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दारुल उलूम देवबंद में बवाल

नए कुलपति को हटाने के लिए पर्दे के पीछे से खेल जारी

वसतानवी के खिलाफ खबर नहीं छापने के लिए उर्दू के दो अखबार ने लाख लाख रुपए मांगे

ए एन शिबली

भारत की सबसे बड़ी और विश्व की कुछ बड़ी इस्लामी शिक्षण संस्थाओं में शामिल दारुल उलूम देवबंद की खबरें हिन्दी और अंग्रेज़ी मीडिया में आम तौर पर नहीं के बराबर छपती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इस संस्था में हिन्दी और अंग्रेज़ी के अखबार जाते ही नहीं। यहाँ की खबरें तभी प्रकाशित होती हैं जब चुनाव के समय मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए कोई नेता इस संस्था का दौरा करता है या फिर जब यहाँ से कोई फतवा जारी होता है। इन दिनों दारूल उलूम एक बार फिर फिर सुर्खियों में है। हमेशा की तरह इस बार भी जहां उर्दू के अखबार दारुल उलूम की खबरों से भरे रहते हैं वहीं हिन्दी और अंग्रेज़ी के अखबारों में यहाँ की खबरें या तो नहीं या फिर नहीं के बराबर ही आ रही हैं। इन दिनों चूंकि भारत की इस सब से बड़ी इस्लामी संस्था में एक बहुत बड़ा गेम चल रहा है इस लिए मैंने खास तौर पर उर्दू नहीं जानने वाले लोगों के लिए वहाँ जारी गेम को सामने लाने के लिए यह लेख लिखने का फैसला किया है। दारुल उलूम में इन दिनों बवाल मचा हुआ है, पढ़ाई लिखाई ठप्प है और बहुत से छात्र भूख हड़ताल पर बैठे हैं। यह सब क्‍यूं हो रहा हैं आइये आपको बताते हैं।

पिछले दिनों जनाब मर्गूबुर्रहमान रहमान की मौत के बाद गुजरात के मौलाना ग़ुलाम मोहम्मद वसतानवी को यहाँ का मोहतमीम यानि कुलपति बनाया गया। उनके कुलपति बनते ही देवबंद में जो बवाल शुरू हुआ है वो धीरे उग्र रूप लेता जा रहा है। वसतानवी का विरोध कई कारणों से हो रहा है। पहला उन पर यह इल्ज़ाम है कि वो चूंकि बड़े अमीर मौलाना हैं इस लिए उन्‍होंने अपने हक़ में वोट खरीद लिया और इस बड़े ओहदे पर क़ाबिज़ हो गए। उनके विरोध की दूसरी बड़ी वजह है उनका अखबारों में प्रकाशित वो बयान जिसमें उन्‍होंने गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ की। उनके विरोध की तीसरी और सबसे बड़ी वजह यह है कि उनकी एक ऐसी तस्वीर सामने आई है जिसमें गुजरात में एक प्रोग्राम के दौरान वो किसी को एक मूर्ति भेंट कर रहे हैं। सामान्य तौर पर आम मुसलमानों को मौलाना वसतनवी के विरोध की यही तीन कारण समझ में आ रहे हें।

अब बात करते हैं पहले कारण की। वसतानवी पर आरोप है कि उन्‍होंने पैसे के बल पर यह पद हासिल किया है। जो लोग ऐसा आरोप लगा रहे हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि यह संभव नहीं है। मजलिसे शुरा यहनी गवार्निंग काउंसिल में देश के बड़े बड़े मौलाना शामिल हैं। उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो पैसा लेकर वोट करेंगे। और अगर ऐसा है भी तो फिर ऐसे लोगों को गवार्निंग काउंसिल में क्‍यों रखा गया है। विरोध की दूसरी वजह हजारों मुसलमानों के हत्यारे मोदी की तारीफ है। यह सही है कि कोई भी सच्चा मुसलमान जिसे अपनी क़ौम से और मानवता मोहब्बत होगी वो मोदी को हमेशा एक हत्यारा ही समझेगा। हर किसी को पता है कि गुजरात दंगे में पूरी कमान मोदी के हाथ में थी यह सब उन्हें पता था कि राज्य में मुसलमानों को कत्ल किया जा रहा है। महिलाओं की इज्ज़त लोटी जा रही है और बच्चों को अनाथ किया जा रहा है। इसलिए यह सब जानते हुये कोई भी अच्छा आदमी मोदी की तारीफ नहीं कर सकता।

रहा सवाल किसी को मूर्ति भेंट करने का तो चूंकि मौलाना वसतानवी गुजरात के हैं और वहाँ वो कई प्रकार के बिजनेस में शामिल हैं इसलिए किसी प्रोग्राम में उन्‍होंने किसी को मूर्ति भेंट की होगी। यह इस्लाम के हिसाब से गलत है इसलिए उन्हें इस सिलसिले में माफी मांग लेनी चाहिए। देवबंद के पूरने छात्र और देवबंद को अच्छी तरह से समझने वाले बताते हैं कि वसतानवी के विरोध की असली वजह यह तीन बिन्दु नहीं हैं। सच्चाई यह है कि चूंकि दारुल उलूम भारत का सब से बड़ा इस्लामी इदारा है। यहाँ से जारी बयान का असर न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुसलमानों पर भी होता है इस लिए कुछ खास लोग ऐसे हैं जो हमेशा इस बड़ी संस्था पर अपना कब्जा बनाए रखना चाहते हैं। अब चूंकि वसतानवी का इस पर कब्जा हो गया है इस लिए उन के खिलाफ तरह तरह के बयान जारी किए जा रहें। संस्था में पढ़ाई लिखाई के माहौल को ठप्प अकर्के वसतानवी को यहाँ से भगाने की कोशिश की जा रही है। देवबंद के साथ साथ पूरे देश के मुसलमान जिन्हें इस संथा से लगाव है आज दो गरोहों में बाँट गए हैं। एक वो हैं जो वसतानवी के साथ है और एक वो हैं जो उनका विरोध कर रहें हैं। अलबत्ता कुछ विरोध करने वाले ऐसे हैं जो यह नहीं कह रहे कि उनको पद छोड़ देना चाहिए मगर उनका यह कहना सही है कि मोदी की तारीफ और मूर्ति भेंट करने वाली बात उचित नहीं है इस के लिए उन्हें मुसलमानों से माफी मांगनी चाहिए। बाक़ी जो दूसरे विरोध करने वाले हैं उनके साथ एक बड़ी समस्या यह है कि वो उनका विरोध तो कर रहें हैं मगर खुल कर सामने नहीं आ रहे हैं। विरोध करने वाले तो इस हद तक गिर गए हैं कि उन्‍होंने उर्दू के एक अखबार को वसतनवी का विरोध करने के लिए पूरा ठेका ही दे दिया है। इस अखबार में देश की दूसरी सभी बड़ी खबरें इन दिनों गायब रहती हैं इसमें सिर्फ यही छप रहा है कि वसतनवी ने यह गलत किया और वो गलत किया। कभी उन्हें आर एस एस का एजेंट कहा जा रहा है तो कभी उनके खिलाफ फतवा जारी करके यह कहा जा रहा है कि मूर्ति भेंट करने के बाद अब वो मुसलमान ही नहीं रहे। खबर यह है कि उर्दू के दो अखबारों के संपादक या मालिक ने एक बड़े मौलाना के साथ मिलकर वसतानवी से यह कहा कि आप हम दोनों अखबार को एक एक लाख रूपए दे दें तो हम आप के खिलाफ खबर नहीं छपेंगे। मगर वसतानवी ने ऐसा नहीं किया और यही वजह है कि उनके वीरोध में खबर और लेख के छपने का सिलसिला जारी है। यानि अगर इन दो अखबारों को लाख लाख रूपये मिल जाते तो मोदी की तारीफ भी गलत नहीं होती और एक मौलाना के जरिया किसी को मूर्ति भेंट करना भी इस्लाम के वीरुध नहीं होता। ज़रा ग़ौर कीजिये इस बात पर। कितना घिनौना खेल खेला जा रहा है इस संस्था के नाम पर। अफसोस की बात तो यह है कि यह सारा खेल पर्दे के पीछे से एक ऐसे मौलाना खेल रहे हैं जिन्हें भारतिए मुसलमान बड़ी इज्ज़त की निगाह से देखता है। सच्चाई यह है कि दुनिया के दूसरे धर्मों के मानने वालों की तरह मुसलमानों में भी कुर्सी की लड़ाई है। एक ओर जहां राजनेता मुसलमानो को मात्र एक वोट बैंक समझते हैं वहीं मौलाना हाजरात भी मुसलमानों के जज़्बात से खेलते हैं। जिस तरह बाल ठाकरे, नरेंद्र मोदी, विनय कटियार जैसे लोग अपने लाभ के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं उसी तरह मुसलमानों में भी ऐसे बहुत से लोग है जो बड़ी गंदी सियासत में लिप्त है। अफसोस की बात तो यह है कि ऐसी हरकत वो लोग कर रहे हैं जो बड़े बड़े मौलाना कहलाते है। हजारों मुसलमान ऐसे हैं जो इन्हें इज्ज़त की नज़र से देखते हैं और आँख बंद करके इन पर भरोसा करते हैं। इन मौलाना लोगों में से सब ने कई कई संस्था बनाकर अपनी अपनी दुकान खोल ली है और आम मुसलमानों को उल्लू बनाकर अपनी अपनी दुकान चला रहें है। इन दिनों दारुल उलूम देवबंद में जो खेल जारी है उसकी असलियत का पता हर बड़े मौलाना को है। सबको पता है कि वसतनवी का सही मायेने में विरोध कौन लोग कर रहे हैं और उनके विरोध की वजह किया है। सब को यह भी पता है कि वसतनवी के खिलाफ मोर्चा किसने और किस मक़सद से खोला हुआ है। मगर कोई कुछ नहीं बोल रहा हैं। कारण यह है कि हर किसी को अपनी अपनी दुकान चालानी है। संस्था में हँगामा हुआ, विद्यार्थी ज़ख्मी हुये, पढ़ाई डिस्टर्ब हो रही है मगर इसकी चिंता किसी को नहीं हैं।

दारुल उलूम में ठीक ऐसी ही स्थिति 30-32 साल पहले भी हुई थी। तब मौलाना कारी तैयब साहब दारुल उलूम के मोहतमीम थे। यही लोग जो आज पर्दे के पीछे से वसतनवी के खिलाफ मोर्चा खोले हुये हैं ने उस समय भी खून हंगाम किया था। तैयब साहब ने तब हार मान कर सब कुछ उन लोगों के हवाले कर दिया था जो इसे अपनाना चाहते थे। उस समय भी हंगामे में कई विद्यार्थी ज़ख्मी भी हुये थे और एक मौलाना साहब जो आज भी बड़े मौलाना हैं ने उस समय दोनों हाथों से विद्यार्थियों पर गोली चलाई थी। हद तो तब हो गयी जब इसी मौलाना ने एक विद्यार्थी के मुंह में उस समय पेशाब करवा दिया जब उसने प्यास से पानी की मांग की। कुल मिलाकर विद्यार्थियों का इस्तेमाल कर के आज एक बार फिर दारुल उलूम पर क़ब्ज़े की तैयारी हो रही है। इस संस्था पर हमेशा एक खास ग्रूप का कब्जा रहा है और अब जबकि गुजरात का एक मौलाना इस संस्था पर क़ाबिज़ हो गया है तो यह बात इस ग्रूप को पच नहीं रही है और इस मौलाना यानि वसतनवी को हटाने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। एक सीधी सी बात यह है कि यदि गवार्निंग काउंसिल को लगता है कि मौलाना वासतानवी इस ओहदे के लायक नहीं हैं तो हंगामा करने के बजाए उन्हें सीधे से हटा दिया जाये। देवबंद पर क़ब्ज़े के यह राजनीति आने वाले दिनों में क्या रुख लेगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

मनमानी की पाठशाला

विनोद उपाध्याय

बात 1978 की है जब लेफ्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) केटी सतारावला को जबलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्ति किया गया था तब उन्होंने कहा था कि मध्यप्रदेश के किसी विश्वविद्यालय में उपकुलपति बनने से बेहतर है किसी होटल का मैनेजर बनना। सतारावला ने यह बात किस नजरिए से कही थी यह तो वही जाने लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति पीयूष त्रिवेदी एवं वहां के अन्य प्रशासनिक पदों पर आसिन लोगों की योग्यता कुछ यही दर्शा रही है। विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्रा कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक और उपकुलसचिव प्रशासन एवं अन्य पदाधिकारी अपात्र होते हुए भी इन पदों पर आसीन है। ऐसे में यहां सरकारी कायदे- कानून को ताक पर रखकर शैक्षणिक गतिविधियों की जगह मनमानी की पाठशाला चलाई जा रही है। कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी राजभवन और राज्य सरकार से बिना अनुमति लिए ही पदों का सृजन कर उन पर अपने चहेतों को बिठा रहे हैं। ऐसा भी नहीं की विश्वविद्यालय में व्याप्त इस भर्राशाही की खबर राजभवन और तकनीकी शिक्षा विभाग को नहीं है लेकिन शासन मौन तो देखे कौन की तर्ज पर यहां सब कुछ चल रहा है। इस मामले को लेकर राष्ट्रीय छात्र संघ ने भी राज्यपाल के यहां आपत्ति दर्ज कराई है और विश्वविद्यालय परिसर में प्रदर्शन भी किया था।

उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सशक्त भारत का सपना देखा था। पूर्व प्रधानमंत्री ने जो सपना देखा था उसे साकार करते हुए प्रदेश में तकनीकी शिक्षा युक्त मानव संसाधन की बदलती आवश्यकताओं को देखते हुए राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना मध्यप्रदेश विधानसभा एक्ट 13 के तहत 1998 में भोपाल में की गई। विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे मुख्य उद्देश्य था कि शिक्षा एवं शिक्षा संसाधन की गुणवत्ता में वृद्धि हो, कंसलटेंसी, सतत शिक्षा, शोध एवं विकास गतिविधियों के अनुकूल वातावरण तैयार किया जाए,इंडस्ट्री के साथ परस्पर लाभ हेतु मजबूत संबंध बने, छात्रों में स्वरोजगार की भावना का विकास किया जाए और भूतपूर्व छात्रों में सतत् संपर्क एवं उनके प्रायोजित विकास प्रोग्राम बनाया जाए लेकिन विश्वविद्यालय में छात्रों का भविष्य तय करने वाले ही जब अपात्र हैं तो राजीव गांधी का सपना कैसे सकार होगा यह शोध का विषय है।

बात करते हैं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी की। विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार कुलपति की नियुक्ति कुलाधिपति (गवर्नर) द्वारा राज्य सरकार के बिना हस्तक्षेप के की जाती है। धारा 12 (1) विश्वविद्यालय की उपधारा (2) या (6) के अंतर्गत गठित समिति द्वारा तैयार तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में विख्यात कम से कम तीन व्यक्तियों के पैनल में से किसी एक व्यक्ति की नियुक्ति कुलपति के रूप में कुलाधिपति द्वारा की जाती है लेकिन तात्कालिक गवर्नर बलराम जाखड़ से अपने नजदीकी संबंधों और गवर्नर हाउस के कुछ अधिकारियों की मेहरबानी से प्रोफेसर त्रिवेदी कुलपति बनने में सफल रहे। अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए प्रौद्योगिकी या तकनीकी क्षेत्र का प्रोफेसर होना चाहिए जबकि प्रो. त्रिवेदी फार्मेसी के प्राध्यापक है। अत: नियमों के तहत देखा जाए तो इनकी नियुक्ति पूर्णत: गलत है। वहीं विश्वविद्यालय के कुलसचिव (प्रभारी) एवं रजिस्ट्रार डॉ. एम.एस. भदौरिया भी गैर तकनीकी क्षेत्र से आते हैं। वे जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के रसायन शास्त्र के प्राध्यापक है।

अधिनियम के अनुसार इस विश्वविद्यालय में उपकुलसचिव की प्रतिनियुक्ति मई 2009 को समाप्त हो चुकी है लेकिन वे अभी भी विश्वविद्यालय के कुलसचिव पद पर आसीन है। नियम है कि कुलसचिव एवं अन्य काडर के अधिकारियों के पद म.प्र. विश्वविद्यालय अधिनिमय, 1973 (क्र. 22, 1973) द्वारा गठित राज्य विश्वविद्यालयीन सेवा के अधिकारियों द्वारा ही भरे जाएंगे। इनकी अनुपलब्धता की स्थिति में ये पद कुलाधिपति द्वारा प्रतिनियुक्ति पर अन्य योग्य अधिकारियों से भरे जाएंगे। विश्वविद्यालय में ढांचागत बदलाव करते हुए उपरोक्त अधिनियम में विश्वविद्यालयीन अधिकारियों के पद भरे जाने में उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त अधिकारियों को प्राथमिकता दिए जाने संबंधी संशोधन किया गया। संशोधन 2003 की धारा 17 के अनुसार कुलसचिव एवं ऐसे अन्य काडर के अधिकारियों के पद मध्यप्रदेश राजपत्रित तकनीकी सेवा के अधिकारियों द्वारा भरे जाएंगे। इनकी अनुपलब्धता की स्थिति में ये पद कुलाधिपति द्वारा अन्य सेवा के योग्य अधिकारियों से प्रतिनियुक्ति से भरे जाएंगे, लेकिन इसका अनुपालन नहीं किया जा रहा है।

वर्तमान में कुलसचिव सहित अधिकांश अधिकारियों के पद (जैसे उपकुलसचिव एकेडेमिक, उपकुलसचिव प्रशासन, डीन छात्र कल्याण, आदि) ना शासन द्वारा ना ही राज्यपाल की अनुमति से भरे गये है वरन् कुलपति द्वारा नियम विरुद्ध अपने खास लोगों से भर दिये गये हैं। इतना ही नहीं उप कुलसचिव एकेडमिक जैसे महत्वपूर्ण पद पर मुकेश पांडे (यूआईटी) जो मध्यप्रदेश तकनीकी शिक्षा (राजपत्रित) सेवा के अधिकारी नहीं है गत 10 वर्षों से नियम विरुद्ध जमे हुये है। जबकि राजभवन द्वारा कुलपति पी.बी. शर्मा से विरुद्ध 2008 में जस्टिस चावला समिति की जांच में इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज की गयी थी। उल्लेखनीय हैै कि वर्ष 2003 में हुए संशोधन के अनुसार उप कुलसचिव शैक्षणिक व उप कुलसचिव प्रशासन शासन के खर्चें पर बनाए गए थे लेकिन विसंगति यह है कि पिछले 10 साल से उप कुलसचिव शैक्षणिक के पद पर कोई भी शासकीय अधिकारी तैनात नहीं किया गया है। आज ये पैसे के जोर पर इतने शक्तिशाली हो गये है कि इस पद पर इनके अवैध कब्जे को हटाना लगभग नामुमकिन हो गया है। सन् 2006 मई में तत्कालीन कुलपति ने इन्हें हटाकर नियमानुसार शासकीय अधिकारी की इस पद पर नियुक्ति की थी। परिणामस्वरूप 3 दिन के अंदर कुलपति बर्खास्त हो गये एवं मुकेश पांडे वापस नियम विरुद्ध उसी पद पर काबिज हो गये। तत्पश्चात अन्य किसी कुलपति या प्रशासनिक अधिकारी की हिम्मत इनको हटाने की नहीं हुई अलबत्ता कहा जा सकता है कि इनकी सेवाओं से उच्चाधिकारी इतने प्रसन्न रहते है कि नियम कानून की चिंता करना ही भूल जाते है।

ए आई एस टी की स्पष्ट नवीन गाइड लाइन में कॉलेजों की मान्यता के संबंध में आया है जिसके तहत कॉलेजों की प्रॉपर्टी मार्टगेज नहीं होना चाहिए श्री पांडे ने इस गाइड लाइन से कॉलेजों को मुक्त रखने के लिए प्रति कॉलेज 1 लाख रुपये की वसूली से लगभग 2 करोड़ रुपए एकत्रित किये है। ऐसा भोपाल के एक कॉलेज संचालक ने बताया और उक्त कॉलेज संचालक को किन्हीं अन्य मामलों में बहुत परेशानी में भी डाल दिया।विश्वविद्यालय के उप कुलसचिव (शैक्षणिक) मुकेश पाण्डे के खिलाफ सीबीआई में शिकायत की गई है शिकायत में उन पर नियम विरुद्ध पद पर बने रहने और आर्थिक अनियमितता करने के आरोप लगाए गए है। शिकायत की गंभीरता को देखते हुए सीबीआई ने राज्य सरकार से इस संदर्भ में 6 अक्टूबर 2010 को पत्रक्रमांक 0524/एमआईएससी.सी/ सीबीआई/ बीपीएल/2010 से जवाब मांगा है।

ऐसे ही विश्वविद्यालय के एक अन्य कुलसचिव प्रशासन आरके चिढार की नियुक्ति भी अवैध है। इसी प्रकार विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक डॉ. एके सिंह नोशनल प्रतिनियुक्ति पर यहां जमे हुए हैं जबकि उनका आदेश त्रुटि पूर्वक है। डॉ. सिंह रसायन शास्त्र के प्राध्यापक हैं। वहीं विश्वविद्यालय की अधिष्ठïाता छात्र कल्याण श्रीमती मंजू सिंह व्याख्याता रसायन भी अपात्र होते हुए वर्षों से इस पद पर जमी हुई हैं। धारा 19 (1) अधिष्ठाता, छात्र कल्याण की नियुक्ति कुलपति की अनुशंसा पर कार्यपरिषद द्वारा की जाती है। नियम यह है कि धारा (11) अधिष्ठाता, छात्र कल्याण की नियुक्ति उपधारा (1) के अंतर्गत पूर्णकालिक वेतन प्राप्त अधिकारी जो तकनीकी संवर्ग रीडर से निम्न पद का ना हो, जिसकी अनुशंसा कुलपति द्वारा की गई हो और उनकी नियुक्ति तीन वर्ष के लिए की जा सकती है। ऐसे शिक्षक को कार्यपरिषद द्वारा योग्य भत्ता भी आवंटित किया जा सकेगा।

यहीं नहीं प्रदेश में पहली बार किसी विश्वविद्यालय के कुलपति को सूचना देने से मना करने पर सूचना आयोग ने कारण बताओ नोटिस जारी किया है। 26.10.10 को मुख्य सूचना आयुक्त पीपी तिवारी ने अपीलकर्ता हरगोविंद गोस्वामी के मामले में आरजीपीवी के कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी एवं लोक सूचना अधिकारी एएस चिढ़ार को फटकार लगाते हुए कहा कि आप पर क्यों न जुर्माना लगाया जाए।

नेक के डायरेक्टर प्रो. एच.आर. रंगनाथन कहते हैं कि कुलपति तो राज्यपाल और राज्य शासन के अधीन होता है, जबकि रजिस्ट्रार केवल राज्य शासन के। इससे विश्वविद्यालयों की स्वायतत्ता पर प्रश्नचिह्न् लगता है। यूनिवर्सिटी या कोई संस्थान शुरू करते समय ही उसकी गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। शुरू से ही सभी मापदंडों का पालन हो तो कभी कोई समस्या नहीं आएगी। पिछले पांच सालों के दौरान हुई कुलपतियों की नियुक्ति में एकेडमिक औचित्य का अभाव है।

उर्दू पत्रकारिता पर विमर्श के बहाने एक सही शुरूआत

भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए आगे आने की जरूरत

– संजय द्विवेदी

यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य है कि उसकी राजधानी भोपाल से उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर सार्थक विमर्श की शुरूआत हुई है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल और इसके कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने हिंदी ही नहीं भारतीय भाषा परिवार की सभी भाषाओं के विकास और उन्हें एकता के सूत्र में बांधने का लक्ष्य अपने हाथ में लिया है।

यह सुखद संयोग है कि गत 22 जनवरी को विश्वविद्यालय के परिसर में उर्दू भाषा पर संवाद हुआ और 23 जनवरी को भोपाल के शहीद भवन में भारतीय भाषाओं पर बातचीत हुयी। यह शुरूआत मध्यप्रदेश जैसे राज्य से ही हो सकती है, इसे यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहा जाता। मप्र का भोपाल एक ऐसा शहर है जहां हिंदी और उर्दू पत्रकारिता ही नहीं दोनों भाषाओं का साहित्य फला-फूला है। अपनी सांस्कृतिक विरासतों,भाषाओं व बोलियों का सहेजने का जो उपक्रम मध्यप्रदेश में हुआ है वैसा अन्य स्थानों पर नहीं दिखता।

उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित इस सेमीनार में जुटे उर्दू संपादकों, पत्रकारों और अध्यापकों ने जो बातचीत की वह बताती है हमें उर्दू के विकास को एक खास नजर से देखने की जरूरत है और देश के विकास में उसका एक बड़ा योगदान सुनिश्चित किया जा सकता है। शायद इसीलिए पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग का कहते है कि “उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो चुकी है। सियासत ने इन सालों में सिर्फ देश को तोड़ने का काम किया है। अब भारतीय भाषाओं का काम है कि वे देश को जोड़ने का काम करें।”

आजादी के आंदोलन में भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का खास योगदान रहा है। उसमें उर्दू पत्रकारिता अग्रणी रही है। लाला लाजपत राय जैसे हिंद समाचार के संस्थापक और क्रांतिकारियों ने इसे एक नई दिशा दी। अनेक अखबारों के संपादकों को जेल हुयी, यातनाएं दी गयीं। हिंदी के बड़े लेखक के रूप में जाने जाने वाले मुंशी प्रेमचंद की पहली किताब सोजे वतन को अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था। ऐसे संघर्षों से ही भाषा फली-फूली है। आजादी के आंदोलन की भाषा हिंदी और उर्दू रही है। इन दोनों भाषाओं के अखबारों ने जैसी अलख जगाई उसका एक इतिहास है। इन्होंने राजनीतिक जागरूकता लाने में एक अहम भूमिका निभाई। सामाजिक और राजनीतिक तौर पर समाज को जागृत करने में इन अखबारों की एक खास भूमिका रही है।

उर्दू ,भारत में पैदा हुयी भाषा है जिसका अपना एक शानदार इतिहास है। उसका साहित्य एक प्रेरक विषय है। देश के नामवर शायरों की वजह से दुनिया में हमारी एक पहचान बनी है। लेखकों ने हमें एक उँचाई दिलाई है। उर्दू मीडिया ने भी आजादी के बाद काफी तरक्की की है। नई प्रौद्योगिकी को अपनाने के बाद उर्दू के अखबारों को काफी ताकत मिली है। वे व्यापक कवरेज पर ध्यान दे रहे हैं। किंतु यह दुखद है कि नयी पीढ़ी में उर्दू के प्रति जागरूकता कम हो रही है। वह अब व्यापक रूप से संवाद की भाषा नहीं रह पा रही है।

नए समय में हमें अपनी भारतीय भाषाओं को बचाने की जरूरत है। उनके अच्छे साहित्य का अनुवाद करने की जरूरत है ताकि विविध भाषाओं में लिखे जा रहे अच्छे ज्ञान से हमारा अपरिचय न रह सके। हम एक दूसरे के बेहतर साहित्य से रूबरू हो सकें। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि उर्दू अखबारों की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है। खासकर पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र तथा देश के दक्षिणी हिस्से में उर्दू के अखबार लोकप्रिय हो रहे हैं। आज ये अखबार कहीं भी अंग्रेजी या भारतीय भाषाओं के मुकाबले कमजोर नहीं है। सहारा उर्दू रोजनामा (नई दिल्ली) के ब्यूरो चीफ असद रजा की राय में हिंदी व उर्दू पत्रकारिता करने के लिए दोनों भाषाओं को जानना चाहिए। उर्दू अखबारों को अद्यतन तकनीकी के साथ साथ अद्यतन विपणन ( लेटेस्ट मार्केटिंग) को भी अपनाना चाहिए।

तमाम समस्याओं के बीच भी उर्दू मीडिया की एक वैश्विक पहचान बन रही है। वह आज सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया की भाषा बन रही है। यह सौभाग्य ही है कि हिंदी, उर्दू , पंजाबी, मलयालम और गुजराती जैसी भाषाएं आज विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना रही है। दुनिया के तमाम देशों में रह रहे भारतवंशी अपनी भाषाओं के साथ हैं और भारत के समाचार पत्र और टीवी चैनल ही नहीं, फिल्में भी विदेशों में बहुत लोकप्रिय हैं। यह सारी भाषाएं मिलकर हिंदुस्तान की एकता को मजबूत करती हैं। एक ऐसा परिवेश रचती हैं जिसमें हिंदुस्तानी खुद को एक दूसरे के करीब पाते हैं।

यह कहना गलत है कि उर्दू किसी एक कौम की भाषा है। वह सबकी भाषा है। कृश्नचंदर, प्रेमचंद, कृष्णबिहारी नूर, रधुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, चकबस्त, लालचंद फलक, सत्यानंद शाकिर, गुलजार, उपेंद्र नाथ अश्क, चंद्रभान ख्याल, गोपीचंद नारंग जैसे तमाम लेखकों ने उर्दू को समृद्ध किया है। ऐसी एक लंबी सूची बनाई जा सकती है। इसी तरह आप देखें तो धर्म के आधार पर पाकिस्तान का विभाजन तो हुआ किंतु भाषा के नाम पर देश टूट गया और बांगलाभाषी मुसलमान भाईयों ने अपना अलग देश बांग्लादेश बना लिया। इसलिए यह सोच गलत है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें आज भी हिंदुस्तान की सांसें हैं। उसके तमाम बड़े कवि रहीम,रसखान ने देश की धड़कनों को आवाज दी है। हमारे सूफी संतों और कवियों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसलिए भाषा के तौर पर इसे जिंदा रखना हमारा दायित्व है।

प्रमुख उर्दू अखबार सियासत (हैदराबाद) के संपादक अमीर अली खान का कहना है कि “ उर्दू अखबार सबसे ज्यादा धर्म निरपेक्ष होते हैं। उर्दू पत्रकारिता का अपना एक रुतबा है।” सेकुलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मोहम्मद मजहरी (दिल्ली) भी मानते हैं कि उर्दू पत्रकारिता गंगा-जमनी तहजीब की प्रतीक है। इसी तरह जदीद खबर, दिल्ली के संपादक मासूम मुरादाबादी का मानना है कि “जबानों का कोई मजहब नहीं होता, मजहब को जबानों की जरुरत होती है। किसी भी भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है जबकि उर्दू भाषा की लिपि मर रही है इसे बचाने की जरूरत है।”

ऐसे में अपनी भाषाओं और बोलियों को बचाना हमारा धर्म है। इसलिए मप्र की सरकार ने भोपाल में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला किया है। इस बहाने हम हिंदी और इसकी तमाम बोलियों की रक्षा कर पाएंगें। हम देखें तो हमारे सारे बड़े कवि खड़ी बोली हिंदी के बजाए हमारे लोकजीवन में चल रही बोलियों से आते हैं। सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान सभी कवि बोलियों से ही आते हैं। इसलिए अंग्रेजी और अंग्रेजियत के हमलों के बीच हमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बचाने के लिए सचेतन प्रयास करने चाहिए। यह हम सबका सामाजिक और नैतिक दायित्व है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की आजादी के बाद कहा था दुनियावालों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है, पर हमने उनका रास्ता छोड़कर अपनी भाषाओं की उपेक्षा प्रारंभ कर दी। अब हमें फिर से एक बार अपनी जड़ों को जानने की जरूरत है।

आखिर वसिष्ठ कौन थे?

सूर्यकांत बाली

किसी भी भारतवासी के सामने आप वसिष्ठ का नाम ले लें तो एकदम बोल उठेगा, वही जो, दशरथ के कुलगुरू, जिन्होंने उनके चार बेटों, राम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न को शिक्षा-दीक्षा प्रदान की थी। वही तो, जिन्होंने तब दशरथ को समझाकर ढांढस बंधाया था कि अगर मुनि विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को राक्षसों का वध करने अपने आश्रम ले जाना चाहते हैं, तो कोमल हृदय पिता होने के बावजूद दशरथ को घबराना नहीं चाहिए और अपने दोनों बेटों को उनके साथ भेज देना चाहिए।

वही तो, जिन्होंने तब कौशल देश का शासन बड़ी मुस्तैदी से चलाया, जब दशरथ का देहांत हो चुका था, राम ने वन से वापस लौटने के लिए मना कर दिया था और भरत ने बाकायदा राजतिलक करवा कर राजसिंहासन पर बैठने की बजाय राम की चरणपादुका को वहां बिठा खुद नन्दिग्राम से राजकाज चलाने की औपचारिकता भर पूरी की थी। जी हां, वही वसिष्ठ।

जो कुछ ज्यादा जानकार होंगे, वे यह बताना भी नहीं भूलेंगे कि वसिष्ठ और विश्वामित्र में जमकर संघर्ष हुआ था, जिसके रंग-बिरंगे विवरण पुराण ग्रंथों में मिल जाते हैं। कहेंगे कि वसिष्ठ के पास एक कामधेनु गाय थी जो हर इच्छा पूरी कर सकती थी, जिसकी एक वत्सा थी, नन्दिनी। कामधेनु तथा उसका बछड़ा-गाय नन्दिनी की अद्भुत विशेषताओं से विश्वामित्र इतने प्रभावित और आकर्षित हुए कि उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि मुझे इनमें से एक गाय दे दो।

वसिष्ठ ने मना कर दिया तो दोनों में जमकर युद्ध हुआ जिसमें वसिष्ठ के सौ बेटे मारे गए, पर विश्वामित्र के मन की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। जी हां, वही वसिष्ठ। जिन्हें वसिष्ठ के बारे में कुछ और भी ज्यादा मालूम होगा तो वे वसिष्ठ-विश्वामित्र संघर्ष को विभिन्न वर्णों और जातियों के संघर्ष के रूप में पेश करने को उतावले होंगे और कहेंगे कि पुराने जमाने में जब मनुष्य की जाति का निर्धारण जन्म से नहीं कर्म से होता था, तब भी ब्राह्मण कुल में पैदा हुए वसिष्ठ ने क्षत्रिय कुल में पैदा हुए विश्वामित्र को विद्वान, ज्ञानी, मन्त्रकार होने के बावजूद ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया। खुद को उन्होंने ब्रह्मर्षि कहलाया तो विश्वामित्र को उन्होंने हद से हद राजर्षि ही माना।

जी हां, ये वही वसिष्ठ हैं, जिनके बारे में हमारी स्मृति में इतना कुछ लिखा-बिछा पड़ा है। और अगर इतना कुछ हम भारतवासियों को वसिष्ठ के बारे में याद है, पता है, तो जाहिर है कि हमारे देश के इतिहास में उनकी एक महत्वपूर्ण जगह रही है। पर जिस तरह की चीजें हमें वसिष्ठ के बारे में पता हैं, क्या उतने भर से वे इस देश की इतिहास यात्रा के मीलपत्थर साबित हो जाते हैं? यानी क्या इन यादों के विवरण में से उनका कोई ऐसी योगदान झलकता है, जिसने हमारे देश के विचार को, यहां के समाज की सोच को, सभ्यता को आगे बढ़ाया हो?

वसिष्ठ ने दशरथ से कहा कि राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दो, उन्होंने दशरथ की मृत्यु के बाद कोशल राज्य को संभाला, विश्वामित्र से कामधेनु को लेकर उनके युद्ध हुए, उन्होंने विश्वामित्र को ऋषि तो माना पर ब्रह्मर्षि नहीं, सिर्फ राजर्षि माना, तो इस तमाम कथामाला में ऐसा क्या है कि वसिष्ठ को भारत राष्ट्र का विराट या विशिष्ट पुरूष माना जाए? है और चूंकि यकीनन है, इसलिए हमें वसिष्ठ के बारे में थोड़ा गहरे जाकर और ज्यादा सच्चाइयां टटोलनी होंगी। वसिष्ठ की कुछ ऐसी खास और बार-बार उल्लेख के लायक कोई विशेष देन थी कि हमारे जन के बीच क्रमश: उनकी प्रतिष्ठा मनुष्य से बढ़कर देव पुरूष के रूप में होने लगी।

माना जाने लगा कि वसिष्ठ जैसा महान व्यक्ति सामान्य मनुष्य तो हो नहीं सकता। उसे तो लोकोत्तर होना चाहिए। इसलिए उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र मान लिया गया और उनका विवाह दक्ष नामक प्रजापति की पुत्री ऊर्जा से बताया गया जिससे उन्हें एक पुत्री और सात पुत्र पैदा हुए। अपने महान नायकों को दैवी महत्व देने का यह भारत का अपना तरीका है, जिसे आप चाहें तो पसंद करें, चाहें तो न करें, पर तरीका है। यही वह तरीका है जिसके तहत तुलसीदास को वाल्मीकि का तो विवेकानंद को शंकराचार्य की तरह शिव का रूप मान लिया जाता है। ऐसे ही मान लिया गया कि वसिष्ठ जैसा महाप्रतिभाशाली व्यक्ति ब्रह्मा के अलावा किसका पुत्र हो सकता है? पर चूंकि ब्रह्मा का परिवार नहीं है, इसलिए मानस पुत्र होने की कल्पना कर ली गई। खैर।

ठीक इसी मुकाम पर आकर हमें यह मान लेना चाहिए कि वसिष्ठ के बारे में जितनी तरह की खट्टी-मीठी कथाएं और रंग-बिरंगे विवरण हमें याद हैं, वे सभी एक वसिष्ठ के नहीं, अलग-अलग वसिष्ठों के हैं, यानी वसिष्ठ वंश में पैदा हुए अलग-अलग मुनि-वसिष्ठों के हैं। वसिष्ठ एक जातिवाची नाम है और आजकल भी जैसे कोई जातिवादी नाम पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहकर चलता रहता है, वैसी ही परम्परा काफी पुराने काल से चलती आ रही है।

वे वसिष्ठ थे जिन्होंने दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देखरेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया, राम आदि का नामकरण किया, शिक्षा-दीक्षा दी और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाया। पर इनका अलग से नाम नहीं मिलता। जिन वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का भयानक संघर्ष हुआ, वे शक्ति वसिष्ठ थे। जिन वसिष्ठ ने विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया, उनका नाम देवराज वसिष्ठ था। ये सब वसिष्ठ अलग-अलग पीढ़ियों के हैं।

तो वसिष्ठ पर पाठकों के साथ अपना संक्षिप्त संवाद खत्म करने की शुरूआत इस सवाल से की जाए कि वसिष्ठ नाम आखिर कैसे पड़ा? वसिष्ठ में वस शब्द है जिसका अर्थ है रहना और निवास, प्रवास, वासी आदि शब्दों में वास का अर्थ इसी आधार पर निकलता है। वरिष्ठ, गरिष्ठ, ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि में जिस ष्ठ का प्रयोग है, उसका अर्थ है सबसे ज्यादा यानी सर्वाधिक बड़ा तो वसिष्ठ यानी सर्वाधिक पुराना निवासी।

जो वसिष्ठ, जो आद्य वसिष्ठ, जो सबसे पुराने वसिष्ठ कोशल देश की राजधानी अयोध्या में आकर बसे वे स्मृति परम्परा के मुताबिक हिमालय से वहां आए थे और अयोध्या में आकर रहने से पहले का विवरण चूंकि हमारे ग्रंथों में खास मिलता नहीं, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का पुत्र मानने की श्रद्धा से भरी तो कभी ऋग्वेद के मुताबिक ‘वरूण-उर्वशी’ की सन्तान मानने की रोचक कथाएं मिल जाती हैं।

सवाल है कि वसिष्ठ हिमालय से नीचे क्यों उतरे होंगे? क्यों अयोध्या में आकर रहने लगे? इन छोटे से सामान्य सवालों में ही वसिष्ठ का वह अमूल्य योगदान छिपा पड़ा है जिसने इस देश की विचारधारा को एक नया मोड़ दे दिया। हम जान चुके हैं कि सामाजिक अव्यवस्था से निजात पाने के लिए ही जन समाज ने मनु को अपना पहला राजा बनाया और मनु ने समाज और शासन के व्यवस्थित संचालन के लिए नियमों की व्यवस्था दी।

देश के इतिहास में यह एक नया प्रयोग था जहां पूरे समाज ने अपनी सारी शक्तियां, अपना पूरा वर्तमान और अपने तमाम सपने एक राजा के हाथ में सौंप दिए थे, जिसके बाद राजा का अतिशक्तिशाली बन जाना स्वाभाविक था। यह एक नई बात थी, जहां एक व्यक्ति पूरे समाज के वर्तमान और भाग्य का विधाता बन गया। आद्य वसिष्ठ को, जो हिमालय में ही रहते थे और जिनके नाम का ठीक-ठीक पता नहीं, ठीक ही खतरा महसूस हुआ कि इतना शक्तिशाली और ऐश्वर्य सम्पन्न राजा उन्मत्त हो सकता है।

राजदंड कहीं उन्मत्त और आक्रामक न हो जाए, इसलिए उस पर नियंत्रण आवश्यक है और जाहिर है कि ऐसे राजदंड पर नियंत्रण करने के लिए कोई बड़ा राजदंड काम नहीं आ सकता था, बल्कि ज्ञान का, त्याग का, अपरिग्रह का, वैराग्य का, अंहकार-हीनता का ब्रह्मदण्ड ही राजदंड को नियमित और नियंत्रित कर सकता था। वसिष्ठ के अलावा यह काम और किसी के वश का नहीं था, यह वसिष्ठ ने अपने आचरण से ही आगे चलकर सिद्ध कर दिया।

हिमालय से उतरकर वसिष्ठ जब अयोध्या आए, तब मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य कर रहे थे। इक्ष्वाकु ने उन्हें अपना कुलगुरू बनाया और तब से एक परम्परा की शुरूआत हुई कि राजबल का नियमन ब्रह्मबल से होगा और एक शानदार तालमेल और संतुलन का सूत्रपात शासन व्यवस्था में ही नहीं समाज में भी हुआ। यहां तक कि क्रमश: एक सामाजिक आदर्श बन गया कि जब भी रथ पर जा रहे राजा को सामने स्नातक या विद्वान मिल जाए तो राजा को चाहिए कि वह अपने रथ से उतरे, प्रणाम करे और आगे बढ़े।

एक बड़े विचार या आदर्श की स्थापना जितनी मुश्किल होती है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उस पर आचरण होता है और अगर वसिष्ठों का खूब सम्मान इस देश की परम्परा में है तो जाहिर है कि इस आदर्श का पालन करने में वसिष्ठों ने अनेक कष्ट भी सहे होंगे। कुछ कष्ट तो हमारे इतिहास में बाकायदा दर्ज हैं।

मसलन अयोध्या के ही एक राजा सत्यव्रत त्रिशंकु ने जब अपने मरणशील शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने की पागल जिद पकड़ ली और अपने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से वैसा यज्ञ करने को कहा तो वसिष्ठ ने साफ इनकार कर दिया और उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ा। पर जब इसी वसिष्ठ ने एक बार यज्ञ में नरबलि का कर्मकाण्ड करना चाहा तो फिर विश्वामित्र ने उसे रोका और देवराज की काफी थू-थू हुई। इसके बाद जब वसिष्ठों को वापस हिमालय जाने को मजबूर होना पड़ा तो हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने उनका आश्रम जला डाला। फिर से वापस लौटे वसिष्ठों में दशरथ और राम के कुलगुरू वसिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी, शांतशील और तपोनिष्ठ साबित हुए कि उन्होंने परम्परा से उनसे शत्रुता कर रहे विश्वामित्रों पर अखंड विश्वास कर राम और लक्ष्मण को उनके साथ वन भेज दिया।

