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खबर की कोई विचारधारा नहीं होतीः प्रभात झा


संजय द्विवेदी की पुस्तक का लोकार्पण समारोह

भोपाल। पत्रकारिता सदैव मिशन है, यह कभी प्रोफेशन नही बन सकती। रोटी कभी राष्ट्र से बड़ी नहीं हो सकती। मीडिया के हर दौर में लोकतंत्र की पहरेदारी का कार्य अनवरत जारी रहा है। उक्त आशय के वक्तव्य वरिष्ठ पत्रकार एवं सांसद प्रभात झा ने व्यक्त किए। वे संजय द्विवेदी की पुस्तक ‘मीडिया: नया दौर नई चुनौतियां’ के लोकार्पण के अवसर पर मुख्यअतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। समारोह में श्री झा ने कहा कि खबर की कभी मौत नहीं हो सकती। खबर की कोई विचारधारा नहीं होती। न्यूज में व्यूज नहीं होना चाहिए। इन्फॉरमेशन केवल सोर्स है, न्यूज नहीं। इन्फॉरमेशन का कन्फरमेशन ही न्यूज है। पत्रकारिता में अपग्रेड होने के लिए अपडेट होना आवश्यक है। संवेदनात्मक विषय पर सनसनी फैलाना गलत है। शब्द आराधना है, ब्रह्म है, ओम् है, उपासना है। जो शब्दों से मजाक करते हैं, उनकी पत्रकारिता बहुत कम समय तक रहती है।

श्री झा ने कहा कि पत्रकारिता में अवसर है, चुनौती है, खतरे भी हैं। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण मिथक तोड़ना सिद्धांतो के खिलाफ है। जीवटता व जीवन-मूल्य को पत्रकारिता में धारण करना पड़ेगा। यह किसी पुस्तक में नहीं मिलेगा। विज्ञापन कभी खबर नहीं बन सकता और खबर कभी विज्ञापन नहीं हो सकती। पत्रकार को यह समझना चाहिए कि कहाँ फायर करना है और कहाँ मिसफायर करना है। उन्होंने कहा कि नए दौर में सबसे बड़ी बात पारदर्शिता है। आज के दौर में आप कुछ भी करिए, मीडिया उसे जान ही लेगा। मीडिया का जितना महत्व बढ़ता जा रहा है, उसकी जिम्मेदारी उतनी ही बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में मालिक को पत्रकार मत बनने दीजिए। लोकाधिकार का दुरुपयोग करने से मीडिया अविश्वसनीय हो जाएगा।

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि और इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल ने कहा कि पुस्तक के लेखक संजय द्विवेदी के लेख शोधपरक होते हैं। यह किताब मीडिया की वर्तमान स्थिति पर गंभीर प्रकाश डालती है। संजय एक ऐसे लेखक हैं जिनके लेखन में उत्तेजना नहीं, संयम है। वे एक जिम्मेदार मीडिया विश्वेषक हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के कुलपति प्रो. बी.के.कुठियाला ने कहा कि पत्रकारिता का ध्येय सत्यम शिवम सुंदरम् होना चाहिए। कल्याणकारी सत्य ही प्रकाशित और प्रसारित होना चाहिए। उन्होंने श्री द्विवेदी के लेखन की मौलिकता की प्रशंसा की। समारोह का उद्घाटन अतिथियों ने माँ सरस्वती और माखनलाल जी के चित्र के सामने दीप-प्रज्वलन कर किया। इस अवसर पर अतिथियों का सम्मान भी शाल-श्रीफल देकर किया गया। कार्यक्रम में छात्र-छात्राओं ने देशभक्ति गीत गाकर वातावरण को सरस बना दिया। संचालन एनी अंकिता और गौरव मिश्रा ने किया तथा आभार प्रदर्शन हेमंत पाणिग्रही ने किया। समारोह में सर्वश्री दीपक तिवारी, शिव अनुराग पटैरया, बृजेश राजपूत, नरेंद्र जैन, रमेश शर्मा, डॉ मंजुला शर्मा, भारत शास्त्री, मनोज शर्मा, विजय मनोहर तिवारी, जी. के. छिब्बर, डॉ हितेश वाजपेय़ी, रामभुवन सिंह कुशवाह, विजय बोंद्रिया, अरुण तिवारी, सौरभ मालवीय, ओमप्रकाश गौड़, हितेश शुक्ल, दीपक शर्मा, डा. श्रीकांत सिहं, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. अविनाश वाजपेयी, पुष्पेंद्रपाल सिंह, रजिस्ट्रार सुधीर त्रिवेदी, हर्ष सुहालका, सरमन नगेले, विनय त्रिपाठी, दीपेंद्र सिहं बधेल, राजेश पाठक, मीता उज्जैन, डा. मोनिका वर्मा, डा. रंजन सिंह, डा. राखी तिवारी, साधना सिंह, नीलिमा भार्गव, आकृति श्रीवास्तव सहित बड़ी संख्या में विद्वान पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं सहित बडी संख्या में पत्रकारिता के विद्यार्थी उपस्थित थे।

गिलानी-मलिक-मीरवायज़ के सामने घिघियाता हुआ सा सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल…

दिल्ली में सम्पन्न हुई सर्वदलीय बैठक के बेनतीजा रहने के बाद मनमोहन सिंह, सोनिया गाँधी, अब्दुल्ला पिता-पुत्र तथा “सेकुलर देशद्रोही मीडिया” के दबाव में एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल ने कश्मीर जाकर सभी पक्षों से बात करने का फ़ैसला किया था। 20 सितम्बर को यह सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल श्रीनगर में अवतरित हुआ। इस प्रतिनिधिमण्डल के स्वागत में पलक-पाँवड़े बिछाते हुए, अली शाह गिलानी ने इनसे बात करने से ही मना कर दिया और महबूबा मुफ़्ती की पार्टी PDP ने इनका बहिष्कार कर दिया। इधर के लोग भी कम नहीं थे, प्रतिनिधिमण्डल की इस फ़ौज में चुन-चुनकर ऐसे लोग भरे गए जो मुस्लिम वोटों के सौदागर रहे, एक चेहरा तो ऐसा भी था जिनके परिवार का इतिहास जेहाद और हिन्दू-विरोध से भरा पड़ा है। इस तथाकथित “मरहम-टीम” का शान्ति से कोई लेना-देना नहीं था, ये लोग विशुद्ध रुप से अपने-अपने क्षेत्र के मुस्लिम वोटों की खातिर आये थे, इस प्रतिनिधिमण्डल में जाने वालों के चुनाव का कोई पैमाना भी नहीं था।

महबूबा मुफ़्ती और लोन-गिलानी के अलगाववादी तेवर कोई नई बात नहीं है, इसलिये इसमें कोई खास आश्चर्य की बात भी नहीं है, आश्चर्य की बात तो यह थी कि प्रतिनिधिमंडल में गये हुए नेताओं की मुखमुद्रा, भावभंगिमा और बोली ऐसी थी, मानो भारत ने कश्मीर में बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो। शुरु से आखिर तक अपराधीभाव से गिड़गिड़ाते नज़र आये सभी के सभी। मुझे अभी तक समझ नहीं आया कि अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे लोग इस प्रतिनिधिमण्डल में शामिल हुए ही क्यों? रामविलास पासवान और गुरुदास दासगुप्ता जैसे नेताओं की नज़र विशुद्ध रुप से बिहार और पश्चिम बंगाल के आगामी चुनावों के मुस्लिम वोटों पर थी। यह लोग गये तो थे भारत के सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल के रुप में, लेकिन उधर जाकर भी मुस्लिम वोटरों को लुभाने वाली भाषा से बाज नहीं आये। जहाँ एक ओर रामविलास पासवान के “नेतृत्व”(?) में एक दल ने यासीन मलिक के घर जाकर मुलाकात की, वहीं दूसरी तरफ़ दासगुप्ता ने मीरवायज़ के घर जाकर उनसे “बातचीत”(?) की। यासीन मलिक हों, अली शाह गिलानी हों या कथित उदारवादी मीरवायज़ हों, सभी के सभी लगभग एक ही सुर में बोल रहे थे जिसका मोटा और स्पष्ट मतलब था “कश्मीर की आज़ादी”, यह राग तो वे कई साल से अलाप ही रहे हैं, लेकिन दिल्ली से गये वामपंथी नेता गुरुदास दासगुप्त और पासवान अपनी मुस्लिम भावनाओं को पुचकारने वाली गोटियाँ फ़िट करने के चक्कर में लगे रहे।

चैनलों पर हमने कांग्रेस के शाहिद सिद्दीकी और वामपंथी गुरुदास दासगुप्ता के साथ मीरवायज़ की बात सुनी और देखी। मीरवायज़ लगातार इन दोनों महानुभावों को कश्मीर में मारे गये नौजवानों के चित्र दिखा-दिखाकर डाँट पिलाते रहे, जबकि गुरुदास जैसे वरिष्ठ नेता “वुई आर शेमफ़ुल फ़ॉर दिस…”, “वुई आर शेमफ़ुल फ़ॉर दिस…” कहकर घिघियाते-मिमियाते रहे। मीरवायज़ का घर हो या गिलानी का अथवा यासीन मलिक का, वहाँ मौजूद इस सेकुलर प्रतिनिधिमण्डल के एक भी सदस्य की हिम्मत नहीं हुई कि वह यह पूछे कि कश्मीर से जब हिन्दू खदेड़े जा रहे थे, तब ये सब लोग कहाँ थे? क्या कर रहे थे? आतंकवादियों और हत्यारों से अस्पताल जा-जाकर मुलाकातें की गईं, पत्थरबाजों से सहानुभूति दर्शाई गई, पासवान ने बिहार के चुनाव और गुरुदास ने बंगाल के चुनाव के मद्देनज़र आज़ाद कश्मीर की माँग करने वाले सभी को जमकर तेल लगाया… लेकिन किसी ने भी नारकीय परिस्थिति में रह रहे जम्मू के पण्डितों और हिन्दुओं के ज़ख्मों के बारे में एक शब्द नहीं कहा… किसी भी नेता(?) में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह उन आतंकवादियों से पूछे कि धारा 370 खत्म क्यों न की जाये? मुफ़्त की खाने के लिये अरबों का पैकेज चाहिये तो हिन्दुओं को फ़िर से घाटी में बसाने के लिये उनकी क्या योजना है? कुछ भी नहीं… एक शब्द भी नहीं… क्योंकि कश्मीर में पिटने वाला हिन्दू है, मरने-कटने वाला अपना घर-बार लुटाकर भागने वाला हिन्दू है… ऐसे किसी प्रतिनिधिमण्डल का हिस्सा बनकर जेटली और सुषमा को जरा भी शर्म नहीं आई? उन्होंने इसका बहिष्कार क्यों नहीं किया? जब कश्मीर से हिन्दू भगाये जा रहे थे, तब तो गुरुदास ने कभी नहीं कहा कि “वुई आर शेमफ़ुल…”?

“पनुन कश्मीर” संगठन के कार्यकर्ताओं को बैठक स्थल से खदेड़ दिया गया, इसके नेताओं से जम्मू क्षेत्र को अलग करने, पण्डितों के लिये एक होमलैण्ड बनाने, पर्याप्त मुआवज़ा देने, दिल्ली के शरणार्थी बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं को सुधारने जैसे मुद्दों पर कोई बात तक नहीं की गई, उन्हें चर्चा के लिये बुलाया तक नहीं। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि 1947 में पाकिस्तान से भागकर भारत आये हुए सैकड़ों लोगों को अभी तक भारत की नागरिकता नहीं मिल सकी है, जबकि पश्चिम बंगाल में लाखों घुसपैठिये बाकायदा सारी सरकारी सुविधाएं भोग रहे हैं… कभी गुरुदास ने “वुई आर शेमफ़ुल…” नहीं कहा।

वामपंथियों और सेकुलरों से तो कोई उम्मीद है भी नहीं, क्योंकि ये लोग तो सिर्फ़ फ़िलीस्तीन और ईराक में मारे जा रहे “बेकसूरों”(?) के पक्ष में ही आवाज़ उठाते हैं, हिन्दुओं के पक्ष में आवाज़ उठाते समय इन्हें मार्क्स के तमाम सिद्धान्त याद आ जाते हैं, लेकिन जेटली और सुषमा से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि ये लोग पासवान जैसे व्यक्ति (जो खुलेआम घुसपैठिए बांग्लादेशियों की पैरवी करता हो) के साथ खड़े होकर तस्वीर खिंचवाएं, या फ़िर असदुद्दीन ओवैसी जैसे घोर साम्प्रदायिक हैदराबादी (जिनका इतिहास हिन्दुओं के साथ खूंरेज़ी भरा है) के साथ हें-हें-हें-हें करते हुए एक “मक्खनमार बैण्ड” में शामिल होकर फ़ोटो खिंचवायें…। लानत है इन पर… अपने “मूल” स्टैण्ड से हटकर “शर्मनिरपेक्ष” बनने की कोशिश के चलते ही भाजपा की ऐसी दुर्गति हुई है लेकिन अब भी ये लोग समझ नहीं रहे। जब नरेन्द्र मोदी के साथ दिखाई देने में, फ़ोटो खिंचवाने में देशद्रोही सेकुलरों को “शर्म”(?) आती है, तो फ़िर भाजपा के नेता क्यों ओवैसी-पासवान और सज्जन कुमार जैसों के साथ खड़े होने को तैयार हो जाते हैं? इनकी बजाय तो कश्मीर की स्थानीय कांग्रेस इकाई ने खुलेआम हिम्मत दिखाई और मांग की कि सबसे पहले इन अलगाववादी नेताओं को तिहाड़ भेजा जाए… लेकिन सेकुलर प्रतिनिधिमण्डल के किसी सदस्य ने कुछ नहीं कहा।

अब एक सवाल भाजपा के नेताओं से (क्योंकि सेकुलरों-कांग्रेसियों-वामपंथियों और देशद्रोहियों से सवाल पूछने का कोई मतलब नहीं है), सवाल काल्पनिक है लेकिन मौजूं है कि – यदि कश्मीर से भगाये गये, मारे गये लोग “मुसलमान” होते तो? तब क्या होता? सोचिये ज़रा… तीस्ता जावेद सीतलवाड कितने फ़र्जी मुकदमे लगाती? कांग्रेसी और वामपंथी जो फ़िलीस्तीन को लेकर छाती कूटते हैं वे कश्मीर से भगाये गये मुस्लिमों के लिये कितने मातम-गीत गाते? यही है भारत की “धर्मनिरपेक्षता”…

जो लोग कश्मीर की समस्या को राजनैतिक या आर्थिक मानते हैं वे निरे बेवकूफ़ हैं… यह समस्या विशुद्ध रुप से धार्मिक है… यदि भारत सरकार गिलानी-लोन-शब्बीर-महबूबा-यासीन जैसों को आसमान से तारे तोड़कर भी ला देगी, तब भी कश्मीर समस्या जस की तस बनी रहेगी… सीधी सी बात है कि एक बहुसंख्यक (लगभग 100%) मुस्लिम इलाका कभी भी भारत के साथ नहीं रह सकता, न खुद चैन से रहेगा, न भारत को रहने देगा… निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा (अल्लाह के शासन) से कुछ भी कम उन्हें कभी मंजूर नहीं होगा, चाहे जितने पैकेज दे दो, चाहे जितने प्रोजेक्ट दे दो…।

इस आग में घी डालने के लिये अब जमीयत उलेमा-ए-हिन्द (JUH) ने भी तैयारी शुरु कर दी है। जमीयत ने अगले माह देवबन्द में मुस्लिमों के कई समूहों और संगठनों की एक बैठक बुलाई है, जिसमें कश्मीर में चल रही हिंसा और समग्र स्थिति पर विचार करने की योजना है। JUH की योजना है कि भारत के तमाम प्रमुख मुस्लिम संगठन एक प्रतिनिधिमण्डल लेकर घाटी जायें… हालांकि जमीयत की इस योजना का आन्तरिक विरोध भी शुरु हो गया है, क्योंकि ऐसे किसी भी कदम से कश्मीर समस्या को खुल्लमखुल्ला “मुस्लिम समस्या” के तौर पर देखा जाने लगेगा। 4 अक्टूबर को देवबन्द में जमीयत द्वारा सभी प्रमुख शिया, सुन्नी, देवबन्दी, बरेलवी संगठनों के 10000 नुमाइन्दों को बैठक के लिये आमंत्रित किया गया है। क्या “जमीयत” इस सम्मेलन के जरिये कश्मीर समस्या को “मुस्लिम नरसंहार” के रुप में पेश करना चाहती है? लगता तो ऐसा ही है, क्योंकि जमीयत के प्रवक्ता फ़ारुकी के बयान में कहा गया है कि “कश्मीर में हालात बेहद खराब हैं, वहाँ के “मुसलमान” (जी हाँ, सिर्फ़ मुसलमान ही कहा उन्होंने) कई प्रकार की समस्याएं झेल रहे हैं, ऐसे में मुस्लिम समुदाय मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकता…”, अब वामपंथियों और कांग्रेसियों को कौन समझाये कि ऐसा बयान भी “साम्प्रदायिकता” की श्रेणी में ही आता है और जमीयत का ऐसा कदम बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। सम्मेलन में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमात-ए-इस्लामी, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशवारत तथा ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल जैसे कई संगठनों के भाग लेने की उम्मीद है। भगवान (या अल्लाह) जाने, कश्मीर के “फ़टे में टाँग अड़ाने” की इन्हें क्या जरुरत पड़ गई? और जब पड़ ही गई है तो उम्मीद की जानी चाहिये कि देवबन्द के सम्मेलन में माँग की जायेगी की कश्मीर से भगाये गये हिन्दुओं को पुनः घाटी में बसाया जाये और सदभाव बढ़ाने के लिये कश्मीर का मुख्यमंत्री किसी हिन्दू को बनाया जाये… (ए ल्ललो… लिखते-लिखते मैं सपना देखने लगा…)।

सुन रहे हैं, जेटली जी और सुषमा जी? “शर्मनिरपेक्षता” के खेल में शामिल होना बन्द कर दीजिये… ये आपका फ़ील्ड नहीं है… खामख्वाह कपड़े गंदे हो जायेंगे… हाथ कुछ भी नहीं लगेगा…। आधी छोड़, पूरी को धाये, आधी भी जाये और पूरी भी हाथ न आये… वाली स्थिति बन जायेगी…। जब सभी राजनैतिक दल बेशर्मी से अपने-अपने वोट बैंक के लिये काम कर रहे हैं तो आप काहे को ऐसे सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल में जाकर अपनी भद पिटवाते हैं? क्या कोई मुझे बतायेगा, कि असदुद्दीन ओवैसी को इसमें किस हैसियत से शामिल किया गया था और औचित्य क्या है? क्या सपा छोड़कर कांग्रेसी बने शाहिद सिद्दीकी इतने बड़े नेता हो गये, कि एक राष्ट्रीय प्रतिनिधिमण्डल में शामिल होने लायक हो गये? सवाल यही है कि चुने जाने का आधार क्या है?

