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ईसाई धर्म और नारी मुक्ति

 प्रो. कुसुमलता केडिया

क्रिश्चिएनिटी की जिन मान्यताओं के विरोध में यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन वीरतापूर्वक खड़ा हुआ, वे मान्यताएं हिन्दू धर्म, बौध्द धर्म तथा विश्व के सभी धर्मों में कभी थी ही नहीं। यहां तक कि यहूदी धर्म और इस्लाम में भी ये मान्यताएं कभी भी नहीं थीं। भले ही स्त्रियों पर अनेक प्रतिबंध इस्लाम में हैं परन्तु ऐसी भयंकर मान्यताएं वहां भी नहीं हैं।

भारत में भी नारी मुक्ति का एक आंदोलन चल रहा है। इसके भी अधिकांश स्वर वैसे ही दिखते हैं, जैसे यूरोपीय स्त्री आंदोलन के दिखते हैं। परन्तु यह दिखाई पड़ना केवल ऊपरी है, आकारगत है। तत्व की दृष्टि से दोनों में बड़ा अंतर है। यूरोपीय स्त्री आंदोलन लगभग एक हजार वर्षों के यूरोपीय इतिहास से अभिन्नता से जुड़ा है। भारत यूरोपीय राजनीति से, जो आज एक तरह से वैश्विक राजनीति भी है, घनिष्ठता से जुड़ा है। भारत में राजनीति करने वाले लोगों के मन में यूरोपीय, अमेरिकी राजनैतिक विचारों तथा राजनैतिक संस्थाओं के प्रति श्रध्दा एवं प्रणाम की भावना है और इसी कारण से वहां की एकेडमिक्स के प्रति भी श्रध्दा और प्रणाम भावना है। अत: यहां राजनैतिक दृष्टि से सक्रिय लोगों में नारी मुक्ति के संदर्भ में भी यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन के प्रत्ययों, नारों, मान्यताओं और भंगिमाओं का अनुसरण करने का भरपूर प्रयास दिखता है, क्योंकि वैसा करना ही ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ है। यह बात समझ में भी आती है।

वैश्विक मीडिया द्वारा ‘पोलिटिकली करेक्ट’ लोगों और बातों को ही तरजीह मिलेगी, प्रधानता मिलेगी, प्रचार मिलेगा, महत्व मिलेगा, विदेश घूमने और वहां पब्लिसिटी पाने का मौका मिलेगा, जिससे सुख-सुविधा और ‘पावर’ मिलेगी। परन्तु ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ और एकेडमिक स्पष्टता- ये दो अलग-अलग बातें हैं। इनके घालमेल से किसी का भी भला नहीं होगा। एकेडमिक स्पष्टता सम्भव होती है- तथ्यों के संकलन, उनके निष्पक्ष विश्लेषण और ब्यौरेवार प्रस्तुतियों से। इन तीनों से ही समस्याओं का यथातथ्य निरूपण सम्भव होता है। और तब उनके सम्भावित समाधान के रास्ते खुलते हैं। अत: बौध्दिक स्पष्टता के लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम हम यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन के वास्तविक संदर्भों को जानें। ग्यारहवीं शदी ईस्वी के प्रारंभ तक यूरोप का बड़ा हिस्सा बहुदेवपूजक यानी सनातनधर्मी था। क्रिश्चिएनिटी वहां 7वीं शदी ईस्वी से धीरे-धीरे फैलनी शुरू हुई।

इंग्लैंड में क्रिश्चिएनिटी 7वीं से 11वीं शदी तक क्रमश: फैली। 1066 ई. में जब इंग्लैंड पर नार्मन लोगों ने आक्रमण किया तब पोप की मदद पाने के लिए वहां के शासक सैक्सन लोगों ने क्रिश्चिएनिटी को ‘राजकीय रिलिजन’ स्वीकार कर लिया। इसमें वहां तीन सौ वर्षों से लगातार सक्रिय मिशनरी पादरियों की भूमिका रही। उसके पूर्व 8वीं शताब्दी में प्रफांस के बर्बर प्रहारों से टूटे हुए तत्कालीन कतिपय अंग्रेज शासक समूहों ने भी कुछ समय के लिए क्रिश्चिएनिटी स्वीकार की थी। रोम में क्रिश्चिएनिटी चौथी से छठी शताब्दी ईस्वी के बीच धीरे-धीरे फैली थी। प्रफांस में वह छठी शताब्दी में फैली। स्पेन तथा जर्मनी में छठी और सातवीं, जबकि पोलैंड, रूस, सर्बिया, बोहेमिया, हंगरी, बुल्गारिया, डेनमार्क आदि में 10वीं और 11वीं शताब्दी में, स्वीडन और नार्वे में 12वीं शताब्दी में। प्रशा, फिनलैंड, स्टोनिया, लीवोनिया और स्विट्जरलैंड में 13वीं शताब्दी में ही ईसाईयत फैल पायी। 15वीं शताब्दी ईस्वी से उसका प्रचंड विरोध भी यूरोप में शुरू हो गया। क्योंकि उसकी मूल मान्यताएं ही मानवता-विरोधी थीं। ईसाईयत की मूल मान्यताओं का प्रबल प्रभाव 12वीं से 16वीं शदी ईस्वी तक यूरोप में व्यापक हुआ। इन मान्यताओं और आस्थाओं को जाने बिना यूरोपीय स्त्री मुक्ति आंदोलन के संदर्भों को समझा नहीं जा सकता।

स्त्री-पुरुष सम्बन्धी मूल क्रिश्चियन मान्यताएं मूल क्रिश्चियन मान्यताओं में सबसे महत्वपूर्ण मान्यताएं हैं:-

(1) ‘गॉड’ ने पुरुष (मैन) को अपनी ही ‘इमेज’ में बनाया। अत: यह ‘मैन’ ही समस्त सृष्टि का ‘लॉर्ड’ है। ‘मैन’ को चाहिए कि वह धरती को दबाकर आज्ञाकारिणी और वशवर्ती बना कर रखे तथा उससे खूब आनंद प्राप्त करे।

(2) ‘गॉड’ ने प्रथम ‘मैन’ एडम की एक पसली से स्त्री (ईव) बनाई जो ‘मैन’ के मन-बहलाव के लिए बनाई गई। इस प्रकार स्त्री (ईव या वूमैन) बाद की रचना है। वह ‘मैन’ का केवल एक अंश है जो उसके मन-बहलाव के लिए बनी है।

(3) नर-नारी का परस्पर स्वेच्छा और उल्लास से मिलना ही ‘मूल पाप’ (ओरिजिनल सिन) है। इस ‘ओरिजिनल सिन’ के लिए ‘मैन’ को ‘शैतान’ के कहने पर ‘वूमैन’ ने फुसलाया। इसलिए ‘वूमैन’ ‘शैतान की बेटी’ है। वह पुरुष को सम्मोहित कर ‘मूल पाप’ यानी कामभाव यानी ‘शैतानियत’ के चंगुल में फंसाती है। अत: वह सम्मोहक (सेडयूसर) है। ‘मूल पाप’ में पुरुष को खींचने का जो उसने अनुचित आचरण किया है, उस कारण वह ‘एडल्टरेस’ है, ‘एडल्टरी’ की दोषी है। पुरुष को सम्मोहित करने के ही अर्थ में वह जादूगरनी है। पुरुष को सम्मोहित करना बुरा है, इसलिए वह बुरी जादूगरनी है। अत: डायन (विच) है। उसे यातना देना पुण्य कार्य है।

(4) शैतान ‘गॉड’ का प्रतिस्पर्ध्दी है। ‘गॉड’ और शैतान में निरन्तर युध्द चल रहा है। जीसस की ‘मिनिस्ट्री’ यानी पादरी मंडल लगातार शैतान के साम्राज्य के विरुध्द संघर्षरत है, ताकि अंतत: ‘गॉड’ की जीत हो। शैतान ‘गॉड’ का शत्रु है। शैतान के विरुध्द युध्द करना और युध्द में सब प्रकार के उपाय अपनाना हर आस्थावान क्रिश्चियन का कर्तव्य (रेलिजियस डयूटी) है।

(5) स्त्री को, गैर-क्रिश्चियन सभी पुरुषों को तथा इस धरती को अपने अधीन दबा कर रखना, आज्ञाकारी और वशवर्ती बनाकर रखना हर ‘फेथफुल क्रिश्चियन’ पुरुष का कर्तव्य है और यह कर्तव्य उसे बुध्दि और बल के हर संभव तथा अधिकतम उपयोग के द्वारा करना है।

इन्हीं मूलभूत मान्यताओं के कारण क्रिश्चिएनिटी में ‘क्रिश्चियन स्त्री’ को शताब्दियों तक ‘मैन’ की शत्रु और शैतान की बेटी तथा शैतान का उपकरण माना जाता रहा है। नर-नारी मिलन को ‘मूल पाप’ माना जाता रहा है। इस दृष्टि से विवाह भी वहां ‘पाप’ ही माना जाता रहा है परन्तु वह क्रिश्चियन विधि से होने पर तथा चर्च के नियंत्रण में वैवाहिक जीवन जीने पर अपेक्षाकृत ‘न्यूनतम पाप’ माना जाता रहा। तब भी विवाहित स्त्री को मूलत: ‘अपवित्र’ ही माना जाता है। पवित्र स्त्री तो वह है जो किसी क्रिश्चियन मठ में दीक्षित मठवासिनी अर्थात् ‘नन’ है जिसने गरीबी, ‘चेस्टिटी’ तथा क्रिश्चियन पादरियों और चर्च की आज्ञाकारिता की शपथ ली है।

ननों को हठयोगियों जैसा कठोर शारीरिक तप करना पड़ता है। पादरी ‘सेलिबेट’ यानी अविवाहित होते हैं, जिसका अर्थ गैर-जानकार लोगों ने हिन्दी में ‘ब्रह्मचारी’ कर रखा है जो पूर्णत: गलत है। ‘सेलिबेट’ पादरी ‘नन्स’ के साथ उनके सम्मोहन के कारण प्राय: काम सम्बन्ध बनाते रहे हैं और उसके लिए दोषी भी ‘सेडयूसर’ ‘नन’ को ही माना जाता है।

(6) क्रिश्चिएनिटी की उपर्युक्त पांचों मूल मान्यताओं से जुड़ी एक महत्वपूर्ण छठी मान्यता यह है कि स्त्री ने चूंकि पुरुष को बहला-फुसलाकर ‘मूल पाप’ में फंसाया, अत: ‘गॉड’ ने ‘ईव’ को शाप दिया। इस शाप में मासिक धर्म, प्रसव पीड़ा, गर्भ धारण तथा सदा पुरुष की अधीनता में रहने और दंडित किये जाने आदि का शाप है। कुल सात शापों से स्त्री शापित है। किसी भी भूल पर उसे एक स्वस्थ मर्द के अंगूठे की मोटाई वाले कोड़े से दस से पचास तक कोड़े मारना क्रिश्चियन पुरुष का सहज अधिकार और कर्तव्य है। अपराध गंभीर होने पर सौ या उससे ज्यादा कोड़े पड़ सकते हैं।

(7) क्रिश्चिएनिटी में मातृत्व भी एक अभिशाप है। किसी स्त्री का मां बनना ‘गॉड’ द्वारा उसे दंडित किए जाने का परिणाम है। संतान भी ‘मूल पाप’ का परिणाम होने के कारण वस्तुत: धरती पर पाप का प्रसार ही है। केवल चर्च को समर्पित होने पर व्यक्ति इस ‘पाप’ के भार से इसलिए मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह ऐसा करके उस जीसस की शरण में जाता है जिसने ‘क्रास’ पर टंग कर (सूली पर चढ़ कर) एडम और ईव तथा उनकी समस्त संतानों के द्वारा किए गए ‘मूल पापों’ का प्रायश्चित पहले ही सबकी ओर से कर लिया है। जीसस ‘गॉड’ का ‘इकलौता बेटा’ है और केवल उसकी शरण में जाने पर ही मनुष्य ‘पाप’ से मुक्त होता है। ‘पाप’ का यहां मूल अर्थ है ‘ओरिजिनल सिन’ यानी रति सम्बन्ध रूपी पाप जिससे व्यक्ति गर्भ में आता और जन्म लेता है। अत: व्यक्ति जन्म से ही पापी है। क्रिश्चिएनिटी की ये सातों धारणाएं अभूतपूर्व हैं, अद्वितीय हैं। और संसार की कोई भी अन्य सभ्यता इनमें से एक भी मान्यता को नहीं मानती। ये केवल क्रिश्चिएनिटी में मान्य आस्थाएं हैं।

इन अद्वितीय मान्यताओं के कारण पांच सौ वर्षों तक करोड़ों सदाचारिणी क्रिश्चियन स्त्रियों को लगातार दबाया गया, मारा गया, जलाया गया, बलपूर्वक डुबोया गया, खौलते कड़ाह में उबाला गया, घोड़े की पूंछ से बांध कर घसीटा गया। ‘क्रिश्चियन स्त्री’ पर ये अत्याचार किन्हीं लुच्चे-लफंगों, लम्पटों अथवा अनपढ़ या पिछड़े लोगों ने नहीं किया था, किन्हीं अशिक्षित, अल्पशिक्षित या असामाजिक तत्वों ने नहीं किया था अपितु सर्वाधिक शिक्षित, संगठित और प्रभुताशाली क्रिश्चियन भद्रलोक ने किया।

क्रिश्चियन स्त्रियों में भी आत्मा होती है, यह 17वीं शताब्दी के आरंभ तक चर्च द्वारा मान्य नहीं था। स्त्री का स्वतंत्र व्यक्त्तिव तो 20वीं सदी में ही मान्य हुआ। 1929 ई. में इग्लैंड की अदालत ने माना कि स्त्री भी ‘परसन’ है। स्त्रियों में आत्मा होती है, यह यूरोप के विभिन्न देशों में 20वीं शताब्दी में ही मान्य हुआ। 20वीं शताब्दी में ही स्त्रियों को वयस्क मताधिकार वहां पहली बार प्राप्त हुआ। 18वीं शताब्दी तक स्त्रियों को बाइबिल पढ़ने का अधिकार तक मान्य नहीं था। स्त्री को डायन कहकर उनको लाखों की संख्या में 14वीं से 18वीं शताब्दी तक जिन्दा जलाया गया और यातना देकर मारा गया। स्पेन, इटली, पुर्तगाल, हालैंड, इंग्लैंड, प्रफांस, जर्मनी, स्विट्जरलैंड आदि सभी देशों में ये कुकृत्य हुए। इन सब भयंकर मान्यताओं के विरोध में यूरोप में नारी मुक्ति आंदोलन चला जिसमें उन्होंने स्वयं को पुरुषों के समतुल्य माना, अपने भीतर वैसी ही आत्मा और बुध्दि मानी और ‘नन’ बनने से ज्यादा महत्व पत्नी, प्रेमिका और मां बनने को तथा स्वाधीन स्त्री बनने को दिया। जहां मां बनना स्वाधीन व्यक्तित्व में बाधा प्रतीत हो, वहां मातृत्व से भी अधिक महत्व स्त्रीत्व को दिया। स्त्री को बाइबिल तक नहीं पढ़ने दिया जाता था तो उसके विरोध में जाग्रत स्त्रियां प्रमुख बौध्दिक और विदुषी बन कर उभरीं तथा विद्या के हर क्षेत्र में अग्रणी बनीं। क्रिश्चियन स्त्री को पुरुषों को लुभाने वाली कहा जाता था, इसीलिए नारी मुक्ति का एक महत्वपूर्ण अंग हो गया- श्रंगारहीनता या सज्जाहीनता। काम को ‘मूल पाप’ माना जाता था इसलिए उसकी प्रतिक्रिया में काम संबंध को स्वतंत्र व्यक्तित्व का लक्षण माना गया। स्त्रियां स्वयं यह सुख न ले सकें इसके लिए एक विशेष अंगच्छेदन का प्रावधान किया गया था। अत: उसके विरोध में जाग्रत स्त्रियों ने समलिंगी सम्बन्धों की स्वतंत्रता की मांग की। इन सब संदर्भों से अनजान भारतीय लोग, फिर वे प्रबुध्द स्त्रियां हों या पुरुष, यूरोपीय स्त्री मुक्ति आंदोलन के कतिपय ऊपरी रूपों की नकल करते हैं। यहां उसी क्रिश्चियनिटी का महिमामंडन किया जाता है जिसने यूरोप की स्त्रियों का उत्पीड़न सैकड़ों सालों तक किया तथा जिसने साथ ही भारत में हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज सहित दुनिया के सभी समाजों पर अत्याचार किया।

