनाना तो स्वाभाविक है। पर इस दिन को मनाना यूपीए की मजबूरी भी है। यदि वह कुछ न करे तो लोग ही कहने लगेंगे कि सरकार और इसके घटक दल तो स्वयं ही मान रहे हैं कि उसके पास उपलब्धि के नाम कुछ नहीं है।
हाल ही के पांच राज्य विधान सभा के चुनावों में कांग्रेस को खुशी थोड़ी मिली है और ग़म ज्यादा। बस इज्ज़त बचा ली असम ने, जहां कांग्रेस एक बार फिर अपने दम पर सरकार बनाने में सक्षम हो गई है। केरल में तो डूबती-डूबती नैया बची और उसके खेवनहार कांग्रेसी नहीं मार्क्सवादी स्वयं थे जिन्होंने जी-जान लगा दी अपनी ही अच्यूतानन्दन सरकार को हराने में। 140 के सदन में यूडीएफ के पास केवल 72 सदस्य हैं। कांग्रेस के पास केवल 34 सदस्य हैं और ‘सैकुलर’ कांग्रेस अब मुस्लिम लीग और क्रिश्चियन पार्टियों के साम्प्रदायिक एजैण्डे पर चलने में मजबूर होगी।
तमिल नाडू में तो डीएमके के साथ कांग्रेस ही लुटिया भी डूब गई। उधर डीएमके सर्वेसर्वा करूणानिधि गुस्से में हैं कि उन की लाडली बेटी कनीमोज़ी को कांग्रेस जेल भेजने से बचाने में नाकाम रही। इस कारण वह तो इस आयोजन का बहिष्कार ही कर रहे हैं हालांकि वह कल अपनी बेटी को मिलने दिल्ली आ रहे हैं ।
पश्चिमी बंगाल में तृणमूल कांग्रेस साम्यवादियों के मज़बूत किले पर विजय पाने में अवश्य सफल रहीं हैं पर इसका श्रेय तो सारे का सारा जाता है ममता दीदी को जिन्होंने कांग्रेस से बग़ावत कर तृणमूल कांग्रेस बना ली थी क्योंकि कांग्रेस अपने संकीर्ण राजनैतिक हित के कारण साम्यवादियों को नाराज़ नहीं करना चाहती थी। कांग्रेस को जितनी भी सीटें वहां मिली है वह अपन बलबूते पर नहीं तृणमूल कांग्रेस को पिच्छलग्गू बन कर मिली हैं।
पुड्डीचेरी में कांग्रेस ने अपनी सरकार खो दी। पिछले एक वर्ष में कांग्रेस ने शायद ही कोई उपचुनाव जीता है जिसमें उसने अपने विरोधियों को हराया हो। राज्य विधान सभा चुनावों के साथ हुये आठ विधान सभी उपचुनावों और एक लोक सभा उपचुनाव में उसे कोई सीट नहीं मिली है। कर्नाटक में जहां राज्यपाल श्री हंस राज भारद्वाज के माध्यम से अपनी राजनीति चला रही है वहां उपचुनाव में वह अपनी दो सीटें भाजपा के हाथों गंवा चुकी है।
सब से अधिक मिटटीप्लीद तो कांग्रेस की अपने ही गढ़ आंध्र प्रदेश में हुई जहां कडप्पा लोक सभा चुनाव में स्वर्गीय वाई एस आर रैड्डी के बेटे जगनमोहन रैड्डी ने सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल गांधी दोनों को अपनी औकात दिखा दी। पांच लाख से अधिक मतों से कांग्रेस प्रत्याशी को हरा कर जगन ने स्पष्ट संकेत दे दिया कि 2009 में आंध्र में कांग्रेस की जीत न तो कांग्रेस की थी और न श्रीमती सांनिया गांधी की बल्कि केवल मात्र उनके पिता की थी। कांग्रेस और तेलगू देशम पार्टी के प्रत्याशियों की ज़मानत भी ज़बत हो जाना कांग्रेस हाईकमान और आंध्र की कांग्रेस सरकार दोनों के लिये बहुत धक्का है।
श्री जगन रैडडी की 5,21,000 से अधिक मतों से यह जीत स्व0 श्री पी0 वी0 नरसिम्हा राव की 5,40,000 से अधिक मतों की जीत से भी अधिक श्रेयस्कर है क्योंकि श्री राव ने उपचुनाव प्रधान मन्त्री होते हुये कांग्रेस के टिकट से लड़ा था और तेलगू देशम ने उनके विरूद्ध उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था क्योंकि पहली बार कोई व्यक्ति आन्ध्र प्रदेश से प्रधान मन्त्री बना था जबकि श्री जगन अपने बलबूते पर जीते हैं और कांग्रेस, तेदेपा तथा अन्य दलों ने भी उसका विरोध किया था।
श्री जगन की माता श्रीमती विजलक्षमी ने भी कांग्रेस का उपचुनाव में यही हाल किया।
यह तो हुई राजनीति की बात। और क्षेत्रों में भी तो कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां कांग्रेस सिर उठा कर बात कर सके। आज मनमोहन सरकार देश में अब तक की सब से भ्रष्ट सरकार बन कर देश और विश्व के सामने आ खड़ी है। प्रतिदिन घटते भ्रष्टाचार के घोटालों ने सरकार की अपनी ईमानदारी पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। उसके कई मन्त्री और सांसद जेल में इस सरकार की शोभा बढ़ा रहें हैं।
जब शुरू में 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला, राष्ट्रमण्डल खेल घोटाला, आदर्श हाउसिंग जैसे अनेक घोटाले सामने आये तो शुरू में तो सरकार और कांग्रेस सब कुछ ठीक और कानून के अनुसार होने का दावा करती रही। कांग्रेस व प्रधान मन्त्री डा0 मनमोहन सिंह ने तत्कालीन संचार मन्त्री ए राजा को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र भी जारी करते रहे। और अब जब उच्चतम न्यायालय की छड़ी उठाने पर कुछ कार्यवाही हुई हे तो उसका यह सरकार व कांग्रेस श्रेय लेने का घिनौना प्रयास कर रही है।
विदेशी बैंकों में भारतीयों के काले धन को भी वापस लाने के लिये इस सरकार ने कोई ईमानदार प्रयास नहीं किया है। जिन व्यक्तियों के नाम सरकार के पास हैं सरकार उन्हें भी सार्वजनिक करने में शर्मा रही है। जिन व्यक्तियों ने राष्ट्र का धन चोर कर विदेशों में रखा है उन्हें तो शर्म नही आ रही पर इस सरकार को उनके नाम जगज़ाहिर करने में हिचकिचाहट है। कारण समझ नहीं आता। यही तो कारण है कि आये दिन कई नेताओं के नाम मीडिया में उभर रहे हैं।
यही कारण है कि आज जनता के मन में यह बात घर कर रही है कि मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार को बढ़ावा और भ्रष्टाचारियों को संरक्षण दे रही है।
यूपीए प्रथम के समय मनरेगा तथा सूचना के अधिकार जैसे कानून बनाने का श्रेय तो था, पर पिछले दो वर्षों में तो उपलब्धियों के नाम पर उसके पास गिनाने के लिये कुछ है ही नहीं।
आम आदमी का दम तो भरती है। उसके नाम पर यह सरकार वोट तो मांगती है पर पिछले दो सालों में उसके लिये इसने किय कुछ नहीं है।
महंगाई और मुद्रास्फीती रोकने की यह सरकार डींगें तो बार-बार मांगती है पर जो कुछ कर रही है वह सब के सामने है। आम आदमी की प्रतिदिन काम आने वाली आवश्यक वस्तुओं के मूल्यों पर इस सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं है। सरकार की अपनी ही रिपोर्ट के अनुसार देश की आधी से अधिक आबादी प्रतिदिन बीस रूपये से कम की आमदनी पर जी रही है। सरकार बताये कि आसमान छूने वाली इस महंगाई में ऐसे व्यक्ति दो वक्त की रोटी कैसे खा पायेंगे?
चुनाव समाप्त होते ही सरकार ने पैट्रोल की कीमन 5 रूपये प्रति लिटर बढ़ा कर मतदाता से छलाव किया है। डीज़ल, रसोई गैस तथा मिटटी के तेल की कीमतें बढ़ायें जाने के चर्चे हैं। सरकार पिछले दो वर्ष में 11 बार इन वस्तुओं की कीमतें बढ़ा चुकी है।
कांग्रेस को तो सिंगूर बना कर चुनाव जीतने के सपने तो देख रही है पर जनता नहीं भूली कि जब सिंगूर में नरसंहार और बलात्कार जैसी घटनायें हो रही थीं तो उसकी पश्चिमी बंगाल की साम्यवादी सरकार से सांठ-गांठ थी क्योंकि साम्यवादी यूपीए को समर्थन दे रहे थे। भूमि अधिग्रहण कानून कई सालों से केन्द्र सरकार के पास लटका पड़ा है।
देश के अनेक राज्यों में किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश में ही किसान आन्दोलन कर रहे हैं पर सरकार कुछ नहीं कर रही क्योंकि वहां चुनाव नहीं हैं। कांग्रे यूपी में शोर मचा रही है क्योंकि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं है और वहां अगले वर्ष चुनाव हैं।
यूपीए सरकार कई सालों से बड़ा शोर मचा रही है कि पाकिस्तान के पास 50 ऐसे अपराधी हैं जिनकी आतंकी अपराधों के लिये भारत का तलाश है। पर अब दो ऐसे व्यक्ति उजागर हुये हैं जो सीबीआई की हिरासत में हैं। इससे सरकार की भी और देश की भी खिल्ली उड़ी है। उपर से केन्द्रिय गृह मन्त्री कहते हैं कि इस में शर्मिन्दा होने वाली बात नहीं है। तो क्या इस नालायिकी पर देश गर्व करे?