उसी परम्परा में एक मैत्रावरूण वसिष्ठ हुए जिनके 97 सूक्त ऋग्वेद में मिलते हैं, जो ऋग्वेद का करीब-करीब दसवां हिस्सा है। इतना विराट बौद्धिक योगदान करने वाले कुल में एक शक्ति वसिष्ठ हुए जिनके पास कामधेनु थी जिसका दुरूपयोग कर अहंकार पालने का मौका उन्होंने कभी भी नहीं दिया। पर घमंडी विश्वामित्रों को ऐसी गाय न मिले, इसके लिए अपने पुत्रों का बलिदान देकर भी एक भयानक संघर्ष उन्होंने विश्वामित्रों के साथ किया।

जो लोग सिर्फ राजाओं के कारनामों और देशों की लड़ाइयों में ही इतिहास ढूंढ़ने की इतिश्री मान लेते हैं, उनके लिए वसिष्ठ का भला क्या महत्व हो सकता है? कुछ नहीं, इसलिए हम भारतीय, सिर्फ हम भारतीय ही समझ सकते हैं कि कितना कठिन काम उन वसिष्ठों ने किया और कितना नया और विलक्षण योगदान उन्होंने भारत की सभ्यता के विकास में किया। जाहिर है कि इसका श्रेय उन आद्य वसिष्ठ को जाता है जिन्होंने राजदंड के ऊपर ब्रह्मदंड का संयम रखने का विचार इस देश को दिया, जिस पर यह देश आज तक आचरण कर रहा है।

विकास का संदर्भ और स्वरूप

के. एन. गोविन्दाचार्य

भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है।

जब हम विकास की बात करते हैं तो प्राय: हम विकास की अमेरिकी अवधारणा को ही दोहराने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि विकास के संदर्भ में भारत की भी एक सोच रही है। भारत ही क्या, दुनिया के प्रत्येक कोने में विकास की व्याख्या अलग-अलग ढंग से की गई है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाले समाजों के रहन-सहन, खान-पान, उनकी राजनीति, संस्कृति, उनके सोचने और काम करने के तौर-तरीके, सब जिस मूल तत्व से प्रभावित होते हैं, वह है वहां की भौगोलिक परिस्थिति। उसी के आलोक में वहां जीवन दृष्टि, जीवनलक्ष्य, जीवनादर्श, जीवन मूल्य, जीवन शैली विकसित होती है। उसी के प्रभाव में वहां के लोगों की समझ बनती है और साथ ही दुनिया में उनकी भूमिका भी तय होती जाती है।

भारत भी ऐसा एक देश है जहां भूगोल का असर पड़ा। उसके कारण यहां विकेन्द्रीकरण, विविधता, अभौतिक सुख का महत्व, मनुष्य प्रकृति का पारस्परिक संबंध जैसी बातों को विशेष महत्व दिया गया। उसी आधार पर यहां सुख की समझ बनी। विश्व दृष्टि, जीवन दृष्टि बनी। दुनिया को बेहतर बनाने में योगदान करने की इच्छा और सामर्थ्य विकसित हुई। यहां समृध्दि और संस्कृति के संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक माना गया। सुख के भौतिक-अभौतिक पहलुओं की समझ बनी। तदनुसार समाज संचालन की विधाएं विकसित हुईं। धर्मसत्ता, समाजसत्ता, राजसत्ता, अर्थसत्ता की संरचनाएं एवं उनके पारस्परिक संबंध, स्वायत्तता आदि की व्यवस्था बनी। समय-समय पर परिमार्जन की व्यवस्था भी बनती गई। देसी समझ के साथ समस्याओं के समाधान और हर प्रकार की सत्ता के विकेन्द्रीकरण को पर्याप्त महत्व दिया गया। विकेन्द्रीकरण, विविधीकरण, स्थानिकीकरण की अवधारणा को समाज व्यवस्था की निरंतरता एवं गतिशीलता के लिए आवश्यक समझा गया। इन सब बातों को भारत की तासीर कहा जा सकता है।

विगत 200 वर्षों में इस तासीर को समय-समय पर मिटाने और बदलने की कोशिश होती रही। अभी यह कोशिश अंधाधुंध वैश्वीकरण एवं बाजारवाद के हमले के रूप में हमारे सामने है। विचार, व्यवस्था, व्यवहार तीनों स्तरों पर इसका प्रभाव है। यह चुनौती एक दानवी चुनौती है क्योंकि इसमें न तो मनुष्य की, न तो उसके सुख की और न ही समाज और प्रकृति की कोई परवाह है। इसकी सोच आक्रामक, पाशविक, प्रकृति विरोधी एवं मानव विरोधी है। इसके लक्षण हैं केन्द्रीकरण, वैश्वीकरण, एकरूपीकरण एवं बाजारीकरण। यह अर्थसत्ता को सर्वोपरि बनाकर राजसत्ता का उपयोग करती है और इस प्रकार समाजसत्ता तथा धर्मसत्ता को नष्ट करके आसुरी संपदा, आसुरी साम्राज्य बनाने के लिए प्रयासरत है। हमारे ऊपर जो आसुरी हमला हो रहा है, उसमें मनुष्य की भौतिक इच्छाओं को हवा देकर उसके जीवन के शेष अभौतिक पहलुओं को नकारने की प्रवृत्ति अंतर्निहित है। इसी के अनुसार सुख एवं विकास आदि को परिभाषित किया जाता है और सभी माध्यमों का उपयोग करते हुए इसे जन-जन के मन में बिठाने की कोशिश की जाती है। जबकि वास्तविकता यह है कि विकास की यह भ्रामक, एकांगी एवं प्रदूषित संकल्पना है।

भारत में विकास का मतलब है शरीर, मन, बुध्दि, आत्मा का संतुलित सुख। आंतरिक एवं बाहरी अमीरी का संतुलन रहे। तदनुसार सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था हो। तदनुसार शिक्षा संस्कार भी हो। समाज में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहे, वही सही विकास होगा। विकास की अवधारणा समाज से जुड़ी हुई है। हम समाज कैसा चाहते हैं? इसी से तय होगा कि विकास हुआ या नहीं। वास्तविक विकास मानवकेन्द्रित न होकर पारिस्थितिकी केन्द्रित होता है, एक ऐसी व्यवस्था जिसमें जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन का परस्पर पोषण होता रहे। व्यक्ति का परिवार, पड़ोस, समाज, दुनिया, प्रकृति के साथ तालमेल बना रहे। वही तकनीक सही मानी जाएगी जो आर्थिक पक्ष के साथ पारिस्थितिकी एवं नैतिक पक्ष का भी ध्यान रख सके।

मौजूदा दौर में लंबी-चौड़ी सड़कों के निर्माण और जीडीपी के बढ़ने को ही विकास बताया जा रहा है। इससे भी बुरी बात यह है कि सत्ता में बैठे लोग दूसरों को भी इसी अवधारणा को सच मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग उनके साथ है। इसका असर यह हुआ कि बहुत सारे लोग शेयर बाजार की उछाल और विदेशी मुद्रा भंडार के साथ-साथ शापिंग माल्स की बढ़ती संख्या को ही विकास मान बैठे हैं। परन्तु हकीकत यह नहीं है। जिसे विकास बताया जा रहा है वह वस्तुत: विकास नहीं है। अगर सही मायने में विकास हुआ होता तो क्या देश में चारों ओर खुशहाली नहीं आई होती? क्या यहां के किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते? एक बात तो साफ है कि विकास को लेकर समाज में भयानक भ्रम फैलाया गया है और अभी भी यह प्रवृत्ति थमी नहीं है।

भारतीय संदर्भ में विकास के साथ कुछ बुनियादी शर्त जुड़ी हैं। यहां वास्तविक विकास कार्य उसी को कहा जा सकता है जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। जबकि आज हो रहा है इसके ठीक उलटा। आज जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उनमें आम आदमी की बजाए पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हित का ध्यान रखा जाता है। वर्तमान संप्रग सरकार की मानें तो आज भी देश के 84 करोड़ लोग बीस रुपए रोजाना पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। आज जहां एक ओर विकास के बढ़-चढ़ कर दावे किए जा रहे हैं वहां इन लोगों की बात करने वाला कोई नहीं है। यह कैसा विकास है जिसमें अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी बढ़ती ही जा रही है। गैरबराबरी की खाई दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। एक खास तरह की सामाजिक और आर्थिक असमानता समाज में बढ़ती हुई देखी जा सकती है।

भारत में विकास तब तक सतही और खोखला माना जाएगा जब तक यहां के किसान सुखी और समृध्द नहीं हैं। आजादी के बाद के शुरूआती दिनों में देश की किसानी को पटरी पर लाने के लिए सरकारी तौर पर कई तरह के प्रयास हुए। लेकिन यहां भी किसानों के पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली को दरकिनार करते हुए पश्चिमी तौर-तरीके थोप दिए गए। परिणाम यह हुआ कि एक बार अनाज का उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन उससे जुड़ी कई समस्याएं भी उत्पन्न हो गईं। जब से देश में तथाकथित ‘आर्थिक उदारवाद’ की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। अब तो संकट किसानों के अस्तित्व का ही है। हम अगर गौर करें तो हमारे ध्यान में आएगा कि 1991 के बाद किसानों की आत्महत्या काफी तेजी से बढ़ी है। अगर हम सरकार के बजट पर निगाह डालें तो पता चलेगा कि इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। अभी देश के किसानों और किसानी की जो दुर्दशा है, वह इन्हीं अदूरदर्शी नीतियों की वजह से है। इस बदहाली के लिए देश का अदूरदर्शी नेतृत्व भी कम जिम्मेदार नहीं है। बीते सालों के अनुभव से साफ है कि किसानों की हालत को सुधारे बगैर हम भारत का विकास नहीं कर सकते।

भारत के विकास की दिशा में सोचने पर मेरे ध्यान में आता है कि यहां ऐसी नीतियों को अपनाया जाना चाहिए, जिनसे परिवार की इकाई मजबूत बने। दरअसल, भारत की संरचना ही ऐसी है कि हम यहां एक-दूसरे के साथ एक खास तरह की डोर में बंधे बगैर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। हमारे सामाजिक संबंधों को तय करने में भी हमारे संस्कारों की अहम भूमिका होती है। हम सब अपने-अपने परिवार से ही संस्कार ग्रहण्ा करते हैं। जब परिवार नामक इकाई मजबूत रहेगी तभी सही मायने में उसके सदस्यों के व्यक्तित्व का समग्र विकास हो पाएगा। आजकल देखने में आ रहा है कि परिवार नामक इकाई कमजोर होती जा रही है। अलगाव बढ़ता जा रहा है। लोग आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। इसका असर समाज में साफ तौर पर दिखने लगा है। भय और असुरक्षा का माहौल बढ़ता जा रहा है। सोचने का दायरा सिमट कर रह गया है। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी करने की मानसिकता में आज लोग आ गए हैं। अगर हम वाकई इस दिशा में सुधार करना चाहते हैं तो हमारी नीतियां ऐसी हों जो परिवार नामक इकाई को मजबूत कर सकें।

देश के विकास के बारे में जब हम सोचें तो यह बात भी जेहन में रहनी चाहिए कि इसके लिए नारी की सुरक्षा, मर्यादा और सहभागिता सुनिश्चित करना बहुत जरूरी है। भारत में नारी को मातृशक्ति का दर्जा दिया गया है। पर हकीकत में यह धारणा बस किताबों में ही रह गई है। व्यावहारिक तौर पर समाज में महिलाओं को वह प्रतिष्ठा नहीं मिल पाई है, जिसकी हकदार वो हैं। हमें राष्ट्र के विकास की नीतियों के निर्धारण के वक्त इस बात का खयाल रखना होगा। आजादी के साठ साल गुजरने के बावजूद हम देख सकते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत कम है। ऊंचे ओहदों की बात करें तो वहां तो महिलाएं और भी कम दिखती हैं। अगर हम समग्र विकास चाहते हैं तो आधी आबादी की सहभागिता को बढ़ाए बगैर ऐसा नहीं हो सकता।

देश के विकास के दौरान समृध्दि और संस्कृति का संतुलन बना रहना बेहद जरूरी है। आजकल देखा जा रहा है कि समृध्दि के लिए संस्कृति की उपेक्षा की जा रही है। समृध्दि भी जनसाधारण की नहीं बल्कि प्रभावशाली लोगों की। देश की नीतियां पूंजीपरस्त हो गई हैं और उसमें थैलीशाहों का हित सर्वोपरि हो गया है। ऐसे में समृध्दि और संस्कृति का संतुलन गड़बड़ाना स्वाभाविक है। यदि हम समाज का समग्र विकास चाहते हैं तो समृध्दि और संस्कृति में संतुलन साधना बेहद जरूरी है। यह संतुलन साधे बगैर समाज में विकास की बात करना बेमानी होगा।

दरअसल, आज इस बात को भी समझने की जरूरत है कि हम आखिर समृध्दि किस कीमत पर चाहते हैं। क्या अपनी परंपराओं को मिटाकर लाई जा रही तथाकथित समृध्दि की हमें जरूरत है? और अगर हमारा जवाब नकारात्मक है तो आखिर हमारे लिए विकास का रास्ता क्या हो? आखिर कैसे हम अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए समृध्दि की दिशा में बढ़ें? कैसे हम अपनी संस्कृति को ही समृध्दि के लिए उपयोग में ला सकें? ये कुछ ऐसे मसले हैं जिन पर बातचीत करने की आज जरूरत है।

स्वस्थ विकास तो मनुष्य के साथ-साथ जमीन, जल, जंगल और जानवर के विकास से भी जुड़ा है। इनकी उपेक्षा करके विकास की परिभाषा गढ़ेंगे तो वह टिकाऊ नहीं होगा। पर्यावरण की जिस समस्या से हम दो-चार हो रहे हैं वह और विकराल स्वरूप ग्रहण कर लेगी। जरूरत इस बात की है कि विकास पारिस्थितिकी को ध्यान में रखकर किया जाए, न कि अकेले मानव मात्र को ध्यान में रखकर। पारिस्थितिकी में हर किसी की अपनी एक अलग और विशेष भूमिका है। अगर इस चक्र के किसी भी अंग को नुकसान हुआ तो पूरे चक्र का गड़बड़ाना तय है। विकास जब केवल मानव मात्र को ध्यान में रखकर करने की कोशिश की जाएगी तो यह सहज और स्वाभाविक है कि प्रकृति में जबर्दस्त असंतुलन कायम होगा और उसके दुष्परिणामों से मनुष्य बच नहीं पाएगा।

