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राजस्‍थान: धन को लेकर प्रबंधन और छात्रसंघ आमने-सामने

-राजीव शर्मा

राजस्थान में बीते महीने छात्रसंघों के चुनाव सम्पन्न हो गये। पूर्व चुनाव आयुक्त जे.एम लिंगदोह समिति की सिफारिशों के अनुरूप ये चुनाव पूर्ण हुये। चुनाबों में उम्मीदवारों और उनके दलों ने जम कर इन सिफारिशों की धज्जियाँ उडाई। चुनाव जीतने के बाद अब सरकारी और निजी दोनों ही महाविद्यालयों में चुने हुये छात्र प्रतिनिधियों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड रहा है। वही सभी को छात्रसंघों के नाम पर बसूली जाने वाली राशि के लिए हाथ पैर मारने पड रहे है। आलम ये है कि प्रवंधन और छात्रसंघ धन को लेकर आमने सामने हो गये है।

बीते माह की 25 तारीख को राजस्थान भर में छात्रसंघ के चुनाव सम्पन्न हुये। इससे पूर्व 4 अगस्त 2004 को चुनाव कराए गये थे। बीच की अवधि के 6 वर्ष प्रदेश भर में छात्रसंघों के चुनाव नहीं कराए गये। न्यायालय ने छात्रसंघों के चुनाबों पर रोक लगा दी थी। एक लम्बी लड़ाई के बाद कॉलेज परिसरों में लोकतंत्र की बहाली हो सकी। लेकिन ये छात्रसंघ अब काँलेज प्राचार्य और प्रवंधनों के लिए सिरदर्द बन रहे है। कॉलेज परिसरों को अपनी तानाशाही से चला रहे प्रवंधनों,प्राचार्यो को छात्रसंघ फूटी आंख नहीं भा रहे है। हालात इतने बदतर हो गये है कि इन चुने हुए प्रतिनिधियों को कॉलेज परिसरों में अपने बैठने तक के स्थानों को पाने के लिए सडक पर उतरना पड रहा है तो कुछ को भूख हडताल करने को मजबूर होना पड रहा हैं।

छात्रसंघों के लिए पृथक कक्ष उतना बडा मुददा नहीं है। इससे भी बडा मुद्दा है धन। महाविद्यालयों में सरकार की ओर से छात्रसंघों के लिए अलग से कोई मद निर्धारित नहीं है। ऐसे में छात्रसंघों के नाम पर विद्यार्थियों से राशि एकत्र की जाती है। इसी धन राशि से छात्रसंघ कुछ रचनात्मक गतिविधियों का आयोजन करते है। इस सब के अलावा छात्रसंघ के पदाधिकारी अपने रूतबे के चलते महाविद्यालयों में अपने मर्जी से कुछ काम कराने में सफल हो जाते है। ऐसे में एक बडा सवाल तो यही है कि जब सरकारें महाविद्यालयों में छात्रसंघों का गठन कराती है तो उनके अधिकार क्षेत्र में कुछ बजट भी होना चाहिए जिससे कुछ गतिविधियों का संचालन छात्रसंघों के द्वारा अपनी मर्जी और रूचि के अनुसार किया जा सके। लेकिन ऐसा है नहीं। छात्रसंघ भी छात्रों से एकत्र धन के भरोसे ही जिंदा है। लगता है इस ओर कभी किसी ने ध्यान भी नहीं दिया है। वैसे सरकारें तो इस ओर ध्यान देगी भी क्यों?

प्रदेश में छात्रसंघों के चुनाव 6 वर्ष के बाद हुए है। इस बीच विद्यार्थियों की भी रूचि अपने अधिकारों के प्रति कुछ कम हुई है। हालात ये है कि अधिकांश चुने हुए प्रतिनिधियों को तो अभी तक ये ही मालुम नहीं है कि उनके अपने अधिकार क्या है? वो कौन कौन से कार्य है जिन्हें छात्रसंघ को विश्वास में लिए बगैर कॉलेज प्रशासन कर ही नहीं सकता है। जो प्रतिनिधि अभी चुन कर आये है उन्होंने खुद ने भी छात्रसंघों की कोई भी गतिविधि काँलेज परिसरों में कभी देखी नहीं हैं। यही कारण है कि स्वयं उनको ही नहीं पता कि उनके अधिकार और कर्तव्य क्या है? ऐसे में एक बडा सवाल ये खडा होता है कि जब पंचायतीराज से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक के प्रतिनिधियों को उनके दल, सरकार के द्वारा प्रशिक्षण कराये जाते है तो ऐसी व्यवस्था छात्रसंघों के लिए क्यों नहीं? ये बात उस समय तो और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है जबकि छात्रसंघों के चुनाव 6 वर्ष के अन्तराल के बाद कराए गये हों। लगता है राजनीति की पहली पाठशाला के प्रति ऐसी सोच किसी की भी कभी बन ही नहीं पाई है।

इस बार चुनाव हो जाने पर निरकुंश कालेज प्रशासनों के सामने सबसे बडा संकट छात्रसंघों के नाम पर एकत्र की जाति रही राशि को लेकर खडा हो रहा है।

चुने हुये छात्रसंघ प्रतिनिधियों के द्वारा गत पाँच बर्षो की राशि का हिसाब माँगा जा रहा है। वही काँलेज प्रशासन उन्हें केवल वर्तमान सत्र की राशि की जानकारी देकर टाल रहा है। विवाद का सबसे बडा कारण यही बन रहा है।

छात्रसंघ के प्रतिनिधियों का कहना है कि जब गत बर्षो में चुनाव ही नहीं हुए तो छात्रसंघों के नाम पर एकत्र की गई राशि को खर्च कहाँ किया गया,जबकि विद्यार्थियों से लगातार ये राशि ली जाती रही है। अब जबकि चुना हुआ छात्रसंघ है तो उसका उस पूरी राशि पर अधिकार बनता है जिसे छात्रसंघों के नाम पर कॉलेज प्रशासन एकत्र करता रहा है। वही काँलेज प्रवंधकों के पास उस राशि के बारे में स्पष्ट कहने को तो कोई जबाब नहीं है। वो इतना ही कहकर बात को टालने की कोशिश कर रहे है कि आपकों उससे क्या मतलब है आप तो इस सत्र की राशि के ही हकदार है। इतना ही नहीं एक कन्या महाविद्यालय ने तो बाकायदा एक सत्र की राशि को 14250 रूपए बताते हुये पत्र भी जारी कर दिया है। उसमें से भी 3541 रूप्ये का खर्चा चुनाव कराने पर खर्च बता दिया है। अब छात्रासंघ के पास 10 हजार रूप्ये है छात्रासंघ को चलाने के लिए।

इस महाविद्यालय की छात्रासंघ अध्यक्ष सुमन पटेल से जब हमने बात की तो उसका कहना था कि वो प्रबंधन से शेष पाँच वर्षों की धनराशि का भी हिसाब लेकर रहेगी। इसके लिए उसे सड़क पर आना पडा तो भी कोई दिक्कत नहीं है। सुमन पटेल का तो यहाँ तक कहना है कि छात्रासंघ की ही राशि नहीं छात्राओं से दूसरे अन्य मदों में ली गई राशि का भी वो हिसाब लेगी। उसका कहना था कि उसका महाविद्यालय स्वास्थ्य परीक्षण, स्मारिका प्रकाशन, वार्षिक उत्सब के नाम पर छात्राओं से मोटी राशि बसूलता चला आ रहा है जबकि ऐसा कोई आयोजन कभी उसके महाविद्यालय प्रशासन के द्वारा नहीं किया गया है। ऐसे में निर्वाचित छात्रसंघ की जिम्मेदारी बनती है कि वो छात्राओं के लिए उपयोगी इन सभी रचनात्मक कार्यो को पूर्ण कराये। तेबर देखने में तो लगता है छात्रासंघ अध्यक्ष सुमन पटेल संघर्ष करने की तैयारी कर चुकी है। लेकिन शिक्षण संस्थानों के नाम पर दुकान चला रहे लोगों से कुछ काम करा पाना उनके लिए इतना सरल दिखाई नहीं पड़ रहा है। जो प्रबंधन शुद्ध रूप से छात्रसंघ के नाम पर एकत्र राशि का हिसाब देने में आनाकानी कर रहा है वो और मदों को खर्च करेगा ऐसा लगता नहीं है।

भरतपुर जिला मुख्यालय पर स्थित रामेश्वरी देवी कन्या महाविद्यालय की छात्रसंघ अध्यक्ष योगेश चौधरी की परेशानी फिलहाल दूसरी है। योगेश चौधरी का कहना है कि उसके महाविद्यालय में वर्ष 2004 तक छात्रासंघ के लिए पृथक कक्ष की व्यवस्था हुआ करती थी। इस बार उन्हें अभी तक वो कक्ष उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है। योगेश चौधरी का कहना है कि इतना ही नहीं प्राचार्य उसके साथ असहयोग व अमर्यादित व्यवहार कर रहे है। योगेश चौधरी ने तो जिला कलक्टर और कुलपति सहित स्थानीय विधायकों तक अपनी शिकायत दर्ज करा दी है।

एक और छात्रसंघ अध्यक्ष रामनिवास गुर्जर का कहना है कि उसके महाविद्यालय द्वारा भी उसे चालू शिक्षण सत्र की ही राशि के बारे में जानकारी दी गई है। रामनिवास गुर्जर भी आन्दोलन करने के बारे में गंभीरता से विचार विमर्श कर रहे है।ऐसे हालात कमोबेश पूरे राजस्थान भर में उभर कर सामने आ रहे है जहाँ महाविद्यालय प्रवंधन और चुने हुये छात्रसंघ प्रतिनिधियों के बीच रोजाना तू तू में में की बात आम हो गई है। इस पूरे प्रकरण पर हमने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश उपाध्यक्ष सुनील चतुर्वेदी से बात की तो उनका कहना था कि ये सच है कि एक लम्बे अन्तराल के बाद छात्रसंघों के चुनाव हुये है जिससे दोनों ही पक्षों को एक दूसरे को समझने में परेशानी हो रही है। लेकिन धन को लेकर प्रबंधन की आपत्तियाँ अनुचित है। उन्हें चाहिये कि वो छात्रसंघों को विद्यार्थियों से एकत्र की गई राशि सुपुर्द कर दें। चतुर्वेदी इसके साथ एक बात की ओर और इशारा कर रहे थे।

उनके अनुसार अधिकांश उन छात्रसंघों के समक्ष दिक्कतें आ रही है जो सत्ताद्यारी दल के विरोधी छात्रसंघों के बैनर से जीत कर आये है। उनका तो यहाँ तक कहना था कि महाविद्यालयों की तो बात छोड दी जाये राजस्थान वि’वविद्यालय तक में जहाँ एबीवीपी का छात्रसंघ अध्यक्ष है उसे अभी तक कक्ष उपलब्ध नहीं कराया गया है।

अभी छात्रसंघों के गठन को एक महीना ही गुजरा है। आगे ये देखना बडा दिलचस्प होगा कि लोकतंत्र की पहली पाठशाला कहे जाने वाने छात्रसंघ कितना संघर्ष कर पाते है। वैसे प्रदेश में शिक्षा के निजीकरण ने उसे जिस प्रकार व्यापारियों के हाथों में सौंप दिया है उससे तो लगता है कि छात्रसंघ भी अप्रसांगिक होकर ही रह जायेगें। अभी तक के हालात तो ऐसी ही कहानी बयान कर रहे है। आगे भविष्य के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि कहते ‘जिस ओर जबानी चलती उस ओर जमाना चलता है’।

निष्ठावान स्वयंसेवक: बंसीलाल सोनी

-विजय कुमार

राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री बंसीलाल सोनी का जन्म एक मई, 1930 को वर्तमान झारखंड राज्य के सिंहभूम जिले में चाईबासा नामक स्थान पर अपने नाना जी के घर में हुआ था। इनके पिता श्री नारायण सोनी तथा माता श्रीमती मोहिनी देवी थीं।

इनके पुरखे मूलतः राजस्थान के थे, जो व्यापार करने के लिए इधर आये और फिर यहीं बस गये। बाल्यावस्था में ही उन्होंने अपने बड़े भाई श्री अनंतलाल सोनी के साथ शाखा जाना प्रारम्भ किया। आगे चलकर दोनों भाई प्रचारक बने और आजीवन संघ कार्य करते रहे।

यों तो बंसीलाल जी बालपन से ही स्वयंसेवक थे; पर कोलकाता में पढ़ते समय उनका घनिष्ठ सम्पर्क पूर्वोत्तर के क्षेत्र प्रचारक श्री एकनाथ रानाडे से हुआ। धीरे-धीरे उनका अधिकांश समय संघ कार्यालय पर बीतने लगा।

1949 में B.com की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें हुगली जिले के श्रीरामपुर नगर में भेजा गया।एकनाथ जी के साथ उन्होंने हर परिस्थिति में संघ कार्य सफलतापूर्वक करने के गुर सीखे।

कोलकाता लम्बे समय तक भारत की राजधानी रहा है। अतः यहां अनेक भाषाओं के बोलने वाले लोग रहते हैं। बंसीलाल जी हिन्दी के साथ ही बंगला, अंग्रेजी, नेपाली, मारवाड़ी आदि अनेक भाषा-बोलियों के जानकार थे। अतः वे सब लोगों में शीघ्र ही घुलमिल जाते थे। श्रीरामपुर नगर के बाद उन्हें क्रमशः माल्दा और फिर उत्तर बंग का विभाग प्रचारक बनाया गया।