ऐसी अवस्था में आज जो समारोह हो रहा है वह किस बात का है? सरकारी खर्च पर अपनी असफलताओं और काले कारनामों को छपाने का एकमात्र प्रयास है।
मिसेज बेरी को आज फिर घर से निकलने में देर हो गयी थी.उनकी कोशिश तो यही रहती थी कि वह इसके पहले वाली बस पकड लें.उसके दो लाभ थे.एक तो वे समय पर आफिस पहुँच जाती थी,दूसरे उस बस में उनके मनपसंद की जगह मिल जाती थी,क्योंकि वह बस उनके घर से कुछ ही पहले शुरु होती थी,पर अक्सर ऐसा हो जाता था कि चलते समय ही किसी काफोन आ जाता और वे बस मिस कर जातीं. पर आज ऐसा कुछ नहीं हुआ था. आज तो उन्हें जगने में हीं देर हो गयी थी.तैयार होने में जो समय लगना था,वह तो लगा हीं.फिर तो देर होना हीं था. कभी कभी ऐसा भी हो जाता था कि वे घर से जैसे बाहर निकलती उन्हें किसी कार में लिफ्ट मिल जाता.उस दिन आफिस तक पहुँचने में उन्हें बहुत आराम महसूस होता.ऐसे भी मिसेज बेरी जैसी सुंदर महिला को लिफ्ट देने में बहुत लोग फक्र महसूस करते थे.
मिसेज बेरी आज भी जब घर से निकली,तो वे पूरे सजधज में थीं.उनका मेक अप करने का तरीका भी विलक्षण था.पैंतीस वर्षीया मिसेज बेरी मेक अप के बाद आज भी बीस वर्षीया रितु भाटिया लगती थी.लोगों की निगाहें बरवस उनकी ओर उठ जाती थीं.सौंदर्य के साथ साथ उनके चेहरे की ताजगी अक्सर लोगों का मन मोह लेती थी.लेकिन आज उनके चेहरे की ताजगी पर चिंता का परत पडा हुआ था. वे बस की ओर बढते हुए भी थोडी चिंतित नजर आरही थीं.उनके स्टाप पर पहुँचते ही बस आ गयी.बस ऐसे तो करीब करीब भरी हुई थी,पर उनको एक सज्जन के बगल में जगह मिल गयी.सहयात्री की ओर मिसेज बेरी की नजर उठती या सहयात्री उनको देख पाता, उनकी नजर सहयात्री के हाथ की पुस्तक पर पडी.लगता था कि वह भी बस में जल्दी ही चढा था और अभी उसने पुस्तक निकाली ही थी.पुस्तक था,नेकेड एमांग वूल्व्स (Naked among Wolves)यानि भेडियों के बीच नंगा.मिसेज बेरी को लगा कि यह पुस्तक तो उनकी अपनी कहानी है.वे भी तो भेडियों के बीच नंगी हैं और न जाने कब से नंगी हैं.वे बस में बैठ चुकी थी और आफिस जा रही थीं,उनके अंतर पटल पर एक एक करके उनके जीवन के द्ऋष्य चलचित्र की भाँति आते जा रहे थे.
उस दिन वे आधी रात के बाद घर लौटीं थी.दीपक बेरी अभी भी जगा हुआ था.उन लोगों का फ्लैट दो कमरो का था.दोनो कमरे आधुनिक ढंग से सजे हुए थे.फ्लैट को देख कर आभास भी नहीं होता था कि इसमें सहायक युगल रहते हैं. उनके रहन सहन में भी भव्यता दिखती थी.सुंदर तो दोनो थे ही.कमरे में आते ही रितु,जो अब मिसेज बेरी थी,सोने का उपक्रम करने लगी.वे थकी हुई थीं,मुँह से शराब की हल्की गंध भी आा रही थी,पर दीपक का मन तो उनकी सन्निघ्ता के लिेए छटपटा रहा था. आज शाम सेही वह चाह रहा था कि उसकी पत्नी जल्द आा जाए तो वे पति-पत्नी की तरह एक दूसरे के एक दूसरे के अंक में रात गुजारें.इस तरह के अवसर कम ही आते थे कि वे एक दूसरे के बाहों में में समा जाएं.दीपक की महत्वाकांक्षा,जिसकी सहभागी अब रितु भी थी,इस तरह के अवसर आने का मौका ही नहीं देती थी. आज जब रितु कपडे बदल कर सोने लगी तो दीपक ने उसे अपनी ओर खींचना चाहा.कुछ तो थकावट,कुछ शराब का नशा.
रितु को यह हरकत बहुत नागवार लगी.ऐसे उसके मन में कुछ अन्य विचार भी उठ रहे थे. आज ही पार्टी में राजेश भंडारी से मुलाकात हुई थी. राजेश भंडारी के व्यक्तित्व से वह बहुत प्रभावित हुई थी.लंबा कद,सांवला रंग.चेहरे पर एक विशेष चमक.वे एक प्रतिष्ठित कंपनी के प्रधान थे.उनकी उम्र छयालीस या सैंतालीस के आसपास होगी,पर शरीर के कसाव और छरहरेपन के कारण उनकी उम्र चालीस वर्षा से ज्यादा नहीं लगती थी.मिसेज बेरी को पता भी नहीं चला था और वे भंडारी साहब के बहुत करीब आ गयी थी.यह भी भंडारी साहब की एक चाल थी.मिसेज बेरी पर उनकी नजर तो बहुत पहले से थी,पर मौका हाथ नहीं लगता था.वे मिसेज बेरी की महत्कांक्षाओं से वाकिफ थे.उन्होने चारा फेंका था और बिछाया था जाल और मिसेज बेरी फँस गयी थी उसमें.उन्होने मिसेज बेरी को जन संपर्क अधिकारी बनाने का प्रलोभन दिया था.सहायक से पदाधिकारी! मिसेज बेरी को लगा कि वे स्वप्न देख रही हैं.उन्हें लगा था,दीपक कभी भी स्वीकार नहीं करेगा.वे दीपक को जानती थीं.दीपक उनको सोने की चिडिया समझता था,पर यह कभी गवारा नहीं कर सकता था कि उसकी पत्नी पदाधिकारी बने और वह सहायक बन कर रहे.राजेश भंडारी को उन्होनें एक आध दिनों में सोच कर उत़तर देने को कहा था और मेजवान द्वारा भेजे हुए कार में घर आ गयी थीं. रास्ते में उन्हें लग रहा था कि भंडारी साहब का प्रस्ताव तुरत स्वीकार कर लेना चाहिए था.पर अब तो कुछ नहीं हो सकता था.उन्हें कल का इंतजार तो करना ही था.ऐसे उन्हें अपनी जिंदगी से भी घ्ऋणा हो रही थी.गिर तो वे चुकी हीं थीं,पर क्या मिला था उन्हें?आज भी वे दीपक बेरी के हाथों का खिलौना थीं.वह जैसे चाहता था,उनका इस्तेमाल करता था.आज तो वे इतनी निर्भिक हो चुकी थीं कि दीपक बेरी का साथ भी उन्हें बोझ लगने लगा था.उन्होने दीपक बेरी को झिडक दिया,”मुझे नींद आ रही है,तंग मत करो.”
“मेरी जान,मेरा भी कुछ हक बनता है तुम पर”. यह दीपक बोला था.
पता नहीं किसी दूसरे दिन वह क्या उत्तर देती,पर आज तो वह बहुत ऊँचा सोच रही थी.भंदारी साहब का प्रस्ताव और उसपर शराब का नशा.वे तो सातवें आसमान पर थी.वे विफर पडी,
“कौन सा हक,किस हक की बात कर रहे हो तुम?”
“मेरी जान, तुम शायद भूल गयी कि मैं तुम्हारा पति हूँ.अग्नि के समक्ष सात फेरे लिये हैं मैने तुम्हारे साथ.”
मिसेज बेरी हँस पडी,”तुम्हारे मुँह से यह सात फेरों वाली बात जँचती नहीं. सच पूछो तो मैं तुम्हे पिंप से ज्यादा कुछ नहीं समझती”.
दीपक के वदन में तो जैसे आग लग गयी,”मैं,मैं अगर पिंप हूँ तो तुम वेश्या हो.”
“सच पूछो तो मैं अपने को वेश्या से अच्छी समझती भी नहीं.यह तुम्हारी महत्वकांक्षा थी जिसने मुझे ऐसा बना दिया है.क्या क़या अभिलाषाएं थी मेरी?मैं सादगी भरे जीवन में भी संतुष्ट रहती,पर तुम्हें संतोष कहाँ?अज जब तुमने वेश्या कह ही दिया है तो इतना और सुन लो,पिंप को वेश्या के शरीर से खेलने का कोई अधिकार नहीं होता”.