बहरहाल, ऊपर दिया हुआ मेरा प्रश्न भले ही भाजपा वालों से हो, लेकिन “सेकुलर”(?) लोग चाहें तो इसका जवाब दे सकते हैं कि – कल्पना करो, कश्मीर से भगाये गये लोग पण्डितों की बजाय मुस्लिम होते… तब समस्या की, उस पर उठाये गये कदमों की और राजनीतिबाजों की क्या स्थिति होती?

नौकरशाह बनाम दिल्ली के विद्यार्थी

-लालकृष्ण आडवाणी

पिछले सप्ताह जब राष्ट्रमण्डल खेलगांव अनौपचारिक रुप से खोला गया तो जिसने देखा वही उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा। वेल्स के चे्फ डि मिशन ने जो कहा वह छपा है: ”अपनी सुविधाओं और वैभव से परिपूर्ण विलेज असामान्य है।”

इससे मुझे एनडीए सरकार के समय जब पहली बार नई दिल्ली में यह खेल आयोजित करने का निर्णय लिया गया, के प्रस्ताव का स्मरण हो आया।

यहां राष्ट्रमण्डल खेल आयोजित करने का फैसला 2003 में लिया गया। उस समय श्री वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार थी।

राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी के लिए भारत ने 2003 के शुरु में ही दावा किया था। उस वर्ष के अगस्त मास के पहले सप्ताह में खेलों के मूल्यांकन आयोग ( Evaluation Commission ) ने दिल्ली सहित उन अन्य देशों का भी दौरा किया जिन्होंने खेलों की मेजबानी करने का दावा किया था।

जिस टीम ने मूल्यांकन आयोग के सम्मुख ‘प्रेजटेंशन‘ दिया था, उसने एनडीए सरकार को दी गई रिपोर्ट में संकेत दिया था कि आयोग के अनुमान में खेलों को हमारे यहां आयोजित करने की क्षमता ”काफी उंची” है।

खेलों के स्थान का अंतिम फैसला नवम्बर में जमाईका के मोंटंगो बे में हुआ। वहां पर हमारे देश का प्रतिनिधित्व युवा मामलों और खेल मंत्री विक्रम वर्मा और दिल्ली के उप राज्यपाल विजय कपूर ने किया था। हमारा मुख्य प्रतिस्पर्धी कनाडा था।

13 नवम्बर को मतदान हुआ। 46 सदस्य देशों ने हमारे पक्ष में और 22 ने विरोध में मत दिए।

इस निर्णय के कुछ समय बाद ही दिल्ली के तत्कालीन उप राज्यपाल विजय कपूर ने केंद्र सरकार को सिफारिश की थी कि राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले धावकों के लिए बनाए जाने वाले आवास इस तरह के होने चाहिए कि बाद में इनका उपयोग दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रावासों के रुप में हो सके। वाजपेयी सरकार इस सुझाव पर तुरंत राजी हो गई। लेकिन नई दिल्ली में सरकार बदलने के साथ ही उन नौकरशाहों का विचार बदल गया, जिनके मन में खेल हो जाने के बाद इन आलीशान आवासों को अपने उपयोग में लाने की बात आयी।

मेरे सामने विजय कपूर जो अब दिल्ली के उप राज्यपाल नहीं हैं, का 14 सितम्बर, 2004 को दिल्ली विश्वविद्यालय के उप कुलपति प्रो. दीपक नैय्यर को लिखा गया पत्र है।

आगामी राष्ट्रमंडल खेलों के संदर्भ में, उस पत्र को जोकि श्री कपूर ने 8 सितम्बर को उप कुलपति द्वारा उनके कार्यकाल में विश्वविवद्यालय की सहायता करने के लिए धन्यवाद दिया था, के जवाब में लिखे गए पत्र को मैं यहां प्रस्तुत करना समीचीन मानता हूं।

14 सितम्बर के इस पत्र में श्री कपूर लिखते हैं:

प्रिय दीपक,

8 सितम्बर के आपके पत्र के लिए धन्यवाद। यह दिल को छू लेने वाला है। इसलिए भी ज्यादा कि जहां मैंने शिक्षा पायी यह उस विश्वविद्यालय के उप कुलपति की ओर से आया है। मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि मैं जीवन की किसी भी अवस्था में विश्वविद्यालय की सेवा करना अपना परम सौभाग्य समझूंगा।

मैं केंद्रीय मंत्रिमंडल से यह स्वीकृति लेने मे सफल रहा हूं कि राष्ट्रमंडल खेलों के 2010 लिए अक्षरधाम के निकट खेलगांव बनाया जाएगा और खेलों के पश्चात् इसे दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए उपयोग हेतु सौंप दिया जाएगा। मैंने सुना है कि कुछ लोग जो हमारे युवाओं के लिए प्रतिबध्द नहीं है, तब से इस निर्णय को बदलवाने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे किसी प्रयास को पलटने से बचाने के लिए मैंने दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के अधिकारियों को कहा है कि वे शुरु से ही ऐसे डिजाइन बनाएं जो खेलों के बाद में विश्वविद्यालय छात्रावासों के रुप उपयोग हो सकें। विश्वविद्यालय का रुतबा और व्यक्तिगत रुप से आपके प्रभाव का उपयोग इससे सुनिश्चित करने के लिए करना होगा कि पिछली केंद्रीय मंत्रिमंडल के इस प्रशंसनीय निर्णय को कोई बदल न सके। किसी भी स्तर पर आपकी मेरी जरुरत हो तो कृपया मुझे बताएं।

शुभकामनाओं सहित,

आपका

विजय कपूर

दिल्ली विश्वविद्यालय के उप कुलपति ने इस पत्र के जवाब में कपूर के सुझावों का धन्यवाद के साथ मामले को उठाने का वायदा किया।

स्पष्ट है कि उप कुलपति एनडीए सरकार के निर्णय को बदलने से रुकवाने में सफल नहीं हो सके।

इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि अनेक महीनों के बाद समाचार पत्रों में खेलों के बारे में पहली बार सकारात्मक रिपोर्ट आर्इ्र है। और यह खेलगांव में बने आलीशान आवासों से जुड़ी है।

17 सितम्बर के द टाइम्स ऑफ इंडिया ने खेलगांव के ‘साफ्ट लांच‘ के बारे में इस शीर्षक से समाचार प्रकाशित किया है: ”बिग्गर एण्ड बैटर, इट्स ए ग्लोबल विलेज।”

रिपोर्ट की शुरुआती पंक्तियां इस प्रकार हैं:

”विशाल और बेहतर। यह राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने आए प्रतिभागी देशों के प्रतिनिधियों की एक राय थी जब वे गेम्स विलेज से गुजर रहे थे।”

वेल्स के चीफ ऑफ मिशन ने कहा कि नई दिल्ली के खेलगांव ”ऐसे सामान्य गांव नहीं है जो हमने अब तक देखे हैं।” और यह मेलबार्न से भी ज्यादा बेहतर है। टाइम्स ऑफ इंडिया कहता है कि यह वक्तव्य ”आयोजन समिति के कानों में संगीत की भांति है, जो विलम्ब से चल रही तैयारियों के लिए आलोचना झेल रही है।”

सुरेश कलमाडी और उनके सहयोगी भले ही खुश होंगे लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थी इस सब के बारे में क्या महसूस करते होंगे? क्या वे अपने को ठगा हुआ महसूस नहीं करते होंगे?

सितम्बर का महत्व

-लाल कृष्ण आडवाणी

व्यक्तिगत रुप से आज (12 सितम्‍बर) का दिन मेरे लिए अविस्मरणीय है। ठीक इसी दिन 1947 में मैंने अपना जन्मस्थान कराची छोड़ा था। इन पिछले 63 वर्षों में, मैं सिर्फ दो बार कराची जा सका- पहली बार 1978 में और दूसरी बार 2005 में।

पाकिस्तान के जनरल मुशर्रफ दिल्ली में पैदा हुए। जब 2001 में वह दिल्ली आए तो स्वतंत्रता के पश्चात से यह उनकी पहली यात्रा थी। इसका उल्लेख मैंने राष्ट्रपति भवन में उनसे हुई पहली बातचीत में किया था।

मैंने कहा था ”क्या आपको दुर्भाग्यपूर्ण नहीं लगता कि 1947 के बाद के पांच दशकों में आप पहली बार अपने जन्मस्थान आ सके और मैं भी अपने गृहनगर कराची भी एक बार जा सका हूं (मेरी दूसरी यात्रा इसके बाद हुई थी) !”

जनरल के साथ मेरी पहली मुलाकात में हमारे बीच कराची के सेंट पेट्रिक हाई स्कूल, जहां हम दोनों की पढाई हुई, के बारे में पुरानी यादें ताजा करने से कुछ निकटता बढ़ी परन्तु मेरा यह सुझाव कि पाकिस्तान 1993 में मुंबई के बम विस्फोटों के मुख्य आरोपी (और भगोड़े) दाऊद इब्राहिम को यदि भारत को सौंप दे तो दोनों देशों के सम्बन्धो के बीच अप्रत्याशित मोड़ आ सकता है, ने माहौल को थोड़ा तनावपूर्ण बना दिया जिसके चलते जनरल मुशर्रफ ने तुरन्त दोहराया ”मि. आडवाणी, मैं आपको बताना चाहता हूं कि दाऊद इब्राहिम पाकिस्तान में नही है।”

इस मुलाकात के दौरान मौजूद भारत और पाकिस्तान के लगभग एक दर्जन अधिकारियों में से प्रत्येक जानता था कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति ने एकदम असत्य बोला था।

***

मेरे अपने जीवन में सितम्बर महीने का एक और महत्व है। जैसाकि मैं अक्सर कहा करता हूं कि यदि कोई एक व्यक्ति है जिसके साथ मैं सीधे जुड़ा रहा और जिसे मैं अपनी सभी राजनीतिक गतिविधियों के लिए एक आदर्श ‘रोल मॉडल‘ मानता हूं और वे हैं पण्डित दीनदयाल उपाध्याय। उनका जन्मदिवस भी 25 सितम्बर को है। 1990 में जब मैने सोमनाथ से अयोध्या, जहां 30 अक्टूबर को कार सेवा करने की घोषणा हुई थी, तक की रथयात्रा करने का निर्णय किया तो मैंने इसे 25 सितम्बर से शुरु किया। मैं यह यात्रा पूरी नहीं कर सका। 23 अक्तूबर को बिहार के समस्तीपुर में मुझे गिरफ्तार कर हेलीकॉप्टर से मसानजोर (दुमका जिला) में बंदी बना कर रखा गया जो बिहार -पश्चिम बंगाल सीमा पर स्थित है।

1990 से, मैं प्रत्येक वर्ष 25 सितम्बर को सोमनाथ जाकर बारह ज्योर्तिलिंगों में से प्रमुख भगवान सोमनाथ का आशीर्वाद लेता रहा हूं। इसी मास में मुझे फिर इस तिथि को वहां जाना है। इस वर्ष मेरी राम रथ यात्रा, जो मेरे जीवन की एक उल्लेखनीय घटना है, की 20वीं वर्षगांठ है।

क्या उल्लेखनीय संयोग है कि गत् सप्ताह इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने घोषित किया है कि अयोध्या विवाद में स्वामित्व से सम्बन्धित मुकदमे पर पीठ का फैसला 24 सितम्बर, मेरी सोमनाथ यात्रा की पूर्व संध्या पर सुनाया जाएगा।

(अयोध्या विवाद) स्वामित्व सम्बन्धी अनेक मुकदमों के सम्बन्ध में उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ के निर्णय की सभी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं। कुछ दिन पूर्व संसदीय दल की बैठक में मैंने सभी सांसदों को सलाह दी थी कि वे संभावित फैसले के बारे में किसी अटकलबाजी में न फंसे और जो भी फैसला आए उस पर पार्टी की प्रतिक्रिया सधी और सहज हो। सामान्यतया पार्टीजनों ने इस सलाह को माना है।

***

व्यक्तिगत रुप से मेरे लिए 9/12 और 9/25 भले ही महत्वपूर्ण होगें लेकिन दुनिया के लिए इस महीने की 9/11 यानि 2001 की 11 सितम्बर की तिथि से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ और नहीं हो सकता।

इससे एक वर्ष पूर्व, 14 सितम्बर, 2000 को प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन के अपने संबोधन में कहा था:

”हमारे पडोसी से बढ़कर कोई क्षेत्र आतंकवाद का इतना बड़ा स्त्रोत नहीं है। वास्तव में, हमारे पडोस में – इस इक्कीसवीं शताब्दी में – केवल धर्म युध्द को ही नया जामा नहीं पहनाया गया है, बल्कि उसे राज्य की नीति के उपकरण के रुप में घोषित भी कर दिया गया है। दूरी और भूगोल किसी देश को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से सुरक्षा नही प्रदान करते। आप जानते हैं और मैं जानता हूं: यह बुराई सफल नहीं हो सकती परन्तु अपनी असफलता में भी यह अवर्णनीय पीड़ा पहुंचा सकती है।”

वाजपेयीजी की टिप्पणियां कैसी भविष्यदर्शी थीं!

आतंकवाद के घृणित इतिहास में, अपहृत विमानों को मिसाइलों के रुप में उपयोग कर न्यूयॉर्क के वर्ल्ड टे्रड सेन्टर और पेंटागन पर किए गए घातक आतंकवादी हमलों का कोई साम्य नहीं है, जिसमें लगभग 3000 लोग मारे गए और जिसमें एक सौ से अधिक भारतीय थे।

एक दूसरे अपहृत विमान से व्हाईट हाऊस को निशाना बनाया जाना था, परन्तु विमान में सवार यात्रियों के साहस और देशभक्ति के चलते आतंकवादी मंसूबे सफल नहीं हो सके और विमान पेनसिलवानिया के ग्रामीण क्षेत्र में गिर कर नष्ट हो गया।

जनवरी 2002 में, मैं संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा पर गया था। न्यूयॉर्क में, मैं 9/11 के स्मारक ‘ग्राउंड जीरो‘ गया और मानव जाति के इतिहास के सबसे भयंकर आतंकवादी हमले के सम्मुख अमेरिका के लोगों के अडिग संकल्प की प्रशस्ति की।

बाद में, वाशिंगटन डीसी में स्थित भारतीय दूतावास में एक संवाददाता सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए मैंने भारत और अमेरिका को लोकतंत्र के दो स्तंभ (टि्वन टावर्स आफ डेमोक्रेसी) निरुपित किया और कहा: ”आतंकवादियों ने भले ही स्टील और सीमेंट से बने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ढांचो को ध्वस्त कर दिया हो, परन्तु वे हमारे दोनों लोकतंत्रों की भावना और ढांचों को कभी हानि नहीं पहुंचा सकते।”

गांधीवाद के हत्यारे कम्युनिस्ट!