पूर्वोत्तर भारत में नदियों की प्रचुरता है। ये नदियां जहां उस क्षेत्र के लिए जीवनदायिनी हैं, वहां वर्षा के दिनों में इनके कारण संकट भी बहुत आते हैं। 1968 में जलपाईगुड़ी में भीषण बाढ़ आई। इससे सारा जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। जो जहां था, वहीं फंस कर रह गया। हजारों नर-नारी और पशु मारे गये। ऐसी स्थिति में स्वयंसेवकों ने ‘उत्तर बंग सेवा समिति’ बनाकर बंसीलाल जी की देखरेख में जनसेवा के अनेक कार्य किये।

1971 में बंगलादेश मुक्ति संग्राम के समय लाखों शरणार्थी भारत में आ गये। उनमें से अधिकांश हिन्दू ही थे। स्वयंसेवकों ने उनके भोजन, आवास और वस्त्रों का समुचित प्रबन्ध किया। पूरे देश से उनके लिए सहायता राशि व सामग्री भेजी गयी, जिसका केन्द्र कोलकाता ही था। यह सब कार्य भी बंसीलाल जी की देखरेख में ही सम्पन्न हुआ। इतना ही नहीं, वे बड़ी संख्या में टैंट और अन्य सहायता सामग्री लेकर बंगलादेश की राजधानी ढाका तक गये।

1975 में आपातकाल के समय वे कोलकाता में ही प्रचारक थे। संघ के आह्नान पर स्वयंसेवकों के साथ उन्होंने भी सत्याग्रह कर कारावास स्वीकार किया। आपातकाल और संघ से प्रतिबन्ध की समाप्ति के बाद संघ ने अनेक सेवा कार्य प्रारम्भ किये। इनमें प्रौढ़ शिक्षा का कार्य भी था। बंसीलाल जी के नेतृत्व में 1978 में बंगाल में अनेक ‘प्रौढ़ साक्षरता केन्द्र’ चलाये गये।

1980 में भारतीय जनता पार्टी के गठन के बाद उसके केन्द्रीय कार्यालय के संचालन के लिए एक अनुभवी और निष्ठावान कार्यकर्ता की आवश्यकता थी। यह जिम्मेदारी लेकर बंसीलाल जी दिल्ली आ गये। इसके साथ ही उन्होंने असम, बंगाल और उड़ीसा में भाजपा का संगठन तंत्र भी खड़ा किया।

2003 में उन्हें फिर से वापस बंगाल बुलाकर पूर्वी क्षेत्र बौद्धिक प्रमुख और फिर सम्पर्क प्रमुख बनाया गया। शारीरिक शिथिलता के कारण जब प्रवास में उन्हें कठिनाई होने लगा, तो वे दक्षिण बंग की प्रान्त कार्यकारिणी के सदस्य के नाते अपने अनुभव से नयी पीढ़ी को लाभान्वित करते रहे।

20 अगस्त, 2010 को 80 वर्ष की दीर्घायु में निष्ठावान स्वयंसेवक श्री बंसीलाल सोनी का कोलकाता के विशुद्धानंद अस्पताल में देहांत हुआ।

खेल के माध्यम से बढ़ता शब्दज्ञान

-विजय कुमार

कहते हैं कि यदि व्यक्ति में सीखने की इच्छा हो, तो वह जीवन भर जिज्ञासु छात्र की तरह कुछ न कुछ सीखता ही रहता है। दिल्ली में होने जा रहे खेलों के बारे में पुलिस-प्रशासन वाले कई दिन से समाचार पत्रों में विज्ञापन छपवा रहे हैं कि आप हमारे आंख और कान बनें। सो जागरूक लोगों और समाचार जगत ने अपने आंख और कान खोल लिये और हर काम में ‘कांग्रेस कल्चर’ के अनुरूप हो रहे भ्रष्टाचार को उजागर करने लगे।

इन खेलों को प्रारम्भ से ही बहुत से लोग ‘गुलाममंडल खेल’ कह रहे थे; पर भ्रष्टाचार की अधिकता के चलते अब इन्हें ‘भ्रष्टमंडल खेल’ भी कहा जा रहा है। 21 सितम्बर को खेलगांव के निकट एक पुल गिर जाने के बाद अब कई विदेशी पत्र इन्हें ‘क१मनवैल्थ गेम’ के बदले ‘क१मनवैल्थ शेम’ लिख रहे हैं।

जहां तक अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधाओं की बात है, अनेक बड़े खिलाड़ियों ने व्यक्तिगत रूप से यहां आने से मना कर दिया है। उनका कहना है कि हमें पदक से अधिक अपनी जान प्यारी है। कई देशों ने अपने खिलाड़ियों को देर से भेजा। पिछले दिनों कुछ देशों ने तो किसी अन्य स्थान और समय पर ‘वैकल्पिक खेल’ की बात भी चला दी थी। इन खेलों को करोड़ों रु0 की रिश्वत देकर भारत में लाया गया है, यह भी कई विदेशी पत्र लिख रहे हैं। ऐसे में यदि काम करवा रहे नेता दो नंबर का अरबों रुपया कमा रहे हैं, तो इसमें गलत क्या है ? आखिर उन्हें अगला चुनाव भी तो लड़ना है।

आंख और कान खुले होने के कारण इस सबसे मेरा शब्दज्ञान बहुत बढ़ रहा है। अब खेल तो होंगे ही; पर कैसे होंगे, इसका भगवान ही मालिक है। चाहे जो हो; पर सुपर प्रधानमंत्री मैडम इटली, शीला दीक्षित और सुरेश कलमाड़ी ने जैसी छीछालेदर भारत और इन खेलों की कराई है, ऐसे में इन्हें ‘विफलमंडल खेल’ भी कहा जा सकता है। इन खेलों के चक्कर में लाखों दिल्लीवासियों को उखाड़कर पूरे शहर को जैसे उजाड़ा गया है, तो इसे उखाड़मंडल या उजाड़मंडल खेल भी कह सकते हैं। कुछ मित्रों की राय इसे विनाशमंडल, सत्यानाश मंडल, सर्वनाश मंडल या बर्बाद मंडल खेल कहने के पक्ष में है।

यह तो बच्चा भी जानता है कि यदि कोई मंडल या गोले में दौड़ रहा हो, तो वह चाहे जीवन भर दौड़ता रहे, पर किसी लक्ष्य पर नहीं पहंुचेगा। यह बात इन खेलों के प्रारम्भ होने से पहले भी सत्य है और बाद में भी सत्य सिद्ध होगी।

अयोध्या विवाद और भारत की वर्तमान स्थिति

-तरुणराज गोस्वामी

यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि जिस भारत में युगों-युगों से मर्यादा पुरुषोत्तम करोड़ों के आराध्य रहे हैं उसी भारत में सालों से अयोध्या की भूमि पर अधिकार को लेकर मुकदमेबाजियां हो रही है। उस पर भी ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जैसे कोई आसमान टूटकर गिरने जा रहा हो, जैसे निर्णय आते ही दंगे भड़क जायेंगे और सबकुछ लुट पिट जायेगा।

आज स्थितियां बानवे से कितनी ही आगे निकल आयी है आज हमारे पास पैसा कमाने और तरक्की की सोच के अतिरिक्त कोई सोच नही, आज हमारा ह्रदय लगातार होते आतंकी हमलो पर भी पसीजता नही, हममें से अधिकांश नक्सली हमलो पर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते, कश्मीर में क्या हो रहा है या हो सकता है जानने की कोशिश ही नहीँ करते, लगातार आती भ्रष्टाचार की ख़बरें हमें परेशान नहीं करती। आज तो हम केवल औपचारिकताएं निभाते हैं, मोमबत्तियाँ जलाते हैं, ज्यादा से ज्यादा लिखकर शांत हो जाते है। अगले दिन सबकुछ भूलकर आगे बढ़ जाते हैं क्योंकि हम तो तरक्की करना चाहते हैं लेकिन अपना अतीत भूलाकर हम तरक्की की कौन सी दिशा पा सकेँगे? क्या भारत को अभी भी ऐसी ही तरक्की चाहिये जिसमें संस्कार जैसी कोई चीज़ ही न हो। विवेकानंदजी ने कहा था हम अपना गौरवमयी अतीत भूलाकर स्वर्णिम भविष्य का निर्माण नही कर सकते। फ़िर भी आज भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग इतिहास को झूठलाकर नित नये जतन करते रहते हैं। एक वर्ग विशेष के और ज़्यादा नज़दीक साबित करने के ताकि यह लोग उस वर्ग के वोट पा सकें जो कि हमेशा ही थोक में डलते आये हैं। इसी प्रकार की राजनीति का परिणाम है कि आज दशकों से भूमि के एक टुकड़े पर अधिकार का मुकदमा अदालत के चक्कर काट रहा है वरना आखिर क्या कारण है कि संसद इस विषय में कोई कानून बनाकर विवाद का अंत कर देती। लेकिन कोई भी सरकार ऐसा करके अपने वोट पर चोट नहीं कर सकती तो फ़िर अदालत के निर्णय को ही स्वीकार कर अंतिम सत्य मानने का रास्ता रह जाता है।(चाहे हर कोई जानता हो कि अदालतों में प्रस्तुत किये जाने वाले तथ्य कैसे उत्पन्न किये जाते हैँ)

लाख मतभेदों के बावजूद आज अधिकांश लोग अदालत का निर्णय जानने को उत्सुक है। यह जानते हुए भी कि यह विषय सर्वोच्च न्यायालय पहुंचकर हल होने के लिये कई और दशको का समय लेगा,भारत का आम आदमी चाहता है कि अभी तो निर्णय आये और सरकारों ने जो ये आशंकित वातावरण बनाया है समाप्त हो। आम नागरिक आज विवाद नहीँ चाहता फ़िर भी नेताओँ विशेषकर धार्मिक नेताओँ को चाहिये कि अपनी वाणी पर संयम रखे, सरकारोँ को चाहिये कि चौराहों पर शस्त्रधारी पुलिस जवान खड़े करने के स्थान पर समाज के ठेकेदारों को यह जिम्मेदारी दे कि वे अपने आस-पास शांति स्थापित करें, प्रशासन किसी भी स्थिति में अपने कर्तव्य मार्ग से विचलित न हो।

रही बात अयोध्या में मंदिर निर्माण की तो वह तो एक न एक दिन हो ही जायेगा कुछ और दशक बाद सही।

ये है दिल्ली मेरी जान

-लिमटी खरे

चूल्हे में हगें, शनीचर को दोष दें. . .

बुंदेलखण्ड की बहुत पुरानी कहावत है -‘‘चूल्हे में हगें, शनीचर को दोष दें. . .। अर्थात पुराने जमाने के शौचालयों के बजाए अलह सुब्बह जाकर चूल्हे में जाकर पॉटी कर दी और सुबह जब देखा तो कहने लगे शनी भारी हो गया है हमारे घर की रसोई में चूल्हे में पॉटी पड़ी है। इसी कहावत को मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार चरितार्थ कर रही है। मध्य प्रदेश से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों के रखरखाव हेतु केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्रालय द्वारा हाथ खींच लिए जाने के आरोप के साथ ही मध्य प्रदेश भाजपा द्वारा भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के खिलाफ सड़कों पर उतरने की बात कही जा रही है। भूतल परिवहन मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों का दावा है कि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा नेशनल हाईवे के संधारण के प्रस्तावों को महालेखाकार लेखा एवं हकदारी ग्वालियर के माध्यम से केंद्र को भेजना था, वह अभी तक नही भेजे गए हैं, कुछ प्रस्ताव केंद्र को प्राप्त भी हुए थे किन्तु त्रुटिपूर्ण होने के चलते केंद्र ने इन्हें नामंजूर कर दिया था। सूत्रों का आरोप है कि मध्य प्रदेश के नेशनल हाईवे के रखरखाव के लिए केंद्र सरकार से आने वाली भारी भरकम रकम में पिछले नौ सालों के रिकार्ड में जबर्दस्त गड़बड़झाला है। केंद्र सरकार को प्रस्ताव न भेजकर मध्य प्रदेश ने अपने ही खजाने में तकरीबन तीस करोड़ रूपए की चपत लगा ली है।

सात दिन पहले जागे कलमाड़ी!

राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी 2003 में मिल गई थी, और आयोजन होना था 2010 में अर्थात सात सालों का समय था भारत के पास। आयोजन समिति पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगते रहे। न केवल भारत गणराज्य के प्रधानमंत्री वरन् कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, युवराज राहुल गांधी सहित विपक्ष भी अर्थमोह में ‘ध्रतराष्ट्र‘ की भूमिका में रहा। आयोजन के महज सात दिन पहले सुरेश कलमाड़ी को ‘दिव्य ज्ञान‘ की प्राप्ति हुई, और उन्होंने अपनी गल्ती स्वीकार की है, कि अभी बहुत काम होना बाकी है। कलमाड़ी सोच रहे होंगे के अंतिम समय में सच को स्वीकार करने से वे अपनी जवाबदारी से बच जाएंगे। कलमाड़ी की अंतिम समय में स्वीकारोक्ति किसी ओर के नहीं वरन् प्रधानमंत्री डॉ..मनमोहन सिंह और कांग्रेस एवं संप्रग अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी के गाल पर करारे तमाचे से कम नहीं है। जिसे वे भले ही महसूस न कर पा रहे हों पर इसकी गूंज, अनुगूंज, प्रतिध्वनि न केवल भारत में वरन् समूचे विश्व में जोर से सुनाई दे रही है।

तीसरी महाशक्ति बना भारत गणराज्य

भ्रष्टाचार, अनाचार, नक्सलवाद, अलगाववाद, माओवाद, आतंकवाद, प्रांतवाद, भाषावाद आदि की जद में कराहने वाले भारत गणराज्य के नागरिकों के लिए यह खबर खुशी देने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती है कि भारत गणराज्य को विश्व की तीसरी महाशक्ति के तौर पर पहचाना गया है। जी हां, अमेरिका की सरकारी रिपोर्ट में 2010 के ताकतवर देशों की फेहरिस्त में अमेरिका, चीन के बाद भारत को स्थान दिया जाना निश्चित तौर पर भारत के लिए गर्व की बात है। इस सूची के अनुसार दुनिया की 22 फीसदी ताकत अमेरिका के पास, 12 फीसदी चीन के पास, भारत के पास आठ प्रतिशत तो जापान, ब्राजील और रूस के पास 5 – 5 प्रतिशत ताकत है। इतना ही नहीं अनुमान 2025 को लेकर लगाया गया है, जिसमें अमेरिका की ताकत 4 प्रतिशत घटकर जताई गई है, 2025 में अमेरिका की ताकत 18 फीसदी, यूरोपीय संघ की 14 फीसदी और भारत की ताकत में दो अंको का इजाफा होकर यह 10 फीसदी होने का अनुमान लगाया गया है।

बाढ़ से निपटने तैयार नहीं हैं सूबे

कितने आश्चर्य की बात है कि भारत गणराज्य द्वारा 35 साल पहले बनाए गए एक विधेयक को सूबाई सरकारों ने कानून के तौर पर मान्यता नहीं दी है। केंद्रीय जल आयोग द्वारा 1975 में बनाए गए मॉडल फ्लड बिल को देश में राजस्थान और मणिपुर द्वारा ही कानूनी तौर पर मान्यता दी है। इस विधेयक के तहत बाढ संभावित निचले इलाकों में रिहाईशी या व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के बजाए बाग बगीचे अथवा खेल के मैदान बनाने की बात कही गई थी, जिसका कारण यह था कि अतिवर्षा या बाढ़ की स्थिति में जान माल की सुरक्षा करना प्रमुख था। आश्चर्य तो तब हुआ जब 35 सालों के बाद भी राजस्थान और मणिपुर को छोडकर किसी भी सूबे की सरकार ने विधानसभा में इसे पेश करके इसे कानूनी तौर पर मान्य नहीं किया है। घोर आश्चर्य तो तब होता है जब कांग्रेस की केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए बिल को सालों साल सूबों पर राज करने वाली कांग्रेस की ही राज्य सरकारों द्वारा उपेक्षा की नजर से देखा गया हो।

दिग्गी की राह पर लालू

राजनीति में वंशवाद, परिवारावद जमकर हावी होता दिख रहा है। कांग्रेस के ताकतवर महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने अपने पुत्र जयवर्धन को 2013 में राजनीति में लांच करने की योजना बना रखी है, तो भला स्वयंभू प्रबंधन गुरू लालू प्रसाद यादव उससे पीछे कैसे रहते। लालू यादव ने भी अपने क्रिकेटर पुत्र तेजस्वी यादव को राजनीति में उतारकर उसे अपनी राजनैतिक विरासत सौंपने का मानस बना लिया है। पटना में लालू यादव ने अपने पुत्र तेजस्वी को मंच से बाकायदा चुनाव प्रचार की जवाबदारी सौंपकर जता दिया है कि आने वाले समय में राजद के सुप्रीमो के चेयरपर्सन उनके पुत्र तेजस्वी ही होंगे। अरे भई जब नेहरू गांधी परिवार का मूल ‘‘व्यवसाय‘‘ ही ‘‘इक्कीसवीं सदी की जनसेवा‘‘ बन गया हो तो भला फिर नेहरू गांधी परिवार को आदर्श मानने वाले राजनेता इससे भला पीछे कैसे रहेंगे।

जमुना देवी: एक युग का अवसान

मध्य प्रदेश की लौह महिला का अघोषित खिताब पाने वाली आदिवासी नेता जमुना देवी की आवाज शांत हो गई। 1952 से मध्य प्रदेश विधानसभा में लगातार गूंजने वाली आवाज को अब नही सुना जा सकेगा। वे 1952 से 1957 तक मध्य भारत विधानसभा की सदस्य रहीं। 1962 से 1967 तक लोकसभा सदस्य, 1985 में राज्य मंत्री मध्य प्रदेश सरकार, 1998 में उपमुख्यमंत्री बनीं और 16 दिसंबर 2003 को नेता प्रतिपक्ष बनीं। इसके बाद 07 जनवरी 2009 को पुनः नेता प्रतिपक्ष चुनी र्गइं। जमुना बुआ इकलौती ऐसी महिला जनसेवक रहीं जिन्हांेने कभी भी नीतियों के साथ समझौता नहीं किया। पूर्व मुख्यमंत्री एवं महासचिव राजा दिग्विजय सिंह ने अपने दस साल के कार्यकाल में भले ही कुंवर अर्जुन सिंह, स्व.माधवराव सिंधिया, शुक्ल बंधुओं, अजीत जोगी, कमल नाथ जैसे क्षत्रपांे को पानी पिलाया हो, पर जमुना बुआ की एक हुंकार पर राजा दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी सहम ही जाते थे। अंतिम समय तक वे सक्रिय राजनीति में रहीं। जमुना बुआ का निधन कांग्रेस के लिए क्षति अवश्य है, पर उनके जाने से राजनैतिक क्षेत्र में हुई रिक्तता की भरपाई शायद ही हो पाए। मध्य प्रदेश विधानसभा में गूंजने वाली एक दबंग आवाज अब शांत हो गई है।

बंगाल की रेलमंत्री

कांग्रेस को न जाने क्या हो गया है कि वह केंद्र मंे सत्ता की मलाई चखनेे के लिए अपने सहयोगियों के हर सितम को हंस हंस कर सह रही है। कांग्रेस चाहे जो करे पर इससे सीधे सीधे नुकसान तो रियाया का ही हो रहा है। संप्रग – 2 में रेल मंत्री बनी ममता बनर्जी का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पश्चिम बंगाल की कुर्सी पर काबिज होना दिख रहा है। भारतीय रेल किस दिशा में जा रही है, इस बात से रेल मंत्री ममता बनर्जी को लेना देना नहीं है। पूर्व रेल मंत्री लालू यादव भी शांत भाव से सब कुछ देख सुन रहे हैं। विपक्ष के सारे दल भी मूकदर्शक हैं। रेल दुर्घटनाओं में इजाफा और रेल सुविधाओं में कमी साफ साफ दिखाई पड़ रही है। रेल मंत्री को इन सारी बातों से कोई सरोकार नहीं है, उनका प्रथम उद्देश्य पश्चिम बंगाल की कुर्सी पर काबिज होना ही है। इसलिए वे कई माहों से पश्चिम बंगाल में ही डेरा डाले हुए हैं। अब तो लोग ममता बनर्जी को भारत गणराज्य की रेल मंत्री के बजाए पश्चिम बंगाल की रेलमंत्री के नाम से भी जानने लगे हैं।

घर के लड़का गोंही चूसें, मामा खाएं अमावट

देश के सांसद विधायकों के वेतन भत्तों और अन्य सुविधाओं को देखकर दो वक्त की रोजी रोटी की जद्दोजहद में लगा आम आदमी दांतो तले उंगली दबा लेता है। देश की रक्षा करने वाले वीर सपूतांे के परिवार किस हालत में हैं, इस बात से किसी जनसेवक को लेना देना नहीं है। जनसेवकों की अपनी अंटी में पैसा और सुविधाएं बरकरार रहंे, बस इसके अलावा उन्हें और अधिक कुछ नहीं चाहिए। आपको यह जानकर घोर आश्चर्य होगा कि देश के खुले बाजार में जब दालें 80 रूपए प्रति किलो से अधिक की दर से बिक रही हैं, तब सेना के एक अधिकारी की बेवा को महज अस्सी रूपए प्रतिमाह पेंशन मिल रही है। सेना के दिवंगत मेजर धरमचंद ने भारत पाक के बीच हुए 1947 – 48 एवं 1965 के तथा चीन के साथ हुए 1962 के युद्ध में भाग लिया था। दिवंगत मेजर को उत्कृष्ठ सेवाओं के लिए 14 मेडल भी मिले थे। देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी इस मामले में संज्ञान लेते हुए सरकार को फटकार लगाई है। देश की सेवा के लिए प्राणों को न्योछावर करने वाले वीर योद्धाओं के परिवारों की बदहाली से भला जनसेवकों को क्या लेना देना।

औंधे मुंह गिरा आरटीई

शिक्षा का अधिकार (राईट टू एजूकेशन, आरटीई) को कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने जोर शोर से लागू तो कर दिया, किन्तु होमवर्क के बिना लागू आरटीई लागू होते ही औंधे मुंह गिर गया है। देश की महज 14 फीसदी आबादी को ही इस बारे में पता है कि आरटीई किस चिडिया का नाम है। एक सर्वे में यह खुलासा हुआ है कि पंजाब में सबसे अधिक 79 फीसदी, महाराष्ट्र में 55, हरियाणा में 23, बिहार में 21, यूपी में 13, राजस्थान में 12, झारखण्ड मे छ‘, एमपी में महज चार, और देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में तो यह आंकड़ा शून्य से भी नीचे जाकर दशमलव आठ फीसदी पर आकर टिक गया है। जब राजनेताओं की नाक के नीचे दिल्ली में ही लोगों को शिक्षा के अधिकार के कानून का भान नही है तो फिर सुदूर ग्रामीण अंचलों में तो इस कानून के बारे में भगवान ही मालिक है। वैसे भी शिक्षा को लेकर आजादी के बाद नित नए प्रयोग होते रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी आजादी के मायने ही भूलती जा रही है। शिक्षा को लेकर दी जाने वाली सुविधाओं के बारे में भी आम विद्यार्थी या पालक को कोई खास जानकारी नहीं है।

खुद या परिजन को टिकिट दिलाने जुटे कांग्रेसी

बिहार में चुनावों की गहमा गहमी काफी हद तक बढ़ चुकी है। कांग्रेस का राष्ट्रीय मुख्यालय 24 अकबर रोड़ इन दिनों बिहार सदन में तब्दील हो गया है। बिहार से आए नेताओं द्वारा कांग्रेस के नेशनल हेडक्वार्टर की देहरी को चूमा जा रहा है। कांग्रेस के आला नेताओं की समस्या यह है कि बिहार से आए पूर्व विधायक, वर्तमान विधायक, पूर्व सांसद आदि या तो खुद को ही टिकिट देने की पेरवी कर रहे हैं, या फिर उनकी प्राथमिकता है कि उनके बेटे, बेटी, बहू या दामाद को टिकिट देकर उपकृत किया जाए। बताते हैं कि प्रदेशाध्यक्ष रामजतन सिन्हा जहानाबाद से अपने पुत्र के लिए, कृष्णा शाही बेगूसराय से अपनी बहू के लिए, अशोक राम अपने बेटे के लिए सुरक्षित सीट से टिकिट चाह रहे हैं। एसी सूची बहुत ही लंबी है, जिसमें खुद के लिए या अपने परिजनों के लिए टिकिट मांगी जा रही है। सूत्रांे का कहना है कि बिहार की सूची को लेकर कांग्रेस के आला नेता भी असमंजस में हैं, यही कारण है कि दस जनपथ जाकर सूची बार बार वापस आ रही है।

शिशु मृत्यु दर रोकने में भारत असफल

दुनिया भर में हर साल 81 लाख बच्चे अपना पांचवा जन्म दिन मनाने के पहले ही काल के गाल में समा जाते हैं। शिशुओं की मौत के मामले में पिछले दो दशकों में एक तिहाई कमी आई है। इस मामले में चिंताजनक तथ्य यह है कि इन दो दशकों में भारत शिशुदर मृत्यु रोकने में लगभग नाकामयाब ही रहा है। यूनिसेफ के आंकड़ों पर अगर गौर फरमाया जाए तो दुनिया भर में होने वाली बच्चों की मौत में से आधी अर्थात पचास फीसदी मौतें भारत, नाईजीरिया, पाकिस्तान, चीन और कांगों में होती है। वैसे शिशुओं की मृत्यु अफ्रीका में बहुत ज्यादा होती है। इस क्षेत्र में आठ में से एक बच्चे की मौत पांच साल में हो जाती है। यूनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक मौजूदा दर 2015 तक सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य हासिल करने के लिहाज से अभी पूरी तरह से अपर्याप्त ही मानी जा रही है। 1990 के दशक में विश्व की शिशु मृत्युदर हर साल एक एक करोड़ 24 लाख थी, जो घटकर 81 लाख पर पहुंच गई है।

एमपी में हैं 51 हजार धर्मस्थल अवैध

हिमाचल प्रदेश को भले ही देवभूमि कहा जाता हो, किन्तु देश के हृदय प्रदेश में अवैध धर्मस्थलों की भरमार है। देश की सबसे बड़ी अदालत में सूबे के मुख्य सचिव द्वारा दायर हलफनामे के अनुसार मध्य प्रदेश में 51 हजार से ज्यादा धर्मस्थल अवैध तौर पर बने हुए हैं। एक ओर जहां विकास के नए आयामों में मध्य प्रदेश पिछड़ रहा हो, किन्तु धर्म स्थलों वह भी अवैध रूप से निर्मित होने वाले धर्मस्थलों के मामले में देश का यह सूबा अपने परचम लहरा रहा है। गौरतलब है कि पिछले साल सितम्बर में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्य सरकारें सार्वजनिक स्थलों, सड़कों, नुक्कड़ों, उद्यानों आदि में मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरजाघर या अन्य धार्मिक स्थलों के निर्माण की अनुमति कतई न दें। मध्य प्रदेश में जहां चाहे वहां धर्मस्थलों के निर्माण से एक ओर जहां आवागमन बाधित होता है, वहीं दूसरी ओर जब तब कानून और व्यवस्था की स्थिति निर्मित होती रहती है।