दीपक बेरी कुछ और भी कहना चाहता था ,पर आधी रात को झगडा बढाने में उसे मूर्खता नजर आयी और वह चुप हो गया.उसकी चुप्पी ने मिसेज बेरी को भी चुप कर दिया.मिसेज बेरी को नींद नहीं आ रही थी.उन्हें याद आ रही थी,रितु भाटिया,जो एक अल्हड षोडसी के रूप में नयी नयी कालेज में आयी थी.कालेज में कोई नयी लडकी और वह भी सौंदर्य की प्रतिमा,फिर भी छुई मुई सी और लोगों की निगाहें उसपर न पडे,ऐसा तो संभव ही नहीं था. निगाहें तो औरों की भी पडी थी,पर दीपक बेरी तो पहली ही नजर में उसका दीवाना बन गया था.द्वितिय वर्ष का छात्र दीपक उससे एकांत में करने के लिये अपना सर्वस्व न्योछावर कर सकता था उसको तो लगने लगा था कि यह सुंदरी अगर उसकी जीवन संगिनी बन जाये तो वह कुछ भी कर सकता था.रितु भाटिया इन सबसे अनजान नये माहौल में अपने को ढालने में लगी हुई थी. उसको तो पता भी नहीं चला था कि एक लंबे,छरहरे ,गौर वर्ण के युवक की निगाहें हर वक्त उसका पीछा कर रहीं थीं.बहुत दिन लग गये थे दीपको रितु के निकट आते आते,पर उसने हिम्मत नहीं हारी थी.अंत में उसका धैर्या रंग लाया था.उस दिन रितु कालेज कैंटीन के एक टेबल पर अकेली ही चाय का प्याला लिए बैठी थी.दीपक भी एक कप चाय लेकर उसी टबल की ओर बढा और रितु सर बैठने की इजाजत मांगी.रितु ने मुस्कुरा कर उसे बैठने को कहा.दीपक को रितु ने पहले भी देखा था और वह उसके व्यक्तित्व से प्रभावित भी थी,पर उसको तो यह गुमान भी नहीं थाकि दीपक भी उसको पसंद करता है.आज जब दोनो एकसाथ बैठे और थोडी झिझक के बाद बातों का सिलसिला आरंभ हुआ तो थोडी ही देर में वे एक दूसरे के परिचित बन गये.बाद में कुछ दिनों तक फिर मुलाकात नहीं हुई थी. दोनो अपनी अपनी दिनचर्या में लगे हुए थे,पर,लगता है,उस दिन की मुलाकात दोनो ही नहीं भूले थे.दूसरी बार जब उसी कैंटीन में हुई तो ऐसा लगा कि बहुत दिनों के बिछुडे हुए साथी मिले हों.दीपक को लग रहा था कि वह रितु पर अपना प्रभाव जमाने में कामयाब रहा.इसके बाद उनके मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा.दीपक तो बी.ए. करने के बाद सहायक के पद पर नियुक्त हो गया था.वह प्रतीक्षा कर रहा था रितु के बी.ए. पास करने का.जब दीपक और रितु के शादी का कार्ड लोगों को मिला तो दीपक के पुराने मित्रों को तो कोई आश्चर्य नहीं हुआ.रिसेप्शन में उसकी पत्नी का सौंदर्य बहुत लोगों के दिल में दर्द उपजा गया.उसके बास की नजर भी रितु पर पडी,पर कुछ सोच कर उन्होने उस इस बात को ज्यादा अहमियत नही दी.दीपक के प्रयत्नों से रितु को भी उसी के दफ्तर में सहायक की नौकरी मिल गयी. रितु को नौकरी की नौकरी दीपक के प्रयत्नों के फलस्वरूप मिली कि उसके अपने सौंदर्य के बल पर यह तो उनके दफ्तर में बहुत दिनों तक चर्चा का विषय रहा.रितु ने अपने स्वभाव और सौंदर्य के बल पर जल्द ही दफ्तर में अपना स्थान बना लिया.मिसेज बेरी को अभी भी वह दिन याद है,जब पहली बार वे दीपक के साथ पार्टी में शामिल हुई थीं.उनको आश्चर्य तो हुआ था कि उनके और दीपक के अतिरिक्त दफ्तर का कोई स्टाफ उस पार्टी में नहीं था.महिलाएं और लडकियाँ तो थीं ,पर ज्यादातर लोग उनके बास के साथी थे.महौल तो मिेसेज बेरी को अच्छा नही लगा था और लौटने पर उन्होनें इसका जिक्र भी किया था,पर दीपक ने उस पर ध्या देने की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी.उसे तो अपनी उन्नति का दरवाजा खुलता हआ नजर आया था.उसे रितु से शादी करना सार्थक नजर आने लगा था और उसे रितु में अपने उन्नति का पथ द्ऋष्टिगोचर हो रहा था.ऐसे तो रितु बेरी को भी अपने सौंदर्य की प्रसंशा अच्छी ही लगी थी.पार्टी में वे सबसे सुंदर थीं और बडे लोगों पर अपना प्रभाव भी उन्होनें महसूस किया.पता नही8 वह कौन सी कमजोरी थी कि वे खुल कर या प्रच्छन रूप में भी विरोध न कर सकी थी उस दिन?काश! उन्होनें ऐसा कुछ किया होता.धीरे धीरे वे पार्टियों का मुख्य आकर्षण बन गयीं.बाद में तो ऐसा समय भी आया जब वे बहुधा दीपक की अनुपस्थिति में भी पार्टियों में शामलि होने लगीं.इसका प्रभाव भी उनके रहन सहन पर द्ऋष्टिगोचर होने लगा.तरक्की तो उन दोनो की कोई खास नहीं हुई,पर दीपक की पोस्टींग ऐसे जगह कर दी गयी कि वह दोनो हाथों से धन बटोरने लगा.एक तरफ तो उन लोगों का धन और प्रभाव बढता रहा ,दूसरी रितु बेरी गहरे दलदल में फंसती गयी.पहली बार जब वे धोखे से शराब पिला कर अपने बास से भी ऊँचे अफसर की शय्या संगिनी बनायी गयी थीं तो उन्हें बहुत बुरा लगा था,पर उसके बाद मिलने वाले लाभ ने उनके मन से वह कसक भी निकाल दी थी. कभी कभी उनको यह भी लगता था कि आखिर वे जो कर रहीं हैं,वह सब उनके पति की जानकारी में हो रहा है.उनको यह ख्याल भी कभी कभी आता था कि दीपक का प्यार,फिर उनके साथ दीपक की शादी,सबकुछ एक सुनिश्चित योजना अंतर्गत हुआ था.दीपक की धन लोलुपता और उसकी महत्वाकांक्षा ही शायद कारण बनी थी रितु की ओर उसके बढने का.
इन सब बातों को तो अब वर्षों गुजर गये थे.बाद में तो ऐसा भी होता था कि दीपक बेरी स्वयं उसको पार्टियों में छोड आता था या कभी कभी कार उनको अकेले ही ले जाती थी.जिंदगी की रंगिनियाँ और चमक दमक ने रितु बेरी को पूर्ण रूप से अपने दामन में समेट लिया था.कभी कभी दर्पण के सामने खडा होने पर उन्हें रितु भाटिया अवश्य याद आा जाती थी ,पर वे इन विचारों को अपने दिलोदिमाग पर कभी हावी नहीं होने देती थीं.उन्होनें समझ लिया था कि उनका मादक सौंदर्य उनका सबसे बडा अस्त्र है और उसको अक्षुण रखने के लिये वे सदा प्रयत्नशील रहती थीं. यही कारण था कि किसी के लिए भी उनकी उम्र का अंदाजा लगाना बहुत कठिन होता था.बीच बीच में दीपक से थोडे मन मुटाव भी हो जाते थे,पर आज वाली नौबत पहले कभी नहीं आयी थी.
दूसरे दिन मिसेज बेरी ने अपना फैसला राजेश भंडारी को सूचित कर दिया था और राजेश भंडारी ने उन्हें तुरत बुलवा लिया था.उनकी नयी नौकरी का पता तो दीपक बेरी को भी थोडे दिनों के बाद ही लगा था.,वह भी तब जब उन्होनें दफ्तर में अपना इस्तिफा प्रस्तुत किया था.उनके बास की अनिक्षा केबावजूद उस इस्तिफे को मंजूरी मिल गयी थी.राजेश भंडारी का प्रभाव ही कुछ ऐसा था.दीपक ने अपने को बुरी तरह अपमानित महसूस किया था और अपनी पत्नी से झगड पडा था.अब उनलोगों के लिए एक दूसरे को बर्दास्त करना भी मुश्किल हो गया था.दीपक जानता था कि पत्नी को छोडना उसे बहुत महंगा पडेगा ,पर उसे अपनी बुद्धि पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था.उसे लगा कि जब वह रितु भाटिया जैसी छुई मुई लडकी को ऐसा बना सकता है ,तो वह किसी अन्य को भी क्यों नहीं बना सकता?ऐसे भी उसको लगने लगा था कि पदाधिकारी बन जाने के बाद रितु उसकी पत्नी बन कर रहना कभी भी स्वीकार नहीं करेगी.उसने तलाक की पेशकश की जिसे रितु बेरी की भी मंजूरी मिल गयी थी.तलाक होने में कोई ज्यादा अडचन नहीं आयी.उन दोनों ने अपना जीवन इस तरह का बना लिया था कि उनके नजदीकी मित्र भी कोई खास नहीं थे,जो उनको समझाते. फिर भी एक दो लोगों ने प्रयत्न किया, पर उन्हें भी मुहकी खानी पडी.सब ओर से स्वतंत्र होकर रितु बेरी ने अपने काम की ओर ध्यान देना शुरु किया.कंपनी ने उनके लिए आधुनिक सजावट से युक्त एक अच्छे फ्लैट का प्रवंध कर दिया था.अपने फ्लैट की सजावट पर मिसेज बेरी को थोडा आश्चर्य अवश्य हुआ,पर जब दो या तीन दिनों के बाद राजेश भंडारी ने उनका फ्लैट देखने और उनके साथ चाय पीने की पेशकश की तो फ्लैट की सजावट का रहस्य उनकी समझ में आगया.दीपक बेरी का साथ छोडने के बाद भी उन्होनें अपने नाम से बेरी उपनाम नहीं हटाया था,क्योंकि भाटिया उपनाम फिर से लगाने में उनकी रूह काँप गयी थी.उनको लगा थाकि उस उपनाम की अब वह हकदार नहीं थीं.भंडारी साहब ने वह रात मिसेज बेरी के साथ काटी थी और सुबह होने से पहले चले गये थे.