नृशंस क्रिश्चिएनिटी के अत्याचारों के प्रतिरोध में उपजे साहित्य की नकल जब ‘अपराधी’ और ‘पीड़ित’ के इन रिश्तों की समझ के बिना ही भारत में की जाती है, तब ऐसा करने वाले लोग एक तो उन वीर स्त्रियों की पीड़ा की गहराई का अपमान करते हुए उसे भोडी नकल के योग्य कोई वस्तु बना कर अमानवीय व्यवहार करते हैं, साथ ही इसी छिछोरी मानसिकता से वे अकारण ही उस श्रेष्ठ हिंदू धर्म की निंदा करते हैं जो क्रिश्चियन साम्राज्यवादी अत्याचारों के विरुध्द भारत की स्त्रियों और पुरुषों का त्रता और रक्षक धर्म रहा है। यह हिन्दू धर्म हिन्दू स्त्री की रक्षा का समर्थ कवच रहा है। परन्तु अनपढ़ (इल्लिटरेट) लोग जो आधुनिक अर्थ में शिक्षित कहलाते हैं, इन विषयों में सत्य का विचार किए बिना यूरोपीय स्त्रियों के बाहरी शब्दों की नकल करते हुए हिन्दू स्त्रियों के कष्ट के लिए हिन्दू धर्म को ही गाली देते हैं। केवल इसलिए क्योंकि यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन अत्याचारी क्रिश्चियन रेलिजन को गाली देता है। क्रिश्चियन रेलिजन का अत्याचारी इतिहास सत्य है। लेकिन उसकी नकल में हिन्दू धर्म को भी वैसा चित्रित करना पाप है, झूठी रचना है।

क्रिश्चिएनिटी की जिन मान्यताओं के विरोध में यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन वीरतापूर्वक खड़ा हुआ, वे मान्यताएं हिन्दू धर्म, बौध्द धर्म तथा विश्व के सभी धर्मों में कभी थी ही नहीं। यहां तक कि यहूदी धर्म और इस्लाम में भी ये मान्यताएं कभी भी नहीं थीं। भले ही स्त्रियों पर अनेक प्रतिबंध इस्लाम में हैं परन्तु ऐसी भयंकर मान्यताएं वहां भी नहीं हैं। भारत का इतिहास तो क्रिश्चिएनिटी से नितान्त विपरीत है। यहां तो अत्यंत प्राचीन काल से स्त्रियां ब्रह्मवादिनी, रणकुशल सेनानी तथा कलाओं, शिल्पों और व्यवसाय आदि में अग्रणी रही हैं।

हिन्दू धर्म में यशश्वी स्त्रियों की महान परंपरा रही है। यहां प्राचीन काल में महारानी कैकेई से लेकर 19वीं शताब्दी ईस्वी के मधय में हुए भारत के स्वाधीनता संग्राम में सर्वसम्मति से सेनापति की भूमिका निभाने वाली युवा वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई तक हुई हैं। लक्ष्मीबाई 26 वर्षीय विधवा युवती थीं, जिन्हें युध्द सम्बन्धी उनकी दक्षता, कौशल और वीरता के कारण तत्कालीन भारतीय नरेशों ने सहज ही अपना सेनापति स्वीकार किया था। भारत में जीवन के हर क्षेत्र में वैदिक काल से ही स्त्रियां पुरुषों के समान अग्रणी रही हैं। उपनिषद कहते हैं कि एक ही मूल तत्व द्विदल अन्न के दोनों दलों की तरह स्त्री और पुरुष में विभक्त हुआ है, इसीलिए दोनों को परस्पर अर्धांग माना जाता है। भारतीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में दक्ष, प्रसिध्द तथा सफल स्त्रियों की अनन्त शृंखला है। यहां इस्लामी अत्याचारों और ब्रिटिश क्रिश्चियन अत्याचारों, दोनों का ही सामना स्त्रियों और पुरुषों ने समान वीरता से और सहभागिता से किया है। भारत की इस अक्षुण्ण परम्परा को अस्वीकार कर यूरोपीय नारी के इतिहास को ही भारतीय स्त्री का भी इतिहास मानने और बताने का अर्थ है स्वयं को उस ‘क्रिश्चियन’ छवि में समाहित करना जिसके अनुसार स्त्रियां सम्मोहक हैं। उनमें सेक्स की शक्ति से मोह लेने की क्षमता है। स्त्री विषयक इन ‘क्रिश्चियन’ मान्यताओं को अंगीकार करने पर उस मूल ‘क्रिश्चियन’ दृष्टि की भी सहज स्वीकृति हो जाएगी जिसके अनुसार स्त्री शैतान की बेटी और उपकरण है, ‘एडल्टरेस’ है तथा पतन का कारण है। इन सब मान्यताओं को भारतीय इतिहास का भी सत्य मानकर इनके विरुध्द विद्रोह करना भारत में नारी मुक्ति आंदोलन का लक्षण मान लिया जाता है। परन्तु क्या ऐसा झूठा, तथ्यविरुध्द और नकली इतिहास रचा जा सकता है? या मान्य हो सकता है? यूरोप की प्रबुध्द स्त्रियां ‘रेनेसां’ के बावजूद क्रिश्चिएनिटी की इन मान्यताओं के प्रभाव में हैं कि यूरोप के बाहर की दुनिया तो असभ्य लोगों और जाहिलों की दुनिया है। वे अब भी मानती हैं कि सम्पूर्ण आधुनिक विश्व के लिए एक ही सार्वभौम सभ्यता है और वह है क्रिश्चियन सभ्यता। वे इसी भाषा को समझती हैं और इसे ही बोलती हैं। यद्यपि क्रिश्चिएनिटी की सर्वश्रेष्ठता में विश्वास वो खो चुकी हैं। तथापि यूरोपीय सभ्यता की सार्वभौमिकता में उनका अभी भी विश्वास है। परन्तु भारत की प्रबुध्द स्त्री भारत के सम्पूर्ण इतिहास को झुठलाकर एक काल्पनिक इतिहास कैसे रच सकती है? और कैसे वह स्वयं को प्रमाणिक ठहरा सकेगी?

भारत में ‘नारी मुक्ति’ के मायने हैं (1)भारतीय इतिहास के विषय में तथ्यों का संकलन (2) क्रिश्चिएनिटी की भयावह मान्यताओं के रेलिजियस और दार्शनिक आधारों की सही समझ (3) उन मान्यताओं के कारण उन्मत्त ‘क्रिश्चियन’ साम्राज्यवाद द्वारा विश्वभर में किए गए बर्बर अत्याचारों और लूट की जानकारी (4) इस लूट और अपमान से हुई क्षति की पूर्ति की मांग ब्रिटेन तथा सम्पूर्ण क्रिश्चियन समाज से करना, (5) भारत से ‘एंग्लो-सेक्सन ला’ की विदाई की मांग करना। जब तक यह ‘एंग्लो-सेक्सन ला’ भारत में राज्य की विधिव्यवस्था का आधार है, तब तक भारत में हिन्दू धर्म को वैसा ही राजकीय संरक्षण दिए जाने का दबाव बनाना जैसा ‘क्रिश्चिएनिटी’ को ‘एंग्लो-सेक्सन ला’ के अंतर्गत सेक्युलर ब्रिटेन में प्राप्त है (6) भारतीय स्त्री की गौरवशाली परम्पराओं की पुनर्प्रतिष्ठा एवं (7) शासन, सेना, प्रशासन सहित विज्ञान प्रौद्योगिकी, कला, व्यवसाय आदि सभी क्षेत्रें में हिन्दू स्त्री की बुध्दि को फलवती होने देने की व्यवस्थाएं बनाने और प्रावधान किए जाने का दबाव बनाना तथा श्रेयस्कर राष्ट्र तथा श्रेयस्कर विश्व के निर्माण में हिन्दू स्त्रियों की भूमिका के लिए पथ प्रशस्त करना। यहां ‘हिन्दू स्त्री’ शब्द का प्रयोग बहुत सोच-विचार कर विवेकपूर्वक किया जा रहा है क्योंकि हिन्दू स्त्रियों का गौरवशाली इतिहास एक तथ्य है और इस सत्य के बल पर ही हिन्दू स्त्री अपनी प्रज्ञा और शील के प्रकाश तथा उत्कर्ष से स्वयं को और शिक्षित भारतीय समाज को भ्रांत धारणाओं से मुक्त रख सकती है। वह भारत की मुस्लिम और क्रिश्चियन स्त्रियों के दुख भी बांट सकती है। करुणा भाव तथा मैत्री भाव से उनकी सहायक भी बन सकती है। कम्युनिस्ट तथा अन्य यूरोख्रीस्त मत के प्रभावों वाली हिन्दू स्त्रियों की भ्रांति और विचलन को भी दूर करने में आत्मगौरव सम्पन्न हिन्दू स्त्री ही समर्थ हो सकती है। ऐसी हिन्दू स्त्री वीरता, कंटकशोधन, भारत के वैभव-विस्तार, सुसंस्कार, समृध्दि, विपुलता के प्रवाह की पोषक और संरक्षक के नाते वैविधयपूर्ण रूपों में पुन: प्रतिष्ठा पाएगी, यही भारत में नारी मुक्ति के सच्चे मायने हैं।

(लेखिका गांधी विद्या संस्थान वाराणसी की निदेशिका हैं)

आदिवासी कुंभ से क्या हासिल होगा आरएसएस को / संजय द्विवेदी

आदिवासियों के मूल सवालों को आखिर कौन उठाएगा

मध्यप्रदेश के ईसाई समुदाय एक बार फिर आशंकित है। ये आशंकाएं जायज हैं या नाजायज यह तो नहीं कहा जा सकता किंतु ईसाई संगठनों के नेताओं ने पिछले दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से मिलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा 10,11,12 फरवरी को मंडला में आयोजित किए जा रहे मां नर्मदा सामाजिक कुंभ को लेकर अपनी आशंकाएं जतायी हैं। इस आयोजन में लगभग 20 लाख लोगों के शामिल होने की संभावना है। इसके चलते ही वहां के ईसाई समुदाय में भय व्याप्त है। मंडला वह इलाका है जहां बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ है, ईसाई संगठनों को आशंका है इस आयोजन के बहाने संघ परिवार के लोग उनके लोगों को आतंकित कर सकते हैं, या उन्हें पुनः स्वधर्म में वापसी के लिए दबाव बना सकते हैं।जाहिर तौर इससे इस क्षेत्र में एक सामाजिक तनाव फैलने का खतरा जरूर है।

यह भी सवाल काबिलेगौर है कि आखिर इस कुंभ के लिए मंडला का चयन क्यों किया गया। इसके उत्तर बहुत साफ हैं एक तो मंडला आदिवासी बहुल जिला है और इस इलाके धर्मांतरित लोगों की संख्या बहुत है। किंतु ईसाई संगठनों की चिंताओं को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। संघ परिवार ने इस आयोजन के ताकत झोंक दी है किंतु इतने बड़े आयोजन में जहां लगभग २० लाख लोगों के आने की संभावना है आदिवासी समाज के वास्तविक सवालों को संबोधित क्यों नहीं किया जा रहा है, यह एक बड़ा सवाल है। आदिवासियों की जिंदगी का मूल प्रश्न है आज उनकी जमीनों,जंगलों और जड़ों से उनका विस्थापन। इसी के साथ नक्सलवाद की आसुरी समस्या समस्या उनके सामने खड़ी है। इस बाजारवादी समय में अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे इस समाज के मूल प्रश्नों सें हटकर आखिर धर्मांतरण जैसे सवालों से हम क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या ही बेहतर होता कि संघ परिवार इस महाआयोजन के बहाने माओवादी आतंकवाद के खिलाफ एक संकल्प पारित करता और जल, जंगल,जमीन से आदिवासियों की बेदखली के खिलाफ कुछ सार्थक फैसले लेते। किंतु लगता है कि धर्मांतरण जैसे सवालों को उठाने में उसे कुछ ज्यादा ही आनंद आता है।

धर्मान्तरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की कुछ उन प्राथमिक चिंताओं में है जो उसके प्रमुख एजेंडे पर है। यह दुख कहीं-कहीं हिंसक रूप भी ले लेता है, तो कहीं गिरिजनों और आदिवासियों के बीच जाकर काम करने की प्रेरणा का आधार भी देता है। आज ईसाई मिशनरियों की तरह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रेरित वनवासी कल्याण आश्रम और सेवाभारती जैसे संगठनों के कार्यकर्ता आपको आदिवासियों, गिरिजनों एवं वंचितों के बीच कार्य करते दिख जाएंगे ।बात सिर्फ सेवा को लेकर लगी होड़ की होती तो शायद इस पूरे चित्र हिंसा को जगह नहीं मिलती । लेकिन ‘धर्म’ बदलने का जुनून और अपने धर्म बंधुओं की तादाद बढ़ाने की होड़ ने ‘सेवा’ के इन सारे उपक्रमों की व्यर्थता साबित कर दी है। हालांकि ईसाई मिशनों से जुड़े लोग इस बात से इनकार करते हैं कि उनकी सेवाभावना के साथ जबरिया धर्मान्तरण का लोभ भी जुड़ा है। किंतु विहिप और संघ परिवार इनके तर्कों को खारिज करता है। आज धर्मान्तरण की यह बहस ऐसे मोड़ पर पहुंच चुकी है, जहां सिर्फ तलवारें भांजी जा रही हैं। और तर्क तथा शब्द अपना महत्व खो चुके हैं। जिन राज्यों में व्यापक पैमाने पर धर्मान्तरण हुआ है मसलन मिजोरम, अरुणाचल, मेंघालय, नागालैंड के ताजा हालात तथा कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्या के नाते उत्पन्न परिस्थितियों ने हिंदू संगठनों को इन बातों के लिए आधार मौजूद कराया है कि धर्म के साथ राष्ट्रांतरण की भी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। जाहिर है यह भयग्रंथि ‘हिंदू मानस’ में एक भय का वातारण बनाती है। इन निष्कर्षों की स्वीवकार्यता का फलितार्थ हम उड़ीसा की ‘दारा सिंह परिघटना’ के रूप में देख चुके हैं। दारा सिंह इसी हिंदूवादी प्रतिवादी प्रतिक्रिया का चरम है।

धर्मान्तरण की यह प्रक्रिया और इसके पूर्वापर पर नजर डालें तो इतिहास के तमाम महापुरुषों ने अपना धर्म बदला था। उस समय लोग अपनी कुछ मान्यताओं, आस्थाओं और मानदंडों के चलते धर्म परिवर्तन किया करते थे। वे किसी धर्म की शरण में जाते थे या किसी नए पंथ या धर्म की स्थापना करते थे। लंबे विमर्शों, बहसों और चिंतन के बाद यथास्थिति को तोड़ने की अनुगूंज इन कदमों में दिखती थी। गौतम बुद्ध, महावीर द्वारा नए मार्गों की तलाश इसी कोशिश का हिस्सा था वहा भी एक विद्रोह था। बाद में यह हस्तक्षेप हमें आर्य समाज, ब्रह्मा समाज, रामकृष्ण मिशन जैसे आंदोलनों में दिखता है। धर्म के परंपरागत ढांचे को तोड़कर कुछ नया जोड़ने और रचने की प्रक्रिया इससे जन्म लेती थी। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म स्वीकारना, एक लालच या राजनीति से उपजा फैसला नहीं था। यह एक व्यक्ति के हृदय और धर्म परिवर्तन की घटना है, उसके द्वारा की गई हिंसा के ग्लानि से उपजा फैसला है। बाद के दिनों में बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर का बौद्ध धर्म स्वीकारना एक लंबी विचार-प्रक्रिया से उपजा फैसला था। इसी प्रकार केशवचंद्र सेन भी ईसाई धर्म में शामिल हो गए थे। उदाहरण इस बात के भी मिलते हैं कि शुरुआती दौर के कई ईसाई धर्म प्रचारक ब्रह्माण पुजारी बन गए। कुछ पादरी ब्राह्मण पुजारियों की तरह कहने लगे । इस तरह भारतीय समाज में धर्मातरण का यह लंबा दौर विचारों के बदलाव के कारण होता रहा । सो यह टकराव का कारण नहीं बना । लेकिन सन 1981 में मीनाक्षीपुरम में 300 दलितों द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण करने की घटना ने एक बड़ा रूप ले लिए । सामंतों और बड़ी जातियों के अत्याचार से संतप्त जनों की इस प्रतिक्रिया ने कथित हिंदूवादियों के कान खड़े कर दिए। सही अर्थों में मीनाक्षीपुरम की घटना आजाद भारत में धर्मान्तरण की बहस को एक नया रूप देने में सफल रही । इसने न सिर्फ हमारी सड़ांध मारती जाति-व्यवस्था के खिलाफ रोष को अभिव्यक्त दी वरन हिंदू संगठनों के सामने यह चुनौती दी कि यदि धार्मिक-जातीय कट्टरता के माहौल को कम न किया गया तो ऐसे विद्रोह स्थान-स्थान पर खड़े हो सकते हैं। इसी समय के आसपास महाराष्ट्र में करीब 3 लाख दलितों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया । 26 जनवरी 1999 को तेजीपुर (उ.प्र.) में कई दलित काश्तकारों ने बौद्ध धर्म अपना लिया । लेकिन इन घटनाओं को इसलिए संघ परिवार ने इतना तूल नहीं दिया, क्योंकि वे बौद्धों को अलग नहीं मानते । लेकिन मिशनरियों द्वारा किए जा रहे धर्मान्तरण की कुछेक घटनाओं ने उन्हें चौकस कर दिया । संघ परिवार ने धर्म बदल चुके आदिवासियों को वापस स्वधर्म में लाने की मुहिम शुरू की, जिसमें दिलीप सिंह जूदेव जैसे नेता आगे आए।

