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दो पड़ोसियों की लाइफलाइन है दोस्ती

कल भारत-पाक के बीच विदेश सचिव स्तर की बातचीत खत्म हुई तो मीडियावाले विवाद खोज रहे थे, पंगे वाले सवाल उठा रहे थे। बातचीत को व्यर्थ बता रहे थे। प्रेस काँफ्रेस में भारत की विदेश सचिव निरुपमा राव शांतभाव से पत्रकारों के सवालों के जबाव दे रही थीं, राव की बॉडी लैंग्वेज में जो स्वाभाविकता और सहजता थी वह तारीफ के काबिल है।

कूटनीति की भाषा शरीर की भावभंगिमा के जरिए बहुत कुछ कह देती है। निरुपमा राव की भावभंगिमा ने मीडिया की सनसनी को ठंड़े बस्ते में ड़ाल दिया है। दोनों पड़ोसी देशों में बातें हों यह सभी चाहते हैं,खासकर इन देशों की जनता यही चाहती है।

विदेश सचिव स्तर की बातचीत के ठीक पहले पूना में ब्लास्ट हुआ जिसमें अनेक लोग मारे गए। आतंकी नहीं चाहते कि भारत-पाक में दोस्ती और संवाद बने। दोनों देशों के संबंध ज्यों ही सामान्य होने शुरु होते हैं कोई न कोई हंगामा खड़ा कर दिया जाता है। मीडिया इस प्रक्रिया में आग में घी का काम करता रहा है। मीडिया और दोस्ती विरोधी देशी ताकतों को (ऐसी ताकतें दोनों देशों में हैं) यह बात पसंद नहीं है कि भारत-पाक में दोस्ती बनी रहे।

कायदे से देखा जाए तो इसबार की बैठक सार्थक रही है। लंबे अंतराल के बाद यह बैठक हो पायी है। इस तरह की बैठकें ज्यादा होनी चाहिए। राष्ट्रों की समस्याएं कूटनीतिक वार्ताओं से ही हल होती है, पंगों से या घृणा से नहीं। भारत ने पाक को 3 दस्तावेज सौंपे हैं जिनमें पाक से चलने वाली आतंकी गतिविधियों का कच्चा चिट्ठा है और भारत ने इन तीनों दस्तावेजों पर कार्यवाही की मांग की है।

हमें यह ध्यान रखना होगा कि पाक में आईएसआई जैसा खतरनाक खुफिया संगठन भी है जो अमेरिकी गुप्तचर संस्था के साथ मिलकर काम करता रहा है। भारत और पाकिस्तान में आतंकी ग्रुपों को वह मदद करता रहा है और आज भी कर रहा है। कुछ अर्सा पहले तक अमेरिकी नागरिक रिचर्ड हेडली जैसे जासूस भारत में आतंकियों के लिए काम कर रहे थे, हमारी सरकार अभी तक अमेरिकी प्रशासन के साथ गरमी के साथ हेडली जैसे खतरनाक व्यक्तियों के बारे में बात नहीं कर पायी है। हेडली को लेकर अमेरिका के प्रति संघ परिवार भी चुप है ,यह चुप्पी बड़ी अर्थपूर्ण है, भारत को अमेरिका को साफ कहना चाहिए कि हेडली को वह हमें सौंपे, हम पाक से आतंकियों को सौंपने की मांग कर रहे हैं लेकिन अमेरिका से हेडली को सौपने की मांग क्यों नहीं करते? क्या बात है कि आतंकियों के साथ अमेरिकी जासूसी संस्थाओं के संबंध हमें दिखाई नहीं देते। हेडली के मामले में अमेरिकी विदेश विभाग भी फंसा हुआ है,हेडली को अमेरिका ने क्यों भेजा यह अभी भी रहस्य बना हुआ है। हिन्दी में कहावत है चोर को न मारो चोर की मईया को मारो। आतंक की गंगा अमेरिका से आ रही है। यह बात मीडिया वाले भी नहीं बताते और नहीं अमेरिका से ही हेडली को भारत को सौंपने की मांग करते हैं। इसी को कहते हैं मीडिया की अमेरिकी भक्ति और पाक द्वेष।

भारतीय उपमहाद्वीप में अमेरिका सबसे बड़ा खतरा है न कि पाकिस्तान। आतंकी नरक में पाक को डुबोने वाला अमेरिका है और आतंकवाद के बहाने पाक को वह हजम कर जाना चाहता है, यदि ऐसा होता है तो भारत के लिए खतरा और भी बढ़ जाएगा। पाक को दोस्ती के मार्ग पर लाना हमारी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत-पाक दोस्ती बनी रहे इससे इस क्षेत्र की जनता को लाभ होगा,जबकि अमेरिकी शस्त्र उद्योग नहीं चाहता कि भारत-पाक में दोस्ती बनी रहे, शस्त्र उद्योग के विचारक और दलाल बार बार मीडिया में आ रहे हैं और वे उन्हीं बातों पर जोर दे रहे हैं जिससे भारत-पाक में और भी कटुता पैदा हो । हमें भारत-पाक में दोस्ती के बिंदुओं को सामने लाना होगा और यही अमेरिकी शस्त्र उद्योग को करारा प्रत्युत्तर होगा। भारत-पाक एक-दूसरे की लाइफलाइन हैं। किसी अवस्था में यह लाइन बंद नहीं होनी चाहिए।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

गांधी केवल बहस का मुद्दा न बने

भारतीय स्वतंत्रता इतिहास के पन्नो को अगर पलट कर देखा जाय तो महात्मा गाँधी के अलावा शायद ही कोई व्यक्तित्व मिलेगा जो गाँधी के बराबर में विश्व समुदाय को प्रभावित किया हो।

अफ्रीका की बात करें या अमेरिका की, गाँधी का प्रभाव सार्थक परिणाम के साथ देखने को मिलता है। चाहे मार्टिन लूथर किंग हों या नेल्सन मंडेला या बात स्वयं अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा की ही क्यों न हो, इन सबके संघर्षों में महात्मा का आदर्श और उनकी चिंतनशीलता नज़र आती है।

आज महात्मा गाँधी नहीं हैं, परन्तु आज भी गाँधी एक चर्चा का विषय है, आज भी गाँधी एक प्रश्न की तरह हैं जो शायद अनुप्तरित है। यह चिंतन का विषय है कि गाँधी क्या थे, और आज गाँधी को क्या कहा जाय? क्या गाँधी एक व्यक्ति विशेष हैं… या गाँधी एक चरित्र विशेष हैं या गाँधी शब्द विशेष हैं, जिसे हमें संजोकर रखना है……… या गाँधी का कोई अर्थ विशेष भी हैं?

अगर हम इन सवालों का जवाब ढूंढें तो शायद अनेक तथ्य सामने आएंगे……..गाँधी का आतंरिक चिंतन मेरी समझ से राष्ट्रवाद से ओतप्रोत था। अगर हम ये कहें तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी कि गाँधी कट्टर राष्ट्रवादी थे।

गाँधी का मत था राष्ट्र की अखण्डता में सबसे ज्यादा बाधक जातिवाद, धर्मवाद एवं भाषा आदि हो सकते हैं। अतः उन्होंने जातिवाद, धर्मवाद एवं भाषा आदि में विभाजित होने का विरोध शायद इसिलिए किया क्योंकि वे राष्ट्रवाद के समर्थक थे और उन्हें राष्ट्रीय एकता में अगाध विश्वास था। गाँधी के लिए राष्ट्र इतना सर्वोपरि था कि कुछ विद्वान उन्हें अन्तर्राष्ट्रवाद विरोधी भी कह देते हैं। लेकिन गाँधी राष्ट्रवाद से समझौता करके किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच को नहीं स्वीकार सकते थे। गाँधी के राष्ट्रवाद को भारतीय संविधान में शायद सम्प्रभुता का नाम दिया गया है। क्योंकि राष्ट्र की सम्प्रभुता और गाँधी का राष्ट्रवाद, दोनों में काफी समानताएँ हैं।

गाँधी हिंदी के समर्थक थे अंग्रेजी के विरोधी नहीं। गाँधी हिंदी को आम जनता की भाषा के रूप में, देश की सार्वभौमिक भाषा के रूप में, देखना चाहते थे। उनके मन में यह डर था कि कहीं आने वाले समय में हिंदी को हिंदुस्तान में ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष न करना पड़े, और एक राष्ट्रवादी सोच के लिए यह डर स्वाभाविक था।

गाँधी की सत्यवादिता एवं अहिंसावाद ने उन्हें महात्मा बना दिया। गाँधी एक महात्मा होने के साथ-साथ राष्ट्रवादी सोच के प्रतीक बन गये।

आज चारों ओर अराजकता व्‍याप्‍त है। जातिवाद चरम पर हैं, धर्म के ठेके खुल रहे हैं, हिंदी को खुद ही अंग्रेजी सीखने की मजबूरी आ गई है, हिंसा ने सारी हदें पार कर दी हैं, लेकिन दुःख की आज भी गाँधी बहस का मुद्दा बन कर सीमित हो गया है।

गाँधी कोई व्यक्ति विशेष नहीं है, गाँधी कोई चरित्र विशेष नहीं है, गाँधी कोई भाव विशेष भी नहीं है। आज गाँधी एक व्यापक शब्द विशेष है जिसके हजारों अर्थ हैं। हिंदी के संघर्ष के का दूसरा नाम है गाँधी, प्रेम और सदभाव का दूसरा नाम है गाँधी। जातिवाद विरोधी शब्द बन गया है ‘गाँधी’। सम्प्रदायिक सदभाव का प्रतिमूर्ति है गाँधी।

अब गाँधी एक शब्दार्थ है जिसे समझे बिना समाज को नहीं बदला जा सकता, हिंदी की वकालत नहीं की जा सकती।

-शिवानन्द द्विवेदी ‘सहर’

आज भी प्रासंगिक हैं गांधी के विचार

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सत्य और अहिंसा का उद्घोष कर आंदोलन की धार को और पैनी करने वाले महात्मा गांधी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने स्वतन्त्र भारत के पुनर्निर्माण के लिए रामराज्य का स्वप्न देखा था। वे कहा करते थे कि “नैतिक और सामाजिक उत्थान को ही हमने अहिंसा का नाम दिया है। यह स्वराज्य का चतुष्कोण है। इनमें से एक भी अगर सच्चा नहीं है तो हमारे स्वराज्य की सूरत ही बदल जाती है। मैं राजनीतिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की बात करता हँ। राजनीतिक स्वतन्त्रता से मेरा मतलब किसी देश की शासन प्रणाली की नकल से नहीं है। उनकी शासन प्रणाली अपनी-अपनी प्रतिभा के अनुसार होगी, परन्तु स्वराज्य में हमारी शासन प्रणाली हमारी अपनी प्रतिभा के अनुसार होगी। मैंने उसका वर्णन ‘रामराज्य’ शब्द के द्वारा किया है। अर्थात विशुद्ध राजनीति के आधार पर स्थापित तन्त्र।”

वे कहा करते थे, “मेरे स्वराज्य को लोग अच्छी तरह समझ लें, भूल न करें। संक्षेप में वह यह है कि विदेशी सत्ता से सम्पूर्ण मुक्ति और साथ ही सम्पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता। इस प्रकार एक सिरे पर आर्थिक स्वतंत्रता है और दूसरे सिरे पर राजनीतिक स्वतंत्रता, परन्तु इसके दो सिरे और भी हैं। इनमें से एक है नैतिक एवं सामाजिक और दूसरा धर्म। इसमें हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाई वगैरह आ जाते हैं। परन्तु एक जो इन सबसे उपर है, इसे आप सत्य का नाम दें सकते हैं। सत्य यानि कि केवल प्रासंगिक ईमानदारी नहीं बल्कि वह परम सत्य जो सर्व व्यापक है और उत्पत्ति एवं लय से परे है।”

मूलरूप से गांधी जी की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था करुणा, प्रेम, नैतिकता, धार्मिकता व ईश्वरीय भावना पर आधारित है। उन्होंने नरसेवा को ही नारायण सेवा मानकर दलितोद्धार एवं दरिद्रोद्धार को अपने जीवन का ध्येय बनाया। वे शोषणमुक्त, समतायुक्त, ममतामय, परस्पर स्वावलम्बी, परस्पर पूरक व परस्पर पोषक समाज के प्रबल हिमायती थे। उनका मानना था कि राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेन्द्रीकरण के बिना आम आदमी को सच्चे लोकतन्त्र की अनुभूति नहीं हो सकती। सत्ता का केन्द्रीयकरण लोकतन्त्र की प्रकृति से मेल नहीं खाता। उनकी ग्राम-स्वराज्य की कल्पना भी राजसत्ता के विकेन्द्रीकरण पर आधारित है।

5 फरवरी 1916 को काशी के नागरी प्रचारिणी सभागार में एक कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “मेरे सपनों का स्वराज्य गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होना चाहिए। इसमें फर्क के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। ऐसे राज्य में जाति-धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर धनवानों और अशिक्षितों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके कल्याण के लिए होगा। लेकिन यह स्वराज्य प्राप्त करने का एक निश्चित रास्ता है।” इसको समझाने के लिए वे कहते थे, “ध्येयवादी जीवन के चार तत्व होते हैं- साधक, साधन, साधना और साध्य। साध्य का अर्थ लक्ष्य या ध्येय से है। यदि किसी समय हमारा लक्ष्य धन कमाना है, तो धन कमाने के भी कई तरीके हो सकते हैं। यह धन चोरी करके भी प्राप्त किया जा सकता है और पुरूषार्थ एवं पराक्रम से भी, लेकिन पुरूषार्थ एवं पराक्रम से प्राप्त धन ‘पवित्र धन’ कहा जायेगा और चोरी से प्राप्त धन ‘चोरी का धन’। ऐसी स्थिति में साध्य पवित्र नहीं रह जायेगा। इसलिए साध्य की पवित्रता के लिए यह आवश्यक है कि साधन, साधक व साधना तीनों पवित्र हों। किसी एक के पवित्र होने से काम नहीं चलेगा।”

गांधी जी के विचार और वर्तमान के सम्बन्ध में चिन्तन करने पर लगता है कि आज की स्थिति, परिस्थिति और लोगों की मन:स्थिति में बहुत अन्तर है। सब एन-केन-प्रकारेण साध्य तक पहुँचने को आतुर दिखते हैं। इस आतुरता की जिद में सारे नीति, नियम, कायदे व कानून को तोड़कर हम अनैतिक व हिंसक हो जाते हैं। यहीं से विकृति प्रारम्भ होती है और राष्ट्रहित के स्थान पर स्वहित दिखायी देने लगता है। हर क्षेत्र में आधारभूत ढांचे से हटकर परिवर्तन हुआ है। इस सृष्टि की सर्वोच्च शासन व्यवस्था ‘लोकतन्त्र’ पूँजीवादी तन्त्र में परिवर्तित हो गयी है। सामान्य निर्धन व्यक्ति जनता का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। संसद और विधानमण्डल के दोनों सदनों में लगभग 45 प्रतिशत से अधिक सदस्य किसी न किसी प्रकार से अपराधियों की श्रेणी में आ जाते हैं। कुल मिलाकर आज की राजनीति में अपराधियों का बोल-बाला है।

आधुनिक भारत का निर्माण करने वालों नें आधुनिक शिक्षा बनाने की आंड़ में गांधी के विचारों को दरकिनार कर दिया है। जिससे आज ऐसी स्थिति हो गयी है कि एक गरीब बालक के लिए वांछित शिक्षा प्राप्त करना दुष्कर हो गया है। इन सारी स्थितियों और परिस्थितियों का एक कारण यह भी है कि गांधीवादी विचारधारा का झंडा तथाकथित गांधीवादियों ने थाम रखी है। जिस चरखे और खादी से उन्होंनें जन-जन को जागरुक किया था, वही आज हासिए पर धकेल दिया गया है। खादी पहनने वाले खादी की लाज भूल चुके हैं। उनके लिए खादी स्वयं को नेता सिद्ध करने वाली पोषाक भर बन कर रह गयी है। उनके सहयोगियों नें उनके मूल्यों और कार्यक्रमों को तिलाजंलि दे दी है। सरकार के काम-काज में गांधीवादी सरोकारों और लक्ष्यों को देखना निराश ही करता है।

गांधी के विचारों की प्रासंगिकता का सवाल उनकी जन्म और पुण्यतिथि पर हमेशा उठता है, लेकिन गांधी तो आजादी मिलने के बाद से ही अलग-थलग पड़ गये थे। गांधी का सपना गांधी के सच्चे सपूतों नें ही तार-तार करके रख दिया है। ऐसी स्थिति में लगता है कि गांधी का सपना केवल स्वप्न बनकर रह जायेगा। फिर भी, तेजी से बदल रहे परिवेश के कारण गांधी के विचारों की प्रासंगिकता आज महती आवश्यकता के रुप में अनुभव की जा रही है।

-पवन कुमार अरविंद

(लेखक “विश्व हिंदू वॉयस” वेब पोर्टल से जुड़े हैं)

आरएसएस और अमेरिका भाई-भाई

साम्प्रदायिकता का आक्रामक उभार और विकास हमारे देश में शीतयुद्ध के साथ तेजी से हुआ है। यह विश्व में उभर रही आतंकी-साम्प्रदायिक विश्व व्यवस्था का हिस्सा है। यह दिखने में लोकल है किंतु चरित्रगत तौर ग्लोबल है। इसकी ग्लोबल स्तर पर सक्रिय घृणा और नस्ल की विचारधारा के साथ दोस्ती है। याराना है। भारत में राममंदिर आंदोलन का आरंभ ऐसे समय होता है जब शीतयुद्ध चरमोत्कर्ष पर था।

शीतयुद्ध के पराभव के बाद अमरीका ने खासतौर पर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ हमलावर रूख अख्तियार कर लिया है। इसके नाम पर अंतर्राष्ट्रीय मुहिम भी चल रही है, ग्लोबल मीडिया इस मुहिम में सबसे बड़े उपकरण बना हुआ है। मुसलमानों और इस्लामिक देशों पर तरह-तरह के हमले हो रहे हैं। इस विश्वव्यापी इस्लाम -मुसलमान विरोधी मुहिम का संघ परिवार वैचारिक-राजनीतिक सहयोगी है। फलत: ग्लोबल मीडिया का गहरा दोस्त है।

संघ परिवार ने इस्लाम धर्म और मुसलमानों को हमेशा विदेशी, अनैतिक, शैतान और हिंसक माना। इसी अर्थ में वे इस्लाम और मुसलमान के खिलाफ अपने संघर्ष को देवता अथवा भगवान के लिए किए गए संघर्ष के रूप में प्रतिष्ठित करते रहे हैं। अपनी जंग को राक्षस और भगवान की जंग के रूप में वर्गीकृत करके पेश करते रहे हैं। शैतान के खिलाफ जंग करते हुए वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन तमाम राष्ट्रों के साथ हैं जो शैतानों के खिलाफ जंग चला रहे हैं। इस अर्थमें संघ परिवार ग्लोबल पावरगेम का हिस्सा है। चूंकि इस्लाम-मुसलमान हिंसक होते हैं अत: उनके खिलाफ हिंसा जायज है, वैध है। हिंसा के जरिए ही उन्हें ठीक किया जा सकता है। वे मुसलमानों पर हमले इसलिए करते हैं जिससे हिन्दू शांति से रह सकें। हिन्दुओं के शांति से रहने के लिए मुसलमानों की तबाही करना जरूरी है और यही वह तर्क है जो जनप्रियता अर्जित करता जा रहा है। दंगों को वैध बना रहा है। दंगों को गुजरात में बैध बनाने में इस तर्क की बड़ी भूमिका है। ‘शांति के लिए मुसलमान की मौत’ यही वह साम्प्रदायिक स्प्रिट है जिसमें गुजरात से लेकर सारे देश में दंगों और दंगाईयों को वैधता प्रदान की गई है। यही वह बोध है जिसके आधार साम्प्रदायिक हिंसा को वैधता प्रदान की जा रही है।

संघ परिवार पहले प्रतीकात्मक हमले करता है और बाद में कायिक हमले करता है। प्रतीकों के जरिए संघ परिवार जब हमले करता है तो प्रतीकों के दबाव में सत्ता को भी ले आता है। वे कहते हैं यदि एक हिन्दू मारा गया तो बदले में दस मुसलमान मारे जाएंगे। वे मौत का बदला और भी बड़ी भयानक मौत से लेने पर जोर देते हैं। वे मुसलमानों की मौत के जरिए व्यवस्था को चुनौती देते हैं। हिन्दुओं में प्रेरणा भरते हैं। व्यवस्था को पंगु बनाते हैं। अपने हिंसाचार को व्यवस्था के हिंसाचार में तब्दील कर देते हैं। साम्प्रदायिकता आज पिछड़ी हुई नहीं है। बल्कि आधुनिकता और ग्लोबलाईजेशन के मुखौटे में जी रही है। मोदी का विकास का मॉडल उसका आदर्श उदाहरण है।

इस्लाम, मुसलमान के प्रति हिंसाचार, आधुनिकतावाद और भूमंडलीकरण ये चारों चीजें एक-दूसरे अन्तर्गृथित हैं। इस अर्थ में साम्प्रदायिकता के पास अपने कई मुखौटे हैं जिनका वह एक ही साथ इस्तेमाल कर रही है और दोहरा-तिहरा खेल खेल रही है।

आज प्रत्येक मुसलमान संदेह की नजर से देखा जा रहा है। प्रत्येक मुसलमान को राष्ट्रद्रोही की कोटि में डाल दिया गया है। मुसलमान का नाम आते ही अपराधी की शक्ल, आतंकवादी की इमेज आंखों के सामने घूमने लगती है। कल तक हम मुसलमान को नोटिस ही नहीं लेते थे अब उस पर नजर रखने लगे हैं। इसे ही कहते हैं संभावित अपराधीकरण। इस काम को संघ परिवार और ग्लोबल मीडिया ने बड़ी चालाकी के साथ किया है। इसे मनोवैज्ञानिक साम्प्रदायिकता भी कह सकते हैं।

साम्प्रदायिक दंगों को संघ परिवार साम्प्रदायिक दंगा नहीं कहता,बल्कि जबावी कार्रवाई कहता है। यही स्थिति भाजपा नेताओं की है वे भी साम्प्रदायिक दंगा पदबंध का प्रयोग नहीं करते। बल्कि प्रतिक्रिया कहते हैं। उनका तर्क है हिंसा हमेशा ‘वे’ आरंभ करते हैं। ‘हम’ नहीं। साम्प्रदायिक हिंसाचार अथवा दंगा कब शुरू हो जाएगा इसके बारे में पहले से अनुमान लगाना संभव नहीं है। इसी अर्थ में दंगा भूत की तरह आता है। भूतघटना की तरह घटित होता है। दंगा हमेशा वर्चुअल रूप में होता है सच क्या है यह अंत तक नहीं जान पाते और दंगा हो जाता है। हमारे पास घटना के कुछ सूत्र होते हैं,संकेत होते हैं। जिनके जरिए हम अनुमान कर सकते हैं कि दंगा क्यों हुआ और कैसे हुआ। दंगे के जरिए आप हिंसा अथवा अपराध को नहीं रोक सकते। (संघ परिवार का यही तर्क है कि दंगा इसलिए हुआ क्योंकि मुसलमानों ने अपराध किया, वे हिंसक हैं), दंगे के जरिए आप भगवान की स्थापना अथवा लोगों की नजर में भगवान का दर्जा भी ऊँचा नहीं उठा सकते।

दंगे के जरिए आप अविवेकपूर्ण जगत को विवेकवादी नहीं बना सकते। मुसलमानों का कत्लेआम करके जनसंख्या समस्या का समाधान नहीं कर सकते। मुसलमानों को भारत में पैदा होने से रोक नहीं सकते। मुसलमानों को मारकर आप सुरक्षा का वातावरण नहीं बना सकते। मुसलमानों को पीट-पीटकर तटस्थ नहीं बनाया जा सकता। मुसलमानों की उपेक्षा करके, उनके लिए विकास के सभी अवसर छीनकर भी सामाजिक जीवन से गायब नहीं कर सकते। हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि मुसलमान और इस्लाम धर्म हमारी वैविध्यपूर्ण संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। आप इस्लाम और मुसलमान के खिलाफ चौतरफा आतंक और घृणा पैदा करके इस देश में सुरक्षा का वातावरण और स्वस्थ लोकतंत्र स्थापित नहीं कर सकते।

मुसलमान और इस्लाम लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है। लोकतंत्र को कभी अल्पसंख्यकों से खतरा नहीं हुआ बल्कि बहुसंख्यकों ने ही लोकतंत्र पर बार-बार हमले किए हैं। जिन दलों का बहुसंख्यकों में दबदबा है वे ही लोकतंत्र को क्षतिग्रस्त करते रहे हैं। आपात्काल, सिख जनसंहार,गुजरात के दंगे,नंदीग्राम का हिंसाचार आदि ये सभी बहुसंख्यकों के वोट पाने वाले दलों के द्वारा की गई कार्रवाईयां हैं। मुसलमानों के खिलाफ हिंसाचार में अब तक साम्प्रदायिक ताकतें कई बार जीत हासिल कर चुकी हैं। साम्प्रदायिक जंग में अल्पसंख्यक कभी भी जीत नहीं सकते बल्कि वे हमेशा पिटेंगे।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

राजनीति में राष्ट्रवाद का अवतरण

भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद का आविर्भाव ऐसे समय हुआ जब देश में सामाजिक समरसता के प्रयासों के बावजूद अलगाववाद की भावना चरम पर थी। देश का मजहबी आधार पर विभाजन हो चुका था। इसके साथ ही पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांगलादेश) से हिंदु पलायन कर भारत पहुंच रहे थे। नव स्थापित दोनों देश भारत और पाकिस्तान नेहरू लियाकत अली संधि से बंधे थे, जिसके अनुसार अपने अपने देश में अल्पसंख्यकों को पूरा संरक्षण देना था। भारत को सदाशयता और प्रतिबद्धता के बाद भी पाकिस्तान इस समझौते से मुकर गया जिससे पाकिस्तान से निष्कासित अल्पसंख्यक हिंदुओं का लहुलुहान रैला भारत की ओर पहुंचने लगा था। तब केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में इस पर चिंता व्यक्त की गयी और पं.नेहरू के सहयोगी मंत्री के रूप में डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी बैचेन हो गये। उन्होंने मंत्रिपरिषद से इस्तीफा देना बेहतर समझा। उन्हें चेतना शून्य राजनीति में राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की कमी महसूस हुई। चालीस के दशक में आजादी के बाद राजनीति में आयी एक निरकुंशता ने उनके मंतव्य को पुष्ट किया था तब पं.नेहरू ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बढ़ते प्रभाव से विचलित होकर इसे कुचल डालने का भी ऐलान कर दिया था। जिसका सरसंघचालक मा. माधवराव गोलवलकर ने विनीत भाव से उत्तर दिया था कि ऐसी मानसिकता को भी कुचल दिया जावेगा। महात्मा गांधी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित थे। उन्होंने कभी संघ की आलोचना नहीं की। बल्कि 1934 में वर्धा में संघ के शीतकालीन प्रशिक्षण को नजदीक से देखा था। संघ के अनुशासन और राष्ट्रीय विचारों की सराहना भी की थी। लेकिन उनकी हत्या के बाद अकारण संघ को निशाना बनाया गया। सत्रह हजार स्वयंसेवक जेलों में ठूंस दिये गये। किसी भी राजनीतिक दल ने विधान मंडल से लेकर संसद तक में इसके विरोध में एक शब्द नहीं बोला। तभी महसूस किया गया कि राजनीति में बढ़ती उच्छृंखलता का सामना करने के लिए राजनीतिक दल की अपरिहार्यता को स्वीकार करना होगा। देश में प्रजातंत्र के अस्तित्व के लिए जनसंघ का अवतरण आवश्यकता थी। आशंका व्यक्त की जा रही थी कि मुट्ठी भर लोग लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त ले सकते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद आधारित राजनीतिक दल गठित करने का डॉ.मुखर्जी ने संकल्प व्यक्त किया। कहा जा सकता है कि भारतीय जनसंघ के अवतरण के साथ ही भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद का पुट मिला है। डॉ.मुखर्जी जब केन्द्रीय मंत्रि परिषद से मुक्त होकर बंगाल अपने गृह प्रदेश पहुंचे, उनका जिस आत्मीयता से स्वागत हुआ, उसने डॉ.मुखर्जी की दिशा और दशा तय कर दी थी।

डा.मुखर्जी के राष्ट्रवाद आधारित राजनीति के मिशन ने तत्कालीन कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को भी आंदोलित किया। डॉ. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने भी राष्ट्रवाद पर आधारित दल के गठन का स्वागत किया। तब के सरसंघचालक माननीय माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने कलकत्ता में संघ कार्यालय में डा.मुखर्जी की अगली कार्ययोजना पर अपनी सहमति प्रदान कर दी। साथ ही स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि वे अपने कार्यकर्ता तो राष्ट्रवाद को समर्पित करेंगे। लेकिन राजनीति से उनका और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कुछ लेना देना नहीं रहेगा। पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, नाना जी देशमुख, भाई महावीर, सुंदरसिंह भंडारी, जगन्नाथ सिंह जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे समर्पित, सामर्थ्यवान स्वयंसेवकों के साथ डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की अक्टूबर, 1951 में रघुलय कन्या पाठशाला परिसर दिल्ली में स्थापना कर दी। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का 1975 तक जनता पार्टी में अपने विलय तक जनसंघ ने अलख जगाया। बाद में 5 अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में उदय हुआ। मुंबई में तब जमा हुए अपार जनसागर को देखते हुए अखबारों ने लिखा था कि सिहांसन खाली करो जनता आती है। यही से भारतीय जनता पार्टी ने आगाज किया था। आंकड़ों की दृष्टि से जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकाल को जोड़कर विकास गाथा के 54 वर्ष पूर्ण हुए हैं। जबकि अखिल भारतीय कांग्रेस अपनी स्थापना के सवा सौ वर्ष पूरा कर चुकी है। दोनों के विचार दर्शन, जनाधार और लोकप्रियता के बारे में मोटे तौर पर यही कहा जा सकता है कि देश की जनता जहां भारतीय जनता पार्टी को उसके सात्विक, मूल स्वरूप में इस तरह देखना चाहती है जो पार्टी विथ डिफ्रेंस हो।

पार्टी अपनी विषिष्ठता लिये हुए हो। वहीं कांग्रेस में सब चलता है, देश की जनता को बर्दाश्त है। भारतीय जनता पार्टी केन्द्र की सत्ता तक ही नहीं पहुंची है, उसने कांग्रेस के विकल्प के रूप में अपने को स्थापित कर दिखाया है। भाजपा सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी नहीं रही। कर्नाटक से दक्षिण का द्वार खोज दिया है। गठबंधन राजनीति का शिल्प भारतीय जनता पार्टी ने ही ंगढ़ा है। आज भले ही कांग्रेस यूपीए गठबंधन का नेतृत्व कर रही हो, भारतीय जनता पार्टी की विजय यात्रा के विषय में संदेह नही किया जा सकता है। कांग्रेस 1999 में सिमट कर लोकसभा में 114 सीटें प्राप्त कर पायी थी। भारतीय जनता पार्टी फिर भी 2009 में भले ही सत्ता शिखर पर नहीं पहुंची हो, उसका अंकबल 119 है। भाजपा 6 राज्यों में सत्ता में है। लोकसभा और राज्यसभा में मुख्य प्रतिपक्ष के दायित्व को सजगता से निर्वाह कर रही है। लिहाजा जो भाजपा में आये ठहराव को लेकर खुश फहमी में है, वे वास्तविकता से दूर हैं।

भारतीय राजनीति में डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी का पदार्पण भारतीय राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नवोन्मेश के साथ हुआ राजनीतिक इतिहास में देशप्रेम, राष्ट्रवाद और स्वाधीनता प्रेम शब्दों को समानार्थी समझने की गलतफहमी दूर किये बिना डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भारतीय राजनीति में योगदान और राष्ट्रवाद के प्रवर्तन को समझना कठिन है। प्रखर राष्ट्रवाद की भावना समझे बिना डा मुखर्जी और भारतीय जनसंघ के मूलदर्शन को नहीं समझा जा सकता है। राष्ट्रवाद, देशभक्ति और स्वतंत्रता की चेतना से अधिक श्रेष्ठ है। राष्ट्रवाद देशप्रेम की वह प्रखर भावना है, जो देश की अखण्डता, देश की जनता के प्रति समर्पित करने की प्रेरणा देता है। इस जज्बा के बिना भी राष्ट्रप्रेमी बने रह सकते हैं। स्वतंत्रता प्रेम और उपभोग दोनों साथ साथ कर सकते हैं। आज शहीद शब्द का सबसे अधिक दुरुपयोग जिहादी कर रहे हैं। वे फियादीन भले बन जाए लेकिन किसी राष्ट्र के प्रति उनका कोई योगदान नहीं माना जा सकता है। माक्र्सवादी भी अपने को देशप्रेमी बताते हैं, लेकिन जब देश पर बाह्य आक्रमण होता है, तो पानी कहीं गिरता है वे छाता कहीं लगाते हैं। विश्व इतिहास इस बात का गवाह है कि कोई भी मुल्क राष्ट्रवाद की भावना के बिना समृध्दिशाली नहीं बना।