भंडारी साहब द्वारा जन संपर्क अधिकारी का आफर और जन संपर्क अधिकारी बनने तक मिसेज बेरी के दिमाग में एक विवार हमेशा हलचल मचाये रहता था कि आखिर एक असिस्टेंट को भंडारी साहब ने जन संपर्क अधिकारी क्यों बना दिया?उन्हें अपने सौंदर्य पर अभिमान भी होने लगा था.भंडारी साहब के इस अनुग्रह के बदले एक दो रातें उनके साथ बीतने में मिसेज बेरी को कोई एतराज नहीं था.सती सावित्री तो वे थी नहीं.तलाक के बाद तो वे हर तरह के वंधनों से मुक्त हो गयी थीं.भंडारी सहब शादी शुदा थे.उनकी अपनी ग्ऋहस्थी थी.बिना किसी खास योग्यता के इस पद को वे अपनी तिकडमबाजी से ही हासिल कर पाये थे. वह तो भला हो उस राज्य मंत्री का जिसने कैबिनेट मंत्री के विदेशी दौरे के दौरान फइल प्रधान मंत्री के सचिवालय में बढा दी थी.प्रधान मंत्री के प्रधान सचिव भंडारी साहब के अपने आदमी थे.बस काम बन गया था.बदलते सरकारों के बीच जब बडे बडे दिग्गज धरासाई हो गये थे,भंडारी साहब उसी तरह अपने पद पर कायम थे.कंपनी के बिगडते हुए हालात भी उनके प्रभाव को कम नहीं कर सके थे.ऐसे आदमी के साथ एक आध रातें गुजारना मिसेज बेरी के लिए भी आनंद दायक ही था.
कुछ दिनों के बाद उनको मंत्री के साथ विदेश जाने वाले डेलिगेसन में जन संपर्क अधिकारी के रूप में शामिल के दिया गया था.इस आफर पर तो वे झूम उठी.भंडारी साहब के लिए पूर्ण समर्पण की भावना व्याप्त हो गयी उनमें.उनको लगने लगा कि भंडारी साहब ने उन्हें सदा के लिए अपना ऋणी बना दिया.एक खटका उन्हें अवश्य महसूस हुआ वे सरकारी दफ्तर में काम कर चुकी थीं.उन्हें पता था कि हर मिनिस्टरी में एक से अधिक जन संपर्क अधिकारी होते हैं.फिर उनलोगों को नजर अन्दाज करके उन्हें ही क्यों चुना गया?पर पासपोर्ट और वीसा की व्यस्तता में वे इस ओर ज्यादा ध्यान न दे सकीं.भंडारी साहब की ओर से भी इस बीच कोई बुलावा नहीं आया था.प्रस्थान के एक दिन पूर्व भंडारी साहब के दरबार में उनकी तलब हुई.वे खुशी खुशी हाजिर हुईं.भंडारी साहब अकेले ही थे और मिसेज बेरी के अंदर घुसते ही हमेशा की तरह भंडारी साहब के कमरे के बाहर लाल बत्ती जलने लगी,जो इस बात का सूचक था कि साहब गोपनीय मीटींग में हैं.
भंडारी साहब के साथ उस दिन की बातचीत से न केवल मंत्री के साथ उनको भेजे जाने का रहस्य समझ में आया,बल्कि यह भी समझ में आ गया कि वे जन संपर्क अधिकारी क्यों बनाई गयी थीं.भंडारी साहब को बडे लोगों की सुरा और सुंदरी के प्रति कमजोरी ज्ञात थी.वे यह अच्छी तरह जानते थे कि ऐसे लोग अपने स्वच्छ छवि के प्रति भी सजग रहते हैं.साँप भी मरे और लाठी भी न टूटे वाली बात थी.आज उनके समझ में यह भी आा गया कि स्मार्ट लडकियाँ और महिलाएँ निगम के इस प्रधान कार्यालय में विभिन्न पदों पर क्यों पदासीन हैं.उनको भंडारी साहब ने अच्छी तरह समझा दिया था कि विदेश यात्रा में मंत्री को हर तरह से प्रसन्न रखना उनकी जिम्मेवारी है.शिकायत का मौका नहीं आना चाहिए.इस प्रच़्छन धमकी का अर्थ भि उनकी समझ में आ गया था. विदेश यात्रा के दौरान शिकायत का मतलब केवल नौकरी से हाथ धोना नहीं होता,बल्कि और भी कहर ढाये जाते.उस समय मिसेज बेरी के मस्तिष्क के कोने में यह विचार अवश्य कौंधा कि वे कहाँ पहुच चुकी हैं.पर एक झटके में यह विचार भी आया कि बलात्कार होना अवश्यंभावी है तो उसका आनंद क्यों न उठाया जाये. उनको यह भी लग रहा था कि इस हालात के लिए वे स्वयं भी तो कम जिम्मेवार नहीं हैं.
मंत्री महोदय आसाम की तरफ से आये थे.टेढा सा नाम था उनका.वह नाम मिसेज बेरी को कभी याद नहीं रहा.वे उनको टी.सिंह के नाम से याद करती थीं.मंत्री महोदय की उम्र चालीस के लगभग थी.नाक नक्श तो कोई खास नहीं था,पर उनके शरीर का कसाव और चेहरे की रौनक उनको जवानों की श्रेणी में बैठा देती थी.मिसेज बेरी ने इस यात्रा को बहुत इन्जाय किया.लोग बाग भी मिसेज बेरी को जन संपर्कअधिकारी से ज्यादा मंत्री महोदय की प्रेमिका समझते थे.मंत्री महोदय के संग बिताये क्षणों के सथ साथ विदेशों से गिफ्ट की भरमार ने मिसेज बेरी को आनंद से सराबोर कर दिया.उनको यह भी याद नहीं रहा कि पूरे यात्रा के दौरान उनका दर्जा ज्यादा से ज्यादा मंत्री महोदय की अस्थाई रखैल या उच्च श्रेणी की वेशया का रहा.उनको बस यही ध्यान रहा कि कितनों को मिल पाता है यह अवसर.मंत्री महोदय यात्रा के दौरान उनके व्यवहार से बहुत प्रसन्न हुए थे और उनके बारे में बहुत अच्छी रिपोर्ट दिये थे.भंडारी साहब ने तो उन्हें तुरत वेतन व्ऋद़धि दे दिया था और वादा किया था कि उन्हें जल्द से जल्द पदोन्नति दे देंगे .
मिसेज बेरी अपनी व्यवहार कुशलता और अप्रतिम सौंदर्य के बल पर भंडारी साहब को प्रसन्न रखने में कामयाब रहीं थीं.उन्हें जल्द ही तरक्की मिल गयी थी.इसी बीच देश और विदेश में भ्रमण के अवसर भी उन्हे प्राप्त होते रहे थे.सेक्रेट्री स्तर के आफिसर तक फ्लैट में उनके मेहमान बन चुके थे.सबसे ज्यादा कोफ्त उन्हे इन बूढे सचिवों से होती थी.वे स्वयं तो एन्जवाय कर नहीं पाती थी इनके साथ,पर उनका उनके नखडे षने को बाध्य करता था मिसेज बेरीा को.वे दिनोदिननीचे गिर रहीथीं,पर भान भी नहीं होरहा था उनको इस सबका.पता नहीं वे किस स्वप्न लोक में विचर रही थीं.
पर कल तो हद हो गयी.कल मिसेज बेरी उर्फ रितु संपूर्ण नंगी कर दी गयी.उनके और वेश्या कहे जाने के बीच जो झीना पर्दा था वह कल हट गया था और वह नंगी खडी थीं,एकदम नंगी.अभी तक वे उच्च अधिकारियों या मंत्री के संपर्क में आयी थी,पर कल तो कुछ और हो गया.
राजेश भंडारी के एक अभिन्न मित्र अमेरिका मे रहते थे.भंडारी साहब ने बातों ही बातों में श से उनका जिक्र भी किया था.राजेश भंडारी के वही मित्र आजकल उनके शहर में आये हुए थे और एक पंच सितारा होटल में ठहरे हुए थे.कल शाम को राजेश भंडारी जब उनसे मिलने जा रहे थे,तो उन्होनें मिसेज बेरी को भी कहा कि तुम वहाँ आ जाओ.मैं तुम्हारा परिचय उनसे कराना चाहता हूँ.परिचय का अर्थ अब मिसेज बेरी के समझ में अच्छी तरह आने लगा था.राजेश भंडारी ने यह भी कहा था कि वे सज्जन उनके अभिन्न मित्र हैं और अमेरिका में उनका बहुत प्रभावहै.भंडारी साहब ने इससे ज्यादा बताना मुनासिब नहीं समझा था.ज्यादा कुरेदने का साहस भी मिसेज बेरी में कहाँ था?
मिसेज बेरी टैक्सी से वहाँ पहुँची थीं,उनको मालूम था कि वहाँ राजेश भंडारी और उनके मित्र के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं होगा.भंडारी साहब भी अपनी व़यस़तता बता कर थोडी देर बाद ही वहाँ से खिसक गये थे.भंडारी साहब के मित्र के साथ तीन घंटे बीता कर जब रात्रि के एक बजे वह टैक्सी में घर के लिए रवाना हुईं थीं तब उन्हें पहली बार अपने आप से पूरी तरह घ्ऋणा हो रही थी.विदा होते समय उस सज्जन ने मिसेज बेरी को धन्यवाद देते हुए अमेरिका आने का निमंत्रण भी दिया था.मिसेज बेरी ने शायद सुना भी नहीं था और टैक्सी में बैठ गयी थीं.आज उन्हें लग रहा था कि वे आदमखोर जानवरों के बीच फँसी हुई थीं,जो उनको नोच नोच कर खा रहे थे.आत्महत्या के अतिरिक्त इस नर्क से निकलने का कोई मार्ग भी उन्हें नहीं सूझ रहा था,पर वे जानती थीं कि आत्महत्या करने का साहस उनमें नहीं है.यही सब सोचते सोचते वे नींद की गोली खाकर सो गयी थी और देर से जगी थी.
