आगामी 11 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट बार एसोशिएशन (एससीबीए) के चुनाव होने हैं। गौरतलब है कि एससीबीए के लिए 21 प्रतिनिधि चुने जाते हैं, जिसमें 6 पदाधिकारी, 6 वरिष्ठ अधिवक्ता और जूनियर बार के लिए 9 सदस्य होते हैं। एससीबीए के 6 पदाधिकारियों के लिए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, दो सचिव और दो कोषाध्यक्ष के चुनाव होने हैं। इस बार अध्यक्ष पद के लिए राम जेठमलानी, अादिश अग्रवाल, पी. एच. पारेख और राजीव दत्ता चुनाव लड़ रहे हैं।
विदित हो कि राम जेठमलानी वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट बार एसोशिएशन के अध्यक्ष हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी जेठमलानी 87 वर्ष की उम्र में भी, जब लोग विस्मृति के शिकार हो जाते हैं और सहारे के लिए हाथों में लाठी थाम लेते हैं, उनका जुझारू तेवर काबिल-ए-तारीफ हैं। उनकी सक्रियता अधिवक्ताओं के लिए पाथेय है तो उनकी जीवटता अनुकरणीय। 17 वर्ष की उम्र में कानून की डिग्री हासिल कर सबको चमत्कृत करने वाले जेठमलानी ने अपनी काबिलियत व वकालत के अपने तुजुर्बे की बदौलत अपार ख्याति अर्जित की है। उनके समकक्ष देश में कोई अधिवक्ता या विधि विशेषज्ञ नहीं है। अपने प्रतिपक्षियों के तर्कों को ध्वस्त करने में उन्हें महारत हासिल है। उनके तेवर, तर्कों और तथ्यों के आगे अच्छे-अच्छे कानूनविद् धराशायी हो जाते हैं। अपने बेबाकीपन के लिए मशहूर रामजेठमलानी कानून के इतर भी सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों पर आवाज बुलंद करते रहते हैं। चाहे ’70 के दशक में आपातकाल की चुनौती हो या फिर वर्तमान समय में काले धन की समस्या, वो इन सभी समस्याओं को दूर करने हेतु बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। यही कारण है कि देश की जनता ने उन्हें अपने हक की बात उठाने के लिए दो बार लोकसभा में भेजा तो दो बार राज्यसभा में। वर्तमान में भी आप तीसरी राज्यसभा के सम्मानित सदस्य हैं। इससे पूर्व जेठमलानी दो बार देश के केन्द्रीय कानून मंत्री का दायित्व भी संभाल चुके हैं।
इस बार का एससीबीए चुनाव कई मायनों में दिलचस्प होगा। वर्तमान समय में राम जेठमलानी एससीबीए के सबसे वरिष्ठ सदस्य हैं और उन्हें ही इतनी उम्र में बार एशोसिएशन के अध्यक्ष निर्वाचित होने का गौरव भी प्राप्त है। आज तक किसी भी देश के बार एसोशिएशन में कोई भी व्यक्ति 87 साल की उम्र में चुनाव नहीं लड़ा होगा। और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस बार भी एससीबीए के अध्यक्ष पद के लिए उनकी दावेदारी प्रबल मानी जा रही है।
देश के वजीरे आजम डॉ. मनमोहन सिंह पर सादगी के साथ ही साथ भ्रष्टाचार छुपाने के आरोप भी लगने लगे हैं। प्रधानमंत्री पर सबसे बड़ा आरोप तो यह है कि उन्हें लोकसभा में ही मत देने का अधिकार नहीं है, इसका कारण यह है कि वे पिछले दरवाजे यानी राज्यसभा के रास्ते संसदीय सौंध तक पहुंचे हैं। पीएम डॉ. सिंह असम से राज्य सभा सांसद हैं। हाल ही में असम में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए। हद तो तब हो गई जब प्रधानमंत्री ने असम में जाकर अपने मताधिकार का ही प्रयोग नहीं किया। भाजपा के युवा आईकान नरेंद्र मोदी ने पीएम पर निशाना साधते हुए इस बात पर दुख व्यक्त किया है कि वजीरे आजम ने असम में विधानसभा चुनवों में अपने मताधिकार का प्रयोग न कर निराश किया है। मुद्दे की बात तो यह है कि देश के उच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा मताधिकार का प्रयोग करने की अपील आम जनता से की जाती है, पर जब प्रधानमंत्री खुद ही मताधिकार का प्रयोग न कर पाए हों तो क्या उन्हें मताधिकार करने की अपील करने का नैतिक अधिकार रह जाएगा?
क्यों हैं कांग्रेस के अन्ना विरोधी सुर!
कांग्रेस के महासचिव राजा दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, मनीष तिवारी जैसे नेता आखिर एसी बयानबाजी क्यों कर रहे हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन की हवा निकल सके। कारण साफ है कि पिछले एक साल में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने एक के बाद एक विवादस्पद फैसले लिए और अपनी भद्द पिटवाई। कांग्रेस के मंत्री लोकपाल बिल के खिलाफ हैं। उधर कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी भी मन ही मन इसका विरोध कर रहे हैं, पर वे जानते हैं कि अगर उन्होने इसका साथ नहीं दिया तो आने वाले समय में युवाओं का राहुल गांधी से मोहभंग हो जाएगा। सोनिया और राहुल दोनों ही भली भांति जानते हैं कि युवा ही कल राहुल को देश का वजीरेआजम बनवाएंगे। यही कारण है कि दिग्गी, मनीष सलमान जैसे नेता मिलकर अन्ना के आंदोलन की हवा निकालने पर तुले हुए हैं।
शीला का हो रहा शनि भारी
लगभग डेढ़ दशक से अधिक तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रहने वाली श्रीमति शीला दीक्षित के परेशानी के दिन आरंभ होने के संकेत मिले हैं। कल तक शीला के जेब में रहने वाला दिल्ली का कांग्रेस संगठन अब सर उठाने लगा है। नगर निगम के बटवारे को आधार बनाकर संगठन ने शीला की मुखालफत आरंभ कर दी है। शनिवार को आधा दर्जन से अधिक विधायकों ने शीला के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी से भेंट कर अपनी बात रखी। शीला ने दिल्ली नगर निगम को पांच हिस्सों में बांटने के मामले में मनमानी के आरोप उन पर लगे हैं। शीला पर आरोप है कि उन्होंने इस मसले में न तो विधायकों को ही विश्वास में लिया और न ही पार्षदों से ही रायशुमारी की। संगठन की शह पर अगर पार्षद और विधायक एक जुट हो गए तो शीला की मुसीबतें बढ़ ही सकती हैं।
लो अब खिलाडि़यों को मिला मिलावटी खाना
कामन वेल्थ गेम्स के बाद अब 34वें राष्ट्रीय खेल विवादों में आ गए हैं। एक जांच के दौरान यह तथ्य सामने आया है कि नेशनल गेम्स में खिलाडि़यों को परोसा गया खाना दूषित और मिलावटी था। धनबाद स्थित प्रयोगशाला में नमूनों की जांच में यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि खिलाडि़यों को खिलाया गया खाना मानकों के अनुरूप नही था। खेल के दौरान खेल परिसर में बनाई गई अस्थाई ओपीडी में खेलों के दौरान 11 हजार लोगों का इलाज किया गया था। महालेखाकार ने इस खेल में खाने के लिए टेंडर के माध्यम से पाबंद किए गए ठेकेदार गजल केटरर्स को निर्धारित से अधिक दर पर निविदा देने पर घोर आपत्ति जताई है। कामन वेल्थ गेम्स में एक के बाद एक अनियमितताओं के बाद भी आरोपियों पर कार्यवाही लंबिति होने से अब लोगों के हौसले गलत कामों के लिए बुलंद होना स्वाभाविक ही है।
पुत्रमोह भारी पड़ रहा है गहलोत को
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को केंद्र में वापस लाने की मुहिम उनके विरोधियों ने तेज कर दी है। अशोक गहलोत के स्थान पर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर महिला आयोग की निर्वतमान अध्यक्ष गिरिजा व्यास और केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री सी.पी.जोशी की नजरें गड़ी हुई हैं। सूबे में शासन की स्थिति को देखकर अब कांग्रेस के कार्यकर्ता ही कहने लगे हैं कि अगर अगला चुनाव गहलोत के नेतृत्व में लड़ा गया तो राज्य में भाजपा की वापसी सुनिश्चित ही है। हाल ही में गहलोत विरोधियों के हाथ एक एसा अस्त्र लगा है जो गहलोत की परेशानी का सबब बन सकता है। विपक्ष इसका उपयोग ब्रम्हास्त्र के बतौर कर सकता है। गहलोत के पुत्र जिस कंपनी के लीगल एडवाईजर हैं उस कंपनी को राज्य में दो बड़े ठेके देने का मामला तूल पकड़ने लगा है। अब देखना है कि गहलोत अपनी कुर्सी सलामत रखने के लिए क्या जतन करते हैं।
यह क्या कह गए राजा साहेब!
इक्कीसवीं सदी के कांग्रेस के चाणक्य की अघोषित उपाधि पाने वाले कांग्रेस के महासचिव दिग्जिवय सिंह ने देवभूमि वाराणसी में जाकर जो कहा है उससे देश की राजनैतिक राजधानी में सियासत गर्माने लगी है। दिग्गी राजा ने कांग्रेसियों को हिदायत दी है कि वे ‘होटल और बोतल‘ की संस्कृति से बाहर निकलें। कांग्रेस के आला नेता अब इस बात पर मंथन कर रहे हैं कि कार्यकर्ता या नेता किस होटल में जाकर बोतल का इस्तेमाल करते हैं। वैसे भी कांग्रेसी संगठन के अंदर तीन स्तर के पंचायती राज को परिभाषित कुछ इस तरह करते हैं अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी यानी एआईसीसी (ये आई शीशी), प्रदेश कांग्रेस कमेटी यानी पीसीसी (पी शीशी) और जिला कांग्रेस कमेटी यानी डीसीसी (दी घुमा कर शीशी)।
तुम डाल डाल हम पात पात
नक्सलवादी, आतंकवादी, अलगाववादी, क्षेत्रवादी, उग्रवादी, माओवादी जैसे आताताई और सुरक्षा बलों के बीच चूहे बिल्ली का खेल पुराना हो चुका है। एक के बाद एक मोर्चे पर देश विरोधी इन ताकतों के आगे सुरक्षाबलों के परास्त होने की खबरें मिला करती हैं किन्तु देश के शूरवीर जवानों ने कभी हौसला नहीं खोया है। पिछले साल जून में बिहार में एसा कुछ हुआ जो केंद्र सरकार को हिला देने के लिए काफी है। दरअसल धनबाद जिले में रहमान गांव में सीआरपीएफ की एक कंपनी तैनात है। इस कंपनी को जिस तालाब से पीने का पानी सप्लाई होता है, उस तालाब में नक्सलियों द्वारा विस्फोटक मिलाकर पानी को जहरीला कर दिया गया था। सुबह व्यायाम के लिए उठे जवानों ने जब तालाब की मछलियों को सतह पर मरा पाया तो आला अधिकारियों ने इस सूचना पर उसका पानी प्रयोगशाला भेजा जहां इसके जहरीले होने की पुष्टि हुई। सवाल यह उठता है कि जब सीआरपीएफ कंपनी की नाक के नीचे ही नक्सली वारदात करने में सफल रहे तो फिर उनकी मुस्तैदी पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक ही है।
सौंवे साल में एक करोड़ रू.की रोजाना आय!
देश विदेश में अरबों खरबों लोगों की आस्था का केंद्र बन चुके शिरडी के साईं बाबा की महिमा अपरंपार ही है। रामनवमी का पर्व महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के शिरडी कस्बे के लिए महत्व का होता है। इस साल इसका महत्व और अधिक इसलिए भी बढ़ गया है क्योंकि इस साल यह पर्व सौवें साल में प्रवेश कर गया है। रामनवमी पर साई बाबा को जो चढ़ावा आया वह हैरत अंगेज ही रहा। तीन दिनों में साई बाबा संस्थान को तीन करोड़ रूपए की आय हुई इसमें एक करोड़ 77 लाख रूपए दान पात्र में मिले शेष लोगों द्वारा कार्यालय में जमा कराए गए थे। गौरतलब होगा कि देश भर में साई बाबा के भक्तों के लिए जगह जगह मंदिर अवश्य बना दिए गए हैं किन्तु इन मंदिरों का ट्रस्ट बनाकर उसे रजिस्टर्ड न कराने से इसमें होने वाली आय और व्यय को लोग संदेह की नजरों से ही देखते हैं। अनेक मंदिरों में परिवारों या लोगों का एकाधिकार भी बना हुआ है।
कहां जा रही हैं शीला के राज में युवतियां!