यदि विकास के पहिए को सही पटरी पर लाना है तो भूख और बेरोजगारी को मिटाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। आज भी देश की एक बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी नहीं मिल पाती। ऐसे लोग भी अपने देश में है जो रात में भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। उनकी इस स्थिति के लिए यदि हम विकास के मौजूदा माडल को दोषी ठहराएं तो गलत नहीं होगा। बेरोजगारी की मार से नौजवान बेहाल हैं। साफ तौर पर दिख रहा है कि सरकार के पास हर हाथ को रोजगार देने के लिए कारगर नीति का अभाव है। यह अभाव नया नहीं है। हमें विकास की ऐसी अवधारणा पर काम करना होगा जिसमें हर हाथ को काम मिल सके। इसके लिए हमें स्वरोजगार को बढ़ाने की दिशा में भी काम करना होगा। आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ते हुए नौजवानों में ऐसा आत्मविश्वास पैदा करना होगा कि वे किसी का मुंह देखे बिना खुद अपने लिए रोजगार पैदा करते हुए प्रगति की राह पर आगे बढ़ सकें। अभी विकास के जिस माडल को लेकर हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी रेखा तय की जाती है। इसका परिणाम सबके सामने है। मेरा मानना है कि सही मायने में अगर हम विकास चाहते हैं तो गरीबी रेखा के बजाए समृध्दि की रेखा तय की जाए और उसी के मुताबिक समयबध्द कार्यक्रम लागू किए जाएं।

भारत के संदर्भ में अगर हम विकास की बात करते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि राजनैतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। ग्राम सभा को सभी स्तरों के निर्णय में सहभागी बनाया जाए। राजनैतिक सत्ता में आम सहमति की अवधारणा को हकीकत में बदलने की जरूरत है। राजनीतिक दलों का रवैया प्रतिस्पर्धात्मक न होकर सकारात्मक होना चाहिए। इसके अलावा भारत के विकास के लिए चुनावों को बाहुबल और धनबल से मुक्त करने की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसके लिए राजनैतिक दलों को उत्तरदायी बनाने की शुरूआत होनी चाहिए।

देश के समग्र विकास के लिए कर ढांचे को भी सुधारे जाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि वह आमदनी की बजाए खर्च पर कर लगाने की शुरुआत करे। आर्थिक क्षेत्र में अपने देश में बहुत अव्यवस्था है। इसे सुधारने के लिए अन्य उपायों के साथ-साथ अनार्जित आय को परिभाषित एवं नियंत्रित करना जरूरी है। न्यायपालिका सहित पूरे प्रशासनिक ढांचे को विकेंद्रीकरण के जरिए जनता के प्रति जवाबदेह बनाना होगा।

समग्र विकास के लिए यह भी जरूरी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रें को स्वायत्तता दी जाए और उन्हें शक्ति संपन्न बनाकर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाए। ऐसा होने पर ही ये विकास की गति को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर पाएंगे। हमें यह भी याद रखना होगा कि भारत के सामाजिक विकास में यहां के धर्मस्थलों की अहम भूमिका रही है। हमें उनकी सकारात्मक सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी।

शिक्षा को व्यक्तित्व विकास केन्द्रित एवं जीवनोपयोगी बनाया जाना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए कि उससे एक स्वतंत्र और सकारात्मक सोच विकसित हो।

देशी चिकित्सा पध्दतियों को प्रोत्साहित किया जाए और उन्हें सक्षम बनाया जाए। अगर ऐसा किया जाएगा तो विकास को गति मिलनी तय है। हम सब जानते हैं कि बदलती जीवनशैली ने छोटे-बड़े रोगों का प्रकोप बढ़ा दिया है। आनन-फानन में हमें उपचार के लिए अंग्रेजी पध्दतियों का आश्रय लेना पड़ रहा है। इलाज कराते-कराते लोग कंगाल हो जाते हैं, लेकिन प्राय: उन्हें स्वास्थ्य लाभ नहीं मिल पाता। देशी चिकित्सा अपेक्षाकृत सस्ती और कई रोगों में ऐलोपैथी से अधिक कारगर है। हमें इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। निष्कर्ष यह है कि भारत में सकल उत्पाद एवं आर्थिक वृध्दि दर के स्थान पर विकास का एक नया ‘सुखमानक’ तैयार करने की जरूरत है। तभी समग्र विकास होगा और इसका फायदा समाज के प्रत्येक वर्ग को मिल पाएगा।

जीवन संवारने की तीन कलाएं

चैतन्य प्रकाश

बदलाव लगातार है। थोड़ा गहरे से देखें तो यह बदलाव हर पल हो रहा है। सृष्टि का, संसार का अगर ठीक गुणवाचक नाम खोजा जाए तो शायद ‘गति’ होगा। गति सर्वत्र है, फिर स्थिति कहां है?

जिनको हम स्थिर मानते हैं, उन सब पदार्थों के भीतर अणुओं – परमाणुओं में होने वाली इलेक्ट्रानों की गति का खुलासा विज्ञान अरसे पहले कर चुका है। गति की सार्वत्रिकता, सर्वव्यापकता सिद्ध हो चुकी है। एक नजर से लगता है जैसे स्थिति मात्र भ्रम है। संसार में जो ज्ञात है, उसके बारे में विज्ञान की घोषणाएं प्रामाणिक मालूम पड़ती हैं, परंतु अज्ञात के अंधेरे में विज्ञान भी मुश्किल में पड़ जाता है।

अज्ञात के बारे में समर्थ एवं सर्वग्राही संकेत अध्यात्म देता है। अध्यात्म की दृष्टि में संसार परिवर्तनशील है, गतिशील है, चलायमान है, चंचल है, अस्थिर है मगर परमात्मा स्थिर है, अपरिवर्तनीय है, अचल है, अविनाशी है, शाश्वत है। गति एवं स्थिति के बारे में यह आत्यंतिक घोषणा है। सामान्य स्वरूप में दैनिक जीवन में संसार की स्थितिशीलता के कई नजारे मिलते हैं। एक संकलन की तरह इनको रेखांकित किया जाए तो जाहिर होता है कि मनुष्य का जीवन तीन प्रमुख विशेषताओं की डोर से बंधे रथ की तरह है, जो उसे संसार के गतिशीलता के गुण के विरूद्ध स्थितिशील सिद्ध करती हैं।

पहली विशेषता है – रुकने की आदत मनुष्य बुद्धि, ज्ञान, अनुभव, गुण, अवगुण, प्रवत्ति, परिचय, पद्धति, धारणा इत्यादि सभी आयामों पर बार-बार रुकता है, यदि घटनाओं-दुर्घटनाओं की नियति इस आदत पर प्रहार न करे तो शायद मनुष्य रुकने में सुविधा महसूस करता है। विविध स्थितियों पर बलपूर्वक रुके हुए अनेक लोग हैं, जो भाग्य और दुनिया को कोसते रहते हैं।

दूसरी विशेषता है- अड़ने की आदत; मनुष्य बात-बात पर अड़ता है। तेरा-मेरा, उसका-इसका, अड़ने के अनेक पहलू हैं। हजारों जिदें है, जिरहें हैं, बहसें हैं। चर्चाओं, परिचर्चाओं, सभाओं, गोष्ठियों में संवाद के बहाने, अभिव्यक्ति के बहाने अड़ने की आदत फल-फूल रही है। मत-विमतों, दलों, विचारों की दीवारें अड़ने की आदत का ही प्रतिफल हैं।

तीसरी विशेषता है- भिड़ने की आदत; मनुष्य लगातार अपने अदृश्य सींगों को उलझाने में व्यस्त है। सुबह-शाम, दोपहर हर समय दुनिया के कोने-कोने में तरह-तरह से भिडंत जारी रहती हैं। नोंक-झोंक से लेकर गाली-गलौच व मारपीट की अनंत कहानियां जगजाहिर हैं। मनुष्य की हिंसा एवं क्रूरता भिड़ने की आदत का ही विस्तार है। इन तीनों आदतों में मनुष्य की स्थितिगामिता निहित है। किसी एक स्थिति में विद्यमान रहने मात्र से ही रुकना, अड़ना, भिड़ना संभव हो पाता है। ये तीनों आदतें संसार के स्वभाव अर्थात गतिशीलता के विपरीत हैं।

शायद इसीलिए मनुष्य संसार में निरंतर संत्रस्त दिखाई देता है। इन तीनों आदतों के घेरे तोड़कर मनुष्य यदि जीवन की तीन कलाओं का भीतर से आह्वान करे तो वह त्रास के बजाय उल्लास के अनुभव से सराबोर हो सकता है।

पहली कला है; चलने की कला; वह निरंतर चले; विचार में, व्यवहार में, बुद्धि में, ज्ञान में, अनुभव में, गुण-अवगुण, पद्धति, प्रवृत्ति, परिचय, धारणा इत्यादि में बिना रुके चलता रहे। वह परिवर्तन-स्वीकारी रहे तो शायद भाग्य और नियति उसे पूरक और प्रेरक मालूम होंगे। जैसे दरिया सहज उल्लसित है, मनुष्य भी चलने की कला से सहज आनंदित हो सकता है।

दूसरी कला है- झुकने की कला; अड़ना और दबना दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। मगर झुकना दोनों से परे हैं, स्वाभाविक और सहज-पेड़ पौधों की तरह, फूल, पत्तों की तरह। ऐसे ही जैसे दूसरों को रास्ता देना, सवेरे उठकर छोटे-बड़े सबको प्रणाम करना। हृदय की नम्यता शक्ति और सामर्थ्य बनती है।

तीसरी कला है- मिटने की कला; निरंतर अपने भीतर अहं को गिरने देना, संसार में अपने अलग व्यक्तित्व, मान-प्रसिद्धि, प्रभाव-दबाव की कवायदों में छिपी घोर निरर्थकता को पहचान कर सब के बीच नमक की डली तरह घुलनशील होते जाना परम तृप्ति के अनुभव का उपाय है। हमारा अकेलापन, हमारी एकांतिकता हमारी सोच की सीमा मात्र है। सृष्टि अनिवार्यत: सम्बद्ध है, समग्र है, समवेत् है। निरंतर अर्पण, संपूर्ण समर्पण ही मिटने की कला है। इन तीनों कलाओं में संसार का स्वाभाविक गुण गतिशीलता व्याप्त है। वस्तुत: ये तीनों कलाएं संसार रूपी यात्रा के तीन महापड़ाव हैं।

इन तीनों महापड़ावों की यात्रा से संसार पूरा होता है और फिर मनुष्य सहज ही अविचल, अनश्वर, अविनाशी परमतत्व के ऐक्य को अपने भीतर-बाहर अनुभव करता हुआ परमात्मस्वरूप हो पाता है।

भारतीय भाषाओं में अंतरसंवाद

अंग्रेजी के भाषाई साम्राज्यवाद के विरूद्ध संघर्ष की जरूरत

भोपाल, 23 जनवरी, 2010। भोपाल के संभागायुक्त और चिंतक मनोज श्रीवास्तव का कहना है कि मातृभाषाओं की कीमत पर कोई भी भाषा स्वीकारी नहीं जानी चाहिए। दुनिया के तमाम देश अपनी भाषाओं के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं और अंग्रेजी के भाषाई साम्राज्यवाद के खिलाफ कानून बनाने जैसे कदम उठा रहे हैं। हमें भी अपनी भाषाओं के सम्मान और संरक्षण के लिए आगे आना होगा।

वे माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय तथा शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित भारतीय भाषाओं में अंतरसंवाद विषय पर आयोजित समारोह को संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम के मुख्यअतिथि की आसंदी से अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय के भाषाई वैविध्य को एक कौतुक की तरह देखा जा रहा है और उसे एक राष्ट्र के बजाए उपमहाद्वीप की संज्ञा दी जा रही है। क्या भाषाओं की अधिकता से कोई राष्ट्र, राष्ट्र नहीं रह जाता। उन्होंने कहा कि हिंदी सहअस्तित्व की भाषा है, उसके साथ ही भारतीय भाषाओं का भविष्य जुड़ा हुआ है। भारतीय भाषा परिवार की सारी भाषाएं मिलकर इस देश को सम्पन्न करती हैं। कार्यक्रम का शुभारंभ माँ सरस्वती व कवि पत्रकार माखनलालजी की प्रतिमा पर दीप प्रज्जवलन कर किया गया । इस अवसर पर शारदा विहार स्कूल के बच्चों ने आचार्य अवध किशोर के निर्देशन में सरस्वती वंदना व गीत प्रस्तुत किए।

शुभारंभ सत्र की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि विदेशी भाषा के माध्यम से हम पर एक सांस्कृतिक आक्रमण हो रहा है। जिसका नकारात्मक असर समाज जीवन के हर क्षेत्र में दिखने लगा है। कोई भी हमला तभी सफल होता है जब हम कमजोर हों। इसलिए हमें अपने अंदर झांकना होगा। देश में अंग्रेजियत का एक उन्माद सा चल रहा है, जिसमें यूं लगने लगा है कि पश्चिम की हर चीज हमसे बेहतर है। सभी भारतीय भाषाएं एक होकर ही इस जंग को जीत सकती हैं। वरना यह संकट हमें कहीं नहीं छोड़ेगा।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के प्रमुख अतुल कोठारी ने कहा कि आजादी के छः दशकों के बाद हमें अपनी भाषाओं के सम्मान के लिए लड़ना पड़ रहा है, यह कितने दुख की बात है। देश में यह वातावरण बनाया जा रहा है कि अंग्रेजी से ही प्रगति हो सकती है, जबकि यह सबसे बड़ा झूठ है। हमें अपनी भाषाओं का सम्मान बचाने के लिए स्वाभिमान जगाने की जरूरत है। इस मौके पर आचार्य दुग्गिराला विश्वेश्वरम द्वारा लिखित पुस्तक हमारी मातृभाषाएं का विमोचन भी किया गया।

कार्यक्रम के द्वितीय सत्र में लगभग 20 राज्यों से आने भाषा आंदोलन से जुड़े साथियों ने अपने क्षेत्र में चल रहे कामों की जानकारी दी। इस सत्र के प्रमुख वक्ताओं में सर्वश्री उमाशंकर मिश्र, गोविंद प्रसाद, निर्मला नायक और विधान रेड्डी रहे। तीसरे सत्र में हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रयोग को लेकर एक घोषणा पत्र पारित किया गया। जिसमें हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के लिए तमाम मांगें और सुझाव शामिल हैं। इसके साथ ही जनसंचार को संघ लोकसेवा आयोग और राज्य लोकसेवा आयोगों की परीक्षाओं में एक विषय के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव भी पारित किया गया। इस आयोजन में प्रख्यात शिक्षाविद दीनानाथ बत्रा, डा. विजयबहादुर सिंह, डा.अमरनाथ (कोलकाता), वीपी पाण्डेय,हर्षदभाई शाह, केसी रेड्डी, जुगुलकिशोर, डा. महेशचंद्र शर्मा, डा. शाहिद अली, राघवेंद्र सिंह, रेक्टर चैतन्य पुरूषोत्तम अग्रवाल, प्रकाशन अधिकारी सौरभ मालवीय, पाक्षिक पत्रिका ‘कमल संदेश’ के कार्यकारी संपादक डॉ. शिवशक्ति सहित विश्वविद्यालय के शिक्षक एवं छात्र उपस्थित रहे। आभार प्रदर्शन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

उर्दू पत्रकारिता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न

भोपाल,22 जनवरी, 2010। पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग का कहना है कि उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो चुकी है। सियासत ने इन सालों में सिर्फ देश को तोड़ने का काम किया है। अब भारतीय भाषाओं का काम है कि वे देश को जोड़ने का काम करें। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के शुभारंभ सत्र में मुख्यअतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। उनका कहना था कि देश को जोड़ने वाले सूत्रों की तलाश करनी पड़ेगी, भाषाई पत्रकारिता इसमें सबसे खास भूमिका निभा सकती है।

आयोजन के मुख्य वक्ता प्रमुख उर्दू अखबार सियासत (हैदराबाद) के संपादक अमीर अली खान ने कहा कि उर्दू अखबार सबसे ज्यादा धर्म निरपेक्ष होते हैं। उर्दू पत्रकारिता का अपना एक रुतबा है। लोकिन उर्दू अखबारों की प्रमुख समस्या अच्छे अनुवादकों की कमी है। संगोष्ठी में स्वागत उदबोधन करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि इस संगोष्ठी का लक्ष्य उर्दू पत्रकारिता के बारे में एक समान कार्ययोजना का मसौदा तैयार करना है। उर्दू किसी तबके , लोगों की जबान नहीं बल्कि मुल्क की जबान है। मुल्क की तरक्की में उर्दू की महती भूमिका है। वरिष्ठ पत्रकार एवं सेकुलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मोहम्मद मजहरी (दिल्ली) ने कहा कि उर्दू पत्रकारिता गंगा-जमनी तहजीब की प्रतीक है।

प्रथम सत्र में उर्दू पत्रकारिता की समस्याएं और समाधान पर बोलते हुए दैनिक जागरण भोपाल के समाचार संपादक सर्वदमन पाठक ने कहा कि उर्दू अखबारों की प्रमुख समस्या पाठकों व संसाधनों की कमी है। उर्दू – हिंदी पत्रकारों में तो समन्वय है परंतु इन दोनों भाषायी अखबारों में समन्वय की भारी कमी है। आकाशवाणी भोपाल के सवांददाता शारिक नूर ने कहा कि एक समय में भोपाल की सरकारी जबान उर्दू थी व भोपाल उर्दू का गढ़ था। उर्दू सहाफत(पत्रकारिता) को बढ़ाना है तो उर्दू की स्कूली तालीम को बढ़ावा देना होगा। स्टार न्यूज एजेंसी, हिसार की संपादक सुश्री फि़रदौस ख़ान ने कहा कि हिंदी, उर्दू व अंग्रेजी अखबारों की सोच में बुनियादी फर्क है, उर्दू भाषा की तरक्की उर्दू मातृभाषी लोगों व सरकार दोनों पर निर्भर है।

जदीद खबर, दिल्ली के संपादक मासूम मुरादाबादी ने कहा कि जबानों का कोई मजहब नहीं होता, मजहब को जबानों की जरुरत होती है। किसी भी भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है जबकि उर्दू भाषा की लिपि मर रही है इसे बचाने की जरूरत है। बरकतउल्ला विवि, भोपाल की डा. मरजिए आरिफ ने कहा की उर्दू पत्रकारिता में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है। उन्होंने उर्दू पत्रकारिता का पाठ्यक्रम शुरु करने की आवश्यकता बताई। वरिष्ठ पत्रकार तहसीन मुनव्वर (दिल्ली) ने कहा की उर्दू अखबारों में प्रमुख समस्या संसाधनों भारी कमी है। उर्दू अखबारों में मालिक, संपादक, रिपोर्टर, सरकुलेशन मैनेजर व विज्ञापन व्यवस्थापक कई बार सब एक ही आदमी होता है। सहारा उर्दू रोजनामा (नई दिल्ली) के ब्यूरो चीफ असद रजा ने कहा कि हिंदी व उर्दू पत्रकारिता करने के लिए दोनों भाषाओं को जानना चाहिए। उर्दू अखबारों को अद्यतन तकनीकी के साथ साथ अद्यतन विपणन ( लेटेस्ट मार्केटिंग) को भी अपनाना चाहिए। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात हिंदी आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने कहा कि देश में शक्तिशाली लोगों को केवल अंग्रेजी ही पसंद है। हिंदी व उर्दू को ये लोग देखना नहीं चाहते और यही लोग दूसरे लोगों के बच्चों को मदरसे बुलाते हैं परंतु अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजते हैं।

संगोष्ठी के समापन सत्र में उर्दू पत्रकारिता शिक्षण की वर्तमान स्थिति और अपेक्षाएं विषय पर बोलते हुए मुख्य वक्ता प्रो.जेड यू हक (दिल्ली) ने उर्दू पत्रकारिता पर रोजगार की भाषा बनाए जाने के रास्ते में आने वाली समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उर्दू में प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी है। इसके अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में उर्दू के गलत शब्दों के उच्चारण पर भी उन्होंने चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा कि उर्दू अखबारों की समस्या उसकी बिखरी हुई रीडरशिप है इसका समाधान कर इनका प्रसार बढाने की जरुरत है। मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में मासकम्युनिकेशन के रीडर एहतेशाम अहमद ने उर्दू अखबारों के आर्थिक बदहाली पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि आज उर्दू पत्रकारिता में रुचि रखने वालों की कमी नहीं बल्कि संसाधनों की समस्या अधिक है। उन्होंने अन्य बड़े मीडिया घरानों द्वारा उर्दू अखबार निकालने की वकालत की। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि, रायपुर के डॉ शाहिद अली ने कहा कि देश में उर्दू पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों की कमी रही है अब इस दिशा में प्रयास हो रहे है जो सराहनीय है। इस सत्र में डा. श्रीकांत सिंह और डा. रामजी त्रिपाठी ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने उर्दू में एक सक्षम न्यूज एजेंसी की स्थापना पर बल दिया और अंग्रेजियत से मुक्त होने की अपील की। उन्होंने घोषणा कि पत्रकारिता विवि में मास्टर कोर्स में वैकल्पिक विषय के रूप में उर्दू पत्रकारिता पढ़ाने का प्रस्ताव वे अपनी महापरिषद में रखेंगें। साथ ही उर्दू मीडिया संस्थानों को प्रशिक्षित करने के लिए वे सहयोग देने के लिए तैयार हैं। विवि मप्र मदरसा बोर्ड के विद्यार्थियों के लिए पाठ्यक्रम बनाने और संचालित करने में मदद करेगा। सत्रों में आभार प्रदर्शन राघवेंद्र सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव एवं प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार रेक्टर चैतन्य पुरुषोत्म अग्रवाल, आरिफ अजीज प्रो. एसके त्रिवेदी, दीपक शर्मा, शिवअनुराग पटैरया, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. माजिद हुसैन, मोहम्मद बिलाल, सौरभ मालवीय, लालबहादुर ओझा, डा. राखी तिवारी आदि मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन और संयोजन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

क्या सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी कोई दिल्ली में सुनने वाला है ?

डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

सर्वोच्च न्यायालय ने दारा सिंह को फांसी देने की केन्द्रीय सरकार की अपील को नामंजूर कर दिया है। कुछ साल पहले ओडिशा में आस्ट्रेलिया के एक मिशनरी ग्राहम स्टेन्स की जंगल में हत्या हो गई थी। वह अपनी गाडी में था कि कुछ लोगों ने उसकी आग लगा दी। बाद में पुलिस ने इस घटना के लिए जिम्मेदार बता कर कुछ लोगों को गिरफ्तार किया और उसमें दारा सिंह नामका व्यक्ति प्रमुख था। ग्राहम स्टेन्स पर यह आरोप था कि वह विदेशी स्रोतों से प्राप्त धन के बल पर भोले भाले जनजातीय समाज के लोगों का मतांतरण कर रहा था। इसके लिए वे अनेक प्रकार के अमानवीय व निंदनीय तरीकों का इस्तमाल करता था। जनजातीय समाज की परंपराओं को तोडने के लिए वे मतांतरित लोगों को भडकाता था और उन लोगों की आस्थाओं व विश्वासों का मजाक उडाता था। कबीले के लोगों इसाई मजहब की फौज में शामिल करवाने के लिए वे लगभग उन सभी तरीकों को इस्तमाल करता था जिनका उल्लेख जस्टिस नियोगी की अध्यक्षता में गठित आयोग ने किया है। इन्हीं परिस्थितियों में उसकी हत्या हुई और ओडिशा हाइकोर्ट ने दारा सिंह को हत्या का आरोपी मान कर उसे उम्र कैद की सजा सुनाई। ओडिशा हाइकोर्ट के इस फैसले से भारत में मतांतरण के काम में जुटा हुआ चर्च अति क्रोध में था और वह दारा सिंह को किसी भी हालत में जिंदा नहीं देखना चाहता था। इसलिए केन्द्रीय सरकार की जांच एजेंसी सीबीआई ने दारा सिंह को फांसी पर लटकाये जाने की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई। उस वक्त कुछ मानवाधिकारप्रेमियों ने इस बात पर आपत्ति भी जाहिर की थी। लेकिन सीबीआई अंततः दारा सिंह के लिए फांसी की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में गई। इसी बीच ग्राहम स्टेन्स की आस्ट्रेलियाई पत्नी ग्लैडिस भारत को छोड कर वापस अपने देश चली गई।

अब उच्चतम न्यायालय ने इस बहुचर्चित केस में अपना निर्णय सुना दिया है। न्यायालय ने भारत सरकार की अपील को खारिज करते हुए दारा सिंह को फांसी देने से इंकार कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि ग्राहम स्टैंस की हत्या जघन्यतम अपराधों की श्रेणी में नहीं आती। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा है कि लोग ग्राहस स्टैंस को सबक सिखाना चाहते थे क्योंकि वह उनके इलाके में मतांतरण के काम में जुटा हुआ था। इस विषय पर टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने एक बहुत ही महत्नपूर्ण टिप्पणी की है जो मतांतरण के काम में लगी हुई अलग अलग मिशनरियों के लिए मार्गदर्शक हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि किसी भी व्यक्ति की आस्था व विश्वासों में दखलदाजी करना और इसके लिए बल का प्रयोग करना, उत्तेजना का प्रयोग करना, लालच का प्रयोग करना या किसी को यह झुठा विश्वास दिलवाना कि एक मजहब दूसरे से अच्छा है और इन सभी तरीकों का इस्तमाल करते हुए किसी व्यक्ति का मतांतरण करना, इसको किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि इस प्रकार के मतांतरण से हमारे समाज की उस आधारभित्ति पर चोट होती है जिसकी रचना संविधान के निर्माताओं ने की थी।

सर्वोच्च न्यायालय के इस टिप्पणी से पहले भी अनेक न्यायालयों ने यह निर्णय दिये हैं कि भारतीय संविधान में अपने मजहब का प्रचार करने का अधिकार तो दिया हुआ है लेकिन किसी को भी अनुचित साधनों के प्रयोग से मतांतरण का अधिकार नहीं है। यही कारण है कि ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश जनजातीय बहुल राज्यों ने मतांतरण को रोकने के लिए कानून बनाया हुआ है। लेकिन दुर्भाग्य से इस कानून के होते हुए भी ग्राहम स्टेंस जैसे विदेशी लोग अकेले ओडिशा में ही हजारों हजारों लोगों का मतांतरण करवा पाने में सफल हो गये और राज्य सरकार आंखें मुंद कर सोयी रही। यही परिस्थितियां रही होगी ओडिशा के लोगों ने राज्य सरकार के असफल हो जाने पर ग्राहम स्टेंस को सबक सिखाने की सोची होगी। यद्यपि इस तरीके को अच्छा नहीं माना जा सकता लेकिन फिर भी एक बात का ध्यान रखना चाहिए यदि जनजातीय समाज में मिशनरियों की इस प्रकार की अमानवीय गतिविधियों को रोका न गया तो वह समाज इसे रोकने के लिए स्वयं किसी भी सीमा तक जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से केन्द्रीय सरकार खतरे की इस घंटी को सुनने के बजाए दारा सिंह को ही फांसी पर लटकाने को ज्यादा सुविधाजनक मान कर चल रही है। ओडिशा में ही दो साल पहले चर्च के लोगों ने स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या कर दी थी। ये भी जनजातीय समाज में मिशनरियों के उस मतांतरण आंदोलन का ही विरोध कर रहे थे। स्वामी जी की हत्या के विरोध में जब पूरा कंध समाज ऊफान पर आ गया तो राज्य सरकार एक बार फिर चर्च के साथ खडी दिखाई दी और कंध समाज को प्रताडित और डराने धमकाने के कार्य में लगी रही। ग्राहम स्टैंस के हत्यारों को पकडने के लिए राज्य सरकार ने जितनी तत्परता दिखाई थी उसकी शतांश भी स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्यारों को पकडने और दंड दिलवाने में नहीं दिखाई। अलबत्ता इस भीतर केन्द्रीय सरकार ने आस्ट्रेलिया से ग्राहम स्टेंस की पत्नी ग्लैडिस को वापस बुला कर पद्मश्री से सम्मानित किया था। यह जनजातीय समाज के मुंह पर एक और तमाचा था।

अब समय आ गया है कि इस गंभीर मुद्दे पर गहरी चर्चा की जाए और भविष्य के लिए ठोस रणनीति बनायी जाए ताकि विदेशी ताकतों से संचालित मिशनरियां मतांतरण के बल पर भारत की पहचान और अस्मिता को समाप्त न कर सकें। इस रणनीति के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा दिया गया यह दिशानिर्देश अत्यंत सहायक सिद्ध हो सकता है। लेकिन पिछले कुछ सालों से केन्द्रीय सरकार के व्यवहार और आचरण से यह लगता है कि उसकी रुचि भारत में छल और बल से किये जा रहे मतांतरण के आंदोलन को रोकने में उतनी नहीं है जितनी उसे प्रोत्साहित करने में है। यही कारण है कि जब राजस्थान विधानसभा ने राज्य में मतांतरण को रोकने के लिए विधेयक दो दो बार बहुमत से पारित किया तो उस समय की राज्यपाल श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने ( जो अब राष्टपति पद पर विराजमान हैं) अनेक प्रकार के अडंगे लगा कर उसे कानून नहीं बनने दिया। इसी प्रकार गुजरात विधानसभा ने जब इसी प्रकार के एक विधेयक को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए उसमें संशोधन को बहुमत से स्वीकृत किया तो राज्यपाल ने केन्द्रीय सरकार के निर्देशों के चलते उसमें अडंगे लगाये। जिन प्रदेशों में इस प्रकार का कानून बना हुआ भी हैं वहां भी शायद ही कोई पादरी होगा जिसको इस कानून का उल्लंघन करने के आरोप में सजा सुनायी गई है। सजा की बात तो दूर है किसी पर मुकद्दमा ही चलाया गया हो, यह भी संदेहात्मक है। यही कारण है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में मतांतरण रोकने संबंधी विधेयक प्रभावी होने पर भी वहां लाखों की संख्या में जनजातीय समाज को मतांतरित किया जा चुका है।

दुर्भाग्य से भारत में जिन लोगों के हाथों में सत्ता सूत्र आ गये हैं उनकी वैटिकन के राष्ट्रपति में ज्यादा आस्था है, भारत के इतिहास, विरासत, आस्था व विश्वासों से कम। पोप का यही मानना है कि अंतिम मोक्ष तक ले जाने के लिए ईसाई मजहब ही सर्वश्रेष्ठ है बाकि सब मजहब शैतान के मजहब हैं। सत्ता के उच्च स्थानों पर बैठे हुए कुछ लोग पोप के इसी एजेंडा को भारत में लागू करना चाहते हैं। चाहे उसके लिए दारा सिंह को फांसी पर लटकाना पडे, त्रिपुरा के शांति काली जी महाराज और कंधमाल के स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती को उनके ही आश्रम में गोलियों से उडाना पडे। परंतु देश के सर्वोच्च न्यायालय ने इतिहास के इस मोड पर एक बहुत ही सही और सामयिक चेतावनी दी है। क्या दिल्ली में कोई सुनने वाला है ?

जब कोई किसान आत्महत्या करता है

अन्नदाता से को इस जाल से निकालने की जिम्मेदारी सत्ता और समाज दोनों की

– संजय द्विवेदी

यह सप्ताह दुखी कर देने वाली खबरों से भरा पड़ा है। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला चल रहा है। हर दिन एक न किसान की आत्महत्या की खबरों ने मन को कसैला कर दिया है। कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्याओं की खबरें बताती हैं कि हालात किस तरह बिगड़े हुए हैं। ऐसे कठिन समय में किसानों को संबल देना समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है। क्योंकि यह चलन एक-दूसरे को देखकर जोर पकड़ सकता है। जिंदगी में मुसीबतें आती हैं किंतु उससे लड़ने का हौसला खत्म हो जाए तो क्या बचता है। जाहिर हैं हमें यहीं चोट करनी चाहिए कि लोगों का हौसला न टूटे वरना एक समय विदर्भ में जो हालात बने थे वह चलन यहां शुरू हो सकता है। ऐसे में सरकारी तंत्र को ज्यादा संवेदना दिखाने की जरूरत है, उसे यह प्रदर्शित करना होगा कि वह किसानों के दर्द में शामिल है। कर्ज लेने और न चुका पाने का जो भंवर हमने शुरू किया है, उसकी परिणति तो यही होनी थी।

भारतीय खेती का चेहरा, चाल और चरित्र सब बदल रहा है। खेती अपने परंपरागत तरीकों से हट रही है और नए रूप ले रही है। बैलों की जगह टैक्टर, साइकिल की जगह मोटरसाइकिलों का आना, दरवाजे पर चार चक्के की गाड़ियों की बनती जगह यूं ही नहीं थी। इसके फलित भी सामने आने थे। निजी हाथों की जगह जब मशीनें ले रही थीं। बैलों की जगह जब दरवाजे पर टैक्टर बांधे जा रहे थे तो यह खतरा आसन्न था ही। गांव भी आज सामूहिक सामाजिक शक्ति का केंद्र न रहकर शहरी लोगों, बैंकों और सरकारों की तरफ देखने वाले रह गए। इस खत्म होते स्वालंबन ने सारे हालात बिगाड़े हैं। आज सरकारी तंत्र के यह गंभीर चिंता है कि इतनी सारी किसान समर्थक योजनाओं के बावजूद क्यों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हैं। जाहिर तौर पर इसके पीछे सरकार, उसके तंत्र और बाजार की शक्तियों पर किसानों की निर्भरता जिम्मेदार है। किसान इस जाल में लगातार फंस रहे हैं और कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। बाजार की नीतियों के चलते उन्हें सही बीज, खाद कीटनाशक सब गलत तरीके से और घटिया मिलते हैं। जाहिर तौर पर इसने भी फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला है। इसके चलते आज खेती हानि का व्यवसाय बन गयी है। अन्नदाता खुद एक कर्ज के चक्र में फंस जाता है। मौसम की मार अलग है। सिंचाई सुविधाओं के सवाल तो जुड़े ही हैं। किसान के लिए खेती आज लाभ का धंधा नहीं रही। वह एक ऐसा कुचक्र बन रही है जिसमें फंसकर वह कहीं का नहीं रह जा रहा है। उसके सामने परिवार को पालने से लेकर आज के समय की तमाम चुनौतियों से जूझने और संसाधन जुटाने का साहस नहीं है। वह अपने परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा है। यह अलग व्याख्या का विषय है कि जरूरत किस तरह नए संदर्भ में बहुत बढ़ और बदल गयी हैं।

कर्ज में डूबा किसान आज मौसम की मार, खराब खाद और बीज जैसी चुनौतियों के कारण अगर हताश और निराश है तो उसे इस हताशा से निकालने की जिम्मेदारी किसकी है। सरकार, उसका तंत्र, समाज और मीडिया सबको एक वातावरण बनाना होगा कि समाज में किसानों के प्रति आदर और संवेदना है। वे मौत को गले न लगाएं लोग उनके साथ हैं। शायद इससे निराशा का भाव कम किया जा सके। मध्यप्रदेश मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हालांकि तुरंत इस विषय में धोषणा करते हुए कहा कि किसानों को फसल का पूरा मुआवजा मिलेगा और किसानों को आठ घंटे बिजली भी मिलने लगेगी। निश्चय ही मुख्यमंत्री की यह धोषणा कि किसानों को उनके हुए नुकसान के बराबर मुआवजा मिलेगा एक संवेदशील धोषणा है। सरकार को भी इन घटनाओं के अन्य कारण तलाशने में समय गंवाने के बजाए किसानों को आश्वस्त करना चाहिए। अपने अमले को भी यह ताकीद करनी चाहिए कि वे किसानों के साथ संवेदना से पेश आएं। मूल चिंता यह है कि किसानों की स्थिति को देखते हुए जिस तरह बैंक कर्ज बांट रहे हैं और किसानों को लुभा रहे हैं वह कहीं न कहीं किसानों के लिए घातक साबित हो रहा है। कर्ज लेने से किसान उसे समय पर चुका न पाने कारण अनेक प्रकार से प्रताड़ित हो रहा है और उसके चलते उस पर दबाव बन रहा है। सरकार में भी इस बात को लेकर चिंता है कि कैसे हालात संभाले जाएं। सरकार के तंत्र को सिर्फ संवेदनशीलता के बल पर इस विषय से जूझना चाहिए। मुख्यमंत्री की छवि एक किसान समर्थक नेता की है। वे गांव से आने के नाते किसानों की समस्याओं को गंभीरता से समझते हैं इसलिए उनसे उम्मीदें भी बहुत बढ़ जाती हैं। एक बड़ा प्रदेश होने के नाते किसानों की समस्याओं भी बिखरी हुयी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए अन्नदाताओं के मनोबल बनाने के लिए सरकार कुछ ऐसे कदम उठाएगी जिससे वे आत्महत्या जैसी कार्रवाई करने के लिए विवश न हों।

भारतीय खेती पर बाजार का यह हमला असाधारण नहीं है। बैंक से लेकर साहूकार ही नहीं, गांवों में बिचौलियों की आमद-रफ्त ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है। ये सब मिलकर गांव में एक ऐसा लूट तंत्र बनाते हैं, जिससे बदहाली बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गन्ना किसानों को सालोंसाल भुगतान नहीं होता। व्यावसायिक लाबियों के दबाव में हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री किस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, यह सारे देश ने देखा है। एक तरफ बर्बाद फसल, दूसरी ओर बढ़ती महंगाई आखिर आम आदमी के लिए इस गणतंत्र में क्या जगह है ? जो हालात हैं वह एक संवेदनशील समाज को झकझोरकर जगाने के लिए पर्याप्त हैं किंतु फिर भी हमारे सत्ताधीशों की कुंभकर्णी निद्रा जारी है। ऐसे में क्या हम दिल पर हाथ रखकर यह दावा कर सकते हैं कि हम एक लोककल्याणकारी राज्य की शर्तों को पूरा कर रहे हैं।

मध्यप्रदेश की नौकरशाही किसानों की आत्महत्याओं को एक अलग रंग देने में लगी है। कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्याओं के नए कारण रच या गढ़ कर हमारी नौकरशाही क्या इस पाप से मुक्त हो जाएगी,यह एक बड़ा सवाल है। हां, सत्ता में बैठे नेताओं को गुमराह जरूर कर सकती है। किसानों की आह लेकर कोई भी राजसत्ता लंबे समय तक सिंहासन पर नहीं रह सकती है। अगर किसानों की आत्मह्त्याओं को रोकने के लिए सरकार, प्रशासन और समाज तीनों मिलकर आगे नहीं आते, उन्हें संबल नहीं देते तो इस पाप में हम सब भागीदार माने जाएंगें। करोंड़ों का घोटाला करके, करोड़ों की सार्वजनिक संपत्ति को पी-पचा कर बैठे राजनेताओं व नौकरशाहों, बैकों का करोंड़ों का कर्ज दबाकर बैठे व्यापारियों से ये किसान अच्छे हैं जिनकी आंखों में पानी बाकी है कि कुछ लाख के कर्ज की शरम से बचने के लिए वे आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। ऐसे नैतिक समाज (किसानों) को हमें बचाना चाहिए ताकि वे हमारे समाज को जीवंत और प्राणवान रख सकें। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने समय रहते सक्रियता दिखाकर इस हालात को संभालने की दिशा में प्रयास शुरू किए हैं। उन्होंने पीड़ित किसानों और प्रधानमंत्री से मुलाकात कर देश का ध्यान इस ओर खींचा है। केंद्र सरकार को भी इस संकट को ध्यान में रखते हुए राज्य को अपेक्षित मदद देनी चाहिए। समाज जीवन के अन्य अंगों को भी इस विपदा से उबारने के लिए अन्नदाता का संबल बनना चाहिए, क्योंकि यही एक संवेदनशील समाज की पहचान है।

राष्ट्र सर्वोपरि, सियासी रसूख खुदगर्जी नहीं

राष्ट्रीय एकता यात्रा के प्रसंग में


भरतचंद्र नायक

जम्मू कश्मीर की राजधानी श्रीनगर के ऐतिहासिक लालचौक पर राष्ट्रीय ध्वज फहराये जाने के संकल्प की घोषणा के साथ मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला खबरों के मानचित्र पर आ गये हैं। दो घोषणाएं देश की जनता में चर्चा का विषय बन चुकी हैं। 12 जनवरी को पं. बंगाल के कोलकता नगर में तिरंगा ध्वज भेंट करते हुए जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने ठाकुर रविंद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद चंटर्जी और डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के उत्कट राष्ट्रप्रेम की सरिता प्रवाहित की, राष्ट्रीय एकता यात्रा का लक्ष्य स्पष्ट हो गया कि संकल्प यात्रा का राजनीतिक उद्देश्य नहीं है। यह भारतीयता और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। राष्ट्रीय अखण्डता का उद्धोष है। जम्म -कश्मीर में अलगाववादियों ने देश की अखण्डता को खंडित करने का जो मंसूबा बांधा है, उसका माकूल जवाब राष्ट्रीय एकता का उद्धोष ही हो सकता है। दूसरी खबर राष्ट्रीय एकता यात्रा के जम्मू कश्मीर में प्रवेश पर प्रतिबंध के फरमान को केंद्र सरकार की मौन सहमति कौतुहल का विषय रही।

ऐसे में बरबस इतिहास के धुंधले पृष्ठ सामने आते हैं। भारत की स्वतंत्रता के साथ अहम सवाल देशी रियायतों के विलीनीकरण का था। यह प्रश्न रियासतों के राजा, महाराजा की इच्छा पर निर्भर कर दिया गया था। वे जहां चाहे विलय कर लें। जम्मू कश्मीर के महाराजा हरीसिंह की भारत में विलय की इच्छा के बावजूद कुछ झिझक थी। पं.जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि शेख अब्दुल्ला को रिहा कर उन्हें जम्मू कश्मीर के प्रमुख की मान्यता दे दी जाए। इसके लिए महाराजा हरीसिंह रजामंद नहीं थे। इस दुविधा का लाभ पाकिस्तान के हुक्मरान उठाने के लिए तत्पर देखे गए और उन्होंने अक्टूबर 1947 के पहले हमले में ही सामूहिक हमला कर अराजकता फैलाने और कब्जा करने की योजना बना ली। उनका मकसद दुनिया को यह दिखाना था कि राजा के विरूद्ध बगाबत हो रही है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रवादी शक्तियां यह भांप चुकी थीं। कबायली हमले के वेश में पाकिस्तान की सेना के हमले की जानकारी, षड्यंत्रों की सूचना रियासत के दीवान मेहर चंद महाजन को दी गई। स्वयंसेवकों ने साहसिक करतब दिया। इसी का नतीजा था कि महाराजा हरीसिंह के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। उन्हें तत्कालीन स्वराष्ट्र मंत्री वल्लभभाई पटेल की तासीर और तदबीर पता थी। सरदार पटेल से हरीसिंह ने सारी परिस्थिति पर चर्चा की। सरदार पटेल को पता था कि हरीसिंह और गुरु गोलवलकर में सैध्दांतिक घनिष्ठता है। इस घनिष्ठता का आधार सियासत नहीं राष्ट्रवाद का जबा था। पटेल ने सोचा कि लाभ उठाया जा सकता है। मेहरचंद महाजन को सरदार पटेल ने गुरुजी और हरीसिंह की तत्काल भेंट कराने का मिशन सौंपा और विशेष विमान का प्रबंध किया गया। 17 अक्टूबर को गुरुजी श्रीनगर पहुंचे। गुरुजी और महाराजा हरिसिंह के बीच बैठक हुई। इस बैठक में मेहरचंद के अलावा कोई चौथा व्यक्ति था तो राजकुमार कर्ण सिंह थे, जो पैर में प्लास्टर बांधे पड़े थे। मुद्दे की बात यह थी कि हरीसिंह ने आशंका जतायी थी कि पं.नेहरू की जिद शेख अब्दुल्ला को रिहाकर शासक की मान्यता दिलाने की है। लेकिन इससे प्रजा के दुखी होने और भारत विरोधी गतिविधियां आरंभ होने की आशंका बनी रहेगी। गुरुजी ने तब उनकी चिंता से साक्षात्कार करते हुए भरोसा दिलाया कि विलय के बाद सरदार पटेल पूरा बंदोबस्त करेंगे। प्रजा रंजन में कोई कमी नहीं रखी जावेगी। गुरुजी ने हरीसिंह को सलाह दी कि उनकी हिफाजत की दृष्टि से वे जम्मू पहुंचें, जहां स्वयंसेवक भी उनकी सुरक्षा में प्राण न्यौछावर कर देंगे। गुरुजी 19 अक्टूबर, को विशेष विमान से दिल्ली लौटे और सरदार पटेल को विवरण के साथ आश्वस्त कर दिया। विलीनीकरण की प्रक्रिया पूरी करने के लिए सरदार पटेल ने स्वराष्ट्र मंत्रालय के सचिव वी पी मेनन को भेजा। 26 अक्टूबर, 1947 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर हो गए। साधिकार विलय होने की बात शेख अब्दुल्ला ने संविधान सभा में तस्तीक भी की थी। शेख अब्दुल्ला के पोते उमर अब्दुल्ला यह भी भूल रहे हैं कि 1975 में जब शेख अब्दुल्ला और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ था, वर्तमान संवैधानिक प्रावधानों पर शेख अब्दुल्ला ने स्वीकृति की मोहर लगायी थी। सभी प्रावधान पुन: स्वीकार किये गये थे। उमर अब्दुल्ला अब अलगाववादियों के प्रवक्ता बनकर खुद संवैधानिक पद पर बने रहने का संवैधानिक अधिकार गवां रहे हैं। विलय पर उमर का सवाल हरीसिंह की दूरदर्शी की याद दिलाता है।

जम्मू कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला खानदान की चाल, चरित्र और चेहरा हमेशा बदलता रहा है। जब वहां दो निशान, दो विधान, दो प्रधान की व्यवस्था पर डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ऐतराज उठाया, कमोबेश कांग्रेस की स्थिति आज की तरह शतुर्मुर्ग की तरह ही थी। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ का नेतृत्व करते हुए जम्मू-कश्मीर में प्रवेश परमिट व्यवस्था का विरोध किया। 1953 में डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट के प्रवेश के आंदोलन की अगुवाई की। शेख अब्दुल्ला सरकार ने उन्हें जम्मू-कश्मीर सीमा पर ऐसे स्थान पर गिरफ्तार किया, जहां भारत के न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं था। डॉ. मुखर्जी ने भारतीय अखण्डता के लिए प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। तब जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख की निर्ममता ने डॉ. मुखर्जी का बलिदान ले लिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने जब डॉ. मुखर्जी के परिवार को शोक संवेदना भेजी, तब डॉ. मुखर्जी की माता जी ने एक ही मांग की थी कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौत की संदिध परिस्थिति की जांच के लिए न्यायिक आयोग बनाए, जो कभी नहीं बना। ऐसा क्यों नहीं किया गया, यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित बना है। उनके बलिदान की वजह से दो प्रधान, दो निशान की व्यवस्था बदल गयी। प्रवेश परमिट की अनिवार्यता समाप्त हुई। आज जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है, तो उन राष्ट्रवादियों की वजह से है आज जिन्हें श्रीनगर के लाल चौक पर ध्वजारोहण करने से रोका जा रहा है। इसकी वजह अलगाववादियों का विरोध है, जिसे शह पाकिस्तान से और समर्थन नेशनल कांफ्रेंस तथा कांग्रेस से मिल रहा है।

दरअसल कश्मीर में कांटे बोये गये और घटनाओं के वस्तुनिष्ठ लेखन का कार्य नहीं होने दिया गया। महाराजा हरीसिंह को गलत पेश किया गया कि वे विलय के हिमायती नहीं थे। वास्तविकता यह है कि शेख अब्दुल्ला और पं.नेहरू को हरी सिंह से चिढ़ थी। क्योंकि हरीसिंह ने शेख अब्दुल्ला की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये थे। हरीसिंह की राष्ट्रीयता को चुनौती नहीं दी जा सकती है। उन्होंने 1930 में लंदन में गोल मेज कांफ्रेंस में कहा था कि वह पहले भारतीय हैं और बाद में महाराज हैं। तत्कालीन गर्वनर जनरल माउंट वेटन और पं.नेहरू ही कश्मीर के भारत में विलय के हिमायती नहीं थे। तत्कालीन घटनाएं इसकी पुष्टि करती हैं। लेकिन यह भी सही है कि जो विलय पत्र हस्तातरित हुआ है

और वह सभी रियायतों जैसा है। उस पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। यदि जे.के. का विलय अधूरा है, तो अविभाजित भारत की सभी रियासतों का विलय अधूरा है। आज के संदर्भ में उमर अब्दुल्ला ने जो बयान दिया है, वे यह बताना चाहते हैं कि रिश्ते अस्थायी हैं। उनका भारत के साथ संवैधानिक रिश्ता विवादित है। गोया खानदानी पैंतरा भयादोहन का जारी है। कांग्रेस मसूमियत का लबाया ओढे है। राहुल गांधी और उमर अब्दुल्ला की जुगलबंदी ने राष्ट्र की अखण्डता को हल्के पन से लेकर साबित कर दिया है कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता और उसकी कीमत चुकाने के लिए उत्सर्ग के मायने उनके लिए कुछ भी नहीं है। सत्ता की अपरिहार्यता उनके लिए अहम बात है।

कहा जाता है कि इतिहास अपने को दोहराता है। पं. नेहरू ने लम्हे मे जो खता की उसकी सजा साठ वर्षों से देशवासी भुगत रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पुराणों में सरस्वती प्रदेश कहा गया। नब्बे प्रतिशत वित्तीय पोषण देश के करदाताओं के पैसे से हो रहा है। उमर अब्दुल्ला ने यह कह कर भारत की अवाम के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी है कि वे न तो भारतीय संघ की कठपुतली हैं और भीख का कटोरा लिए दिल्ली जाते हैं। जब पाकिस्तान की शह पर जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यकों को खदेड़ा जा रहा है, विशेष सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को समाप्त करने, स्वायत्तता 1953 पूर्व की देन, फौज में कटौती करने के लिए षड्यंत्र रचे जा रहे है। पाकिस्तान झंडा फहराया जाना आम रिवाज बन रहा है। किसी भी राष्ट्र भक्त, जमात ने साहस तो किया कि जम्मू कश्मीर के अवाम को बताये कि पूरा देश उनके साथ है। पाक परस्त अलगाववादी समूचे जम्मू कश्मीर को हांक नहीं सकते हैं। इस राष्ट्रीय एकता यात्रा से उमर अब्दुल्ला को खौफजदा होने की आवश्यकता नहीं रही है। लेकिन उमर अब्दुल्ला तो अलगाववादियों के प्रवक्ता की तरह राष्ट्रवादियों के साथ अलगाववादियों की तरह बर्ताव कर रहे हैं। जिसे इतिहास माफ नहीं करेगा। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की असलियत से पूरा देश वाकिफ हो रहा है. इन्हें राष्ट्रीय अखण्डता, देश की सुरक्षा सर्वोपरि नहीं है। ये निरे राजनीति में रसूख पालने और खुदगर्जी की फसल काटने के तलफगार है। राजनीति में वंश परंपरा के गुणदोष नहीं आने दिये जाए, इसलिए ही दुनिया ने लोकतंत्र का वरण किया है। राजशाही को समाप्त किया है, इसे एक विंडवना ही कहा जाएगा कि महाराजा हरीसिंह ने जिन घटनाओं की पूर्व कल्पना कर अपनी आशंका व्यक्त की थी, ये चित्र पट की तरह घटित हुई है। हरीसिंह का जो विरोध तब शेख अब्दुल्ला कर रहे थे आज भी राष्ट्रवादी ही जम्मू कश्मीर के शासक दल नेशनल कांफ्रेंस के निशाने पर हैं। कांग्रेस के राडार पर राष्ट्रीय अखण्डता से अधिक सियासत रही है, जो आज भी है।

साम्राज्यवादी रवैया त्यागे चर्च

आर एल फ्रांसिस

नये साल में पोप बेनेडिक्ट 16वें ने दुनियाभर के नेताओं से ईसाइयों की सुरक्षा के लिए उचित कदम उठाने की अपील की है। वेटिकन सिटी में नववर्ष के मौके पर एकत्रित हजारों श्रद्वालुओं को संबोधित करते हुए पोप बेनेडिक्ट ने अफ्रीका महाद्वीप में ईसाई धर्मावलंबियों पर बढ़ते हमलों पर गहरी चिंता प्रगट की थी। बीते कुछ महीनों में मिस्र, नाइजीरिया, इराक और पाकिस्तान में ईसाइयों पर हमलों की घटनाएं बढ़ गई है। बीते क्रिसमस की पूर्व संध्या पर मध्य नाइजीरिया में इस्लामी चरमपंथियों द्वारा किये गए हमलों में 38 लोग मारे गए थे। इसी तरह 31 अक्तूबर को इराक की राजधानी बगदाद में एक चर्च पर हुए हमले में दो पादरियों और सात सुरक्षाकर्मियों सहित 44 ईसाई मारे गए थे। वही नववर्ष के मौके पर मिस्र में एक चर्च पर हुए हमले में 21 लोग मारे गए।

ईसाइयों पर हो रहे हमलों का जिक्र करते हुए पोप बेनेडिक्ट 16वें ने कहा कि मानवता से बड़ा धर्म है और हमें हर हाल में इसकी रक्षा करनी होगी। ईसाइयों पर हमलों के साथ साथ पोप की सबसे बड़ी चिंता ईसाइयों की घटती अबादी भी है। कुछ वर्ष पूर्व पोप बेनेडिक्ट 16वें ने यूरोप की घटती जनसंख्या पर अपनी तल्ख टिप्पणी में कहा था कि यूरोप अपने भविषय में आस्था खो रहा है उनका कहना था कि आपको दुर्भाग्य से यह बात लिख लेनी चाहिए कि यूरोप खुद को इतिहास से मिटाने के रास्ते पर चल रहा है।

महत्वपूर्ण यह है कि पोप की नजर भविष्य पर है यूरोपीय एथेनिक वृद्धिदर में सबसे कम वृद्धिदर रोमन कैथोलिक की है और अगर यह ऐसे ही रही तो आने वाले समय में कैथोलिक धर्मावंलब्यिों का जनसंख्या अनुपात मुसलिमों से कम हो जाएगा। इटली,स्पेन और पौलेंड जैसे देशों में चर्च और सरकार प्रजनन दर बढ़ाने के प्रयास कर रही है। क्योंकि चर्च की चिंता का एक और भी कारण है कि आने वाले कुछ दशकों में कार्यशील यानी युवाओं (उम्र 15-60) की संख्या काफी कम हो जायेगा। बूढ़ों की बढ़ती तादाद के मामले में स्वीडन सबसे आगे है। बेल्जियम,नार्वे,ग्रीस,इटली जैसे देश इस समास्या से लड़ रहे है। चर्च शुरु से साम्राज्यवादी रहा है और वह अपने विस्तार के नये नये तरीके खोज ही लेता है। इस समय चर्च एशियाई देशों में अपना विस्तार करने में लगा हुआ है।

श्रीलंका, भारत, नेपाल, बर्मा, पकिस्तान, बंग्लादेश, अफगानिस्तान, जैसे देशों में कैथोलिक एवं गैर कैथोलिक चर्च संगठन अपने प्रभाव को बढ़ाने और नयी जमीन तलाश करने का कार्य कर रहे है। चर्च के इस विस्तारवादी आंदोलन के चलते मुस्लिम जगत में तीव्र प्रतिक्रिया हो रही है। वहीं चीन की सरकार ने चर्च को अपने नियंत्रण में ले लिया है। मुस्लिम देशों सें पोप ने अनुरोध किया है कि वह अपने यहा ईसाइयों को चर्च बनाकर खुले में प्रर्थना करने की इजाजत दें।

भारत के चर्च को अपने देश पर गर्व होना चाहिए कि उन्हें यहां बहुसंख्यक समुदाय से भी ज्यादा धार्मिक स्वतंत्रता मिली हुई है परन्तु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चर्च की विस्तारवादी मानसिकता के चलते देश के कुछ हिस्सों में टकराव का वातावरण पैदा हो रहा है। दो वर्ष पूर्व हम उड़ीसा के कंधमाल में घटी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को झेल चुके है। जिसके कारण हमें विश्वपटल पर काफी बदनामी भी उठानी पड़ी। आज भी कुछ व्यक्ति एवं संगठन अपने स्वार्थो के चलते शांति के मार्ग में रोड़ा बने हुए है और विश्व पटल पर देश को बदनाम करने का कोई अवसर वह नही खोते।

भारत में इस समय हजारों ईसाई संगठन दलितों एवं आदिवासियों के बीच सक्रिय है। चर्च यह मानता है कि आज उसकी मौजूदा जनसंख्या का 70 प्रतिशत से ज्यादा दलित वर्गो से है। विदेशों से हजारों करोड़ रुपया प्रतिवर्ष अनुदान पाने वाले यह संगठन आज तक अपने इन धर्मांतरित अनुयायियों को सामाजिक समता और आर्थिक सुरक्षा नही दे पाए। संविधान में मिले शिक्षा के अधिकार तक से चर्च ने अपने अनुयायियों को बाहर कर दिया है और वह समुदाय के नाम पर मिले अधिकारों का व्यापारी बन गया है।

देश के दूर दराज के पिछड़े क्षेत्रों में एक नई संस्कृति और नए-नए प्रतीक खड़े किये जा रहे है। कहीं अंग्रेजी देवी के मंदिर बनाये जा रहे है और कही लार्ड मैकाले का जन्म दिन मनाया जा रहा है और कही किंग मार्टिन लूथर को भारतीय दलितो-वंचितों का मसीहा घोषित किया जा रहा है। यह सब बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से हो रहा है। पोप बेनेडिक्ट 16वें एवं चर्च को यह समझना चाहिए कि साजिशन किये गये संस्कृतिक बदलाव टकराव का कारण ही बनते है। ईसाइयों की सुरक्षा के लिए चर्च को अपना साम्राज्यवादी रवैया त्यागना होगा। अमन का संदेश देने वाला चर्च इस पर कितना अमल करता है यह तो समय ही बतायेगा।