इस सबके साथ ईसाई मिशनों की तरह संघ परिवार ने भी सेवा के काम शुरू किए। इससे बिहार के झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में जमीनी संघर्ष की घटनाएं बढ़ी । जिसकी परिणति कई प्रदेशों में हिंसक संघर्ष रूप में सामने आई । कुछ समय पहले इसका इस्तेमाल कर पाक प्रेरित आतंकियों ने भी हिंदू-ईसाई वैमनस्य फैलाने के लिए चर्चों में विस्फोट कराए थे। इन तत्वों की पहचान दीनदार अंजमुन के कार्यकर्ताओं के रूप में हो चुकी है। पूर्वाचल के राज्यों में आईएसआई प्रेरित आतंकियों से चर्च के रिश्ते भी प्रकाश में आए हैं। ऐसे एकाध उदाहरण भी देश के सद्भाव व सह अस्तित्व की विरासत को चोट पहुंचाने के लिए काफी होते हैं। जाहिर है ऐसे संवेदनशील प्रश्नों पर नारेबाजियों के बजाए ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में जहां साक्षरता के हालात बदतर हैं, लोग भावनात्मक नारों के प्रभाव में आसानी से आ जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि हिंदू समाज धर्मान्तरण के कारकों एवं कारणों का हल स्वयं में ही खोजे। धर्म परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी हक है। कोई भी व्यक्ति का यह हक उससे ले नहीं सकता, लेकिन इस प्रश्न से पीड़ित जनों को चाहिए कि वे लड़ाई हिंदू समाज में पसरी अमानवीय जाति प्रथा और पाखंडपूर्ण बहुरूपिएपन के खिलाफ शुरू करें। समाज को जोड़ने, उसमें समरसता घोलने का दायित्व बहुसंख्यक समाज और उसके नेतृत्व का दावा करने वालों पर है। सामाजिक विषमता के दानव के खिलाफ यह जंग जितनी तेज होती जाएगी। धर्मान्तरण जैसे प्रश्न जिनके मूल में अपमान ,तिरस्कार, उपेक्षा और शोषण है, स्वतः समाप्त करने के बजाए वंचितों के दुख-दर्द से भी वास्ता जोड़ना जाहिए। इस सवाल पर बहुसंख्यक समाज को सकारात्मक रुख अपनाकर बतौर चुनौती इसे स्वीकारना भी चाहिए। जाहिर है इस लड़ाई को दारा सिंह के तरीके से नहीं जीता जा सकता । इसके दो ही मंत्र हैं सेवा और सद्भाव। २० लाख लोगों को मंडला में जुटाकर आरएसएस अगर आदिवासियों के मूल सवालों पर बात नहीं करता तो अकेले धर्मांतरण का सवाल इस कुंभ को सार्थक तो नहीं बनाएगा।

भाजपाई अश्वमेध का घोड़ा- कर्नाटक में क़ैद…

श्रीराम तिवारी

माननीय राज्यपाल {कर्णाटक}हंसराज भारद्वाज देश के उन बचे-खुचे कांग्रेसियों में से हैं जो न केवल विधि विशेषग्य अपितु केंद्र राज्य संबंधों के प्रखर अध्येता भी रहे हैं ; उन्होंने जब कर्णाटक के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री येदुरप्पा के खिलाफ आपराधिक मुकद्दमें की अनुमति दी तो कर्णाटक में गुंडों ने आसमान सर पर उठा लिया.

उम्मीद की जा सकती थी कि- जिस तरह विगत ६-७ साल पहले मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल भाई महावीर जी ने जब ठीक इसी तरह का निर्णय तब तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ दिया तो मध्यप्रदेश में पत्ता भी नहीं खड़का . कोई सड़क पर नहीं आया ,किसी ने बस या रेल नहीं रोकी और न किसी ने उन्हें जलाया, कर्णाटक में भी यदि भाजपा कानून-सम्मत प्रजातान्त्रिक तौर तरीके से पेश आती तो भारतीय à ��ोकतंत्र को दक्षिण भारत में एक राष्ट्रीय पार्टी के होने से और ज्यादा बल मिलता किन्तु यह उसका नौसीखियापन ही माना जायेगा कि जैसे-तैसे आजादी के ६४ साल बाद दक्षिण के ४-५ राज्यों में से एक प्रमुख राज्य कर्णाटक में अवसर तो मिला किन्तु अपने भृष्ट और दबंगी आचरण ने सब कुछ तार-तार करके रख दिया है .येदुरप्पा सरकार ने पहले तो अपनी ही पार्टी भाजपा के आलाकमान को कई बार लज्जित किया और अब राज्यप ाल के सम्मानित पद समेत कर्णाटक की आम जनता को एड्डियों-रेड्डीयों के पैरों तले कुचलने को को आतुर हो रही है .

किसी भी सरकार का पहला कर्तव्य यह होता है कि- जान-माल की हिफाजत करना; क़ानून पर अमल करना, किन्तु जिस तीव्रता से कर्नाटक सरकार ने केंद्र और राज्यपाल पर आक्रामक तेवर दिखाए, देश भर में दुष्प्रचार किया और भाजपा कार्यकर्ताओं ने कर्णाटक में बसें जलाकार ,रेलें रोककर दुकाने लूटकर कोहराम मचाया वह शासन नहीं -अराजकता है .आप सत्ता में हैं और देश के खिलाफ काम करेंगे ,जनता को परेशान करेंगे औ�¤ ° भू-माफियाओं की चाकरी करेंगे तो यह अपराध की कोटि में आता है और देश को मौजूदा दौर के अनेकानेक संकटों में इजाफा करेंगे तो आपको सत्ता से हटाना भी जनता को आता है .

जब स्वयम येदुरप्पा जी अपने सगे सम्बन्धियों को दी गई जमीने वापिस लौटाने और भू-माफिया से किनारा करने का वादा कर चुके थे तो पूरे कर्णाटक में सिर्फ इस वजह से की राज्यपाल ने मुकद्दमें की अनुमति क्यों दी ?

पूरे राज्य में अव्यवस्था फैलाना कौनसी राष्ट्रभक्ति है ? पहले भी लालूप्रसाद यादव , ए आर अंतुले ,जयललिता ,और अन्य के खिलाफ भी ऐसे ही मामले पेश हुए हैं फिर इस रेड्डी आतंक से चारित्रिक स्खलन क्यों? यदि हंसराज भारद्वाज ने अनुमति देकर कोई अनीति की है तो यह किसने कहा की आप मौखिक और संवैधानिक विरोध नहीं करें ? आप यदि देशभक्ति से सराबोर हैं तो क़ानून के अस्त्र में यकीन क्यों नहीं करते ? मानव -अधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को सजा होने पर जब इन पंक्तियों के लेखक समेत अनेक प्रजतान्त्र-वादियों ने अपना आक्रोश वेब मीडिया और अन्य माध्यमों से देश और दुनिया के समक्ष रखा तो देश की दक्षिण पंथी कतारों को यह नितांत अहिंसक और बौद्धिक प्रतिवाद भी नाकाबिले बर्दाश्त था. अब आपके सामने एक साफ़ सुथरी अवस्था में क़ानून सम्मत रास्ता है तो आप उसी राह में स्वयम रोड़े अटका रहे हैं ,बसें जला à ��हे हैं ,अंट-शंट बयानवाजी कर रहे हैं.

हाल ही में कर्नाटक के स्थानीय निकाय के चुनावों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा ; कर्णाटक भाजपा अब पूरी तरह से एड्डी -रेड्डी के हाथों में जा चुकी है .अब भाजपाई अश्वमेध का घोडा आंध्र ,तमिलनाडु ,या केरल की ओर बढ़ने के बजाय खनन+भू-माफियों की नांद का गन्दा पानी पीकर मरणासन्न हो चला है .भाजपा की सरकार ने चंद-स्वार्थियों की खातिर जनता के प्रति तमाम जिम्मेदारियों को जमींद ोज कर दिया है.गडकरी जी, आडवानी जी ,सुषमा जी और अनंत जी सब पर येदुरप्पा अकेले ही भारी हैं ;येदुरप्पा पर रेड्डी बंधू भारी हैं …इन बंधुओं की महिमा न्यारी है .वे धन बल से भाजपा हाईकमान को अपने कब्जे में ले चुके हैं .

भाजपा का शीर्षस्थ नेतृत्व और संघ-परिवार सोचतें हैं कि वे जोड़ रहे हैं हकीकत ये है कि सब मिलकर अंदर से फाड़ रहे हैं .भाजपा चाहती तो है की अमर-अकबर-अन्थोनी सबका प्यार उसे मिले पर सत्ता में आने पर उसकी कारगुजारी अवाम के खिलाफ हुआ करती है .उसके नेतृत्व में नासमझी और कच्चापन साफ़ झलकता है

भाजपा का पूरा चाल -चेहरा -और चरित्र बदल चुका है ,विचारों कि जगह गुंडा-गिरदी ने ले ली है .नेता और कार्यकर्त्ता विवेकहीन ही नहीं अपितु बातचीत कि बजाय हाथा-पाई पर उतारू होने लगे हैं ..उसका आचरण और रुझान लोकतंत्र .के खिलाफ और फासीवाद कि ओर धीरे -धीरे बढ़ रहा है ..देश कि जनता को आने वाले दिनों में भी महंगाई बढाने वाली भ्रष्ट कांग्रेस के हाथों लुटते रहने की नियति सी वन चुकी है .विपक्ष सभी जगह खंड-खंड हो रहा है .भाजपा बंगलौर से आगे बढ़ने के बजाय भू-माफियाओं, खनन-माफियाओं की देहरी पर सूर्यास्त का इन्तजार कर रही है ….

पी. के. रथ को सजा के बदले संरक्षण

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

पिछले दिनों प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने एक खबर खूब बढाचढाकर प्रकाशित एवं प्रसारित किया गया कि सुकना भूमि घोटाले में सैन्य कोर्ट मार्शल ने थल सेना के पूर्व उप प्रमुख मनोनीत लेफ्टिनेंट जनरल पी. के. रथ को दोषी करार देकर कठोर दण्ड से दण्डित किया है। जबकि सच्चाई यह है कि पी. के. रथ के प्रति कोर्ट मार्शल की कार्यवाही में अत्यधिक नरम रुख अपनाया गया है। जब एक बार सेना का इतना बड़ा अधिकारी भ्रष्ट आचरण के लिये दोषी ठहराया जा चुका है, तो सर्वप्रथम तो सुप्रीम कोर्ट के पूर्ववर्ती निर्णयों के अनुसार ऐसे भ्रष्ट अपराधी को कम से कम सेवा से बर्खास्त किये जाने का दण्ढ विभाग की ओर से दिया जाना चाहिये था और भ्रष्टाचार के मामले में दोषी पाये जाने के कारण उसे जेल की हवा खिलाई जानी चाहिये थी। इसके उपरान्त भी मीडिया बार-बार लिख रहा है कि सेना के इतने बड़े अफसर को इतनी बड़ी सजा से दण्डित करके कोर्ट मार्शल के तहत ऐतिहासिक निर्णय सुनाया गया है। मीडिया का इस प्रकार का रुख भी भ्रष्टाचार को बढावा दे रहा है। जो सजा नहीं, बल्कि संरक्षण देने के समान है।

सवाल ये नहीं है कि अपराधी कितने बड़े पद पर पदासीन है, बल्कि सवाल ये होना चाहिये कि किस लोक सेवक का क्या कर्त्तव्य था और उसने क्या अपराध किया है। यदि कोई लोक सेवक उच्च पद पर पदासीन है और फिर भी वह भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है तो ऐसे लोक सेवकों के विरुद्ध तो कठोरतम सजा का प्रावधान होना चाहिये।

33 कोर के पूर्व कमांडर को पश्चिम बंगाल के सुकना सैन्य केंद्र से लगे भूखंड पर एक शिक्षण संस्थान बनाने के लिए निजी रियल इस्टेट व्यापारी को ‘अनापत्ति प्रमाणपत्र’ जारी कर दिया और इसकी सूचना अपने उच्च अधिकारियों तक को नहीं दी। सीधी और साफ बात है कि कई करोड़ की कीमत की जमीन पर निजी शिक्षण संस्थान (जो इन दिनों शिक्षा के बजाया व्यापार के केन्द्र बन चुके हैं) के उपयोग हेतु जारी किया गया ‘‘अनापत्ति प्रमाण-पत्र’’ देश सेवा के उद्देश्य से तो जारी नहीं किया गया होगा। निश्चय ही इसके एवज में भारी भरकम राशी का रथ को गैर-कानूनी तरीके से भुगतान किया गया होगा।

ऐसे अपराधी के प्रति और वो भी सेना के इतने उच्च पद पर पदस्थ अफसर के प्रति किसी भी प्रकार की नरमी बरते जाने का तात्पर्य राष्ट्रद्रोह से कम अपराध नहीं है। इसके उपरान्त भी मात्र सेवा में दो वर्ष की वरिष्ठता कम कर देने की सजा को कठोर सजा बतलाना आम लोगों और पाठकों को मूर्ख बनाने के सिवा कुछ भी नहीं है।

अत: बहुत जरूरी है कि कानून के राज एवं इंसाफ में विश्वास रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को देश के राष्ट्रपति, प्रधाममन्त्री, विधिमन्त्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से इस मामले में हस्तक्षेप करने की मांग करके अपराधी रथ को सेना से बर्खास्त किये जाने एवं कारावास की सजा दिये जाने की मांग करनी चाहिये।

हिंसा न भवति

शाक्त ध्यानी

दिग्गी राजा ने संघ पर आरोप लगाया है कि वह सरस्वती विद्या मन्दिरों की शिक्षा में बच्चों को हिंसा का पाठ पढ़ा जाता है। संघ की शिक्षायें कोई इंटरनेट पर चलने वाले गुप्त फतवे नहीं हैं कि जिसके निर्देश पर भविष्य की रणनीति बन रही हो, जिन लोगों को सरस्वती विद्या मंदिरों की किताबें देखने का अवसर मिला हो वे जानते हैं कि उनमें देशभक्ति के अतिरिक्त कोई दूसरा पाठ है तो वह नैतिकता और चरित्र निर्माण को दृष्टि में रखकर लिख गया है। रानी लक्ष्मीबाई, महराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह, वीर बंदा वैरागी आदि…आदि। असल में बात यह है कि जिन महापुरूषों के देशप्रेम को रेखांकित एवं शिक्षाओं में शामिल किया गया है, उनकी भिड़ंत मुगलों-अंग्रेजों से हुई, कांग्रेस और मुगल शैली में ढ़ले कुछ बिके हुये इतिहासविद् जिन्होंनें कि स्वतंत्रता के बाद बच्चों का पाठ्यक्रम बनाने का धतकर्म किया, उसी के उत्तर में सरस्वती विद्या मंदिर के पाठ लिखे गये है। सिकंदर को पानी पिलाने वाले राजा पुरू को पराजित दिखाना, जिन मुगलों ने भारतीय जनता पर अमानवीय अत्याचार किये, हमारे गुरूओं को अपमानित किया, उन्हीं के गुणगान हमारे बच्चों को अब तक पढ़ाये जाते रहे हैं। हमारे बालमन में बचपन से एक पराजित जाति का अपमान पिलाकर वे षडयंत्रकारी, वे बिके हुये बाल मनोवैज्ञानिक एक लंगड़ी क्लीव प्रजाति तैयार करने में जुटे थे। संघ के विद्वानों ने उसका विरोघ किया और उन योध्दाओं और शूरमाओं का गुणगान कर सोये समाज को झिंझोड़ा, तो दिग्गी की घिग्घी बंध गई। किसी आदमी को यदि बचपन से प्रतिदिन अपमानित इतिहास रटाया जायेगा तो वह कभी भी आत्माभिमानी नागरिक नहीं बन सकता। राष्ट्रबोध उसमें जाग्रत नहीं होगा। शायद यही कारण है कि अपना पैसा विदेशों में जमा करने वाले सर्वाधिक शासक, व्यापारी, अफसर हमारे देश में हैं। आज भ्रष्टाचार में लिप्त नेता, बलात्कारी, हत्यारों के आगे यदि जनता विवश सी खड़ी है, तो यह उसी पराजय बोध के कारण है। आने वाली पीढ़ियों को समझाया जा रहा है कि यह देश तो सदा से पालथी मारकर बैठे निस्तेज संस्कृति का देश रहा है। तथ्य छुपाकर पढ़ाये जा रहे इतिहास उन लोगों को बहुत रास आते हैं जिन्हें भारत को अराजक, पराजित, और असभ्य कहने में बड़ा आनंद मिलता है। इसी कारण अपराधी यदि कैमरों के आगे विजेता की तरह दांत निपोरते हैं तो इसलिये कि उन्हें लगता है कि हम तो ऐसे ही थे। हमारा इतिहास पराजितों, अपमानितों का इतिहास है…उसे अपना अपमान अपने देश, अपनी जाति का अपमान नहीं लगता। यह हमारे शिक्षाविदों और मनस्वियों की पुस्तकों का ही कमाल है। इससे उलट संघ बच्चों को उसके अभिमान भरे अतीत का स्मरण करवाता है, गुरूओं की खड़ग का खनक सुनाता है, तो दिग्गी राजा को लगता है कि ये हिंसा है… कल कांग्रेस हमारे सेना अधिकारियों पर भी आरोप लगा सकती है कि वे आतंकवादियों को मार रहे हैं, यह हिंसा है… और क्योंकि वे हमारे वोट बैंक की प्रजाति के हैं, तो यह सांप्रदायिकता भी है। वे काली के हाथ में खून से सनी तलवार और खप्पर को कोसेंगे, राहुल बाबा कहीं भूल से किसी मंदिर में चले गये, तो कल वे दुर्गा पर भी आरोप लगा सकते हैं कि इस स्त्री ने अपने अठारह हाथों में बज्र कुल्हाड़े रखे हुये हैं, और क्योंकि संघ की शिक्षाओं में देवी-देवता भी हैं, धर्नुधर राम चक्रपाणि हैं, सभी हिंसक…बोले तो…यह मुसलमानों को डरा रही है। यह समाज की समरसता भंग कर रही है, सांप्रदायिकता और भाईचारा खत्म कर रही है…और क्या कहते हैं…हिंसा और घृणा फैला रही है। और संघ क्योंकि इन देवियों की स्तुति अपने बाल-स्कूलों में करवाता है, इसलिये संघ भी सिमी जैसा है। भाई लोग कुछ भी बोल सकते हैं कांग्रेस संघ को हिंसा से किसी भी तरह जोड़ना चाहती है ताकि आतंकियों की हिंसा को नैतिक आधार मिले, जायज ठहराया जा सके, तभी तो मलिका-ए-सदर ने हिंसा का वर्गीकरण करके आतंकवादियों को राहत का पैकेज दिया है…भारत ने कभी भी अहिंसा की बात नहीं की। अहिंसा राज्यधर्म कभी नहीं हो सकता। भारत के इतिहास में सम्राट अशोक के अतिरिक्त किसी भी राजा नें अहिंसा को राज्य का स्वर नहीं बनाया। अशोक के बाद गांधी जैसे राजनीति से जुड़े व्यक्ति ने अहिंसा का नारा चलाया जो उन्हीं के सामने बुरी तरह फ्लॉप हो गया। अशोक की अहिंसा से ही यह राष्ट्र मुगलों की दाड़ में गया, इसी कारण बुध्द से बुध्दु शब्द प्रचलन में आया क्योंकि भारतीय जनता जानती थी कि अहिंसा व्यक्ति का गुण हो सकता है, राज्य का नहीं। कांग्रेस जिस अहिंसा की बात करती है वह गांधी जी का बजाया रिकार्ड है। कांग्रेस उसे कई तरह के संगीतकारों से अलग-अलग ढंग से गवाकर विधायिका से गुजरा करवाती है।