पैंतालीस मिनट का सफर तय करके बस अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच चुकी थी.सहयात्री के ‘एक्सक्यूज मी’ ‘कहकर उतरने का उपक्रम करने पर उनकी तंद्रा भंग हुई.वे भी अपने वेहरे का मेक अप ठीक करके बस से उतर कर सधे हुए कदमों के साथ अपने दफ्तर की ओर वल पडी.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मात्र शाखा केंद्रित संगठन नहीं है। संघ का मानना है कि संघ कुछ भी नहीं करेगा, पर स्वयंसेवक सब कुछ करेगा। अर्थात हमारी जहां भी आवश्यकता होगी। उस आवश्यकतानुसार स्वयंसेवक राष्ट्रहित में शाखा से लिए गए संस्कारों के अनुसार रणूमि में कुद पड़ेगा। उसके लिए ‘राष्ट्रहित सवोर्परि’ होगा। जरूरत पड़ने पर वह तन, मन और धन भी समर्पित कर देगा। इसका स्पष्ट उदाहरण आपातकाल में संघ की भूमिका से स्पष्ट हो जाता है।
जब श्रीमती इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार ने चंहुओर भ्रष्टाचार, महंगाई तथा भतीजावाद के माध्यम से एक ऐसे राजनीतिक संस्कृति का फैलाव शुरू कर दिया तथा बिहार और गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन ने सत्ता के चुलों को झंकझोर दिया तथा इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार ने वह करना शुरू किया। जिसमे जनता का विश्वास डिगने लगा तो एक बार लगा की इस अन्यायी तथा अत्याचारी सरकार को खत्म करना ही होगा। इंदिरा गांधी के चुनाव के विरूद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय, गुजरात विधानसा में विपरित परिणाम तथा वरिष्ठ रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र की हत्या ने कांग॔ेस(आई) की अत्याचारी तथा फासिष्ट सरकार को भी हिलाने में से है। श्रीमती गांधी तो कहती थी कि विपक्षी दलों ने समस्तीपुर रेलवे ग॔ाउंड में ललित नारायण मिश्र की जिन परिस्थियों में बम विस्फोट द्वारा हत्या करने का षड़्यंत्र रचा तथा ट्रेन के आने में देरी, डॉक्टरी चिकित्सा तथा बिना पोस्टमॉटम किए शव का संस्कार कराना। इस बात के तरफ इंगित करता है कि ललित नारायण मिश्र जैसे नेता की हत्या में कहीं न कहीं खोट था। कई स्थानों पर श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था कि विपक्षी दलों ने ललित नारायण मिश्र की हत्या करायी तथा उसका दोष मेरे उपर म़ने का प्रयास किया है तथा हो सकता है कि वे मेरी भी हत्या कर सकते हैं। ललित नारायण मिश्रा इंदिरा गांधी के
भ्रष्टाचार को लिंति जानते थे तथा इस संबंध में उन्होंने कई बार जिक॔ भी किया था कि यदि इसका पर्दाफाश कर दें या हो जाए तो कई बड़ेबड़े व्यक्ति भी फंस सकते हैं। उनके सामने इन्हीं समस्याओं से निजात पाने के लिए कई बार मु॔यमंत्री तथा राज्यपाल बनाने का भी प्रस्ताव दिया गया। लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। यह उस समय में प्रकाशित समाचारपत्रों एवं नेताओं के संस्मरणों में देखा जा सकता है। जिसके परिणामस्वरूप इंदिरा गांधी को लगा कि पाकिस्तान की तरह सवोर्च्च शक्ति मेरे हाथों में आ जाए तथा मैं अपने हिसाब से लोकतंत्र की व्या॔या किया करुं। और अंततः श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी।
लगग 2 वषोर्ं तक संघ पर प्रतिबंध लगा रहा। तब संघ नेतृत्व के समक्ष यह प्रश्न उठा कि हमें मात्र प॔तिबंध उठाने के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए या लोकतंत्र की रक्षा के लिए लोकसंघर्ष समिति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए। संघ विश्व का एकचालुकानवर्ति तथा लोकतांत्रिक रूप से सबसे बड़ा संगठन है। यद्यपि संघ संस्थापक डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार एक राजनैतिक कार्यकर्ता भी थे पर परिस्थितियों ने उन्हें संघ की स्थापना के लिए प्रेरित किया। (14 नवंबर, 1975 से 26 जनवरी, 1976) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मात्र प्रतिबंध हटाने को लेकर तैयार नहीं हुआ। उसके लिए भारतमाता सवोर्परि है तथा रहेगी। इस दृष्टि से संघ ने प्रण किया है कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघ के स्वयंसेवक अगि॔म पंक्ति में रहेंगे। जब संघ नेतृत्व को लगा कि विदशों में
भी हमारा पक्ष मजबुत होना चाहिए तो प्र॔यात अर्थशास्त्री प॔ो. सुब॔ह्मण्यम स्वामी की पत्नी ने क ई देशों की यात्रा की एवं अपातकाल में होने वाले कायोर्ं का विवरण प्रस्तुत किया।
मैं आपातकाल में समस्त राजनीतिक दलों के एकजुट संघर्ष को तिसरा स्वतंत्रता संग॔ाम मानता हूं। संघ नेतृत्व का यह मानना था कि संघ लोकतंत्र में विश्वास ही नहीं करता है अपितु इसके लिए प्रतिबद्ध संगठन है। डॉ. हेडगेवार ने संगठन के आव में दीनहीन
भारतीय समाज को देखा था। उनके मन में एकमात्र पीड़ा यह थी कि आखिर भारतीय समाज बुराइयों के प्रतिकार के लिए संगठित क्यों नहीं होता। इस हीन दशा को लेकर वे कुछ वषोर्ं तक सो भी नहीं पाते थे। जिस संगठन का आधार ही देश, समाज, राष्ट्र तथा भारतीय संस्कृति जैसे विषयों को लेकर हुआ हो वह संगठन व्यक्ति, राष्ट्र तथा राजनैतिक विकृति को लेकर सचेत तो होगा ही।
देश में चारों ओर मारपीट, धरपकड़, गिरफ्तारियों तथा प॔ेस पर सैंसर लगा दिया। लोकतंत्र की रक्षा के लिए उस समय श्री रामनाथ गोयनका के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ तथा ‘जनसत्ता’ का अमूल्य योगदान था। जो मेरे लेख ”आपातकाल और मीडिया’’ में देखा जा सकता है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तं है। यह राष्ट्र का प्रहरी होता है लेकिन जब आकाशवाणी(इंदिरावाणी) तथा दूरदर्शन(इंदिरा दर्शन) बन जाए तो यह सत्य की हत्या हीं हुई। आडवाणी ने आपातकाल में प्रेस को ”रेंगने वाला’’ तथा विद्या चरण शुक्ल ने ”स्वतंत्रता समाप्ति’’ की बात कही है। जनता के समक्ष एकमात्र विकल्प यही था की वो या तो सशस्त्र विद्रोह करें या सेना बगावत करें। समस्या का समाधान कहीं भी निकल नहीं रहा था। सारे के सारे समाचार पत्र ‘सरकारी ोपु’’ बन गए थे।
आपातकाल को विनोबा जी ने ”अनुशासन पर्व’’ कहा था। विनोबा जी एक प्रकार से ”सरकारी साधु’’ की तरह दिखाई दे रहे थे। उनके द्वारा नि:पक्ष, निर्वैर और निर्य कहीं जाने वाली ”आचार्यकुल’’ नामक संस्था सरकार समर्थित लगने लगी थी। इसी समय संघ नेतृत्व ने यह विचार किया कि वर्धा में आयोजित आचार्य सम्मेलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक अपना पक्ष रखें। श्री बजरंग लाल गुप्त जो वर्तमान में संघ के क्षेत्र संघचालक (दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा राजस्थान)तथा प्र॔यात अर्थशास्त्री हैं। इन्होंने तो कमाल कर दिया। वे बजरंग लाल गुप्त से सुधीर भाई बनकर वर्धा में गए तथा वहां गुप्त बैठक में भाग लिया। आचार्यकुल सम्मेलन में उन्होंने विनोबा जी को एक चिट्ठी दी। उस पत्र में लिखा था। बाबा आपने अीअी आपातकाल को अनुशासन पर्व कहा है तथा यह कैसे संव हो सकता है कि आचायोर्ं का चिंतन स्वतंत्र एवं निष्पक्ष हो। आपको इस पर भी विचार करना चाहिए।
आपातकाल में सरकार तथा पुलिस संघ के स्वयंसेवकों के प्रति कैसी दुार्वना रखती थी। यह निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है।
‘यमुनानगर के एक प्रो. जिन्होंने ”संसद में स्थगन प्रस्ताव’’ विषय पर पीएचडी किया है, के यह कहने पर कि मैं प्रो. के साथ एक लेखक भी हूं। इंसपेक्टर ने द्दी गालियां देते हुए कहा, ”अी आपकी प॔ोफेसरी का इलाज किए देते हैं।’’ उनकी सोने की अंगुठियां तथा रूपये छीने गए एवं 24 घंटे तक ूखाप्यासा रखा गया। बरसते पाने में मारतेपिटते तथा द्दी गालियां देते हुए थाने तक ़ाई किलोमीटर दौड़ाते हुए लाया गया। इसके बाद उन्हें नंगा करके दोनों हाथ पीछे बांध दिए तथा जमीन पर पैर फैलाकर बैठाया गया। प्रो. ने चिल्लाकर कहा कि मुझे हार्निया की बिमारी है। बाल पकड़कर बारबार पीटा गया जब तक कि वे बेहोश न हो गए। मजिस्ट्रेट के सामने भी द्दीद्दी गालियां दी गयी पर मजिस्ट्रेट ने कुछ भी नहीं कहा।
॔आपातकाल के इस बीस महिनों में पुलिस ने मध्य प्रदेश के देवास जिले के ूटिया गांव में 8 सत्याग॔हियों को थाने में पीटा तथा उनके अधोवस्त्र भी फाड़ दिए गए। इतना ही नहीं किया गया। लातघूसों से जमकर धुनाई के पश्चात एक दूसरे पर अप्राकृतिक मैथुन के लिए मजबूर किया गया। मूंह मे पेशाब तथा कई दिनों तक ूखेप्यासे रखा गया। बिजली के झटके दिए गए। पुलिस थाने से जवाहर चौक तक नंगे घुमाते हुए ”जनसंघ मुर्दाबाद’’ के नारे लगाए गए। जिस दिन जमानत के लिए उपस्थित होना था, उसकी पूर्व रात्रि में उन्हें एकएक कर बियाबान जंगल में छोड़ दिया गया।
‘देवरिया(उ.प्र.) के मेरे शिष्य िमल गत को मारनेपिटने के बाद जबरन नसबंदी कर दी गई। जबकि उनकी शादी छः माह पूर्व हुई थी।
॔हरियाणा भारतीयजनता युवा मोर्चा के संयोजक को मारनेपीटने के बाद उनके लिंगों व अंडकोशों को बारबार खींचा गया जिसके कारण बिहोशी आ गई। उनके साथ इतना ही नहीं हुआ। उनको बिना ोजनपानी के रखा गया तथा उनके चडी में एक कपड़े का थैला डाल दिया गया। उसमें मच्छर, चिलर तथा चूहे रखे गए थे।
संघ के स्वयंसेवकों के साथ अत्याचार को पॄकरसुनकर ऐसा लगता है कि श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शत्रु क॔मांक1 पर था। संघ के विशाल सत्याग॔ह में लगग 60 हजार स्वयंसेवकों ने
भाग लिया। केवल दिल्ली में ही अरूण जेटली, सुब॔ह्मण्यम स्वामी, मदनलाल खुराना, प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा, के एन गोविंदाचार्य, देवेन्द्र स्वरूप, सुरेन्द्र मोहन, ानुप्रताप शुक्ल, मदनलाल खुराना, बैकुंठलाल शर्मा ‘प्रेम’ इत्यादि स्वयंसेवकों ने
भाग लिया। उन्होंने आपातकाल में चोरीछिपे जागरण पत्रकों के माध्यम से श्रीमती इंदिरा गांधी के अन्यायी, अत्याचारी और राष्ट्रद्रोही प्रवृत्तियों का प्रचारकिया। यदि किसी व्यक्ति को आपातकाल में संघ के योगदान के संबंध में जानकारी लेनी हो तो वो राष्ट्रषि नानाजी देशमुख लिखित ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ तथा मणिचंद वाजपेयी उर्फ ‘मामाजी’ कीे पुस्तक ॔ज्योति जला निज प्राण की’ को पॄें। इसमें आजादी पूर्व एवं आजादी के पश्चात संघ के स्वयंसेवकों के अप्रतिम बलिदान के संबंध में जानकारी मिल जाएगी। वर्तमान में एक मीडिया प्रमुख तथा प्रमुख राजनैतिक कार्यकर्ता श्री जे. के. जैन की पत्नी श्रीमती रागिनी जैन ने तो कमाल ही कर दिया था। एक सप्ताह पूर्व पैदा हुई नवजात बच्ची को छोड़कर आपातकाल रूपी स्वतंत्रता संग॔ाम में नानाजी देशमुख के सारथि के रूप में कार्य किया। जब नानाजी ने कहा कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह ठीक नहीं है तो उन्होंने कहा कि मेरे लिए ”राष्ट्रहित सवोर्परि’’ है। मेरी चिंता आप न करें। सब कुछ परमात्मा के श्री चरणों में है।
विदेशों में रहने वाले संघ के स्वयंसेवकों ने अमेरिकों, इंग्लैंड, इत्यादि देशों में ॔फ॔ेंड्स अॉफ इंडियन सोसायटी’, ॔इंडियंस फॉर डेमोक॔ेसी’ और ॔फ॔ी जेपी मूवमेंट’ के माध्यम से समाचार पत्रों, आकाशवाणी केंद्रों एवं दूरदर्शन केंद्रों में आपातकालीन संघर्ष को मुखारित किया।
संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी से श्रीमती इंदिरा गांधी का कहना था कि संघ सरकार से समझौता करें। समझौता में दोनों पक्षों को कुछ लेनदेन तो करनी ही होती हैं। आपके स्वयंसेवक 21 महीने से जेलों में है। वे कुछ दिनों में टूटने लगेंगे। आप इस प्रकार कितने दिनों तक चलेंगे। पदाधिकारी ने कहाए ”हमारे स्वयंसेवक टूटने वाले नहीं हैं। वे 4 वषोर्ं तक भी जेलों में रह सकते हैं। उनका मनोबल तथा उत्साह बना ही रहेगा। प्रतिबंध उठने के बाद हमें तथा हमारे स्वयंसेवकों को फिर से समाज में जाना है। वे सीना तानकर, मस्तिष्क ऊंचा रखकर तथा उज्जवल मुख लेकर समाज में कार्य करने के लिए जा सकें । यदि आपके बातों पर वे बाहर आएंगे तो उनपर यह कलंक लगेगा कि इस स्वतंत्रता संग॔ाम की घड़ी में वे धोखा देने वाले तथा पीठ में छुरा घोंपने वाले कहलाएंगे।’’
विनायक सेन को भारत रत्न दे दीजिए पर दोषमुक्त होने के बाद
संजय द्विवेदी
सामाजिक कार्यकर्ता विनायक सेन को मीडिया, कुछ जनसंगठनों और एक खास विचार के लोगों ने महानायक तो बना दिया है, किंतु केंद्र सरकार की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है कि वह उन्हें योजना आयोग की किसी समिति में नामित कर दे। क्योंकि विनायक सेन एक गंभीर मामले के आरोपी हैं और अदालत ने उन्हें सिर्फ जमानत पर रिहा किया है, दोषमुक्त नहीं किया है। विनायक सेन पर आरोप है कि वे नक्सलियों के मददगार रहे हैं। यह आरोप गलत भी हो सकता है किंतु अदालती कार्यवाही पूरी तो होने दीजिए, आखिर इतनी जल्दी क्या है? क्या योजना आयोग अदालत से ऊपर है ? इस मामले में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह की आपत्ति बहुत जायज है कि ऐसी बैठकों में आखिर वे क्या करेंगें।
एक तरफ जहां राज्य और केंद्र सरकारें हमारे लोकतंत्र के खिलाफ चल रहे इस कथित जनयुद्ध से जूझ रही हैं तो दूसरी ओर योजना आयोग एक ऐसे व्यक्ति को अपनी समिति का सदस्य नामित कर रहा है जिस पर लगे गंभीर आरोपों पर अभी अदालत का फैसला प्रतीक्षित है। क्या यह प्रकारांतर से एक संदेश देने और अदालतों को प्रभावित करने की कोशिश नहीं मानी जानी चाहिए? विनायक सेन को महान मानने और बनाने का हक उनके समर्थकों को है किंतु केंद्र सरकार इस प्रयास में सहयोग क्यों कर रही है यह समझ से परे है। जबकि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बताते रहे हैं। क्या अब उनकी यह राय बदल गयी है? नक्सलियों के शहरी नेटवर्क को तोडने के प्रयास और उनके प्रति सहानुभूति रखने वालों के प्रति क्या सरकार का नजरिया बदल गया है ? नक्सली आए दिन वारदात कर रहे हैं और हजारों लोग इस हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं। लेकिन सरकार अगर इसी प्रकार एक कदम आगे बढ़कर और फिर एक कदम पीछे चलने का रवैया अपनाती है, तो इससे नक्सलियों को संबल ही मिलेगा। इससे अंततः वे भ्रम के निर्माण में सफल होगें और लोकतंत्र की चूलें हिल जाएंगी। लोकतंत्र में असहमति के लिए स्पेस है और होना ही चाहिए किंतु अगर लोकतंत्र को ही तोड़ने और समाप्त करने के प्रयासों में लगे लोगों के प्रति भी राज्य सहानूभूति रखता है तो हमारे पास क्या बचेगा। हमारे भूगोल को देश के अंदर और बाहर से तमाम चुनौतियां मिल रही हैं। आतंकवाद के खिलाफ देश की बेबसी हम देख रहे हैं। गृहमंत्रालय की बदहवासी की खबरें हमें रोज मिल रही हैं। देश के सामने सुरक्षा की चुनौतियां इतनी असाधारण हैं कि पहले कभी नहीं थीं। आतंकवाद के बराबर ही खतरा नक्सलवाद को माना जा रहा है। ऐसे में हमारा योजना आयोग इस जंग को भोथरा करने के प्रयासों में क्यों लगा है, यह एक बड़ा सवाल है। क्या कारण है कि हमारी सरकार एक ओर तो माओवाद से लडने की कसमें खाती है, करोड़ों का बजट नक्सलियों के दमन के लिए खर्च कर रही है तो वहीं उसके संकल्प को सरकारी संगठन ही हवा निकाल रहे हैं। नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले जनसंगठनों और स्वयंसेवी संगठनों को धन देने से लेकर उनको उपकृत करने के प्रयासों की तमाम खबरें हमारे बीच हैं। हमारे नौजवान रोजाना बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ में नक्सली हमलों में मारे जा रहे हैं। उनकी आर्तनाद करती विधवाओं की आवाज सुनिए। बेहतर है इन इलाकों से सीआरपीएफ और अन्य बलों को वापस लीजिए और उनका कत्लेआम रोकिए। आखिर सरकार की नीति क्या है, यह तो सामने आए।