पुच्छल तारा

हिन्दुस्तान के वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश द्वारा वन्य जीवों विशेषकर बाघांे को बचाने के लिए आम आदमियों के लिए बनने वाले बांध, सड़क, रेलमार्ग आदि को रोककर अपनी पीठ थपथपाई जा रही है। दिल्ली में नेशनल मीडिया भी चंद दिनों से जयराम रमेश की तारीफों में कसीदे गढ़ रहा है, कारण चाहे जो भी हो, पर जयराम रमेश की छवि मानव विरोधी और वन्य जीव प्रेमी की बन गई है। कोटा राजस्थान में अध्ययनरत पिं्रस सिंह राजपूत ने एक बड़ा ही दिलचस्प ईमेल भेजा है। वे लिखते हैं कि टाईगर 1411 बचे हैं किन्तु भारत में पुरूष और महिला का अनुपात 1000: 824 है। अरे भईया, टाईगर बाद में बचाना पहले बच्चियों को बचा लो, क्योंकि टाईगर को बचाकर क्या उखाड़ लोगे? शेरनी पटने से तो रही और पट भी गई तो क्या बाघिन से शादी का जोखम उठा सकते हो. . .।

हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में दीनदयाल उपाध्याय पीठ का विधिवत् उद्घाटन

शिमला- 25 सितम्बर को दीनदयाल उपाध्याय जी के जन्म दिवस के अवसर पर हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला में स्थापित दीनदयाल उपाध्याय पीठ का विधिवत् उद्घाटन किया गया। कार्यक्रम का उद्घाटन विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 सुनील कुमार गुप्ता ने दीनदयाल उपाध्याय जी के चित्र पर माल्यार्पण करके किया। मुख्य अतिथि , विश्वविद्यालय के धर्मशाला स्थित क्षेत्रीय केन्द्र के निदेशक डॉ0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री ने प्रो0 गुप्ता को इस बात की बधाई दी के उनके प्रयासों से दीनदयाल उपाध्याय पीठ स्थापित हुई है। उन्होंने कहा अन्य विश्वविद्यालयों में भी इसका अनुकरण किया जाना चाहिए। अग्निहोत्री ने कहा आज जब विकास के दोनो मॉडल पूंजीवाद और साम्यवाद असफल हो चुके हैं और यह सिद्व हो चुका है कि ये दोनों मॉडल मानव प्रकृति को ध्यान में नहीं रख कर तैयार किये गये थे तो दीनदयाल उपाध्याय के एकात्ममानववाद की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। एकांगी अर्थवादी विकास मॉडलों के कारण ही आज मानव सभ्यता विनाश के कगार पर पहॅुच गई है इसलिए यह जरूरी हो गया है कि दीनदयाल उपाध्याय द्वारा उद्घोशित विकास के भारतीय मॉडल एकात्ममानववाद को प्रयोग में लाया जाये। उन्होंने कहा मनुष्य की खंडित और एकांगी अवधारणा से ही समाजिक तानाबाना छिटक रहा है। दीनदयाल उपाध्याय जी ने मन बुद्वि और शरीर की एकात्मता और समग्र विकास के अवधारणा पर बल दिया था। इस अवसर पर पीठ के चेयरमैन डॉ0 सुदेश कुमार गर्ग ने बताया कि पीठ इस सत्र से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन दीनदयाल उपाध्याय थॉट का पाठयक्रम प्रारम्भ कर रहा है। उन्होंने कहा पीठ का प्रयास रहेगा की उपाध्याय जी के समग्र लेखन को एकत्रित करके प्रकाशित किया जाये और उनके चिन्तन के विभिन्न आयामों पर “शोध कार्य प्रारम्भ करवाया जाये।

कार्यक्रम के अध्यक्ष और विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 सुनील कुमार गुप्ता ने आश्वस्त किया कि पीठ को सुदृढ़ करने के लिए पूरा प्रयास किया जायेगा और मेरा प्रयास रहेगा कि दीन दयाल उपाध्याय चिन्तन का यह केन्द्र अन्य विश्वविद्यालयों के लिए भी अनुकरणीय बने।

– सुनील कुमार शुक्ला

स्वयं के रुतबे की खातिर विश्वविद्यालय की बलि !

माखनलाल चतुर्वेदी (राष्ट्रीय) पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय आज कुछ ज्यादा ही चर्चा में है। चर्चा और विवादों में तो यह शुरु से ही रहा है। आज कुछ लोगों की व्यक्तिगत आशा, अपेक्षा और महत्वाकांक्षा के कारण यह विश्वविद्यालय कुछ अधिक चर्चा में है। पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र के कार्यकाल पूरा होने और नए कुलपति के लिए नामों की चर्चा ने विश्वविद्यालय को और अधिक चर्चित किया। वर्तमान में विश्वविद्यालय का विवाद अपने चरम पर है। ताजा विवाद रीडर के पद कार्यरत पुष्पेन्द्रपाल सिह को पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष पद से हटाने को लेकर है।

उल्लेखनीय है कि पीपी सिंह एक आरोप की जांच के मददेनज़र तात्कालिक तौर पर विभागाध्यक्ष की कुर्सी से हटाया गया है। विवि के अधिकारियों के अनुसार पत्रकारिता के विभाग की एक शिक्षिका श्रीमती ज्याति वर्मा की शिकायत और महिला आयोग की नोटिस के कारण उन्हे यह कदम उठाना पड़ा है। यह सब निष्पक्ष जांच के लिए जरूरी है। शिकायतकर्ता के अनुसार मांगे जाने पर पीपी सिंह अपने ही खिलाफ दस्तावेज कैसे उपलब्ध करायेंगे। इसलिए जांच होने तक किसी अन्य को विभागाध्यक्ष का दायित्व देना लाजिमी है। दरअसल विवाद का कारण जो बताया जा रहा है वह नहीं, उसके बजाए कुछ और है। शुरू से ही विवादों को कई दिशाओं में फैला दिया गया। ताकि कोई भी विवादों की तह तक नहीं जा सके।

गौर करें, प्रो. कुठियाला के आने के नाम से ही उनका विरोध शुरु हो गया। उनके विरोध में तरह-तरह की दलीलें पेश की गई। मसलन- कुठियाला संघी हैं, उन्हें पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है, वे बाहरी हैं। कुलपति बनने की फिराक में लगे कुछ लोगों ने विवि के लिए अपनी मर्जी से योग्यताएं और अनुभव तय करना शुरू कर दिया। काई कहने लगा यहीं, मध्यप्रदेश का या भोपाल का कुलपति चाहिए। कोई कहने लगा पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति काई पत्रकार होना चाहिए। किसी ने नहीं पूछा कि जब सुमित बोस, शरदचन्द्र बेहार, अरविन्द जोशी और भागीरथ प्रसाद कहां से पत्रकारिता का अनुभव लेकर आए थे। पूर्व कुलपति अच्युतानंद मिश्र भी पीएचडी नहीं थे, लेकिन कइयों को उन्होंने उपाधि प्रदान की। राज्य शासन द्वारा गठित एक समिति ने जब प्रो. कुठियाला का नाम कुलपति के लिए तय कर दिया तो विरोध करने वाले देखते रह गए। बाद में इन्हीं विरोधियों ने सुनियोजित रूप से मीडिया का दुरुपयोग कर कुठियाला का चरित्र हनन करने का प्रयास भी किया। एक संघी की चरित्र हत्या करने के लिए कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और समाजवादी सब भाई-भाई हो गए।

प्रो बृजकिशोर कुठियाला कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के विभागाध्यक्ष रहे हैं। वे पत्रकारिता के शीर्षस्थ संस्थान भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संबद्ध रहे हैं। कार्यभार ग्रहण करते हुए प्रो. कुठियाला ने कहा िकवे विश्वविद्यालय की अकादमिक परंपरा का निर्वहन करते हुए कोशिश करेंगे कि वर्तमान संदर्भ में मीडिया की आवश्यकताओं के अनुरुप जनसंचार के क्षेत्र में कार्य करने वाले मूल्यनिष्ठ और राष्ट्रनिष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण हो।

कुठियाला को शायद विवि की गुरु-शिष्य परंपरा और अकादमिक परंपरा का सही अनुमान न रहा हो। लेकिन कुछ ही समय में उन्हें यहां की अकादमिक और प्रशासनिक स्थिति का अंदाजा हो गया। आते ही उन्हें विरासत में शोध परियोजना में बेहिसाब घपले, विधानसभा की समिति द्वारा जांच और आग में ध्वस्त कम्प्युटर सेंटर मिला। कुठियाला के आने के पूर्व ही रेक्टर ओपी दूबे विवादों के कारण इस्तीफा देकर चले गए थे। कुछ ही समय बाद डारेक्टर आईटी जेआर झणाने भी सेवा मुक्त होकर चली गई। मीडिया, बुद्धिजीवी और राजनीतिक दल सब चुप रहे। इतना सब कुछ शांति से चल रहा था। सब चैन की बंशी बजा रहे थे।

कुठियाला के आते ही सब बेचैन हो गए। सबकी बेचैनी वाजिब भी थी। पत्रकारिता का एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय विना किसी प्रोफेसर के वर्षों से संचालित हो रहा था, विश्वविद्यालय के सैकड़ों सेंटर धड़ल्ले से अपनी दुकान शांतिपूर्ण तरीके से चला रहे थे। शोध परियोजना के नाम पर विचारों और राशि की रेवड़ियां बंट रही थी। छात्रों को फर्जी तरीके से मनमाने अंकों से उपकृत किया जा रहा था। आपका जुगाड़ हो तो परीक्षा कॉपियों के भीतर के पन्ने मनमाफिक अंक और उत्तर सामग्री के साथ बदले जा सकते थे। राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का विकास इतनी शांति से हो रहा था, जैसे सुप्त बौद्धिक क्रंाति घट रही हो मध्यप्रदेश की धरा पर। कुठियाला ने इस सुप्त क्रांति में हलचल पैदा करने की कोशिश की। कुठियाला आंखों की किरकिरी बन गए। बस क्या था, विश्वविद्यालय की सुप्त बौद्धिक क्रांति के वाहकों ने तय किया कि आंख रहे या जाए इस किरकिरी को खत्म करो।

कुठियाला ने आते ही हिदायत दी – अध्यापन और शिक्षण का काम करना है तो अपने को अपडेट रखो। कम्प्यूटर सीखो, इंटनेट का इस्तेमाल करो। खुद भी स्वाध्याय करो, छात्रों को भी प्रेरित करो। उन्होंने मंशा जाहिर की इस राष्ट्रीय विश्वविद्यालय को सही में राष्ट्रीय दर्जा दिलाना है। यूजीसी की मान्यता और अनुदान प्राप्त करना है। जरूरत पड़े तो राष्ट्रीय स्तर के ख्याति प्राप्त प्रोफेसर और विशेषज्ञों की सेवाएं प्राप्त की जाए। वर्षों से एकाधिकार और वर्चस्व स्थापित किए कुछ लोगों को यह सब नागवार गुजरा। अपनी दुकान और एकाधिकार की सत्ता पर खतरा देख कुछ स्वनामधन्य गुरु उठ खडे हुए। ‘इस्लाम खतरे में’ की तर्ज पर ‘विश्वविद्यालय खतरे में’ का नारा बुलंद कर दिया गया। कुठियाला के खिलाफ जेहाद छेड़ दिया गया। लडाई का तरीका भी गुरिल्ला! मीडिया, प्रशासन, सरकार और विश्वविद्यालय के मोर्चे पर लडाके तैनात कर दिए गए। पहले शिक्षकों का लामबंद किया गया, फिर छात्रों और कर्मचारियों कोे। जब तक एक को छले जाने का अनुभव होता तब तक दूसरा मोर्चा खुल चुका होता। जब तक कर्मचारियों और कुछ शिक्षकों और छात्रों को मामला समझ में आता तबतक लड़ाई के राजनैतिक मोर्चे खेल दिए गए। एनएसयूआई का प्रदर्शन और कांग्रेस का बयान इसी जेहाद का हिस्सा था।