हमारे नायक श्री कृष्ण हैं। वे महायुध्द के ठीक बीच खड़े हुये कायर अहिंसक अर्जुन की अठारह अध्याय तक मरम्मत करते हैं कि तू लड, हिंसा कर, हां इतना अवश्य है कि हिंसा क्यों, कहां, और कैसे की जाये और उसकी पात्रता क्या है? यह समझना आवश्यक है। गांधी गीता को लेकर जीवन भर भ्रमित रहे। उनका यह भ्रम स्वंतत्रता आंदोलनों में अनेक बार प्रतिबिंबित होता रहा। जब गढ़वाली ने अहिंसक सैनिक बनकर ”सीज-फायर” कहा तो गांधी ने उसकी आलोचना की, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस की भर्त्सना की और द्वितीय महायुध्द की भीषण हिंसा में भाग लेने के लिये हमारे भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के साथ भेज दिया। ये कैसी अहिंसा थी? महावीर ही इस देश में पूर्ण अहिंसक थे। वे रात को करवट भी नहीं बदलते थे कि कहीं कोई जीव-जन्तु न मर जाये…परन्तु महावीर की अहिंसा राज्य-समाज तो दूर, उनके प्रिय शिष्यों के जीवन में भी नहीं उतर सकी। दिग्गी राजा किस अहिंसा की बात कर रहे हैं….? गांधी जी का अनशन महावीर की दृष्टि में भयानक हिंसा है। इस हिंसक हथियार को असमर्थ बुजुर्ग लोग घर-घर में उपयोग करते हैं। दिशा बदल कर की गई हिंसा ही गांधी की अंहिसा थी। पुतले फूंकना क्या हिंसा-घृणा नहीं है? बचपन से हम पढ़ते थे कि औरंगजेब कितना परिश्रमी मेहनती था, बाबर अपने पुत्र को कितना प्यार करता था, हमें इन विद्यालयों में सेक्युलर बनाया गया, अपमान पीने का अभ्यस्त बनाया गया, ‘खड़ग बिना ढाल’ गवाकर करोड़ों शहीदों को विस्मृत करना सिखाया गया। सरस्वती विद्या मंदिर ने गुरूजनों पर हुये अत्याचार हमें सुनाये, प्रताप की फौलाद का स्पर्श करवाया, शिवा के खड्ग की खनक सुनाई, तो हिंसा हो गई? वाह! दिग्गी राजा!, पशुता के दर्शन पर आधारित कसाब, अफजल और माओवादियों की हिंसा दिग्गी राजा को नहीं दिखाई देती? हिंसा के पक्ष में हमारा समाज तभी खड़ा हुआ है जब किसी दुर्योधन, किसी रावण, किसी औरंगजेब ने दुर्बल पर हाथ उठाया। इसी कारण गांधी जी ने गीता को भारत का शुभंकर बनाया था क्योंकि गीता और भारतीयों की हिंसा द्वेष, जाति, व्यक्ति से ऊपर उठकर सत्य के पक्ष में खड़ी खड्ग है। इसी कारण कृष्ण ने हिंसा-अहिंसा का पाठ भीम को नहीं, अर्जुन को पढ़ाया…क्योंकि जब तक व्यक्ति गुणातीत होकर स्वार्थ रहित न हो, तब तक वह हिंसा करने का पात्र नहीं है। अतिवादियों की हिंसा मात्र हत्या है। हत्यारों को राज्य से अहिंसा की उम्मीद नहीं करनी चाहिये। अहिंसा को राज्य से जोड़कर गांधी ने सम्राट अशोक जैसी भूल की। संघ की शिक्षायें इसी भ्रम की क्षतिपूर्तियां हैं। यदि दुश्मनों को मारने वाले हमारे सैनिक पदक पा सकते हैं तो राष्ट्र प्रेम की शिक्षा देने वाले संस्थानों को कांग्रेस हिंसक क्यों कह रही है?

* ‘हलन्त’ मासिक पत्रिका के संपादक हैं।

कांग्रेसी राजनीति का पतन और डॉ. लोहिया का प्रभाव

हरिकृष्ण निगम

सन् 1967 के पश्चात् कांग्रेस के प्रभुत्व का ह्रास और स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीति का प्रथम बड़े स्तर का मोड़ जिन कारणों से आया था उसमें देश के चौथे आम चुनावों के परिणाम सर्वाधिक महत्व के माने जाते हैं। उस परिवर्तन की आंधी लाने वालों में डॉ. राममनोहर लोहिया के निर्विवादित रूप से नई शक्तियों के संघर्ष का जनक कहा जा सकता है। यद्यपि उस समय देश में उनके बड़े नेता थे जैसे मधु लिमये, भूपेश गुप्त, ए. के. गोपालन, कृपलानी, मीनू मसानी और अटल बिहारी बाजपेयी पर विरोधी दलों की वैकल्पिक सरकार की विचार धारा को मुखर रूप से लाने वालों में डॉ. लोहिया अग्रगण्य थे। पहली बार दो टूक टिप्पणी उन्होंने ही की थी कि कांग्रेस मात्र सत्ता पिपासुओं का गिरोह है इसलिए भारत के लोकतंत्र को कांग्रेस के यथास्थितवाद से मुक्त कराना होगा। उन्होंने ही सर्वप्रथम कहा था – मैं प्रतिपक्ष को प्रतिपक्ष की पार्टियां न कह कर, गैर-कांग्रेसी पार्टियां कहना अधिक पसंद करूंगा क्योंकि आज की लड़ाई कांग्रेस के ‘स्टेटस् क्वो’ अर्थात् यथास्थितवाद और प्रतिपक्ष के परिवर्तन बाद के बीच है।

यदि उस समय के परिवेश पर ध्यान दें तो पायेंगे कि उस चौथे आम चुनाव के फलस्वरूप कांग्रेस दल का प्रभुत्व व एकाधिकार जो उसे 20 वर्षों से प्राप्त था वह नष्ट हो गया क्योंकि कांग्रेस केंद्र में बहुत कम बहुमत प्राप्त कर पाई थी तथा आठ राज्यों में उसे बहुमत नहीं मिला था। राजनीतिक व्यवस्था के इस बड़े परिवर्तन को कांग्रेसी प्रभुत्व की आकस्मिक समाप्ति नहीं कहा जा सकता था। इसके बीच विरोधी दलों की बढ़ती विश्वसनीयता के साथ-साथ यदि दूसरे राष्ट्रीय नेता ने बोए थे तो उनमें चार नाम उनके प्रभावों के आधार पर लिये जा सकतेहैं। शत-प्रतिशत की अपनी कांग्रेस विरोधी की गतिविधि का आधार बनाने वाले डॉ. लोहिया और उसके बाद मधु लिमये व अटल बिहारी बाजपेयी और मीनू मसानी क्रमशः कांग्रेस के जाने के बाद अराजकता फैल जाएगी पर उस समय संयुक्त समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष एस. एम. जोशी और डॉ. लोहिया ने इसे निराधार कहकर लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने की तैयारी की बात की थी। आज ये मुद्दे प्रासंगिक न लगते हों पर उस समय नेहरू युग की छाया में रहने वले देश को इतना मुखर और स्पष्ट वैकल्पिक संदेश देना डॉ. लोहिया जैसे स्वपनदर्शी के लिए ही संभव था। यह बात दूसरी है कि कांग्रेसी एकाधिकार जैसे-जैसे अपने आस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रहा था पर इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वे कम्युनिस्ट रहित संयुक्त लोकतांत्रिक विरोधी मोर्चा लोकसभा में बनाने के सदैव सपने देखते रहे थे। राजनैतिक शक्तियों की भावी पुर्नरचना में डॉ. लोहिया के अनुसार वामपंथी और दक्षिण पंथ की भूमिका बेमतलब भी और एक सामान्य गैर-कांग्रेसवाद का प्लेटफार्म ही सर्वमान्य हो सकता था। उन्होंन चेतावनी भी दी थी कि किसी राज्य में कांग्रेस के साथ संयुक्त मंत्रिमंडल बनाना मौत को गले लगाना होगा। जिन दलों में भी कांग्रेस के हिमायती हैं वह जनमत की तेजधारा में डूब जाएंगे।

यहां यदि हम कांग्रेस वर्चस्व की समाप्ति के कारणों पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो जनता में प्रशासन के विरूध्द व्याप्त रोष के अतिरिक्त उसके अंदर स्वयं जो फूट पड़ रही थी वह भी जिम्मेदार थी। अपने दल की गुटबंदी के कारण कांग्रेस पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में पराजित हुई थी। इसी कारण नामी नेता जैसे कामराज, पाटिल अतुल्य घोष, पी. सी. सेन, कृष्ण बल्लभ सहाय, कमलापति त्रिपाठी, गुरूमुख सिंह मुसाफिर आदि पराजित हो गए थे। कांग्रेस की हार का यह एक बड़ा अन्य कारण था कि विरोधी दल अभी तक संगठित नहीं थे। यद्यपि विरोधी दलों के उद्देश्यों में कोई सहमति नहीं थी पर डॉ. लोहिया ने अप्रत्यक्ष रूप से केवल इस बात पर एकमत पैदा कर दिया था किसी न किसी तरह कांग्रेस को पराजित किया जाए। कांग्रेस की पराजय का एक बड़ा कारण क्षेत्रीय समस्याओं में अधिक उलझना, राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करना और सांप्रदायिक दंगों के पीछे कांग्रेसियों का हाथ होना भी था। न उन्हें मुसलमानों का सहयोग मिला और नही भाषा नीति के कारण दक्षिण में मतदाताओं का उन्हें सहयोग मिल पाया।

सच बात तो यह है कि 1967 में कांग्रेस की पराजय को एक आकस्मिक दुर्धटना नहीं समझना चाहिए। इस अवनति का बीज पिछले 21 सालों से पनप रहा था। एक आंकड़े के अनुसार 1952 से 1962 की अवधि में राज्यों की विधान सभा में कांग्रेस को मिले मतों का प्रतिशत धीरे-धीरे कम होता रहा था पर विरोधी दलों को सहयोग के अभाव में कांग्रेस सत्ता में कांग्रेस को मिले मतों का प्रतिशत धीरे-धीरे कम होता रहा था पर विरोधी दलों में सहयोग के अभाव में कांग्रेस सत्ता से नहीं हट सकी। 1967 में इन्हीं विरोधी दलों ने डॉ. लोहिया को साथ रख कर कांग्रेस के विरूध्द चुनाव संगठन बनाया। चौथे आम चुनाव कांग्रेस को पराजित करने के मंतव्य से ही लड़ गए थे। यह चुनाव कांग्रेस को संक्षोम उपचार या शॉक ट्रीटमेंट देने वाला था। इस पराजय ने उदासीन कांग्रेस को यह सोचने को बाध्य कर दिया वह क्या करें क्योंकि उसके अंदर स्वयं समाजवादियों, धर्मनिरपेक्ष, सांप्रदायिक, सांप्रदायिक, लोकतांत्रिक या अवसरवादी सभी वर्ग पनप रहे थे जो विश्वसनीयता को चोट पहुंचा रहे थे। नेहरू जी की विदेशनीति, विशेषकर चीन का तुष्टीकरण और तिब्बत को असहाय छोड़ देना भारतीय मानस को आहत कर चुका था। डॉ. लोहिया और मधु लिमये क ी दूरदर्शिता का यह परिणाम निकला कि 1967 के चुनाव के पश्चात् अनेक राज्यों में मिलीजुली सरकारें बनी थी जिससे कांग्रेस सत्ता प्राप्त न कर पाए। बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब में जिन कांग्रेस विरोधी पार्टियों ने मिली जुली सरकारें बनाई, उनमें जनसंघ से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी तक सम्मिलित थी। परंतु सत्ता ग्रहण करने के पश्चात् उन पार्टियों को यह अनुभव हुआ कि वे अपने-अपने-अपने उद्देश्यों की असमानता के कारण मिलकर काम नहीं कर सकती। उत्तर प्रदेश के संयुक्त विधायक दल में राज्यपाल के सहयोग से कांग्रेसी नेता सी. बी. गुप्ता को पिछले दरवाजे से मंत्रिमंडल बनाने का निमंत्रण मिला था पर वह सरकार मात्र 18 दिन चल सकी। फिर चरण सिंह का मिलीजुली सरकार का 7 अप्रैल, 1967 का मुख्यमंत्री बनना और फिर 18 फरवरी, 1968 को त्यागपत्र देना उस समय के एक बड़े मिशन की सत्ता की भूख में समा जाना सर्वविदित हैं। यही घटनाक्रम 1967 के चुनाव के बाद महामाया प्रसाद, भोला पासवान और दरोगा राय की सरकार द्वारा दोहराया गया। यही सब कुछ पंजाब में गुरनाम सिंह की सरकार के साथ हुआ था जिसने 8 मार्च, 1967 को मंत्रिमंडल बनाया था। केरल, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में भी विचारधारा से हटकर आपसी झगड़ों का बोलबाला रहा। कुछ भी हो यह तो सिध्द हो गया था कि 1967 के चुनावों के बाद कांग्रेस ने अपना एकात्म प्रभुत्व केंद्र तथा राज्यों में खो दिया था। विरोधी दलों के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया में पहली बार एक राजनीतिक विकल्प की तलाश की गई थी जिसका एक बड़ा श्रेय डॉ. लोहिया को ही दिया जाएगा यद्यपि वे स्वयं अन्य दलों की खींचतान से जीवन भर जूंझते रहे थे।

उस समय ‘संसोपा’ के विशेषण से जाने वाले डॉ. लोहिया के दल द्वारा लक्ष्यों की तलाश व उसकी अपनी छाया छवि मात्र उसकी नीतियों द्वारा नहीं बल्कि नेतृत्व की प्रकृति में भी थी। दल के नेता डॉ. लोहिया अपने गुणों के कारण तो विशिष्ट थे ही, देश के सर्वाधिक समादृत एवं लोकप्रिय प्रतिभावों में से एक थे। हिन्दी भाषी राज्यों के अतिरिक्त महाराष्ट्र, केरल और उड़ीसा में भी उन से ज्यादा भीड़ शायद किसी अन्य व्यक्ति की सभाओं में नहीं होती थी। 60 के दशक के उत्तरार्ध में एक मासिक पत्रिका ‘जन’ पत्रिका प्रकाशित होती थी। जिसके प्रधान संपादक डॉ. लोहिया होते थे। उसमें उनके विचारों की परिधि इतनी विस्तृत होती थी जो एक ओर भारत की विदेशी नीति जिसमें चीन की तिब्बत पर नियंत्रण की वैधता से लेकर पाकिस्तान की आक्रमकता पर उनके दो टूक विचार रहते थे, दूसरी ओर साहित्यकारों को भी दिशा निर्देश देनें से वे नहीं चुकते थे। आर्थिक विषयों पर उनकी पैनी दृष्टि इस पत्रिका की उपयोगिता द्विगुणित कर देता था। डॉ. लोहिया वस्तुतः एक बौध्दिक राजनीतिज्ञ और राजनीति में सक्रिय बुध्दिजीवी एक साथ कहे जाते थे।