दिल्ली की गद्दी पर तीसरी बार काबिज होने वाली कांग्रेस की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित के राज में देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली से युवतियों के गायब होने का सिलसिला थम नहीं पा रहा है। पिछले मार्च माह में 18 से 30 साल की 153 युवतियां गायब हैं। दिल्ली पुलिस का अपना अलग राग है जिसमें प्रेम प्रसंग, घरेलू अनबन, कैरियर तलाशने बाहर जाने को प्राथमिकता दी जा रही है। वहीं दूसरी ओर दिल्ली महिला आयोग इस मामले में आपराधिक कारणों को प्रमुखता से रेखांकित कर रही है। दिल्ली की निजाम खुद एक महिला हैं, तो वे महिलाओं के गायब होने की बात को समझ सकती होंगी, किन्तु सत्ता के मद में चूर कांग्रेस की मुख्यमंत्री श्रीमति शीला दीक्षित को इससे कोई सरोकार नहीं दिखाई दे रहा है। अभी हाल ही में एक युवती को मारकर पार्सल किए जाने की खबर से सनसनी फैल गई थी। कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी की नाक के नीचे अगर बालाओं पर इस तरह का कहर ढाया जा रहा हो तो सुदूर ग्रामीण अंचलों के हाल सोचकर ही रूह कांप उठती है।
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल
अमिताभ बच्चन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने सालों हो गए शराब को तजे हुए। फिर भी उन्होंने ‘शराबी‘ फिल्म में नशे का जीवंत अभिनय कर साबित कर दिया कि वे सदी के महानायक बनने लायक हैं। देश की राजधानी दिल्ली में पीकर टल्ली होने वालों की तादाद देखें तो आपके होश उड़ जाएंगे। कांग्रेस के शासन में दिल्ली में इस साल की पहली तिमाही में 2004 करोड़ रूपयों की शराब बिकी है, जो पिछले साल 1927 करोड़ रूपए थी। इस बार होली पर भी दिल्ली जमकर टल्ली हुई थी। आने वाले समय में हर घर में शराबी पैदा हो जाएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अब आप ही बताईए कि आजादी के छः दशकों के बाद देश की युवा पीढ़ी को कांग्रेस आखिर किस अंधी राह पर ढकेलती जा रही है।
करोड़पति लोकसेवक!
सरकारी सेवा करने वालों को लोकसेवक कहा जाता था। लोकसेवक का अर्थ होता था जनता की सेवा करने वाला सरकारी नौकर। आज इसके मायने बदलते ही जा रहे हैं। राजस्थान में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों ने जब अपनी संपत्ति उजागर की तो देश दांतों तले उंगली दबा बैठा। राजस्थान में अब तक 19 आईएएस द्वारा संपत्ति घोषित की है इन 19 में से एक साहेब वाडमेर में पदस्थ गौरव गोयल करोड़पति तो 13 लखपति हैं। जिनमें से अधिकांश की संपत्ति पचास लाख रूपए से ज्यादा है। अब आप ही बताईए कि जो खुद को आर्थिक तौर पर संपन्न बनाने में लगे हों वहां गरीब गुरबों पर नजला गिरना स्वाभाविक ही है। देश में अखिल भारतीय सेवा वाले अधिकारी अगर अपनी संपत्ति जाहिर कर दें तो पता चलेगा कि सरकार द्वारा गरीब गुरबों के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली योजनाओं का धन आखिर गया कहां है।
सूखी धरती किन्तु बाढ़ में डूब गए लाखों झाड़!
2008 से अब तक दिल्ली में 1,60,842 वृक्ष तबाह हो चुके हैं, जी हां, दिल्ली सरकार का कहना है यह। दिल्ली में पर्यावरण की फिजां शायद इतनी अधिक तादाद में झाड़ों के कालकलवित होने से ही बिगड़ी है। सवाल यह है कि पर्यावरण की फिजां को बिगड़ने के मार्ग किसने प्रशस्त किए। इसकी तह में जाया जाए तो आपका मुंह भी विस्मय से खुला ही रह जाएगा। मौसम विभाग ने आशंका व्यक्त की थी कि 2009 में बारिश कम होगी। वस्तुतः इस साल दिल्ली में सूखा भी पड़ा था। इस बात से दिल्ली सरकार को अधिक लेना देना नहीं है। दिल्ली सरकार का कहना है कि इस सूखे में ही एक लाख से अधिक झाड़ बाढ़ में बह गए हैं। सवाल यह उठता है कि जब सूखा पड़ा तब बाढ़ कहां से आ गई। आग और पानी दोनों को एक साथ तो नही रखा जा सकता है। यह चमत्कार दिल्ली सरकार ही कर सकती है, सो उन्होने कर दिया।
होगी तुम महारानी हमें तो आईडी दिखाओ
रूपहले पर्दे के अदाकार अपने आप को भगवान से कम नहीं समझते हैं। पिछले दिनों किंग खान यानी शाहरूख को दुनिया के चैधरी अमेरिका में एयर पोर्ट पर रोक लिया गया। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था, हम हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी इंडस्ट्री के अघोषित बादशाह और तुम हमें रोको। कमोबेश यही हादसा चंड़ीगढ़ एयरपोर्ट पर हो गया। किंग्स इलेवन की मालकन और अभिनेत्री प्रीति जिंटा से सुरक्षा कर्मी ने पहचान पत्र मांगने की हिमाकत कर डाली। प्रीति भड़क गईं और मामला तूल पकड़ गया। एयरपोर्ट अर्थारिटी के अधिकारी भी मौके पर पहुंच गए। बताते हैं कि प्रीति के जलवे को देखकर उनका पहचान पत्र देखे बिना ही उन्हें प्रवेश दिया गया। होना यह था कि अपने कर्तव्य पर मुस्तैदी से डटे रहने वाले जवान की पीठ थपथपनी चाहिए थी, किन्तु एसा कुछ हुआ नहीं इन परिस्थितियों में जवानों का हौसला पस्त होना स्वाभाविक ही है।
पुच्छल तारा
भारत गणराज्य में घपले घोटाले भ्रष्टाचार की गूंज जमकर हो रही है। टूजी ममाले में शरद पवार का नाम आने से और गड़बड़ हो गई। कानपुर से मोनू कुमार अर्गल ने ईमेल भेजा है। मोनू लिखते हैं कि दो उमरदराज नेता आपस में बात कर रहे थे। पहला बोला यार हद ही हो गई। दूसरे ने पूछा क्या हद हुई भाई मेरे। पहला बोला लो शरद पवार का नाम संचार मंत्रालय के टूजी घोटाले में आ गया। दूसरे ने कहा तो इसमें क्या अलग है। सभी घोटाले में लिप्त हैं। पहला बोला यार हद यह हुई कि हमारे जमाने में मंत्री खुद के मंत्रालयों में घोटाला करने तक ही सीमित हुआ करते थे। यह तो सरासर अतिक्रमण है।
देशवासी आज चमत्कृत हैं। वे चमत्कृत हैं यह देखकर कि समूचे देश को भ्रष्टाचार का गंदा नाला बनाने वाले अचानक रातोंरात गंगोत्री की पवित्र धारा को अवतरित करने वाले भागीरथ कैसे बन गए? जिस देश की नब्बे फीसदी जनता भ्रष्टाचार के डंक से कराह रही थी वह ‘सास बिना ससुराल’ जैसे टाइम पास सीरियलों को भूल कर दो दिन से टेलीविजन पर भ्रष्टाचार का एक इवेंट मैनेजमेंट देख रही थी कि शायद अब बिन भ्रष्टाचार यह देश कैसे होगा? बेशक अन्ना हजारे एक आदरणीय व्यक्तित्व हैं। बेशक सामाजिक क्षेत्रों में उनके योगदान अनुकरणीय हैं प्रेरणादायी हैं। पर लोकपाल विधेयक को लेकर जंतर मंतर में 97 घंटे का थ्रिलर ड्रामा देश के सामने कई गंभीर सवाल छोड़ गया है। कांग्रेस के रणनीतिकार गद्गद् हैं। वे यह मान रहे हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सीधे सीधे गांधी परिवार की उच्चाकांक्षाओं में नकेल डालने वाले बाबा रामदेव अब परिदृश्य से बाहर हैं। विपक्षी दल भी खामोश हैं। वे यह भी भ्रम पाल रहे हैं कि जनता अब टूजी थ्रीजी भूल जाएगी। आदर्श सोसायटी उसे याद नहीं आएगी। धोनी का वर्ल्डकप कॉमनवेल्थ की लूट पर भारी होगा। वह यह सोच कर अब प्रसन्न हैं कि जनता यह देख रही है कि भ्रष्टाचार के निर्णायक संघर्ष में अब वह अन्ना हजारे के साथ कदम ताल कर रही है। निश्चित रूप से भ्रष्टाचार की जंग का ट्वंटी ट्वंटी जो जंतर मंतर में खेला गया वह सौ फीसदी एक फिक्स मैच था, यह अब लगभग ध्यान में आ रहा है। पर यह बात फिलहाल पर्दे के पीछे है। और यही वह समय है कि जनता को अब और सजग और जागरुक होना है। कारण कांग्रेस यह समझ चुकी है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह अब पूरी तरह नग्न हो चुकी है। कालेधन को लेकर उसका चेहरा कालिख से पुता है। बाबा रामदेव की रामलीला मैदान में हुई रैली और लाखों का जनसैलाब हुंकार भर रहा था कि सिंहासन खाली करों कि जनता आती है। आस्था चैनल पर हुई लाइव रिकार्डिंग से 10 जनपथ एवं रेसकोर्स रोड भयभीत हुआ और देश में अघोषित आपातकाल लग गया। बाबा रामदेव की इससे बड़ी रैली झार (हरियाणा) में हुई और आस्था को निर्देश जारी हुए कि वे अपने चैनल पर धर्म की बाते करें राजनीतिक नहीं। बिग बॉस जैसी फूहड़ता और सच का सामना की बेहयाई न रोक पाने वाली सरकार यह देखकर डर गई कि अब देशवासी दो टूक सवाल करने के लिए तैयार हैं। लिहाजा आस्था पर रैली नहीं दिखाई गई। देश का कार्पोरेट हाउस बाबा रामदेव से भयभीत था ही लिहाजा अन्य चैनल भी इस रैली से दूर रहा। प्रिंट मीडिया ने भी मर्यादित दूरी रखी। वर्ल्डकप हो चुका था। आयपीएल शुरू होना था। बीच का समय देश के नीति निर्धारकों को माकूल लग रहा था। लिहाजा अन्ना हजारे जंतर मंतर पर अवतरित हुए। और अवतरित हुए ऐसे स्वयंसेवी संगठन और उनके पैरोकार जो सत्ता के समानांतर सत्ता चलाकर सत्ता को और स्वयं को पोषित करते हैं। अनशन की घोषणा हुई। अनशन शुरू। सरकार ने पहले ना फिर हाँ। फिर श्रीमती गांधी का भावुक पत्र। फिर वार्ता और समझौता। जनतंत्र जीत गया। अन्ना हजारे नायक थे ही महानायक बन गए। कांग्रेस को उनके नायकत्व से खतरा पहले भी नहीं था आज भी नहीं है। वे चुनाव जो नहीं लड़ने वाले। लिहाजा लोकपाल विधेयक को लेकर मांगे मानकर कांग्रेस की गति इस समय नौ सो चूहे खाकर हज को जाने जैसी है। पर वह खुद को यूं प्रस्तुत कर रही है कि वही एक है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है। पर क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष सिर्फ विधेयक तक या विधेयक की ड्राफ्ट कमेटी में सदस्य कौन हाेंगे इस पर तय होगा? देश ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति का आंदोलन 1975 में एवं 1988-89 में वी.पी.सिंह का देखा है? क्या हुआ? जो बिहार भ्रष्टाचार की जंग का सर्वाधिक प्रमुख केन्द्र बना उसी बिहार में लालू राज चला। जो विश्वनाथ प्रताप सिंह राजा नहीं आंधी है गरीबों का गांधी है कहकर पूजे गए वे किस ्रप्रकार सत्ता से बेआबरु होकर बेदखल हुए? अत: भ्रष्टाचार को लेकर जो कुछ बीते दिनों देशभर में घटित हुआ उसका अधिकांश भाग भले ही संभवत: प्रायोजित हो स्क्रिप्टटेड हों, पर एक बात अवश्य समझना होगी वह यह कि सड़ांध मारती व्यवस्था को लेकर एक अंडर करंट है और यह करंट तुरंत प्रवाहित होगा अगर उसे कोई विद्युत सुचालक मिला। अन्ना हजारे में ये संभावनाएं हैं पर उन्हें अपने संघर्ष को विस्तार देना होगा। कारण देश की जनता सड़कों पर उतरने को तैयार है। उसे नायक चाहिए। एक ऐसा नायक जिसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध हो और जो दीर्घकालीन रणनीति के साथ मैदान में आए। नेतृत्व करने वाले देश के राजनीतिक दलों को यह संदेश इस घटनाक्रम से पढ़ना होगा। अगर वे ऐसा करते हैं तो देश उनके योगदान को इतिहास में स्थान देगा अन्यथा वे अब स्वयं इतिहास बनेंगे यह तय है।