-रामदास सोनी

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही देश की शिक्षा पद्धति और विभिन्न वैचारिक प्रतिष्ठानों पर वामपंथी विचारधारा से प्रभावित लोगो का वर्चस्व रहा है। भारत के गौरवशाली इतिहास को कायरता का इतिहास बताने वाले वामपंथियों ने भारत को पिछले छ: दशकों में निराशा के गर्त में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने वाक्चातुर्य का कुशलता से प्रयोग करते हुए पूरे भारतवर्ष में स्कूली पाठयक्रमों में लार्ड मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली को आगे बढ़ाने का कार्य करने वाले कम्युनिस्टों के पूरे इतिहास से भारतवासी आज भी अनभिज्ञ है। स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजो का समर्थन, भारत माता को खण्डित करवाने में योगदान, भारत-चीन युद्ध के समय चीन की सेना को मुक्ति सेना बताने और चीन को आक्रांता मानने से इंकार करने वाले कम्युनिस्ट आंदोलन की उपज है माओवाद! रूस और चीन को अपना प्रेरणास्त्रोत मानने वाले इन काले अंग्रेजो द्वारा अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों की किस बेदर्दी से हत्या करने की असफल कोशिशे की गई है, इस पर थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है।

गांधीजी की विचारधारा को अतीत के गौरवशाली भारत का सम्बल व संरक्षण प्राप्त है किंतु अपने देश के अन्दर विदेशियों के कुछ हस्तकों के लिए गांधीजी का व्यक्तित्व परेशानी बन गया। गांधीजी की विचारधारा उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ी हो गई। भारत के कम्युनिस्टों को गांधीजी एक अपराजेय दुश्मन के रूप में दिखाई दिए उन्होने गांधीजी को विश्वभर में बदनाम कर स्वतंत्रता संग्राम की पीठ में छुरा भोंकते हुए अपने स्वार्थ साधने का भरपूर यत्न किया किंतु कम्युनिस्टों के सभी षडयंत्र विफल रहे। कम्युनिस्टों का दुर्दान्त, हिंसक स्वरूप स्वयं उन्ही की लेखनी एवं कृत्यों की बोलती साक्षी के रूप में इस लेख में लिखा गया है।

महात्मा गांधी भारत की अनादि और अविच्छिन्न ऋषि परम्परा के महानायक माने जाते है। अतीत के साथ वर्तमान का समन्वय करते हुए ” सर्वे भवन्तु सुखिन: ” को उन्होने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। भारतीय जनता के मध्य सहज प्राप्य गरीबी, अभावों एव ंविषमता के प्रति उनके मन में गहरी वेदना थी इसलिए उन्होने अपने जीवन को सर्व-साधारण के मध्य उत्सर्ग कर दिया। हरिजनों और दलित वर्ग का अभ्युत्थान करने के लिए गीता की ” शुनिय चैव श्वपाके च पण्डित: समदर्शिन ” वाणी को साकार करते हुए भारतीय जीवन दर्शन का साक्षात उदाहरण प्रस्तुत किया।

महात्मा गांधी ने धर्म और राजनीति में एकात्म्य की प्रतिष्ठा की, उनका मत था कि देश की निर्धनता को दूर करने का मार्ग ” माक्र्सवाद” कदापि नहीं हो सकता। साध्य और साधन की शुचिता पर, जिसका कम्युनिस्ट भारी विरोध करते है, गांधीजी ने बहुत जोर दिया था। गांधीवाद और साम्यवाद के मध्य केवल हिंसा-अहिंसा का ही नहीं अपितु अन्य बातों में भी र्प्याप्त विचार भेद है। गांधीजी कम्युनिस्ओं की भांति केवल वाग्वीर नहीं थे उन्होने गरीबी और अभाव को दूर करने के लिए ” खादी और कुटीर उद्योगो को अग्रसारित करते हुए गांवों की ओर चलों” का स्वयं पालन किया तथा अपने साथियों से करवाया। कम्युनिस्टों के मिथ्यावाद पर प्रहार करते हुए गांधीवादी विचारधारा के मर्मज्ञ सन्त विनोबा भावे ने कहा कि – साम्यवाद के चारों और कम्युनिस्टों ने एक लम्बी-चौड़ी तत्वज्ञान की इमारत खड़ी कर दी है तथापि तत्वज्ञान के नाते उसमें कोई सार नहीं है क्योंकि वह कारीगरी नहीं बल्कि बाजीगरी है।

महात्मा गांधी का चिंतन अत्यंत ही सुस्पष्ट था उन्होने कम्युनिस्टों को खूनी और दुर्दान्त हिंसक बताकर उनकी निंदा करते हुए कहा है कि – मेरा रास्ता साफ है, हिंसात्मक कामों में मेरा उपयोग करने के सभी प्रयत्न विफल होगें, मेरा एक ही शस्त्र है- अहिंसा। ”बोलशेविज्म” के बारें में उन्होने कहा था कि रूस के लिए यह लाभप्रद है या नहीं मैं नहीं कह सकता किंतु इतना अवश्य कह सकता हूं कि जहां तक इसका आधार हिंसा और ईश्वर विमुखता है, यह मुझे अपने से दूर ही हटाता है। ”बोलशेविज्म” के बारें में मुझे जो कुछ जानने को मिला है उससे ऐसा प्रतीत होता है िकवह न केवल हिंसा के प्रयोग का बहिष्कार नहीं करता, बल्कि निजी सम्पति के अपहरण्ा के लिए तथा उसे राज्य के सामूहिक स्वामित्व के अधीन बनाए रखने के लिए हिंसा के प्रयोग की खुली छूट देता है ( अमृत बाजार पत्रिका 2 अगस्त 1934) गांधीजी के अनुसार, रूसी साम्यवाद यानि जनता पर जबरदस्ती लादा जाने वाला साम्यवाद भारत का रूचेगा नहीं, भारत की प्रकृति उसके साथ मेल नहीं खाती ( हरिजन 13 मार्च 1937)। गांधीजी में कम्युनिस्टों के प्रति सबसे अधिक आक्रोश इस बात को लेकर था िकवे उनकी कथनी और करनी में भारी अंतर देखते थे, उन्होने एक बार कम्युनिस्टों को फटकारते हुए कहा था कि – आप साम्यवादी होने का दावा करते है परंतु साम्यवादी जीवन व्यतीत करते दिखाई नहीं देते, उनकी कम्युनिस्टों को सलाह थी कि ईश्वर ने आपको बुद्धि और योग्यता प्रदान की है तो उसका सदुपयोग कीजिए, कृपया अपनी बुद्धि पर ताला न लगाईये।

कम्युनिस्टों के घृणित हथकण्डों से अत्यंत पीड़ित होने के बाद हरिजन 6 अक्टूबर 1946 के अंक में उन्होने कहा कि मालूम होता है कि साम्यवादियों ने बखेड़े खड़े करना ही अपना पेशा बना लिया है, वे न्याय-अन्याय और सच-झूठ में कोई फर्क नहीं करते। ऐसो प्रतीत होता है कि वे रूस के ओदशों पर काम करते है क्योंकि वे भारत की बजाय रूस को अपना आध्यात्मिक घर मानते है। मैं किसी बाहरी शक्ति पर इस तरह निर्भर रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता।

सन् 1946 में प्रसिद्ध अमेरिकन पत्रकार लुई फिशर के साथ परिचर्चा में भाग लेते हुए गांधीजी ने समाजवाद और साम्यवाद के सम्बंध में अपनी मान्यताओं को व्यक्त करते हुए कहा था कि मेरे समाजवाद का अर्थ है- सर्वोदय, मैं गूंगे, बहरे और अंधों को मिटाकर उठना नहीं चाहता, उनके ( माक्र्सवादियों) समाजवाद में शायद इसके लिए कोई स्थान नहीं है। भौतिक उन्नति ही उनका एकमात्र उद्देश्य है, माक्र्सवादियों के समाजाद में व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं है,,,,,, समाजवाद और कुछ नहीं निकम्मे लोगो का शास्त्र है।” माक्र्स के उपरान्त उसके अनुयायी समय-समय पर माक्र्सवाद में रद्दोबदल करते रहे है। गांधीजी भी कम्युनिस्टों की इस अवसरवादिता से अपरिचित न थे।

मानव इतिहास में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण करने वाले जितने निरंकुश, पाशवी बौर मायावी तानाशाहों का उल्लेख आज तक हुआ है उन सब में कम्युनिस्टों के पार्टी अधिनायकवाद का जोड़ मिलना असंभव है। समाज के आर्थिक ढ़ांचे पर आंख गड़ाते हुए नागरिकों के आपसी झगड़ों की आग भड़काना, प्रत्येक स्तर पर वर्ग स्वार्थो के संघर्ष उभाड़ते हुए जनता को नेतृत्वविहीन करना, प्रक्षोभक प्रसंगों में अशांति, अव्यवस्था, हत्या, लूट, तोड़फोड़ के षडयंत्र रचकर जनजीवन को आतंकित करना और अंत में राक्षसी अट्टहास के साथ सैन्यशक्ति के बल पर पार्टी अधिनायकवाद स्थापित करना कम्युनिस्टों की रीति-नीति के जाने-पहचाने कदम है। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कम्युनिस्ट किसी भी भक्ष्य देश की सामाजिक जीवन रचना और उसके कर्णधार नेताओं की समाप्ति के लिए कदम दर कदम पूर्ण नियोजित व्यूह रचना करते चलते है। उन्हे आवश्यकता होती है कि राष्ट्रवादी शक्तियों को एकजुट न होने देने के लिए विभिन्न वर्गो और राष्ट्रीय नेताओं के सम्बंध में समय-समय पर साधक-बाधक घोषणाएं करें। भारत की कम्युनिस्ट पार्टिया तो सिंध्दात, कार्य और साधन तीनों दृष्टियों से विदेशाश्रित है इसलिए इन्हे नीति परिवर्तनों में अपने विदेशी आकाओं का विशेष ध्यान रखना पड़ता है यानि रूस और चीन की हर आंतरिक और बाहरी हलचल को ध्यान में रखकर ही भारत के कम्युनिस्टों को उनके ईशारों पर नाचना पड़ता है इसलिए भारत में कम्युनिस्टों की नीतियां व केवल सर्दव परस्पर विरोधक, विसंगत रही वरन् हास्यास्पद भी रही है। इसी अपनी रीति-नीति के अनुसार कम्युनिस्टों ने गांधीजी के प्रति भी अनेक विसंगत बाते कही है। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व और उनके कार्यो की कम्युनिस्ट दृश्टिकोण से मीमांसा करने वाले पहले कम्सुनिस्ट लेखक एम एन राय ने 1922 में प्रकाशित पुस्तक इण्डिया इन ट्रान्सीशन में गांधीजी को सामन्तवादी तत्वों के स्वार्थसाधक के रूप में प्रस्तुत किया है। इसी लेखक की धर्मपत्नी श्रीमती ऐवलीन ने शांतिदेवी के उपनाम से गांधीजी पर एक लेखमाला लिखी जिसमें गांधीजी पर व्यंग्य प्रहार करने में कोई कसर बकाया नहीं छोड़ी गई। सन् 1922 में प्रकाशित ये लेख वेनगार्ड और इन्प्रेकर में प्रकाशित हुए। इन लेखो में कहा गया है कि गांधीजी कुछ अन्य नहीं केवल भूतप्रेतीय पूर्वजों की लम्बी परम्परा के उत्तराधिकारी है क्योंकि गांधीजी के अनुसार 30 करोड़ भारतवासी अपने शोषकों के हाथो तब तक शोषित, प्रताड़ित होते रहे जब तक कि शोषक वर्ग इन्हे अपने सीने से न लगा ले। गांधीजी के अन्य दोषों की ओर संकेत करते हुए श्रीमती ऐवलीन ने कहा है कि एक अस्पष्ट लक्ष्य के लिए समान संघर्ष में सभी भारतीयों को एकत्र लाने की इच्छा निरर्थक और गांधी की जिद्द मात्र है क्योंकि तेल और पानी, शेर और भेड़ कभी एकत्र नहीं हो सकते। गांधी जी दूसरा बड़ा दोष है कि वे राजनीति के क्षेत्र में आध्यात्म को घुसाने की कोशिश कर रहे है। अपनी लेखमाला में गांधीवाद को प्रमिगामी करार देते हुए ऐवलीन ने आगे कहा कि गांधीवाद क्रांतिवाद नहीं है, अपितु एक दुर्बल एवं तरल सुधारवाद है जो स्वतंत्रता की लड़ाई की वास्तविकताओं के सामने हर मोड़ पर सिकुड़ जाता है। एक अन्य कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने 1927 में प्रकाशित अपनी पुस्तक माडर्न इण्डिया में कहा कि गांधीजी स्वयं को उच्चवर्गीय स्वार्थ और पूर्वाग्रहों से दूर नहीं रख सके। दत्त के अनुसार गांधीजी कर नेतृत्व छोटे बुर्जुआ बुद्धिजीवी वर्ग का है। ”लार्ज सोवियट एनसाइक्लोपीडिया” में सन् 1929 के अंक में भी प्रकाशित एक लेख में उक्त दोनो लेखकों के मतों का उल्लेख करते हुए उन्हे छोटे बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा के प्रतिनिधि के नाते ही बताया गया है तथा कहा गया है कि वे सम्पतिवान वर्ग के हितों का संरक्षण करने वाले व्यक्ति है ( इ एम एस नम्बूद्रिपाद : दि बर्थ आफ गांधीज्म, न्यू एज मासिक, जुलाई 1945) महात्माजी की जनप्रियता का उपयोग कत्युनिस्ट करना चाहते थे किंतु जानते थे कि गांधीजी के साथ उनका मेल बैठना कठिन है, इस प्रकार से गांधीजी का व्यक्तित्व कम्युनिस्ट विचारों के लिए समस्या बन गया। रूस में इस प्रश्न पर विचार हुआ व भारतीय कम्युनिस्टों को गांधीजी से स्तर्क किया गया। जून 1933 के कम्युनिस्ट-इंटरनेशनल में एक विस्तृत लेख गांधीजी बाबत प्रकाशित हुआ जिसमें गांधी और गांधीवाद की उन्होने कड़ी आलोचना की। 1939 में कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने गांधीजी के विषय में घोषित किया कि भारत में उन सबके लिए जो तरूणाई और विवके के पक्ष में है, गांधी का नाम अभिशाप और धृणा का द्योतक है। 1942 में दत्त ने गांधीजी को भारतीय राजनीति की ”शांतिवादी दुष्ट प्रतिभा ” के नाम से सम्बोधित किया (इण्डिया : व्हाट मस्ट बी डन” लेबर मंथली अंक 24 सितम्बर 1942)। कम्युनिस्ट पार्टी से प्रतिबंध उठाए जाने पर उसके महामंत्री पीसी जोशी ने लिखा कि निषेधात्मक दृष्टिकोण, निष्क्रियता की नीति और परतंत्रता का प्रतिपादन ही आज का गांधीवाद है।

सन् 1948 में महात्मा गांधी का बलिदान हुआ, कम्युनिस्टों ने गांधीजी के नाम का उपयोग करने के लिए नया और अपनी पिछली घोषणाओं तथा मान्यताओं के विपरित रूख अख्त्यार किया ताकि वे गांधीजी के नाम को अपनी रणनीति का पुर्जा बना सके। गांधीजी की मृत्यु के दो मास बाद मार्च 1948 में रजनीपामदत्त ने ”लेबर” मासिक पत्रिका में प्रकाशित लेख में गांधीजी के गुणों का वर्णन ” मानव बुद्धि वर्णन से परे” ढ़ंग से करते हुए कम्युनिस्टों के लिए एक नया रणनीति अख्त्यार करने का संदेश दिया। लेखक के अनुसार, गांधीजी के बलिदान का उपयोग कम्युनिस्टों को करना चाहिए क्योंकि गांधीजी ने इन प्रयत्नों में कम्युनिस्टों से निकट का सम्पर्क साधा था! भारत के कम्युनिस्टों ने यद्यपिग ांधीजी के नाम की माला जपते हुए जनसाधारण से निकट का सम्पर्क सथापित करना तय कर लिया था किंतु उनके रूसी मालिकों को यह स्वीकार्य नहीं था। सन् 1949 में रूस में पैसेफिक इन्स्टीटयूट आफ सोवियट एकादमी आफ साइंसेस की बैठक हुई और उसके महत्वपूर्ण कागजातों का प्रकाशन नवम्बर मास में हुआ जिसके अंग्रेजी अनुवाद (जिसे पीपुल्स पब्लिकेशन हाउस, मुबंई ने प्रकाशित किया) में महात्मा गांधी का उल्लेख करते हुए कहा गया कि भारत में प्रजातंत्र की रक्षा के लिए गांधी के प्रभाव का उपयोग करने के प्रयत्न अत्यधिक हानिकारक और खतरनाक है, गांधी ने साम्राज्सवादी ताकतों के विरूद्ध सशस्त्र अभियान का कभी नेतृत्व नहीं किया इसके विपरित वे जनसाधारण के मुक्ति आंदोलन के प्रमुख द्रोही रहे है। अपने रूसी मालिको की आज्ञा के समक्ष सर झुकाने वाले भारतीय कम्युनिस्टों ने दो माह बाद ही घोषणा कर दी कि गांधीजी ने कभी किसी राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व नहीं किया और सन् 1920 के क्रांतिकारी जन-आंदोलन का उन्होने शिरोच्छेद कर डाला। लेखक ने गांधीजी को भारत के मुक्ति आंदोलन में बाधक और प्रतिक्रयावादी बताया। इसी प्रकार सन् 1952 में प्रकाशित बोल्शिया सोवेटस्किया एण्टेस्किलेपिडिया सेकण्ड एडीशन मास्को के पृष्ठ संख्या 204 पर गांधीजी के बारें में अंकित है कि गांधीवाद भारत के उन बड़े बुर्जुआ वर्ग के हाथों में सैद्धांतिक हथियार बना जो सामन्तवादी जमींदार और पूंजीपतियों से सम्पर्क रखते है।