हमारे देश की एक समय की प्रतिष्ठित व चर्चित हिन्दी पत्रिका ‘दिनमान’ जिसके संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ थे उन्होंने 13 अगस्त, 1967 के अंक में एक परिचर्चा में ‘सन 2000 का भारत कैसा होगा’ इस विषय पर डॉ. राममनोहर लोहिया जी का साक्षात्कार प्रकाशित किया था उसके अनेक अंश उनके भविष्यदर्शी रूप को प्रस्तुत करते हैं। शताब्दि के अंत में अकाल, महामारी और मृत्यु की संभावना को उन्होंने उत्पादन और वितरण की समस्या के रूप में देखा था। नेहरू जी की औद्योगीकरण एवं केंद्रीयकृत योजनाओं को आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि अपनी विवशताओं और कुंठाओं से घिरा भारत इस सदी के अंत तक परतंत्र तो नहीं पर फिर भी पश्चिम की नई गुलामी करेगा। उन्होंने कहा था – ‘अब उस तरह की गुलामी नहीं होगी जिसे हम शारीरिक गुलामी कहते हैं। वह गुलामी तो खत्म हो चुकी। मेरे ख्याल में रूस और अमेरिका किसी देश को परतंत्र न होने देंगे। लेकिन व्यापारिक गुलामी का खतरा जरूर है और गरीब देशों को इस खतरे का सामना बराबर करना होगा। हिन्दुस्तान को भी यह मानकर चलना चाहिए कि अक्षर उसने समय रहते सीख नहीं लिया तो सारा देश धीरे-धीरे व्यापारिक गुलामी के शिकंजे में आ जाएगा। यह सरकार तो खैर हमें व्यापारिक गुलामी के सिवा कुछ दे ही नहीं सकती।

लोहिया जी को लोकतंत्र के भावी स्वरूप के साथ-साथ यह भी पूर्वानुभास था कि बुनियादी सरकारों वाली दक्षिणपंथी या वामपंथी दलों की कोई मिलीजुली सरकार बनी भी तो वह अधिक दिनों नहीं चलेगी जिसके लिए एक राष्ट्रीय सरकार ही कुछ टिकाऊ और स्थायी विकल्प हो सकता है। विपक्ष ऐसी सरकार के गठन में वे तीन पार्टियों की की भुमिका साफ-साफ देख रहे थे – संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी और जनसंघ। इस संबंध में वे जनसंघ के प्रवक्ता अटलबिहारी वाजपेयी के ठोस सुझावों का खुल कर समर्थन करने लगे थे। यह उनकी सोच में एक क्रांतिकारी अंदरूनी परिवर्तन था। भाषा नीति में वे पहले से ही अटल जी का समर्थन करते थे।

डॉ. लोहिया कांग्रेस के यथास्थितवाद और अंधे नियंत्रण से देश को मुक्त करना चाहते थे। उन्होंने एक साक्षात्कार में स्थिरता को पहाड़ों और जंगलों की विशेषता माना था और परिवर्तन को मानव समाज की अनिवार्यता। स्थिरता का ढिंढोरा पीटने वाली कांग्रेस का इसीलिए उन्होंने विरोध करना अपना मिशन बनाया था और उसके एकाधिकार को वे जीवनपर्यंत चुनौती देते रहे थे। जब दूसरे दल निर्णय और अनिर्णय की स्थिति के बीच झूल रहे थे उन्होंने खुलकर निर्विवाद रूप से अपनी राह चुन ली थी।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।

डरपोक थे पंडित नेहरू : प्रो. टेंग

डॉ. मोहन कृष्ण टेंग कश्मीर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे दिसम्बर 1991 में विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या का गहनतम अध्ययन किया है। उनकी कश्मीर मामले पर कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं; जिनमें- कश्मीर अनुच्छेद-370, मिथ ऑफ ऑटोनामी, कश्मीर स्पेशल स्टेटस, कश्मीर : कांस्टीट्यूशनल हिस्ट्री एंड डाक्यूमेंट्स, नार्थिएस्ट फ्रंटियर ऑफ इंडिया, प्रमुख हैं। उनका मानना है कि कश्मीर की वर्तमान समस्या के पीछे पंडित नेहरू और भारत का राजनैतिक प्रतिष्ठान प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा न फहराने देने के प्रति उमर सरकार की प्रतिबद्धता और केंद्र सरकार की अपील को भी वे उचित नहीं मानते। उनका कहना है कि दोनों सरकारों का यह रवैया भारतीय संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ है। डॉ. टेंग पिछले सप्ताह जम्मू के अम्बफला स्थित कारगिल भवन में आयोजित जम्मू-कश्मीर : तथ्य, समस्याएं और समाधान विषयक दो दिवसीय सेमीनार में हिस्सा लेने आए थे। इसका आयोजन जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र ने किया था। इस दौरान पवन कुमार अरविंद ने उनसे विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है अंश-

 

जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय के संबंध में उमर अब्दुल्ला के बयान पर आपका क्या कहना है?

हां, मैंने भी सुना था। राज्य विधानसभा में सशर्त विलय की बात उमर ने कही थी। लेकिन ऐसा कोई समझौता तो नहीं हुआ था। विलय का अधिकार राज्यों के राजाओं को था। महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे, जो एकदम पूर्ण था। यह विलय अन्य राज्यों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था। गवर्नर जनरल ने उसको स्वीकार भी कर लिया था। विलय के हस्ताक्षर होने में नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं की कोई भूमिका नहीं थी। साथ ही उस समय के प्रजा मंडल के सदस्यों की भी कोई भूमिका नहीं थी। हालांकि 3 अक्टूबर को श्रीनगर में हुई नेशनल कान्फ्रेंस की बैठक में शेख ने विलय का समर्थन करने का फैसला लिया था। यह जनता की राय थी लेकिन इस बात को उन्होंने उजागर नहीं किया।

विलय पत्र का जो मसौदा तैयार किया गया था उसमें किसी ब्रिटिश की भूमिका नहीं थी; बल्कि गृह मंत्रालय ने तैयार किया था। इस मंत्रालय के प्रमुख सरदार पटेल थे। अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पटेल को राज्यों के विलय का विशेष जिम्मा सौंपा था। विलय का यही मसौदा वी.के. कृष्ण मेनन और माउंटबेटन को सौंपा गया था। नेशनल कांफ्रेस के किसी भी नेता को विलय की ठीक से जानकारी नहीं थी। भारत सरकार ने शेख अब्दुल्ला के दिल्ली पहुंचने से पहले ही उस फाइल को बंद कर दिया। शेख पंडित नेहरू से मिले, उनके जान के लाले पड़े हुए थे। शेख ने कहा कि किसी भी तरह से आप जम्मू-कश्मीर में सेना भेज दीजिए, विलय जैसे भी करना है आप कर लें, लेकिन जल्दी सेना भेजें, नहीं तो बहुत लोग मारे जाएंगे। जबकि विलय की प्रक्रिया पूर्ण कर फाइल बंद कर दी गई थी। इसके बावजूद आज नेशनल कांफ्रेंस इस बात को बार-बार दुहरा रही है कि सशर्त विलय हुआ था। उनका यह दावा सरासर झूठ है। उस वक्त इसकी तो बात ही नहीं हुई थी।

क्या संविधान में अनुच्छेद-370 शामिल करने के पीछे विलय की भी कोई भूमिका है?

अरे भई, 26 अक्टूबर 1947 को ही विलय का कार्य पूर्ण हो चुका था। विलय से अनुच्छेद-370 का कोई संबंध नहीं है। झगड़ा तो विलय के दो वर्ष बाद यानी 1949 में शुरू हुआ। वर्ष 1949 के मध्य तक संविधान सभा ने अपना कार्य लगभग पूर्ण कर लिया था। लेकिन यह समस्या उठ खड़ी हुई कि राज्यों का क्या किया जाए। अन्य राज्यों के विलय का मसला अभी पूर्ण नहीं हुआ था। इसको सुलझाने के लिए जम्मू-कश्मीर सहित सभी राज्यों की दिल्ली में एक बैठक हुई थी। इन राज्यों का कहना था कि यदि यही कहा जाता रहा कि विलय की प्रक्रिया पूरी हो, उसके बाद संविधान सभा बने, तो इस प्रक्रिया में 10 साल लग जाएंगे। विदित हो कि गृह मंत्रालय ने विलय के मसौदे में राज्यों के लिए अलग संविधान सभा की वकालत की थी। इस बैठक में इन राज्यों ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए भारत सरकार को संविधान बनाने के लिए अधिकृत कर दिया। इस दौरान यह तय हुआ कि उन राज्यों के शासक घोषणा-पत्र के जरिए इस निर्णय पर अपनी मुहर लगाएं। भारत के हर राज्यों के शासकों ने यह निर्णय स्वीकार किया कि भारत की संविधान सभा जो संविधान बनाएगी, उन्हें मंजूर होगा। उन शासकों में महाराजा हरिसिंह भी थे जिन्होंने ऐसी घोषणा की कि भारतीय संविधान सभा के द्वारा बनाया गया संविधान उन्हें मंजूर होगा। ये सारी बातें भारतीय अभिलेखागार में मौजूद हैं। नेशनल कान्फ्रेंस के लोगों ने यहां पर रोड़ा अटकाया। उन्होंने कहा कि यह निर्णय हमें मंजूर नहीं हैं। हम अपनी संविधान सभा में अपना संविधान बनाएंगे। हम भारतीय संविधान की कोई बात स्वीकार नहीं करेंगे। जबकि इन्सट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन में राज्यों के विलय कर लेने के बाद भारतीय संविधान की मूलभूत बातें स्वीकार करना प्रमुख रूप से शामिल था। गृह मंत्रालय ने 14 मई 1949 को नेशनल कान्फ्रेंस के नेताओं को दिल्ली बुलाया। मंत्रालय ने कहा कि विलय के मुताबिक आपको भारतीय संविधान की मूलभूत बातें स्वीकार करनी होंगी। नेशनल कान्फ्रेंस ने कहा कि हमें भारतीय संविधान की एक बातें भी स्वीकार नहीं होंगी। असल में झगड़ा यहीं से शुरू हुआ।

यदि भारत सरकार नेशनल कान्फ्रेंस की बातें नहीं मानती तो क्या होता?

कुछ नहीं होता। विलय की प्रक्रिया नेशनल कान्फ्रेंस के रोड़ा अटकाने से दो वर्ष पहले ही पूरी हो चुकी थी। विलय को नेशनल कान्फ्रेंस को मानना ही पड़ता। लेकिन सरकार ने उसको झूठ में महत्व दिया। अगर सरकार ने ये बातें नहीं मानी होतीं तो देश के ऊपर कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता। इसको लेकर नेहरू क्यों घबरा गए थे, यह समझ से परे है।

पंडित नेहरू कश्मीर की वर्तमान स्थित के लिए कहां तक जिम्मेदार हैं?

21 अक्टूबर 1947 को छद्म पाकिस्तानी सेना ने भारतीय सीमा में प्रवेश किया। 22 तारीख को सुबह पांच बजे पाकिस्तानी सेना पूरे मुजफ्फराबाद में फैल चुकी थी। इस संदर्भ में भारत सरकार का कहना था कि इसकी सूचना उसे 26 तारीख को मिली। जबकि 22 तारीख को 10.30 बजे अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के टेबल पर पाकिस्तानी सेना के दाखिले की सूचना लिखित रूप से पहुंच चुकी थी। इसके बावजूद नेहरू की हिम्मत नहीं थी कि वे गवर्नर जनरल से बातचीत करते। इसकी चर्चा दूसरे दिन लंच मीटिंग के दौरान हुई।

तो आपका कहना है कि पाकिस्तानी आक्रमण के खिलाफ नेहरू ने फैसला लेने में पांच दिन लगा दिए?

हां, यदि उन्होंने सूचना मिलने के तुरंत बाद इसके खिलाफ कार्रवाई की होती; तो न पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की समस्या उत्पन्न होती और न ही इस आक्रमण में इतने लोग मारे गए होते। इन पांच दिनों में 38 हजार लोग मारे गए। इसमें हिंदू, सिख और ब्रिटिश शामिल थे। आप कल्पना कर लीजिए, यह कोई छोटी बात नहीं है। यही नहीं नेहरू ने दूसरी बड़ी गलती यह की कि एक ओर जब भारतीय सेना पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को खदेड़ रही थी तो बीच में ही जीती हुई लड़ाई को वे संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए। उनमें लड़ने की हिम्मत नहीं थी, वह डरपोंक थे।

क्या अनुच्छेद-370 भारत की सम्प्रभुता के खिलाफ है?

इससे भारत का कोई हित नहीं जुड़ा है। यह देश की सम्प्रभुता के खिलाफ है ही; लोकतंत्र और सेकुलरिज्म की मूल भावना के भी खिलाफ है। सबसे प्रमुख बात यह है इसके कारण नागरिकों के मूलाधिकार, नागरिकता का अधिकार, सुप्रीम कोर्ट का अधिकार-क्षेत्र स्वीकार नहीं है। यही भारतीय संविधान का मूल है।

अनुच्छेद-370 हटाने से कश्मीर समस्या समाप्त हो जाएगी, आपका क्या कहना है?

जम्मू-कश्मीर की समस्याएं हिंदुस्तान की सारी समस्याओं का एक प्रमुख हिस्सा है। दूसरी बात यह है कि कम से कम एक जो अनिश्चितता है वो तो खत्म हो जाएगी। भारतीय संविधान की दृष्टि से समानता के साथ ही जम्मू-कश्मीर और देश के अन्य राज्यों के नागरिकों के बीच भी समानता आ जाएगी। जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की नागरिकता दोहरी नहीं रह जाएगी। दो विधान और दो निशान खत्म हो जाएंगे।

क्या भारतीय संसद अनुच्छेद-370 को समाप्त कर सकती है?

हां, वह ऐसा कर सकती है। यह अनुच्छेद-370 भारतीय संविधान में अस्थाई संक्रमणकालीन विशेष उपबंध के रूप में शामिल किया गया था; फिर हटाने में कोई समस्या नहीं है। संसद के पास संशोधन और अभिनिषेध; दोनों करने का अधिकार है। लेकिन इसके लिए हमारे नेताओं के पास दृढ़-इच्छाशक्ति का अभाव है, नहीं तो यह समस्या कभी समाप्त हो जाती। संसद केवल संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं जा सकती।

कश्मीर की वर्तमान समस्या के पीछे क्या आप अमेरिका की भी कोई भूमिका देखते हैं?

नहीं, अमेरिका की कोई भूमिका नहीं है। मेरा मानना है कि पहले भी कोई भूमिका नहीं रही है। पाकिस्तान को छोड़कर किसी अन्य देश की ऐसी कोई भूमिका नहीं है। इस समस्या के पीछे भारत का राजनैतिक प्रतिष्ठान ही मूल रूप से जिम्मेदार है।

लाल चौक पर तिरंगा न फहराने देने की उमर सरकार की प्रतिबद्धता कहां तक उचित है?

यह सरासर अनुचित और संविधान के विरूद्ध है। यही बात तो अलगाववादी भी कर रहे हैं। फिर सरकार और अलगाववादियों में क्या अंतर बचता है।

लेकिन राज्य और केंद्र की सरकार एक स्वर में बोल रही थीं कि तिरंगा फहराने से राज्य में काफी समय बाद स्थापित अमन-चैन बिगड़ने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा?

जहां तक तिरंगा फहराने की बात है तो केवल इतना ही होता न कि दो चार आतंकवादी आ जाते और गोली चलाकर कुछ लोगों को मार डालते, इससे ज्यादा तो कुछ नहीं होता। इसके बावजूद भाजपा कार्यकर्ताओं को तिरंगा फहराने नहीं दिया गया। वे तो प्राणों की आहुति देने को भी तैयार थे। उन्हें पठानकोट और माधवपुर में रोक दिया गया। क्या आप अमन-चैन के बहाने राष्ट्र-ध्वज को फहराने से किसी को रोक सकते हैं? दरअसल भारत सरकार के पास कोई साहस ही नहीं है; नहीं तो कोई कड़ा कदम उठाती।

केंद्र द्वारा नियुक्त वार्ताकारों का दल कश्मीर समस्या को सुलझाने की दिशा में क्या कुछ आवश्यक पहल कर पाएगा, आपको क्या लगता है?

सबसे मुख्य बात है कि वार्ताकारों में किसी को भी जम्मू-कश्मीर की स्थानीय भाषा की जानकारी नहीं है। फिर ये त्रि-सदस्यीय वार्ताकार स्थानीय लोगों की भाषा कैसे समझते होंगे। मुझे तो इसी बात पर हैरानी हो रही है। राज्य के संदर्भ में आवश्यक पहल तो दूर की कौड़ी है।

जम्मू-कश्मीर से संबंधित आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (एएफएसपीए) को हटाने या इसके नियमों में ढील देने की मांग उठती रहती है, कहां तक उचित है?