बहरहाल, अन्ना हजारे का दिल से अभिनंदन कारण वे संभावनाओं की एक किरण बनकर अवश्य उभर कर आए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए यह किरण एक प्रकाश पुंज बनेगी।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना हजारे का जंतर-मंतर में किया गया आमरण अनशन एक नई चेतना की बयार ले कर आया। इलेक्ट्ऱॉनिक मीडिया के माध्यम से यह आंदोलन पूरे देश में कुछ इस तरह फैला कि केंद्र सरकार दहल गई। क्या उत्तर क्या दक्षिण, हर कही लोग ”मी अन्ना हजारे” की टोपी पहने सडकों पर उतार आये. लोकशाही की विजय हुई और सरकार ने अन्ना हजारे के जन लोकपाल विधेयक के ड्राफ्ट बनाने की मांग मंजूर कर ली और जैसा अन्ना चाहते थे, वैसी ही एक समिति बना दी गई। अन्नाजी के बहाने पूरा देश एकजुट हो गया। जंतर-मंतर का आलम यह था, कि देश के कोने-कोने से लोग अन्ना के समर्थन में चले आ रहे थे। इसका सबसे बड़ा कारण यह था, कि लोग भ्रष्ट व्यवस्था से ऊब चुके हैं। पूरे देश में भ्रष्टाचार की ऐसी बदबूदार नाला बह रहा है, कि नाक पर रुमाल रख कर जीने पर विवश होना पड़ रहा है। आखिर कब तक यह सहा जा सकता था? किसी न किसी एक नायक को खड़ा होना ही पड़ता। और अन्ना हजारे नायक नहीं, महानायक के रूप में उभरे और दिल्ली कूच करके आमरण अनशन पर बैठ गए। उनके साथ सैकड़ों अन्य लोग भी आमरण अनशन पर बैठे। लेकिन त्रासदी यही है,कि दिल्ली और अन्य शहरों में होने वाले आन्दोलन में अनेक चेहरे ऐसे भी नज़र आ रहे थे, जो घोषित तौर पर भ्रष्ट हैं। बहती गंगा में हाथ धोने वाले लोगों की कमी नही है। जो लोग भ्रष्टाचार के कारण ही बदनाम है वे जब इस आन्दोलन में घुस गए तो सोचिये क्या होगा अंजाम ? और ऐसे लोग ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज लगा रहे थे। खैर,यह तो होता ही है। हर जगह भेडिय़े घुस जाते हैं। मुखौटे पहन कर। बहरहाल, अन्ना ने गांधीवादी तरीके से आंदोलन करके देश को जोड़ दिया। कुछ दिन पहले जब भारत ने क्रिकेट का विश्व कप जीता था, तो पूरा देश खुशी से झूमते हुए सड़कों पर उतर आया था। उसके कुछ दिनों बाद अन्ना हजारे के समर्थन में पूरा देश सड़कों पर उतर आया। यह घटना सिद्ध करती है कि देशवासी देश की अस्मिता को लेकर सजग है। भ्रष्टाचार के कारण आम जनता त्रस्त है। पूरा तंत्र वसूली में लगा है। पुलिस वाले वसूली करते है कि हमें अपना टारगेट पूरा करना है, ऊपर तक पैसा पहुंचाना है। रायपुर में बहुत से ट्रांसपोर्टर भी भूख हड़ताल पर बैठे। मैंने कारण पूछा तो वे बताने लगे कि हम तो पुलिसवालों से परेशान है। रास्ते में रोकते हैं और मनमानी वसूली करते हैं। गुंडागर्दी करते हैं। एक सरदार जी ने तो यहाँ तक कहा कि मेरे पास ऐसी सीडी है जिसमें एक पुलिसवाला बता रहा है, कि वह किन-किन लोगों तक पैसे पहुँचाता है। सत्ता में बैठे कुछ लोगों के नाम भी उसने लिए। यह देश का दुर्भाग्य है, कि आजादी के छह दशक बाद हम बेहद भ्रष्ट हो गए। सत्ता और कुरसी का ऐसा नशा चढ़ा कि तानाशाह ही बन गए। ये लोग भूल जाते हैं, कि देश में लोकतंत्र है। और यह लोक जब अपने पर आता है तो अन्ना हजारे बन जाता है। जिसके साथ पूरा देश खड़ा हो कर कहता है- ”देश कर रहा हाहाकार, बंद करो ये भ्रष्टाचार”। अपना देश अहिंसक प्रवृत्ति का है। सब कुछ सह लेता है। पुलिस के डंडे खाकर भी चुप रह लेता है। अगर उसने हिंसक पथ अपनाया तो सोचिए क्या होगा। इस देश में ऐसी नौबत नहीं आनी चाहिए। अब समय आ गयाहै,कि सत्ता और प्रशासन में बैठे नेता-अफसर सुधर जाएँ वरना वह दिन दूर नहीं, कि उन्हें लोग सार्वजनिक रूप से पीटेंगे। वह बुरा दिन होगा। ऐसा समय नहीं आना चाहिए।
अन्ना के इस आन्दोलन से एक बात साफ़ हो गई है, कि लोग अब नया समाज चाहते है, जहाँ भ्रष्टाचार न हो. शांति हो,खुशहाली हो. लेकिन यह केवल मोमबत्तियां थाम लेने से या ”मी अन्ना हजारे” वाली” सफ़ेद टोपी पहन लेने से नहीं होगा, इसके लिये जीवन भी वैसा बनना पडेगा. इधर जो दौर है, वह पाखंड-पर्व मनाने वाला है. अधिकाँश लोगों को मैंने देखा है, कि दिल में न किसी शहीद के लिये दर्द है, न किसी अत्याचार के विरुद्ध. बस भीड़ का हिस्सा बनना है इसलिये चले आये चौराहे पर. चले आये हाथ में, मोमबत्ती थामे, यह नई नस्ल है जिसे हम ”मोमबत्ती ब्रिगेड” कहे तो गलत नहीं है. खा-पी कर अघाए समाज की पैदावार. खुद जीवन सुविधाओं से लबरेज़ है, मगर दिखावे के लिये भीड़ में शामिल हो गए. जैसे बहुत से लोग प्रवचन सुनते है, पूजा करते है, यज्ञ करते है. मगर उनका जीवन किसी भी कोण से धार्मिक नहीं होता. अधिकांश लोगों को समाज किसी लम्पट-शातिर के रूप में ही जनता है. मगर ये लोग पूजा-पाठ करने में सबसे आगे नज़र आते है. प्रवच सुनेंगे आगे बैठ कर और पापो करेंगे पीछे बैठ कर. ऐसे पाखंडियों के बीच रहते हुए बड़ी पीड़ा होती है. यही पीड़ा उस दिन भी हुई, जब जंतर-मंतर में अनेक भ्रष्ट चेहरे नारे लगते नज़र आए. एक-दो तो ऐसे लोग थे, जिनके बारे में कहा जा सकता है, कि ये लोग मानवता विरोधी है, भ्रष्टाचार केवल आर्थिक ही नहीं होता. सामाजिक, राजनीतिक भी होता है. अन्ना के साथ जुड़े एक सज्जन हिंसकों के पक्षधर है. ये कितना बड़ा भ्रष्ट आचरण है, लेकिन ये लोग अभी नायक बने हुए है. मसीहा बने घूम रहे है. अगर ऐसे ही लोग अन्ना हजारे के साथ रहेंगे तो दावे के साथ कहा जा सकता है, कि इस देश से भ्रष्टाचार-कदाचार मिट ही नहीं सकता.
एक सज्जन कहने लगे, ”’अन्ना हजारे यानी एक और गांधी”. मुझे हँसी आ गई. गांधी होना आसां नहीं. बड़ी साधना चाहिए उसके लिये अभी ऐसा कोई साधक नज़र नहीं आता. खुद अन्ना हजारे ने कहा, कि ”मैं गांधी के चरणों की धूल भी नहीं हूँ”. अन्ना ने ठीक कहा. अन्ना अपने तरीके से आन्दोलन कर रहे है. वे जब कहते हैं कि ”भ्रष्ट लोगों को फांसी पर लटका दो” तो वही वे गांधी से बहुत दूर हो जाते है गांधी कहते थे-”पाप से घृणा करो पापी से नहीं”. आज लोग केवल पापियों से घृणा कर रहे है, और खुद पाप करने के अवसर तलाश रहे है. ईमानदार लोग है. लेकिन बेईमानी की भीड़ में वे दब गए हैं इन्हें सामने लेन वाला आन्दोलन चलाने की ज़रुरत है. फिर भी अन्ना का आन्दोलन विश्वास दिलाता है. आने वाले समय में हमारे नेता सुधारने की कोशिश करेंगे वरना वह समय दूर नहीं जब भ्रष्ट लोग सडकों पर पीटे जायेंगे. यह मीडिया का चमत्कार था कि उसने अन्ना के सहारे एक वातावरण बना दिया. अन्ना के साथ पूरा देश अगर खडा हुआ तोउसका श्रेय इलेक्ट्रानिक मीडिया को ही जाता है. मीडिया की यही ताकत है. वह नायक को महानायक बनासकती है. अन्ना के बहाने एक बार फिर देश भ्रष्ट तंत्र के बारे में सोचे. देश की जानता आना के इस कथन पर भी सोचे कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि ”अगर मैं चुनाव लडूंगा तो जमानत जब्त हो जायेगी”. बिल्कुल ठीक कहा उन्होंने. जनता की तारीफ़ ही नहीं वक्त पर उसकी निंदा भी होनी चाहिए. चुनाव के समय बहुत से लोग चंद पैसों में बिक जाते है. दारू में उनका विवेक बह जाता है. मतदाता को केवल ”नोट’ चाहिए, तभी वह”वोट” देता है. यह भी बड़ा भ्रष्टाचार है, लेकिन लोग शायद अपने भ्रष्ट आचरण कोप भ्रष्टाचार ही नहीं समझते. तो अन्ना से जुड़ने के पहले हमें अपनी आत्माको भी भ्रष्टाचार से दूर करना होगा. एक सही व्यक्ति चुनाव लड़ना चाहे तो उसे लाखों रपये खर्च क्यों पड़े? इतने पैसे वह कहाँ से लाता है? और जब खर्च करेगा तो उसकी वापसी भी चाहेगा. यही से भ्रष्टाचार पनपता है. इसलिये अब अगर नया भ्रष्टाचार-विहीन भारत चाहिए तो हर नागरिक को ईमानदार होना पडेगा. अगर हम किसी पापी पर पत्थर फेंक रहे है, तो अपनी ओर भी देखें कि हमने तो कोई पाप नहीं किया है?
कुल मिला कर आना ने एक चेतना तो जगी है. दिल्ली हिल गई, इसमे दो राय नहीं. जन लोकपाल विधेयक लागू होगा तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा मगर इसके दायरे में सभी ले जाए. अनिवार्य रूप से. प्रधानमंत्री भी. और जैसा कि इसमे प्रावधान है, ” लोकपाल” सत्ता के नियंत्रण से मुक्त होगा. ऐसा हो सका तो यह बड़ी बात होगी. क्योंकि सीबीआइ का हश्र हमारे सामने है. अब जनता को भी सोचना है, कि वह भ्रष्ट-तंत्र को बढ़ावा न दे. आने वाले समय में ”वापस बुलाने का कानून भी पास करवाने के लिये अन्ना आन्दोलन करेंगे. इस आन्दोलन को भी देश का समर्थन मिलेगा ही. अब अन्ना हजारे जी को यह देखना होगा कि, वे अपने दाएं-बाएँ मंडराने वाले लोगों की कठपुतली न बन जाएँ उन लोगों को दूर रखे, जिनका आचरण संदिग्ध है. जो हिंसक है, किसी भी समाज कि शुचिता के केंद्र में अहिंसा ही सुशोभित होती है.