जरूर नक्सलियों के मददगारों को केंद्रीय सरकार के संगठनों में नामित कीजिए, किसी को कोई आपत्ति न होगी। विनायक सेन को उनकी सेवाओं के लिए भारत रत्न दे दीजिए। लेकिन दोहरा खेल न खेलिए। जहां हमारे नौजवान जान पर खेल कर इस जनतंत्र को बचाने के लिए लगे हों, जहां नक्सली आदिवासी समाज का सैन्यीकरण कर रहे हों- वहां नक्सलियों के शहरी मददगार संगठनों और व्यक्तियों का सरकार ही संरक्षण करे यह कैसी विडंबना है। देश के मानस को भ्रम न रखा जाए। क्योंकि विनायक सेन को एक आपराधिक मामले में आरोपी होने के बावजूद योजना आयोग जैसे संगठन से जोड़ना वास्तव में खतरनाक है। जब तक वे अदालत से दोषमुक्त होकर नहीं आते सरकार का इस तरह का कोई भी कदम माओवाद के खिलाफ हमारी जंग को भोथरा ही करेगा। क्या हम और आप अपने लोगों की लाशों पर यह सौदा करने के लिए तैयार हैं ? माओवाद की जंग इस देश के लोकतंत्र को समाप्त कर बंदूकों का राज लाने की है। वे 2050 में लोकतंत्र को समाप्त कर देश में माओवाद लाने का स्वप्न देख रहे हैं। हिंसा के पैरोकारों ने आम आदमी के नाम पर आम आदिवासी के दमन और शोषण का ही मार्ग पकड़ा है। अफसोस कि हमारे कुछ बुद्धिजीवी नक्सलियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ कहने से बाज नहीं आते। ये तथाकथित बुद्धिजीवी ही माओवादियों को वैचारिक खाद-पानी दे रहे हैं और हमारे कुछ स्वार्थी राजनेता और गुमराह अफसर सरकारों को गुमराह करने में सफल हैं। यह मिथ्या बात फैलाई जा रही है कि नक्सलवादी असमानता और गैरबराबरी के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह एक सामाजिक और आर्थिक समस्या है। किंतु क्या हमारे राज्य को नक्सलवाद या माओवाद का फलसफा नहीं पता है। क्या हमारे नेताओं को नहीं पता कि यह कैसी विचारधारा है और इसके उद्देश्य क्या हैं। अगर हम जानकर भी अनजान बन रहे हैं तो हमारा भगवान ही मालिक है। लेकिन आम जनता की लाशों पर जो लोग सौदे कर रहे हैं इतिहास उन्हें माफ तो बिल्कुल नहीं करेगा।
बात उन दिनों की है, जब मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष थे। एक बार उनकी ब्रैड पकौड़े जैसी लाल और फूली हुई नाक देखकर किसी ने इसका कारण पूछा, तो वे फट पड़े – भैया, गांधी बाबा का राज अगर भारत में आ गया, तो किसी को जुकाम नहीं होगा।
– क्या मतलब ?
– गांधी बाबा का आदेश है कि सब हाथ से बनी मोटी खादी प्रयोग करें। जुकाम के कारण मैं तीन दिन से इस मोटे रूमाल से नाक रगड़ रहा हूं। यदि दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो नाक ही नहीं बचेगी। फिर जुकाम कहां से होगा ?
ऐसा ही संकट बाबा रामदेव के कारण एक बार फिर भारत पर मंडरा रहा है।
भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। लोकतंत्र में चुनाव, चुनाव के लिए राजनीतिक दल और उनके लिए घोषणापत्र आवश्यक होता है। भारत में हर दूसरे-चौथे महीने चुनाव होते ही रहते हैं। जब से बाबा जी ने राजनीतिक दल बनाने और चुनाव लड़ने की बात कही है, तबसे उनके पास कई ऐसे नेता आने लगे हैं, जो घर से लेकर बाहर तक कई बार बुरी तरह पिट चुके हैं और अब कहीं उनकी पूछ नहीं हो रही। ऐसे ही कुछ शुभचिंतकों ने बाबा जी को सुझाव दिया कि आपका राजनीतिक दल भले ही बाद में बने; पर यदि एक घोषणापत्र बन जाए, तो आगे चलकर बड़ी सुविधा हो जाएगी।
वैसे भारत में अधिकांश राजनीतिक दल ऐसे हैं, जिनके लिए घोषणा पत्र का कुछ विशेष उपयोग नहीं है। वे उसे उस पुराने कपड़े की तरह समझते हैं, जिसे आग पर से गरम बरतन उतारते समय प्रयोग कर फिर खूंटी पर टांग देते हैं। कांग्रेस और उसकी परम्परा वाले घरेलू दलों में उनके मुखिया की बात ही घोषणापत्र है।
पर उस भले आदमी की बात बाबा जी की समझ में आ गयी। इसलिए घोषणापत्र पर विचार करने के लिए उन्होंने अगले दिन प्रातः पांच बजे सबको खाली पेट आने को कह दिया।
उनके कुछ साथी इससे परेशान हो गये – बाबा जी, घोषणापत्र बनाने के लिए इतनी जल्दी और खाली पेट आकर क्या होगा ?
– सबसे पहले हम लोग आधा घंटा अनुलोम-विलोम और कपालभाति करेंगे। इसके बाद बैठक प्रारम्भ होगी।
– तो क्या आपके दल का हर कार्यक्रम ऐसे ही प्रारम्भ होगा ?
– बिल्कुल। मेरी पहचान इनसे ही बनी है। लेखक हों या पत्रकार; नर्तक हों या अभिनेता; किसान हों या व्यापारी; राजनीति में आने के बाद भी वे अपना पुराना काम नहीं छोड़ते। इसलिए मैं इन्हें नहीं छोड़ सकता। जिसे मेरे दल में रहना हो, उसे हर दिन सूर्योदय के समय अनुलोम-विलोम और कपालभाति करनी ही होगी।
– दल के पदाधिकारियों को भी…?
– पदाधिकारियों को ही नहीं, सांसद हो या विधायक, मंत्री हो या संतरी, यह सबको करना होगा।
– तो क्या संसद का सत्र भी राष्ट्रपति के अभिभाषण की बजाय आसन-प्राणायाम से प्रारम्भ होगा ?
– पहले आसन-प्राणायाम होगा और फिर उनका भाषण। यह मेरा नहीं, भारत के स्वाभिमान का प्रश्न है।
बाबा जी के सामने कौन बोलता; पर जिन 25 लोगों को घोषणापत्र बैठक के लिए बुलाया गया था, उनमें से 15 ही पहुंच सके। एक को बाबा जी ने लौटा दिया, क्योंकि उसके मुंह से रात्रिपेय की दुर्गन्ध आ रही थी। शर्मा जी को कुछ कष्ट तो हुआ, फिर भी भागदौड़ कर वे समय से पहुंच गये। बाबा जी ने सबको अपने सामने धरती पर बैठा दिया। कुछ देर आसन, व्यायाम, प्राणायाम और ध्यान के बाद बैठक प्रारम्भ हो गयी।
एक सहभागी ने सुझाव दिया कि बुद्धिजीवियों की गोष्ठी में चाय और क१फी के दौर चलते रहते हैं। इसके बिना उनका दिमाग ही नहीं चलता। इसलिए आसन-व्यायाम के बाद कुछ जलपान भी हो जाए, तो ठीक रहेगा।
बाबा जी के आदेश से सबके लिए लौकी और करेले का रस आ गया। अधिकांश लोग उसे देखकर ही मुंह बनाने लगे। दो लोग हल्का होने के बहाने बाहर निकले और फिर लौटकर ही नहीं आये। रसपान के बाद बैठक फिर प्रारम्भ हुई।
बाबा जी ने एक सप्ताह पूर्व ही दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार और कालेधन के विरुद्ध सफल रैली की थी, अतः सबसे पहले अर्थनीति पर चर्चा होने लगी।
– हमारी सरकार में करनीति क्या होगी ? एक ने प्रश्न किया।
– हम जनता से कोई कर नहीं लेंगे।
– पर बिना कर के देश कैसे चलेगा ?
– हम विदेशी बैंकों में रखे कालेधन को वापस लाएंगे। उसके आने से अगले 15 साल तक किसी नागरिक से कर लेने की आवश्यकता नहीं होगी। इतना ही नहीं, हर नागरिक को दो-तीन लाख रुपये और दिये जाएंगे। इसे वह खेती या व्यापार में लगा सकता है।
उसी समय शर्मा जी को बाहर जाने की आवश्यकता लगी। लौकी का रस पीने से उनका पेट कुछ गुड़गुड़ाने लगा था। वे बाहर निकले, तो उनके साथ भुनभुनाते हुए एक नेता जी और आ गये – इन बाबा जी की सरकार तो आने से रही। बिना कर लिये लौकी और करेले के जूस से कहीं देश चलता है क्या ?
– नेता जी, इनका आंदोलन सरकार बनाने के लिए नहीं है।
– तो फिर किस लिए है ?
– यह सरकार को हिलाने और देश को जगाने के लिए है। 1947 के बाद कांग्रेस ने कहा था कि देश चलाने की जिम्मेदारी हमारी है। जनता तो बस हर पांचवे साल हमें वोट देती रहे। भोली जनता इनके चक्कर में आ गयी। इसी का परिणाम है कि भ्रष्टाचार हर घर और दफ्तर में घुस गया है। अब तो मीडिया, सेना और न्यायपालिका भी कलंकित हो गये है। राजा ही चोर बने हैं। सरकार खुद कह रही है कि देश में 70 प्रतिशत लोग 20 रु0 से कम पर गुजारा करते हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। हिंसा और अपराध बच्चों का खेल बन गये हैं। जो लोग राजनीति को वेश्या, राजनेताओं को दलाल और राजनीतिक दलों को माफिया क्लब कह रहे हैं, वे गलत नहीं हैं।
– तो जनता के जागने से क्या होगा ?
– और कुछ हो न हो; पर अगली सरकार इन नाकारा और मजबूर लोगों से तो अच्छी ही होगी।
सोच रहा था कम्युनिस्ट इस देश की सभ्यता व संस्कृति को मान क्यों नहीं देते? ध्यान में आया कि उनकी सोच और प्रेरणास्रोत तो अधिकांशत: विदेशी हैं। फिर क्यों ये इस देश के आदर्शों पर गर्व करेंगे। भारत की सभ्यता, संस्कृति और आदर्श उन्हें अन्य से कमतर ही नजर आते हैं। हालांकि भारत के युवा वर्ग को साधने के लिए एक-दो भारतीय वीरों को बोझिल मन से इन्होंने अपना लिया है। हाल ही में उन्होंने मेरे इस मत को पुष्ट भी किया। वामपंथियों ने त्रिपुरा में स्कूली किताबों में महात्मा गांधी की जगह लेनिन को थोप दिया है। यह तो किसी को भी तर्कसंगत नहीं लगेगा कि भारत के नौनिहालों को महात्मा गांधी की जगह लेनिन पढ़ाया जाए। त्रिपुरा में फिलहाल सीपीएम की सरकार है। मुख्यमंत्री कम्युनिस्ट माणिक सरकार हैं। त्रिपुरा में कक्षा पांच के सिलेबस से सत्य, अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी की जगह कम्युनिस्ट, फासिस्ट, जनता पर जबरन कानून लादने वाले लेनिन (ब्लादिमिर इल्या उल्वानोव) को शामिल किया है।
लेनिन की मानसिकता को समझने के लिए उसकी एक घोषणा का जिक्र करना जरूरी समझता हूं। लेनिन ने एक बार सार्वजनिक घोषणा द्वारा अपने देशवासियों को चेतावनी दी थी कि ‘जो कोई भी नई शासन व्यवस्था का विरोध करेगा उसे उसी स्थान पर गोली मार दी जाएगी।’ लेनिन अपने विरोधियों को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया करता था। ऐसे आदर्श का पालन करने वाले लेनिन को अब त्रिपुरा के बच्चे पढेंग़े। वे बच्चे जो अभी कक्षा पांच के छात्र हैं। इस उम्र में उनके मन में जिस तरह के विचारों का बीजारोपण हो जाएगा। युवा अवस्था के बाद उसी तरह की फसल देश को मिलेगी। इस तथ्य को वामपंथी अच्छे से जानते हैं। इसी सोची समझी साजिश के तहत उन्होंने महात्मा को देश के मन से हटाने की नापाक कोशिश की है। उन्होंने ऐसा पहली बार नहीं किया, वे शिक्षा व्यवस्था के साथ वर्षों से दूषित खेल खेलते आ रहे हैं।
वामपंथियों की ओर से अपने हित के लिए समय-समय पर शिक्षा व्यवस्था के साथ किए जाने वाले परिवर्तनों पर, तथाकथित सेक्युलर जमात गुड़ खाए बैठी रहती है। उन्हें शिक्षा का यह वामपंथीकरण नजर नहीं आता। वे तो रंगे सियारों की तरह तब ही आसमान की ओर मुंह कर हुआं…हुआं… चिल्लाते हैं जब किसी भाजपा सरकार की ओर से शिक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाता है। तब तो सब झुंड बनाकर भगवाकरण-भगवाकरण जपने लगते हैं। सेक्युलर जमातों की यह नीयत समझ से परे है। खैर, वामपंथियों को तो वैसे भी महात्मा गांधी से बैर है। क्योंकि, गांधी क्रांति की बात तो करते हैं, लेकिन उसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं। वहीं वामपंथियों की क्रांति बिना रक्त के संभव ही नहीं। गांधी इस वीर प्रसूता भारती के सुत हैं, जबकि कम्युनिस्टों के, इस देश के लोग आदर्श हो ही नहीं सकते। गांधीजी भारतीय जीवन पद्धति को श्रेष्ठ मानते हैं, जबकि वामपंथी कहते हैं कि भारतीयों को जीना आता ही नहीं। गांधीजी सब धर्मों का सम्मान करते हैं और हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं, जबकि कम्युस्टिों के मुताबिक दुनिया में हिन्दू धर्म में ही सारी बुराइयां विद्यमान हैं। वामपंथियों का महात्मा गांधी सहित इस देश के आदर्शों के प्रति कितना ‘सम्मान’ है यह १९४० में सबके सामने आया। १९४० में वामपंथियों ने अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का सूत्रपात किया। उस समय कुटिल वामपंथियों ने भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध खूब षड्यंत्र किए। गांधी और भारत के प्रति द्वेष रखने वाले वामपंथी देश के बच्चों को क्यों महात्मा को पढऩे देना चाहेंगे।
शिक्षा बदल दो तो आने वाली नस्ल स्वत: ही जैसी चाहते हैं वैसी हो जाएगी। इस नियम का फायदा वामपंथियों ने सबसे अधिक उठाया। बावजूद वे उतने सफल नहीं हो पाए। इसे भारत की माटी की ताकत माना जाएगा। तमाम प्रयास के बाद भी उसके बेटों को पूरी तरह भारत विमुख कभी नहीं किया जा सका है। वैसे वामपंथी भारत की शिक्षा व्यवस्था में बहुत पहले से सेंध लगाने में लगे हुए हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के प्रकल्प के तहत दस खण्डों के ‘स्वाधीनता की ओर’ ग्रंथ का प्रकाशन करवाया गया। इसे तैयार करने में अधिकांशत: कम्युनिस्ट टोली लगाई गई। अब ये क्या और कैसा भारत का इतिहास लिखते हैं इसे सहज समझा जा सकता है। इस ग्रंथ में १९४३-४४ तक के कालखण्ड में महात्मा गांधी जी के बारे में केवल ४२ दस्तावेज हैं, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सैकड़ों। ऐसा क्यों? क्या कम्युनिस्ट पार्टी इस देश के लिए महात्मा गांधी से अधिक महत्व रखती है? क्या कम्युनिस्ट पार्टी का स्वाधीनता संग्राम में गांधी से अधिक योगदान है? भारतीय इतिहास के पन्नों से हकीकत कुछ और ही बयां होती है। इतिहास कहता है कि १९४३-४४ में भारत के कम्युनिस्ट अंग्रेजों के पिट्ठू बन गए थे। इसी ग्रंथ में विश्लेषण के दौरान गांधी जी को पूंजीवादी, शोषक वर्ग के प्रवक्ता, बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि, प्रतिक्रियावाद का संरक्षक आदि कहकर गालियां दी गईं। यह है कम्युनिस्टों का चेहरा। यह है गांधीजी के प्रति उनका द्वेष।
स्वतंत्रता पूर्व से ही वामपंथियों ने बौद्धिक संस्थानों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। इसका असर यह हुआ कि तब से ही शिक्षा-साहित्य में भारतीयता के पक्ष की उपेक्षा की जाने लगी थी। जयशंकर को दरकिनार किया, उनकी जगह दूसरे लोगों को महत्व दिया जाने लगा। कारण, जयशंकर भारतीय संस्कृति के पक्ष में और उसे आधार बनाकर लिखते थे। ऐसे में उन्हें आगे कैसे आने दिया जाता। वहीं प्रेमचंद की भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत रचनाओं को कचरा बताकर पाठ्यक्रमों से हटवाया गया। उनके ‘रंगभूमि’ उपन्यास की उपेक्षा की गई। क्योंकि, रंगभूमि का नायक ‘गांधीवादी’ और भारतीय चिंतन का प्रतिनिधित्व करता है। निराला की वे रचनाएं जो भारतीय मानस के अनुकूल थीं यथा ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ आदि की उपेक्षा की गई। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं।
आजादी के बाद इन्होंने तमाम विरोधों के बाद भी मनवांछित बदलाव शिक्षा व्यवस्था में किए। महान प्रगतिशीलों ने ‘ग’ से ‘गणेश’ की जगह ‘ग’ से ‘गधा’ तक पढ़वाया। केरल में तो उच्च शिक्षा का पूरी तरह वामपंथीकरण कर दिया है। वहां राजनीति, विज्ञान और इतिहास में राष्ट्रभक्त नेताओं और विचारकों का नामोनिशान ही नहीं है। केरल के उच्च शिक्षित यह जान ही नहीं सकते कि विश्व को शांति का मंत्र देने वाले महात्मा गांधी और अयांकलि के समाज सुधारक श्रीनारायण गुरु सहित अन्य विचारक कौन थे। इनके अध्याय वहां के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं। ये यह भी नहीं जान सकते कि भारत ने आजादी के लिए कितने बलिदान दिए हैं, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन का तो जिक्र ही नहीं है, जबकि माक्र्सवादी संघर्ष से किताबें भरी पड़ी हैं।