कुछ नहीं, यह केंद्र और राज्य सरकार कर रही है। ये बेकार का प्रोपेगंडा है। यदि इसमें संशोधन होगा तो सेना के पास कार्य करने का कोई रास्ता नहीं बचेगा, उसके हाथ बंध जाएंगे।

सरकार अलगाववादियों के आगे घुटने न टेके!

लालकृष्ण आडवाणी

भाजपा के युवा मोर्चा ने इस गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने के लिए कोलकाता से श्रीनगर तक की तिरंगा यात्रा शुरु की है। 12 जनवरी से कोलकाता से शुरु हुई यात्रा सात प्रदेशों से गुजरते हुए 20 जनवरी को दिल्ली पंहुची।

उस शाम को 5 बजे नई दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल भवन प्रांगण में मैंने सांसद और भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर को श्रीनगर में फहराए जाने वाला तिरंगा सौंपा।

इसके कुछ ही घंटाें बाद जम्मू-कश्मीर सरकार ने अधिकारिक तौर पर घोषित किया कि वे लाल चौक पर भाजपा को राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराने देंगे क्योंकि यह एक ”ऐसा कार्यक्रम है जिससे राज्य में शांतिपूर्ण माहौल के बिगड़ने की संभावनाएं हैं।”

नई दिल्ली के युवा मोर्चा कार्यक्रम और जम्मू एवं कश्मीर राज्य सरकार की उपरोक्त घोषणा की अगली सुबह मुंबई के ‘फ्री प्रेस जर्नल‘ समाचारपत्र ने इस बैनर शीर्षक से प्रकाशित किया ”लाल चौक कैन टर्न ग्रीन, नॉट सफरॉन” (Lal chowk can turn Green, not Saffron ) इसमें श्रीनगर के लाल चौक का फोटो भी प्रकाशित किया गया जिसमें एक पाकिस्तानी झंडे के साथ प्रकाशित एक उप-शीर्षक कुछ इस तरह है ”श्रीनगर के लाल चौक पर पिछले वर्ष ईद पर भारतीय मीडिया के सामने पाकिस्तानी झण्डा फहराया गया।”

इस समाचार का प्रकाशन और प्रस्तुतिकरण, मुझे लगता है कि राज्य सरकार की हमारी एजेंसियों (स्पष्ट तौर पर राज्य सरकार ने केन्द्र सरकार की सहमति से ही कदम उठाया है,) द्वारा लिए गये निर्णय से होने वाली भयावह शर्म का अहसास कराने के लिए काफी होगा।

यदि प्रतिबंधात्मक आदेशों का आधार शांतिभंग की आशंका है तो यह प्रतिबंध उनके विरुध्द होना चाहिए जिन्होंने ऐलान किया है कि वे लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहराने देंगे, न कि उनके विरुध्द जो बार-बार दोहरा रहें हैं कि वे लाल चौक पर शांतिपूर्ण एवं सम्मानपूर्वक तिरंगा झंडा फहराएंगे।

20 जनवरी के कार्यक्रम में, मैंने उपस्थित कार्यकर्ताओं को केन्द्रीय गृहमंत्री के रुप में अपनी एक लंदन यात्रा का स्मरण कराया था। मैं एक भारतीय कम्पनी के स्वामित्व वाले होटल में रुका था। उसके मैनेजर मेरे पास आए और अपनी एक समस्या बताई। उन्होंने बताया कि लंदन में गैर -ब्रिटिशों के स्वामित्व वाले होटलों पर वे अपने देशों का झण्डा फहराते हैं। लेकिन भारत में झण्डा संहिता प्रतिबंध होने के कारण, हम ऐसा नहीं कर सकते। क्या इस सम्बन्ध में कुछ किया जा सकता है। मैंने उन्हें आश्वासन दिया कि मैं इस मामले की जांच कराऊंगा।

ब्रिटेन से वापस आने के बाद मैंने तब प्रभावी झण्डा संहिता की समीक्षा हेतु गृहमंत्रालय की बैठक बुलाई। राष्ट्रीय तिरंगा फहराने का अधिकार केवल सरकारी अति विशिष्ट व्यक्तियों और सामान्य भारतीय नागरिकों को इसे 26 जनवरी और 15 अगस्त को ही इसे फहराने तक सीमित क्यों रखा जाए?

मंत्रालय में इस समुचे मुद्दे पर विचार करने के लिए संयुक्त सचिव डा0 पी.डी.शिनॉय की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई। मैंने उनका ध्यान इस ओर दिलाया कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों और ऐसे ही खेलों के दौरान दर्शक कुछ उपलब्धियों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। तत्कालीन संहिता के तहत तकनीकी रुप से यह भी एक अपराध है।

संशोधित संहिता के प्रारूप को केंद्रीय मंत्रिमण्डल ने स्वीकृति दी और इसे झण्डा संहिता भारत 2002 के रूप में जारी किया। यह 26 जनवरी 2002 से प्रभावी हुआ।

संहिता का पहला अनुच्छेद कहता है:

”सामान्य नागरिकों, निजी संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों इत्यादि द्वारा राष्ट्रीय झण्डे के प्रदर्शन पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा सिवाय चिन्हों और नामों (अनुचित उपयोग पर प्रतिबंध) कानून एम्बेलम्स एण्ड नेम्स (प्रिवेंशन ऑफ इम्प्रोपर यूज़) एक्ट 1950 और राष्ट्रीय सम्मान के अपमान निवारक हेतु कानून (प्रिवेंशन ऑफ इंसल्ट्स टू नेशनल ऑनर) एक्ट 1971 तथा इससे सम्बन्धी अन्य प्रभावी कानूनों के प्रावधानों को छोड़कर।”

लगभग उसी समय गृह मंत्रालय ने तत्कालीन प्रचलित झण्डा प्रतिबंधात्मक संहिता के सम्बन्ध में अनेक नागरिकों द्वारा उठाई गई आपत्तियों को ध्यान में लिया। दिल्ली के एक नागरिक और वर्तमान में सांसद नवीन जिंदल इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले गए।

सर्वोच्च न्यायालय ने जिंदल केस में अपने निर्णय में राष्ट्रीय झण्डे फहराने को नागरिकों का मौलिक अधिकार ठहराया सिवाय उन कानून सम्मत प्रतिबंधों को छोड़कर जो उपरोक्त कानूनों में उल्लिखित किए गए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा:

”अति प्राचीन काल से लोगों ने अपने झण्डों के लिए अपने जीवन के बलिदान दिए हैं। वस्तुत: कपड़े के इस टुकड़े जिसे राष्ट्रीय झण्डा कहा जाता है में ऐसा अवश्य ही कुछ है जिसके लिए लोग सर्वोच्च बलिदान भी करते हैं। राष्ट्रीय झण्डा समूचे राष्ट्र, इसके आदर्शों आकांक्षाओं, आशाओं और उपलब्धियों का प्रतीक है। जब लोगों का अस्तित्व ही खतरे में हो तब यह उन्हें प्रकाशपुंज की तरह प्रकाश देने वाला होता है। उस खतरे के समय इस झण्डे की लंबाई लोगों को इस छाते के नीचे करता है।”एकजुट होने की प्रेरणा देती है और अपनी मातृभूमि के सम्मान की रक्षा करने का आग्रह करती है।

मैं चाहता हूं कि प्रधानमंत्री इस बात का अहसास करें कि अनुराग ठाकुर के नेतृत्व में ये युवा कोई राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास नहीं कर रहे अपितु अलगाववादियों को चुनौती दे रहे हैं और सरकार उनके (अलगाववादियों) के सामने घुटने टेक रही है। (23 जनवरी, 2011)

जेएनयू छात्र प्रतिवाद का स्वर्णिम पन्नाः इंदिरा गांधी वापस जाओ

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

जेएनयू में रहते हुए अनेक सुनहरे पलों को जीने का मौका मिला था। जेएनयू के पुराने दोस्तों ने काफी समय से एक फोटो फेसबुक पर लगाया हुआ है। यह फोटो और इसके साथ जुड़ा प्रतिवाद कई मायनों में महत्वपूर्ण है। छात्र राजनीति में इस प्रतिवाद की सही मीमांसा होनी चाहिए। उन छात्रों को रेखांकित किया जाना चाहिए जो पुलिस लाठाचार्ज में घायल हुए। उन छात्रनेताओं की पहचान की जानी चाहिए जो नेतृत्व कर रहे थे। उन परिस्थितियों का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए जिसमें यह प्रतिवाद हुआ था।

संभवतः 30 अक्टूबर 1981 का दिन था वह। इस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.श्रीमती इंदिरागांधी जेएनयू में आयी थीं। याद करें वह जमाना जब श्रीमती गांधी 1977 की पराजय के बाद दोबारा सत्ता में 1980 में वापस आयीं। जेएनयू के छात्रों के प्रतिवाद का प्रधान कारण था कि आपातकाल में लोकतंत्र की हत्या में वे अग्रणी थीं,जेएनयू के छात्रों के दमन में भी वे अग्रणी थीं। स्कूल आफ इंटरनेशनल स्टैडीज के तत्कालीन डीन के.पी मिश्रा ने उन्होंने स्कूल के 25 साल होने पर बुलाया था,छात्रों ने आमसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करके उनके आने का विरोध किया था। मैं उस समय कौंसलर था।

छात्रसंघ का एक प्रतिनिधिमंडल वी.भास्कर ,अध्यक्ष छात्रसंघ के नेतृत्व में तत्कालीन कुलपति नायडुम्मा को छात्रों के विरोध और प्रतिवाद से अवगत करा चुका था। इसी बीच में छात्रसंघ के चुनाव आ गए और 22 अक्टूबर1981 को नयी लीडरशिप आ गयी जिसमें सारा नेतृत्व एसएफआई और एआईएसएफ के हाथ में अमरजीत सिंह सिरोही अध्यक्ष ,अजय पटनायक,महामंत्री,आर.वेणु उपाध्यक्ष,सोनिया गुप्ता सहसचिव थीं। रोचक बात यह थी कि मैं उपाध्यक्ष का चुनाव 18 वोट से हार गया था। दो-तिहाई बहुमत से एसएफआई-एआईएसएफ मोर्चा जीता था।

चुनाव में श्रीमती गांधी के प्रतिवाद का सवाल प्रमुख सवाल था और नये नेतृत्व पर इसकी जिम्मेदारी थी। मैं उस समय एसएफआई का यूनिट अध्यक्ष और राज्य का उपाध्यक्ष था। कैंपस में श्रीमती गांधी के आगमन के खिलाफ जितना गहरा आक्रोश मैंने उस समय देखा था वह आज भी जेएनयू छात्रों की प्रतिवादी लोकतांत्रिक भावनाओं की यादों को ताजा कर रहा है। सारा कैंपस श्रीमती गांधी के खिलाफ प्रतिवाद पर एकमत था। मुझे याद है कर्मचारियों का जिस तरह का समर्थन हमें मिला था वह बहुत महत्वपूर्ण था। के.पी.मिश्रा-नायडुम्मा की लॉबी को कैंपस में अलग-थलग करने में हमें जितना व्यापक समर्थन मिला था उसने छात्रों के हौसले बुलंद कर दिए थे।

(श्रीमती इंदिरा गांधी के आगमन का विरोध करते हुए जेएनयू छात्र)

याद पड़ रहा है कि श्रीमती गांधी के भाषण को दिल्ली के किसी आखबार ने हैडलाइन नहीं बनाया था सभी अखबारों में एक ही बड़ी खबर थी जेएनयू के छात्रों का प्रतिवाद और मुखपृष्ठ पर लाठीचार्ज की खबरें,लाठीचार्ज के बाद छात्रनेताओं की गिरफ्तारी और कैंपस में जो फूलों के गमले टूटे थे उसकी खबरें।

दूरदर्शन पर श्रीमती गांधी के भाषण के अंश भी दिखाए गए थे जिसमें वे भाषण दे रही थीं और पृष्ठभूमि में हजारों छात्रों-कर्मचारियों के कंठों से निकला एक ही नारा गूंज रहा था ‘ इंदिरा गांधी वापस जाओ।’ कुल मिलाकर 15 मिनट उन्होंने भाषण दिया और भाषण के दौरान सभास्थल पर अंदर प्रत्येक 30 सैकिण्ड में एक छात्र उठ रहा था और नारा लगा रहा था ‘इंदिरा मुर्दाबाद’,’इंदिरा गांधी वापस जाओ।’

छात्रसंघ का फैसला था कि इस समारोह का बहिष्कार करेंगे। साथ ही सभा के पण्डाल में जाकर प्रत्येक 5 सीट के बाद हमारा एक छात्र रहेगा जो उनके भाषण के दौरान उठकर प्रतिवाद करेगा। तकरीबन 30 छात्रों की उस दौरान गिरफ्तारी हुई थी। समूचे पण्डाल में पुलिस ही पुलिस थी कुछ शिक्षक और अधिकारी भी थे। पुलिस की सारी चौकसी भेदकर छात्रों ने पण्डाल में प्रवेश किया था,सभी परेशान थे कि आखिरकार भीतर कैसे जाएंगे। लेकिन हम लोगों ने किसी तरह सेंधमारी करके छात्रों को अंदर घुसेड़ने में सफलता हासिल कर ली थी। जब श्रीमती गांधी अंदर भाषण दे रही थीं बाहर कई हजार छात्र-कर्मचारी एकस्वर से नारे लगा रहे थे। नारों का इतना जबर्दस्त असर और छात्रों-कर्मचारियों और प्रतिवादी शिक्षकों की ऐसी एकता जेएनयू के इतिहास में विरल थी।

श्रीमती गांधी के कैंपस में आने के पहले से ही नारों से आकाश गूंज रहा था और जब वो आई तो पहलीबार इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने और जेएनयू वीसी के ऑफिस के सामने से पुलिस की घेराबंदी को तोड़ने की एकजुट कोशिश आरंभ हुई और पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज शुरू हुआ। मुझे याद है उस समय हिंसा छात्रों ने आरंभ नहीं की थी। जेएनयू के दोनों गेट पर छात्र और कर्मचारी प्रतिवाद कर रहे थे।हरबंस मुखिया आदि कुछ शिक्षक भी उसमें शामिल थे। नारेबाजी चल रही थी स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने और वीसी ऑफिस के सामने। अचानक पुलिस ने नारे लगाते छात्रों को जबर्दस्ती ठेलने की कोशिश की थी इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने और फिर लाठीचार्ज किया जिसमें मुझे पीटते हुए पुलिस ने सबसे पहले गडढे में गिरा दिया उसके बाद छात्रों ने जमकर प्रतिवाद किया।

वीसी ऑफिस के सामने वहां सिरोही छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में नेतृत्व कर रहे थे उन्होंने श्रीमती गांधी की कार पर लंबी छलांग लगाई और वे किसी तरह 6-7 मीटर लंबी जंप के बाद श्रीमती गांधी की गाड़ी के सामने सारी सुरक्षा व्यवस्था को तोड़कर जाकर गिरे ,उन्हें पुलिस ने पकड़ा।दोनों ओर तेज लाठीचार्ज हुआ था,200 से ज्यादा छात्रों को चोटें आईं। अनेक को गिरफ्तार करके पुलिस ले गई।

जेएनयू में प्रतिवाद का यह शानदार दिन था।मुझे याद है इंटरनेशनल स्टैडीज के सामने हम सैंकड़ो छात्रों के साथ प्रतिवाद कर रहे थे,मेरे साथ सुहेल हाशमी भी थे, मैं पुलिस की लाठी खाने से डर रहा था,उन्होने मुझे ठेलकर आगे किया और कहा डरो मत,मैंने उस दिन के लिए नई ब्लैक शर्ट बनवायी थी,छात्र ब्लैक बिल्ले लगाए हुए थे। पुलिस की पिटाई से मेरी शर्ट फट गयी, जिस समय पहली लाठी मेरे ऊपर पड़ी थी छात्रों में तो जबर्दस्त आक्रोश की लहर दिखी ही थी साथ ही सबसे आगे आकर हरबंस मुखिया साहब ने चीत्कार करते हुए प्रतिवाद किया था। मजेदार बात यह थी कि मैं उपाध्यक्ष का चुनाव हारा था। वेणु जीता था। वह कहीं नहीं दिख रहा था। प्रतिवाद के बाद नेताओं और छात्रों को पुलिस जब पकड़कर ले जा रही थी तो संभवतः वह पीछे से किसी तरह जाकर गिरफ्तार छात्रों में शामिल हो गया, उस समय उसके फ्री थिंकर्स दोस्तों ने भेजा कि जाओ वरना नाक कट जाएगी। हमारे संगठन का निर्णय था कि मैं गिरफ्तारी नहीं दूँगा बाहर रहूँगा लेकिन पुलिस वाले सबसे पहले लाठीचार्ज करते हुए मुझे ही पकड़कर ले गए।याद पड़ रहा है जिस समय वे पीट रहे थे उस समय एक थानेदार ने मुझे पिटने से बचाया,वह थानेदार जानता था मुझे । क्योंकि उसका एक भाई हरियाणा में एसएफआई करता था।वरना उसदिन मैं बहुत पिटता। लेकिन मुझे पुलिस लाठी खाने के लिए आगे ठेलने के लिए मैं आजतक सुहेल को याद करता हूँ।