पाकिस्तान स्थित तथाकथित समाजसेवी संगठन तथा आतंकवादियों को संरक्षण व सहायता पहुंचाने वाले आतंकवादी संगठन जमाअत-उद-दावा के प्रमुख हाफि़ज़ सईद ने तो गोया भारत का ताउम्र विरोध करने के साथ-साथ मानवता के साथ भी स्थाई दुश्मनी करने का फैसला कर लिया है। खुद को खुदापरस्त बताने वाले हांफिज़ सईद का नफ़रत के विरूध्द ज़हर उगलना या उसका भारत विरोधी साजिशें रचना कोई नई और खास बात नहीं है। जम्मू-कशमीर राय में आतंकवाद को बढ़ावा देने से लेकर मुंबई के 2611 के हमलों तक हाफि़ज़ सईद ने तमाम ऐसे भारत विरोधी अभियानों को संरक्षण प्रदान किया है और कर रहा है जो कि न केवल भारत व पाकिस्तान के रिश्तों में सामान्य हालात पैदा करने में बाधक सिद्ध हो रहे हैं बल्कि उसकी ऐसी ग़ैर इंसानी गतिविधियों के परिणामस्वरूप कभी-कभी इन दोनों देशों के बीच कड़वाहट फैलने की संभावना भी बढ़ जाती है। परंतु मानवता विरोधी इस तथाकथित धर्मगुरू रूपी आतंकवादी सरगना पर पाकिस्तान सरकार शिकंजा कसने में हमेशा नाकाम नार आती है। और पाकिस्तान में हाफि़ज़ सईद का सरेआम घूमना-फिरना, भारत के विरूध्द ज़हर उगलना, सांप्रदायिकतापूर्ण बातें करना तथा पाकिस्तान सरकार के भारत के साथ प्रस्तावित एवं लंबित पड़े द्विपक्षीय कूटनीतिक संबंधों पर नुक्ताचीनी करते रहना राजनैतिक विशेषकों को पकिस्तान सरकार तथा पाकिस्तान सेना के विषय में बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करता है।
भारत व पाकिस्तान के मध्य गत् 30 मार्च को विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता का सेमीफाईनल मैच भारत के मोहाली क्रिकेट स्टेडियम में खेला गया। इस मैच को दोनों ही देशों के सरबराहों ने एक शुभ अवसर के रूप में लेते हुए क्रिकेट डिप्लोमेसी का परिचय दिया था। भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाक प्रधानमंत्री युसुफ़ गिलानी को मैच देखने हेतु आमंत्रित किया। मनमोहन सिंह के इस निमंत्रण को गिलानी ने स्वीकार किया तथा एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मंडल के साथ मोहाली आए। क्रिकेट देखने के बहाने दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच उच्च स्तरीय वार्ता हुई तथा क्रिकेट डिप्लोमेसी के अंतर्गत हुई इस वार्ता को दोनों ही देशों के नेताओं व अधिकारियों ने सार्थक तथा सकारात्मक वार्तालाप बताया। हालांकि पाकिस्तान की क्रिकेट टीम भारत के हाथों पराजित हो गई। परंतु इसके बावजूद इसी खेल के बहाने दोनों देशों के मध्य मधुर संबंध स्थापित करने की दिशा में जो कदम आगे बढ़ाए गए उसका भारत व पाकिस्तान दोनों ही देशों की जनता ने भी स्वागत किया।
दरअसल भारत व पाकिस्तान की जनता तथा इन दोनों देशों के शासक ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया यह भलीभांति महसूस करती है कि परमाणु शक्ति संपन्न इन दोनों ही पड़ोसी देशों के मध्य मधुर एवं सामान्य संबंध ही रहने चाहिए। इन दोनों देशों के मध्य तनावपूर्ण वातावरण केवल दक्षिण-एशिया ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की शांति के लिए खतरा हो सकता है। परंतु स्वयं को पाकिस्तान तथा दुनिया के मुसलमानों का शुभचिंतक बताने वाला स्वयंभू खुदापरस्त हाफि़ज़ सईद, भारत-पाक संबंध तथा विश्व शांति जैसी बातों को हाम नहीं कर पाता। एक ओर पाक प्रधानमंत्री अपने मंत्रिमडलीय साथियों तथा उच्चाधिकारियों के उच्चस्तरीय प्रतिनिधि मंडल के साथ भारत का दौरा करने आते हैं तो दूसरी ओर मानवता का यह दुश्मन तथाकथित धर्मगुरु हाफि़ज़ सईद पाकिस्तान में ही संसद के समक्ष खड़े होकर पाक सरकार को भारत-पाक रिश्ते सुधारने के लिए मना करता है तथा उन्हें तरह-तरह की धमकियां व चेतावनियां देता नार आता है। और पाकिस्तान सरकार है कि हाफि़ज़ सईद के पाक सरकार विरोधी तथा भारत विरोधी भाषण को सार्वजनिक रूप से सुनने के लिए मजबूर नार आती है। और पाकिस्तान सरकार की इस कमाोरी व मजबूरी का फायदा उठाता हुआ हाफि़ज़ सईद पाक अवाम के दिलों में भारत विरोधी ज़हर घोलता रहता है।
पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर में एक प्रसिद्ध धर्मगुरु मौलाना शौकत अली कीआतंकवादियों द्वारा हत्या कर दी गई। गौरतलब है कि मौलाना शौकत अली कश्मीर के उन अमनपरस्त लोगों में से थे जिन्होंने गत् वर्ष जम्मू-कश्मीर में सुनियोजित ढंग से पुलिस बल पर होने वाली पत्थरबाजी की अनियंत्रित घटनाओं का सार्वजनिक रूप से विरोध किया था तथा इसकी निंदा की थी। जबकि पत्थरबाजी की घटनाओं को अलगाववादियों तथा आतंकवादियों का समर्थन प्राप्त था। लिहाजा समझा जा सकता है कि मौलाना शौकत अली की हत्या श्रीनगर में किन शक्तियों द्वारा की गई होगी? परंतु भारतीय कश्मीर के लोगों से अपनी हमदर्दी जताने का ढोंग करने के लिए उनके जनाजे की नमाज पाक राजधानी इस्लामाबाद में प्रेस क्लब के सामने सड़कों पर पढ़ाई गई। इस्लामाबाद का यह प्रेस क्लब पाकिस्तानी संसद से कुछ ही दूरी पर स्थित है। इस गायबाना(गुप्त रीति से) नमाज-ए-जनाजा को जमाअत-उद-दावा प्रमुख हाफि़ज़ सईद ने पढ़ाया। नमाज के बाद जमाअत-उद-दावा के तमाम नेताओं द्वारा भारत सरकार के विरुध्द जमकर णहर उगला गया तथा पाकिस्तान सरकार को भी दोनों देशों के बीच संबंध सुधारने के विरुध्द चेतावनी दी गई।
हाफि़ज़ सईद ने जोर देकर कहा कि पाकिस्तान द्वारा भारत के साथ दोस्ती करने से कश्मीर समस्या का समाधान कतई नहीं होगा। उसने ज मू-कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाया। उसने पाक सरकार को यह चेतावनी भी दी कि पाकिस्तान सरकार कश्मीर नीति का फिर से आंकलन करे तथा कश्मीर मुद्दे को लेकर भारत के साथ कोई समझौता न करे। सईद ने दुनिया के मुसलमानों को बरगलाते हुए यह भी कहा कि मुसलमान अब अपने लक्ष्य को समझ चुके हैं। उसने कहा कि पाकिस्तानी अवाम को पाक सरकार का क्रिकेट डिप्लोमेसी के नाम पर भारत के साथ दोस्ती बढ़ाने का यह रवैया कुबूल नहीं है। उसने यह भी पुन: स्पष्ट किया कि हम कश्मीरियों के साथ हैं तथा उनका साथ निभाएंगे। गौरतलब है कि हाफि़ज़ सईद का यह जहरीला भाषण जिस स्थान पर दिया जा रहा था वहां से थोड़ी दूर स्थित संसद में भी उसकी यह आवाज सांफ सुनी जा सकती थी। उसने पाक सांसदों को अपनी ओर मुखातिब करते हुए यह अपील की कि वे भारत के साथ दोस्ती बढ़ाए जाने का समर्थन हरगिज न करें। इतना ही नहीं बल्कि हाफि़ज़ सईद ने चेतावनी भरे लहजे में एक बार फिर अपना वही राग यहां भी दोहराया कि जब अमेरिका तथा उसके नेतृत्व में लड़ने वाली नाटो सेना इराक व अफगानिस्तान जैसे देशों में अपने पांव नहीं जमा सकीं तथा इन दोनों ही देशों से अमेरिकी सेनाएं वापस जाने का बहाना तलाश कर रही हैं ऐसे में भारत अधिक समय तक कश्मीर पर अपना नियंत्रण हरगिज नहीं रख सकता।
हाफि़ज़ सईद की इस प्रकार की चेतावनीपूर्ण बयानबाजी उसके मंकसद, उसकी नीयत तथा उसके इरादों को साफतौर पर बयान करती है। 26/11 के मुंबई हमलों का जिम्मेदार तथा गिरं तार किया गया एकमात्र जीवित आतंकवादी अजमल क़साब अपने इंकबाल-ए- जुर्म में हाफि़ज़ सईद की 2611 के अपराध में संलिप्तता के विषय में सब कुछ बता चुका है। परंतु पाकिस्तान सरकार हाफि़ज़ सईद पर नियंत्रण करना या उसे प्रतिबंधित करना तो दूर बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि उसे पाकिस्तान में चारों ओर घूम-घूम कर भारत विरोधी वातावरण तैयार करने में उसकी सहायता ही कर रही है। हाफि़ज़ सईद सामाजिक सेवा के नाम पर, मदरसों व अस्पतालों के बहाने तथा गरीबों में मदद पहुंचाने के नाम पर आम पाकिस्तानियों के मध्य विशेषकर एक विशेष इस्लामी विचारधारा के अनुयाईयों के मध्य अपनी लोकप्रियता बढ़ाता जा रहा है। वह हमेशा धर्म व समुदाय के नाम पर पाकिस्तान के मुसलमानों को बरगलाता रहता है तथा उन्हें दुनिया से अलग-थलग करने की साजिश का सरगना बना रहता है। पाकिस्तान में हाफि़ज़ सईद जैसे तमाम आतंकवादी सरग़नाओं की मौजूदगी तथा इनके जहरीले विचारों तथा कारनामों ने ही पाकिस्तान को न केवल दुनिया से अलग-थलग कर दिया है बल्कि तमाम देश पाक को आतंकी राष्ट्र घोषित करने जैसी बातें भी करने लगे हैं। पाकिस्तान में सक्रिय ऐसी ही आतंकी तथा फिरकापरस्त तांकतों के सहयोग से ही तालिबानी तांकतें पाकिस्तान में अपने शिकंजे कस चुकी हैं। और इन्हीं मानवता विरोधी शक्तियों की सक्रियता के परिणामस्वरूप ही पश्चिमी तांकतों को पाकिस्तान जैसे देशों में अपने पैर रखने का सुनहरा बहाना मिलता है। लिहाजाा ऐसे में पाक सरकार, पाक अवाम तथा दुनिया के मुसलमानों को यह स्वयं सोचना होगा कि हाफि़ज़ सईद जैसा सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी मानसिकता का व्यक्ति सच्चा खुदापरस्त है पाकिस्तान या मुसलमानों का हमदर्द है या फिर मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन?
न जाने कैसी ये हवा चली है कि आजकल वे लोग ज्यादा परेशान रहते हैं जो कि ईमानदारी से काम करना चाहते हैं। और जो न खुद खाते हैं और न किसी को खाने देते हैं। ईमानदारी के जुनून से त्रस्त ऐसे अधिकारियों के सबसे बड़े दुश्मन वे लोग होते हैं, जो बेचारे दुर्भाग्य से ऐसे अफसर के अंतर्गत काम करते हैं। और जिनकी बेईमानी का कुटीर उद्योग ये खड़ूस अफसर बंद कर देते हैं। खीज मिटाने को ये बेचारे,बिना सहारे, वक्त के मारे कुछ टिटपुंजियां अखबारों में थोड़ा ले-देकर खबरें छपवाते रहते हैं। और अपने मन की भड़ास निकलते रहते हैं। इनकी हर चंद कोशिश ऐसे ईमानदार जीव की हवा निकालने की होती है। इनकी प्रशंसा के लिए तो बस यही कहा जा सकता है कि-
बने अगर तो पथ के रोड़ा,करके कोई ऐब ना छोड़ा
असली चेहरा दीख न जाए इसीलिए हर दर्पण तोड़ा।
ये लोग भूल जाते हैं कि हजार बेईमान मिलकर भी एक अदद अन्ना हजारे नहीं बन सकते। इनके कुटिल षडयंत्र तभी तक जारी रह पाते हैं जब तक कि शेर सो रहा होता है। शेर की एक हुंकार काफी होती है हजार गीदड़ों और कुत्तों को भगाने के लिए। तभी तो किसी विद्वान ट्रकधर्मी शायर ने कहा है-कि-
है किसमें हिम्मत जो छेड़े दिलेर को
गर्दिश में तो कुत्ते भी घेर लेते हैं शेर को।
मैं उन लोगों को जो हमेशा बुराई के पक्ष में ही लामबंद होते हैं, देखकर बाकायदा विस्मित होता हूं। सोचता हूं कि कैसे एक सूरज के ताप से तिलमिलाए ये तिलचट्टे गलबहियां डाले एक सूरज को बुझाने की जुगत में लगे रहते हैं। और फिर अंत में वक्त के पैरों तले रौंद दिए जाते हैं। उनके अरमान पूरे नहीं हो पाते मगर ये जब तक जिंदा रहते हैं, अच्छाई के विरुद्ध किलमिलाते ौर बिलबिलाते ही रहते हैं। इसके अलावा ये कर भी क्या सकते हैं। कोई भलाई का काम तो इनके खानदान में किसी ने किया ही नहीं। आजादी से पहले क्रांतिकारियों की मुखबरी करके अपनी जेबें भरनेवाले गद्दारों की औलादों पर आज देश की किस्मत चमकाने का दारोमदार है। देश की किस्मत चमके या नहीं मगर इनकी किस्मत हर हाल में चमकनी चाहिए। और जो इनकी किस्मत को रिश्वत के जल से सिंचित होने से रोकने की कोशिश करता है वही इनकी निगाह में देशद्रोही है। बेईमान है। इनके कंधे पर लटके झोले में सेंकड़ों षडयंत्र हैं, किसिम-किसिम के षडयंत्र। ऐसे सनकी ईमानदारों के खिलाफ। अगर आप ईमानदार हैं तो सावधानीपूर्वक इनसे हट-हटकर बच के रहें। क्योंकि कल गाज आप पर भी गिर सकती है। क्योंकि ये बेईमान अब अन्ना हजारे की रात-दिन प्रशंसा करके अपने को ईमानदार दिखाने की मशक्कत करने लगे हैं। इसी नौटंकी के तहत आजकल इन्होंने अपने एक अफसर पर आऱटीआई डाल दी है, सार्वजनिकरूप से यह जानने के लिए कि काजल की कोठरी में बैठने के बावजूद इसके बाल सफेद क्यों हैं। उन्हें भरोसा है कि इसकी ईमानदारी की अकड़ के पीछे जरूर किसी विदेशी शक्ति का हाथ है। वरना आजकल तो शरीफ लोग हमारी ही तरह चिरकुट होते हैं। दुमहिलाऊ और तलवा चाटू। हम बौनों के बीच कौन है ये ईमानदारी का हिंसक डायनासौर। ये एलियन आखिर है किस ग्रह का प्राणी। कुत्सित ईमानदारी से फुफकारता एक भयानक ड्रेगौन। भ्रष्ट द्वीप के बौने मुट्ठियां भींचते हैं। तभी एक दिव्य आकाशवाणी होती है- प्यारे…अच्छा होना भी बुरी बात है,इस दुनिया में। और तभी कभी मेरे दिल में ये खयाल आता है कि भैया, अब तो आसमान की आकाशवाणी का भी यही राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय प्रसारण है। ओछेपन का जानदार-शानदार लाइव प्रसारण। भ्रष्टाचारी तंत्र बेईमानों को अंधे की रेवड़ियों की तरह बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के समाचार देता है,प्रसारण के लिए। और उधर बौने एक सड़ियल से अखबार को उस खिसके दिमाग के, सनकी ईमानदार के खिलाफ मनगढ़ंत बेईमानी की स्टोरी प्लांट करने को दे देते हैं,जिसने कि उन सबकी दुकाने बंद कर रखीं हैं। वे कोरस में भुनभुनाते हैं- बेवकूफ न खुद खाए और न खाने दे। खुदा के तेवर भी सरकारी दफ्तर से ही हो गये हैं,जहां अब देर भी है और अंधेर भी। तभी तो इसका अभी तक न ट्रांसफर हुआ और न कोई इंन्क्वारी बैठी। कब तक होती रहेगी धर्म की हानि। कब तक चलेगी इस अफसर की मनमानी। बौने परेशान हैं.ये सोचकर कि कैसा और किस डिजायन का कलयुग आया है। जहां किसी को ईमानदारी से बेईमानी भी नहीं करने दी जा रही है।
वैसे देश में भ्रष्टाचार का बखेड़ा जहां-तहां छाया हुआ है। हर जुबान की शोभा केवल भ्रष्टाचार ही बढ़ा रहा है। कुछ महीनों पहले जब आदर्श सोसायटी के फ्लैटों का घोटाला उजागर हुआ, उसके बाद एक के बाद एक कई बडे भ्रष्टाचार हुए। जाहिर सी बात है, जब बात बड़ी-बड़ी हो रही हो तो छोटी बातें भला कहां ठहर सकती हैं ? खुद का नहीं, अपनों का फ्लैट के प्रति मोह ने बड़ी शख्सियतों की कुर्सी ले डूबी। ऐसा ही नजारा आदर्श सोसायटी घोटाले में दिखा। भ्रष्टाचार के बड़े भाईयों के पदार्पण बाद, कैसे कोई इन छोटे-मोटे घोटाले को याद करने की सोच सकता है ? मगर कई महीनों बाद भी फ्लैटों के आदर्श घोटाले मुझे याद हैं। इसका कारण भी है, क्योंकि मैं जिस शहर में रहता हूं, वहां मेरा न कोई मकान है और न ही कोई फ्लैट। केवल किराए के एक छोटे से मकान का सहारा है। ऐसे में फ्लैट में रहने की खुशकिस्मती पाने का कीड़ा मुझे रोज काटता है और मैं हर पल बेचैन हो जाता हूं। मगर मेरी किस्मत उन लोगों जैसी कहां, जिनके पास उंची पहुंच का चाबुक है ?
आदर्श सोसायटी की बंदरबाट जानने के बाद, मेरा मन बार-बार फुदक रहा है कि कैसे भी करके एक फ्लैट का जुगाड़ करना ही है। जब आदर्श सोसायटी के फ्लैट पाने में नामी-गिरामी अपना जुगाड़ भिड़ा सकते हैं तो मैं पीछे क्यों रहूं। सोच रहा हूं, जब भी शहर में इस तरह के फ्लैट बनाए जाएंगे, तब जरूर कुछ न कुछ जुगाड़ लगाउंगा। तभी एक सुंदर आशियाना का मेरा सपना पूरा हो पाएगा। देखा जाए तो एक फ्लैट बनवा पाना मेरे जैसे एक छोटे से लिख्खास के लिए मुश्किल ही है। फ्लैट में पैर पसारने का सुख पाने के लिए जुगाड़ ही सबसे बढ़िया व सरल तरीका है। यही कारण है कि मेरी नजर आदर्श सोसायटी जैसे फ्लैटों पर ही टिकी हुई है और इसी चिंता में हूं कि चाहे जितना भी तीन-पांच करना पड़ जाए, किसी का फ्लैट हड़पना पड़ जाए, फिलहाल मेरा एक ही मकसद रह गया है, फ्लैट का आदर्श जुगाड़, कयोंकि बिना फ्लैट के जीना कोई जीना है ? इसी बीच मुझे ख्याल आया, क्यों न सरकार की आवास योजना का लाभ लिया जाए ? मगर यहां भी वही बंदरबाट का आलम देखकर मैं सोचने लगा कि यहां अपनी दाल गलने वाली नहीं है, क्योंकि ऐसे आवास पाने के लिए न तो हमारे पास बीपीएल का कार्ड है और न ही हम जेब गरम करने में समर्थ हैं। देखा जाए तो सरकार की आवास योजना में भी मालदार गरीबों का ही वर्चस्व है, क्योंकि गरीबों का हक मारने की परिपाटी अभी की थोड़ी न है। यह सिलसिला एक अरसे से चल रहा है, यह अचानक कैसे थम सकता है।
आदर्श सोसायटी में भी कुछ ऐसा ही हुआ, यहां भी गरीबों का हक मारने के लिए कहां-कहां से धनपशु टूट पड़े। शहीदों के फ्लैटों पर भी इस कदर टेढ़ी नजर रही कि उनके सम्मान का भी ख्याल नहीं रहा। इन बातों के ध्यान में आते ही मैं सोचने लगा कि मेरी हैसियत तो कौड़ी भर नहीं है। यहां कैसे फ्लैट का सपना पूरा हो पाएगा ? आखिर मन में आया कि जिस तरह औरों ने तिकड़मबाजी कर, फ्लैटों का जुगाड़ जमाया है, कुछ ऐसा ही कमाल करना पड़ेगा। यहां भी मैं ठिठककर रह गया, क्योंकि ऐसे जुगाड़ के लिए मेरी उंची पहुंच नहीं है। अंतत: मैं अपने मन को मारकर अपने किराए के मकान के एक कोने में रम गया, क्योंकि फ्लैटों का आदर्श जुगाड़ कर पाना मेरी बस की बात नहीं है। ये तो उंचे लोगों की उंची कुर्सी के दंभी शुरूर से संभव हो सकता है, जिसके काबिल हम जैसे तुच्छ लोग कैसे हो सकते हैं ?
तुलसी भाभी, उस दिन मुझे सपने में दीखीं थी…रोती-बिलखती…हाथ पसार …मानो कुछ मांग रही हों…शायद कुछ पकड़ना चाहती हों।
क्यों आया मुझे तुलसी भाभी का सपना ? इसका कारण कौन बताये ? कौन व्याख्या करे ? अगले दिन सुबह-सवेरे चौक बुहारते हुए मैंने अम्मां से तुलसिया भाभी के बारे में जानना चाहा। बाबा सैर करने और सामने काढ़ा गया दूध लेने गये हुए थे। एक लंबी सांस ले कर अम्मां बोली, ”अरे ! वो तो एक बीती बात थी…अब कौन उसका नाम लैवा हैगा ? औरतां का कोई नाम लैवा न हौवे…वे तो मर जावैं तो बस…बीत ही जावैं…घर परिवार…नाम…सब आदमियों से चल्लै हैगा।”
मैं अम्मां के पास जही पट्टे पर आ कर बैठ गयी।
मैं तो सरो की शादी के बाद ही शहर चली गयी थी। तब की गयी अब ही तो आयी थी…बाबा के पत्र में लिखी एक ही पंक्ति सैकड़ों प्रश्न बनी मुझे घेरती-जकड़ती जा रही थी। अम्मां से सब कुछ पूछ लेने, जान लेने के इरादे से ही उनके पास आ बैठी थी।
”अम्मां! सरो को क्या हुआ ?”
अम्मां ने पहले तो चौंक कर मेरी ओर देखा, कुछ झिझकीं, फिर सोचा और बोली, ”…कुछ ना री! हम औरतां की ज़िन्दगी का मतलब ही दु:ख, ताने, मार-कुटाई बेईज्ज़ती हौवै हैगा।”
”पर अम्मां..जब तुम जानों हो तो…कुछ कर न सको हो।”
”नाहिं..बिटिया। अपनी मां खुदै अपनी बिटिया के लिए मजबूर हौवे है…दूसरे का कै करेगीं ?”
मेरी बेचैनी बढ़ रही थी।
”अम्मां….सरो को क्या हुआ..सच सच बताओ न!”
अम्मां ने कुछ सोचा…कितना बताये, कितना छिपाये…निष्चय करतीं बैठ रही थीं शायद। फिर बोली, ”शादी के बाद छोरी फेरा लगान आवै है न…सरो भी आयी…बस…उस्सी दिन उसके घरवाले ने कारखाने में हिस्सेदारी की बातां की…बातां थी तो बहौत मीठी…समझान लाग रह्या था कि कुक्कर गलीचे बाहर के देसां में भेजे जावैंगे और कमायी ज़ियादा हो सकैगी वगैरह…वगैरह।”
”पर…ये तो कोई ग़लत बात न थी, अम्मां। समझदारी की बात ही तो थी।”
”नई…नई…रिम्मो! यई तो…यई तो मुश्किल है सब सै। समाज के नियम तोड़ैं न जा सकै हैंगे। बड़ी सोच समझ के नियम बनाये जावै हैंगे। दामाद लोग अगर घर के विचार के मामले में घुस जावें तो बहौत मुश्किल हो जावै। उनके कहै पे न चल्लो तो कठिनाई…चल्लो तो खुद की आज़ादी खो गयी न…फिर छोरा जवान हो गया हैगा। वो कुछ और करना चाहवै तो…बस ठन गयी न दोनों में…फिर दामाद का रिष्ता भी बड़ा ही नाजुक हौवे है…।”
मां ठीक कह रही थीं। मुझे समझ आ रहा था कि बात इतनी आसान तो न थी। ऊपरी सतह शांत दीख रही थी, पर भीतर तो सैकड़ों तूफान छिपे थे। अम्मां बता रही थी।
”साहू ने बड़े पियार से समझाया, ‘ना बेट्टा तुम अपना बसा-बसाया शहर का काम छोड़ कर यहां गांव-गंवई के काम में क्यों फंसो हो ? ये दोनों छोरे संभाल लेंगे। फिर मेरी तो उमर बीत चली है अब, मैं के विपार बढ़ाऊंगा…बाद में…ये दोनों जैसा चाहें करें…’।”
”अम्मां…ये तो सब सीधी-सादी समझने में आने वाली बात है।”
”नाहि रे…ऊपर से सीधी षांत दीक्खन वाली लहर के नीच्चे ही तूफ़ान छिपे हौवे न। मुश्किल तो ये है कि आदमी उन्हें सीधा समझ कै छोड़ दैवे हैं…पर, शायद सबसे जियादा दु:ख वे ही दैवे हैंगे।”
मैं अम्मां का मुंह बिसूरती सी देखती बैठी रही। अम्मां ही आगे बोली, ”साहू ने कह तो दिया, समझ भी लिया कि दामाद जी समझ गये हैंगे। सरो फैरा लगा कै अपने घरै चल्ली गयी…सबै कुछ ठीक-ठाक ही था। महीना भर ही बित्ता कि सरो अचानक वापस आ गयी…रोती जावै…रोती जावै…।” कुछ रुक कर अम्मां ने जैसे सांस भरी, फिर बोली, ”दामाद जी ने कहलवाया था कि शादी तो मुफ्त में कर दयी। इब कार दयौ अपनी छोरी नै…इब्ब वा रिक्से में जाती अच्छी ना लागै हैगी।”
”क्या….आ…आ ? पर अम्मां…वह तो सरो की मौसी की सहेली है…फिर…काका ने तो शादी में इत्ता दिया कि गोट आज तक चर्चा करै हैगा।”
”हां री….हर मां-बाप बेटी नै अपनी पोट्टी से जैदा ही दैवे….सबनै अपनी बेट्टी बहौत पियारी हौवे।”
”अजब रिवाज है…बेटी भी दो और दामाद की कीमत भी…वो भी उनकी मांग के हिसाब…अम्मां! क्यों करें लड़कियां शादी-बयाह …पढ़-लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जावै बस! कमावैं-खावैं…अल्लाह अल्लाह खैर सल्लाह।”
मैं भड़क उठी थी।
अम्मां हंसी तो, जो हंसी कम, रुलाई ज्यादा लगी थी। हंसते हंसते अम्मां की आंखें भर आयीं थी। बोली, ”बड़ी भोल्ली है बच्ची तू…पर, तेरी सी उमर में ऐसे ही हौवे सब कोई…वक्त सिखावे है…बनमानुसों का संसार हैगा ये….अकेले कोई न रह सकै…खा जावै कच्चा…होर छोरियां तो बिलकुलै न….इहां रहते वन मानुस खावै और चूसे आम सा फैंक देवे जनावरों के जंगल में…सारी उमर तड़फड़ाने को…कहीं पनाह न मिलै…मां-बाप भी न दीखै आसपास।”
तो ये है यथार्थ…पत्थरों से भी ज्यादा कठोर , कैक्टस के कांटों से भी ज्यादा चुभन भरा, ज़हर से भी अधिक ज़हरीला। अम्मां के शब्द लोहे के सरिये थे, जो ‘धम्म धम्म’ मेरे सिर पर पड़ रहे थे, चोटें लग रही थीं और लहूलुहान थी। अम्मां की आवाज़ दूर कुएं से आती सुन पड़ रही थी।
अम्मां खोयी सी बोलती रही, जैसे खुद से बातें कर रही हो, ”साहू कार दिलवा सकते थे या नहीं, ये तो बाद की बात हैगी…उनकी समझ में आ गया था कि छोरी को अपने ही हाथों खाई में धकेल दिया हैगा..और इब सारी उमर उनके सिर पर आग की लपटैं जलती रवैंगी, किस तरयौं ज़िंदा रहैवेगी सरो ? सोचते सोचते ही तीसरे दिन ही उनको दिल का दौरा पड़ा और …।”
अम्मां चुपा गयीं थी। मैं चींख पड़ी, अम्मां…और …और क्या हुआ काका को। वे ठीक तो है ना।”
”नहीं बिट्टो। वो तो अस्पताल भी न पहुंचे बस…पानी के बुलबुलै सी ज़िनगी यूं ही ख़त्म हो जावै हैगी….जाने मानुस काहै का घमंड करै हैगा और क्यों जोड़-जुगाड़ करै हैगा इत्ता ?”
अनजाने में मैं ज़ोर से रोती रही थी। अम्मां भी रोती जा रही थीं…हिचकियां भर उठी थीं….न अम्मां चुपायीं, न मैं। बाबा दूध ले कर आ गये थे। अम्मां चुपचाप अंगीठी जला कर चाय बनाने में जुट गयीं। मैं भीतर के कमरे में जा कर बिस्तर समेटने में जुट गयी थी…पर…सच में तो मैं…आग का दरिया बनी थी…भट्टी सी जल रही थी। मांस के जलने की दुर्गंध मेरे चारों ओर फैलती जा रही थी…लगता था मेरे चारों ओर श्मशान घाट है जहां मुर्दे जलाये जा रहे हैं…निरंतर…उसकी निरंतरता ही मानो ज़िंदगी का एहसास करवा रही है ….बाक़ी सब तो मृत है। मौत सा भयानक सन्नाटा और मुर्दों के जलने, हड्डियों की चटकने की आवाज़ें मात्र फैली हैं।
इतनी बेकार-नकारा ज़िंदगी …क्यों जीयें हम लोग ? क्यों जीते हैं सब लोग ? क्यों जीऊं मैं ? ये ज़िंदगी…जिसका न आदि, न मध्य, न अंत। कुछ भी तो मेरे हाथ में नहीं है।
कहते हैं, कभी-कभी घर का कोई बच्चा बुरी आत्मा ले कर पैदा हो जाता है जिसके प्रभव से पूरा घर, पूरा मौसम, पूरी दृष्यावलि, पूरा जीवन तक बदल जाता है…पर मैंने तो पढ़ा है कि, ‘आत्मा का कोई रंग नहीं होता, वह नहीं मरती है, उसे न शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है…फिर वह बुरी कैसे हो सकती है, उसका प्रभाव बुरा कैसे हो सकता है ?’ मेरे सामने सैकड़ों प्रष्न जीभ लपलपाते फैले दिलोदिमाग़ में भय से लहराते रहे थे और मैं मशीन सी घर का बिखराव समेटती रही थी…पर….मन के भीतर कब, कितनी कुछ बिखर जाता है, पता नहीं चलता, समेटूं कैसे?
मेरे भीतर सिगड़ी सी जलती रही थी, जिसमें तन-मन चने सा भुनता रहा था। किसको दिखाती ये अलाव ? कौन सुनता चनों की भड़ भड़ की आवाज़ ? जिंदा रह कर निरंतर जलते रहने की इस दुर्गंध को सहते रहना ही क्या हमारी नियति है? मन किया कि ज़ोर ज़ोर से चींखू, ज़ार-ज़ार रोऊं, पर कुछ न हुआ, कुछ कर ही न पायी, लुंजपुंज बनी बैठी रही थी।
पर …..तुलसिया भाभी ने क्या किया था, उनका तो कोई दोश न था। वही तो मेरे सपने में आई थी। कौन थी तुलसिया भाभी, तुलसिया या फिर तुलसिया डायन?
तुलसी भाभी गोट की ही थी। दूर बसी झोपड़पट्टी में रहती थी। गोट में पक्के मकानों वाला इलाक़ा थोड़ा अलग हट कर था। ज़रा सी दूर, कोई आधा कोस की दूरी पर कुछ कच्ची-पक्की झोपड़ियां थी। कच्ची से मतलब केवल फूस की और पक्की से मतलब जो मिट्टी-गोबर से बनायी गयी थी और ऊपर की छत मात्र फूस की थी। इन झोपड़ियों में गलीचे बुनने, ऊन संवारने, छांटने का काम दिन-रात होता। यही वह स्थान था जहां लोग जानवरों के झुंड से ढेर के ढेर दीखते। बच्चे, नंगे बदन जांघों के पास एक काला धागा बांधे या फिरा ज़रा सा जांघिया पहने दीख जाते थे…बच्चों से मतलब पांच-छह साल तक के लड़के मात्र। लड़कियां तो झोपड़ों में हों या बाहर , अपने से छोटे बच्चे के साथ खेलती-खिलाती दीख पड़तीं। घर का हर बड़ा-छोटा कामकाजी था। जब बड़े-बूढ़े, मां-बाप, भाई सब गलीचे के काम में जुटे होते तो लड़कियां व बहुएं घर व बच्चे संभालती।
नयी नयी ब्याह कर आयी थी तुलसी, रमेसरा के बड़े बेटे मनेसर की ब्याहता बन कर। तुलसी- पौधे सी पवित्र, उसके पत्तों सी हरी-भरी गुणवंती भी तुलसी की ही तरह। पांव में झांझर डाल कर , सिर पर घूंघट डाले जब वह पानी लेने निकलती तो उसकी झांझर की ध्वनि मौसम-ए-गुल को बुलावा देती लगती। गोट भर के युवा होते लड़के उसकी चाल पर फ़िदा थे। उनके टी स्टाल में बैठे रहने का समय जो भी हो, पर वे तुलसी की झांझर की आवाज़ के साथ ही कुएं की ओर जाने वाली राह पर डोलते नज़र आते।
तब मैं बी.ए में पढ़ रही थी। नयी ब्याहता तुलसी को देखा। उसकी आंखों की कशिश से उसकी ओर खिंचती चली गयी। उसकी ओर देखती तो चेहरे पर से निगाह न हटती। कवि बिहारी तभी पढ़ा था। बिहारी की नायिकाओं की अतिष्योक्तिपूर्ण उपमाएं भी पढ़ी थीं…पर तुलसी के सौंदर्य का उपमान बन कर तो वे उपमाएं भी सजीव-सटीक हो उठी थीं। सरो और मैंने साथ साथ बैठ कर ‘तुलसी’ जिसे अब हम ‘तुलसी भाभी’ कहने लगे थे, के सौंदर्य पर ढेर सी नयी उपमाएं गढ़ डाली थी। जैसे, तुलसी भाभी की आंखों की उपमा गांव के पोखर में बरसात के दिनों में साफ़ नीला छल छल करते पानी से दी थी। चेहरे की उपमा हमने गोट के मंदिर पर के कलश से दी थी जिस पर सोने का पानी फिरा था, जो सूरज की किरण पड़ते ही चमचमा उठता था। यह भी निष्चय किया गया था तुलसी भाभी का सौंदर्य तो उस कलश की सुंदरता की अपेक्षा कहीं अधिक है, क्योंकि मंदिर के कलश की चमक तो सांझ ढलते न ढलते मद्विम पड़ जाती, पर तुलसी भाभी का चेहरा तो सांझ पड़ने के साथ और अधिक दमक उठता है। चिपकाने वाला मल्हम लगा कर वे माथे पर कांच की रंग-बिरंगी बिंदिया चिपका लेती थीं, जो चाहे हमारी पसंद के हिसाब से जटक-चटक, थी पर उनके माथे पर कलश के ऊपर का कंगूरा सा दमकती रहती। तिस पर मिस्सी से रंगे होंठ, दीवाली पर दिये में बनाये गये काज़ल से सजी आंखें, चटक लाल-हरे रंग की चटकदार धोती पहन, आलत लगे पैरों में ‘वी’ शेप की चप्पल पहने, सिर पर धड़ा रख कर जब वे गांव में निकलती, तो लगता केवल उनकी पायल नहीं बोल रही, अपितु उनके अंग-प्रत्यंग का स्पर्ष करता हर रंग अपनी अपनी बोली में चहचहा रहा हो।
ऐसी सुंदरी थीं तुलसी भाभी। गुणवंती इतनी कि रामेसरन की झोपड़ी को उसने चमका-दमका दिया था। टूटे ऊन के टुकड़ों से सुंदर सीनरी काढ़ दी , झोपड़ी के बाहर लगाने वाला टाट का पर्दा अब अपनी कढ़ाई से विषिश्ट बन गया था। रामेसरा उसके हाथ के बनाये करेले की तारीफ़ करता न अघाता। पर …गुणवंती और सुंदरी हो जाने भर से विधि के विधान तो नहीं बदल जाते। विधातारचित काली पंक्तियों के प्रभाव से कौन बच पाता है ? काले रंग का स्वभाव है कि वह सब कुछ काला ही कर देता है।
गोट के उस माहौल में पलती स्त्रियों की दुर्दशा ने मेरे मन को जाने कितनी बार मसोसा कचोटा है। क्या विधाता पुरुश ही है, जो नारी जाति के दु:ख का अनुभव उनके नज़रिये से कर नहीं पाता है। यह प्रष्न जब-तब मेरे मन में भिद भिद कर मुझे उस छोटी उम्र में भी लहूलुहान करता रहा है। हम लोगों के लिए ‘अपने भाग्य का नियंता स्वयं मानव है’ जैसी उक्तियां निरर्थक व बेकार लगती। उनके जीवन का नियंता तो पुरुश समाज ही होता, नियति का तो पता नहीं।
बात तुलसी भाभी की हो रही थी। खूबसूरत झांझरिया से खाली बरतन में पड़ी कंकरी सी वह बजने लगी, क्यों और कैसे ? इस प्रष्न का उत्तार कौन दे ? क्या उत्तार हो ? यही कहा जा सकता है कि शायद उसकी भाग्य लिपि या फिर समाज की गली-सड़ी रूढ़ियां …कौन उत्तर दे, फिर तुलसी ने प्रष्न ही कहां किया था….सच ही, उसने प्रश्न कहां किया था, पर उसकी सूनी आंखों में प्रष्नों का अंबार भरा था…जिन्हें समझता कौन ?
ब्याह के दूसरे वर्श ही तुलसी भाभी एक प्यारे से गदबदे बेटे की मां गन गयी थी। घर भर में अनेक कमियों-खामियों, धन के अभाव के बावजूद खुशियों का ढेर लग गया था। सास-मां ने बलैया ली थी। ससुर व पति गर्वित थे। इधर बेटे का चालीसवां हुआ, उधर तुलसी को नहला-धुला कर सोवड़ से बाहर लाये जाने की रस्म पूरी करवायी जाने की योजना बनी। उस दिन वही रस्म होनी थी। झोपड़ियों के घेरे के बीचोबीच बने चौक को सजाया गया था। हरी-पीली झंडिया फहरा रही थीं। आसपास की लड़कियों के साथ तुलसी की ननद गुलाबो ने चौक पूरा था। जिठानी ने तुलसी के हाथों में मेहंदी, पैरों में आलता लगाया। तुलसी के मायके से आयी राजस्थानी चटक लाल, हरे, पीले तथा बैंजनी रंग की बांधनी धोती पहना दी। चांद बनी कांच की लाल बिंदी माथे पर सजायी तो सचमुच ही ‘तिय ललाट बेंदी दिये अंक अगणित होत’ समझ आने लगा था। आंखों से थोड़ा बाहर निकला काज़ल पहले नीचे झुकी फिर शरमा कर ऊपर उठती आंखें मानो सौंदर्यशास्त्र में डूब कर निकल आयी हों। मनेसर पंडित को लेने गया था।
सोवड़ गाये जाने लगे। बड़े लोग बलैया ले रहे थे। तुलसी का चेहरा खिले कमल सा और भरा-भरा शरीर कमल नाल सा लचकता दीख रहा था।
‘पलना झुलावै यसौदा मैया अपने ललना’
‘सोने के झुलने में सौवें कान्हा’
जाने कितने गीत सुर चढ़ रहे थे। खिल खिल हंसी गूंज रही थी। बीच से आवाज़ उभरती और चारों ओर फैली झोपड़पट्टियों को गुले-गुलज़ार कर देती।
तभी तीन-चार लोग भागते हुए हांफते-हांफते अहाते में दाखिल हुए। सबके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। कांपती-लरजती-भरभराती आवाज़ से उन्होंने जो कुछ बताया, उसका मतलब था कि पंडित जी अस्पताल में हैं और मनेसर…..मनेसर का एक्सीडेंट हो गया है…साईं के चारों बेटे अपनी जीप को हवाई जहाज़ की स्पीड से लिये चले आ रहे थे…बस, बदक़िस्मती से मनेसर पंडित जी की साइकिल लिये चले आ रहा था। साइकिल की रफ्तार तो खैर क्या होती, पर जीप की तेज़ रफ्तार से टकरा कर वह पहले हवा में उछला, फिर दूर पथरीली ज़मीन पर जा गिरा और बस…फिर तो उठ ही नहीं पाया।
यह ख़बर…मात्र ख़बर न थी। यह तो ग़ाज थी, जो सिर के बीचोबीच गिरी थी। आसमान में घूमते पहाड़ों में से कोई एक गोट के उस छोटे हिस्से में आ पड़ा था। बिना बादल के बिजली गिरी और फट पड़ी थी।…सब जल-फुंक गया था। मौत…कोई एक शब्द मात्र न थी, वह एक बवंडर थी जिसकी ज़द में जो आया स्वयं मौत बन गया था।
जवान मौत…वह भी इतनी भयानक…सारा गोट उमड़ पड़ा था। ‘सकून’ दे सकें ऐसा एक शब्द भी न था किसी के पास। बुजुर्ग तक भी स्तंभित से खड़े थे। रामेसरा को सभी आदमियों ने संभाल रखा था और औरतों ने मनेसर की मां को। तुलसी तो गुम पत्थर हो गयी थी। उसे तो बस…खड़े खड़े देखा भर जा सकता था।
तुलसी की मां दहाड़ मारती, छाती पीटती रोती रोती भीतर दाख़िल हुई। सब ज़ार ज़ार, ज़ोर ज़ोर से रोने लगे…पर तुलसी तो पत्थर की मरत बनी बैठी रही…ज़िंदा लाश सी। मानो उसकी समझ ने कुछ भी जानने-महसूसने से इनकार कर दिया हो। तुलसी की मां रोते रोते बोलती जा रही थी।
”अरी मन्नो ! म्हारी तो क़िस्मत ही फूट गी हैगी…इस छोरी का कै हौवैगा…हाय तुलसिया…मैं के करां…अरे वो तो पहले ही से बिन बाप की हैगी… इब…ख़सम को न रह्या…इब कुक्कर रहवैगी…बिन पत की हौगी छोरी तू तो…।”
वह दिन क्या बीता, तुलसी ‘तुलसिया’ बन गयी। गुमसुम…न बौल्लै, न चालै, न खावै, न पीवै…फटी फटी आंखों से बस बेटे को देखे। सभी उसे रुलाना चाहते, पर वह तो पत्थर की षिला हो गयी थी, जिसके भीतर से कोई झरना भी न फटता। बेटा रोता तो लोग उसकी गोद में धर देते, वह बैठी बैठी उसकी ओर देखती रहती। घर में आने वाले हर छोटे-बडे ने लाख कोशिश की, पर वह न रोयी, न गले के नीचे खाने का एक भी कौर उतरा, न एक घूंट पानी पिया। जहां थी वहीं जम गयी थी…जम गयी सिल्ली सी …न हिले-डुले, न खावें , न पीवे।