एशियायी देशों में रूसी हितों के लिए जब रूसी नेताओं ने गांधीजी की प्रशंसा करनी प्रारंभ कर दी तो भारत के कम्युनिस्टों की स्थिति हास्यास्पद बन गई। नेहरू सरकार की हमजोली बनने की रूसी नीति से वे इंकार नहीं कर सकते थे किंतु वे गांधी से अधिक अपने आप को माक्र्स और लेनिन के प्रति समर्पित बनाये रखना जरूरी समझते थे।

चीन को देना होगा उसी की भाषा में जवाब

-डॉ0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

किसी भी देश की सरकार का पहला कर्तव्य देश की सीमाओं की रक्षा करना होता है। असुरक्षित सीमाओं के भीतर कोई देश आर्थिक क्षेत्र में, संस्कृति और कला के क्षेत्र में, वाण्ज्यि और व्यापार के क्षेत्र में जितनी चाहे उन्नति कर ले। वह उन्नति सदा अस्थाई रहती है क्योंकि असुरक्षित सीमाओं को भेद कर शत्रु कभी भी देश के भीतर आ सकता है और इस तथाकथित उन्नति को पलक झपकते ही मिटटी में मिला सकता है। महाभारत में इसे एक और तरीके से कहा गया है। उसके अनुसार सीमाएं राष्ट्रमाता के वस्त्र होते हैं और सीमाओं का अतिक्रमण मां के चीर हरण के समान होता है। भारत को सीमा रक्षा के मामले में जागृत रहना और भी आवश्यक है क्योंकि यह उत्तर पूर्व से लेकर उत्तर पश्चिम तक शत्रु देशों से घिरा हुआ है। चीन और पकिस्तान दोनों ने भारत के खिलाफ हाथ मिला लिए हैं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि चीन ने पाकिस्तान का प्रयोग भारत के खिलाफ हथियार के तौर पर करना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान का निमार्ण ही एक बड़ी रणनीति के तहत भारत के शत्रु देश के तौर पर किया गया था। इस लिए वह अपने जन्म से ही भारत के प्रति अपना शत्रु धर्म निभा रहा है। परन्तु छोटा और कमजोर होने के कारण भारत का कुछ बिगाड़ नही पाता था। चीन ने भारत के संदर्भ में पाकिस्तान की इस ताकत और कमजोरी को ठीक ढंग से पहचान लिया और उसका प्रयोग भारत के खिलाफ करना शुरू कर दिया। पाकिस्तान भी चीन की हथेली पर बैठ कर अपनी इस नई भूमिका से संतुष्ट है। क्योंकि उसका मकसद भारत पर चोट करना है। यह चोट अमेरिका की हथेली पर बैठ कर होती है या फिर चीन की हथेली पर बैठ कर, उसे इससे कोई फर्क नही पडता।

19वीं और 20वीं शताब्दी में ब्रिटिश सम्राज्यवाद अपने भारतीय सामा्रज्य की रक्षा के लिए अतिरिक्त चौक्कना था। उसे लगता था कि रूस, तिब्बत और अफगानिस्तान में घुसकर भारत के सीमांत तक आना चाहता है। अंग्रेजी कूटनीति ने इसे ग्रेट गेम का नाम दिया अर्थात शिकारी रूस है और वह तिब्बत और अफगानिस्तान में घुस कर भारत का शिकार करना चाहता है। अंग्रेजों ने रूस की इस तथा कथित गेम को असफल बना दिया फिर चाहे उन्हें तिब्बत पर चीन के अधिराज्य का काल्पनिक सिद्वान्त भी गढ़ना पड़ा। 20वीें शताब्दी के मघ्य में भारत में ब्रिटिश सम्राज्य का अंत हुआ तो ऐसा आभास होने लगा था कि ग्रेट गेम के युग का भी अंत हो गया है। लेकिन दुर्भाग्य से ग्रेट गेम के युग का अंत नही हुआ था, केवल शिकारी बदला था। भारत इस नए उभर रहे शिकारी को या तो देख नही पाया या फिर देख कर भी अनजान बनता रहा। अब शिकारी रूस की जगह चीन था। जिस ग्रेट गेम अभियान को ब्रिटिश कूटनीति ने असफल कर दिया था वह इस बार भारतीय कूटनीति की असफलता के कारण सफल होता दिखाई दे रहा है। चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया है। पाकिस्तान ने व्यवहारिक रूप से गिलगित और वाल्तीस्तान चीन के हवाले कर दिये हैं और जो खबरें वहां से छन-छन कर आ रही हैं उनके अनुसार वहां हजारों की संख्या में चीनी सैनिक आ पहुंचे हैं। अफगानिस्तान में भी चीन सरकार पूरा प्रयास कर रही है कि वहां से अनेक क्षेत्रों से भारतीय भागीदारी को समाप्त करके चीनी भागीदारी को सुनिश्चित किया जाए।

इस प्रकार के वातावरण में चीन भारत पर धौंस जमाने और उसे धमकाने की भूमिका में उतर आया है। वह अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा तो लम्बे समय से करता आ रहा है लेकिन अब उसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अरूणाचल प्रदेश के दौरे पर भी बकायदा आपत्तियां दर्ज करवानी शुरू कर दी हैं। उसका तर्क है कि विवादास्पद क्षेत्र में भारत के प्रधानमंत्री को जाने का कोई अधिकार नही है। अरूणाचल प्रदेश के लोगों को चीन वीजा नही देता। उसका तर्क है कि ये लोग तो चीन के ही नागरिक हैं। इनको वीजा लेने की जरूरत नहीं है। जम्मू कश्मीर के लोगों को भी अब उसने भारतीय पासपोर्ट की बजाय कागज के टुकडे़ पर वीजा देना शुरू कर दिया है। उसका तर्क है कि जम्मू कश्मीर विवादित क्षेत्र है इस लिए यहां के नागरिकों को भारतीय नागरिक कैसे माना जा सकता है। पिछले दिनों तो उसने कश्मीर में तैनात एक भारतीय सेनिक अधिकरी को भी वीजा देने से इन्कार कर दिया था। इस पर तर्क और भी विचित्र था कि यह अधिकरी विवादित संवेदनशील क्षेत्र में तैनात है।

लेकिन इस उभर रहे नए ग्रेट गेम अभियान का सामाना करने के लिए भारत सरकार की रणनीति क्या है ? वैश्वीकरण के इस तथाकथित युग में भारत और चीन के बीच पिछले कुछ दशकों से व्यापार के क्षेत्र में वृ़िद्व हुई है। भारत की अनेक कम्पनियों के हित चीन में निवेश की गई अपनी पूजीं में जुड़ गए हैं। ऐसी एक सशक्त लॉबी दिल्ली में पन्नप रही है। इसका मानना है कि भारत और चीन के बीच सीमा और सुरक्षा को लेकर इस प्रकार के छोटे मोटे मसलों को ज्यादा तूल नही दिया जाना चाहिए। दोनों देशों का हित इसी में है कि सीमा शांत रहे और आपसी व्यापार में वृद्वि हो। यह लॉबी चीन के व्यवहार और नीति को तो बदल नही सकती। इसका यह मानना है कि चीन शुरू से ही उददंड रहा है। इसलिए भारत को ही सहनशीलता सीखनी होगी। भारत को सीमा सुरक्षा के मामले को इतना तूल नही देना चाहिए अन्यथा व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पडेगा। अपने सुभीते के लिए खडे किये गए थिंक टैंकों के माध्यम से अब यह भी कहा जाने लगा है कि सीमा पर कुछ ले देकर समझौता कर लेना चाहिए। जाहिर है चीन अपनी तथाकथित ताकत और इस लॉबी के सहयोग से भारत को डरा कर अपना उल्लू सीधा कारना चाहता है और भारत को घेर कर इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। भारत सरकार को भी अपनी परम्परागत यूरोपोन्मुखी विदेश नीति के साथ एशिया और खास करके दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ अपने सम्बन्धों का विस्तार करना चाहिए। दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश देशों की सीमा चीन से लगती है। चीन इन देशों को केवल धमकाता ही नहीं है बल्कि समय असमय उन पर सीमित आक्रमण भी करता है। वियतनाम उसकी इस दादागीरी को झेल चुका है और कम्बोडिया ने तो चीन के इन प्रयोगों की कीमत लाखों मौतों में चुकायी है। कोरिया के विभाजन में चीन का ही हाथ है। ये सभी देश चीन की इस दादागीरी का जवाब देना चाहते हैं लेकिन वे किस के बलबूते पर ऐसा करें।भारत को चीन की कूटनीति का उत्तर उसी की भाषा में देना होगा। वाजपयी के शासन काल में इसकी शुरूआत हुई थी। अब भारत की राष्ट्र्पति लाओस और कम्बोडिया की यात्रा करके आई हैं और इन दोनों देशों के साथ कुछ समझौतों पर भी हस्ताक्षर हुए है। चीन के खतरे का सामना बिल में घुस कर नहीं किया जा सकता। इसका जवाब उसी की भाषा में देना होगा।

स्वायतत्ता तोहफा नहीं, गुलामी की दावत

– भरतचंद्र नायक

गत दिनों लोक सभा में जब कश्मीर के बिगड़ते हालात पर चर्चा के दौरान ठोस कदम उठाने की पुरजोर वकालत की जा रही थी, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और केन्द्र सरकार में मंत्री डॉ.फारुख अब्दुल्ला ने फरमाया कि ऐसे वक्त जब भारत सरकार दुनिया की एक बड़ी ताकत है और जम्मू-कश्मीर के लद्दाख की ओर चीन बढ़ने के प्रयास में है, क्या जम्मू-कश्मीर की आजादी की मांग मुनासिफ कही जा सकती नहीं। उनका इशारा आल पार्टी हुर्रियत की ओर था। इसके पहले वरिष्ठ नेता डा.मुरली मनोहर जोशी ने बड़े साफ शब्दों में कहा कि जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता अथवा आजादी दिये जाने का कोई प्रश्न नहीं उठता। यदि स्वायतत्ता दिये जाने पर विचार किया गया तो पिंडोरा वाक्स खुल जाएगा जिसका कोई अंत नहीं होगा। उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका और पश्चिमी देशों की अपनी दीर्घकालिक कूटनीति है. वे पाकिस्तान के जरिये चीन, दक्षिणी एशिया और खाडी के मुल्कों की चौकसी करना चाहते हैं। जम्मू-कश्मीर के कथित अवाम को उकसाने और अलगाववादियों के भारत विरोध की प्रायोजित योजना का रहस्य समझा जाना चाहिए। फिर जम्मू कश्मीर का असली आवाम तो वे पांच लाख कश्मीरी पंडित हैं जिन्हें जम्मू कश्मीर से खदेड़कर शरणार्थी बना दिया गया है। सियासत के मजहबीकरण के कारण बहकावे अथवा विदेशी दबाव में आकर जम्मू-कश्मीर के बारे में अपनी नीति में तनिक भी नरमी लाने का मतलब लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पायी होगा। भारतीय जनता पार्टी ने देश की राष्ट्रीय अखण्डता, सार्वभौम सत्ता और भारतीय अस्मिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते हुए कहा कि यही समय है, जब भारत को स्पष्ट संदेश देकर अलगाववादियों, पाकिस्तान और अमेरिका से साफ सपाट शब्दों में कह देना चाहिए कि जम्मू -कश्मीर के मामले में कोई भी दबाव अथवा वार्ता कबूल नहीं है। पाकिस्तान से डायलाग का जहां तक सरोकार है, उसे पाक अधिकृत कश्मीर को खाली कर उसे मुक्त करने पर विचार करना चाहिए।

लेकिन विडंबना यह है कि केन्द्र में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार देश की अखण्डता, सुरक्षा को दोयम दर्जे की प्राथमिकता मान चुकी है। जम्मू-कश्मीर में अलगाववादियों के नरम और गरम जो दो धड़े विपरीत ध्रुव हुआ करते थे यूपीए सरकार की नरम नीतियों को भारत की कमजोरी समझ बैठे है और जो पांच सूत्रीय कार्यक्रम उन्होंने केन्द्र सरकार से बातचीत का आधार बनाया है खुल्लम खुल्ला भारत की अखण्डता को चुनौती और संविधान के प्रति खुलाद्रोह है। आल पार्टी हुर्रियत काँफ्रेंस के हार्ड लाइनर सैयद अली शाह जिलानी जम्मू कश्मीर को अंतर्राष्ट्रीय विवाद बताकर क्षेत्र का विसैन्यीकरण, अपराधिक मामलों में निरुद्ध, कश्मीरियों, आतंकवादियों की रिहायी, फौजी कर्मियों के मानवाधिकार उल्लंघन मामले में जांच, कार्यवाही और सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून की

समाप्ति पर अड़े थे। नरम धड़ा मीर वाइज फारुख जो बातचीत के लिए आगे आ रहे थे, ने अब पैतरा बदल लिया है और वे गिलानी के एजेंडा को कबूल करते हुए आत्म निर्णय आजादी की भी फरमाइश करने लगे हैं। यह परिवर्तन आने की बजह यह मानी जा रही है कि पिछले तीन माह में आईएसआई ने अपनी रणनीति बदलकर सुरक्षा बलों को उकसाने के लिए पथराव करने वाला फोर्स बना डाला है। जिसे कलेंडर के मुताबिक ट्रकलोड पत्थर उपलब्ध रहते हैं। स्कूल जाने वाले छात्रों के बस्तों में किताबों की जगह पत्थर रखवाये जाते हैं, बुर्काधारी महिलाएं भी पत्थराव में शामिल होती है। सुरक्षा बल निशाना बन रहे हैं। भीड़ में आतंकवादी गोली चलाकर भी सुरक्षा जवानों को मौत की नींद सुला रहे हैं। पैंसठ के करीब किशोर उकसावे की कार्यवाही के बाद सुरक्षा बलों के गोली चालन का शिकार हुए हैं और इसने सुरक्षा बल विरोधी माहौल बनाने की रणनीति कामयाब हुई है। इसे पाकिस्तान और अलगाववादी अपनी सफलता मान रहे हैं। उमर अब्दुल्ला अब तक के सबसे निकम्मे मुख्यमंत्री सिद्ध हो चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के अवाम और सरकार के बीच विश्वास का सेतु बनाने में उनकी विफलता का खमियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है। ऐेसे में भले ही जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकार को भंग न किया जाए। लेकिन विधायक दल में बदलाव कर सत्ता नेतृत्व सामने लाना समय की मांग है, वहां कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस की गठबंधन सरकार है और कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के सखा होने का दावा करने वाले उमर अब्दुल्ला केंद्रीय मंत्रियों, प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के आंख का तारा बने हुए हैं। जब जम्मू-कश्मीर में हालात काबू से बाहर हो रहे हैं, जम्मू कश्मीर सरकार और प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह तुष्टीकरण और सियासत के मजहबीकरण की हीलिंग टच के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। उमर अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर की संवेदनशील विस्फोटक स्थिति के प्रति गंभीर होते तो वे कदापि ईद के तोहफे के रूप में राजनीतिक पैकेज स्वायतत्ता की मांग नहीं करते। ईद को ईद ही रखा जाना था। सियासत नहीं की जाना थी। और न वे सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून में संशोधन और उसे उठाने की मांग भी नहीं करते। उन्हें अहसास होता कि सशस्त्र बलों की तैनाती और विशेष अधिकार कानून पर अमल परिस्थितिवश किया गया है। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने गृहमंत्री के रूप में निभाया। स्वतंत्र चिंतकों और सुरक्षा विशेषज्ञों का मत है कि जम्मू-कश्मीर में सिर्फ दो आवश्यकता अहंम हैं, पहले तो हिंसा समाप्त हो। दूसरे मजहबीकरण की बात बिल्कुल बंद हो। लेकिन डॉ.मनमोहन सिंह सरकार और कांग्रेस को ये दोनों बातें गवारा होगी, इस बात का इत्मीनान नहीं किया जा सकता है। इस बात को इशारे में समझने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त होगा। संसद पर आतंकवादी हमले के प्रमुख अभियुक्त अफजल गुरु को जब सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा दी इसे तामील नहीं होने देने में कांग्रेस की भूमिका प्रमुख थी। तब जम्मू कश्मीर में गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री थे और उन्होंने ही सबसे पहले केन्द्र से नरमी बरतने की दरखास्त की थी। इससे भी खतरनाक बात यह हुई कि जब अफजल गुरु को फांसी की सजा के विरोध में जम्मू कश्मीर में

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विरोध प्रदर्शन में जुलूस निकले उसमें कांग्रेस के कार्यकर्ता भी प्रचुर संख्या में शरीक हुए। बात यही समाप्त नहीं होती। तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने पुरजोर कोशिश की कि अफजल गुरु की फांसी के मामले में फाइल दिल्ली सरकार के पास अटकी रहे। राष्ट्रपति निरीह बने रहे और इरादतन यही हुआ। बाद में पी.चिदम्बरम भी अफजल गुरु को फांसी की सजा पर अमल करा पाने में निरीह साबित हुए। आतंकवाद से लड़ने राष्ट्रीय अखण्डता की सुरक्षा के लिए यदि कांग्रेस का यह आगाज है, तो अंजाम का अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