इस प्रतिवाद का शानदार पक्ष था कुलपति का लाठीचार्ज के लिए लिखित माफी मांगना और श्रीमती गांधी को बुलाने के फैसले पर खेद व्यक्त करना। जेएनयू में इसके पहले किसी कुलपति ने अपने फैसले पर इस तरह दुख व्यक्त नहीं किया था। यह हमारे लोकतांत्रिक आंदोलन की सफलता थी कि विश्वविद्यालय को अपने फैसले पर अफसोस जाहिर करना पड़ा। सारे छात्रनेताओं को तत्काल रिहा किया गया और सारे मामले वापस लिए गए। यह सब कुछ हुआ अहिंसक ढ़ंग से।

वैमनस्य की राजनीति

अवध किशोर  

व्यक्तिवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, स्वार्थवाद तथा भाई-भतिजावाद इन सभी वादों से बड़ा राष्ट्रवाद है। राष्ट्रहित ही सर्वोपरि है। इस देश के प्रत्येक नागरिकों के मन और मस्तिष्क में यह बात बैठनी चाहिए, तभी और केवल तभी राष्ट्रवाद बढ़ेगा और अपना राष्ट्र परमवैभव के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठापित होगा, कर्तव्य पथ पर निरन्तर चलते हुए कटिले-पथरीले मार्ग पर बढ़ते हुए, अनेक थपेड़ों को सहते हुए, अनथक और अडिग रहते हुए, सत्य मार्ग पर सतत चलते हुए, जो पथिक कालचक्र के माथे पर पौरुष की भाषा अंकित कर लक्ष्य से पल भर भी ओझल न हो, ऐसे श्रेष्ठ कर्तव्य पथ का निर्माण करता है। आने वाली पीढ़ी को प्रेरणा दें। राष्ट्रवाद की वैचारिक अधिष्ठान है, राष्ट्रहित में स्वहित को तिलांजलि और ”मैं नहीं तू” की भावना से प्रेरित हो जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के द्वारा सम्पूर्ण समाज की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना। जो देश-हित समाज-हित के लिए नहीं जीते-मरते हैं उनका लक्ष्य सबका सुख ही होता है, वे चुनौतियों से घबड़ाते नहीं, अनेक प्रकार के प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वे बढ़ते रहते हैं, यही कारण है कि विजयश्री उनका ही वरण करती है, ऐसे राष्ट्रभक्तों की धड़कने और श्वास भी इस मातृभूमि के लिए ही होती है, अवसर आने पर वे अपना सबकुछ न्योछावर कर जाते हैं। आज राष्ट्र संक्रमण काल से गुजर रहा है, आतंकवाद, अशिक्षा, मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ने इसे चारों तरफ से जकड़ लिया है। माँ भारती चित्कार कर रही है। राजनीतिक वैमनस्व का भाव राष्ट्र की उन्नति की दिशा में सभी तरफ दिख रहा है, जबकि होना यह चाहिए कि परस्पर के सभी भेदभाव, मन-मुटाव तथा खींच-तान को भुलाकर राष्ट्रहित के विषयों में सभी का सोच एक हो। इन विषम परिस्थितियों में भी जो राष्ट्रवादी शक्तियाँ राष्ट्रसाधना में लगी है, उन्हें जड़मूल से उखाड़ने के लगातार प्रयास चल रहे हैं, इतिहास साक्षी है जब भी इन राष्ट्रवादी शक्तियों को उखाड़ फेंकने और नष्ट करने हेतु दमन चक्र का सहारा लिया गया, इस बोझ का राष्ट्रीय समाज ‘हिन्दू’ आग में तप कर कुन्दन बना व अग्नि परीक्षा में सफल हुआ, साथ ही छद्म सेकुलरवाद, परिवारवाद और वितंडावाद की पराजय हुई, उन्हें राष्ट्रवादी ताकतों के सामने घुटने टेकने पड़े। इस देश का राष्ट्रीय समाज जड़ों से जुड़ा है, वह प्रतिदिन माँ भारती की भक्ति-अर्चना कर अलख जगाए हुए है। जब भी राष्ट्र पर संकट आया राष्ट्रवादी शक्तियों ने एकजुटता दिखाई चाहे वह देश का विभाजन हो या फिर आपातकाल हो या फिर देशी-विदेशी मूल का प्रश्न हो।

आजादी के बाद सेकुलरवाद का प्रचलन एक फैशन के रूप में जोड़ पकड़ा, इस लक्ष्य का राष्ट्रवादी शक्तियों को हतोत्साहित करना। वास्तव में सेकुलरवाद का हेतु विशुध्द स्वार्थ से जुड़ा है, यह देश सेक्युलर नहीं आध्यात्मिक राष्ट्र है, मुख्य कारण सर्वपंथ समादर की भावना सनातन काल से परम्परा में चला आ रहा है। सबका समान रूप से हित साधन हो ऐसी व्यवस्था हमारे मनिषियों ने की। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का उद्धोष हमारे मनिषियों ने किया। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के साथ ही प्राणी मात्र के सुख की कामना की। सेक्युलर शब्द का प्रयोग विशुध्द रूप से राजनीति से प्रेरित है, यह वोट बैंक की राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं है, नेता अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रहित का विचार करते ही नहीं, जनता से वादे करते हैं चुनाव जीतने के लिए सभी प्रकार के हथकण्डे अपनाते हैं। सत्ता प्राप्ति के लिए ये जाति के आधार पर प्रत्याशी खड़े करते हैं और साथ ही निर्दलीय प्रत्याशी खड़ा कर खर्चा उनके नाम दिखाते हैं ताकि चुनाव आयोग का डण्डा न पड़े। वोटरों में पैसा बाँटते हैं, इस प्रजातन्त्र में भ्रष्टतंत्र हावी है, वोटर खरीदें जा रहे हैं, जो वोट खरीद कर सत्ता पर कब्जा करेगा वह भला पहले अपना जेब क्यों नहीं भरेगा। भ्रष्टाचार की अमरवेल दिनोंदिन फैलती जा रही है। इस देश का आम आदमी सबकुछ सुनकर फिर चुप मारकर बैठने का आदि बन चुका है। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला और टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश क े परिवार के सदस्यों के सम्मिलित होने के मामले प्रचार में आए हैं। जीप घोटाले से लेकर टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले तक कांग्रेस के हाथ रंगे हैं, उसके दामन में दाग ही दाग है। जो शीशे के महल में रहते हैं, वे दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते। घोटाले, भ्रष्टाचार तथा मंहगाई से घिरी यह केन्द्र सरकार जनता का ध्यान बटाने हेतु दुष्प्रचार की राजनीति के तहत राष्ट्रभक्तों पर कीचड़ उछाल रही है, संघ को बदनाम करने की नाकाम कोशिश कर रही है।

प्रख्यात गांधीवादी चिंतक दादा धर्माधिकारी ने राष्ट्र के तीन शत्रुओं का जिक्र किया है । वे हैं ः माओ, माफिया तथा मिशनरी है। जेहादी शक्तियों की जड़ों का पोषण सरकार के गलत नीतियों के चलते हो रहा है, विदेशी शक्तियों के षड्यन्त्र का जाल इस देश को जकड़ लिया है, इन सभी समस्याओं से हटकर सरकार बदले की राजनीति के अन्तर्गत आतंकवाद के सामने राष्ट्रवादी शक्तियों को खड़ा करने की कोशिश कर रही है, इस देश को तोड़ने हेतु विश्व के अनेक देशों की एजेन्सियां काम कर रही हैं, इनके साथ ही केन्द्र सरकार राष्ट्रवादी शक्तियों के बढ़ते प्रभाव से घबड़ाकर जाँच ऐजेन्सियों का दुरुपयोग कर देश में एक ऐसा वातावरण बना रही है जिससे हर आदमी का मन-मस्तिष्क आन्दोलित हो रहा है। कहते ही हैं राजनीति में सबकुछ जायज होता है, जनतंत्र मेें जनता के हितों का ध्यान रखना ही चाहिए आज जनता त्रस्त है, और सरकार मस्त है, प्याज और पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं। जमाखोरी और कालाबाजारी चरमोत्कर्ष पर है, कहां चला गया प्याज और लहसून। बात प्याज और लहसून की नहीं आम जरुरत की वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं, जनता के जेब पर डाका और बहुतों के घरों में फांका चल रहा है, समय का ऐसा बहुत बड़ा वर्ग है जो 20 से 25 रुपये रोज में गुजारा कर रहा है। साथ ही सरकार के अफसर और नेता घोटाले में डूबे हुए हैं। कितनी बड़ी असमानता है इस देश में यह खाई कैसे पटेगी? यह एक विचारणीय प्रश्न है इस देश में घोटाला कब रूकेगा? इस प्रश्न का उत्तर किसके पास है, शायद किसी के पास नहीं? बिना घोटाले, भ्रष्टाचार और मंहगाई को रोके बिना देश की उन्नति नहीं हो सकती। राजनेता सत्ता की दौड़ में एक-दूसरे के टांग खींचने में लगे हैं इस काम से उन्हें फुर्सत नहीं कि एकजुट हो इन राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार करें, लम्बे-चौड़े लुभावने भाषण से जनता को छलने के अलावा राष्ट्रहित में राष्ट्रीय समस्याओं से निपटने हेतु कारगर कदम उठाने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए। यह समय की मांग है, जनता सबकुछ समझती है, बहुत समय तक बहुत लोगों को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। इसलिए प्रपंचवाद और पाखंडवाद का आडम्बर छोड़कर राष्ट्रहित के मुख्य विषय महंगाई और भ्रष्टाचार से निपटने हेतु एकजुटता दिखाने की आवश्यकता है।

वर्ष 2011 में क्या मिलेगे यक्ष प्रश्नों के उत्तर?

मृत्युंजय दीक्षित

समय चलता रहता है वह कभी नहीं रूकता और नहीं किसी यातायात व्यवस्था का इंतजार करता है न ही किसी के भाग्य धर्म, अर्थ और काम की चिंता करता है ।बिना किसी तनाव व अस्वस्थता के वह बराबर चलता रहता है। लेकिन फिर भी समय के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। यह समय ही तो है कि हम सभी लोग सोचतें ही रहे कि अभी तो पूरा दिन सप्ताह व महीना पड़ा है। लेकिन समय व घड़ी की सुई यह नहीं सोचती की वे चलती रहती हैं अनवरत। इसी प्रकार विभिन्न प्रकार की अच्छी व बुरी गतिविधियों आधे-अधूरे स्वप्नों की याद में एक वर्ष और बीत गया। अर्थात् अब वर्ष 2010 हम सबसे विदा ले चुका है। हर वर्ष के समापन अवसर पर समाज का प्रत्येक वर्ग व समाज का हर नागरिक वर्ष भर की गतिविधियों व क्रियाकलापों की समीक्षा करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्ण-अपूर्ण सपनों की भी समीक्षा करता है तथा आगामी नूतन वर्ष में उनको पूर्ण करने का फिर संकल्प लेता है। इसी प्रकार वर्ष 2010 का एक बार फिर पूर्वावलोकन किया जा रहा है। वर्ष 2010 भारतीय राजनीति, न्यायिक व कानून व्यवस्था, विदेश नीति व अन्य विभिन्न क्षेत्रों यथा – फिल्म, टी.वी., साहित्य, विज्ञान और खेल जगत की गतिविधियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण रहा। वर्ष के अंत में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान की परियोजना जी एस एल वी को गहरा आघात लगा। इस वर्ष आतंकवादी घटनाएं तो बहुत कम रहीं लेकिन फिर भी आतंक का साया वर्ष भर छाया रहा । भारत की सुरक्षा व खुफिया एजेंसिंया वर्ष भर हाई एलर्ट पर रहीं। आखिरकार वर्ष के अंत में इस्लामी चरमपंथियों ने वाराणसी के गंगा घाट को गंगा आरती के दौरान विस्फोट करके अपनी उपस्थिति दर्ज करा ही दी। नक्सलवाद की समस्या वर्ष भर कायम रही और कई अवसरों पर बड़े खूनी खेल खेलकर अपने मिजाज से देशवासियों व केंद्र सरकार को परिचित कराते रहे। नक्सलवाद से देश का आर्थिक तंत्र बहुत अधिक प्रभावित हो रहा है।

वर्ष 2010 राजनैतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण वर्ष रहा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए – 2 का कार्यकाल विवादों के घेरे में आ गया है। प्रधानमंत्री बेहद कमजोर व नाकाम साबित हो रहे हैं विशेषकर भ्रष्टाचार और महंगाई के मामलों में । जबकि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रधानमंत्री ने सराहनीय उपस्थिति दर्ज करायी है। जम्मू और कश्मीर की समस्या का राजनैतिक समाधान खोजने की दिशा में सकारात्मक कदम तो उठायें हैं लेकिन घाटी के अलगावादी नेताओं के तेवरों के आगे केंद्र सरकार का ढुलमुल रवैया परेशानी का विषय है। वर्ष भर गिलानी व अरून्धती राय जैसे राष्ट्रविरोधी तत्व जहर उगलते रहे लेकिन केंद्र सरकार ऐसे तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही का साहस नहीं दिखा सकी। इस वर्ष दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में हुए अकूत भ्रष्टाचार व खेलों की तैयारी में हुई देरी ने भारत की पूरे विश्व के समक्ष किरकिरी कर दी। इसी बीच 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन व महाराष्ट्र में आदर्श सोसाइटी फ्लैट आवंटन घोटाले ने तो कांग्रेस पार्टी की छवि ही तार – तार कर दी। स्वतंत्रता के बाद देश के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि भ्रष्टाचार के विभिन्न प्रकरणों और विपक्ष द्वारा जे.पी.सी. की मांग के कारण संसद का शीतकालीन सत्र विपक्ष के हंगामें व सरकार की हठधर्मिता की भेंट चढ़ गया। विपक्ष की मांगों के चलते क्या संसद का बजट अधिवेशन शांतिपूर्वक चल पाएगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा। संगठनात्मक दृष्टि से कांग्रेस पार्टी ने इस वर्ष अपने स्थापना के 125 वर्ष पूर्ण होने पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया यही नहीं कांग्रेस अधिवेशन में तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व कांग्रेसाध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी एक दूसरे की प्रशंसा ही करते रह गये और श्रीमती गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद का कार्यकाल पांच वर्ष कराकर अपना रास्ता साफ कर लिया। म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह जहां संघ पर आक्रामक ढंग से हमलावर हुए वहीं उन्होंने मुस्लिमों को खुश करने के लिए आतंकवादियों की रिहाई के लिए अनाप-शनाप बयान भी देने प्रारम्भ कर दिये। वे मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर राष्ट्रीय सुरक्षा से ही खेलने लग गये और हिंदुओं की भावनाओं को आहत करने में जुट गये। भगवा आतंकवाद के नाम हिंदुओं को बदनाम करने की साजिश के खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहली बार पूरे देश भर में धरना प्रदर्शन किया। संक्षेप में यह वर्ष घोटालेबाजों, रिश्वतखोराें, मिलावटखोरों के नाम रहा । कोई क्षेत्र ऐसा नही रहा जहां से भ्रष्टाचार व घोटालों से संबंधित कोई समाचार न प्राप्त हुआ हो। अब देखना यह है कि वर्ष 2010 में बड़े – बड़े घोटालेबाज जेल की सलाखों के पीछें होंगे कि नहीं? इस वर्ष भ्रष्टाचार इस कदर सामने आया कि देश की सेना की भी साख को गहरा आघात लग गया। यह वर्ष भारतीय राजनीति में पतन की पराकाष्ठा का वर्ष कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। महंगाई ने तो आम आदमी का जीना ही दूभर कर दिया है और इस बात की प्रबल संभावना व्यक्त की जा रही है कि महंगाई वर्ष 2011 में भी पीछा नहीं छोडेंग़ी। युवराज राहुल गांधी आखिरकार आम आदमी को कब राहत दे पाएंगे पता नहीं? वर्ष 2010 में न्यायिक सक्रियता की एक बार फिर शुरूआत हुई। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न मामलों यथा 2 जी स्पेक्ट्रम व सतर्कता आयुक्त पी. जी. थामस की नियुक्ति को लेकर जिस प्रकार से कठोर टिप्पणियां की, उससे केंद्र सरकार के माथे पर परेशानी के बल पड़ गये। यह न्यायालय का कड़ा रवैया ही था कि सी.बी.आई. व अन्य जांच एजेंसियां हरकत मे आ गयीं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने अयोध्या विवाद पर 60 वर्ष से लम्बित ऐतिहासिक निर्णय सुनाया जो अब सर्वोच्च न्यायालय की दहलीज पर पहुंच चुका है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश के इतिहास में अब तक के सबसे बड़े खाद्यान्न घोटाले की जांच सी.बी.आई. को सौंपकर भी ऐतिहासिक कार्यवाही कर दी है। अतः न्यायिक सक्रियता की दृष्टि से वर्ष 2011 बहुत ही महत्वपूर्ण होने जा रहा है क्योकि न्यायपालिका के समक्ष ऐतिहासिक महत्व के कई प्रकरण सामने आने वाले हैं और यह वर्ष न्याय के देवता शनि भगवान का वर्ष भी है क्योंकि वर्ष का प्रारम्भ शनिवार से और अंत भी शनिवार से हो रहा है।