लेकिन ये जेहादी पत्थरबाजी और छापामारी में यह भूल गए कि उनके भी घरौंदे कांच के हैं। शुरुआती दिनों से ही कुठियाला का विरोध करने वालों में पीपी सिंह और श्रीकांत सिंह का नाम सरगना के तौर पर लिया जा रहा था। बाद में यह बात चर्चा में आई कि श्रीकांत सिंह मजबूरी और दबाव में उपयोग कर लिए गए। जैसे पहले कर्मचारियों का उपयोग कर लिया गया। पीपी सिंह के कृत्यों का भांडा तब फूटा जब पत्रकारिता विभाग की एक शिक्षिका ने उन पर मानसिक प्रताड़ना की शिकायत की। गौरतलब है कि काफी पहले ही उस शिक्षिका ने विवि की महिला समिति के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करायी थी। लेकिन कोंई कार्यवाई न होने के कारण मजबूरन पीड़ित शिक्षिका को राज्य महिला आयोग का सहारा लेना पड़ा। अब चर्चा यह हो रही है कि चूंकि पुष्पेन्द्रपाल विभागाध्यक्ष है और महिला समिति की दो सदस्यों से उनके भावनात्मक संबंध है इसलिए मामले को टाला जा रहा था। जब महिला आयोग ने जांच की और पीपी सिंह को नोटिस दिया तब भंाडा फूटा। पीपी सिंह ने कुलपति से महिला आयोग को दस्तावेज उपलब्ध कराने की अनुमति मांगी। उन्हें अनुमति दे दी गई। लेकिन जब यह सवाल उठा कि संबंधित पीडित शिक्षिका को अगर दस्तावेज चाहिए तो वह किससे आग्रह करेगी। प्रशासनिक जरुरतों के मददेनजर पीपी सिंह से विभागाध्यक्ष की जिम्मेदारी जांच होने तक वापस लेकर जनसंचार विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी को दे दी गई। बस क्या था- पीपी सिंह के इशारे पर पत्रकारिता विभाग के छात्रों-गुंडों ने हंगामा खड़ा कर दिया। कुलपति कार्यालय में तोड़-फोड़ और उत्पात मचाया गया। विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों के अनुसार कुलपति अगर उस समय मौके पर होते तो उनके साथ भी कांेई हादसा भी हो गया होता। बाल-बाल बचे कुलपति। बाद में पत्रकारिता विभाग के ही कुछ छात्रों ने अपने विभागाध्यक्ष के साथ मिलकर संजय द्विवेदी के साथ हाथापाई और बद्तमीजी की। अब कुछ नए पुराने छात्र हटाये गए विभागाध्यक्ष की बहाली के लिए धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं।

जुगाड़, नेतागिरी और प्रबंधन-जनसंपर्क के मामले में पीपी सिंह का लोहा सब मानते हैं। एससी बेहार और अच्युतानंद मिश्र जैसे कुलपति पीपी सिंह के नियंत्रण में काम करते रहे। कुठियाला पर भी वे अपना नियंत्रण चाहते थे। ऐसा न होने और कुलपति द्वारा अन्य विभागों, विभागाध्यक्षों को तरजीह देने तथा कुछ नए प्रयोग करने के कारण पीपी सिंह का एकाधिकार टूट कर बिखड़ गया। अधिकारों का विकेन्द्रीकरण एकाधिकारवादियों को रास नहीं आया। कुठियाला को चुनौति दी गई और परिणाम भुगतने की धमकी भी। उन्हे सुधर जाने का अल्टीमेटम दिया गया। कुठियाला ने कुछ अन्य गलतियों के साथ एक और गलती की। वे डरे नहीं। वे विश्वविद्यालय को ठीक करने का ख्वाब देख रहे थे, उनके विरोधी उन्हे ठीक करने का ताना-बाना बुनते रहे।

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में जारी संघर्ष अब काफी आगे निकल चुका है। विश्वविद्यालय छात्रो-शिक्षको व कर्मचारियों के बीच से निकल कर संघर्ष का सिलसिला मीडिया, एनएसयूआई, पत्रकार संगठन, और वामपंथी नेताओं के बीच पहुच गया है। पहले संघ और भाजपा इसे विश्वविद्यालय का मामला समझ कर हल्के में ले रहा था। लेकिन ताजा घटनाक्रम जिसमें श्रमजीवी पत्रकार संघ के शलभ भदौरिया और लज्जाशंकर हरदेनिया ने पीपी सिंह को समर्थन देने की घोषणा की है भाजपा और संरकार के कान खडे़ कर दिए हैं। मामले से दूरी बनाकर चल रहे संघ ने भी इसे गंभीरता से लिया है।

पीपी सिंह समझौता और संघर्ष की दोतरफा रणनीति अपना रहे हैं। कुलपति कुठियाला भी सधे अंदाज में अपनी चालें चल रहे हैं। अब चुनौती कुठियाला के अस्तित्व को है। पीपी सिंह के साथ उनके कुछ छात्र तो हैं ही। मीडिया में उनके कुछ जातीय और क्षेत्रीय मित्र भी हैं। राजनीति के संघ और भाजपा विरोधी खिलाड़ी भी उनकी मदद के लिए आगे आ सकते हैं। पीपी सिंह अवसरवादी हैं इसलिए वे कांग्रेस, समाजवादी, कम्युनिस्ट और अन्य पार्टियों से मदद की काशिश करेंगे ही। यह मदद उन्हे मिल भी सकती है। लेकिन प्रो. कुठियाला अपने मिशन के प्रति संकल्पित दिखते हैं। इसे वे लड़ाई नहीं अपने बड़े उद्देश्य के रास्ते में छोटी अड़चन मानते हैं। लेक्चरर, रीडर, प्रोफेसर और कुलपति की नियुक्ति एक प्रशासनिक और अकादमिक प्रक्रिया है। किसी भी तरह के धरना-प्रदर्शन या समर्थन-विरोध के आधार पर न विभागाध्यक्ष बना जा सकता है और ना ही बने रहा जा सकता है। नियुक्ति और पदोन्नति की भी अपनी एक पक्रिया है। विरोध या अपनी मांगों के लिए भी कुछ जायज तरीके हैं। सभी को उसका पालन और सम्मान करना चाहिए। निर्धारित प्रक्रिया का पालन नहीं होगा तो अराजकता फैलेगी। छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों को विश्वविद्यालय के हित के लिए आंदोलन करना चाहिए न कि किसी के व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए। पीपी सिह ने स्वय के रुतबे के लिये समूचे विवि को दांव पर लगा दिया है.

शिक्षकों के सम्मान के लिए छात्रों ने चलाया हस्ताक्षर अभियान

पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों ने मांगी शिक्षक से माफी

भोपाल, 26 सितम्बर 10। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल के सभी विभाग के विद्यार्थियों द्वारा सोमावार को विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी के साथ पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों द्वारा किए गए अशिष्ट व्यवहार के विरुद्ध व्यापक हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। इस अभियान में शान्ति, सुरक्षा एवं पठन-पाठन के मुद्दे को भी शामिल किया गया। अभियान में विश्वविद्यालय के सभी विभाग के छात्रों ने हिस्सा लिया और सैंकड़ों हस्ताक्षर किए गए। छात्रों का कहना था कि विश्वविद्यालय के सभी शिक्षक समान हैं एवं उनका आदर भी समान रूप से होना चाहिए।

इस दौरान जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी, जनसंपर्क विभागाध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव एवं प्लेसमेंट अधिकारी डॉ. अविनाश वाजपेयी ने अभियान चला रहे समस्त छात्रों से भेंट कर समझाने का प्रयत्न किया, उन्होंने विद्यार्थियों को कल से कक्षाओं में उपस्थित रहने का आग्रह किया।

अभियान चला रहे छात्रों ने बताया कि हस्ताक्षर अभियान संजय द्विवेदी के साथ हुए अशिष्ट व्यवहार के विरुद्ध है और वे चाहते हैं कि अशिष्ट व्यवहार करने वाले पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों को सामूहिक रुप से माफी मांगनी चाहिए।

हस्ताक्षर अभियान में विश्वविद्यालय के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जनसंपर्क, जनसंचार, पत्रकारिता तथा प्रबंधन विभाग के विद्यार्थियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया।

छात्रों ने माँगी माफी

इसके साथ ही पत्रकारिता विभाग के सभी विद्यार्थियों ने संजय द्विवेदी के साथ किए गए अशिष्ट व्यवहार के लिए सामूहिक रुप से माफी माँगी, उन्होंने कहा कि वह भी सभी शिक्षकों का समान रुप से सम्मान करते हैं और उक्त घटना को लेकर काफी शर्मिंदा है। इसके बाद संजय द्विवेदी ने छात्रों को कहा कि आन्दोलनों से विश्वविद्यालय की पढ़ाई प्रभावित होती है तथा छात्रों को प्रशासनिक मामलों में दूर रहते हुए पढ़ने में ध्यान देना चाहिए।

समस्त छात्र, माखनलाल राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल

नंदन जी जीत ले गये ‘कलक्टरगंज’

-वीरेन्द्र सेंगर

नंदन जी कहते थे, याद रखो जिंदगी में जितने हुनर सीख सको सीख लो। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। शायद यही जज्बा रहा होगा कि वे एक ‘ट्रेनी सब एडीटर’ की टिप्पणी पर अपने आलेख को झटपट बदल देते थे। कहते हमें ‘यंगिस्तान’ के नजरिए से ही रहना आना चाहिए। तभी जमाने के साथ ठीक से चल पाएंगे। वर्ना जमाना हमें बेगाना बना देगा, प्यारे।

बीते शनिवार को सुबह-सुबह मोबाइल में नजर डाली तो उसमें से एक अनपढ़ा एसएमएस इंतजार कर रहा था। संदेश खोला तो जैसे करेंट सा लगा। नीचे से ऊपर तक सिहरन सी महसूस हुई। मित्र विनोद अग्निहोत्री का संदेश था, तड़के तीन बजे नंदन जी(डॉ. कन्हैया लाल) नहीं रहे। वे उम्र के जिस पड़ाव (78 वर्ष) पर पहुंचे थे। उसमें अंतिम विदाई का संदेश एकदम अकल्पनीय भी नहीं था। यूं भी पिछले एक साल से वे नई-नई गंभीर बीमरियों से जूझ रहे थे। हार न मानना उनके स्वभाव का स्थाई भाव बन गया था। लेकिन इस बार की बीमारी ने उन्हें कुछ ज्यादा झकझोर डाला था। वे कहने लगे थे कि वीरेंद्र, मुझे अब और क्यों जीने की तमन्ना पालनी चाहिये? अटक-अटककर मरियल सी जिंदगी ढोने से अच्छा है, चलते-फिरते अलविदा का समय आ जाए। जिंदगी से काई शिकायत नहीं रही। जीवन का हर रंग देखा है। भरपूर हिस्सेदारी की है। कनपुरिया मुहावरे में कहूं तो पूरा ‘कलक्टरगंज’ को जीत लिया है यार। अब और क्या चाहिए। मेरे पास याद करने के लिए तुम जैसे तमाम अपनों का विराट संसार है। प्यार की इतनी बड़ी थाती मिली है। अब और क्या चाहिए?

करीब तीन महीने पहले की बात है। लंबे समय बाद मुलाकात हुई थी। शायद ऐसा पहली बार हुआ था कि जब उन्होंने देश, दुनिया और राजनीति की हलचलों की ज्यादा चर्चा नहीं की थी। एक तरह से अपनों का साक्षात्कार करते नजर आये थे। अब और क्या चाहिए? उनके इस सवाल का जवाब मैं नहीं दे पाया था। यही कह पाया था कि आप तो हार न मानने वाले शख्स हैं। फिर इतनी जल्दी समर्पण की मुद्रा में क्यों आ गये? इस टिप्पणी पर उन्होंने जोर का ठहाका लगाया । इससे मैं कुछ अचकचा गया। लगा कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं कर बैठा। शायद अब तक उन्होंने मेरे मन का द्वंद्व पढ़ लिया था। बोले, तुम्हारी जगह मैं भी होता तो ऐसी ही दिलासा दिलाता। लेकिन जान लो, यही कि मुझे मौत से डर नहीं लगता। हां, अब से दस-बीस साल पहले वह मेरे पास दस्तक देती तो कह देता, अरे कुछ घूम-टहल आओ। अभी कई और जरूरी काम निपटाने हैं। लेकिन यहां तो अपन जरूरी के अलावा एडीशनल काम कर पाने का लुत्फ उठा चुके हैं। ऐसे में अब बहुत तमन्ना तो नहीं बची।

नंदन जी की सबसे बड़ी पीड़ा थी कि वे अब पहले की तरह विचरण नहीं कर पाते। शारीरिक दिक्कतों की वजह से उन संगोष्ठियों का भी हिस्सा नहीं बन पाते जिनसे उन्हें बौद्धिक ‘आक्सीजन’ मिलती आयी है। इधर सप्ताह में उन्हें तीन बार डाइलेसिस करानी पड़ती थी। कह रहे थे दो दिन तक तो बर्दाश्त हो रहा था। लेकिन अब लगता है कि बीमारियों के कैदखाने का कैदी हूं। ये भी क्या जिंदगी हुई कि शख्स अपनी ही मजबूरियों के बियाबान में भटक जाए? काफी देर वे अपनी कसक में अटके नजर आये थे। बात घुमाने के लिये मैंने कई प्रसंगों के तार छेड़ने चाहे। लेकिन, वे घूम फिरकर उस दिन अपने में ही अटके रहने की जिद पकड़ बैठे थे।

उसी दिन मुझे अहसास हो गया था कि अब उनके अंदर ज्यादा जीने की जीजिविषा नहीं रही। क्योंकि उन्हें लग गया था कि उन्होंने अपनी पारी भरपूर खेल ली। कह रहे थे कुछ किताबों के खण्ड अधूरे हैं। मैंने पूछा, आत्मकथा का तीसरा खण्ड कितना हुआ? बोले, कुछ लिखा है। कुछ छोड़ दिया है। झूठ लिखना नहीं चाहता। सच इतना खरा है कि पढ़कर बहुतों के ‘फफोले’ पड़ जाएंगे। इस हिस्से को लिखते हुए सचमुच रोज अपने से युद्ध करना पड़ता है। एक बार आता है कि लोग इस आत्मकथा के जरिये तमाम बहुरंगे चेहरों का सच जान ले। इसमें क्या बुराई है? इसी जज्बे के साथ भूले-बिसरे संस्मरणों को याद कर बैठता हूं। जिन्हें सालों-साल नहीं दुखाया, उन्हें क्यों पीड़ा दूं। पता नहीं कितना जीना है। मैं समझ नहीं पा रहा था कि नंदन जी आज घूम-घूमकर जीने मरने के प्रसंग पर क्यों आ जाते हैं। कुछ छणों के लिए वे एकदम चुप हो गए।