अभी मनेसर की मौत को इक्कीस दिन भी पूरे न हुए थे, अभी तो इस भयंकर चोट के ज़ख्म दवा-दारू के बावजूद भी हरे थे, बल्कि धीरे धीरे उनमें मवाद पड़ने लगा था कि छोटा बच्चा अपनी मां की अपेक्षा न सह सकने के कारण दम तोड़ गया।
बस…फिर क्या था ? अब तो तुलसी की जड़ का कोई तंतु न बच रहा था। ब्याह दिये जाने पर लड़की की जड़ें मायके में भी नहीं रह जाती, यही तो रिवाज़ था। तुलसी भाभी जो पहले ‘तुलसिया’ बनी थी, अब ‘तुलसिया डायन’ बन गयी थी, जो पहले अपने पति फिर अपने बेटे को खा गयी। वक्त ने उसे जरा भी मुहलत न दी। विधाता ने जो सौंदर्य और गुण दे कर जन्म दिया था, उसे खुलने खिलाने में बीस वर्श लग गये थे, पर सब कुछ जल कर खाक होने में बस कुछ दिन।
तुलसिया डायन…डायनों का कोई घर-बार नहीं होता। उससे लोग डरते हैं। डायनें तो सारा का सारा घर-मुहल्ला खा जाती हैं, फिर भी उसका पेट नहीं भरता। ओझे के सामने पड़ी तुलसिया न रोयी, न चीखीं, न किसी को पुकारा। ओझा पंडित हैरान-परेशान। पता नहीं गोट पर क्या कहर है ? किसका क्रोध बरपा हो रहा है ? कौन सा ग्रह ऊंट की टेढ़ी चाल चल रहा है ? कौन दुरात्मा सुंदरी रूप धारण करके गोट में उतर आयी है ? सोच-विचार की बैठकों के बाद तुलसी मंसा देवी के मंदिर ले जायी गयी। पिछले पच्चीस दिन की भूखी प्यासी तुलसिया, जो यूं तो ज़िंदा हो कर भी मरे के समान थी, मंसा देवी की चढ़ाई के बीच में दम तोड़ गयी और इस तरह एक डायन की कहानी ख़त्म हो गयी पर कहानियां ख़त्म होती हैं सिरफ़, ज़िन्दगी तो दर्द का सैलाब बनती ही रहती है।
उहापोह, मशक्कत, मेराथन बैठकों के दौर के उपरांत अंततः मध्य प्रदेश कांग्रेस कमैटी के अध्यक्ष, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के नामों पर हरी झंडी दे ही दी गई है। दोनों ही पद पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह के खाते में गए हैं। दिग्विजय सिंह का सक्रिय राजनीति से वनवास का समय पूरा होने में अब तीन साल से भी कम समय बचा है। मध्य प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर दिग्विजय सिंह धूमकेतू बनकर उभर रहे हैं, जिनके सामने प्रदेश के अन्य क्षत्रप दीप्तमान नजर नहीं आ रहे हैं।
1993 से 2003 तक मध्य प्रदेश में राजनैतिक बिसात पर वही पांसे चले जो राजा दिग्विजय ने चाहे। इस दौरान प्रदेश के तत्कालीन ताकतवर क्षत्रप स्व.माधवराव सिंधिया को अपना संसदीय क्षेत्र बदलने पर मजबूर होना पड़ा। कुंवर अर्जुन सिंह की भी कमोबेश यही हालत रही वे विन्धय के उपरांत नर्मदांचल में होशंगाबाद से मुंह की खाने के बाद बरास्ता राज्यसभा संसद पहुंचे। श्यामा और विद्याचरण शुक्ल के साथ ही साथ अजीत जोगी के आभामण्डल को नेस्तनाबूत कर दिया गया। यहां तक कि दिग्विजय सिंह के तारण हार और बड़े भाई की भूमिका निभाने वाले कमल नाथ को उपचुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा। वह भी तब जब ब्लाक स्तर पर मंत्रियों की तैनाती थी। यह सब महज संयोग नहीं माना जा सकता है। इसके पीछे इक्कीसवीं सदी के उभरते कांग्रेस के राजनैतिक चाणक्य का शातिर दिमाग ही काम कर रहा था।
2003 में चुनावों में औंधे मुंह गिरी कांग्रेस के निजाम राजा दिग्विजय सिंह ने दस सालों तक सक्रिय राजनीति से तौबा करने का कौल लिया था। दिग्गी राजा ने चुनाव न लड़कर अब तक उसे निभाया है। अब वनवास समाप्त हाने की बेला आ रही है, इसलिए उनकी सक्रियता को समझा जा सकता है। देश के हृदय प्रदेश में अपना वर्चस्व बरकरार रखने के लिए वे अपने प्यादों को यहां करीने से फिट करते जा रहे हैं। कांतिलाल भूरिया को प्रदेशाध्यक्ष बनाने के बाद अजय सिंह की विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद पर नियुक्ति इसका अभिनव उदहारण माना जा सकता है।
अपनी नियुक्ति के साथ ही अजय सिंह और भूरिया गदगद हुए बिना नहीं होंगे किन्तु उनके सामने की चुनौतियां उनके इस सफर का मजा खराब कर सकती हैं। आपसी कलह में तार तार हो चुकी प्रदेश कांग्रेस में अनेक जिलों में अब कांग्रेस के नामलेवा नहीं बचे हैं। कांग्रेस के आला नेताओं और भजपा के आलंबरदारों की जुगलबंदी से मध्य प्रदेश में कांग्रेस रसातल में ही है। सुरेश पचौरी के हटते ही कमल नाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अरूण यादव जैसे धुरंधरों की अति सक्रियता से कार्यकर्ताओं में जोश अवश्य ही आएगा किन्तु वह कितने समय तक टिक पाएगा कहा नहीं जा सकता है।
नवनियुक्त नेताओं के सामने प्रदेश का भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौति बनकर उभरेगा। अफसरशाही, लाल फीताशाही और बाबूराज के बेलगाम दौड़ते घोड़ों की लगाम कसना बहुत ही दुष्कर काम है। जब नेता प्रतिपक्ष का फैसला ही सात माहों के की लंबी मशक्कत के बाद हुआ हो तब मध्य प्रदेश के क्षत्रपों की सहमति की डोर कितनी महीन होगी इस बात को समझा जा सकता है। माना जा रहा है कि अब तक पीसीसी और भाजपा के बीच आपसी ‘‘अंडरस्टेंडिग‘‘ गजब की थी, यही कारण था कि सब कुछ देखने सुनने के बाद भी और अनेक सुनहरे मौकों के बावजूद भी प्रदेश कांग्रेस ने कभी भी भाजपा को व्यापक स्तर पर घेरने का प्रयास नहीं किया। कार्यकर्ताओं में आम धारणा घर कर चुकी है कि भाजपा के आला नेताओं के इशारे पर कांग्रेस और कांग्रेस के चुनिंदा नेताओं के इशारों पर भाजपा चल रही है।
भूरिया के अध्यक्ष बनने के बाद पहली बार भोपाल आगमन के एन पहले प्रदेश भाजपाध्यक्ष प्रभात झा ने उन्हें अपना एक समझदार मित्र बताकर पांच पन्नों की पाती लिख दी। झा के पत्र से यही संदेश जा रहा है कि आने वाले समय में एक बार फिर प्रदेश में कांगेस बिना दांत के ही चलने वाली है। कांग्रेस की धार बीते सात सालों में पूरी तरह से बोथरी हो चुकी है जिसे पजाना आसान नहीं होगा। गुटों में बटी कांग्रेस को एक सूत्र में पिरोना दोनों ही नवागंतुक पदाधिकारियों के लिए टेढ़ी खीर ही साबित होने वाला है। विधानसभा चुनावों में अभी ढाई बरस का समय है। मध्य प्रदेश में आदिवासी नेतृत्व को उभारकर आला कमान ने जो भी संदेश देना चाहा हो किन्तु मध्य प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की स्मृति इतनी कमजोर नहीं है कि वे इस बात को भूल जाएं कि भूरिया ने बतौर सांसद और केंद्रीय मंत्री मध्य प्रदेश के कितने जिलों का दौरा किया है। जब खुद कांतिलाल भूरिया ही सालों साल निष्क्रीय या क्षेत्र विशेष में समिटकर रह गए हों तब उनके निजाम बनते ही रातों रात कायापलट संभव प्रतीत नहीं होता है।
अजय सिंह और कांतिलाल भूरिया के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि दोनों ही की छवि अब तक प्रदेश स्तरीय नेता की भी नहीं बन पाई है। भूरिया मालवांचल तो अजय सिंह विन्धय प्रदेश तक ही सीमित समझे जाते हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष रहे अजय सिंह ने चुनावों के दौरान भी समूचे प्रदेश में आमद नहीं दी। दोनों ही नेताओं को सभी गुटों को साथ लेकर चलना सबसे बड़ी चुनौति होगा, क्योंकि काग्रेस में शिख से लेकर नख तक इतनी शाखाएं और गुटबाजी है कि इस तरह की खरपतवार को नष्ट करना आसान बात नहीं होगा। भूरिया ओर अजय सिंह के सामने यह चुनौति भी कम नहीं होगी कि उन्हें मनराखनलाल हरवंश सिंह, महंेंद्र सिंह कालूखेड़ा, सज्जन सिंह वर्मा, हुकुम सिंह कराड़ा, चौधरी राकेश सिंह, एन.पी.प्रजापति, गोविंद सिंह, सात बार के विधायक प्रभुदयाल गहलोत, माणक अग्रवाल जैसे धुरंधरों को भी साधना होगा।
एक के बाद एक चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का मनोबल जबर्दस्त तरीके से गिरा है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। कांग्रेस के सामने अभी मण्डलेश्वर और जबेरा उपचुनाव के साथ ही साथ अर्जुन सिंह के निधन से रिक्त हुई राज्य सभा की सीट को जीतना परीक्षा से कम नहीं है। माना कि दोनों ही नेताओं के मौखटे के पीछे राजा दिग्विजय सिंह का चेहरा हो पर दोनों ही नेताओं को अब एक एक कदम फूंक फूंक कर ही रखना होगा, वरना आने वाले सालों में काग्रेस को जिंदा करना ही अपने आप में बहुत बड़ा मिशन बनकर रह जाएगा।
कांग्रेस के बीसवीं सदी के चाणक्य राजा दिग्विजय सिंह ने अन्ना हजारे के आंदोलन में जुटे धन पर चिंता जाहिर की है। दिग्विजय सिह की चिंता बेमानी नहीं मानी जा सकती है। जिस भ्रष्टाचार के लिए अन्ना हजारे जैसे गांधीवादी नेता ने बिगुल फूंका है, उसी आंदोलन में इकतीस लाख रूपए खर्च होना आश्चर्यजनक है। इस पर विस्मय इसलिए भी है, क्योंकि सादगी भरे पांच दिन चले आंदोलन में लाखाों रूपए खर्च करने की बात किसी के गले आसानी से नहीं उतर सकती है। इस लिहाज से अन्ना के आंदोलन छः लाख रूपए प्रतिदिन के हिसाब से चला माना जाएगा।
गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के आंदोलन के पाश्र्च में काम कर रही संस्था ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन‘ को कारमल कांवेंट जैसे नामी स्कूल, एचडीएफसी और जम्मू काश्मीर बैंक, कांग्रेस के जनसेवक के स्वामित्व वाले जिंदल एल्यूमिनियम सरीखे उद्योग ने भी बढ़ चढ़कर योगदान दिया है। 5 से 9 अप्रेल तक चले इस आंदोलन में टेंट और साउंड सिस्टम पर मात्र साढ़े नौ लाख रूपए खर्च होना दर्शाया गया है।
राजनैतिक चतुर सुजान राजा दिग्विजय सिंह ने अन्ना पर बयानों से हमले बोले, लोगों को लगा कि कांग्रेस अन्ना के इस आंदोलन से भयाक्रांत है, पर जानकारों का कहना है कि इस तरह के जहर बुझे तीर कांग्रेस की एक रणनीति के तहत ही चलाए गए थे, ताकि किसी को यह न लगे कि इसके पार्श्व में कहीं कांग्रेस है। इसके बाद कांग्रेस के अन्ना हजारे पर से हमले कम हो गए।
माना जा रहा है कि भ्रष्टाचार, घपलों घोटालों से अटी पड़ी कांग्रेसनीत केंद्र सरकार का यह प्रयास है कि किसी भी तरह से आम जनता का ध्यान इन सबसे हटाया जा सके। कांग्रेस को इसके लिए सबसे उपयुक्त लगा कि बेहतर होगा कि लोगों का गुस्सा एक बार फट जाए और मामला एक दो दशक के लिए टाला जा सके ताकि भविष्य में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को भ्रष्टाचार से निजात मिल सके।
कांग्रेस अपनी इस अघोषित मुहिम में काफी हद तक कामयाब होती दिख रही है। भ्रष्टाचार का लावा फट गया और अब शांत पड़ चुका है। लोग अब अन्ना को ही कांग्रेस का एजेंट बताने से नही चूक रहे हैं इसका कारण लोकपाल बिल के लिए बनी समीति में पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण और उनके पुत्र प्रशांत भूषण को स्थान दिया जाना है। पिता पुत्र के स्थान पाते ही एक बार फिर वे विवादों में आ गए। इलहाबाद में एक बेशकीमती जमीन के मामले में उन्हें शक के दायरे में ला दिया गया। इसके बाद एक सीडी भी हवा में तैर गई जिसमें ‘जज‘ को सैट करने के आरोप शांति भूषण पर लग रहे हैं। इस तरह विवादित लोगों के इस समिति में आने से ही मामला संदिग्ध होने लगा है। लोगों का भरोसा भी अब टूटने सा लगा है।