क्षेत्रीय राजनीति में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती राष्ट्रीय राजनीति में छाये रहे और केंद्र सरकार के समक्ष चुनौतियां पेश करते रहे। इस वर्ष बिहार विधानसभा के चुनावों में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एन.डी. ए. ने ऐतिहासिक सफलता दर्ज कर एक नयी बहस को जन्म दिया। बिहार की जनता ने पहली बार धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर विकास को प्राथमिकता दी। लालू यादव व रामविलास पासवान के स्वप्न चकनाचूर हो गये। मुस्लिम वोट पाने की गरज से रामविलास पासवान ने मुस्लिम टोपी धारण कर हिंदू धर्म को अपमानित करके वोट मांगे लेकिन उनके स्वयं के भाई बन्धुवों को चुनावों में भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा। बिहार में कांगेसी युवराज राहुल गांधी तो धड़ाम से गिर पड़े यहां तक की उनके राजनैतिक भविष्य पर ही दांव लग गया है। बिहार में राहुल की रणनीति क्या फेल हुई इसकी चर्चा उत्तर प्रदेश में भी होने लगी। वर्ष 2011 में कई बड़े और राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं जहां से राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं इस बात का रास्ता साफ हो सकता है। उधर भारतीय जनता पार्टी व उसके सहयोगियों ने भी भविष्य की राजनीति पर अपनी रणनीति बनानी प्रारम्भ कर दी है एन.डी.ए. ने अपने नये सहयोगी खोजने प्रारम्भ कर दिये हैं। एन.डी.ए. की रणनीति से यह साफ हो गया है कि वह भ्रष्टाचार, महंगाई व नाकाम सरकारी तंत्र को एक बड़ा मुददा बनाएगा साथ ही भा.ज.पा. अपने स्तर पर मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति, आतंकवादियों के खिलाफ केंद्र सरकार का ढीलाढाला रवैया आदि भी मुख्य मुददे उभरेंगे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वदेश में तो नाकाम व कमजोर प्रधानमंत्री सिध्द हुए लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि चमकदार बनीं रही। अनेक देशों की यात्राएं की और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उन्होंने भारतीय पक्ष को पूरी मजबूती के साथ प्रस्तुत किया तथा आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई व आर्थिक, पर्यावरणीय चिंताओं पर वैश्विक जगत के साथ तो कदम कदम मिलाया ही साथ ही भारतीय पक्ष को भी मजबूती के साथ रखा। उनके प्रयासों से पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो अकेला पड़ गया लेकिन अमेरिकी साथ व चीनी मैत्री के कारण वह शेर बना रहा । आतंक के खिलाफ लड़ाई में उसने भारत का साथ नहीं दिया अपितु वहां पर भारत विरोधी गतिविधियां बराबर जारी रहीं। आर्थिक मंदी के बाद बेरोजगारी व भीषण आर्थिक संकटों से कराहते वैश्विक समुदाय को भारत एक बड़े बाजार के रूप में ऐसा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स मिला जहां सब कोई माल बेचने व देने के लिए लालायित नजर आने लगा। वर्ष के प्रारम्भ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून भारत आये और एक बड़ा समझौता करके गये। दीपावली पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आये उन्होंने भी व्यापार और नौकरी पर अपना ध्यान केंद्रित किया। सबसे निराशाजनक दौरा चीनी प्रधानमंत्री का रहा। चीनी प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान चीन के साथ लम्बित विवादों और चीनी गतिविधियों पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं हुई। हां, तिब्बतियों ने अवश्य अपनी मांगों को लेकर चीन के खिलाफ जोरदार आवाज उठायी। सबसे अच्छी मैत्री फ्रांस और रूस के साथ निभी, क्योंकि रूस अभी भी हमारा व्यावहारिक दृष्टिकोण से एक अच्छा सहयोगी है। भारतीय विदेश नीति में भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिले यह एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है तथा उसे अंतर्राष्ट्रीय समर्थन भी मिल चुका है , लेकिन चीन के प्रति संशय कायम है। उधर समाज के विभिन्न क्षेत्रों यथा खेल, विज्ञान, साहित्य, फिल्म, मनोरंजन आदि क्षेत्र में भी भारतीय उपलब्धियां कम नहीं रहीं। नई दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों मे भारत 100 पदकों के साथ जहां दूसरे स्थान पर रहा वहीं चीन में आयोजित एशियाई खेलों में 63 पदक जीतकर भारतीय खिलाडियों ने तो अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा लिया। बैडमिंटन में साइना नेहवाल ने भारत का गौरव बढ़ाया और क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर ने कई कीर्तिमान अपने नाम किये। उन्होंने जहां एक दिवसीय मैंचों में दोहरा शतक लगाया वहीं टेस्ट मैंचों में शतकों का अर्धशतक लगाया। अब पूरा भारत सचिन को भारत रत्न देने की मांग कर रहा है। देखना है कि सचिन का यह सपना 2011 में पूरा होगा या नही? वर्ष 2011 में सचिन के कई और कीर्तिमान लाइन में लगे हैं। वर्ष 2011 में अंतर्राष्ट्रीय विश्व कप क्रिकेट का भारतीय उपमहाद्वीप में आयोजन होने जा रहा है जिसे जीतना भी उनका एक स्वप्न है। इस वर्ष उनके शतकों का शतक भी पूरा हो सकता हैं देखतें हैं वर्ष 2011 सचिन के खाते में क्या क्या रंग लेकर आ रहा है। फिल्म जगत की दृष्टि से इस वर्ष फिल्में तो कम हिट हुईं लेकिन हीरोइनों के ठुमके और उनके कम कपड़े वर्ष भर चर्चा का केंद्र बिंदु बने रहे। ‘तीस मार खां’ के गीत ‘शीला की जवानी’ और दबंग की ‘मुन्नी’ पर लोग नाचे तो फिल्में नहीं चल पायीं। फिल्म अभिनेता शाहरूख खान पाकिस्तानी प्रेम के कारण वर्ष भर शिवसेना के निशाने पर रहे। जबकि सलमान खान, अमिताभ बच्चन व अन्य कलाकार टी. वी. पर छाये रहे। विभिन्न चैनलों के बीच टी. आर.पी. युध्द चलता रहा। टी.वी. चैनलों द्वारा जमकर अश्लीलता परोसी गई। अब वर्ष 2011 के गर्त में क्या छिपा है यह देखना है?क्या संसद का सत्र शांतिपूर्वक चल पाएगा ?क्या 2 जी स्पेक्ट्रम व राष्ट्रमंडल खेलों के अपराधी जेल जाएंगे?क्या सर्वोच्च न्यायालय के रवैये के चलते सतर्कता आयुक्त पी.वी.थामस को जाना होगा?संसद भवन पर हमले के आरोपी अफजल गुरू या फिर मुम्बई के गुनहगारों को इस वर्ष भी कड़ी सजा मिलेगी या नहीं या फिर हम लोग इस वर्ष भी शहीदों की याद में केवल मोमबत्तियां ही जलाते रहेंगे?क्या नक्सलवाद व आतंकवाद का भय समाप्त हो सकेगा ?वर्ष 20011 में इस बात का संकेत भी मिल सकता है कि राहुल गांधी देश के युवा प्रधानमंत्री बन सकेंगे या नहीं?वर्ष 2011 में केंद्रीय मंत्रिपरिषद में फेरबदल भी हो सकता है। क्या पाकिस्तान भारत के गुनाहगारों को भारत के हवाले करेगा?जम्मू कश्मीर शांति प्रक्रिया का क्या होगा?इस वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप में एकदिवसीय विश्वकप क्रिकेट का आयोजन होने जा रहा है क्या कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के कुशल नेतृत्व में भारत यह महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर सकेगा?यह वर्ष कप्तान महेंद्र सिह धोनी के भविष्य का भी निर्धारण करने जा रहा है। एक छोटी सी बात यह कि क्या भारत का पड़ोसी राष्ट्र नेपाल राजनैतिक अस्थिरता का युग समाप्त हो सकेगा या फिर पड़ोसी राष्ट्र म्यांमार में लोकंतत्र समर्थक नेता आंग सांन सू की नेतृत्व में वास्तविक लोकतंत्र का उदय सम्भव हो सकेगा? क्या भारत में किसानों की आत्महत्याएं रूक सकेंगी या फिर सभ्य समाज में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर अंकुश लग सकेगा? इस प्रकार वर्ष 2011 को बहुत सारे यक्ष प्रश्नों के उत्तर देने ही हाेंगे? अब देखना यह है कि हमे कितने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो सकेंगे?

* लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

केनेडी हवाई अड्डे के ध्वंस की साजिश व अमेरिकी निर्णय

हरिकृष्ण निगम

क्या किसी को विश्वास होगा कि एक स्वतंत्र देश की संसद के किसी पूर्व सदस्य को भी अमेरिका अपने न्यूयार्क स्थित जॉन केनेडी हवाई अड्डे पर विस्फोट दे सकता है। पर हाल में ऐसी ही एक साजिश के लिए न्यूयार्क के ब्रूकलिन फेडरल कोर्ट ने ऐसा निर्णय दिया है। षड़यंत्र का भांडाफोड़ कर प्रशासन ने न्यूयार्क के जॉन केनेडी अंतर्राष्ट्रीय विमान तल के परिसर और भूमिगत तेल की लाइनों के साथ सैकड़ों लोगों को लहूलुहान होने से कैसे बचाया और गायना के पूर्व सांसद अब्दुल कादिर को अंततः कैसे आजीवन कारावास दिलाया। यह उपन्यास से कम रोचक कहानी नहीं है। देश की अंदरूनी सुरक्षा एजेंसियां किस सीमा तक जा सकती है यह आतंकवादियों से जुझने की गंभीरता व सर्वोच्च प्राथमिकता पर भी प्रकाश डालता है।

अब्दुल कादिर और एक वायु सेवा का कार्गो कर्मचारी रसल डेफ्रीटास ने सन् 2006में ही ईंधन के बड़े टैंकों और हवाई अड्डाें के भीतर से होकर जाने वाली पाईप लाइनों के विशाल नेटवर्क को उड़ाने की साजिश की थी। यह तेल अपूर्ति की सुविधाएं मैनहेटन दोच से मात्र 12 मील दूर स्थित थी। अमेरिका एटॉर्नी कार्यालय के एक प्रवक्ता के अनुसार डेफ्रीटास को जनवरी, 2011 में सजा सुनाई जाएगी जब कि तीसरे आरोपी अब्दुल नूर को अपराध स्वीकार करने और षड़यंत्र में सम्मिलित होने के कारण 15 वर्ष की सजा हो सकती है। गायना के अब्दुल कादिर ने अमेरिका की नागरिकता ले ली थी और अपने पहले के हवाई अड्डे से जुड़े तेल के डिपो के अनुभव के आधार पर कुछ अन्य आतंकवादियों की भर्ती की थी। पूरी कहानी और घटनाक्रम काफी रोचक है और उसे दोहराना देश की सुरक्षा एजेंसियों को शिक्षा भी दे सकता है। अमेरिका को इस षड़यंत्र की भनक जून, 2007 में लग गई थी जिसके बाद वे चौकशी होकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साक्ष्य जुटाने में लग गई थी। क्योंकि वह हवाई अड्डा सर्वाधिक महत्व के पारनमन विंदू के रूप में था उसकी सुरक्षा एक नई चुनौती थी। केनेडी हवाई अड्डे के तेल के टैंक ‘क्वींस’ नामक बरों से होकर आने वाली पाईपलाईनों से जुड़े हैं जिनका नेटवर्क न्यू जर्सी से ही प्रारंभ हो जाता है और बाद में स्टेटन आई लैंड, ब्रूकलिन और प्रसिध्द क्वींस से जुड़कर हवाई अड्डे तक जाता है। कई दिनों तक ‘न्यूयार्क टाईम्स’ वे दूसरे प्रमुख दैनिकों में यही चर्चा होती रही थी कि हवाई अड्डे से लगी पाईप लाइनों व टैंकों की ध्वस्त करने से क्या दूसरे टैंकों की शृंखला में भी विध्वंसकारी आग लगा सकती थी।

इस संभावित हादसे के षड़यंत्र के पीछे छिपे लोगों का पर्दाफाश करने में ‘न्यूयार्क टाईम्स’ के 3 जून, 2007 के अंक में पूरे तीन पृष्ठों का विवरण एक शोध रिपोर्ट के रूप में उसके दस सवांददाताओं की अपनी रिपोर्टों के आधार पर छापा गया था जिसमें से कुछ दूरदराज बैठकर संबंधित आतंकवादी समूहों के अध्ययन के विशेषज्ञ भी थे किस तरह सामान्य दीखने वाले स्थानीय लोगों के तार कहां तक जुड़े हो सकते है तथा किन आतंकवादी समूहों ने ‘अतिरेक इस्लामी विश्वासों की हिंसक प्रवृति’ की घुट्टी पिला रखी थी, इसका विस्तृत उल्लेख इस रिपोर्ट में है।

जॉन. ए. केनेडी अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट न्यूयार्क का एक राष्ट्रीय केंद्र बिंदू है लगभग उसी तरह हमारी देश की राजधानी का भूतपूर्व प्रधानमंत्री के नाम पर दिल्ली का विमानतल है। यहां से हर वर्ष लगभग 45 मिलियन यात्री गुजरते हैं जबकि न्यूयार्क में ही अंदरूनी उड़ानों के लिए ला गुर्डिया सहित एक और नौ सेना टर्मिनल है दूसरा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा न्यूयार्क में है जो न्यू जर्सी में लगता है। सिर्फ केनेडी हवाई अड्डे से प्रतिदिन 1000 से अधिक उड़ानें भरी जाती हैं। सारा षड़यंत्र प्रारंभिक अवस्था में ही था और षड़यंत्रकारी विस्फोटकों व दूसरे संसाधनों को जुटाने की अपनी विस्तृत योजना अभी बना रहे थे।

इस प्रकरण में मूल रूप से चार व्यक्तियों पर साजिश का आरोप था। उनमें से गायना की पार्लियामेंट का एक मुस्लिम सदस्य 55-वर्षीय अब्दुल कादिर था जो गायना का मेयर भी रह चुका था। एक जमाने में वह केनेडी हवाई अड्डे पर कार्गो लाने व ले जाने का कार्य भी कर चुका था। इस आतंकवादी जाल में न्यूयार्क के ही ब्रूकलिन इलाके में रहने वाले दो और व्यक्ति थे जिनको ट्रिनिडाड में हिरासत में लिया गया था। यह सब इतनी शीघ्रता व सावधानी से न्यूयार्क की फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन के कार्यालय द्वारा किया गया कि सारा प्रकरण एक कहानी जैसा लगता है। वे चारों व्यक्ति गायना और ट्रिनीडाड कई बार गए थे जहां ट्रिनीडाड व टेविगों द्वीप में कार्यरत प्रभावी आतंकवादी संगठन जमात-अल-मुसलमीन से परामर्श और सहायता की चर्चा चल रही थी। यह वही संगठन था जिसने 1990 में ट्रिनिडाड में हिंसक वारदातों द्वारा सत्ता हथियाने की कोशिश की थी।

क्रिके ट के खेल से परिचित लोग भलिभांति जानते होंगे कि वेस्ट इंडीज वेन्जुएला के उत्तरी पूर्वी समुद्र तट पर स्थित है जिसकी राजधानी पोर्ट-ऑफ-स्पेन है और कुछ ही दूर आगे उत्तर पूर्व में टोबेगो द्वीप है। इन दिनों यहां लगभग 48 प्रतिशत अफ्रीकी मूल के लोग हैं और 40 प्रतिशत एशियाई देशों से हैं। आतंकवादी योजना को अंजाम दिए जाने के पहले अमेरिका प्रशासन व एजेंसियों का कदम एक बड़े हिंसक हादसे को टालने में कारगर सिध्द हुआ था।

सारे विवरण में एक बात और उभरती है कि सुरक्षा एजेंसियों के छोटे-से-छोटे कर्मचारी को अपने काम में न तो किसी स्थानीय राजनीति के हस्तक्षेप का भय था या उनके कदम उठाने के पहले मीडिया की अनावश्यक टिप्पणी और जांच प्रक्रिया के दौरान उनके अनपेक्षित उत्साह दिखाने का। राष्ट्रीय सुरक्षा पर किसी भी रूप में कोई समझौता यहां स्वीकार नही है। जे. एफ. के एयरपोर्ट केस के नाम से पन्ने रंगे जा सकते हैं पर सारे प्रकरण के मूल में यह बात है कि यदि आतंकवाद से जुझने के लिए सही मायनों में कुछ करना होगा तो हमें पश्चिमी देशों व अमेरिका से सीखना होगा।

एक सुरक्षा विशेषज्ञ की यह टिप्पणी कई बार दोहरायी गई है – इज्राइल या अमेरिका से सीखो, यदि आतंकवाद के राक्षस पर नकेल लगाना है।

* लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं।