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आदर्श पत्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय

-पवन कुमार अरविंद

यूं तो इस धरा पर ईश्वर अनेक विभूतियों को जन्म देता है, सृजन करता है। इनमें प्रत्येक को कोई न कोई विशिष्ट गुण अवश्य प्रदान करता है, पर; कुछ ऐसे विभूति सम्पन्न व्यक्ति भी जन्म लेते हैं जिनकी प्रतिभा बहु-आयामी होती है। यदि उन्हें विकसित होने का अवसर मिले तो वे महान होने का गौरव प्राप्त करते हैं। दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। अति सामान्य दिखने वाले इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक व पत्रकार आदि कितनी ही प्रतिभाएं समाहित थीं। यह बात अलग है कि प्रमुख रूप से उनका संगठन कौशल्य ही अधिक उजागर हो सका। हालांकि, उनकी गणना उस समय के प्रतिष्ठित पत्रकारों में भी होती थी। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व को समझने के लिए सर्वप्रथम यह बात ध्यान में रखनी होगी कि दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी, व्यवसाय नहीं।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए किया। विशेषकर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषायी पत्रकारों में खोजने पर भी ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलम्बन किया हो।

स्वाभाविक ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय में भी एक मिशनरी पत्रकार का ही दर्शन होता है, व्यावसायिक पत्रकार का नहीं। वैसे उनकी पत्रकारिता का प्रारम्भ 1946 में ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक के प्रकाशन से ही प्रकाश में आया। किस तरह से राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य व दैनिक स्वदेश शुरू हुआ। इन पत्रिकाओं को चलाने में दीनदयाल जी औपचारिक रूप से न सम्पादक थे और न ही स्तंभकार, लेकिन इन पत्रों के वे सबकुछ थे। वे लिखते भी थे।

बाद में आर्गेनाइजर और पाञ्चजन्य साप्ताहिक में उनके दो लेख छपने लगे। पाञ्चजन्य में पराशर और आर्गेनाइजर में पालिटिकल डायरी। आर्गेनाइजर में प्रकाशित पालिटिकल डायरी स्तम्भ का कुछ समय बाद पुस्तक संकलन प्रकाशित हुआ। इस संकलन की भूमिका डॉ. सम्पूर्णानन्द ने लिखी। भूमिका में दीनदयाल जी ने कैसे-कैसे लेख लिखे हैं, उसकी डॉ. सम्पूर्णानन्द ने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है। कुछ लेख ऐसे हैं जो दूर तक जाने वाले हैं और कुछ ऐसे हैं जो कालजयी हैं।

लेख के माध्यम से दीनदयाल जी कहते हैं- “चुगलखोर और संवाददाता में अंतर है। चुगली जनरुचि का विषय हो सकती है, किन्तु सही मायने में वह संवाद नहीं है। संवाद को सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् तीनों आदर्शों को चरितार्थ करना चाहिए। केवल सत्यम् और सुंदरम् से ही काम नहीं चलेगा। सत्यम् और सुंदरम् के साथ संवाददाता शिवम् अर्थात कल्याणकारी का भी बराबर ध्यान रखता है। वह केवल उपदेशक की भूमिका लेकर नहीं चलता, वह यथार्थ के सहारे वाचक को शिवम् की ओर इस प्रकार ले जाता है की शिवम् यथार्थ बन जाता है। संवाददाता न तो शून्य में विचरता है और न कल्पना जगत की बात करता है। वह तो जीवन की ठोस घटनाओं को लेकर चलता है और उसमें से शिव का सृजन करता है।”

पिछले लगभग 200 वर्षों की पत्रकारिता के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस इतिहास पर विभाजन रेखा खींच दी जाती है; स्वतन्त्रता के पहले की पत्रकारिता और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता। स्वतंत्रता के पहले की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक व्रत था और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक वृत्ति है। यानी व्रत समाप्त हो गया है और वृत्ति आरम्भ हो गई। जो दोष आज हम पत्रकारिता में देखते हैं, उनकी तरफ दीनदयाल जी अपने बौद्धिक और लेखों के माध्यम से ईशारा किया करते थे।

वर्तमान पत्रकारिता का जब हम अवलोकन करते हैं तो उपरोक्त कथन ठीक मालूम पड़ता है कि पत्रकारिता वृत्ति बन गई है। दीनदयाल जी आजादी के बाद के पत्रकारों में भी थे। लेकिन आजादी के बाद भी दीनदयाल जी पत्रकारों के पत्रकार और सम्पादकों के सम्पादक थे। उनकी पत्रकारिता में उन वृत्तियों का कहीं पता नहीं चलता है। यहां तक कि कोई लक्षण भी देखने को नहीं मिलता है जिनसे आज की पत्रकारिता ग्रसित है।

व्रतयुक्त पत्रकारिता में ऐसा नहीं है कि केवल दीनदयाल जी ही थे, कई और पार्टियों के ऐसे अखबार उस जमाने में निकलते थे। कम्यूनिस्ट पार्टी के अखबार, दूसरी छोटी-मोटी पार्टियों के अखबार, डॉ. राममनोहर लोहिया और अशोक महतो के अखबार, पत्रिकाएं आदि। उनमें भी उस तरह का त्याग और उसी तरह का विलक्षण वौद्धिक वैभव व मौलिकता थी, जो दीनदयाल जी की पत्रकारिता में देखने को मिलती थी।

दीनदयाल जी के हर प्रकार के लेखों के विषय वस्तु एवं विवेचना के प्रकारों का वर्णन भी यहां किया जा सकता है। उनमें उनकी चिन्तनशैली में विद्वता एवं अध्ययन क्षमता तो परिलक्षित है ही, पत्रकारीय दायित्वबोध व शालीनता भी उनकी रेखांकनीय विशेषता है। वर्तमान में प्रोफेशनलिज्म के नाम पर पत्रकारिता के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह चिन्ता उत्पन्न करने वाला है।

(यह आलेख ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक के पूर्व सम्पादक स्वर्गीय श्री भानुप्रताप शुक्ला के साथ मेरी 2004 में हुई बातचीत और दीनदयाल उपाध्याय से संबंधित साहित्य के संक्षिप्त अध्ययन पर आधारित है। मैंने दीनदयाल जी को कभी नहीं देखा। मेरे जन्म लेने के कई वर्षों पूर्व ही वे गोलोकवासी हो गए थे। दीनदयाल जी के व्यक्तित्व के बारे में केवल पुस्तकों का अध्ययन और उनके समकालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की जुबानी सुनकर ही जान पाया हूँ। – पवन कुमार अरविंद)

भगवान श्रीराम को फिर से वनवास????- डॉ0 प्रवीण तोगड़िया

भारत ही नहीं वरन् विश्व का हिन्दू अयोध्या में भगवान् राम की जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर की सदियों से राह देख रहा है ! भगवान् राम तो लोभ-मोह से परे एक बार वनवास में चले गए थे – तब पिता का सम्मान रखना था उन्हें ! अब फिर से भगवान् राम की जन्मभूमि पर के मंदिर को यानी कि भगवान् राम को ही फिर से वनवास भेजा गया ! 450 वर्ष का अन्याय 4,00,000 हिन्दुओं का बलिदान, कोठारी बन्धुओं के वृद्ध माता-पिता के आंसुओं में से भी धधकती हुई राम मंदिर की आशा, जिन लोगों का राम जन्मभूमि पर इंच भर भी हक नहीं, ऐसे-ऐसे लोगों के साथ हिन्दुओं के सम्मान्य साधु-संतों को बिठा-बिठाकर किए गए समझौते के अनेकानेक प्रयास…….यह सब कुछ सरयू के जल में बह गया क्या ? तब भगवान् राम ने पिता के सम्मान के लिए वनवास भी झेला।

अब हम भी भारतीय लोकतंत्र की सर्वोच्च न्यायपालिका के सम्मान के लिए यह दुःख भी झेलेंगे कि अब फिर से भगवान् राम वनवास भेजे गए ! उनके अपने जन्मस्थान पर उनका अपना एक मंदिर हो – मंदिर भगवान् का घर माना जाता है – इसके लिए भगवान् को दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर करने वालों ने यानी कि बार-बार निरर्थक अर्जियां प्रस्तुत कर देश और हिन्दुओं का अपमान करनेवालों ने तो न्यायपालिका का सम्मान नहीं किया ! लेकिन इस देश का हिन्दू आज दुःखी है ! किसी भी अन्य देश में 85 प्रतिशत से अधिक संख्या में शांति से रहने वालों पर 15 प्रतिशत द्वारा बड़े-बड़े अन्याय नहीं किए जाते – लेकिन भारत में हिन्दू भी अब भगवान् राम के साथ वनवास भेजे गए ! भगवान् राम को और करोड़ों हिन्दुओं की आशा जगी हुई थी कि इतने वर्षों के न्यायालयीन प्रयासों के बाद अब भगवान् राम को उनकी अपनी जन्मभूमि पर एक मंदिर मिलेगा ! लेकिन नहीं !

यह देरी करने में याचिकाकर्ता का क्या मतलब और क्या दुर्हेतु है, यह देश के हिन्दू नहीं समझते ऐसा भी नहीं है, लेकिन भगवान् राम तो अवश्य देख और समझ रहे होंगे कि उनको उनके मंदिर से कौन, क्यों, कब तक वंचित रख रहे हैं !

अयोध्या की परिक्रमा मार्ग में 400 मुस्लिम परिवारों को गरीब आवास योजना में अभी-अभी घर दिए गए – लेकिन अयोध्या में भगवान् राम को उनकी अपनी जन्मभूमि पर मंदिर के लिए कितनी राह देखनी होगी ? और तो और जब दूसरे दिन इसका निर्णय होनेवाला हो उस दिन फिर से भगवान् राम वनवास में ? 1 अक्टूबर को प्रयाग (जिसे कुछ लोग अल्लाहाबाद कहते हैं) के न्यायालय के एक न्यायाधीश सेवानिवृत्त हो रहे हैं – इसका अर्थ यह है कि फिर से नए सिरे से ट्रायल चलेगी ? फिर अब तक इतने वर्षों से जो सुनवाइयां हुईं, जो निर्णय लिखा भी गया होगा, उसका क्या ? यह देरी करने में याचिकाकर्ता का क्या मतलब और क्या दुर्हेतु है, यह देश के हिन्दू नहीं समझते ऐसा भी नहीं है, लेकिन भगवान् राम तो अवश्य देख और समझ रहे होंगे कि उनको उनके मंदिर से कौन, क्यों, कब तक वंचित रख रहे हैं ! समझौते का बुरका पहनाकर हिन्दुओं को जलील करने की चाल आज तक बहुत चली गयी-न्यायालयों का सम्मान करनेवाले हिन्दू सब दुःख सहते रहेंगे – लेकिन कब तक भगवान् राम अपने मंदिर से वंचित रखे जायेंगे ? क्यों ? इतनी हताशा हिन्दुओं में निर्माण हो, यह किस का प्रयास चल रहा है ?

सेकुलर दिखने की यह फैशन भारत में कैंसर की तरह फैली है – जिनके मन में आज लड्डू फूट रहे होंगे कि वाह-वाह ! देखो हिन्दुओं के राम का मंदिर नहीं बन रहा है ना – वे यह अच्छी तरह समझ लें कि हिन्दू धर्म ने भगवान् राम की न्यायप्रियता देखी है और महाभारत के काल में शिशुपाल और भगवान् श्रीकृष्ण की कहानी भी देखी है ! जो यह सोचकर आज उत्सव मना रहे होंगे कि अब उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश सेवानिवृत्त होंगे, फिर नयी बेंच बनेगी, फिर नए सिरे से सुनवाई होगी और भगवान् राम को मंदिर कभी भी नहीं मिलेगा – ऐसे लोग यह भी समझ लें कि भारत का हिन्दू अब न्यायालयों की परम्परागत देरियों से उकता गया है, दुःखी है, आहत है ! हमारे जैसे लोग संपूर्ण देश में, समाज के हर वर्ग में प्रवास करते रहते हैं – हर वर्ग के हर उम्र के हिन्दुओं से मांग आ रही है कि अब बस ! यदि शाहबानो केस में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बावजूद भारत की संसद अलग कानून बना सकती है, तो भगवान् राम के मंदिर के लिए क्यों नहीं ? क्यों भारत की संसद भगवान् राम को भावी जन्मभूमि पर मंदिर के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर रही है ? भारत की संसद यह भी समझे कि भारत का हिन्दू 6 दशकों से स्वतन्त्र भारत में न्याय की राह देख रहा था – यह न्याय अपने लिए हिन्दू नहीं मांग रहे हैं !

भगवान् राम की अपनी जन्मभूमि पर उनका अपना मंदिर बने, जो पहले से ही था, इसके लिए हिन्दू तरस रहा था – अब हिन्दुओं को और ना तरसाओ, यही मांग भारत का हिन्दू भारत की संसद से कर रहा है ! बहुत देख ली न्यायालयीन प्रक्रियाओं की देरी, बहुत देखी ली झूठ-मूठ की याचिकाएं और बहुत देख लिए राजनीति से प्रेरित समझौते के खोखले प्रयास ! विदेशी बाबर के ढांचे को सम्मान देने वाले सेकुलर भी भारत ने बहुत देख लिए, अब बस ! बस हुआ भगवान् राम का कलियुगी वनवास ! नहीं राह देखनी है हिन्दुओं को न्यायालयीन देरी की – हिन्दू न्यायालयों का सम्मान करते हैं, करते रहेंगे लेकिन बस ! यह मसला भारत की अस्मिता का मसला है।

अब भारत की संसद भगवान् राम का मंदिर बनाने का कानून भगवान् सोमनाथ की तर्ज पर बनाए, यही एक तात्कालिक मांग है ! और सभी राजकीय पक्ष इसमें एक होकर हिन्दुओं का श्रद्धा स्थान और भारत का सम्मान ऐसे भगवान् राम के मंदिर के लिए कानून बनाए और वह भी अब बिना देरी के ! भारत के हिन्दुओं के धर्मसंयम की और परीक्षा अब ना ले कोई, यही भगवान् राम से प्रार्थना है !

वेबमीडिया की विडंबनाएं

– पंकज झा

मेघ को दूत बनाने से लेकर ‘मोडेम’ के अग्रदूत बनने तक, सिंधु नदी घाटी से निकल कर सिलिकोन घाटी तक पहुचने का मानव संचार एवं सभ्यता का इतिहास कई आरोहों-अवरोहों से गुजरा है. किसी ने सच कहा कि अब कम से कम संचार माध्यमों में ‘भूगोल’ तो ‘इतिहास’ की वस्तु हो गया है. वैश्वीकरण के बाद समाज वास्तव में रक्तहीन क्रान्ति से गुजरा है. मानव ने सदियों की दूरी को अंगुलियों-चुटकियों में नाप देने की सफलता प्राप्त की है. यह सारी क्रान्ति सूचनाओं के विस्फोट के बिना असंभव था. वास्तव में इंटरनेट के द्वारा ही ‘सूचना’ को आज की सबसे बड़ी ताकत बनाने में सफलता हुई है. ज़ाहिर है हर अच्छी चीजों के बरक्श कुछ बुरी चीज़ें भी होती है या इसका उलटा भी उतना ही सच है. लेकिन अब कम से कम नए माध्यमों की उपादेयता से कोई भी इनकार करने की स्थिति में नहीं है. पिछलग्गू बने रहने के अपने स्वभाव के कारण भले ही भारत थोडा देर से जागा लेकिन अब असंख्य भाषाई पोर्टलों एवं ब्लॉगों के द्वारा हिन्दी का सुयश चारों ओर फ़ैलना प्रसन्नता की ही बात है.

तो समाज के हर क्षेत्र में भले ही क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया लेकिन मानव का मौलिक गूण स्थाई है. बादशाहत एवं सफलता के लिए कुछ भी तो कर जाने की आदिम लालसा, दौलत शोहरत और इज्ज़त के लिए हद से गुजर जाने का स्वभाव. हालांकि शोहरत के मामले में वेब का हिन्दी जगत भले ही उपलब्धियों से भरा रहा हो लेकिन अन्य माध्यमों की तरह लोगों तक अपनी बढती पहुच या प्रसार संख्या का व्यावसायिक उपयोग करने में वह असफल रहा है. हाल ही में लाखों हिन्दी भाषी ब्लॉगर और पाठकों की जुबान पर चढा ‘ब्लोगवाणी’ नाम के अनोखे साईट का, अर्थाभाव के कारण बंद हो जाना इसका कृष्ण पक्ष है. यानी अगर आपके पास राज्याश्रय नहीं हो या फिर आपका कोई और धंधा नहीं हो तो भले ही आपने लाखों पाठक इकठ्ठा कर लिया हो. कंटेंट के मामले में आप कितने भी सक्षम हों. अलेकसा रेंकिंग आपको भले ही टॉप की साईट बताता हो लेकिन बाल-बच्चों के लिए कुछ घर ले जाने की बात तो जाने दीजिए, उस नेट कनेक्सन का शुल्क भी आप नहीं चुका पायेंगे जिसके द्वारा आप अपनी रेंकिंग देख कर गुमान करते हों. तो जो घर जारे आपना चले हमारे साथ, के हिन्दी सेवा के इस प्रकल्प में विकल्प क्या बचता है?

अभी कई पढ़े जाने वाले साईट के कर्ता-धर्ताओं ने अलग-अलग तरह से यही बात कहने की कोशिश की है कि अर्थाभाव के कारण वो आगे साईट चलाने में असमर्थ हैं. बकुल वे उन्होंने अपना अच्छा-ख़ासा कैरियर छोड़ कर इस माध्यम को अपनाया था. वे जनसरोकारों की बात करने वाले माध्यमों को ज़िंदा रखना चाहते हैं. उन्हें डिजिटल कैमरे चाहिए तो कंप्यूटर चाहिए. सीधे तौर पर पाठकों से पैसे चाहिए, वे कंपनियों से पैसे या विज्ञापन नहीं लेना चाहते आदि-आदि. बहुत भावुक होकर लिखे गए इन सभी पत्रों में कितना सही कितना गलत है, यह तो तय करना मुश्किल ही है. कुछ हद तक प्रयास इमानदारी भरा दिखता भी है. लेकिन क्या इस तरह से साईट का संचालन कर मेंटिनेंस के अलावा अपने लिए ब्रेड-बटर का इंतज़ाम करना संभव होगा? और अगर कोई एक-दो लोग ऐसा करने में अपवादस्वरूप सफल भी हो गए तो क्या यह नए मीडिया के हिन्दी जगत के लिए कोई नजीर बन सकता है? जब पाठक रद्दी के भी चौथाई दाम पर अखबार खरीदने के आदी हो गए हों. मल्टीप्लेक्स के एक टिकट के दाम पर महीने भर घर बैठ कर सारे चैनल देख पा रहे हों तो कहां संभव है कि वे लेख या रिपोर्ट पढ़ने के लिए पैसा खर्च करें? तो फिर सवाल यह पैदा होता है कि क्या इतनी तेज़ी से स्थान बनाते जा रहा यह माध्यम अपनी मौत मर जाएगा? क्या इसके व्यावसायिक उपयोग की कोई संभावना, मिहनत कर समाज को कुछ अच्छा देकर बदले में इज्ज़त के साथ दो जून ब्रेड-बटर का इंतज़ाम करने की ताकत इस माध्यम में नहीं है? यह सवाल एक यक्ष-प्रश्न बन कर सामने खड़ा है. आखिर तब किया क्या जाय?

तो सबसे पहले यह कि अगर आप इस नए सूरज के हमसफ़र बने हैं तो रेत का दरिया फलांग लेने की कूवत अपने अंदर लायें. अव्वल तो इस माध्यम को मोडरेट करते हुए कभी यह मुगालता ना पालें कि आप समाज का कोई उद्धार कर रहे हैं. सीधी सी बात यह है कि नब्बे प्रतिशत ईमानदार होकर भी आप एक सीमा तक सरोकार की बात कर भी सकते हैं. अगर आप बहुत शुद्धतावादी हों फिर भी यह सोच कर संतुष्ट हो सकते हैं कि अपने लाभ के लिए जिस दस प्रतिशत की बुरी बात आप सामने नहीं ला पा रहे हैं वह दूसरा साईट जिसका उस समूह से हित नहीं जुड़ा हुआ है वह कर लेगा. इस तरह सांप को मार देने पर भी आपके नैतिकता की लाठी बदस्तूर रह सकेगी. साथ ही एक विकल्प यह हो सकता है कि सामुदायिक प्रकल्प की तरह इसे चलायें. कुछ चर्चित ब्लोगर ने पे-पाल लगा कर पैसा वसूल करना शुरू भी कर दिया है. लेकिन उसके साथ भी दिक्कत यह आयेगी कि इसका हिसाब-किताब कौन करेगा. अगर आपके पास संसाधन आने लगे तो ज़ाहिर है उसमें आपके आपके अलावा लेखकों का हिस्सा भी होगा. आप किस तरह इसमें हिस्सेदारी कर पायेंगे? इसके अलावे अन्य व्यावहारिक कठिनाइयां तो है ही. और अगर ऐसा बड़े स्तर पर होना शुरू हुआ तो इसके नियमन के लिए कौन सी एजेंसी होगी? जो सरकार अभी तक तेज़ी से बढते जा रहे इलेक्ट्रोनिक मीडिया के नियमन के लिए ही कोई कदम नहीं उठा पायी है, उससे यह उम्मीद करना कि वह वेब के बारे में भी सोचेगी यह असंभव ही है.

तो भले ही इस माध्यम पर लगाम लगाने के लिए सरकार कुछ करने में सक्षम नहीं हो लेकिन इसे प्रोत्साहित करने में जरूर अपना योगदान दे सकती है. मुख्यधारा से अलग हो गयी कला और संस्कृति के खेवनहारों को मंच देकर उनके संरक्षण-संवर्द्धन का श्रेय सरकारी माध्यम आकाशवाणी और दूरदर्शन को जाता है. उसी तरह अगर सरकार चाहे तो इस नए मीडिया के लिए भी कोई नीति तय कर सकती है. छोटी पत्रिकओं के मामले में दिल्ली की सरकार ने विज्ञापन के लिए नीति बना रखी है. लेकिन वह नीति उसके मालिक के बदले लेखकों के पक्ष में है. वहां विज्ञापन का भुगतान करने से पहले शायद यह प्रमाण पत्र देना होता है कि पत्रिका ने लेखकों को भी भुगतान किया है. तो ऐसा कुछ इस माध्यम के लिए भी किया जा सकता है. हो सकता है सरकारें अलेक्सा या ऐसे ही पारदर्शी तरीके का इस्तेमाल कर कोई मानदंड बना हिन्दी जगत के लिए कुछ करे. अपनी जानकारी में कुछेक राज्य सरकारों ने इस मामले में पहल की भी है. लेकिन फिर मामला वही फसने की आशंका है कि जब अभी आपकी रेटिंग का आर्थिक मामले से कोई सीधा सरोकार नहीं है तब आपने मां-बहन की गाली को अपना यूएसपी बना रखा है. कई उपलब्धियों के उलट ब्लॉग जगत के सर पर यह कलंक भी है कि अन्य हर मीडिया जितनी गंदगी दशकों में नहीं फैला पाया उतना कुछ सालों में ही हिन्दी जगत के भडासी भाइयों ने कर दिया. तो जब नेट के रेटिंग से आय की भी गुंजाइश दिखने लगेगी तब तो यह गंदगी और परवान चढ जानी है. खैर….आशंकाये और खतरें तो हर नयी चीज़ के साथ जुडी आती ही है. हम बस उम्मीद यह कर सकते हैं कि यह वैकल्पिक संवाद जगत सतत हिन्दी सिरमौर बनने की ओर अग्रसर हो. हरसिंगार की उन्नत टहनियों की तरह हिन्दी वेबपोर्टलों के अरमान पल्‍लवित होते रहें।

भारत और इंडिया के बीच बढ़ती खाई

-बरुण कुमार सिंह

कभी-कभी लगता है कि ऊपर वाले का इनसान में यकीन नहीं है। जन्म की दुर्घटना कभी किसी झुग्गी में होती है, कभी कोठी में। एक के पास खाने को नहीं है, दूसरे के पास चुनने की दिक्कत है। क्या खाए, क्या नहीं। ऊपर वाले की नाइंसापफी कोई झेल भी ले, आदमी भी अपनी हरकतों से कब बाज आता है? एक भूखे को आरक्षण का झुनझुना थमा देता है, दूसरे को ऊंची जाति का होने की सजा। सबको रोटी का मौका मुश्किल है, इतिहास के अन्याय को मिटाना आसान। सत्ता प्रजातंत्र की हो या एकतंत्र की इस नगरी में सिपर्फ राक्षस बसते हैं। वह नई-नई जुगत भिड़ाते हैं, जनता के वोट हथियाने का।

हम कैसी आजादी और किस आजादी की बात करते हैं। आम-आदमी को तो आजादी का मतलब भी नहीं पता। तथाकथित खास आदमी (रोटी के लिए मजबूर) को इसकी कीमत नहीं पता। एक तरपफ कॉमनवेल्थ गेम की चकाचौंधा, इंडिया शाइनिंग, विकास के आंकड़े, विकास का दर आदि वातानुकूलित कमरे में योजना बनाते बिगाड़ते देश के कर्णधार, नीतिकार हैं, वहीं दूसरी ओर अपने पेट पालने के लिए और दाल-रोटी के जुगाड़ में सुबह होते ही मजदूर किसी भिखारी की तरह काम तलाश करते नजर आते हैं। आज जहां हमारे देश में भुखमरी और गरीबी के कारण लोग अपने जिगड़ के टुकड़े बच्चे को बेच देते हैं, क्योंकि वह उस बच्चे की क्षुधाा को शांत करने में सक्षम नहीं है। कहां गई हमारी मानवता, हृदय की व्यथा और राज्य सरकार/केन्द्र सरकार, गैर सरकारी संगठन, धान्ना सेठ, समाज के पुरोधाा और सामाजिक उत्थान करने वाले, दम्भ भरने वाले शुभचिंतक? हमारे दोनों भारत यानी भारत और इंडिया में गैप बढ़ता ही जा रहा है? जो देश के लिए कुछ करने योग्य हैं, वे सिपर्फ अपने लिए करने में लगे हैं। आज जहां सरकारी बाबू करोड़पति हो गये है, वहीं आईएएस ऑपिफसर अरबपति हो गये हैं ये आंकड़े सरकार द्वारा ही अभी बिहार और उत्तारप्रदेश के राज्य के बारे में जारी की गई है। ऐसे माहौल में हम किस आजादी की बात करते हैं?

महात्मा गांधाी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम कानून ;मनरेगाध्द के अन्तर्गत हर परिवार को साल में 100 दिन का रोजगार देने का कानून बनाया है। लेकिन साल में दो 365 दिन होते हैं, 265 दिन क्या वे भूखे मरेंगे? एक साल में उसे 27 प्रतिशत दिनों की रोजगार गारंटी दी जाती है और बाकी बचे 73 प्रतिशत दिनों की रोजगार गारंटी की जिम्मेदारी कौन लेगा। जबकि प्रतिमाह के हिसाब से आंकड़े निकाला जाय तो 100 दिन की रोजगार गारंटी योजना महीने में सिपर्फ 8.33 प्रतिशत दिन अर्थात् 8 दिन ही ठहरती है तो बाकी के 22 दिनों की जिम्मेदारी कौन लेगा? जबकि ठीक इसके विपरीत संगठित क्षेत्र अर्थात सरकारी सेवा में कार्यरत लोगों की शनिवार और रविवार की छुट्टी रहती है सिपर्फ ये ही दिन जोड़ दिया जाय तो महीने में 8 और साल में 104 दिन की छुट्टी होती है। इसके अलावा राष्ट्रीय पर्व त्योहार एवं अन्य छुट्टियां अलग से मिलती हैं। क्योंकि यह संगठित क्षेत्र है तो सरकार भी इनके लिए संगठित होकर कार्य करती है। बाकी असंगठित क्षेत्र के लोगों के लिए लापीपॉप का झुनझुना थमा देती है। आधाी-अधाूरी योजनाएं लागू करके वाहवाही लूटी जाती है और गरीबों का मजाक उड़ाया जाता है। एक तरपफ सरकार संगठित क्षेत्रों के लिए सप्ताह में दो दिनों की छुट्टी देती है तो दूसरी तरपफ मनरेगा रोजगार गारंटी के नाम पर दो ही दिन रोजगार की गारंटी देती है। इसलिए इंडिया और भारत में गैप बढ़ता ही जा रहा है। जब तक ऐसी योजनाएं लागू रहेगी इंडिया और भारत के गैप को मिटाया नहीं जा सकता, बराबरी पर भी लाया नहीं जा सकता।

अगर हम सरकारी आंकड़ों पर ही जाएं तो हम पाते हैं आजादी के 63 सालों के बाद भी, अभी तक गरीबों को कुछ खास नहीं मिला है।

हमारे सामने अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट है जिसमें कहा गया है कि देश की आबादी का 74 पफीसदी हिस्सा जनता 20 रुपये रोजाना आमदनी पर जी रही है। हमारे यहां असंगठित क्षेत्रों में लगभग 80-85 प्रतिशत लोग जुड़े हुए हैं उन्हें अपेक्षित सुविधााएं भी नहीं मिल पा रही है जबकि 10-15 संगठित क्षेत्र के लोगों के लिए सरकार और निजी कंपनियां भी अनदेखी करने का साहस नहीं जुटा पाती। क्योंकि वे संगठित क्षेत्र के हैं।

कभी वे हड़ताल करते हैं, तो कभी सड़क जाम करते हैं, कभी स्कूलों में हड़ताल चलता है, तो कभी विश्वविद्यालय में, कभी वकील हड़ताल करते हैं तो कभी अस्पताल में ही हड़ताल हो जाता है। कभी ट्रांसपोर्ट ऑपरेटरों की हड़ताल होती है तो कभी वायुयान के पायलट हड़ताल पर चले जाते हैं। बैंक कर्मचारी और अधिाकारी मोटी तनख्वाह को लेकर एकजुट होकर हड़ताल करते हैं और ये वित्ताीय व्यवस्था का भट्ठा बैठा देते हैं। सरकार भी देर-सबेर इन सबकी बात मान ही लेती है, समझौते देर-सबेर हो ही जाते हैं, इनकी पगार भी बढ़ जाती है, पेंशन भी बढ़ जाती है, नया वेतन स्केल भी मिल जाता है क्योंकि ये संगठित क्षेत्र के हैं जबकि असंगठित क्षेत्र के साथ हर बार अन्याय होता है और वे छले जाते हैं। अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की भी वे पूर्ति नहीं कर पाते हैं।

वोट बैंक के चक्कर में राजनीतिक दल, धार्म और जाति की शतरंजी बाजियां खेलते हैं। अयोधया में राम मंदिर से लेकर बाबरी मस्जिद तक साम्प्रदायिकता, जातिवाद का खामियाजा आम आदमी को ही उठाना पड़ा है।

एक समय था जब हिन्दुस्तान को सोने की चिड़िया कहा जाता था। दुनिया को विज्ञान से लेकर चिकित्सा तक का ज्ञान हमने कराया, लेकिन तस्वीर के दूसरे पहलू की कई बातें ऐसी हैं, जो भारत की सुनहरी तस्वीर को बदरंग करती है। आज भी हम एक तरह से निरक्षरता, साम्प्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव, अंधाविश्वास और टालू रवैया के गुलाम है।

विश्व बैंक की परिभाषा के अनुसार भारत जैसे अल्पविकसित देशों में निर्धानता रेखा एक अमरीकी डॉलर प्रतिदिन या 365 अमरीकी डॉलर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति है। इस परिभाषा से संभवत: 75 प्रतिशत से भी अधिाक भारतीय निर्धानता रेखा के नीचे हैं।

लोग कहते हैं कि नैनो आम जनता की कार है जिसकी कीमत लाखों रुपये से ऊपर है। लेकिन एक साइकिल की बात कहें तो वो भी 2000/-2500/- रुपये से कम की नहीं आ रही है तो हमारे आईआईटी के इंजीनियर क्यों शोधा नहीं करते कि किसान, गरीब जैसे लोग जिनके ऊपर छत का सहाना नहीं है। वह भी 1000/- रुपये तक में साइकिल खरीद सके। जब एक कार को कम मूल्य पर बनाकर बेचने के लिए शोधा हो सकते हैं तो साइकिल के लिए क्यों नहीं? इसमें पेट्रोल का खर्चा भी नहीं है, वातावरण प्रदूषित होने का भी खतरा नहीं है। जो आज जिम में बैठकर पैडल मारते रहते हैं इससे बेहतर है कि वो उतने ही समय साइकिल चला लें तो उनका अच्छा एक्सरसाइज हो जाएगा।

चिंता का दूसरा कारण शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक परिवर्तन की कमी है। हमारी जनसंख्या इतनी ज्यादा है लेकिन देश में शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर कुछ भी विकसित नहीं हो पाया है। इस क्षेत्र में मूलभूत संरचना की कापफी कमी है। एक आधा विश्वविद्यालय को छोड़ दिया जाय तो कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है जहां शोधा के नाम पर कुछ सार्थक हो पा रहा है। बेहतर शिक्षक की लगातार कमी हर जगह दिखाई पड़ रही है।

पूरी दुनिया में भारत की शिक्षा के क्षेत्र में अगर कोई पहचान है तो यह मात्र आईआईटी है लेकिन यह जानकर किसी को आश्चर्य हो सकता है कि देश के 14 आईआईटी में 50 पफीसदी से ज्यादा शिक्षकों की कमी है। फिर दूसरी संस्थाओं के बारे में बात करने की जरूरत कहां रह जाती है? और ये आईआईटी दुनिया के 100 स्थानों की सूची में भी स्थान नहीं पाते हैं?

अभी वर्तमान में तेलंगाना राज्य की मुद्दा को देख रहे हैं। राजनेता अपने उद्देश्यों को पफलीभूत न होते देख इस तरह के हथकंडे अपनाते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि तेलंगाना राज्य बना देने के बाद भी उसी तेलंगाना को पिफर विभाजित करने की बात न उठे। झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्ताराखण्ड नये राज्य बने। झारखण्ड में तो पांच-छह साल में मुख्यमंत्री बदलने का रिवाज ही चल पड़ा। कोई नेता लाखों में है तो कोई करोड़ों में है। आज देश के निर्वाचित सांसद/विधाायक में 40-45 प्रतिशत करोड़पति हैं जो कि उनके द्वारा घोषणा पत्र से मालूम होता है जबकि अघोषित संपत्ति कहीं इससे अधिक है। हमारे देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत हुए तो न तो उन्हें अपना मकान दिल्ली में था और न ही पटना में। इसी कारण वे पटना में सदाकत आश्रम में रहे।

बेशक देश में लोकतंत्र है और लोकतांत्रिाक संस्थाएं मजबूत भी हुई है, लेकिन सत्ता वर्ग ने बड़ी चतुराई से लोकतंत्र का अपहरण कर लिया है। लोकतंत्र की प्रहरी संस्थाएं न्यायपालिका और मीडिया भी उन लोगों के साथ खड़ी दिखाई देती है जो सत्ता वर्ग के हैं या रसूखवाले हैं। गरीबी, विषमता, विस्थापन, बीमारी, बेरोजगारी आदि के प्रश्नों को राष्ट्रीय संवाद में जगह नहीं मिलती। इन समस्याओं की कहीं सुनवाई नहीं होती। इससे हो यह रहा है कि बाहर से मजबूत देश अंदर से कमजोर हो रहा है।

आजादी के पहले आम लोगों को लगता था कि जब आजादी मिलेगी तो वे देश के बराबर के नागरिक होंगे और उनके पास वे सारे अधिकार होंगे जो अमीरों के पास है। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। आम लोगों को वोट डालने का अधिकार तो मिल गया लेकिन आर्थिक लाभ बिल्कुल नहीं मिला। जबकि वोट डालने में यही गरीब वर्ग पीछे नहीं रहता है।

हमारे लोकतंत्र की परेशानी यह रही कि शासक वर्गों ने समाज के बढ़ी हुई खाई को पाटने के लिए बहुत कुछ नहीं किया हैं परिणामस्वरूप् शहर और गांव की खाई बढ़ती ही गई है। देश में सुविधा के नाम पर जो कुछ भी किया गया है, उसका सबसे बड़ा हिस्सा शहरों में चला गया है। गांव के लोग अभी भी वंचित और पीड़ित हैं।

देश के शासक वर्गों ने दलितों और आदिवासी के साथ बहुत ही बुरा व्यवहार किया है। वे अभी तक विकास और राजनीति की मुख्यधारा में नहीं आ पाया है। दलित, आदिवासी और पिछड़ों को बराबरी का अधिकार देने के लिए सरकार ने आरक्षण लागू करने की बात की, लेकिन इससे निजी क्षेत्रों का पूरी तरह बाहर कर दिया गया है, जबकि रोजगार निजी क्षेत्र में ही बचा है। पिछले बीस वर्षों में सरकार की निजी वजह से देश में एक ऐसे मधयम वर्ग का उदय हुआ है जिसके मन में गरीबों और वंचितों के लिए किसी प्रकार की सहिष्णुता और सहानुभूति नहीं रह गई है और सरकार के आरक्षण नीति के चलते देश का पूरा मधयम वर्ग इन तबकों को अपना जानी-दुश्मन समझ रहा है।

आज भी देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और मूलभूत सुविधाओं के लिए लोग परेशन हैं। हर काम को करने के लिए आंदोलन करने पर रहे हैं। भ्रष्टाचार चरम पर है। लोगों के कल्याण के लिए बनी योजनाएं समय से पूरी नहीं हो पा रही है। उनको सही शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में लोगों में कुंठा की भावना उत्पन्न होती है। सही मायनों में देश में व्यापत नक्सलवाद और आंतकवाद को भी इन्हीं समस्याओं के कारण बढ़ावा मिला है। वर्तमान परिस्थितियों को देखकर हर वर्ग की जरूरत को धयान में रखकर उनके कल्याण के लिए नीति बनाने की जरूरत है।

समाज में बढ़ती गैर बराबरी से कभी कोई अनहोनी जन्म ले सकती है और लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है। इसलिए नीति-निर्माता को ऐसी नीति बनानी चाहिए जिसमें सबको समान अवसर मिले।

एकात्ममानव दर्शन के प्रणेता- पंडित दीनदयाल उपाध्याय

-समन्वय नंद

जनसंघ के पूर्व अध्यक्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय का स्थान भारतीय चिंतन परंपरा में काफी महत्वपूर्ण है। भारतीय चिंतन परंपरा में उनकी महत्ता इसलिए है कि उन्होंने पश्चिम के खंडित दर्शन के स्थान पर भारतीय जीवन पध्दति में समाहित एकात्म मानववाद के दर्शन को आधुनिक संदर्भ में प्रस्तुत किया है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की विकास की अवधारणा पश्चिमी अवधारणा से बिलकुल विपरीत है। इतना तो सब मानते हैं कि मानव जीवन के समस्त क्रियाकलापों का उद्देश्य सुख की प्राप्ति है और मानव के यह क्रियाकलाप ही उसके विकास का रास्ता है। पश्चिम के लोग और शायद हमारे देश के नीति निर्धारक भी यह मानते हैं कि जहां ज्यादा उपभोग होते हैं वहां ज्यादा सुख होता है और वही विकास की प्रतीक होता है। परंतु पंडित दीनदयाल उपाध्याय उपभोग या सुख को विकास का पर्याय नहीं मानते थे। वे इसके लिए एक अत्यंत सुंदर उदाहरण दिया करते थे। वह कहते थे कि व्यक्ति को गुलाब जामुन खाना अच्छा लगता है। व्यक्ति को लगता है कि गुलाब जामुन खाने से सुख प्राप्त हो रहा है। कई वह व्यक्ति सचमुच यह मान लेता है कि गुलाब जामुन में ही सुख है। गुलाम जामुन का उपभोग करने से ही सुख प्राप्त होता है। लेकिन मान लीजिये कि जब व्यक्ति गुलाब जामुन खा रहा हो तो उसके पास उसके किसी परिजन के देहांत की खबर आ जाए। तब व्यक्ति भी वही रहेगा और उसके हाथ में वही गुलाब जामुन रहेगा लेकिन सुख उसके पास नहीं होगा। अगर गुलाब जामुन में ही सुख है तो फिर उस समय भी व्यक्ति को सुख प्राप्त होना चाहिए था। लेकिन ऐसा होता नहीं है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि मन की स्थिति ही सुख की अवधारक है। मन पर नियंत्रण ही वास्तविक विकास है। वह स्पष्ट तौर पर कहते थे कि उपभोग के विकास का रास्ता राक्षसत्व की और जाता है और मन को नियंत्रित करने का विकास का रास्ता देवत्व की ओर जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय इस देवत्व के रास्ते का अनुसंधान कर रहे थे । परंतु यह ठीक है कि यह नया रास्ता नहीं था। भारतीय साधु संत तथा सामान्य जन हजारों-हजारों वर्षों से इसकी साधना कर रहे थे । महात्मा गांधी भी एक सीमा तक उपभोग के खिलाफ थे ।

मनुष्य की जितनी भौतिक आवश्यकताएं हैं उनकी पूर्ति का महत्व को भारतीय चिंतन ने स्वीकार किया है, परंतु उसे सर्वस्व नहीं माना। मनुष्य के शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए और उसकी इच्छाओं व कामनाओं की संतुष्टि और उसके सर्वांगीण विकास के लिए भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्टय की जो अवधारणा है पंडित दीनदयाल उपाध्याय उसे आज के युग में भारत के समग्र विकास का मूल आधार मानते थे । पुरुषार्थ के यह चार अवधारणाएं है- धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष। पुरुषार्थ का अर्थ है उन कर्मों से है जिनसे पुरुषत्व र्साथक हो। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की कामना मनुष्य में स्वाभविक होती है और उनके पालन से उसको आनंद प्राप्त होता है।

जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया है कि मनुष्य की भौतिक आवश्यकता व अन्य आवश्यकताओं को पश्चिम की दृष्टि में सुख माना गया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ और काम पर धर्म का नियंत्रण रखना जरुरी है और धर्म के नियंत्रण से ही मोक्ष पुरुषार्थ प्राप्त हो सकता है। यद्यपि भारतीय संस्कृति में मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है. तो भी अकेले उसके लिए प्रयत्न करने से मनुष्य का कल्याण नहीं होता। वास्तव में अन्य पुरुषार्थ की अवहेलना करने वाला कभी मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।

इसी प्रकार धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है लेकिन तीन अन्य पुरुषार्थ एक दूसरे के पूरक व पोषक हैं। यदि व्यापार भी करना है तो मनुष्य को सदाचरण, संयम, त्याग, तपस्या, अक्रोध, क्षमा, धृति, सत्य आदि धर्म के विभिन्न लक्षणों का निर्वाह करना पडेगा। बिना इन गुणों के पैसा कमाया नहीं जा सकता। व्यापार करने वाले पश्चिम के लोगों ने कहा कि आनेस्टी इज द बेस्ट पालीसी अर्थात सत्य निष्ठा ही श्रेष्ठ नीति है। भारतीय चिंतन के अनुसार आनेस्टी इज नट ए पालीसी बट प्रिसिंपल अर्थात सत्यनिष्ठा हमारे लिए नीति नहीं है बल्कि सिध्दांत है। यही धर्म है और अर्थ और काम का पुरुषार्थ धर्म के आधार पर चलता है। राज्य का आधार भी हमने धर्म को ही माना है। अकेली दंडनीति राज्य को नहीं चला सकती। समाज में धर्म न हो तो दंड नहीं टिकेगा। काम पुरुषार्थ भी धर्म के सहारे सधता है। भोजन उपलब्ध होने पर कब, कहां, कितना कैसा उपयोग हो यह धर्म तय करेगा। अन्यथा रोगी यदि स्वस्थ्य व्यक्ति का भोजन करेगा स्वस्थ व्यक्ति ने रोगी का भोजन किया तो दोनों का अकल्याण होगा। मनुष्य की मनमानी रोकने को रोकने के लिए धर्म सहायक होता है और धर्म पर इन अर्थ और काम का नियंत्रण को सही माना गया है।

पंडित दीनदयाल जी के अनुसार धर्म महत्वपूर्ण है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता है। एक सुभाषित आता है- बुभुक्षित: किं न करोति पापं, क्षीणा जना: निष्करुणा: भवन्ति। अर्थात भूखा सब पाप कर सकता है। विश्वामित्र जैसे ऋषि ने भी भूख से पीडित हो कर शरीर धारण करने के लिए चांडाल के घर में चोरी कर के कुत्ते का जूठा मांस खा लिया था। हमारे यहां आदेश में कहा गया है कि अर्थ का अभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि वह धर्म का द्योतक है। इसी तरह दंडनीति का अभाव अर्थात अराजकता भी धर्म के लिए हानिकारक है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार अर्थ का अभाव के समान अर्थ का प्रभाव भी धर्म का द्योतक होता है। जब व्यक्ति और समाज में अर्थ साधन न होकर साध्य बन जाएं तथा जीवन के सभी विभुतियां अर्थ से ही प्राप्त हों तो अर्थ का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और अर्थ संचय के लिए व्यक्ति नानाविध पाप करता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास अधिक धन हो तो उसके विलासी बन जाने की अधिक संभावना है।

पश्चिम में व्यक्ति की जीवन को टुकडे-टुकडे में विचार किया जबकि भारतीय चिंतन में व्यक्ति के जीवन का पूर्णता के साथ संकलित विचार किया है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार हमारे चिंतन में व्यक्ति के शरीर, मन बुध्दि और आत्मा सभी का विकास करने का उद्देश्य रखा है। उसकी सभी भूख मिटाने की व्यवस्था है। किन्तु यह ध्यान रखा कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख न पैदा कर दें और दूसरे के मिटाने का मार्ग न बंद कर दें। इसलिए चारों पुरुषार्थों को संकलित विचार किया गया है। यह पूर्ण मानव तथा एकात्ममानव की कल्पना है जो हमारे आराध्य तथा आराधना का साधन दोंनों ही हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पश्चिम के खंडित अवधारणा के विपरीत एकात्म मानव की अवधारणा पर जोर दिया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उपाध्याय जी के इस चिंतन को व्यावहरिक स्तर पर उतारने का प्रयास किया जाए।

माखनलाल पत्रकारिता विवि: पुष्पेंद्रपाल सिंह की करतूतें हुईं उजागर

पुष्पेंद्रपाल के खिलाफ राज्य महिला आयोग में कार्यस्थल प्रताड़ना और जाति आधारित भेदभाव की शिकायत दर्ज

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय इन दिनों आंतरिक उठापटक और अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। उल्लेखनीय बात यह है कि देश का एकमात्र पत्रकारिता विश्वविद्यालय होने के बाद भी पिछले बीस वर्षों में विश्वविद्यालय के स्तर का कोई प्रशासनिक ढांचा नहीं बन पाया था और इस कारण यहां कि अकादमिक स्थिति भी काफी लचर बनी हुई थी। उदाहरण के लिए विश्वविद्यालय में अभी तक कोई रजिस्ट्रार नहीं था और न ही अधिनियम में इसका प्रावधान रखा गया था। मध्यक्रम में भी उप कुलसचिव तथा सहायक कुलसचिव जैसे पदों का प्रावधान आवश्यकता से काफी कम थी, जबकि तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मियों की अंधाधूंध भर्ती की गई थी। यह सारी कवायद इस लिए की गई थी ताकि विश्वविद्यालय में शैक्षणिक व अकादमिक दृष्टि से वरिष्ठ व्यक्तियों की संख्या न बढ़ पाए। इस बात पर ध्यान दिया नए आए कुलपति श्री बी. के. कुठियाला ने और उन्होंने जनवरी, 2010 में पदभार संभालने के बाद विश्वविद्यालय के प्रशासनिक और अकादमिक ढांचे को ठीक करने की कवायद शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि श्री कुठियाला को शैक्षणिक कार्यों का बीस वर्षों से भी अधिक का अनुभव है। इससे उन लोगों को परेशानी होने लगी जो इतने वर्षों में विश्वविद्यालय को अपने मठ के रूप में प्रयोग करने के अभ्यस्त हो चुके थे। उन्होंने कुलपति के निर्णयों का विरोध करने और उनके विशेषाधिकारों को चुनौती देने की अवैधानिक कोशिशें शुरू कर दी। कुलपति के विरूद्ध इस अराजक आंदोलन का नेतृत्व पत्रकारिता विभाग के प्रमुख श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह ने संभाला हुआ है। सूत्र बताते हैं कि श्री सिंह वास्तव में विश्वविद्यालय में अपनी बादशाहत के हिलने से घबराए हुए हैं और शैक्षणिक व अकादमिक दृष्टि से स्वयं कमजोर होने के कारण गैरशैक्षणिक व अकादमिक तरीकों का सहारा ले रहे हैं। उल्लेखनीय है कि श्री सिंह ने अभी तक अपनी स्वयं की पी.एच.डी. पूरी नहीं की है। इसलिए श्री सिंह ने कलम के सिपाहियों के हाथों में लाठी थमा दिए। यह तो श्री सिंह ही बता सकते हैं कि कलम के सिपाही इन नए हथियारों से कौन सी नई बौद्धिक क्रांति इस देश में लाना चाहते हैं।

बहरहाल, पिछले दिनों जब कुलपति ने विश्वविद्यालय में नए प्रयोग करना प्रारंभ किया तो श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह उनके विरूद्ध छात्रों को गोलबंद करने में जुट गए। श्री कुठियाला ने नए पाठ्यक्रमों का समावेश किया और परिणामस्वरूप प्रवेश हेतु पिछले सत्र के 700 आवेदनों की तुलना में इस सत्र में 3500 आवेदन आए। उन्होंने विश्वविद्यालय में नए प्राध्यापकों की नियुक्ति की प्रक्रिया भी प्रारंभ की। इससे घबराए श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह और डा. श्रीकांत सिंह जैसे कुछ प्राध्यापकों ने विरोध प्रदर्शनों का आयोजन शुरू कर दिया। श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह जोकि कई वर्षों से पत्रकारिता विभाग में रहे हैं, ने वहां से उत्तीर्ण होकर निकले पत्रकारों को गलत जानकारी देकर अपने विरोध में साथ ले लिया। उनके बहकावे में आकर तीन बार छात्रों ने हिंसक प्रदर्शन भी किए। इस बीच एक नया विवाद सामने आ गया। पिछले 21 सितंबर को श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह ने स्वयं ही कुलपति को बताया कि उनके विरूद्ध उन्हीं की विभाग की अध्यापिका श्रीमती ज्योति वर्मा ने राज्य महिला आयोग में कार्यस्थल प्रताड़ना और जाति आधारित भेदभाव की शिकायत दर्ज की है। इस सिलसिले में वे कुलपति महोदय से कुछ दस्तावेजों को आयोग के सामने रखने की अनुमति चाहते थे। उन्हें इस बात की स्वीकृति देने के बाद ध्यान में आया कि शिकायतकर्ता डा. ज्योति वर्मा को भी दस्तावेज चाहिए होंगे जो कि उनके विभागाध्यक्ष यानि कि श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह के अधीन में होंगे। यह ध्यान में आने पर निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया के पालन हेतु कुलपति महोदय ने श्री सिंह से विभागाध्यक्ष का पदभार वापस ले लिया और उनके स्थान पर जनसंचार विभाग के विभागाध्यक्ष श्री संजय द्विवेदी को पत्रकारिता विभाग का अतिरिक्त प्रभार सौंपा। श्री सिंह इस पर अत्यंत उग्र हो गए और उनके भड़काने पर छात्रों ने श्री संजय द्विवेदी और श्री श्रीकांत सिंह के साथ दुर्व्‍यवहार किया। उसके बाद श्री सिंह के पूर्व व वर्तमान छात्रों ने कुलपति कार्यालय में घुसकर जमकर उत्पात मचाया और तोड़-फोड़ की। इसके विरूद्ध विश्वविद्यालय प्रशासन ने पुलिस में एफ आई आर दर्ज किया जिसमें 20 छात्रों के नाम दर्ज हैं। मामले को बिगड़ता देखकर श्री सिंह ने अपने छात्रों को भूख हड़ताल पर बैठा दिया है। हालांकि शिक्षक संघ के अध्यक्ष डा. श्रीकांत सिंह ने श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह को समर्थन देने की घोषणा की है, परंतु विश्वविद्यालय के अन्य विभागों के अध्यक्षों व शिक्षकों ने उनका साथ देने से मना कर दिया है। हैरत की बात यह हे कि श्री पुष्पेंद्रपाल सिंह कुलपति के विरोध करने में इतने आगे निकल गए हैं कि वे समाचार पत्रों में कुलपति के विरूद्ध खबरें प्लांट करने में जुटे हुए हैं। इसके लिए वे पूर्व छात्रों के साथ के अपने भावनात्मक संबंधों का सहारा ले रहे हैं जिसे एक प्रकार से भावनात्मक ब्लैकमेल ही कहा जा सकता है।

दूसरी ओर, कुलपति श्री कुठियाला देश के इतने प्रतिष्ठित और नामचीन विश्वविद्यालय का शैक्षणिक व अकादमिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए कृत संकल्प हैं। यह हैरत का ही विषय है कि पत्रकारिता क्षेत्र के प्राध्यापक कम्प्यूटर, इंटरनेट जैसी नई तकनीकों से पूरी तरह अनभिज्ञ हों। सूत्र बताते हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के विभागाध्यक्ष को भी इंटरनेट और ईमेल की जानकारी नहीं थी। यह तो कुलपति श्री कुठियाला का ही प्रयत्न है कि आज वहां के लगभग सभी प्राध्यापकों के अपने ईमेल पते बने हैं। बीच में जब श्री कुठियाला विदेश दौरे पर थे, तब उन्होंने ईमेल के जरिये विश्वविद्यालय के कार्यों का निर्देशन करना जारी रखा था।

बहरहाल, सवाल यह है कि क्या एक विश्वविद्यालय के शैक्षणिक व अकादमिक निर्णय भी छात्रों से पूछ कर किए जाएंगे? सवाल यह भी है कि क्या किसी भी प्राध्यापक को इतनी छूट मिलनी चाहिए कि वह विश्वविद्यालय को राजनीति के अड्डे में बदल डाले? सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह है कि पढे लिखे और बुद्धिजीवी कहे जाने वाले पत्रकारों का ऐसा अवैधानिक आचरण देशहित में है?

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती (२५ सित.) पर विशेष

अजातशत्रु दीनदयालजी

-अशोक बजाज

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ” “स्वदेश व स्वधर्म ” तथा परम्परा व संस्कृति ” जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन , चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होने देश की राजनैतिक व्यवस्था व अर्थतंत्र का भी गहन अध्ययन कर शुक्र , वृहस्पति , और चाणक्य की भांति आधुनिक राजनीति को शुचि व शुध्दता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा दी। उन्होने कहा कि हमारी संस्कृति समाज व सृष्टि का ही नही अपितु मानव के मन , बुध्दि , आत्मा और शरीर का समुच्चय है। उनके इसी विचार व दर्शन को “ एकात्म मानववाद ” का नाम दिया गया। जिसे अब एकात्म मानव-दर्शन के रूप में जाना जाता है। एकात्म मानव-दर्शन राष्ट्रत्व के दो पारिभाषित लक्षणों को पुनरर्जीवित करता है, जिन्हे ” चिति ” (राष्ट्र की आत्मा) और ”विराट” (वह शक्ति जो राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करता है) कहते है।

मूल समस्याः स्व के प्रति दुर्लक्ष्य

आजादी के बाद देश की राजनैतिक दिशा स्पष्ट नही थी क्योकि आजादी के आंदोलन के समय इस विषय पर बहुत ज्यादा चिन्तन नही हुआ था। अंग्रेजी शासन काल में सबका लक्ष्य एक था ” स्वराज ” लाना लेकिन स्वराज के बाद हमारा रूप क्या होगा ? हम किस दिशा में आगे बढे़गे ? इस बात का ज्यादा विचार ही नहीं हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ” स्व ” का विचार करना आवश्यक है। बिना उसके स्वराज्य का कोई अर्थ नहीं। केवल स्वतन्त्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक कि हमें अपनी असलियत का पता नहीं होगा तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज का ” स्व ” दब जाता है। इसीलिए लोग राष्ट्र के स्वराज्य की कामना करते हैं जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। प्रकृति बलवती होती है। उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से कष्ट होते हैं। प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति प्रायः उदासीन एवं अनमना रहता है। उसकी कर्म-शक्ति क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर विपथगामिनी बन जाती है। व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक व्यथाओं का शिकार बनता है। आज भारत की अनेक समस्याओं का यही कारण है।

नैतिक पतन एवं अवसरवादिता

राष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाले तथा राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश व्यक्ति इस प्रश्न की ओर उदासीन है। फलतः भारत की राजनीति, अवसरवादी एवं सिद्धांत हीन व्यक्तियों का अखाड़ा बन गई है। राजनीतिज्ञों तथा राजनीतिक दलो के न कोई सिद्धांत एवं आदर्श हैं और न कोई आचार-संहिता। एक दल छोड़कर दूसरे दल में जाने में व्यक्ति को कोई संकोच नहीं होता। दलों के विघटन अथवा विभिन्न दलों में गठबंधन किसी तात्विक मतभेद अथवा समानता के आधार पर नहीं अपितु उसके मूल में चुनाव और पद ही प्रमुख रूप से रहते हैं। अब राजनीतिक क्षेत्र में पूर्ण स्वेच्छाचारिता है। इसी का परिणाम है कि आज भी सभी के विषय में जनता के मन में समान रूप से अनास्था है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं कि जिसकी आचरणहीनता के विषय में कुछ कहा जाए तो जनता विश्वास न करे। इस स्थिति को बदलना होगा। बिना उसके समाज में व्यवस्था और एकता स्थापित नहीं की जा सकती।

भारतीय संस्कृति एकात्मवादी

राष्ट्रीय दृष्टि से तो हमें अपनी संस्कृति का विचार करना ही होगा, क्योंकि वह हमारी अपनी प्रकृति है। स्वराज्य का स्व -संस्कृति से घनिष्ठ सम्बंध रहता है। संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की लड़ाई स्वार्थी व पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जायेगी। स्वराज्य तभी साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा। इस अभिव्यक्ति में हमारा विकास भी होगा और हमें आनंद की अनुभूति भी होगी। अतः राष्ट्रीय और मानवीय दृष्टियों से आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों का विचार करें। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का, संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं।

परस्पर संघर्ष-विकृति का घोतक

विविधता में एकता अथवा एकता का विविध रूपों में व्यक्तीकरण ही भारतीय संस्कृति का केन्द्रस्थ विचार है। यदि इस तथ्य को हमने हृदयंगम कर लिया तो फिर विभिन्न सत्ताओं के बीच संघर्ष नहीं रहेगा। यदि संघर्ष है तो वह प्रकृति का अथवा संस्कृति का घोतक नहीं, विकृति का घोतक है। अर्थात् जिस मत्स्य-न्याय या जीवन संघर्ष को पश्चिम के लोगों ने ढूढकर निकाला उसका ज्ञान हमारे दार्शनिकों को था। मानव जीवन में काम, क्रोध आदि षड़विकारों को भी हमने स्वीकार किया है। किन्तु इन सब प्रवृत्तियों को अपनी संस्कृति अथवा शिष्ट व्यवहार का आधार नहीं बनाया। समाज में चोर और डाकू भी होते हैं। उनसे अपनी और समाज की रक्षा भी करनी चाहिए। किन्तु उनको हम अनुकरणीय अथवा मानव व्यवहार की आधारभूत प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि मानकर नहीं चल सकते। जिसकी लाठी उसकी भैंस जंगल का कानून है। मानव की सभ्यता का विकास इस कानून को मानकर नहीं बल्कि यह कानून न चल पाये इस व्यवस्था के कारण ही हुआ है। आगे भी यदि बढ़ना हो तो हमें इस इतिहास को ध्यान में रखकर ही चलना होगा।

व्यक्ति के सुख का विचार

सम्पूर्ण समाज या सृष्टि का ही नहीं, व्यक्ति का भी हमने एकात्म एवं संकलित विचार किया है। सामान्यतः व्यक्ति का विचार उसके शरीर मात्र के साथ किया जाता है। शरीर सुख को ही लोग सुख समझते हैं, किन्तु हम जानते हैं कि मन में चिंता रही तो शरीर सुख नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति शरीर का सुख चाहता है। किन्तु किसी को जेल में डाल दिया जाय और खूब अच्छा खाने को दिया जाय तो उसे सुख होगा क्या ? आनंद होगा क्या ?

इसी प्रकार बुद्धि का भी सुख है। इसके सुख का भी विचार करना पड़ता है। क्योंकि यदि मन का सुख हुआ भी और आपको बड़े प्रेम से रखा भी तथा आपको खाने-पीने को भी खूब दिया, परंतु यदि दिमाग में कोई उलझन बैठी रही तो वैसी हालत होती है जैसे पागल की हो जाती है। पागल क्या होता है ? उसे खाने को खूब मिलता है, हष्टपुष्ट भी हो जाता है, बाकी भी सुविधाए होती हैं। परंतु दिमाग की उलझनों के कारण बुद्धि का सुख प्राप्त नहीं होता। बुद्धि में तो शांति चाहिए। इन बातों का हमें विचार करना पडे़गा।

मानव की राजनीतिक आकांक्षा व तृप्ति

मनुष्य मन, बुद्धि , आत्मा तथा शरीर , इन चारों का समुच्चय है। हम उसको टुकड़ों में बॉंट करके विचार नहीं करते। आज पश्चिम में जो तकलीफें पैदा हुई हैं उनका कारण यह है कि उन्होंने मनुष्य के एक-एक हिस्से का विचार किया। प्रजातंत्र का आन्दोलन चला तो उन्होंने मनुष्य को कहा कि ” मैन इज ए पालिटिकल ऐनिमल ” अर्थात् मनुष्य एक राजनीतिक जीव है और इसलिए इसकी राजनीतिक आकांक्षा की तृप्ति होनी चाहिए। एक राजा बन करके बैठे और बाकी के राजा नहीं हों, ऐसा क्यों ? राजा सबको बनाना चाहिए। इसलिए राजा बनने की आकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने सबको वोट देने का अधिकार दे दिया। प्रजातंत्र में यह अधिकार तो मिल गया, परंतु बाकी जो अधिकार थे वे कम हो गए। फिर उन्होने कहा कि वोट देने का तो सबको अधिकार है, परंतु पेट भरे या न भरे ? यदि खाने को नहीं मिला तो ? जब लोगों से कहा गया कि तुम चिन्ता क्यों करते हो ? वोट का अधिकार तो तुम्हें है ही। तुम तो राजा हो। राजा बनकर बैठे रहो। राज तुम्हारा है। तो लोगों ने कहा-बाबा ! इस राज से हमें क्या करना है, अगर हमें खाने को ही नहीं मिल रहा। पेट को रोटी नहीं मिल रही तो हमें यह राज नहीं चाहिए। हमें तो पहले रोटी चाहिए। कार्लमार्क्स आये और उन्होने कहा-हॉं। रोटी सबसे पहली चीज है। राज तो केवल रोटी वालों का समर्थक होता है। अतः रोटी के लिए लड़ो। उन्होंने मनुष्य को रोटीमय बना दिया। पर जो लोग कार्लमार्क्स के रास्ते पर चले, वहॉं का अनुभव यह हुआ कि राज तो हाथ से गया ही और रोटी भी नहीं मिली। किन्तु दूसरी ओर अमरीका है। वहॉं रोटी भी हैं, राज भी है, इस पर भी सुख और शान्ति नहीं। जितनी आत्म-हत्याए अमरीका में होती हैं, और जितने लोग वहॉं मानसिक रोगों के शिकार रहते हैं, जितने लोग वहॉं पर टंक्विलाइजर ( ज्तंदुनपसप्रमते ) खा खा कर सोने का प्रयास करते है उतना दुनिया में और कहीं नहीं होता है। लोग कहते हैं ” यह क्या समस्या खड़ी हो गई है ? रोटी मिल गई, राज मिल गया, पर नींद हराम। अब वे कहते हैं बाबा नींद लाओ। किसी तरीके से नींद लाओ। अब वहॉं नींद बड़ी चीज बन गई है और नींद भी आ गई तो तृष्णा उन्हें परेशान कर रही है।

शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की प्रगति

विचारकों को लग रहा है कि उनकी जीवन-पद्धति में कहीं न कहीं कोई मौलिक गलती अवश्य है, जिससे समृदगी के बाद भी वे सुखी नहीं। कारण यह है कि मनुष्य का पूर्ण विचार नहीं कर पाए। हमारे यहॉं पर इस बात का पूरा विचार किया गया है। इसलिए हमने कहा है कि मानव की प्रगति का मतलब शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा-इन चारों की प्रगति है। बहुत बार लोग समझते हैं और इस बात का प्रचार भी किया गया है कि भारतीय संस्कृति तो केवल आत्मा का विचार करती है, बाकी के बारे में वह विचार नहीं करती। यह गलत है। आत्मा का विचार जरूर करते हैं, किन्तु यह सत्य नहीं कि हम शरीर, मन और बुद्धि का विचार नहीं करते। अन्य लोगों ने तो केवल शरीर का विचार किया। इसलिए आत्मा का विचार हमारी विशेषता हो गयी। कालान्तर में इस विशेषता ने लोगों में एकान्तिकता का भ्रम पैदा कर दिया। जिसका विवाह नही हुआ वह केवल मॉं को प्रेम करता है, किन्तु विवाह के बाद मॉ और पत्नी दोनों को प्रेम करता है तथा दोनों के प्रति दायित्व को निभाता है। अब इस व्यक्ति से कोई कहे कि उसने मॉं को प्रेम करना छोड़ दिया, तो यह गलत होगा। पत्नी भी, जब तक पुत्र नहीं होता, केवल पति को प्रेम करती है, बाद में पति और पुत्र दोनों को प्रेम करती है। इस अवस्था में कभी-कभी अज्ञानतावश पति पत्नी पर यह आरोप लगा देता है कि वह तो अब उसकी चिन्ता ही नहीं करती। किन्तु यह आरोप सही नहीं होता। यदि सही है तो पत्नी अपने कर्तव्य से विमुख हो गयी है, ऐसा मानना चाहिए। इस प्रकार हमने व्यक्ति के जीवन की पूर्णता के साथ संकलित विचार किया है। उसके शरीर, मन, बुध्दि और आत्मा सभी का विकास करने का उद्देश्य रखा है। उसकी सभी भूखों को मिटाने की व्यवस्था की है। किन्तु यह ध्यान रखा है कि एक भूख को मिटाने के प्रयत्न में दूसरी भूख न पैदा कर दे अथवा दूसरे के मिटाने का मार्ग बंद न कर दे। इस हेतु चारो पुरूषार्थो का संकलित विचार हुआ है। यह पूर्ण मानव की , एकात्म मानव की कल्पना है जो हमारा आराध्य तथा हमारी आराधना का साधन दोनों ही है। इस एकात्म मानव दर्शन को आधार बना कर हम भारत का समग्र विकास कर सकते है।

कंधमाल: सांप्रदायिक धुव्रीकरण नई चुनौती

-आर.एल.फ्रांसिस

राष्‍ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष एच.टी.सगलानियॉ ने कंधमाल पीड़ितों के पुर्नवास के लिए उठाये गये प्रयासों पर संतोष व्यक्त किया है। अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष का यह दौरा चर्च संगठनों द्वारा दिल्ली में 22 से 24 अगस्त 2010 कंधमाल पीड़ितों की जनसुनवाई के बाद किया गया है। कंधमाल की आग राजधानी दिल्ली में धधक रही है। चर्च से जुड़े तकरीबन पचास गैर-सरकारी संगठनों ने ”नैशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल आन कंधमाल” के नाम पर एक जन-सुनवाई की, इस जन-सुनवाई के संयाजकों में जोन दयालॅ, कटक-भुवनेश्‍वर के बिशप रिफेल चैनथ एवं वामपंथी विचाराधरा सहमत की माला हशामी प्रमुख थी।

इस जनसुनवाई में कंधमाल जिले के पीड़ित ईसाइयों को दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश ए.पी.शाह की अध्यक्षता वाली 12 सदस्यों की जूरी ने सुना जिसमें फिल्म निर्माता महेश भट्ट, राष्‍ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हर्श मंदर, सैयदा हमीद, रुथ मनोरमा मिलन कठोरी, एडमिरल विष्‍णु भागवत सहित अन्य लोग शामिल थे। वहीं दूसरी और तामझाम और मीडिया की नजरों से दूर कंधमाल से आये दर्जनों गैर-ईसाई कुई आदिवासी जंतर मंतर पर अपनी पीड़ा भी बयान कर रहे थे। हालांकि उनकी आवाज ”नैशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल आन कंधमाल” की तरह शायद ही जनता तक पहुंचे।

उड़ीसा में चर्च पर गरीब अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के धर्म परिवर्तन कराने के आरोप लगातार लगते रहे है। कुछ उन्मादी लोगों ने एक दशक पूर्व मयूरभंज जिले में विदेशी मिशनरी ग्राहम स्टेन्स व उन्के दो मसूम बच्चों को जिन्दा जला दिया था। कंधमाल में 23 अगस्त 2008 को स्वामी लक्ष्‍मणानंद सरस्वती की हत्या के बाद भड़के सप्रदायिक दंगों के बाद से स्थानीय ईसाइयों एवं गैर-ईसाइयों के बीच अविश्‍वास की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है। इन दगों में 40 लोगो की हत्या कर दी गई, हजारों घर और सैकड़ों पूजा स्थल जला दिये गए। हजारों लोगों को राहत शिविरों में जाना पड़ा और उन्में से कई आज भी राहत षिवरों में ही रह रहे है। कंधमाल में दंगों के षुरु होने के साथ ही राजनीति भी शुरु हो गई जो आज तक जारी है। स्वामी लक्ष्‍मणानंद की हत्या और भड़के साप्रदायिक दंगों के बाद शांति बहाली के प्रयास होने चाहिए थे जो षुरु ही नहीं किये गए। उल्टा मामले को अंतरराष्‍ट्रीय रंग दिया गया।

कंधमाल को लेकर पश्चिम जगत में दिलचस्पी तब जागी जब पोप बेनेडिक्ट सहोलवें ने भारत की इस मामले में खिचाई की और ईसाइयों के उत्पीड़न का आरोप लगाया इसके पहले पोप भारत में कुछ राज्य सरकारों द्वारा धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून लाए जाने पर वेटिकन स्थित भारतीय राजदूत को तलब करके अपनी नराजगी जाहिर कर चुके है। वही दूसरी और इतावली सरकार ने भारत के राजदूत को कंधमाल मामले में तलब किया। अमरीका स्थित अंतरराष्‍ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (यूएससीआइआरएफ) ने खुद जांच करने की मांग भारत सरकार से की। हालांकि भारत सरकार ने उक्त आयोग को अभी तक भारत में आने की इजाजत नहीं दी है।

भारतीय ईसाइयों का यह दुर्भाग्य रहा है कि मिशनरी ईसाइयों पर होने वाले हमलों को भी अपने लाभ में भुनाने से परहेज नहीं करते। वह वार्ता से भागते हुए अपनी गतिविधियों को यूरोपीय देशों का डर दिखाकर जारी रखते है। महत्मा गांधी तक ने धर्मातंरण की निंदा करते हुए इसे अनैतिक कहा उस समय के कई राष्‍ट्रवादी ईसाइयों ने गांधी जी के इस तर्क का समर्थन किया था क्योंकि उस समयमिशनरी गतिविधियों का मुख्य लक्ष्य लोगों को अंग्रेज समर्थक बनाना था आज भी मिशनरी अपना काम काज विदेशी धन से ही चलाते है। वे अमेरिकी और यूरोपीय ईसाई संगठनों के प्रति जवाबदेह है। इन देशों में इनकी गहरी पैठ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कंधमाल दगों की स्थिति जानने के लिए दिल्ली स्थित यूरोपीय यूनीयन का एक दल पिछले वर्ष कंधमाल का दौरा करके आया है। हालांकि इसके पूर्व केन्द्र सरकार ने भी शरद पवार के नेतृत्व में तीन मंत्रियों के एक दल को कंधमाल भेजा था हां यह दूसरी बात है कि ढोल-नगाड़ों के साथ जिस तरह यूरोपीय यूनीयन के दल का स्वागत किया गया वह अवसर केन्द्रीय दल को नसीब नहीं हो पाया।

देश की स्वतंत्रा के बाद भी ईसाई मिशनरी आत्मनिर्भर नहीं हो पाये है। चर्च अधिकारी विशेष कर कैथोलिक पोप के प्रति उत्रादायी है यहां बिशप एक प्रमुख कड़ी है और यही वेटिकन द्वारा नियुक्त किया जाता है। प्रटोस्टेंट चर्च भी पूरी तरह यूरोपीय देशों पर निर्भर बने हुए है अपनी छोटी-छोटी समस्याओं पर भी वह यूरोप का मुंह ताकते है। देश के कानून, न्याय व्यवस्था के प्रति उनके मन में एक संदेह बना रहता है। जो उनमें एवं आम ईसाइयों में अलगाव पैदा करता है। हालाकि आजादी के बाद से यहां के ईसाइयों (चर्च) को जो खास सहूलियतें हासिल है, वे बहूत से ईसाइयों को यूरोप व अमेरिका में भी हासिल नहीं है। जैसे विशेष अधिकार से शिक्षण संस्थान चलाना, सरकार से अनुदान पाना आदि।

वर्तमान परिस्थितियों में स्वाल यह भी है कि ईसाइयों/चर्च को क्या करना चाहिए? ईसाई भारतीय समाज और उसकी समास्याओं से अपने को जुड़ा नहीं महसूस करते है। वे अभी भी वेटिकन एवं अन्य पश्चिमी देशों पर निर्भर है। संकट के समय वह भारतीय न्याय व्यवस्था से ज्यादा पश्चिमी देशों द्वारा सरकार पर डाले जाने वाले उचित/अनुचित प्रभाव पर ज्यादा विश्‍वास करते है। अमेरिका में भारत के राजदूत रहे मेरे एक मित्र ने बताया कि उसके कार्यकाल के दौरान उसे अमेरिका में बसे भारतीय ईसाइयों की एक सभा में बुलाया गया और वहां भारतीय नेताओं, भारतीय कानून व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अधिक्तर ने भारत की ऐसी तस्वीर पेश की कि मानों भारत ईसाइयों के रहने लायक ही न हो। तब उसने भारत से हजारों मील दूर अमेरिका में बसे इन भारतीय ईसाइयों से कहा कृप्या आप ऐसा प्रपोगंडा मत करें देश की गलत तस्वीर विष्व समुदाय में बनाने से बचे, भारत में आपके ईसाई भाई पूरी तरह सुराक्षित है और उनकी देशभक्ति पर कोई सदेंह नहीं करता। सरकारे ईसाई अधिकारियों को अतिसंवेदनषील जुम्मेवारिया निसंकोंच देती है। कृप्या उन्हें शक के दायरे में मत लाये। मेरे दिमाग में कई दिन तक पूर्व राजदूत की यह बात कौंदती रही और मैं सोचता रहा ।

दुखद: यह है कि चर्च नेताओं ने कंधमाल के दंगों की जड़ में जाने की जरा भी जहमत नहीं उठाई उड़ीसा सरकार द्वारा दंगों की जांच के लिए गठित आयोग की अंतरिम रिर्पोट पिछले वर्ष जून में आई थी जिसमें दंगों के लिए धर्म परिवर्तन, फर्जी जाति प्रमाणपत्र एवं भूमि विवाद मूल कारण बताये गए थे। आयोग का मानना था कि आदिवासियों एवं दलितों के ईसाई बनने के बाद से परंपरागत समाज में विभाजन की खाई इतनी तीखी है कि दूर से बैठकर इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। आयोग ने सरकार को सुझाव दिया कि वह आदिवासियों की जमीन को मुक्त कराने के काम में तेजी लाए, फर्जीप्रमाणपत्र पर ध्यान दें तथा धर्म परिवर्तन के प्रति सचेत रहे। धर्म परिवर्तन केवल कंधमाल या उड़ीसा तक सीमित नहीं है यह देश के लिए एक राष्‍ट्रीय मुद्दा है। एक तरह से देखा जाए तो आयोग की रिर्पोट का राष्‍ट्रीय आयाम भी था परन्तु चर्च नेताओं ने आयोग की रिर्पोट को सिरे से ही खारिज कर दिया।

धर्मांतरण का लगातार विरोध कर रहा है।विरोध के चलते कई स्थानों पर छोटे-मोटे टकराव भी हुए है। उड़ीसा, कर्नाटका, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, झारखंड, आदि राज्यों में यह टकराव लगातार तीखा होता जा रहा है। चर्च गैर सरकारी यूरोपीय देशों में पहुच रखने वाले संगठनों के माध्यम से इसे अतंरराष्‍ट्रीय स्तर पर पहुंचाने में कामयाब हो रहा है। ताजा मामला कर्नाटक है जहां चर्च ने पूर्व न्यायाधीश संलदना की इस रिपोर्ट ”कि कर्नाटक में 500 दिनों में ईसाइयों पर 1000 हमले हुए” के अधार पर कर्नाटका की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने की मांग की है। हालाकि पूर्व न्यायाधीश सलदना की रिपोर्ट इसाई हमलों को अतंरराष्‍ट्रीय रंग देने वाले एक ईसाई संगठन की रिर्पोट से ही मेल नहीं खाती उनके मुताबिक 2009 में केवल 72 हमले हुए। हमले किसी पर भी हो उसकी निंदा करनी चाहिए और उन्हें तुरंत रोका जाना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इतवार को चर्चो में दिया जाने वाला प्रेम का संदेश धीरे-धीरे प्रेम की जगह नफरत का रुप लेता जा रहा है। चर्च पादरियों का एक वर्ग अपने अनुयायियों में विखराव की भावना उत्पन करने में लगा हुआ है।

कंधमाल की घटनाओं से सबक लेते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है धर्म परिवर्तन पर चर्च कितनी भी सफाई दे वह लोगों के गले कम ही उतरती है। आज उतर प्रदेश के कई हिस्से धर्मांतरण के कारण अंदर ही अंदर सुलग रहे है। तराई क्षेत्र से आने वाली रिपोटों के मुताबिक विदेशी मिशनरी स्थानीय पादरियों की सहयाता से क्षेत्र में अपनी गतिविधियों को तेजी से चलाए हुए है। उतर प्रदेश में लगातार चर्चो का विस्तार किया जा रहा है और हैरानी वाली बात यह है कि जिन क्षेत्रों में ईसाई नहीं है वहां भी बड़े पैमाने पर जमीन खरीदी जा रही है और चर्च बनाए जा रहे है। मेरे एक मित्र ने बताया कि ए.बी.सी. चर्च पश्चिमी उतर प्रदेश में गरीब हिन्दुओं को विश्‍वासी/ ईसाई बना रहा है परन्तु सरकारी खाते में वह आज भी हिन्दू ही है। दिल्ली के पास गुड़गांव के धनकोट में प्रटोटेस्टेंट मिशनरियों का एक गुप्र ‘दयाधाम’ नाम से एक स्कूल एवं सैमनरी सैकड़ों एकड़ भूमि पर चला रहा है जिसमें उतर भारतीय गरीब ईसाइयों के लड़के-लड़कियों को यहां लाकर तीन साल का पादरी का कोर्स करवाया जा रहा है। डिग्री वितरण समारोह में मुझे इस वर्ष शामिल होने का अवसर मिला। जिन छात्रों को डिग्रियां दी गई उनसे कहा गया कि अब आप अपने क्षेत्रों में जाए और धर्म प्रचार- ईश्‍वर के संदेश को फैलाये। गरीब लड़के-लड़कियां अपनी जीविका के लिए धर्म परिवर्तन कराने का मार्ग अपनाते है। उतर प्रदेश में सालवेंशन आर्मी इस तरह के लड़को को सौ डालर प्रतिमाह के अनुदान पर रखती है और उन्हें बकायादा टारगेट दिया जाता है और ऐसे लोग जाने अनजाने विदेशी मिशनरियों के मोहरे बन गए है। उसकी गतिविधियों से भी तनाव बढ़ रहा है। पिछले साल पंजाब में ईसा मसीह के एक पोस्टर को लेकर दंगा भड़क उठा था। उसके पीछे अधिक्तर ऐसे ही लोग थे।

कंधमाल के दंगों में विस्थापित परिवारों का पुर्नवास बिना भेदभाव किया जाना चाहिए उन्हें उचित मुआवजा दिया जाए, दोषियों को दंडित किया जाये और इस सबके इलावा शांति बहाली के रास्ते तलाश किये जाए। कंधमाल से आने वाली खबरों के मुताबिक उतरी गुंसर वन क्षेत्र में बसे गावों में ईसाइयों और गैर ईसाइयों के बीच की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। राहत शिविरों में रहने वाले गांव वापिस जाने की बजाय वही अपने घर बना रहे है और इस कार्य में उड़ीसा सरकार और चर्च उनकी सहायता कर रहा है। एक तरह से साप्रदायिक विभाजन को पुख्ता किया जा रहा है। यह नये प्रकार का ध्रुवीकरण कंधमाल में हो रहा है जिसे षांति के लिए अपनाए गए रास्ते से ही रोका जा सकता है।

ईसाइयों को चर्च राजनीति की दड़बाई (घंटो) रेत से अपना सिर निकालना होगा और अपने ही नहीं देश और समाज के सामने जो खतरे है, उनसे दो चार होना पड़ेगा। जब तक ईसाई देश में चलने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों से अपने को नहीं जोड़ेगे और अपनी समास्याओं का हल भारतीय परिवेश में नहीं ढूढेंगे तथा उसमें उनकी सक्रिय भागीदारी नहीं होगी, तब तक उनका अस्तित्व खतरे में रहेगा। ईसाइयों को धर्म और सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति एक स्पष्‍ट समझ बनाने की आवष्यकता है। आज स्थिति यह है कि चर्च ने धर्म और सामाजिक कार्य को एक दूसरे में गडमड कर दिया है और चर्च को यह सोचने की जरुरत है कि क्या कारण है कि सुदूर क्षेत्रों में सेवा कार्य करने के बाद भी लोग उन्हें संदेह की नजर से देखते है?

हिन्‍दू विवाह पंजीकरण को लेकर दिल्‍ली सरकार का स्‍वागतयोग्‍य फैसला

दिल्ली सरकार का अनुकर्णीय निर्णय

(अदालत में शादी करने के लिए कोई नोटिस नहीं, उसी दिन विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र भी)

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

हमारे देश का संविधान सभी को एक जैसा समान न्याय एवं सम्मानपूर्वक जीवन जीने का मौलिक अधिकार प्रदान करके इसकी गारण्टी भी देता है, लेकिन व्यावहारिक कडवी सच्चाई इस बात का समर्थन नहीं करती हैं। ऐसे अनेक क्षेत्र हैं? जिनमें व्यक्ति को न तो समान न्याय मिलता है और न हीं सम्मानपूर्वक जीवन जीने का कानूनी या मौलिक अधिकार प्राप्त है।

वयस्क युवक-युवतियों द्वारा अपनी-अपनी स्वैच्छा से हिन्दू समाज के समाजिक रीति रिवाजों के विरुद्ध जाकर विवाह करने या विवाह करने का प्रयास करने वालों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने देने की आजादी प्रदान करना तो दूर, उन्हें हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों द्वारा जीवित रहने के अधिकार से ही वंचित किया जा रहा है।

इसके लिये एक सीमा तक हिन्दू विवाह अधिनियम बनाने वाली संसद भी जिम्मेदार है। जिसमें स्वैच्छा से विवाह करने की लम्बी और ऐसी दुरूह व्यवस्था की गयी है, जिसका मकसद स्वैच्छा से विवाह करने वालों का विवाह सम्पन्न करवाना नहीं, बल्कि उनके विवाह को रोकना ही असली मकसद नजर आता है। इस लम्बी प्रक्रिया के कारण स्वैच्छा विवाह करने वाले जोडे के परिजनों को सारी जानकारी प्राप्त हो जाती है और फिर खाप पंचायतें अपना रौद्र रूप धारण करके तालिबानी न्याय प्रदान करके संविधान की धज्जियाँ उडाती हैं।

सम्भवत: इसी विसंगति को दूसर करने के आशय से पिछले दिनों दिल्ली सरकार सरकार ने हिन्दू विवाह पंजीकरण नियम (१९५६) में महत्वपूर्ण बदलाव करने को मंजूरी दे दी है। जिसके तहत अभी तक अदालत से विवाह पंजीकरण प्रमाण पत्र हासिल करने में एक माह का समय लगता है। जिसमें विवाह करने वालों के परिजनों को सूचना देना भी अनिवार्य होता है। दिल्ली सरकार के निर्णय के अनुसार, अब अदालत में विवाह करने के लिए कोई नोटिस नहीं देना होगा और विवाह के बाद उसी दिन विवाह पंजीकरण प्रमाण-पत्र भी मिल जाएगा।

विवाह करने के इच्छुक युवक-युवती किसी भी कार्य दिवस में बिना पूर्व सूचना अदालत में जाकर विवाह कर सकेंगे। हिन्दू विवाह पंजीकरण नियम,१९५६ के संशोधन के लिए अब दिल्ली सरकार एक अधिसूचना जारी करेगी। यह तय किया गया है कि मौजूदा नियम की धारा-७ की उप धारा ६ के प्रावधान अब दिल्ली में विवाह पंजीकरण के लिए जरूरी नहीं होंगे। जिनमें अभी तक यह व्यवस्था थी कि दिल्ली में विवाह पंजीकरण के लिए दोनों पक्षों में से कम से कम एक के अभिभावक का दिल्ली में कम से कम ३० दिन से अधिक का निवास होना चाहिए। अब यह तय किया गया है कि दिल्ली में किये गये विवाह के पंजीकरण के लिए यह शर्त लागू नहीं होगी। अब ३० दिन के निवास की शर्त समाप्त कर करने का प्रस्ताव है।

दिल्ली मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए निर्णय से ३० दिन की तय सीमा खतम होने के कारण परिजनों या समाज की मर्जी के खिलाफ जाकर विवाह करने वाले युवाओं को परेशानी का सामना नहीं करना प‹डेगा। अभी तक विवाह का पंजीकरण प्रमाण पत्र न होने के कारण ऐसे दंपती खुलकर समाज या पुलिस के सामने नहीं आ पाते थे और इनमें से कई तो ऑनर किलिंग के नाम पर खाप पंचायतों द्वारा मौत के घाट उतार दिये जाते थे। अब जल्द विवाह होने एवं पंजीकरण प्रमाण पत्र मिल जाने से ऐसे दपंती पुलिस व कोर्ट के समक्ष पेश होकर सुरक्षा की मांग भी कर सकते हैं।

दिल्ली सरकार का उक्त निर्णय अन्य राज्य सरकारों के लिये अनुकरणीय निर्णय है। जिस पर यदि सभी सरकारें अमल करती हैं या स्वयं भारत सरकार इस पर अमल करती है तो बहुत सारी ऑनर किलिंग (प्रतिष्ठा के लिये हत्या) को रोका जा सकेगा। जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक के लिये दिल्ली सरकार के प्रस्तावित कानून ने यह सन्देश तो दे ही दिया है कि कोई भी इच्छुक युवक-युवति दिल्ली में आकर अपना विवाह पंजीकरण करवा सकते हैं और अपने विवाह को उजागर करके पुलिस तथा प्रशासन का संरक्षण मांगकर मनमानी खाप पंचायतों से कानूनी संरक्षण पा सकते हैं।

इस फैसले को ‘अवसर’ का रूप दें


– पंकज झा

इस आलेख को शुरू करने से पहले यह स्पष्टीकरण देना जरूरी है कि लेखक की देश के न्याय प्रणाली में पूर्ण आस्था है. यह आलेख कहीं से भी न्यायिक व्यवस्था और उस के किसी फैसले पर सीधी टिप्पणी करने के लिए नहीं लिखा जा रहा है. फिर भी यह कहना समीचीन होगा कि एक स्वस्थ एवं सबल लोकतंत्र की सफलता इस बात में ही सन्निहित है कि वहां न्यायिक उपचार के बिना अधिकाँश ‘जन’ का काम चल जाय. बिना कोर्ट कचहरी गए हुए जितने नागरिक अपना काम-काज सुचारू चला पा रहे हों समझिए लोकतंत्र उसी अनुपात में कामयाब है. निश्चय ही समाज में न्याय व्यवस्था की अपनी जगह है, लेकिन वह अंतिम उपाय के रूप में ही काम आये यही सबल समाज की निशानी होनी चाहिए. अगर प्राथमिक उपचार प्रदान करना न्यायिक मजबूरी हो जाय जैसे अनाज सड़ने के मामले में हुआ तो समझ लीजिए लोकतंत्र में कुछ सडन जैसा पैदा हो रहा है. बाद में डॉ. मनमोहन सिंह जितना खुन्नस निकालें लेकिन कहा जायेगा कि मर्ज़ चौथे स्टेज में पहुच गया है. बहरहाल.

जब तक आप यह आलेख पढ़ रहे होंगे तब-तक चाहे तो अयोध्या मामले पर कोर्ट का फैसला आ जाना था या कुछ घंटे का इंतज़ार ही शेष रह जाता. अठारह साल के लंबे इंतज़ार के बाद अपेक्षित इस फैसले के लिए हर पक्ष द्वारा तैयारी पूरी कर ली गयी थी, लोगों ने अपना दिल भी थाम्ह लिया था. लेकिन उच्चतम न्यायालय के फैसले ने फिर मियाद बढ़ा दी. इस फैसले पर किसी भी तरह की टिप्पणी ना करते हुए समग्र रूप से यह कहना होगा कि हर व्यवस्था की अपनी सीमाएं हैं. जहां ‘सौ और निन्यानबे में कौन ज्यादा’ यह तय करना हो तो कोर्ट सीधे तौर पर कह सकता है कि सौ ज्यादा है. लेकिन अगर यही फैसला लोकतंत्र को लेना हो तो वह कहेगा कि सौ तो ज्यादे है ही लेकिन निन्यानबे भी कम नहीं. यह दोनों व्यवस्थाओं में मूलभूत अंतर है. हालाकि दोनों की अपनी सीमाएं और उपादेयता भी है.

जहां तक अयोध्या मसले का सवाल है तो यह देखा गया है कि इस मामले में न्यायपालिका में भी मतैक्य नहीं रहा है. स्थापित न्याय व्यवस्था के अंतर्गत उन्हें भी कोई फैसला बहुमत के आधार पर ही लेना होता है. तो आप गौर करें….तथ्य एक सामान, अधिवक्ताओं का विश्लेषण भी पीठ के सभी जजों के लिए एक जैसा, क़ानून भी सबों के लिए बराबर. फिर भी अगर न्यायाधीशों का मत अलग-अलग हो तो समझा जा सकता है ना कि हर चीज़ तर्क की कसौटी पर एक सामान कसा जाने लायक नहीं होता या जैसा कि आइन्स्टाइन ने कहा था ‘आस्था किसी तर्क का मुहताज नहीं होता.

24 सितम्बर को इलाहाबाद हाईकोर्ट के तीन सदस्यीय लखनऊ पीठ को इस बहुप्रतीक्षित मामले पर फैसला देना था. एक याची रमेश चन्द्र त्रिपाठी ने फैसला को रोकने के लिए याचिका दायर की. तो उस पीठ ने ना केवल याचिका खारिज की अपितु याची पर जुर्माना भी लगा दिया. खबर के अनुसार इस फैसले में भी तीन में से एक जज का मत अलग था. लेकिन फैसला बहुमत के आधार पर लिया गया. पुनः त्रिपाठी सुप्रीम कोर्ट पहुचे तो वहां ना केवल मामले को सुनवाई योग्य समझा गया बल्कि फिलहाल त्रिपाठी के पक्ष में फैसला दे कर हाई कोर्ट के आने वाले फैसले पर रोक भी लगा दी गयी. इस मामले में भी जो दो सदस्यीय पीठ सुनवाई कर रही थी उनमें से एक का मत अलग था. सरकारी वकील के अनुसार माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था इसलिए दी ताकि बातचीत से मामले का हल निकालने की गुंजाइश एक बार और तलाशी जा सके.

तो याचिकाकर्ता त्रिपाठी की मंशा क्या है, वह किसका हित संवर्द्धन चाह रहे हैं यह अलग मामला है. लेकिन अब जब फैसले को कम से कम चार-पांच दिनों के लिए टाल ही दिया गया है तो सरकार या सम्बंधित पक्ष को चाहिए कि इसे एक अवसर के रूप में देख कर कोई समाधानमूलक रास्ता तलाशे. एक बार और बातचीत का उच्चस्तरीय प्रयास किया जाना चाहिए.

ज़ाहिर है इलाहाबाद हाई कोर्ट के 24 सितंबर का फैसला भी अंतिम नहीं होना था. इसके बाद भी उच्चतम न्यायालय में जाने का विकल्प बचा ही है. फिर केंद्र की सरकार के पास तो शाहबानो मामले की तरह अवसरवादी फैसले लेकर वोटों की तिजारत का विकल्प बचा हुआ है. पिछले अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि किसी भी तरह का ‘खेल’ करने से कांग्रेस भविष्य में भी चूकने वाली नहीं है. अनाज मामले में न्यायालय को नसीहत पिला कर प्रधानमंत्री ने इस ओर इशारा तो कर ही दिया है.

तो अंततः अगर न्यायालय को भी फैसले लेने में बहुमत का ही सहारा लेना होता है. उन्हें भी लोकतांत्रिक ढंग से ही व्यवस्था देना होता है तो क्यू ना देश की आजादी के बाद के इस सबसे बड़े सांस्कृतिक मामले, आस्था के इस सबसे बड़े विषय पर सभी पक्ष मिल-जुल कर अपनी एक राय बना देश के गंगा-जमुनी संस्कृति को समृद्ध करें? आने वाले तीन-चार दिन काफी महत्वपूर्ण हैं. इस दौरान उठाये जाने वाले कदम ही देश के भविष्य का फैसला कर सकते हैं. अगर हम इस मामले में कुछ सकारात्मक कर पाएं तो निश्चय ही इतिहास में एक जिम्मेदार पीढ़ी के रूप में जाने जायेंगे. देश के समक्ष वैसे ही चुनौतियों का अंबार है. महंगाई बेरोजगारी के आलावा जलता कश्मीर, कराहता पूर्वोत्तर, गुलामी के खेल के नाम पर दाव पर लगा दिया गया देश का सम्मान , इससे सम्बंधित भरष्टाचार, फिर आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया माओवाद आदि ऐसे विषय हैं जिनपर काम किया जाना ज्यादे आवश्यक है. उम्मीद है इस मामले में मतैक्य स्थापित कर सभी पक्ष एकमत बना बहुमत का सम्मान करेंगे. अगर हम ऐसा करने में सफल रहे तो वास्तव में उच्चतम न्यायालय का यह फैसला, अवसर में तब्दील हो सकता है.

फिसलन का मौसम

-विजय कुमार

इन दिनों देश में सावन और भादों का मौसम चल रहा है। इस मौसम की बहुत सी अच्छाईयां हैं, तो कुछ कमियां भी हैं। वर्षा कम हो या अधिक, परेशानी आम जनता को ही होती है। इन दिनों वर्षा के न होने से, न तो धरती की प्यास बुझेगी और न ही खेत-खलिहान और कुएं-तालाब भरेंगे। सावन के बिना ‘सावन के अंधे’ जैसी कहावत, तीज, कांवड़ और रक्षाबंधन जैसे पर्वों का भी अस्तित्व न होता। कवियों के लिए भी यह अति सुखकारी है। झूला झूलती कोमलांगियों को देखकर उनकी प्रतिभा जाग उठती है। जिसने इस मौसम में नई कविता नहीं लिखी, कवि लोग उसे अपनी बिरादरी से निकाल देते हैं।

पर यह सावन-भादों का मौसम कीचड़ और फिसलन की समस्या भी लेकर आता है। सड़क पर यदि कोई फिसल पड़े या कीचड़ में रंग जाए, तो कुछ लोग हंसते हैं और कुछ उसे संभलने में सहायता करते हैं; पर यह फिसलन अगर जीभ की हो, तो फिर कई समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।

कहते हैं, एक बार दांत ने जीभ को जोर से काट लिया। जीभ ने समझाया, तो दांत ने फिर काट लिया। अब तो जीभ ने भी बदला लेने की ठान ली। एक बार किसी पहलवान के सामने जीभ दस-बीस गाली देकर चुप बैठ गयी। पहलवान ने दो घूंसों में ही श्रीमान जी की बत्तीसी झाड़ दी। सुना है तब से दांत कभी जीभ से झगड़ा नहीं करते।

जिह्ना ऐसी बावरी, कर दे सरग पताल।

आपन कह भीतर गयी, जूती खात कपाल।।

कुछ लोगों का मत है कि जीभ की फिसलन का संबंध दिमागी कीचड़ से अधिक है। विश्वास न हो, तो चिदम्बरम, दिग्विजय और पासवान के बयान को ही सुन लें। पता लग जाएगा कि उनके दिल में भरा दुर्गन्धित कीचड़ खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है। मुलायम सिंह की बातें समझ में ही नहीं आतीं। इसलिए उनकी जीभ की फिसलन का स्तर नापना संभव नहीं है। वैसे भी दिल्ली और लखनऊ में उनकी जीभ का रंग-ढंग बदल जाता है। लालू जी की बात पर राबड़ी देवी और उनकी भैंसें भी ध्यान नहीं देतीं, इसलिए उसकी चर्चा व्यर्थ है।

भारी व्यक्तित्व वालों के साथ दोहरी समस्या होती है। वे स्वयं तो फिसलते ही हैं, प्रायः साथ वालों को भी फिसला देते हैं। गडकरी द्वारा पिछले दिनों अपने विरोधियों के सम्मान में तलुवे चाटने वाले कुत्ते, दामाद, खसम और डायन जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना इसी फिसलन का परिणाम हैं। वैसे मुंबई और दिल्ली में मिट्टी की चिकनाई भी अलग-अलग है। सुना है अब वे संभल कर चलने और बोलने का अभ्यास कर रहे हैं।

इस बारे में मैडम इटली और मनमोहन जी सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। उनकी जीभ फिसलने का कोई खतरा नहीं है। क्योंकि वे सदा चुप रहते हैं। कभी बोलना ही हो, तो वे कुछ समझदार लोगों से भाषण लिखा लेते हैं। इसलिए गलती होने की संभावना नहीं रहती। विनोबा भावे तो मौन को सर्वोत्तम भाषण कहते थे।

पिछले दिनों हिन्दी साहित्य में भी खूब फिसलन का दौर रहा। लाल लेखकों के बीच बड़े माने जाने वाले विभूति नारायण राय की जीभ फिसली, तो वह कई लेखिकाओं को लपेटते हुए ‘छिनाल’ से लेकर ‘कितने बिस्तर में कितनी बार’ तक जा पहुंच गई। इस कीचड़ से ‘नया ज्ञानोदय’ और रवीन्द्र कालिया के हाथ-मुंह भी रंग गये। अब वे और कई बूढ़े हंस, बगुला भगत की तरह सिर झुकाए, जीभ में ताला डाले बैठे हैं।

वैसे ‘ज्ञानपीठ’ का इतिहास सदा सत्तापक्ष की ओर फिसलने का ही है। इस विवाद में अब हर साहित्यकार फिसल रहा है। सबको लग रहा है कि फिसले हुओं पर यदि कुछ कीचड़ उन्होंने न उछाला, तो कहीं वे ‘काफिर’ या ‘पतित’ घोषित न कर दिये जाएं।

कुल मिलाकर मेरा निष्कर्ष यह है कि दोष फिसलने वालों का नहीं, सावन-भादों के सुहाने मौसम का है। आप भी इसका आनंद तो लें; पर फिसलते हुए इतनी दूर न पहुंच जाएं कि माफी भी काफी न हो।

पाकिस्तान में हिंदुओं का अस्तित्व संकट में

-मुजफ्फर हुसैन

इस्लाम में सबसे अधिक पुण्य प्यासे को पानी पिलाने में है। किसी की प्यास बुझाना सबसे बड़ा सद्कर्म है। इसके पीछे एक लम्बा इतिहास है। पैगंबर हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन को यजीद ने करबला के मैदान में धोखे से बुलाकर तीन दिन तक भूखा-प्यासा रखा। दानवता की अंतिम सीमा लांघते हुए जालिमों ने इमाम हुसैन के छोटे पुत्र 6 महीने के अली असगर तक को पानी नहीं दिया। अली असगर ने प्यास से तड़पते हुए दम तोड़ दिया। इमाम हुसैन के जितने बंदे करबला पहुंचे थे उन्हें भी इब्ने जियाद की सेना ने पानी से वंचित रखा। मोहर्रम की दस तारीख को अंतत: इमाम हुसैन को प्यासा ही शहीद कर दिया गया। तब से दुनिया भर के मुसलमान प्यासे को पानी पिलाने में सबसे बड़ा सवाब यानी पुण्य मानते हैं।

लेकिन पिछले दिनों सिंध के एक छोटे से देहात मेमन गोथ में एक हिंदू लड़के ने अपनी प्यास बुझाने के लिये एक मस्जिद के बाहर लगे वाटर कूलर से पानी पी लिया। जब यह समाचार गांव में फैला तो कबीले के नाराज लोगों ने हिंदुओं के 450 परिवारों पर हमला बोल दिया। 60 हिंदू पुरुष और महिलाएं अपने बच्चों के साथ घर छोड़कर भागने को मजबूर हो गई। मीरूमल नामक एक हिंदू ने पाकिस्तानी अंग्रेजी दैनिक द न्यूज को बताया कि खेतों में मुर्गियों की देखभाल करने वाले मेरे बेटे दानिश ने एक मस्जिद के बाहर लगे कूलर से पानी पी लिया तो कयामत टूट पड़ी। नाराज मुसलमानों ने हमारी बस्ती के सात लोग जिनमें सामो, मोहन, हीरो, चानू, सादू, हीरा और गुड्डी शामिल है, को बुरी तरह से पीटकर घायल कर दिया। समाचार पत्र एक अन्य हिंदू हीरा के हवाले से लिखता है कि बस्ती के 400 हिंदू परिवारों को अन्यत्र चले जाने के लिए धमकाया जा रहा है। भयभीत हिंदू समीप की एक गोशाला में शरण लेने को बाध्य हैं।

संपूर्ण घटना पर मेमनगोथ के पुलिस प्रभारी का कहना है कि स्थानीय लोगों में शिक्षा के आभाव की वजह से एक छोटी सी बात को लेकर इतनी बड़ी घटना घट गई है। पुलिस ने उन्हें आश्वासन दिया है कि हिंदू लोग जब भी चाहें, गांव वापस लौट सकते हैं। उन्हें पूरी सुरक्षा दी जायेगी। घायलों को जिन्ना अस्पताल ले जाया गया है। स्थानीय पुलिस की तर्ज पर सिंध के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मोहन लाल ने भी हिंदू समुदाय को आश्वासन दिया है कि मैंने जिला पुलिस प्रशासन को हिदायत दी है कि सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध किए जाएं। लेकिन घबराया हिंदू किसी पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। मामले का सबसे दुखद पक्ष यह है कि सिंध की विधानसभा अथवा पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में इस घटना की निंदा के संदर्भ में एक भी शब्द नहीं बोला गया है।

यही कारण है कि पाकिस्तान के हिंदुओं में असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। उन्हें इस बात का भय है कि देश के कट्टर मुसलमान तालिबान का सहारा लेकर पाकिस्तान को एक हिंदू रहित राष्ट्र बनाने को आतुर हैं। पाकिस्तान के मुसलमानों के सामन ताजा उदाहरण कश्मीर का भी है जहां अमरनाथ यात्रा को हमेशा के लिए बंद करने का शडयंत्र घाटी के अलगाववादी तत्वों ने पाकिस्तानी तालिबान से मिलकर रचा था। कश्मीरी पंडितों से घाटी किस प्रकार खाली करवा ली गई, यह बात भी रह-रहकर पाकिस्तानी हिंदुओं में बेचैनी पैदा करती है।

सन् 1947 में जब देश का विभाजन हुआ था, उस समय पश्चिमी पाकिस्तान की कुल आबादी 4 करोड़ के आस-पास थी। सिंध उस समय हिंदू बहुल था ही, पंजाब, फ्रंटियर और बलूचिस्तान में भी हिंदू आबादी अच्छी-खासी संख्या में थी। विभाजन होते ही धर्मांधता की आंधी चली और लाखों लोग इधर से उधर हुए। पाकिस्तान के हिंदू असुरक्षा के कारण भारत चले आए। भारत से लाखों मुसलमान पाकिस्तान गए और वे आज भी वहां मुहाजिर के रूप में जीवन जीने को विवश है। वस्तुत: विभाजन के समय पंजाब और बंगाल की तरह सिंध का भी विभाजन होना था। सिंध प्रांत के तत्कालीन मुख्यमंत्री अल्लाबख्श सुमरो ने यह मांग उठाई थी। उनकी मांग के समर्थन में जोधपुर नरेश ने यह आश्वासन दिया था कि जोधपुर रियासत के तीन जिलों, सिंध का कराची तथा थारपारकर जिला मिलाकर पांच जिलों के आधार पर हिंदू बहुल सिंध की रचना हो सकती है। किंतु सिंध के विभाजन का पण्डित नेहरू ने कड़ा विरोध किया। जब अल्लाबख्श सुमरो ने आंदोलन की धमकी दी तो पण्डित नेहरू ने मौलाना आजाद की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया। इस आयोग ने अपनी एक पन्ने की रपट में निर्णय दे दिया कि चूंकि सिंध प्रांत के विभाजन की कोई मांग नहीं है अतएव विभाजन नहीं किया जाएगा। बाद में मोहम्मद अली जिन्ना के इशारे पर अल्लाबख्श सुमरो की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस प्रकार कराची और थारपारकर के हिंदू अनाथ बना दिए गए। विभाजन के समय उनका कत्लेआम हुआ।

विभाजन के समय फ्रंटियर प्रांत को पाकिस्तान में न शामिल करने की मांग खान अब्दुल गफ्फार खां ने उठायी थी। उन्होंने तब गांधीजी के समक्ष अपनी वेदना प्रकट करते हुए कहा था कि आज हमें इन भेड़ियों के समक्ष क्यों फेंक रहे हो। लेकिन उनकी भी एक न सुनी गयी। इस प्रकार सीमांत प्रदेश के हिंदुओं को भी कत्लेआम हुआ।

पाकिस्तान बनने पर वहां के हिंदुओं की दुर्दशा के बारे में हमारे नेताओं ने सदा से ही चुप्पी साध रखी है। आजादी के बाद पंजाब में हिंदुओं पर कहर ढाया जाने लगा। धीरे-धीरे उनका पंजाब से पलायन होने लगा। जो लोग वहां बचे, या तो उनका धर्मांतरण हो गया, या फिर किसी न किसी बहाने उनकी हत्याएं की गईं।

इस प्रकार के हालात में जालंधर में शरणार्थी के रूप में रह रहे एक पाकिस्तानी हिंदू ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि पाकिस्तान में 15 से 20 लाख हिंदू और सिख समुदाय के लोग जबर्दस्त आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक प्रताड़ना के शिकार हुए हैं। विभाजन के समय जो लोग अपनी धरती, घर-संपदा के मोह में वहां रह गए थे, आज वे सभी पाकिस्तान छोड़कर भारत आने के लिए उतावले हैं। जब से पाकिस्तान बना है, हिंदुओं और सिखों का पलायन जारी है। वहां से लोग किसी प्रकार से भागकर भारत में राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में अपने सगे-संबंधियों के पास शरण ले रहे हैं।

जालंधर में आज ऐसे 200 परिवार रहते हैं। इन्हें भारत में आए 10 से 15 साल बीत चुके हैं लेकिन अभी तक उन्हें भारत की नागरिकता नहीं मिली है। पाकिस्तान के पेशावर से सन् 1998 में जालंधर आए सम्मुख राम ने बातचीत में कहा कि पाकिस्तान में हिंदुओं के हालात बदतर हैं। हमारे पास ना तो कोई अधिकार है और ना ही कोई सुविधा। यही कारण है कि कराची और स्यालकोट के 15 से 20 लाख हिंदू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आना चाहते हैं। सम्मखराम का यह भी कहना है कि जो हिंदू पाकिस्तान से भारत आ चुके हैं, वह अब कदापि पाकिस्तान नहीं जाएंगे क्योंकि अब भारत ही हमारा वतन है। 70 साल के मुल्कराज का कहना है कि सरकार की शह पर हमारे मंदिर और गुरूद्वारे पाकिस्तान में तोड़े जा रहे हैं। मेरे भाई का कारोबार केवल इसलिए बंद करा दिया गया क्योंकि मैं यहां भारत आ गया हूं। कराची और थारपारकर जो कभी हिंदू बहुल जिले हुआ करते थे, आज वहां दूर-दूर तक कोई हिंदू देखने को नहीं मिलता है।

इन पाकिस्तानी हिंदुओं का यह भी कहना है कि पाकिस्तानियों को दिल खुश करने के लिए वाघा सीमा पर हर 15 अगस्त को मोमबत्तियां लेकर भारत के तथाकथित बुध्दिजीवी अवश्य उपस्थित होते हैं लेकिन भारत से हम हिंदुओं को दुखड़ा सुनने के लिए एक भी बुध्दिजीवी कभी क्यों नहीं आता। उनका यह भी कहना है कि मुर्दा जिन्ना का प्रचार तो बहुत है लेकिन हम जीवित हिंदुओं की सुध लेने वाला कोई नहीं है।

वास्तव में आज विचार करने की जरूरत है कि जब पाकिस्तान में हिंदू नहीं होगा तो फिर मुल्तान यानी मूल स्थान पर जाकर भक्त प्रहलाद के मंदिर का पुनरोद्धार कौन करवाएगा। तक्षशिला, मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की सभ्यता को पाकिस्तान में कौन अपनी विरासत कहेगा। तब पाकिस्तान में न तो पाणिनी को याद करने वाले होंगे और ना ही कोई सोनी महिवाल की कब्र पर जाकर प्रेम की मनौती के मटके चढ़ाएगा। आज मुख्य मुद्दा यह नहीं रह गया है कि पाकिस्तान में कितने हिंदू शेष हैं, प्रमुख विचारणीय प्रश्न यह है कि हिंदू विहीन पाकिस्तान में तालिबान की सरकार कब स्थापित होती है।