फिर बोले, ये राहुल गांधी में कितना माद्दा है? मैं कुछ कहता, इसके पहले ही बोले, मुझे तो इस युवा गांधी में पिता(राजीव गांधी) से ज्यादा दम नजर आता है। राजीव ने कभी आम आदमी के लिए ऐसा जुनून तो नहीं दिखाया। ये महाशय तो लगता है कि दस जनपथ के राजपथ से नहीं किसी कम्यून से निकले कामरेड हों। कई बार इस शख्स में सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ एक आग दिखाई पड़ती है। इस मुद्दे पर काफी देर चर्चा हुई। फिर बोले, जब राजीव सत्ता में आए थे तो मीडिया ने उन्हें मिस्टर क्लीन का खिलाफ दे डाला था। उसी मीडिया ने बोफोर्स मामले में उनकी धुलाई भी कर दी थी। क्योंकि राजीव गांधी भले क्लीन रहे हों लेकिन उनकी मंडली के लोगों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता था।

फतेहपुर के एक छोटे से गांव से नंदन जी ने अपनी जीवन यात्रा शुरू की थी। ट्यूशन पढ़ाकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की। इसके लिए संघर्ष किया, तमाम पापड़ भी बेले। हिंदी के प्राध्यापक बने। शांति और सम्मान की जिंदगी जीने का अवसर मिल गया था, लेकिन उन्हें मंथर गति की जिंदगी रास

नहीं आती थी। धर्मयुग, पराग, सारिका, दिनमान, नवभारत टाइम्स व संडे मेल जैसी पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के दौर में उन्होंने तमाम नये प्रयोग करने की कोशिश की। दशकों तक वे राजनीति के तमाम शिखर पुरुषों के करीब भी रहे हैं। ऐसे लोगों में कई दलों के नेता रहे। वे कहते थे, पत्रकार के नाते सकारात्मक आलोचना ठीक है, लेकिन कलम को जल्लाद का चाकू बनाना भी ठीक नहीं है। एक दौर में उनके बारे में प्रचार किया गया था कि वे

‘कांग्रेसी’ हैं। क्योंकि राजीव गांधी से लेकर अरुण नेहरू जैसे ‘पावर हाउसों’ के करीब हो गए थे। लेकिन, वे कांग्रेस के खास प्रतिद्वंद्वी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं से भी खास नजदीकी रखते थे।

नंदन जी को हमेशा यह बात खलती रही कि उन्हें बहुतों ने गलत समझा। कभी किसी ने कहा, कांग्रेसी हैं तो कभी किसी ने कहा की हिंदुत्ववादियों से खूब छनती है। अयोध्या आंदोलन के दौरान उन्होंने हिंदुत्ववादियों को अपनी कलम से जमकर फटकार लगाई तो कहा गया नंदन जी पत्रकार ही नहीं हैं। वे तो कवि और लेखक हैं। नंदन जी ऐसे आलोचकों को खूब मजे लेकर याद करते थे। उन्हें भारत सरकार ने ‘पद्म श्री’ से नवाजा, तो बोले, मुझे ये मिला तो खुश हूं, लेकिन इस बात का रंज भी है कि इस सम्मान के कई और पात्र हैं, जिन्हें वर्षों से वंचित रखा गया है। ‘संडे मेल’ के दौर से मुझे नंदन का साथ मिला। ‘इन टीवी न्यूज’ तक आते-आते वे सहज रिटायरमेंट की उम्र पूरी कर चुके थे। लेकिन, कभी-कभी चीजें सीखने का उनका जुनून गजब का था। उम्र के इस पड़ाव में टीवी कैमरा का प्रशिक्षण लेने विदेश चले गये। पूछा, कि आपको इसकी क्या जरूरत थी? बोले, याद रखो, जिंदगी में जितने हुनर सीख सको, सीख लो। सीखने की कोई उम्र नहीं होती। शायद यही कारण रहा होगा कि वे एक ‘ट्रेनी सब एडीटर’ की टिप्पणी पर अपने आलेख को झटपट बदल देते थे। कहते हमें ‘यंगिस्तान’ के नजरिए से ही रहना आना चाहिए। तभी जमाने के साथ ठीक से चल पाएंगे। वर्ना जमाना हमें बेगाना बना देगा, प्यारे।

(वीरेन्द्र सेंगर दिल्ली के जाने-माने पत्रकार हैं. उनकी कन्हैया लाल नंदन जी से गहरी और लम्बी दोस्ती रही है. उनसे फोन नंबर ०९८१०१३२४२७ पर संपर्क किया जा सकता है. )

पत्रकारिता नहीं, हंगामों की पौधशाला

भोपाल स्थित एशिया के पहले पत्रकारिता विश्वविद्यालय में हो रहे हंगामें की लाइव रिपोर्ट…. दिनांक 25 सितंबर 2010 रात 11 बजे तक

माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति बी. के. कुठियाला के आने के बाद से लगातार माखनलाल में हंगामों का दौर क्यो जारी है! इन्हीं हंगामों में नया नाम जुड़ा है पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष पी पी सिंह का! पी पी सिंह पर उन्हीं की विभाग की एक शिक्षिका ने मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगाया है… अनुमान और परिणाम पर जाने से पहले सिलसिलेवार पूरे घटनाक्रम की लाइव रिपोर्ट जानिये …

तारीख – 23 सितंबर 2010

समय – लगभग दोपहर 1 बजे

सहारा समय न्यूज चैनल पर पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पी पी सिंह को पद से हटाये जाने की खबर ब्रेक होती है…

ब्रेकिंग न्यूज

पुष्पेन्द्र पाल सिंह नपे

विभागाध्यक्ष पद से हटाया गया

महिला शिक्षिका ने लगाया मानसिक प्रताड़ना का आरोप

संजय दिवेदी को अतिरिक्त प्रभार

खबर फैलते ही विश्वविद्यालय परिसर में हंगामा शुरु होता है… पी पी सिंह के भोपाल में तैनात छात्रों का परिसर में आगमन… कुछ ही समय में पत्रकारिता विभाग के लगभग 50 से ज्यादा छात्रों का परिसर में हंगामा शुरु … कुलपति के कक्ष से लेकर पंचम तल पर स्थित कार्यालय में पत्रकारिता विभाग के छात्रों ने जमकर उत्पात मचाया… अगर उस समय वहा कुलपति मौजूद होते तो उनके साथ भी कुछ हादसा हो सकता था.

इस पूरे मामले में पत्रकारिता विभाग की लेक्चरर राखी तिवारी, गरिमा पटेल, जया सुरजानी पुस्तकालय अध्यक्ष आरती सारंग सहित कुछ अन्य फेकल्टीज जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय दिवेदी से मिलने पहुंची और उन्हें पी पी सिंह से मिलने के लिए कहा… जब संजय दिवेदी पी पी सिंह से मुलाकात करने पहुंचे तो छात्रों को लगा कि वे पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पद का चार्ज लेने पहुंचे हैं… छात्रों ने संजय दिवेदी को 45 मिनट तक पी पी सिंह के केबिन में बंद कर दिया और उनके बाहर आने पर गाली-गलौच शुरु कर दी… शब्द इतने गंदे थे कि लिखना नामुमकिन है… यह पूरा वाकया पी पी सिंह की आंखों के सामने चलता रहा लेकिन उन्होंने अपने छात्रों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की… संजय दिवेदी के साथ हाथापाई करने की भी कोशिश की गई. हालांकि संजय दिवेदी ने अपने साथ हुई अभद्रता का हालांकि खंडन किया है, लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों का कहना कुछ और ही है… हंगामें के बाद पुलिस ने पूरे प्रकरण में पत्रकारिता विभाग के छात्र अजय वर्मा, मनिंद्र पांड़े, परिक्षित सिंह, रोहित और कुलदीप समेत 40 अन्य लोगों को आरोपी बनाया है… इस पूरे मामले पर पी पी सिंह के दिहाडी पत्रकारों और कुछ पूर्व छात्रों ने एकतरफा रिपोर्टिंग की. पत्रिका समाचार पत्र है ने तो हद ही कर दी. पत्रिका ने तो समाचार की विश्वसनीयता ही खत्म कर दी… जितनी घटिया और एकतरफा रिपोर्टिंग की गई उसे देखकर नहीं लगता कि ये वही पत्रिका है जिसका नाम लोग राजस्थान प्रदेश में इज्जत के साथ लेते हैं… पर चूकिं खबर करने वाले अश्विनी पांडेय पत्रकारिता विभाग के ही विद्यार्थी हैं इसलिए ऐसा होना भी लाजमी है… खबर में शामिल आशीष महर्षि और गगन नायर भी पत्रकारिता के ही विद्यार्थी है… अखबारों में इस तरह की खबर करने वाले भी पत्रकारिता विभाग के ही पूर्व छात्र हैं.

तारीख – 24 सितंबर 2010

समय – सुबह 9 बजे

पत्रकारिता विभाग के छात्र कथित तौर पर भूख हड़ताल पर बैठे… असल में कथित तौर पर इसलिए क्यूंकि कुछ लोगों ने उन्हें समोंसों के साथ देखा. दोपहर दो बजे के करीब पत्रकारिता विभाग के कुछ छात्र संजय दिवेदी से माफी मांगने उनके केबिन में पहुंचे.. तीन बजे के लगभग कुलपति ने हड़ताल पर बैठे बच्चों को मिलने बुलाया लेकिन बच्चे नहीं पहुंचे. छात्रो ने कुलपति को ही आकर बात करने को कहा… कुलपति बच्चों की मांग पर नीचे पहुंचे लेकिन छात्र अपनी जिद पर अड़े थे… उनकी मांग थी कि पी पी सिंह को तुरंत बहाल किया जाये और छात्रों के खिलाफ दर्ज मुकदमें वापस लिये जायें… हालांकि कुलसचिव सुधीर कुमार त्रिवेदी ने छात्रो को समझाया की बहाली की मांग वे तब करे जब पी पी सिंह को हटाया गया हो… उन्हें तो सिर्फ अध्यक्ष पद से हटाया है न कि उनका निलंबन किया गया है… यानि उनकी पहली मांग ही गलत है… लेकिन छात्र अपनी मांग पर अड़े रहे…उनका कहना था कि वे अपने अध्यक्ष की कुर्सी पर किसी ओर को बैठा नहीं देख सकते… रात्रि करीब 8 बजे भोपाल एसडीएम विश्वविद्यालय परिसर पहुंचे और छात्रों को जगह खाली करने को कहा क्यूंकि एक ओर जहां शहर में धारा 144 लागू है वहीं दूसरी और हड़ताल पर बैठने की इजाजत न तो पुलिस से ली गई है और न ही विश्वविद्यालय प्रशासन से, जो कि गैर कानूनी है. पुलिस के आदेश पर विद्यार्थी अपना बैनर, पोस्टर उठाकर चलते बने… इस पूरे दिन भर में खास यह रहा कि जहां एक ओर पत्रकारिता विभाग के वर्तमान विद्यार्थी कथित भूख हड़ताल पर बैठे रहे, वहीं समर्थन के लिए बाहर से पहुंचे कुछ पूर्व विद्यार्थी परिसर के बाहर चाय, समोसे और सिगरेट का लुत्फ उठात रहे… रात को शराब और…

तारीख – 25 सितंबर 2010

समय – सुबह 9 बजे

पिछले दिन की तरह ही बच्चे फिर से हड़ताल पर बैठ गये… पर इस बार बैनर का शीर्षक परिवर्तित था… अब शीर्षक भूख हड़ताल नहीं अपितु क्रमिक भूख हड़ताल था. दोपहर लगभग दो बजे सहारा समय समेत कई चैनलों के पत्रकार परिसर में पहुंचे… पत्रकारों के पहुंचते ही हड़ताल पर बैठी एक लड़की बेहोश होकर गिर पड़ी… इसके तुरंत बाद एक ओर लड़की बेहोश… दोनों को तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया… हालांकि, पत्रकारों के जाने के बाद शाम तक कोई बेहोश नहीं हुआ… रात 9 बजे फिर से भोपाल एसडीएम मौके पर पहुंचे और परिसर को खाली करवाया… साथ ही विद्यार्थियों को फिर से हड़ताल पर नहीं बैठने की हिदायत भी दी… असल में कुछ लोग इस पूरे वाकये को कुलपति कुठियाला का पी पी सिंह पर वार बता रहे हैं तो कुछ लोग इसे उनके खिलाफ रची गई एक गहरी साजिश… पर वाकई में ऐसा कुछ भी नहीं है…. चूंकि पत्रकारिता विभाग की शिक्षिका ने पी पी सिंह पर मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगाया और पूरा मामला राज्य महिला आयोग के पास विचाराधीन है… इस मामले पर महिला आयोग ने कुलपति को कार्रवाई करने के लिए एक पत्र भी भेजा था… जिसको ध्यान में रखते हुए कुलपति ने पी पी सिंह को सिर्फ अध्यक्ष पद से हटाया है न कि उन्हें निलंबित किया है… मगर पी पी सिंह ने इसे अपने सम्मान से जोड़ लिया… उनके कुछ वर्तमान और कुछ पूर्व विद्यार्थी भी उनके बहकावे मे आ कर हड़ताल पर बैठ गए….

अब छात्रो और शिक्षको ने ही सवाल उठाना शुरु कर दिया है कि पी पी सिंह की इज्जत तो इज्जत और महिला शिक्षिका की कोई इज्जत नहीं.आखिर क्यो? आखिर ऐसा क्या कारण है कि लड़कों के साथ लड़कियां भी महिला शिक्षिका की बात गलत मान रही है… पत्रकारिता विभाग से ही शिक्षा प्राप्त कुछ पूर्व विद्यार्थियों की माने तो पी पी सिंह के समर्थन में बच्चों के बैठने का कारण उनका नौकरी दिलाने का किया गया वादा है… असल में पी पी सिंह के विभाग में बच्चों के भी कई स्तर होते हैं… कुछ उनके खास होते हैं और कुछ बेचारे पिछड़े हुए लोग… खास लोगों को तो अच्छी जगह नौकरी मिल जाती है लेकिन पिछड़े लोग नौकरी के लिए संघर्ष करते हैं.

अब सरेआम सवाल उठ रहे है कि अगर पी पी सिंह निर्दोष हैं तो उन्हें प्रशासनिक कार्रवाई का सम्मान करना चाहिए ओर बच्चों को वापिस पढ़ाई की ओर लौटने के लिए प्रेरित करना चाहिए… न कि अपने लिये आन्दोलन की आग मे झोंक देना चाहिये. क्यूंकि इस पूरे मामले में नुकसान तो बच्चों का ही हो रहा है..

मेरे छोटे भाइयों, माफ कर दो इन ‘बड़े’ लोगों को

-पंकज झा

देश के कोने कोने से मन में कुछ कर गुजरने का जज्बा और हौसला लेकर माखनलाल आने वाले प्रिय छोटे भाइयों. कोई भी लड़ाई या किसी भी तरह के संघर्ष का जो एक आम परिणाम होता है वह ये कि सबसे ज्यादे प्रभावित सबसे कनिष्ठ ही होते हैं. लड़ने वाले हर समूह का अपना एक पक्ष होता है और जिससे बात करो वो अपने को सही ठहराने की कोशिश करेगा. तो गलत कौन है यह तो ‘इतिहास’ तय करता है लेकिन ‘वर्तमान’ तो तबाह छात्रों का होना ही नियति है. अपने संस्थान के प्रकरण में भी कौन सही कौन गलत यह तय अपन तो नहीं कर सकते. प्रशासनिक अधिकारियों की क्या मजबूरी होती है ये हमें नहीं पता क्युकी कभी वो नहीं रहे हैं अपन. शिक्षकों एवं शिक्षकेत्तर कर्मचारियों के बारे में भी अपने को नहीं पता. ना ही हर मामले में अपनी नाक घुसेड देने वाले राजनीतिकों की प्राथमिकता या उनके सरोकार के बारे में हम ज्यादा जानते हैं . लेकिन आप ही की तरह कभी अति सामान्य परिवार से किसी तरह, कुछ पैसों का जुगाड कर ‘रोटी’ की तलाश में संस्थान तक पहुच जाने के कारण आपकी तकलीफों के बारे में अपने को पाता है.

बड़े लोगों से बेहतर निश्चित इस मामले में अपनी समझ होगी, अपन ज़रूर यह समझ सकते हैं कि मन में नायक फिल्म के अनिल कपूर की तरह हो जाने या आज के दीपक चौरसिया, वरखा दत्त बन जाने का सपना, वह जोशो-खरोश किस तरह दम तोड़ता नज़र आता होगा. दोस्तों, जैसा कि अपन ने पहले भी लिखा है लाख विसंगतियों, गंदी राजनीति के बावजूद माखनलाल ने छोटे-छोटे कस्बों-गावों के बच्चों का सपना कुछ हद तक पूरा करने में सफलता प्राप्त की है. दिल्ली स्थित सभी संस्थान जहां केवल उच्च वर्ग के छात्रों की जागीर बनी रही है वहां माखनलाल ने खुद को एकमात्र ऐसा संस्थान साबित किया है जिसमें किसान और मजदूर परिवार के बच्चों के लिए भी जगह है. हालाकि यह वहां फ़ैली गंदी राजनीति के बावजूद संभव हुआ है. और इसमें अगर सबसे ज्यादा योगदान किसी का रहा है तो आप जैसे छात्रों की लगन मिहनत और समर्पण का.

निश्चित ही वर्तमान पैदा किये गए हालात में छात्रों की विवशता समझी जा सकती है. खास कर नए आने वाले आप जैसे छात्र तो ज़ाहिर है खुद को ठगा हुआ ही महसूस कर रहे होंगे. जहां आपको पत्रकारिता का ककहरा सीखना था, इस्तेमाल हो रहे लोगों की आवाज़ बुलंद करने लायक स्वयं को बनाना था वहां खुद ही इस्तेमाल हो जाने को मजबूर हैं. पक्ष और विपक्ष के बीच जहां निष्पक्ष होने, तटस्थ दिखने की पाठ पढनी थी वहां खुद ही एक ‘पक्ष’ हो जाने को आप मजबूर कर दिए गए हैं. तो मेरे कनिष्ठ मित्र, आप सबलोगों से यही विनम्र प्रार्थना है कि कम से कम आप लोग किसी भी तत्व के बहकावे में ना आयें. ऐसे लोगों से सीधा कहें कि सर, हम लोग अपने मां-बाप के सपने के साथ यहां आये हैं. उसे पूरा करने, कल आने वाले चुनौतियों का सामना करने का पाठ हमें पढ़ाएं ना की धरना प्रदर्शन का.

एक अपने समय का किस्सा सुनाता हूं दोस्त. पता नहीं अब क्या प्रावधान है लेकिन हमारे समय में हर क्लास से एक-एक छात्र प्रतिनिधि के चयन का प्रावधान था. उस प्रतिनिधि को क्लास की समस्यायों को संस्थान प्रशासन के समक्ष रखना था. आश्चर्य लगा था मुझे देख कर कि मात्र पचीस छात्रों में से एक प्रतिनिधि का चुनाव होना ऐसा हो गया जैसे किसी विधानसभा का चुनाव लड़ा जा रहा हो. पढ़ाई-लिखाई बाधित, मार-पीट शुरू, छात्रों का निष्कासन आदि-आदि. तो अपन ने तात्कालीन विभागाध्यक्ष से निवेदन किया कि सर हमें किसी भी प्रतिनिधि की कोई ज़रूरत नहीं है. हमें जो भी बात रखनी होगी व्यक्तिगत तौर पर खुद ही रख लेंगे. उनको बात ज़मी और देखते-देखते क्लास में पढ़ाई का माहौल कायम हुआ. आपस में मार-पीट कर लेने वाले छात्र भी दोस्त बन गए और बिना किसी प्रतिनिधि के ही अपना दो साल आराम से कट गया. अपनी-अपनी मिहनत एवं भाग्य से सब लोग अलग-अलग जगह रोजी-रोटी कमाने निकल पड़े. तो केवल इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि संस्थान में के राजनीति से अलग रहने के क्या फायदे हैं.

और अपने ही संस्थान में क्यू. अपन तो यह कहते हैं कि कभी भी छात्रों को किसी भी तरह की राजनीति से अलग रहना चाहिए. राजनीति जैसी गंदी जगह कम से कम सीखने की तो नहीं होती. अगर वहां कुछ सीखना संभव होता तो आप सोचें. राज परिवार के लोग कभी अपने बच्चे को गुरुकुल नहीं भेजते….है ना? अगर ‘राजनीति’ करके कुछ सीखने की बात होती तो उन राजकुमारों को सियासत से अलग होकर जंगल में गुरु के सानिध्य में जाने की ज़रूरत नहीं होती. उन्हें बाद में राजनीति ही करनी थी, राजा ही बनना था बावजूद इसके पढ़ाई-लिखाई पूरी करने तक इन पचडों से अलग रखा जाता था. राजनीति वह क्षेत्र है जहां आप पूरी तरह से पढ़-लिख-सीख लेने के बाद आयें और समाज को दिशा दिखाने का काम करें. अन्यथा हर छात्र आंदोलन इस बात का गवाह है जहां – कुछ अपवादों को छोड़कर- छात्रों का केवल इस्तेमाल ही किया गया है. अगर परिस्थितियाँ बिल्कुल ही प्रतिकूल हो तब तो कोई भी वंचित नहीं रह सकता अन्यथा वास्तव में छात्रों का हित केवल इसीमें है कि वह पढ़ाई के अलावे अपना ध्यान कही नहीं बटाएं.

जहां तक माखनलाल का सवाल है तो यह भी राजनीति से अछूता नहीं रहा कभी. जब हमलोग थे तो कांग्रेस की सरकार थी. उस समय भी दोनों दलों द्वारा छात्रों का इस्तेमाल करने के लिए हर तरह के डोरे डाले जाते थे. अपना प्रभाव अपनी विचारधारा छात्रों पर लादने का प्रयास किया जाता था. अब जब भाजपा की सरकार है तो शायद वह भी यही करती हो और विपक्षी कांग्रेस भी इसमें अपना हित देखना चाहे. लेकिन बिगडना ना सत्ता या विपक्ष के नेताओं का है, ना ही संसथान प्रशासन के लोगों का या फिर शिक्षकों का. ज़ाहिर है उन सबके तो ब्रेड-बटर का इंतज़ाम हो गया गया है. अब अगर लड़ते भी हैं तो केवल अपने अहं के लिए. लेकिन नुकसान केवल आपका है और इस संस्थान का है जिसका नाम लेकर हम कल होकर विभिन्न मीडिया समूहों में आप जाने वाले हैं.

तो मित्रों…..! स्थितियां वास्तव में विकट कर दी गयी है. कौन सही है और कौन गलत यह ना ही अपने फैसले का विषय है और ना ही हमें उसकी ज़रूरत. हमारी ज़रूरत तो बस इतनी है कि अच्छी तरह से पठन-पाठन का इंतज़ाम हो और अपने दो साल का सम्यक उपयोग कर इस लायक बन सकें कि कहीं अपनी जगह बना सकें. किसी भी पक्ष के अहं का हम शिकार नहीं हों. हम छोटे लोग तो यीशु की तरह बस ‘बड़े लोगों’ के लिए यही प्रार्थना कर सकते हैं कि….हे प्रभु, इन्हें माफ करना, इन्हें पता नहीं है कि यह क्या कर रहे हैं…मेरी अन्य शुभकामना….!

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प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर प्रकाशित अन्‍य लेख

परिवर्तन की पटरी पर आ रही माखनलाल विश्‍वविद्यालय की गाड़ी

https://www.pravakta.com/?p=12955

माखनलाल विश्वविद्यालय में हंगामा प्रकरण: सिंहों की लड़ाई में फंसे मुलाजिम

https://www.pravakta.com/?p=12699

माखनलाल पत्रकारिता विवि: पुष्पेंद्रपाल सिंह की करतूतें हुईं उजागर

https://www.pravakta.com/?p=13660

अवैज्ञानिक क्यों हो गये हाकिंग?

-डॉ.सुभाष राय

भगवान एक ऐसी कल्पना है, जो हमारे संस्कारों में इस तरह बसी हुई है, कि अनायास उसकी असम्भाव्यता के बारे में नास्तिक भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं होता। नास्तिक जब कहता है कि भगवान नहीं है, तो वह प्रकारांतर से यह स्वीकार कर रहा होता है कि बहुलांश का विश्वास है कि वह है क्योंकि वह किसी भी तरह प्रमाणित नहीं कर सकता कि भगवान नहीं है। यही समस्या विज्ञान के साथ भी है। वह भगवान को नहीं मानना चाहता है, पर उसके पास अभी तक ऐसी कोई विधि या तकनीक नहीं है, जिससे वह इसे प्रमाणित कर सके कि भगवान वास्तव में नहीं है।

भगवान है या नहीं, यह बहस बहुत पुरानी है। शायद उतनी ही पुरानी, जितनी पुरानी आदमी के जन्म की कथा। पहला मनुष्य कब जन्मा होगा, इस बारे में दुनिया के अलग-अलग धर्मों में तमाम मिथकीय कथाए हैं, पर ऐतिहासिक या पुरातात्विक प्रमाण के बिना उन्हें विश्वास पर आधारित कल्पना के अतिरिक्त कुछ और कहना मुश्किल है। डार्विन के विकासवाद ने इस सवाल को ही निरर्थक बना दिया है। आदमी के पूर्वज बंदर या रीछ रहे होंगे और जरूरत एवं परिस्थितियों के अनुसार धीरे-धीरे आदमी के रूप में विकसित हुए होंगे। ऐसे में विकास की किस अवस्था में बंदर आदमी बन गया होगा, यह तय करना बहुत कठिन होगा। आदिम काल के बाद धीरे-धीरे मनुष्य ने अपने को व्यक्त करने के लिए माध्यम की तलाश की होगी और इस क्रम में उसने भाषा इजाद की होगी। अपने चारों ओर फैले रहस्यों को समझने के लिए जैसे-जैसे उसने प्रकृति की विभिन्न ताकतों से मुठभेड़ की होगी, या तो वह सफल हुआ होगा या असफल। ऐसी हर सफलता ने उसके जीवन को और आसान बनाया होगा और हर असफलता ने उसे किसी ज्यादा ताकतवर और रहस्यमय अस्तित्व की कल्पना के लिए विवश किया होगा। शायद यही बाद में भगवान की अवधारणा के रूप में सामने आया होगा। इस तरह भगवान केवल विश्वास का विषय है और इसीलिए इस पर विश्वास न करने की छूट भी हर किसी को मिली हुई है।

चूंकि दुनिया के लगभग सभी हिस्सों में आदमी के विकास की प्रक्रिया कमोबेश एक जैसी रही होगी, इसलिए सबने अपने-अपने भगवान गढ़ लिए। एशियाई महाद्वीप में कई अति प्राचीन सभ्यताएं होने के कारण यहां दर्शन और चिंतन विश्व के अन्य हिस्सों से पहले विकसित हुआ और अलग-अलग चिंतन स्कूलों ने अपने लिए अलग-अलग भगवान भी रच लिये। उनके महिमामंडन की हजारों साल लंबी प्रक्रिया के बाद भगवान ने हमारी सामाजिक संरचना में एक महत्वपूर्ण जगह बना ली। जिन कुछ लोगों ने कभी-कभी भगवान को तर्क पर कसने की कोशिश की या उसके होने पर सवाल उठाया, उन्हें इसकी छूट तो दी गयी लेकिन उन पर भरोसा नहीं किया गया। भगवान का होना इसलिए सुविधाजनक था क्योंकि जो भी अव्याख्येय था, रहस्यमय था, समझ में नहीं आने लायक था, उसे एक ऐसे भगवान की केंद्रीय सत्ता समझने में मदद करती, जो सर्वज्ञ, सर्वगुणसम्पन्न, सर्वातिशायी है, जो सब कुछ रचता है और फिर उन्हें विनष्ट कर अपने भीतर समेट लेता है।

विज्ञान न भगवान को स्वीकार करता है, न ही अस्वीकार। यह विज्ञान के लिये विचार का विषय ही नहीं है। विज्ञान उन सत्यों की तलाश करता है, जो पहले से ही हैं, अपना काम कर रहे हैं पर हम उनके बारे में नहीं जानते। गुरुत्व न्यूटन के आने से पहले भी था, पहले भी सेब के फल डाली से टूट कर जमीन पर ही गिरते थे, आसमान में नहीं जाते थे। लोगों को सेब खाने से मतलब था, किसी ने भी इस सहज गति पर सोचने की कभी जरूरत नहीं महसूस की कि सेब आखिर नीचे ही क्यों गिरता है, वह चन्द्रमा की ओर क्यों नहीं चला जाता। ऐसे सवाल पर सोचना तब मूर्खता ही कही जाती पर वैज्ञानिक ऐसी ही मूर्खताओं में नये सूत्र खोज लेते हैं। न्यूटन ने ही सबसे पहले हमें बताया कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है, जिससे हर वस्तु सहज रूप से ऊपर से नीचे की ओर गिरती है। इसी तरह बादल करोड़ों साल से चमकते, तड़कते आ रहे हैं। कवियों ने इस प्राकृतिक घटना पर खूब लिखा, पर कभी किसी ने इस पर नहीं सोचा कि आखिर बादलों में बिजली क्यों पैदा हो जाती है। बिजली है तो है, भगवान ने रचा है, इस पर क्या सोचना? पर नहीं, विज्ञान ऐसे किसी चीज को नहीं मानता है। वैज्ञानिक हर घटना का पर्यवेक्षण करता है, परीक्षण करता है, कारण जानने के लिये प्रयोग करता है और सच का पता लगाता है। फ्रेंकलिन रूजवेल्ट नहीं आते तो कौन बताता कि बादल विद्युताविष्ट क्यों रहते हैं।

आस्थावादी, धार्मिक लोगों के लिये कारण नहीं कार्य का ही महत्व है। कारण तो एकमात्र भगवान है ही। सूर्य प्रकाश देता है, भगवान की कृपा से, ग्रह, नक्षत्र, तारे गतिमान हैं, फूल खिलते हैं, बीज से वृक्ष उगता है, सागर में ज्वार-भाटा आता है, ज्वालामुखी फटता है, सब भगवान की माया है। पर विज्ञान के काम करने का तरीका अलग है। वह अपने भीतर हमेशा एक बड़ा क्यों लेकर चलता है और उसका उत्तर चाहता है। यही क्यों उसे परिणाम के कारण तक ले जाता है। वह इस खोज में तब तक अनेक परिकल्पनायें करता है और फिर उनका परीक्षण करता है, जब तक कि उसे सही उत्तर न मिल जाये। धर्म की विज्ञान से कोई लड़ाई नहीं है, क्यों कि मूलतः धर्म और जीवन मूल्य विज्ञान के विषय हैं ही नहीं। वह इस पर कोई निर्णय नहीं दे सकता कि लोग सच क्यों नहीं बोलते या लोग नैतिक क्यों नहीं हैं या ज्यादातर लोग भ्रष्ट क्यों हैं। ये समाज विज्ञान, मनोविज्ञान और दर्शन शास्त्र के विषय हैं, विज्ञान के नहीं। इसी तरह भगवान भी विज्ञान के लिये विचारणीय नहीं है। एक धर्मज्ञ आसानी से कह देगा कि भगवान सर्वत्र है, सर्वज्ञानी है, सर्वातिशायी है, समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त है। एक अभौतिक और अमूर्त सत्ता का परीक्षण कैसे हो? और अगर सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्ति को उसकी भौतिक सत्ता के रूप में देखा जाय तो उसका परीक्षण वह कैसे कर पायेगा जो उस सत्ता के भीतर है। कुछ अति भावुक लोग भगवान के सगुण रूप की कल्पना करते हुए दिखायी पड़ते हैं और उसके दर्शन का दावा भी करते हैं पर वह नितांत व्यक्तिगत मामला है, इसलिये ऐसे दावों पर भरोसा करना मुश्किल है। कोई भी घटना जब तक मूर्त नहीं होती, भौतिक रूप से घटिल नहीं होती, तब तक वह कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं है और कल्पनायें हमेशा सच हों या सबके अनुभव में समान रूप से आयें, ऐसा सम्भव नहीं है, इसलिये उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है।

भगवान एक ऐसी ही कल्पना है, जो हमारे संस्कारों में इस तरह बसी हुई है, कि अनायास उसकी असम्भाव्यता के बारे में नास्तिक भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं होता। एक नास्तिक जब कहता है कि भगवान नहीं है, तो वह प्रकारांतर से यह स्वीकार कर रहा होता है कि बहुलांश का विश्वास है कि वह है क्योंकि वह किसी भी तरह प्रमाणित नहीं कर सकता कि भगवान नहीं है। यही समस्या विज्ञान के साथ भी है। वह भगवान को नहीं मानना चाहता है, पर उसके पास अभी तक ऐसी कोई विधि या तकनीक नहीं है, जिससे वह इसे प्रमाणित कर सके कि भगवान वास्तव में नहीं है। वैज्ञानिकों ने ब्रह्मांडीय मेधा (कास्मिक इंटेलिजेंस) की जो कल्पना की वह भी भगवान की कल्पना से बहुत भिन्न नहीं है, क्योंकि वे यह नहीं बता सकते कि आखिर इस महामेधा के पीछे कौन है, अगर यह कार्य है, परिणाम है तो इसका कारण क्या है।

विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग अपने समय के सबसे ख्यातनाम भौतिक विज्ञानी हैं। वे कुछ कहते हैं तो समझा जाना चाहिये कि उसका कुछ मतलब है। यद्यपि उन्होंने अपनी किताब अ ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाइम में पहले भी यह कहा था कि बिग बैंग से ब्रह्मांड के निर्माण की प्रक्रिया में भगवान की कोई भूमिका नहीं हो सकती लेकिन अगर भगवान की कोई भूमिका होगी भी तो वह बिगबैंग के क्षणांश मात्र में इस तरह अनुस्यूत होगी कि उसके होने का कोई अर्थ नहीं होगा। चूंकि ब्रह्मांड की उत्पत्ति को भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों से समझा जा सकता है, इसलिये यहां भगवान की मौजूदगी की कोई जरूरत नहीं लगती। अ ग्रैंड डिजाइन नामक अपनी नयी पुस्तक में उन्होंने अपनी उन्हीं स्थापनाओं को और तार्किक ढंग से रखने की कोशिश की है। उनका कहना है कि भौतिक विज्ञान के सिद्धांत यह साबित करते हैं कि प्रारंभ में जब कुछ नहीं था, तब भी गुरुत्व था और वही कारक हो सकता है ब्रह्मांड के निर्माण का। शून्य में से ब्रह्मांड के प्रस्फुटन के लिए लगता नहीं कि किसी भगवान को चाभी घुमाने की जरूरत रही होगी। पर वे ब्रह्मांड की उत्पत्ति शून्य से नथिंगनेस से नहीं मानते। कुछ था और उस कुछ में से बहुत कुछ या सब कुछ निकला। वे यह नहीं बताते कि आहिर गुरुत्व कहां से आया। किसी भी वैज्ञानिक ने पहली बार भगवान के वजूद को इस तरह चुनौती दी है। उनकी इस धारणा के बीज उनके प्रारंभिक जीवन में ही पड़ गये थे। उनकी मां इसाबेला 1930 में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य रही थीं और साम्यवादी चिंतन को लगभग नास्तिक चिंतन माना जाता है पर अपने शुरुआती विचारों में हाकिंग न तो नास्तिक दिखते हैं, न आस्तिक। वे न तो भगवान की संभावना में विश्वास करते हैं, न ही उसकी असंभावना में।

विज्ञान को भगवान से कोई मतलब होना भी नहीं चाहिए क्योंकि यह बहस दर्शन के क्षेत्र की है। मूल्य, चरित्र, धर्म और नैतिकता तय करने का काम दर्शन करता है, विज्ञान नहीं। विज्ञान तो प्रायोगिक सत्यों का उद्घाटन करता है और उन्हें जीवन की उपयोगिता से जोड़ता है। विज्ञान के कदम जहां-जहां पड़ते जाते हैं, भगवान स्वयं ही वह इलाके छोड़कर हट जाता है। कल तक जो बहुत सी चीजें असंभव मानी जाती थीं, विज्ञान ने आज उन्हें संभव कर दिया है। अब वहां भगवान की कोई जरूरत नहीं रह गयी। पर जहां विज्ञान का उजाला अभी तक नहीं पहुंच सका है, उस अंधेरे में टिकने का कोई सहारा तो चाहिए। आदमी ने अपनी निरुपायता में भगवान को गढ़ा है, जब उसकी शक्ति, उसका संकल्प, उसकी मेधा पराजित हो जाती है तब वह भगवान को याद करता है। भगवान उसकी मदद के लिए आये या न आये पर उसकी अमूर्त और काल्पनिक उपस्थिति से मनुष्य को शक्ति मिलती रही है। वैज्ञानिक के जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं। वह कभी यह कह सकने की स्थिति में नहीं हुआ, न ही शायद होगा कि कुछ भी ऐसा नहीं, जो वह न कर पाये। सवाल है कि जो वे नहीं कर सकते या नहीं कर पा रहे हैं, वह कौन करता है? वैज्ञानिकों ने भगवान के होने, न होने पर ज्यादा बहस नहीं की। बल्कि कइयों ने तो यह स्वीकार किया कि कोई न कोई ब्रह्मांड मेधा तो है, जो अगणित ग्रह, तारा, नक्षत्र मंडलों को संतुलित रखती है, जो फूलों को खिलाती है, महकाती है, जो सृजन और ध्वंस का भी नियमन करती है। उसे बेशक भगवान न कहो, कोई भी नाम दे दो क्या फर्क पड़ता है।

अनेक वैज्ञानिकों को हाकिंग की घोषणा पर आपत्ति है। उनका कहना है कि विज्ञान को सांप्रदायिक नहीं होना चाहिए। उसे आने वाली नस्लों को यह मौका नहीं देना चाहिए कि वह विज्ञान का सहारा लेकर अपने नास्तिवाद को मजबूत कर सके। यह विज्ञान का न तो धर्म है, न ही उसके काम करने का तरीका। इससे विज्ञान की प्रामाणिकता पर भी लोग ऊंगलियां उठायेंगे क्योंकि विज्ञान कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कहता, जिसे वह प्रमाणित न कर सके। यह सच है कि विज्ञान के पास कोई ऐसा साधन नहीं है, जिसके माध्यम से वह यह साबित कर सके कि भगवान है। इसी तरह वह यह भी सिद्ध नहीं कर सकता कि भगवान नहीं है। फिर तो किसी भी वैज्ञानिक का यह कहना नितांत अवैज्ञानिक होगा कि भगवान नहीं है या उसकी ब्रह्मांड की रचना में या उसके विस्तार में कोई भूमिका नहीं है। यह निश्चित है कि हाकिंग ने जो बहस छेड़ी है, उस पर आने वाले समय में धर्मविज्ञानियों और शुद्ध विज्ञानियों के बीच गम्भीर विमर्श होगा, पर इस बार भी शायद कोई निष्कर्ष न निकले। ऐसे समय में जब विज्ञान ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय निकले परमाणु से भी लघु, बल्कि लघुतम कणों की तलाश कर रहा है, यह बहस रोचक होगी। आप जानते हैं उन कणों को विज्ञान क्या कहता है? गाड पार्टिकिल्स, भगवत्कण। शायद इस खोज में अस्ति और नास्ति का मिलन बिन्दु हाथ लग जाये, धर्म और विज्ञान में कोई साम्यमूलक सूत्र हाथ लग जाये।