उधर अन्ना हजारे के माध्यम से कांग्रेस ने बाबा रामदेव को भी किनारे लगाने का उपक्रम कर ही दिया। भ्रष्टाचार और काले धन पर बाबा रामदेव द्वारा जो बिसात बिछाई जा रही थी, उसे कांग्रेस ने अन्ना हजारे के पाले में डालकर बाबा रामदेव का जोश भी ठंडा ही कर दिया है। यद्यपि बाबा रामदेव आसानी से हार नहीं मानने वाले हैं किन्तु कांग्रेस का पुरजोर प्रयास है कि वह बाबा रामदेव को किनारे ही कर दे।
बहरहाल भविष्य की चालों को ध्यान में रखकर राजनीति करने में पारंगत मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजा दिग्विजय सिंह ने पहले तो अन्ना हजारे के आंदोलन को मिले चंदे पर सवालिया निशान लगा दिया। गौरतलब होगा कि जब भी कोई सार्वजनिक हित के काम को आगे बढ़ाया जाता है तब लोग दिल खोलकर चंदा देते हैं। आयोजक उस चंदे का सदुपयोग करते हैं या फिर आंदोलन में अपने विलासित के सपनों को साकार करते हैं यह बात तो वे ही जानते होंगे किन्तु यह तय है कि जिस तरह का व्यय ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन‘ द्वारा दर्शाया गया है वह गैर जरूरी ही था। छः लाख रूपए रोजाना के हिसाब से अगर आंदोलन किया गया तो वह निहायत ही बेवकूफी भरा था।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब महात्मा गांधी या लोकनायक जयप्रकाश द्वारा आंदोलन किया गया तब वह सादगी से परिपूर्ण था, उसमें विलासिता की बू कहीं से भी नहीं आती थी। किन्तु वर्तमान मंे होने वाले आंदोलन में कुंठा अवश्य ही झलकने लगती है। भारतीय पुलिस सेवा की देश की पहली महिला अधिकारी किरण बेदी का कहना है कि इस व्यय में वह खर्च भी जु़ड़ा है जिसमें अन्ना और उनके समर्थकों ने देश का दौरा किया है।
सवाल यह उठता है कि अन्ना के समर्थक अगर हवाई जहाज या हेलीकाप्टर किराए पर लेकर दौरा करें तो उसका भोगमान देश की जनता क्यों भोगे। गांधीवादी अन्ना के समर्थकों को चाहिए था कि वे रेल के साधारण दर्जे में या सरकारी बस में यात्रा करते। अगर उनके लिए वातानुकूलित श्रेणी की बर्थ, हवाई टिकिट या वातानुकूलित मंहगी गाड़ी किराए पर ली गई है तो इससे देश की जनता को क्या लेना देना। और इस तरह की चीजों का उपयोग अगर वे कर रहे हैं तो उनमें और विलासिता प्रिय जनसेवकों में आखिर अंतर क्या बचा।
आज इंडिया अगेंस्ट करप्शन संस्था ने हिसाब दे दिया है, पर वह आधा अधूरा ही है। बेहतर होता कि संस्था आना पाई से हिसाब देती और भ्रष्टाचार या किसी भी प्रकार की लड़ाई जनहित देशहित में लड़ने वाले हर मंच के अंदर इतना माद्दा होना चाहिए कि वह जनता के पैसे का हिसाब देने में पूरी पारदर्शिता बरते। अगर देश की शैक्षणिक संस्था, बैंक, व्यापारी, सेवानिवृत कर्मचारी आदि उसे चंदा दे रहे हैं तो संस्था को चाहिए कि उनके या किसी के बिना मांगे हर रोज का खर्च उसी तरह सार्वजनिक करे जैसा कि वह अपने कदमों के बारे में जनता को मीडिया के माध्यम से विज्ञप्ति जारी कर करती है।
दिग्गी राजा उर्फ दिग्विजय सिंग बडे अफसोस के साथ आपके नाम के साथ का सम्मनसूचक शब्द जी को हटाना पड रहा है । जरा सोचकर देखो कि आप किस पद पर बैठ कर क्या क्या कह रहे हो । लगता है कांग्रेस महासचिव का पद देकर गांधी परिवार ने आपको खरीद लिया है । अपने पदमोह से बाहर निकलो दिग्गी राजा और अपनी तमाम नौटंकी बाजी बंद करते हुए जनता को साफ साफ बतलाओ कि तुम्हारी सरकार काला धन वापस लाने के लिये क्या कर रही है । वैसे भी जनता अंधी नही है और दिल्ली की सुगबुगाहट सारे देश में धीरे धीरे फैल रही है कि हमारे देश में शेयर बाजार और वायदा कारोबार के जरिये बाहर के काले धन को धीरे धीरे निवेश किया जा रहा है और मुनाफे के रूप में उसे देश में ही सफेद किया जा रहा है ।
रामदेव बाबा से पूछो कि दस साल में उनके पास इतना पैसा कैसे आया पर पहले आप बताएं कि सारे नेता करोडपति से अरबपति कैसे बन रहे हैं । आप ही बता दो कि आपको सोनिया राहुल की गुलामी में ही अपनी राजनीती क्यो सुरक्षित लगती है । जो आप कह रहे हैं मैं भी उन्ही बातों का जवाब ले रहा हूँ । हमारे देश के अधिकतर रक्षा सौदे इटली से ही क्यों हो रहे हैं जबकि इटली कोई प्रख्यात हथियार उत्पादक देश नही है । अब बातों को लंबा ना करके केवल एक बात पुछुंगा कि आप ही बताएं कि काला धन कब आएगा ।
घड़ी रात के ग्यारह बजा रही थी। अनमने ढ़ंग से देश और विदेश का हाल जानने के लिए टीवी खोला। रिमोट का बटन दबाते हुए अंगुलिया थक गई लेकिन देश और विदेश छोडि़ये जनाब अपने शहर तक की खबर नहीं मिल पाई। आप सोचेंगे ऐसा क्यूं? आइये रात 10 बजे टीवी चैनलों की बानगी पर एक नजर ड़ालें। “आपकी आवाज” पंचलाइन वाला चैनल अधनंगी वीना मलिक और बड़बोली राखी सावंत के साथ क्रिकेट पर अपना ज्ञान बखार रहा था। “सबसे तेज” पंचलाइन के साथ चलने वाला चैनल किसी अवार्ड फंक्शन में चल रहा बदन दिखाऊ डांस प्रसारित कर रहा था। देश का एक महान चैनल जो दो महान पत्रकारों के नेतृत्व में “खबर हर कीमत पर” वाली पंचलाइन के साथ चलता है खबर तो नहीं हां कॉमेड़ी हर कीमत पर जरूर दिखा रहा था। जब इन चैनलों का ये हाल हो तो अन्य चैनल क्या दिखा रहे होंगे इसका अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं। टीआरपी की अंधी दौड़ में चैनल खबरों को छोड़कर बाकी सब कुछ दिखा रहे हैं। पर आखिर क्यूं? सिर्फ टीआरपी के लिए।
निश्चित ही मीडिया का विस्तार सभी ओर तेजी से हो रहा है। अखबारों की संख्या और उनकी प्रसार संख्या में बहुमुखी बढ़ोत्तरी हुई है। रेडियों स्टेशनों की संख्या और उनके प्रभाव-क्षेत्रों के फैलाव के साथ-साथ एफ़एम रेडियो एवं अन्य प्रसारण फल-फूल रहे हैं। स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय चैनलों की संख्या भी बहुत बढ़ी है। यह सूचना क्रांति और संचार क्रांति का युग है, इसलिए विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ इनका फैलाव भी स्वाभाविक है। क्योंकि जन-जन में नया जानने की उत्सुकता और और जागरूकता बढ़ी है।
यह सब अच्छी बात है, लेकिन चौंकाने वाली और सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि टीवी चैनलों में आपसी प्रतिस्पर्धा अब एक खतरनाक मोड़ ले रही है। अपने अस्तित्व के लिए और अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने के लिए चैनल खबरें गढ़ने और खबरों के उत्पादन में ही लगे हैं। अब यह प्रतिस्पर्धा और जोश एवं दूसरों को पछाड़ाने की मनोवृत्ति घृणित रूप लेने लगी है। अब टीवी चैनल के कुछ संवाददाता दूर की कौड़ी मारने और अनोखी खबर जुटाने की उतावली में लोगों को आत्महत्या करने तक के लिए उकसाने लगे हैं। आत्महत्या के लिए उकसाकर कैमरा लेकर घटनास्थल पर पहुंचने और उस दृश्य को चैनल पर दिखाने की जल्दबाजी तो पत्रकारिता नहीं है। इससे तो पत्रकारिता की विश्वसनीयता ही समाप्त हो जायेगी। पर क्या करें बात तो सनसनी और टीआरपी की है। खबरों का उत्पादन अगर पत्रकार करें तो यह दौड़ कहां पहुंचेगी? सनसनीखेज खबरों के उत्पादन की यह प्रवृत्ति आजकल कुछ अति उत्साहित और शीघ्र चमकने की महत्वाकांक्षा वाले पत्रकारों में पैदा हुई है। प्रतिस्पर्धा करने के जोश में वे परिणामों की चिंता नहीं करते। ऐसे गुमराह पत्रकार कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। पूरे परिवार को आत्महत्या के लिए उकसाना या रेहडीवालों को जहर खाने की सलाह देना अथवा भावुकता एवं निराशा के शिकार किसी व्यक्ति को बहुमंजिला इमारत से छलांग लगाने के लिए कहना और ऐसे हादसे दर्शाने के लिए कैमरा लेकर तैयार रहना स्वस्थ पत्रकारिता और इंसानियत के खिलाफ है।
इन दिनों कुछ खबरिया चैनल मिथक कथाओं को ऐसे पेश करते नजर आते हैं जैसे वे सच हों। वे उसे आस्था और विश्वास का मामला बनाकर पेश करते हैं। खबर को आस्था बना ड़ालना प्रस्तुति का वही सनसनीवादी तरीका है। सच को मिथक और मिथक को सच में मिक्स करने के आदी मीडिया को विजुअल की सुविधा है। दृश्य को वे संरचना न कहकर सच कहने के आदी हैं। यही जनता को बताया जाता है कि जो दिखता है वही सच है। सच के निर्माण की ऐसी सरल प्रविधियां पापुलर कल्चर की प्रचलित परिचित थियोरीज के सीमांत तक जाती हैं जिनमें सच बनते-बनते मिथक बन जाता है। मिथक को सच बनाने की एक कला अब बन चली है। अक्सर दृश्य दिखाते हुए कहा जाता है कि यह ऐसा है, वैसा है। हमने जाके देखा है। आपको दिखा रहे हैं। प्रस्तुति देने वाला उसमें अपनी कमेंटरी का छोंक लगाता चलता है कि अब हम आगे आपको दिखाने जा रहे हैं… पूरे आत्मविश्वास से एक मीडिया आर्कियोलॉजी गढ़ी जाती है, जिसका परिचित आर्कियोलॉजी अनुशासन से कुछ लेना-देना नहीं है। इस बार मिथक निर्माण का यह काम प्रिंट में कम हुआ है, इलैक्ट्रानिक मीडिया में ज्यादा हुआ है। प्रस्तुति ऐसी बना दी जा रही है कि जो कुछ पब्लिक देखे उसके होने को सच माने।
जबसे चैनल स्पर्धात्मक जगत में आए हैं तबसे मीडिया के खबर निर्माण का काम कवरेज में बदल गया है। चैनलों में, अखबारों में स्पर्धा में आगे रहने की होड़ और अपने मुहावरे को जोरदार बोली से बेचने की होड़ रहती है। ऐसे में मीडिया प्रायः ऐसी घटना ही ज्यादा चुनता है जिनमें एक्शन होता है। विजुअल मीडिया और अखबारों ने खबर देने की अपनी शैली को ज्यादा भड़कदार बनाया है। उनकी भाषा मजमे की भाषा बनी है ताकि वे ध्यान खींच सकें। हर वक्त दर्शकों को खींचने की कवायद ने खबरों की प्रस्तुति पर सबसे ज्यादा असर डाला है। प्रस्तुति असल बन गई है। खबर चार शब्दों की होती है, प्रस्तुति आधे घंटे की, दिनभर की भी हो सकती है
लोकतांत्रिक समाज में मीडिया वास्तव में एक सकारात्मक मंच होता है जहां सबकी आवाजें सुनी जाती हैं। ऐसे में मीडिया का भी कर्तव्य बन जाता है वह माध्यम का काम मुस्तैदी से करे। खबरों को खबर ही रहने दे, उस मत-ग्रस्त या रायपूर्ण न बनाये। ध्यान रखना होगा कि समाचार उद्योग, उद्योग जरूर है लेकिन सिर्फ उद्योग ही नहीं है। खबरें प्रोडक्ट हो सकती हैं, पर वे सिर्फ प्रोडक्ट ही नहीं हैं और पाठक या दर्शक खबरों का सिर्फ ग्राहक भर नहीं है। कुहासे में भटकती न्यूज वैल्यू का मार्ग प्रशस्त करके और उसके साथ न्याय करके ही वह सब किया जा सकता है जो भारत जैसे विकासशील देश में मीडिया द्वारा सकारात्मक रूप से अपेक्षित है। तब भारत शायद साक्षरता की बाकायदा फलदायी यात्रा करने में कामयाब हो जाए और साक्षरता की सीढ़ी कूदकर छलांग लगाने की उसे जरूरत ही न पड़े। लेकिन पहले न्यूज वैल्यू के सामने खड़े गहरे सनसनीखेज खबरों के धुंधलके को चीरने की पहल तो हो।