दरअसल जम्मू-कश्मीर में अवाम के लिए राजनीतिक, आर्थिक कोई समस्या नहीं है। देश के 28 सूबों से सबसे अधिक अधिकार यहां प्राप्त है। अनुच्छेद 370 ने जम्मू कश्मीर को विशिष्ठ राज्‍य का दर्जा दिया हुआ है। दो निशान, दो प्रधान की व्यवस्था नहीं है। फिर भी दो विधान है। यही कारण है कि राजनेता वोट पालिटिक्स करके जनता को गुमराह करते हैं। स्वायत्तता का एजेंडा जनता का नहीं है। यह पाकिस्तान के विफल हुक्मरानों का है, जो अलगाववादियों के जरिए पराजय बोध व्यक्त कर भारत को तोड़ने का दंभ भरते हैं। पाकिस्तान ने भारत पर 1948, 1965, 1971 के युद्ध थोपे, बाद में कारगिल पर हमला कर भारत की पीठ में छुरा झोंका और मुंह की खायी। अटल बिहारी वाजपेयी अमन का पैगाम लेकर बस से लाहौर गये लेकिन पाकिस्तान जो मंसूबा युद्ध के मैदान में पूरा नहीं कर पाया, वह आतंकवाद, अलगाववाद के जरिये पूरा करना चाहता है। इसका माकूल जवाब देने के बजाय डा.मनमोहन सिंह सरकार विदेशी दबाव में थ्रेड वेयर बातचीत करने, हीलिंग टच भरने पर राजी होकर अपनी दुर्बलता उजागर कर रहे हैं।

पिछले तीन माह से अलगाववादियों, सुरक्षा बलों पर किसके इशारे पर हमला बोल रहे हैं। सुरक्षा बलों की जांच का आदेश देकर उमर अब्दुल्ला सरकार ने पुलिस, अर्धसैनिक बल और फौज का मनोबल खंडित कर दिया है। पुलिस यूनिफार्म लगाकर शहर में निकल नहीं सकती। पथराव करना कुटीर उघोग बन गया है। राज्‍य सरकार मजबूर है। विरोध प्रदर्शन ने उधोग धंधे चौपट कर दिये हैं। पर्यटन उघोग बदहाली की कगार पर है। कालेज स्कल बंद है। छात्रों को पेड स्टोन पेल्टर बना दिया है। इस समस्या की सारी जिम्मेदारी अलगाववादी, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस केंद्र या भारत सरकार पर कैसे डाल सकते हैं। फिर समझने की बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की आबादी देश की एक प्रतिशत है और यहां भारत सरकार देश का 11 प्रतिशत बजट खर्च करती है। स्वायतत्ता की मांग जम्मू-कश्मीर को बदहाली, गुलामी की ओर धकेल रही है। भारत की जनता, विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी से इसे किसी भी हालत में कबूल नहीं कर सकती। जम्मू-कश्मीर अवाम की कोई आर्थिक राजनीतिक समस्या नहीं है। यह भारत के विरुद्ध प्रायोजित षडयंत्र है। इसका सीधा और सपाट समाधान यही है कि देश की हर जवान पर भारत प्रथम नेशन फर्स्ट का नारा और हौंसला हो।

भाजपा और कमल नाथ में जारी है नूरा कुश्ती

-लिमटी खरे

कांग्रेसनीत केंद्र सरकार में भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ और मध्य प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी में नूरा कुश्ती तेज हो गई है। कभी भाजपा की मध्य प्रदेश सरकार के लोक कर्म मंत्री दिल्ली जाकर मध्य प्रदेश को कमल नाथ द्वारा सबसे अधिक राशि देने के चलते कमल नाथ की शान में कसीदे पढ़ते हैं तो कभी सूबे के निजाम शिवराज सिंह चौहान द्वारा दिल्ली में ही पत्रकार वार्ता मध्य प्रदेश को सड़क के मामले में केंद्र द्वारा सबसे अधिक आवंटन दिए जाने की बात कहकर कमल नाथ का पक्ष लिया जाता है। इससे उलट चंद माहीनों के अंदर ही भारतीय जनता पार्टी के मध्य प्रदेश पादाधिकारियों की बैठक में मुख्यमंत्री और लोक कर्म मंत्री की उपस्थिति में यह निर्णय लिया जाता है कि चूंकि कमल नाथ द्वारा सड़कों के मामले में मध्य प्रदेश के साथ पक्षपात किया जा रहा है अतः भाजपा अब सड़कों पर उतरेगी! जनता के साथ भाजपा के कार्यकर्ता भ्रम में है कि वह मंत्रियों की बात को सच माने या फिर प्रदेश पदाधिकारियों की बैठक में लिए निर्णय को!, क्योंकि दोनों ही मामलात में मुख्यमंत्री उपस्थित थे। अब लगता है कि सड़क मंत्री से सड़क पर ही भिड़ेगी भाजपा।

भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ जिस भी विभाग के मंत्री रहे हैं, उन्होंने मध्य प्रदेश विशेषकर छिंदवाड़ा को अपने नेतृत्व वाले विभाग के मामले में पूरा समृद्ध किया है। पिछली मर्तबा वाणिज्य और उद्योग का उदहारण अगर छोड़ दिया जाए तब छिंदवाड़ा वासी हमेशा ही गर्व से कह सकते हैं कि उनका नेतृत्व कमल नाथ जैसा सशक्त व्यक्तित्व कर रहा है। वर्तमान में भूतल परिवहन मंत्रालय (इतिहास में पहली बार इस विभाग को कमजोर करने के लिए जहाजरानी मंत्रालय को इससे प्रथक किया गया है) का नेतृत्व करने वाले कमल नाथ ने अपने संसदीय क्षेत्र जिला छिंदवाड़ा में राष्ट्रीय राजमार्ग का जबर्दस्त जाल बिछाने का मास्टर प्लान तैयार कर लिया है। कहा तो यहां तक भी जा रहा है कि कमल नाथ चाहते हैं कि उनके संसदीय क्षेत्र जिला छिंदवाड़ा में विश्व का सबसे बड़ा चौगड्डा वह भी राष्ट्रीय राजमार्ग का स्थापित हो जाए ताकि लोगों की स्मृतियों में वे सदा ही बने रहें। नरसिंहपुर, नागपुर, ओबेदुल्ला गंज नागपुर, मुलताई सिवनी बालाघाट गोंदिया, आदि मार्गों को एनएच में तब्दील करवाने का काम इसी मंशा के तहत ही किया जा रहा लग रहा है।

इतना ही नहीं अटल बिहारी बाजपेयी सरकार की महात्वाकांक्षी परियोजना स्वर्णिम चतुर्भुज के अंग उत्तर दक्षिण फोरलेन गलियारे का काम बहुत ही दु्रत गति से जारी है। इस मार्ग में मध्य प्रदेश के सिवनी जिले से गुजरने वाली सड़क को भी शामिल किया गया था। इस काम को एनएचएआई के सुपरवीजन में करवाया जा रहा था। इसके लिए सिवनी में एक प्रोजेक्ट डायरेक्टर का कार्यालय भी स्थापित किया गया था, जिसमें पीडी की हैसियत से विवेक जायस्वाल की पदस्थापना की गई थी। पिछले कुछ दिनों से विवेक जायस्वाल सिवनी से लापता ही लग रहे हैं। उनका अधिक समय मध्य प्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में ही बीत रहा है। सिवनी का कार्यालय भी मृत प्राय ही पड़ा हुआ है। सड़क निर्माण का काम प्रत्यक्षतः कराने वाली मीनाक्षी कंस्ट्रक्शन कंपनी और सद्भाव कंस्ट्रक्शन कंपनी ने भी अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया है।

पिछले दिनों भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ ने अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश में सड़कों का जाल बिछाने की तैयारी कर ली थी। इसके अनुपालन में मध्य प्रदेश सरकार ने भी 1337.15 किलोमीटर लंबे 12 स्टेट हाईवे को नेशनल हाईवे में तब्दील करने का प्रस्ताव केंद्र के पास भेजा था, जिसे केंद्र ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस स्वीकारोक्ति के पीछे जनता का लाभ कम राजनैतिक बाध्यताएं ज्यादा दिखाई पड़ रही थी। मजे की बात तो यह है कि सदा ही एक दूसरे के लिए तलवारें पजाने वाली भाजपा और कांग्रेस के बीच पहली बार ही किसी मामले में एकमत दिखाई पड़ा। अन्यथा हर मामले में एक दूसरे की सरकारों पर लानत मलानत ही भेजी जाती रही हैं।

इसके बाद मध्य प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री ने दिल्ली में एक समारोह में केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की तबियत से तारीफ की और यहां तक कहा कि मध्य प्रदेश को सिर्फ और सिर्फ सड़कों के मामले में केंद्र से पर्याप्त सहयोग और समर्थन मिल रहा है। मध्य प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री के कथन के बाद मध्य प्रदेश की ओर से दिल्ली में बैठे जनसंपर्क महकमे के अधिकारियों ने भी एमपी के चीफ मिनिस्टर शिवराज सिंह और केंद्रीय राजमार्ग मंत्री कमल नाथ के बीच मुस्कुराकर बातचीत करने वाले छाया चित्र और खबरें जारी कर दीं। मजे की बात तो यह है कि बारंबार शिवराज सिंह चौहान ने भी कमल नाथ को एक उदार मंत्री होने का प्रमाण पत्र जारी किया है।

बुरदलोई मार्ग स्थित मध्य प्रदेश भवन में पत्रकारों से रूबरू मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब केंद्र पर भेदभाव का आरोप मढ़ा तब पत्रकारों से शिवराज से पूछा था कि उनके लोक निर्माण विभाग के मंत्री तो कमल नाथ के पक्ष में कोरस गा रहे हैं, तब चिढकर शिवराज ने कहा था कि लोक निर्माण मंत्री क्या वे (शिवराज सिंह चौहान) भी कमल नाथ से मिलते हैं और कमल नाथ मध्य प्रदेश की मदद कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके लोक निर्माण मंत्री द्वारा कांग्रेस नीत संप्रग सरकार में कांग्रेस के कोटे के मंत्री कमल नाथ द्वारा उदार भाव से अपने प्रदेश की भाजपा सरकार को मुक्त हस्त से मदद करने की बात जब फिजा में तैरी तो कमल नाथ की छवि दलगत राजनीति से उपर उठकर मदद करने वाले राजनेता की बन गई।

हो सकता है कि शिवराज – कमल नाथ की जुगलबंदी कांग्रेस और भाजपा के नेताओं को रास न आई हो और दोनों ही दलों के सियासतदारों ने मिलकर इस जुगलबंदी को तोड़ने का प्रयास कर दिया हो। वैसे हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कमल नाथ और शिवराज सिंह चौहान के बीच जो भी प्रसंग चल रहा था, वह धरातल से इतर कुछ और था, क्योंकि मध्य प्रदेश के राष्ट्रीय राजमार्गों के उड़े धुर्रे किसी से छिपे नहीं है। आज दूसरे प्रदेशों से मध्य प्रदेश में माल लाने पर ट्रांसपोटर्स भी आनाकानी ही करते हैं, इसका कारण प्रदेश की सड़कों की बुरी दशा ही माना जाएगा।

यह बात भी उतनी ही सच है जितना कि दिन और रात कि मध्य प्रदेश में केंद्रीय मदद से बनने वाली समस्त सड़कों में गुणवत्ता विहीन काम ही किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क परियोजना में ठेकेदारों ने जमकर तबाही मचाई है। अधिकारियों की मिलीभगत से सड़कों की बदहाली किसी से छिपी नही है। मीडिया कितना भी चीख चिल्ला ले, पर इन पर कोई कार्यवाही नहीं होना, शासक प्रशासक और ठेकेदार के बीच की जुगलबंदी को रेखांकित करता है।

मध्य प्रदेश में चल रहे कामां में ठेकेदारों ने कम समय में ज्यादा माल कमाने का तरीका खोज लिया है। इस काम में खतरे की गुंजाईश कम और माल पीटने की संभावनाए जबर्दस्त होती है। बड़े ठेकेदारों द्वारा एक साथ अनेक काम ले लिए जाते हैं फिर उसे छोटे ठेकेदारों के बीच बांट देते हैं। छोटे ठेकेदार अपने हिसाब से कम गुणवत्ता में काम निपटा देते हैं, बड़े ठेकेदारों द्वारा ‘‘मेनेज्ड‘‘ अधिकारियों द्वारा इसकी गुणवत्ता को प्रमाणित कर दिया जाता है। उपर से देखने पर यही प्रतीत होता है कि काम को बड़ा मूल ठेकेदार ही संपादित करवा रहा है।

सरकारी आंकड़े चाहे जो कहंे पर हकीकत यह है कि आज मध्य प्रदेश में एक हजार और पांच सौ से अधिक की आबादी वाली बसाहटों की तादाद 16 हजार 894 है जिनमें से पांच सौ से ज्यादा आबादी वाली 3 हजार बासठ तो एक हजार से ज्यादा आबादी वाली पांच हजार दो सौ पच्चीस इस तरह कुल आठ हजार दो सौ सत्यासी गांव ही जुड सके हैं सड़कों से। देखा जाए तो सेंट्रल एडेड स्कीम के बावजूद भी पचास फीसदी गांव इससे नहीं जुड़ सके हैं, और जो गांव जुड़े भी हैं उनमें सड़कों की गुणवत्ता एकदम घटिया है। जब भी जांच दल निरीक्षण के लिए जाता है, विभाग के कमीशनखोर अधिकारी कर्मचारियों द्वारा ठेकेदार को चेता दिया जाता है और जगह जगह गड्ढों को भर दिया जाता है। इसके उपरांत जब निरीक्षण दल आता है तब उसकी सेवा टहल में ठेकेदार नतमस्तक हो जाता है। निरीक्षण दल द्वारा भी अपनी अंटी में माल भरकर औपचारिकताएं पूरी कर रवानगी डाल दी जाती है।

बहरहाल मध्य प्रदेश में हाल ही में प्रदेश पादाधिकारियों बैठक में एक निर्णय लिया जाकर सभी को चौंका दिया गया है। राज्य के राष्ट्रीय राजमार्गों के रखरखाव के लिए कंेद्र से मिलने वाली राशि के बंद करने के विरोध में भाजपा ने उन्हीं राजमार्ग मंत्री कमल नाथ जिनकी तारीफ करते मुख्यमंत्री और सूबे के लोक निर्माण मंत्री नहीं थकते हैं, के खिलाफ सड़कों पर उतरने का फैसला कर लिया है। देखा जाए तो इन सड़कों के रखरखाव की जवाबदारी केद्र सरकार की है क्योंकि नेशनल हाईवे के नोटिफिकेशन के उपरांत ये केंद्र सरकार की संपत्ति हो जाती है।

भाजपा का कहना है कि वह 5 से 7 अक्टूबर तक नेशनल हाईवे पर पड़ने वाले कस्बों और ग्रामों में हस्ताक्षर अभियान चलाएगी फिर 22 से 24 अक्टूबर तक इन्ही ग्रामों में मानव श्रंखला बनाई जाने के उपरांत 10 नवंबर को भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष 10 नवंबर को प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपेंगे। भाजपा के इस निर्णय से कमल नाथ और भाजपा के बीच नूरा कुश्ती और तेज हो गई है, इसका कारण यह है कि भाजपाध्यक्ष प्रभात झा इन दिनों प्रदेश के दौरे पर हैं, वे राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे अवस्थित जिला, तहसील, विकासखण्ड मुख्यालयों के अलावा गांवों और कस्बों से भी विचर रहे हैं और उन्होंने कहीं भी अपने कार्यकर्ताओं को प्रदेश पदाधिकारियों के इस महत्वपूर्ण निर्णय की जानकारी देकर इसे सफल बनाने का आव्हान नहीं किया है। आश्चर्य तो इस बात पर हो रहा है कि प्रभात झा खुद भी सड़क मार्ग से गुजर रहे हैं, और सड़कों पर हिचकोले खाती चलती उनकी आलीशान विलासिता पूर्ण गाड़ी के बाद भी उनकी तंद्रा नहीं टूट पा रही है।

जब मध्य प्रदेश में सत्ताधारी और केंद्र में विपक्ष में बैठी भाजपा का आलम यह है तो गरीब गुरबों की कौन कहे, वह भी तब जबकि लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की आसनी पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा सालों साल सींची गई मध्य प्रदेश की विदिशा संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीती सुषमा स्वराज विराजमान हों, तब भी मध्य प्रदेश की सड़कें इस तरह से बदहाल हो रही हो, केंद्र के मंत्री मध्य प्रदेश के साथ अन्याय कर रहे हों, इस अन्याय के बाद भी पता नहीं किस बात से उपकृत मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और सूबे के लोक निर्माण मंत्री दोनों ही केंद्र सरकार को कोसकर भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ की तारीफों में तराना गा रहे हों, साथ ही साथ भाजपा द्वारा कमल नाथ के द्वारा प्रदेश के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने के आरोप में सड़कों पर उतरने की बात की जाए तो यह तथ्य निश्चित तौर पर शोध का ही विषय माना जाएगा।

भाजपा की दो तरह की नीतियों के कारण अब जनता के साथ भाजपा कार्यकर्ताओं में भी भ्रम का वातावरण बनना लाजिमी है कि वे शिवराज सिंह चौहान के कथनों पर यकीन कर भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ को ‘‘दानवीर कर्ण‘‘ की संज्ञा दें, या भाजपा के प्रदेश पदाधिकारियों के निर्णय से कमल नाथ और शिवराज की जुगलबंदी को ‘‘बाबा भारती और खड़ग सिंह‘‘ की कहानी से जोड़ें, या फिर लंबे समय से हो रही प्रदेश के राष्ट्रीय राजमार्गों की दुर्दशा को देखने के बाद उनकी तुलना ‘‘महाराज ध्रतराष्ट्र‘‘ से करने की सोचें?

हिन्दुओं के मार्ग से विघ्न हरिये, गणेशजी !

– डॉ. प्रवीण  तोगड़िया

भारत के कई राज्यों में अब गणेश उत्सव की धूम होगी। जहां बड़े प्रमाण में उत्सव नहीं मनाया जाता, वहां भी इन दिनों में गणेश की पूजा-अर्चना की जाती है। भाद्रपद चतुर्थी से 10 दिन काशी में भी विनायकों के विविध मंदिरों में उन्हें दूर्वा, रक्तवर्ण पुष्प चढ़ाकर पूजा की जाती है। इन्दौर में बड़े गणेशजी सज-धज कर भक्तों की मनोकामना पूर्ण करते हैं तो दक्षिण में बेंगालुरु से लेकर कुंभकोणम् तक अतिप्राचीन गणेशों के अभिषेक, हवन किए जाते हैं। उन्हें उत्तर में लड्डू, पश्चिम और दक्षिण में मोदक और पूर्व में गुड़ डाला हुआ संदेश (बंगाली मिठाई) के भोग चढ़ाए जाते हैं !

काशी में हर दिशा में 7-7 विनायक ऐसे 56 विनायक अष्ट दिशाओं में हैं और उनकी यात्रा ‘56 विनायकांे की यात्रा’ इस नाम से जानी जाती है। बाह्य आवर्तन, अंतर आवर्तन, ऐसी यह यात्रा कठिन है किन्तु काशी के पंडित शर्माजी, पालंदेजी ऐसे और अन्य कई लोग स्वयं भी यह यात्रा करते हैं और भक्तों को भी कराते हैं। उच्च शिक्षा विभूषित, अच्छे ओहदों पर बैठे हुए धर्मप्रवण भक्त इन यात्राओं में सम्मिलित होते हैं। आज के जमाने में जब भगवान् का नाम लेना, पूजा करते दिखना, धर्म के बारे में श्रद्धा रखना, ये सब ‘डाउन मार्केट’ माना जाता है और अनेक सेकुलर मीडिया वाले हिन्दुओं की श्रद्धा का मजाक उड़ाते रहते हैं, उसी आज के जमाने में अतिप्राचीन काल से चली आयी ये यात्राएं हमारे धर्म की शान हैं ! इसी प्रकार महाराष्ट्र और विदर्भ में अष्ट विनायकों की यात्रा है, यात्रा कम्पनियां बसें, गाड़ियां लेकर भक्तों को 8 गणेशों के दर्शन कराती हैं और भक्त लाखों की संख्या में उनमें सम्मिलित होकर अपने जीवन में आए विघ्न दूर करने की प्रार्थना गणेशजी से करते हैं।

आज समय की माँग है कि हर हिन्दू अपने मन में, अपने घरों में, मंदिरों में भगवान् गणेशजी को नमस्कार करे और उनसे वरदान मांगे कि कलियुग में हिन्दू धर्म पर बहुत अत्याचार हो रहे हैं, विगत चौदहवीं शताब्दी से तो इनकी हद हो गयी है, सप्तद्वीपा अश्वक्रान्ति, रथक्रान्ति, विष्णुक्रान्ति ऐसी हमारी वसंुधरा पृथ्वी जहां हर घर से, हर गली से, हर नुक्कड़ से, हर मंदिर से धूप, चंदन की सुगंध आती थी वहां आज यह हिन्दुओं की धरा कुछ छोटी भौगोलिक सीमाओं में सीमित हो गयी है, जिसे आज भारत कहा जाता है ! इस भारत में भी आज हिन्दुओं पर महाभयंकर अत्याचार हो रहे हैं ! हमारी पवित्र गौ माता पश्चिम से पूर्व तक और उत्तर से दक्षिण तक काटी जा रही है और इफ्तार पार्टियों में परोसी जा रही हैं ! मंदिरों में पूजा अभिषेक कर रात्रि में सोये हुए हमारे साधु-संत, पुजारी, मंदिरों की रक्षा करनेवाले सुरक्षाकर्मी इनकी निर्मम हत्याएं हो रही हैं और सरकारें हैं कि हत्यारे जालीवाली टोपीवाले हैं इसीलिए उन्हें बचा रही हैं ! काश्मीर में पथराव करनेवाले जिहादियों पर स्वयं को बचाने के लिए गोली चलानेवाले पोलिस, सेना के जवानों के विरुद्ध गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाने वाले मीडिया वाले हिन्दुओं की इन हत्याओं के बारे में षडयन्त्र जैसे लगे इतने सुनिश्चित तरीके से चुप रहते हैं !

इन सब विघ्नों के हर्ता गणेशजी, जागो, गणेशजी ! आप जहां-जहां हो- काशी के 56 विनायकों के मंदिरों में, काशी के विविध घाटों के पेड़ों तले पड़े हुए (यह सत्य है ! 56 विनायकों में से काल विनायक एक घाट के सीढ़ियों के पास एक वृक्ष के अन्दर बिना मंदिर बैठे हैं ! सब को वरदान देने वाले काशी के वरद विनायक प्रहलाद घाट पर एक घर के बाहर बैठे हैं – वे भी बिना छप्पर !) गणेशजी, हिन्दुओं को अधर्मियों से, धर्मद्रोहियों से बचा लो ! हिन्दू डरकर चुप नहीं बैठा है ! कहा जाता है, जो स्वयं श्रद्धा रखता है, जितना हो सके उतना अधर्म का प्रतिकार भी करता है, उसकी रक्षा भगवान् करते हैं – अब तक जो दिखता है, उनसे समझ में आता है कि यह सत्य भी है – लेकिन गणेशजी, अब सरकारों की हिन्दूद्रोही नीतियां, हिन्दुओं को दबाकर मुस्लिम मतों को खुश करने के लिए बनाए हुए अन्यायकारक कानून, धर्म परिवर्तन के लिए आक्रामक होता जा रहा दुनिया का पश्चिमी हिस्सा, हिन्दुओं के विरुद्ध हर जगह हो रहे जिहादी हमले इन सबके तले आज हिन्दू दब रहा है, अपने भी बेगाने होकर सेकुलर बनकर हिन्दुओं को दबा रहे हैं ! गणेशजी, अपनों को सद्बुद्धि दें और धर्म के शत्रुओं द्वारा हिन्दुओं के विरुद्ध खड़े किए गए विघ्नों का, अन्यायों का विनाश करें !

गणेशजी, हर मंदिर में पहली पूजा का मान आपका होता है, हर हवन में पहली पूजा आपकी होती है ! आज हमारे भगवान् राम अयोध्या में उनके अपने जन्मस्थल पर ही उनके अपने मंदिर के लिए उन्हें लगभग साढ़े 400 वर्ष लड़ाई करना पड़ रहा है ! हिन्दू डट कर खड़ा है, 4,00,000 लक्ष हिन्दू मारे गए – भगवान् राम को उनके अपने जन्मस्थान पर भव्य मंदिर फिर से देने के लिए – जो मंदिर जिहादी बाबर ने हिन्दुओं को दबाने के लिए तोड़ा था और वहां एक घिनौना विकृत ढांचा खड़ा किया था ! आज भारत स्वतंत्र होकर 63 वर्ष हुए, गणेशजी, भगवान् राम को भारत के संविधान की पुस्तक में राष्ट्रपुरुष का सम्मान दिया हुआ है, लेकिन वही रामलला आज उनकी अपनी अयोध्या में कपड़े के तम्बू में बैठे हैं – राह देख रहे हैं कि इस देश के कानून बनानेवाले, देश चलानेवाले इतना तो समझें कि कभी मेरी अपनी जन्मस्थली पर उन कानून विशारदों के पूर्वजों ने भी पूजा-अर्चना की होगी !

गणेशजी उन सबको सारासार विवेक और सुबुद्धि दें कि हिन्दुओं के लिए ना ही सही, लेकिन भगवान् राम के लिए और उनके अपने पूर्वजों के लिए ही सही, अयोध्या में भगवान् राम के जन्मस्थान पर ही भव्य मंदिर बने, इस प्रकार से वे कोई सत्कार्य करें ! हर हिन्दू आज हनुमानजी का जागरण कर भगवान् राम के मंदिर के लिए प्रार्थना कर ही रहा है, गणेशजी ! मध्यप्रदेश में, विदर्भ में हनुमानजी के साथ आपको स्थापित करने की परंपरा हमने देखी है – अब गणेशजी ! आपके पवित्र उत्सव के 10 दिनों के दौरान ही हमारे भगवान् राम को मंदिर मिलेगा या नहीं इसका निर्णय न्यायालय करेंगे ! जो भगवान् राम अपने सत्यवादी न्याय के लिए जाने जाते थे, उनका न्याय आज भारत का लोकतंत्र और भारत के न्यायालय करेंगे ! गणेशजी ! कलियुग के इस खेल पर हिन्दू तो दुःखी, क्रोधित है ही, लेकिन गणेशजी आपके तो अनेक रूप हैं! वरदान देते हैं – वरद विनायक-राम मंदिर का वरदान दें ! सिद्धि विनायक मनोकामना सिद्ध करते हैं – हिन्दू आस लगाए बैठा है सदियों से अयोध्या के लिए – सिद्ध करें उनकी मनोकामना ! धूम्र राक्षस का वध किया था गणेशजी आपने ! आज जब हिन्दू कानूनों से बंधा है, तब सबके मन के राक्षसी प्रवृत्तियों को समाप्त करें गणेशजी ! चिन्तामणि हो ना ? तो हिन्दुओं की हर चिन्ता का विनाश करें, गणेशजी – हिन्दू कितने तन-मन-धन से आपकी पूजा करते हैं ! कई जगहों पर – उज्जैन में, पुणे में, काशी में दशभुज भी हो आप, गणेशजी, आपकी भुजाआंे में कितने प्रबल शस्त्र हैं ! आज लोकतंत्र में हिन्दुओं के हाथ में दो ही शस्त्र हैं – मत और लोकतांत्रिक आन्दोलन ! हर हिन्दू मत देता नहीं, देकर जिसको चुन कर लाता है, वे मंदिरों, गायों, हिन्दुओं की सुरक्षा इन सबको ‘डाउन मार्केट’ कहकर विकास के लिए हिन्दू किसानों की भी खेती और हिन्दुओं की नौकरियां छीन लेते हैं !

अब गणेशजी, आप ही हो, हिन्दुओं की रक्षा करनेवाले ! आपके पूज्य पिताजी शिवजी का पवित्र मास श्रावण अभी-अभी हिन्दुओं ने धूम से, भक्ति से मनाया है, अब यह आपकी पूजा का समय है, फिर दुर्गा देवी मां के शारदीय नवरात्र आयेंगे, उत्तर में तो मां के चैत्र नवरात्र में नव गौरी और नव दुर्गा के पूजन हिन्दुओं ने इसी आस्था से किए थे कि हिन्दुओं पर आया हुआ कठिन समय अब हमेशा के लिए चला जाए! भगवान् कार्तिकस्वामी ने-गणेशजी, आपके ज्येष्ठ बंधु ने-तारकासुर का वध इसीलिए किया था क्योंकि यह असुर देवों को और संतों को सताता था और दार-उल-इस्लाम की तरह पृथ्वी को तारकासुर का राज्य बनाने निकला था ! अब गणेशजी, हिन्दुओं की रक्षा का जिम्मा आप पर ही तो है ना? हम सब हैं ही जो धर्म के लिए अपना-अपना घर-बार त्याग कर निकले हैं ! हमारे हाथ प्रबल करना और शत्रुओं को सुबुद्धि देना (ना आये सुबुद्धि तो उन्हें सजा प्रदान करना !) यह तो गणेशजी, आप नहीं करोगे ?

अयोध्या में भगवान् राम का भव्य मंदिर बनेगा तब गणेशजी, आप भी मंदिर में विराजमान होंगे ! हर मंदिर में, हर कार्य में, हर हवन में आपको ही प्रथम पूजा का मान है ! आइए गणेशजी ! इस गणेश उत्सव में अपनी युक्ति, बुद्धि और शक्ति हिन्दुओं को प्रदान करें और हिन्दुओं के विघ्न हर लें !

बाबरी मस्जिद विवाद : फ़ैसले पर नज़र

-फ़िरदौस ख़ान

अयोध्या की बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि मंदिर के मुद्दे को लेकर एक बार फिर देश की सियासत गरमाने लगी है। जहां भारतीय जनता पार्टी अपने इस ‘प्रिय’ मुद्दे को भुनाने की कवायद में जुटी है, वहीं उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार किसी अनिष्ट की आशंका को लेकर चिंतित हैं। अदालत का फ़ैसला जो भी रहे, लेकिन इतना तय है कि उसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील ज़रूर की जाएगी और इसका सीधा असर देश के सियासी और सामाजिक ढांचे पर पड़ेगा। यह मुक़दमा देश के इतिहास में सबसे ज़्यादा सियासी उठक-पटक मचाने वाला रहा है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो पहले ही कह दिया है कि राम जन्मभूमि मंदिर के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। विहिप नेता आचार्य धर्मेन्द का कहना है कि अगर अदालत का फ़ैसला हिन्दुओं के ख़िलाफ़ आता है तो उसे नहीं माना जाएगा, क्योंकि यह धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है। हर हिन्दू मानता है कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ था। उन्होंने सवाल किया कि मुसलमानों ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला क्यों स्वीकार नहीं किया? ग़ौरतलब है कि शाहबानो मामले में मुसलमानों ने यह कहकर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला मानने से इंकार कर दिया था कि उनके लिए शरीयत ही ‘सर्वोपरि’ है।

संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होकर रहेगा। राम मंदिर करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का मामला है। हम यह सुनिश्चित करेंगे कि राम मंदिर आम सहमति से बने या फिर संघर्ष के ज़रिये बने। उन्होंने कहा कि आज़ादी के वक्त से ही अधिकांश हिन्दुओं की मांग है कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो। ऐतिहासिक और पुरातात्विक साक्ष्य भी यह साबित करते हैं कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर था। उनका यह भी कहना है कि अदालत ऐसे मुद्दों को हल नहीं कर सकती। वहीं, विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल ने कहा है कि राम मंदिर के ख़िलाफ़ अदालत का फ़ैसला उन्हें मंज़ूर नहीं होगा। संघ के इशारे पर भाजपा ने भी कहा है कि पार्टी सबकुछ छोड़ सकती है, लेकिन राम को कभी नहीं छोड़ेगी। पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह का कहना है कि राम भारतीय राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति की पहचान हैं। इसलिए राम को छोड़ने का तो सवाल ही नहीं। उन्होंने कहा कि राम के जन्म स्थान के बारे में कोई विवाद नहीं है और भगवान राम का मंदिर राम जन्मभूमि पर ही बनना चाहिए। सनद रहे भाजपा की सियासत राम जन्मभूमि जैसे सांप्रदायिक मुद्दों के बूते ही चलती है।

अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि मंदिर के प्रधान पुजारी आचार्य सतेंद्र दास का कहना है कि अदालत के फ़ैसले को हिन्दू और मुसलमानों दोनों को ही स्वीकार कर लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिस पक्ष के ख़िलाफ़ फ़ैसला होगा, वही सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करेगा। हाईकोर्ट का फ़ैसला आने में 60 साल लग गए। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने में 40 साल लग जाएंगे। इसलिए बेहतर है कि इस मुद्दे को आपसी सहमति से यहीं ख़त्म कर दिया जाए। उन्होंने अफ़सोस जताते हुए कहा कि कुछ साधु और सियासी दल अपने निजी स्वार्थ के चलते नहीं चाहते कि इस समस्या का समाधान निकले। उन्होंने कहा कि यह मुद्दा आस्था का नहीं, बल्कि स्वामित्व का है। फ़ैसले इस बात का होना है कि विवादित भूमि राम मंदिर की है या बाबरी मस्जिद की। इसे आस्था से जोड़ने की बात करने वाले लोग जनता को उकसाकर वोटों की राजनीति कर रहे हैं।

मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लमीन (एमआईएम) के अध्यक्ष व सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि अगर बाबरी मस्जिद मामले में फ़ैसला मुसलमानों के हक़ में नहीं आया तो वह शांति बनाए रखेंगे और सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाएंगे। साथ ही उन्होंने कहा कि हमें यक़ीन है कि फ़ैसला मस्जिद के हक़ में ही आएगा। अदालत का फ़ैसला आने पर ख़ुशियां मनाने की ज़रूरत नहीं है। हमें आत्ममंथन करना होगा कि हम अपनी मस्जिदों की हिफ़ाज़त के लिए पुख्ता इंतज़ाम कर रहे हैं या नहीं। उन्होंने कहा कि वहां कभी मंदिर था ही नहीं। वहां तो मस्जिद थी, इसके बावजूद संघ परिवार ने उसे सरेआम ध्वस्त कर दिया।

हालांकि हिन्दू और मुस्लिम संगठनों ने फैसले से पहले ही माहौल बनाना शुरू कर दिया है। बाबरी एक्शन कमेटी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर मदद की गुहार लगाई है। पत्र में कमेटी के अध्यक्ष जावेद हबीब ने प्रधानमंत्री से सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम करने की अपील की है, ताकि अदालत के फ़ैसले के बाद कोई हिंसक वारदात न हो। देश के कई सियासी दलों और सामाजिक संगठनों ने हिन्दू और मुसलमानों से अदालत के फ़ैसले का सम्मान करते हुए आपसी सौहार्द्र बनाए रखने की अपील की है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के महासचिव प्रकाश करात ने कहा है कि दोनों पक्षों को अदालत के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी शुरू से ही इस मसले का अदालत के ज़रिये किए जाने की बात करती रही है।

उधर, चारों पीठ के शंकराचार्यों ने कहा है कि मंदिर के पक्ष में फ़ैसला आने पर वे ऐसा कोई काम नहीं करेंगे, जिससे मुसलमान आहत हों। माना जा रहा है कि मंदिर के पक्ष में फ़ैसला आने पर हिन्दुत्ववादी संगठन इसे अपनी बहुत बड़ी विजय के तौर पर प्रचारित करेंगे और देशभर समारोह आयोजित किए जाएंगे। उनके इन आयोजनों से देश का चैन-अमन प्रभावित हो सकता है। ग़ौरतलब है कि बाबरी मस्जिद की शहादत के दिन छह दिवस को हिन्दू संगठन शौर्य दिवस के रूप में मनाते हैं, जबकि मुसलमान इस दिन काला कपड़ा बांधकर शोक प्रकट करते हैं।

अदालत का फ़ैसला आने से पहले ही मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए अयोध्या और फ़ैज़ाबद में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई है। पिछली बार के अयोध्या दंगे से सबक़ लेते हुए इस प्रशासन ने गांवों तक में सुरक्षा बलों को तैनात करने का फ़ैसला किया है। इस बार हर ज़िले में संवेदनशील गांवों को चिन्हित करके वहां विशेष निगरानी करने के निर्देश दिए गए हैं। हर गांव में कम्युनिटी पुलिसिंग कार्यक्रम शुरू करने और सभी स्तर के सरकारी कर्मचारियों की मदद लेने का भी फ़ैसला किया गया है। इसके लिए कम्युनिकेशन प्लान बनाकर गांवों को जोड़ा जा रहा है। प्रदेश के अपर पुलिस महानिदेशक (क़ानून एवं व्यवस्था) बृजलाल के मुताबिक़ केंद्र सरकार ने फ़िलहाल प्रदेश को सीआरपीएफ़ की 40 कंपनियां आवंटित की हैं, जबकि राज्य में पहले से ही पीएसी की 150 कंपनियां तैनात कर दी गई हैं। सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने के लिए इस्तेमाल होने वाले ज़रूरी उपकरणों- रबड़ की गोलियों, आंसू गैस के गोलों, लाठियों और अंगरक्षक उपकरणों की सभी ज़िलों में समुचित उपलब्धता सुनिश्चित की जा रही है। प्रदेश के 700 पुलिस थानों पर वायरलेस से जुड़े जनसंबोधन प्रणाली स्थापित की जा रही है, ताकि पुलिस का जनता से सीधा संवाद बना रहे। उन्होंने कहा कि शांति और सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखने के लिए जनता और समाज में प्रभाव रखने वाले लोगों की भी मदद ली जाएगी।

ग़ौरतलब है कि विवादित परिसर के आसपास रेड जोन में सीआरपीएफ़ की पांच कंपनियां तैनात की गई हैं, जबकि दूसरे सुरक्षा चक्र यानी येलो ज़ोन में पीएसपी की सात कंपनियां, ग्रीन ज़ोन यानी फ़ैज़ाबाद में पीएसी की तीन और सीआरपीएफ़ की एक कंपनी को रिज़र्व रखा गया है। साथ ही फ़ैज़ाबाद के 54 स्कूलों और कॉलेजों को अस्थाई जेलों के लिए चुना गया है। इसके अलावा देश के क़रीब 300 शहरों व क़स्बों को अति संवेदनशील मानते हुए वहां निगरानी की जा रही है।

हालांकि भाजपा नेताओं ने सरकार के इस क़दम की आलोचना की है। उनका कहना है कि ऐसा करके सरकार हौवा खड़ा कर रही है। ग़ौरतलब है कि हिन्दू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने अयोध्या में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है, जिससे अयोध्यावासी दहशत में हैं। जैसे-जैसे अदालत के फैसले की तारीख़ क़रीब आती जा रही है, वैसे-वहां यहां के माहौल में तनाव बढ़ रहा है। लोगों ने अपने घरों में राशन इकट्ठा करना शुरू कर दिया है। अयोध्या के बाशिंदे चैन-अमन से रहना चाहते हैं। जमशेद का कहना है कि दिसंबर 1992 में मस्जिद शहीद करने पहुंचे लाखों कारसेवकों की वजह से यहां का आम जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ था। शहर के कई मुस्लिम परिवार अपने रिश्तदारों के पास दूसरे इलाक़ों में जा रहे हैं, जबकि कुछ लोगों का कहना है कि जो भी हो वे अपना घरबार नहीं छोड़ सकते।

क़ाबिले-ग़ौर है कि साल 1528 अयोध्या में बादशाह बाबर ने इस मस्जिद को बनवाया था। बाबर के नाम पर ही इस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद पड़ा। कुछ हिन्दुओं का मानना था कि इस जगह राम का जन्म हुआ था। मस्जिद के निर्माण के क़रीब तीन सौ साल बाद 1853 में यहां सांप्रदायिक दंगा हुआ। इस विवाद को हल करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने 1859 में मस्जिद के पास बाड़ लगा दी और मुसलमानों से मस्जिद के अन्दर नमाज़ पढने को कहा, जबकि बाहरी हिस्से में हिन्दुओं से पूजा-पाठ करने को कहा गया। साल 1947 में देश के बंटवारे के वक्त माहौल काफ़ी खराब हो गया था। साल 1949 में अचानक मस्जिद में कथित तौर पर राम की मूर्तियां कथित तौर पाई गईं। माना जाता है कि कुछ हिंदुओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाईं थीं, क्योंकि अगर मूर्तियां वहां होती तो वो 1859 में जब ब्रिटिश हुकूमत ने मामले को हल करने की पहल की थी, तब भी नज़र आतीं। मुसलमानों ने इस बात का विरोध किया। उनका कहना था कि हिन्दू पहले से ही मस्जिद के बाहरी हिस्से में पूजा-पाठ करते आ रहे हैं और अब वो साजिश रचकर उनकी इबादतगाह पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं। विरोध बढ़ा और नतीजतन मामला अदालत में चला गया। इसके बाद सरकार ने बाबरी मस्जिद को विवादित स्थल घोषित करते हुए इस पर ताला लगा दिया।

इसके बाद हिन्दुत्ववादी संगठनों ने इस मुद्दे को लेकर खूब सियासी रोटियां सेंकी। सबसे पहले 1984 में विश्व हिंदू परिषद ने बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। बाद में भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी को इसका नेतृत्व सौंप दिया गया। इस मुद्दे के सहारे आडवाणी ने अपने सियासी हित साधने शुरू कर दिए। 25 सितंबर 1992 को सुबह सोमनाथ के मंदिर से अपनी रथ यात्रा शुरू की, जो 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को तोड़ने के साथ ही ख़त्म हुई। इस दिन भाजपा, विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने देश की एक ऐतिहासिक इबादतगाह को शहीद कर दिया था। इसके बाद जिसके बाद पूरे देश में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे और इन दंगों ने दो हज़ार से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली। इतना कुछ होने के बाद भी हिन्दुत्ववादी संगठनों ने अपना रवैया नहीं बदला। साल 2001 में बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर पूरे देश में तनाव बढ़ गया और जिसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण करने के अपना संकल्प दोहराया। हालांकि फ़रवरी 2002 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणा-पत्र में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया। विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू करने की घोषणा कर दी। सैकड़ों कार्यकर्ता अयोध्या में एकत्रित हुए. अयोध्या से लौट रहे कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे, उसमें आग लगने से 58 लोग मारे गए। इसके बाद गुजरात में हिंसा भड़क उठी और एक विशेष समुदाय के लोगों को चुन-चुनकर मारा गया। इस मामले में गुजरात की भाजपा सरकार और पुलिस पर सीधे आरोप लगे हैं और मामला अदालत में है।

इसके बाद 13 मार्च 2002 सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखने का आदेश देते हुए कहा कि किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीन पर शिलापूजन की अनुमति नहीं दी जाएगी। दो दिन बाद 15 मार्च, 2002 को विश्व हिंदू परिषद और केंद्र सरकार के बीच इस बात को लेकर समझौता हुआ कि विहिप के नेता सरकार को मंदिर परिसर से बाहर शिलाएं सौंपेंगे। रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल के नेतृत्व में लगभग आठ सौ कार्यकर्ताओं ने सरकारी अधिकारी को अखाड़े में शिलाएं सौंपीं। 22 जून, 2002 विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि के हस्तांतरण की मांग उठाकर इसे हवा दी। जनवरी 2003 में रेडियो तरंगों के ज़रिए ये पता लगाने की कोशिश की गई कि क्या विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर के नीचे किसी प्राचीन इमारत के अवशेष दबे हैं, मगर कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकला। हालांकि इस मामले में कई तरह की अफवाहें फैलाई गईं। मार्च 2003 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से विवादित स्थल पर पूजा-पाठ की अनुमति देने का अनुरोध किया, जिसे कोर्ट ने ठुकरा दिया। अप्रैल में इलाहाबाद हाइकोर्ट के निर्देश पर पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की। जून तक खुदाई चलने के बाद आई रिपोर्ट में कोई नतीजा नहीं निकला। मई में सीबीआई ने 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी सहित आठ लोगों के ख़िलाफ़ पूरक आरोप-पत्र दाखिल किए। जून में कांची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की और उम्मीद जताई कि जुलाई तक अयोध्या मुद्दे का हल निकाल लिया जाएगा, लेकिन नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’ रहा। अगस्त में भाजपा नेता और उप प्रधानमंत्री ने विहिप के इस अनुरोध को ठुकराया कि राम मंदिर बनाने के लिए विशेष विधेयक लाया जाए। इसके एक साल बाद अप्रैल 2004 में आडवाणी ने अयोध्या में अस्थायी राममंदिर में पूजा की और मंदिर निर्माण के अपने संकल्प को दोहराया। फिर जनवरी 2005 में आडवाणी को बाबरी मस्जिद की शहादत में उनकी भूमिका के मामले में अदालत में तलब किया गया। जुलाई में पांच हथियारबंद लोगों ने विवादित परिसर पर हमला किया। जवाबी कार्रवाई में पांचों हमलावरों समेत छह लोग मारे गए। इसके कुछ दिन बाद 28 जुलाई को आडवाणी बाबरी मस्जिद की शहादत के मामले में रायबरेली की अदालत में पेश हुए। अदालत में लालकृष्ण आडवाणी के ख़िलाफ़ आरोप तय किए। इसके एक साल बाद 20 अप्रैल 2006 में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने लिब्रहान आयोग के समक्ष लिखित बयान में आरोप लगाया कि बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना सुनियोजित षडयंत्र का हिस्सा था और इसमें भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल और शिवसेना के कार्यकर्ता शामिल थे। जुलाई में सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल पर बने अस्थाई राम मंदिर की सुरक्षा के लिए बुलेटप्रूफ़ कांच का घेरा बनाए जाने का प्रस्ताव रखा। 30 जून को बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की जांच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्षों के बाद अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। 23 नवंबर 2009 को एक अंग्रेजी अख़बार में आयोग की रिपोर्ट लीक होने की ख़बर प्रकाशित हुई जिस पर संसद में खूब हंगामा हुआ। गत 26 जुलाई 2010 को इस मामले की सुनवाई पूरी हो गई और अदालत ने इस मामले में संबध्द सभी पक्षों को सुनने के बाद अपना फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था। अब फ़ैसला 24 सितंबर को सुनाया जाएगा। मुक़दमे के दौरान दोनों पक्षों के क़रीब 88 गवाहों ने अपनी शहादतें दर्ज करवाईं। इसके अलावा कई क्विंटल दस्तावेज़ी सबूत पेश हुए, जिनमें ज़रूरी काग़ज़ात, किताबें, वीडियो सीडी आदि शामिल थीं। इस मामले को लेकर भारतीय जनता पार्टी सहित संघ से संबध्द नेताओं पर गंभीर आरोप लगे हैं। साथ ही बाबरी मस्जिद की शहादत को लेकर केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठ चुके हैं।

बहरहाल, अदालत का फ़ैसला कुछ भी हो, लेकिन इतना ज़रूर है कि वह सियासी दलों के समीकरणों को ज़रूर प्रभावित करेगा। इस मुद्दे ने कई राजनीतिज्ञों को कुछ वक्त क़े लिए अर्श पर पहुंचाया है तो बाद में फ़र्श पर भी ला पटका है।

पाकिस्तान को सबक सिखाना पड़ेगा

-डॉ. सी पी राय

ऐसे नाजुक मौके पर जब भारत राष्ट्रमंडल खेल पूरी शान से कराने के संकल्प को सच साबित करने में जुटा हुआ है और यह आयोजन देश की प्रतिष्ठा से जुड़ गया है, दिल्ली में विदेशी पर्यटकों पर गोली चलाकर देश विरोधी ताकतों ने फिर से हमारी ताकत को, साहस को और सहन शक्ति को चुनौती दी है। लगता है कि वे भारत को कड़े कदम उठाने के लिए ललकार रहे हैं| ये सारी वारदातें कहाँ से संचालित होती है, कहाँ षड़यंत्र रचे जाते हैं और इन बदमाशों को कहाँ से हथियार मिलते हैं, यह सबको पता है| चंद सिक्कों के बदले मरने और मारने के लिए ये लड़ाके कौन भेजता है, यह भी किसी से छिपा नहीं है| भारत को अस्थिर बनाने की सारी योजनायें पाकिस्तान में बनती हैं और वही हमारी विश्व में बढ़ती प्रतिष्ठा से घबरा कर साजिशें रचता रहता है|

अमरीका भी इन मामलों में उसी से दोस्ती निभाता है| वह एक तरफ आतंकवाद से लड़ने की बात करता है और इसी छद्म संकल्प की आड़ में कभी इराक तों कभी अफगानिस्तान में फ़ौज उतार देता है पर दूसरी तरफ आतंकवाद की फसल उगाने और उसके लिए खाद पानी का इंतजाम करने के लिए आतंकवाद के जनक पाकिस्तान को अरबों डालर की हर साल मदद भी देता है। अमरीका कि यह दोगली नीति उसे भी खोखला कर रही है| वह भी एक बड़ा आतंकवादी हमला झेल चुका है, जिसमें उसका गर्व-स्तम्भ भरभरा कर ढह गया और उसकी सुरक्षा की सारी व्यवस्थाएं धरी की धरी रह गयी।आतंकवादियों ने उसी का जहाज इस्तेमाल किया और उसका गरूर भी तोड़ दिया, उसकी सत्ता को प्रबल चुनौती दे डाली| खुद अमरीकी रपट बताती है कि उस वक्त किस तरह सारे हुक्मरान जमीन के नीचे बनी खंदको में छुप गए थे।पर उसे अभी भी ठीक से होश नहीं आया है| आतंकवाद पर उसका दोहरा रवैया आखिर यही तो कहता है|

जहां तक भारत के मुकाबले पाकिस्तान का प्रश्न है, वह हर बार हर युद्ध में मुंह की खा चुका है| यह सच पाकिस्तान भी जानता है और अमरीका भी अच्छी तरह जानता है| अमरीका की चिंता सिर्फ यही है की भारत बड़ी शक्ति न बन जाये, उसके सामने खड़ा न हो जाये| साथ ही साथ अमरीकी व्यापारियों का हथियार भी बिकता रहे| इसके लिए वह जरूरी समझता है कि भारत को उलझाये रखो। पड़ोसियों को लड़ाते रहो, .ठीक वैसे ही जैसे आजादी के पहले हिन्दू मुसलमानों को अंग्रेज लड़ाया करते थे| पाकिस्तान के हालात इतने ख़राब है कि वह अमरीका कि भीख पर जीने को मजबूर है ,वरना वहां भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। कभी अपनी अकर्मण्यता के कारण, कभी कट्टर कठमुल्लाओ के दबाव में होने के कारण और ज्यादातर फ़ौज का शासन होने के कारण वहां विकास की बात ही नहीं होती, जनता भी अपना दबाव नहीं बना पाती। पाकिस्तान अमरीका से मिली खैरात का इस्तेमाल केवल भारत के खिलाफ करता है ,यहाँ की तरक्की के खिलाफ करता है, विकास के खिलाफ करता है क्योकि उसका तों विकास से कुछ लेना देना नहीं है, पर वह भारत को भी आगे बढ़ते नहीं देखना चाहता।

पाकिस्तान में तो फ़ौज के बूटो के नीचे लोकतंत्र कुचला जा चुका है और फ़ौज को ताकतवर रहना है तों भारत का हौवा दिखा कर छद्म युद्ध छेड़े ही रखना होगा। वहां के राजनीतिको को भी कुछ काम करने के बजाय यही विकल्प ठीक लगता है कि इस कायराना युद्ध से फायदे ही फायदे है। बिना कुछ किये फ़ौज के साये में सत्ता का लुत्फ़ भी उठाते है और इसके खर्चो का कोई हिसाब किताब नहीं देना होता है। इसी कारण वहा के सारे नेता विदेशी बैंकों में भारी दौलत और संपत्ति जमा कर रखते है| पता नही कब फ़ौज भगा दे और देश छोड़ कर कही और शरण लेनी पड़े। कई साल पहले पाकिस्तान के एक बड़े अधिकारी से मिलने का मौका मिला। वे आजादी के बाद अलीगढ से पढ़ कर वहां गए थे। देश के एक विभाग के सबसे बड़े पद पर थे। उन्होंने कहा कि मै भारत में होता तों क्या होता ? पाकिस्तान में तो हम सभी भाइयो की अलग अलग कई एकड़ में कोठियां है ,कई एकड़ का चिलगोजे का फार्म है और बाहर भी बहुत कुछ है, क्या उतना यहाँ होता ? वे रिटायर होने के बाद सब बेंच कर उसी पश्चिमी देश चले गए, जहां अपनी सम्पति होने का उन्होंने जिक्र किया था। उस वक्त जिया राष्ट्रपति थे तथा जुनेजो प्रधान मंत्री थे। कट्टर इस्लाम कानून लागू था। उनके बच्चे की शादी हुई| हमारे एक साथी गए थे, लौट कर उन्होंने जो फोटो दिखाए तथा जो वर्णन किया, वह पाकिस्तान का असली चेहरा जानने के लिए काफी था।

वहां आम लोगों के शराब पीने पर पाबन्दी है लेकिन शादी के मौके पर देश के दोनों बड़ो कि मौजूदगी में दुनिया की सबसे महंगी शराब बह रही थी। शादी ख़त्म होने के बाद उस अधिकारी ने मेरे मित्र को पाकिस्तान घुमाने कि व्यवस्था की और उनके विभाग के बड़े अधिकारी उसकी सेवा में लगे। रोज दिन में दो से चार बार तक वह सब परोसा गया जो इस्लाम में हराम है तथा आम आदमी को जिसके लिए कड़ी सजा दी जाती है| मेरे यह कहने का मकसद यह है की भारत में रहने वाले जिन लोगो को पाकिस्तान में ज्यादा सुख तथा अच्छाइयां दिखती हो, वे यह भी जान ले कि वहा के सबसे बड़े लोग क्या क्या करते है । जहां भारत के खिलाफ केवल कायराना युद्ध लड़ कर इतना सब हासिल हो और जनता कोई सवाल नहीं करती हो ,आतंकवाद वहा का सबसे बड़ा रोजगार बन गया है तों क्या बड़ी बात है।

जब दुनिया यह सब जानती है, अमरीका सहित दुनिया के सभी देश यह सब जानते हैं और भारत सरकार भी यह सब जानती है तों फिर यह सहा क्यों जा रहा है? अमरीका, इंग्लॅण्ड सहित वे सभी देश जो सामूहिक रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने की बात करते है, उन्होंने चुप्पी क्यों ओढ़ रखी है। सिर्फ इसलिए कि उनके लिए आतकवाद नहीं ,मानवता नहीं बल्कि उनके हित और उनका व्यापार ज्यादा महत्वपूर्ण है। लेकिन भारत क्यों सह रहा है ? क्या भारत कमजोर हो गया है ? क्या भारत किसी दबाव में है ? क्या भारत में इच्छाशक्ति कि कमी हो गयी है या भारत के वर्तमान नेता कमजोर साबित हो रहे हैं। क्या यहाँ अब कोई इंदिरा गाँधी जैसा नही है, लाल बहादुर शास्त्री जैसा नही है। या मन का विश्वास और खून की गरमी कमजोर पड़ गयी है। 1971 में एक सबक दिया तों अगले २० साल से अधिक तक या कारगिल तक देश काफी चैन से रहा।

सवाल है कि युद्ध में हथियार खर्च होता है ,वह हो रहा है ,पैसा खर्च होता है ,वह और ज्यादा हो रहा है , लोग प्राण गवांते है ,वह भी युद्ध के मुकाबले ज्यादा लोग मर रहे है। युद्ध में तो सिपाही लड़ कर कुछ लोगो को मार कर मरता है और जनता पूरी तरह सुरक्षित रहती है। पर इस युद्ध में तों सिपाही बिना लड़े ही मर रहा है और जनता भी मारी जा रही है ,बेगुनाह जनता । जब सब कुछ युद्ध से ज्यादा हो रहा है और इन परिस्थितियों से विकास भी प्रभावित होता है और जीवन भी प्रभावित हो रहा है तों फिर एक बार अंतिम लड़ाई क्यों नही। समझाने की कोशिश बहुत हो चुकी ,वार्ताएं बहुत हो चुकी ,बस और ट्रेन चल चुकी ,भारत पाक एकता की बाते हो चुकी ,विभिन्न वर्गों का आदान प्रदान हो चुका लेकिन कुत्ते कि पूंछ इतने वर्षो बाद भी टेढ़ी की टेढ़ी है तों अब रास्ता क्या है ? सरकार को बताना तों पड़ेगा कि सब्र का पैमाना कब भरा हुआ माना जायेगा और सरकार कब फैसला लेगी। सौ करोड़ से बड़ा यह देश जवाब का इंतजार कर रहा है। सरकार हार जाये पर भारत कि जनता बहुत बहादुर है। यह चिकोटी अब बहुत बुरी लगने लगी है। क्या भारत सरकार का थप्पड़ अब चलेगा ? नहीं तो कब चलेगा ? जनता अब अंतिम इलाज चाहती है। जनता कह रही है, रे रोक युधिष्ठिर को ना अब ,लौटा दे अर्जुन वीर हमें।

( डॉ. सी पी राय आगरा विश्वविद्यालय में शिक्षक और राजनीतिक ऐक्टिविस्ट हैं, उनसे फोन नम्बर 09412254400 पर सम्पर्क किया जा सकता है)

जब कौआ चले हंस की चाल

-पंकज झा

पौराणिक पक्षी हंस के बारे में मान्यता है कि अगर उसके सामने आप दूध मिला पानी रख दें तो वह पानी को अलग कर ‘दूध’ ग्रहण कर लेता है. शास्त्रों में इसे नीर-क्षीर विवेक कहा गया है. ‘साहित्य’ से भी यही अपेक्षा की जा सकती है वह यदि सर्वजन हिताय काम ना कर सके तो कम से कम बहुजन हिताय तो करे ही. यानी सूरज ना बन् पाए तो बनके दीपक जलता चल. बकौल तुलसी जिससे ‘सुरसरि सम सबके हित होई.’ लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि महान साहित्यकार प्रेमचंद की परम्परा पर गुमान करने वाली साहत्यिक पत्रिका ‘हंस’ ना तो समाज का कोई हित कर पा रहा है और न ही अपने नाम के अनुरूप इसके कर्णधारगण नीर-क्षीर विवेक का परिचय दे पाते हैं.

आप हंस का हालिया इतिहास उलटा कर देख लें तो सिवा वैमनस्यता फैलाने, कुंठा व्यक्त करने, भड़ास निकालने के पत्रिका की कोई उपलब्धि नहीं दिखेगी. इस पत्रिका को वैचारिकता का शौचालय ही बना दिया गया है. गोया समाज को गंधाए रखने के अलावा कोई काम ही नहीं हो इनके पास. निश्चित ही समाज में ‘विन्देश्वर पाठकों’ के लिए बहुत जगह है. बहुत तरह की गंदगी है जिसको साफ़ करना किसी भी पूजा-पाठ से ज्यादा ज़रूरी है. लेकिन उनका क्या करें जो साहित्य के नाम पर केवल और केवल मल-मूत्र ही फैलाने का काम करे. अपनी पत्रिका को ही संडास बना पूरे समाज को चौबीसों घंटा कमोड पर ही बैठाए रखने का जुगत भिड़ाते रहे.

क्या हम एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहां किसी चोर-हब्शी द्वारा बलात्कृत होकर भी महिलाएं शौक से बलात्कारी से निवेदन करे कि ‘कल फिर आना.’ जहां प्रतिशोध में धधकती कोई बालिका एड्स की ‘सौगात, बांटती फिरे. या किसी अदृष्य विदेशी लड़की का निर्माण कर लेखकों को मनाली-मसूरी तक दौड़ा दें? अगर इस पत्रिका का वश चले (जो सौभाग्य से कभी नहीं चलना है) तो वो ऐसे ही समाज का निर्माण करे जहां रामशरण जोशी की तरह आदिवासी बालाओं को केवल सेक्स का ही सामान समझा जाय. चार-पांच साल पहले जोशी द्वारा इसी पत्रिका में ऐसे ही बस्तर का खांचा खीचा गया था जहां बकौल वे  ‘कोई बेवकूफ ही अधिकारी होगा जो शादी करके या पत्नी को लेकर बस्तर आये.’ छत्तीसगढ़ के बुद्धिजीवियों ने तब भी  इन लेखक महोदय की जम-कर लानत-मलानत की थी.

तो बस्तर बालाओं के प्रति ऐसे ही विचार रखने वाले पंडित, लेखिकाओं को ‘छिनाल’ कहने वाले विभूति, और एक घटिया आंदोलन को बेच खाने की मंशा में असफल होने की खीज प्रदेश के पत्रकारों को गरिया कर उतारने वाले स्वामी आदि पिछले दिनों गिरोहबंदी कर एक ऐसे ही संपादक के नेतृत्व में विमर्श करने एकत्र हुए जिनके विचार और कर्म में कोई साम्यता आप ढूंढते रह जायेंगे. ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा ना भवति’ विषय पर आयोजित इस ‘गुस्ठी’ का आशय सदा की तरह भारतीय पौराणिकता, मनीषा का अपमान करना, एक चुनी हुई सरकार और एक सबसे कम बुरी प्रणाली ‘लोकतंत्र’ का उपहास करना ही था. इस जमघट में वर्णित विचारों पर प्रतिक्रया फिर कभी. फिलहाल इसके आधार पर पत्रिका में लिखी गयी सम्पादकीय की बात.

छत्तीसगढ़ के मुख्यधारा के साहित्यकार-चिंतकगण,माधवराव सप्रे की परंपरा के पत्रकारगण सभी की यह एक सामूहिक शिकायत रही है कि अपने काले चश्मे के अंदर से हर विषय पर दिव्य-दृष्टि का दावा करते रहने वाले लोगों को यूँ तो बस्तर का ककहरा नहीं पता होता, लेकिन हांकेंगे ऐसे की ‘हाकिंग’ के विज्ञान ज्ञान की तरह ही इन्हें हर समस्या के बारे में महारत हासिल हो.

सितम्बर माह की सम्पादकीय में इस विषय पर लिखते हुए संपादक ने छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन को ‘पुलिस अधीक्षक’ कहा है. सामान्य तौर पर भले ही यह कोई बड़ी गलती ना लगे, लेकिन ज़ाहिर है जिस पत्रिका में ‘नुक्ताचीनी’ तक के लिए एक अलग से स्तंभ हो, विभिन्न पत्रिकाओं में छपी रचनाओं में अर्द्ध और पूर्णविराम की सामान्य गलतियों को ढूंढ कर उसका मजाक उडाया जाता हो, वहां अगर सम्पादकीय में ही ऐसी तथ्यात्मक भूल हो तो समझा जा सकता है कि प्रदेश के बारे में ऐसे कथित चिंतकों का ज्ञान शून्य है. केवल सस्ती लोकप्रियता हासिल करने या फिर किसी अदृष्य हाथों बिके हुए होने के कारण अपने किसी छुपे हुए एजेंडे को लागू का इसे बेजा प्रयास ही माना जायेगा. यह वैसे ही हुआ कि कोई कहे कि कौआ कान लिए जा रहा हो तो आप अपना कान देखने के बदले कौआ के पीछे पड जाय.

संपादकीय में लोकतंत्र के प्रति हिकारत व्यक्त करने वालों को यह तो मालूम ही होगा कि अगर इतना भड़ास वो निकाल पा रहे हैं तो केवल इसलिए कि देश में लोकतंत्र है. अन्यथा अपना चश्मा उतार कर दुनिया की तरफ नज़र दौड़ायें तो पता चले. एक हिटलर या अन्य किसी का उदाहरण देकर समूचे दुनिया में ख्याति प्राप्त इस सबसे कम बुरी प्रणाली को अनदेखा करने को क्या कहा जाय? जबकि इसके उलट आप एक भी ऐसे गैर-लोकतांत्रिक प्रणाली का नाम नहीं बता सकते जो वर्तमान दुनिया में सफल हो. निश्चित ही अधिकार प्राप्त करने के बाद अभिमान आ जाना मानव स्वभाव है. लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारें भी कई बार पजामे से बाहर हो जाया करती है. लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि इन कमजोरियों को खतम करने का उपाय, ऐसी ताकत भी लोकतंत्र में ही निहित है. अगर भारत में लोकतांत्रिक ढंग से चुनकर आयी इंदिरा गाँधी ने आपातकाल लगा इस प्रणाली का गला घोंटने का प्रयास किया तो आखिरकार उनको बाहर का रास्ता भी इसी लोकतंत्र ने दिखाया. या राजेन्द्र यादव टाइप कोई उद्धारक अवतरित होकर ऐसा करने में सफल रहे?

रही बात सरकारी हिंसा की तो हां….ज़रूर…! बिलकुल जोर देकर इस बात को कहा जा सकता है कि राज्य व्यवस्था के लिए साम,दाम औए भेद के साथ ‘दंड’ एक आवश्यक तत्व है. आप भले ही अपनी सुविधा के लिए इसे राज्य प्रायोजित हिंसा का नाम दें, नक्सल हिंसा, जेहादी आतंकवाद या ऐसे अन्य खुरापात को सरकारी दंड प्रणाली के बरक्श रखने की हिमाकत करें लेकिन इतिहास और शास्त्र गवाह है कि दुनिया की कोई भी व्यवस्था बिना दंड प्रणाली के सुचारू रूप से चल नहीं सकती.

जिस तरह से देश के समक्ष ‘माओवाद’ आज सबसे बड़े आंतरिक खतरे के रूप में सामने आया है इसे कुचलने के अलावा और कोई उपाय नहीं है. सीधी सी बात है कि सरकार की व्यवस्था या उसकी दंड प्रणाली विभिन्न तरह के संस्थाओं यथा विपक्षी दल, न्यायालय, मानवाधिकार समूह, प्रेस, चुनाव आयोग आदि द्वारा समीक्षा के अधीन और अंततः जनता के प्रति जिम्मेदार हुआ करती है. जबकि ‘माओ गिरोहों’ द्वारा दान्तेवाड़ा के एर्राबोर में डेढ़ साल की बच्ची ‘ज्योति कुट्टयम’ को ज़िंदा जला देने की जिम्मेदारी लेने कोई बुद्धिविलासी कभी आगे नहीं आएगा, ना ही आगे बढ़ कर उसकी निंदा ही करेगा.

तो दो टूक कहा जाने वाला वाक्य यह है कि नियति ने हमारे समक्ष माओवादी हिंसा और न्याय आधारित सरकारी दंड व्यवस्था में से एक के चयन का ही विकल्प रखा है. निश्चित रूप से हम खुद के द्वारा चुने सरकार की दंड व्यवस्था के पक्ष में हैं. आप निश्चित ही इसे सरकारी हिंसा की संज्ञा देने को स्वतंत्र हैं. लेकिन याद रखें… ढेर सारी बदजुबानियों के बावजूद भी अगर आपकी जुबान, हलक में ही है तो इसी कारण क्यूंकि देश में लोकतंत्र है….बहरहाल.

छत्तीसगढ़ के इसी दंडकवन में राक्षसों द्वारा मारे गए मुनियों के अस्थियों का पहाड़ देख भगवान राम ने अंचल को निश्चर विहीन करने की शपथ ली थी. अब लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारों द्वारा संकल्प पूरा करने का अवसर है. सरकार को अपना यह संकल्प माओवादियों, मेधाओं, अरुन्धतियों, मानवाधिकार-वादियों और राजेन्द्र यादवों के बावजूद पूरा करना होगा. ‘लोकतंत्र’ अपने समक्ष उपस्थित इन चुनौतियों से ज़रूर पार पायेगा चाहे रुदालियां जितना शोर मचाएं.