देश के विभाजन के साथ आगे पीछे जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हो गया। देशी रियायतों के विलय का प्रभार जब गृहमंत्री सरदार पटेल को सौंपा गया, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने जम्मू कश्मीर का मामला अपने हाथ में रखा। इसके पीछे प्रेरणा गर्वनर जनरल माउंट वेटन की चाल थी अथवा पं.नेहरू और शेख अबदुल्ला के व्यक्तिगत रिश्ते कर रहे थे, यह शोध का विषय है। लेकिन जम्मू कश्मीर का मसला सुलझाने के बजाय पं.नेहरू ने उलझा दिया। शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का वजीरे आजम बनाकर राज्य को 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया। जम्मू-कश्मीर में प्रवेश परमिट से होने लगा। यह बात डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने बर्दाश्त नहीं की और घोषणा की कि देश में दो प्रधान, दो निशान और दो विधान नहीं चल सकते हैं। डॉ.मुखर्जी ने जम्मू कश्मीर में बिना परमिट के प्रवेश के लिए आंदोलन करते हुए बलिदान दिया। डॉ.मुखर्जी के बलिदान के परिणाम स्वरूप ही जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। परमिट व्यवस्था की विदायी उनकी शहादत का परिणाम है। जम्मू कश्मीर को भारतीय संविधान के तहत लाया गया और शेख अब्दुल्ला को वजीरे आजम का पद गंवाना पड़ा। शेख अब्दुल्ला ने अपनी आत्मकथा आतिशे चीनार में स्वीकार किया है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे। स्वयं शेख अब्दुल्ला के पर दादा का नाम बालमुकंद कौला था। डॉ.मुखर्जी का बलिदान राजनीति में प्रखर राष्ट्रवाद की मिसाल है।

भारतीय जनसंघ को डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नेतृत्व यदि अधिक समय मिल पाता तो भारतीय लोकतंत्र की दशा और दिशा कुछ और होती। लेकिन विधि की विंडबना कि उन्हें जम्मू कश्मीर की सीमा से लौटने ही नहीं दिया गया लेकिन उन्होंने राष्ट्रवाद की जो आधार शिला रखी है, उस पर भारतीय लोकतंत्र गर्व कर सकता है। भारतीय जनसंघ का प्रथम अधिवेशन कानपुर में दिसम्बर 1952 और जनवरी, 1953 में हुआ था, उसमें ही डॉ.मुखर्जी अखिल भारतीय अध्यक्ष चुने गए थे।

मौलीचंद शर्मा, पं.दीनदयाल उपाध्याय और डॉ.महावीर भाई राष्ट्रीय महामंत्री मनोनीत किये गये थे। कानपुर अधिवेशन में ही जम्मू कश्मीर आंदोलन का डॉ.मुखर्जी ने निर्णय लेकर घोषणा की थी जिस पर पूरी सिद्दत से अमल किया गया। कानपुर अधिवेशन में ही जनसंघ को अखिल भारतीय विस्तार मिल गया था। उड़ीसा, मध्यप्रदेश की शानदार भागीदारी हुई थी। गणतंत्र परिषद का जनसंघ में विलय भी हुआ था। डॉ.मुखर्जी की ख्याति भारत के बाहर कई देशों तक पहुंच चुकी थी और उनका विदेश प्रवास भारत की राजनीति का नई दिशा देने में सक्षम था। लेकिन विधि को ऐसा मंजूर नहीं था। भारत के विभाजन के प्रस्ताव पर डॉ.श्यामाप्रसाद मुखर्जी के विरोध के स्वर इतिहास के तथ्य बन चुके है। उन्होंने विरोध किया और बंगाल तथा असम का बड़ा भाग पाकिस्तान में जाने से बच गया। पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्र देश घोषित करने की योजना डॉ.मुखर्जी की थी और जनसंघ ने प्रस्ताव भी पारित किया था। अंत में इसका श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधी को मिला और उन्होंने भारत पाकिस्तान युध्द में पाकिस्तान को भी खंडित कर दिया। डॉ.मुखर्जी के असामयिक अवसान के पश्चात पं.दीनदयाल उपाध्याय और पं.अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसंघ की बागडोर संभाली। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर भारतीय जनसंघ की राष्ट्रवादी छवि बनने के कई मौलिक कारण रहे हैं। यहां सभी राजनीतिक महत्वाकांक्षा, आशा, आकांक्षा से परे रहे हैं। किसी विदेशी चिंतन का प्रभाव दूर दूर तक नही था। एक राष्ट्र एक प्राण ही मूल मंत्र था। जनसंघ की वही गौरवशाली विरासत भारतीय जनता पार्र्टी को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई। भारतीय जनता पार्टी के सामने भारतीय जनसंघ का विकसित रूप साबित करने का महान अवसर और बड़ी चुनौती भी मिली है। देश की क्षेत्रीय अखण्डता के प्रति अन्य दलों के नजरिया से कोई भी अनजान नहीं है।

रोचक तथ्य है कि भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी के विस्तार तक उसकी रीति-नीति, व्यवहार और आचरण की धुरी राष्ट्रवाद बना हुआ है। कश्मीर हो या अल्पसंख्यकवाद, धर्मनिरपेक्षतावाद हिंदुत्व पार्टी राष्ट्रवाद के केनवास पर चल रही है। अन्य दल धर्मनिरपेक्षता की आड़ में देश के राजनीतिक और सामाजिक ताना-बाना को छिन्न-भिन्न कर रहे हैं। इससे अल्पसंख्यकवाद, कट्टरवाद और अलगाववाद को हवा मिल रही है। भाजपा की ताकत से संशकित दलों ने अस्पृष्यता का व्यवहार किया जिसे जनता ने झुठला दिया। राजनीतिक स्वार्थों को ताक पर रखकर राष्ट्रहित का संवर्धन करने में भाजपा का कोई सानी नहीं है। आने वाले समय में कसौटी पर खरी उतरे, इसके लिए जनता के साथ संघर्ष करना उसका मिशन बना हुआ है।

– भरत चंद्र नायक

हाय महंगाई…

आज देश में न जाने कितने ही लोग ऐसे है जो अपनी जेब में दो-दो मोबाईल फोन रखते हैं पर आश्चर्य की बात यह है कि अब खाने की थाली में एक साथ दो सब्जियां मुश्किल से ही देखने को मिलता है। दिन-ब-दिन ऐशो-आराम की वस्तुएं सस्ती होती जा रही है, पर मूलभूत आवश्यकताओं की वस्तुओं के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि होती जा रही है। इंसान की प्रमुख जरुरत की तीन चीजें रोटी, कपड़ा और मकान उसकी पहुंच से दूर होने लगी है।

महंगाई आज देश का सबसे वलंत मुद्दा है और शायद ही इससे कोई आज अछूता है। आर्थिक मंदी का भूत जैसे ही देश से थोड़ा दूर जाने लगा महंगाई ने देशवासियों को जकड़ लिया। जो कुप्रभाव आर्थिक मंदी अधूरी छोड़ गई उसे पूरा करने में महंगाई कोई कसर छोड़ नहीं रही है। महंगाई दर हर रोज नित नये कीर्तिमान स्थापित करते जा रही है। जिस पर देश के वित्तमंत्री कहते है ‘देश का जीडीपी ज्‍यों-ज्‍यों आगे बढ़ेगा महंगाई दर भी आगे बढ़ेगी’ पर आम आदमी को जीडीपी से क्या लेना-देना, उसे तो बस अपने दो वक्त के खाने की चिंता है। इस महंगाई की आपा-धापी में कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार के बयान आग में घी का काम कर रही है। अब वो दिन दूर नहीं शायद जब इस महंगाई के चलते लोग खुदखुशी जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर हो जाये। आज रसोई से लेकर नित्य उपयोग में आने वाली हर वस्तुओं के दामों में दिनों-दिन वृद्धि हो रही है। टूथ पेस्ट से लेकर साबुन तक और सिर पे लगाने वाले तेल की कीमत भी आसमान छूने लगी है। रसोई का तो क्या कहना। आटे-दाल के भाव तो आसमान पर ही है और तो और सब्जियां खरीदना भी अब आम मध्यम वर्ग के लिए मुश्किल साबित होने लगी है।

इस वक्त देश की कमान यूपीए नीत सरकार के पास है जिसे एक महिला यानी मैडम सोनिया गांधी संचालित करती है। भारत की परंपरा को देखें तो महिलाओं को लक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है, पर यह कैसी इतालवी लक्ष्मी है जिसने आम आदमी को रसोई में जाना दूभर कर दिया है। उनके ‘सुगर-किंग’ खाद्य मंत्री शरद पवार का क्या कहना। उनके एक-एक बयानों ने आम आदमी की रसोई में ऐसा कहर बरपाया कि उन्हें अब लोग टीवी पर देखने से भी डरने लगे हैं। शक्कर पर उनके बयान ने शक्कर को 32 रूपए किलो से सीधे 50 रूपए तक पहुंचा दिया और इस छलांग से उन्हें और उनके पार्टी के कुछ नेताओं को रातों-रात करोड़ों रूपए का फायदा हो गया, क्योंकि महाराष्ट्र में कुल 17 चीनी मिले ऐसी हैं जो या तो शरद पवार के मालिकाना हक की है या फिर उनके पार्टी के किसी न किसी नेता की है। उसके बाद मौका मिला तो उन्होंने दूध को भी नहीं बख्शा। दूध की कीमतों में जबरदस्त वृद्धि देखी गई। पिछले एक सप्ताह में दूध की कीमतों में 2 से लेकर 4 रूपए प्रति लीटर की बढोत्तरी हुई। दाल और चावल को तो उन्होंने पहले से ही आम आदमी की पहुंच से दूर रखा है।

कीमतों में बढ़ोत्तरी का आलम यह है कि आज 100 रूपए का नोट बाजार में सिर्फ 1 किलो दाल ही दिला सकती है इससे यादा कुछ नहीं। ध्यान देने वाली बात यह है कि आखिर देश में ऐसा क्या हो गया कि पिछले एक साल में कीमतें आसमान पर पहुंच गई। कीमतों में बढ़ोत्तरी का प्रतिशत अगर पिछले साल के मूल्यों की तुलना में देखा जाए तो यह पता चलता है कि लगभग सभी खाद्य वस्तुओं में 50 से लेकर 100 फीसदी की मूल्य वृध्दि हुई है। आखिर किन कारणों से ऐसी परिस्थति निर्मित हुई है। इसका जवाब दिल्ली में बैठे निजामों को देना ही पड़ेगा। क्या एक साल में कृषि प्रधान भारत का कृषि उत्पाद आधा हो गया? क्या देश में गन्ने की खेती एक ही साल में 50 फीसदी घट गई? क्या देश का पशुधन भी घट गया? ऐसे न जाने कितने ही सवाल इन पंक्तियों को लिखते समय मेरे ध्यान को अपनी ओर आकर्षित करती रही। आज भारत का हर नागरिक खाद्य मंत्री की ओर इन सवालों के जवाब के लिए देख रहा है, और बशर्मी की हद तो जब हो गई जब 23-2-2010 को देश की सर्वोच्च संस्था यानी लोक सभा में महंगाई पर काम रोको प्रस्ताव पर बहस चल रही थी तो शरद पवार साहब अपनी मादक और कुटिल मुस्कान से सबको हतप्रभ करते रहे पर उनके पास किसी सवाल का कोई जवाब नहीं था। उनके साथ सोनिया जी भी बेबस बैठी नजर आ रही थी।

क्या देश में चुने हुए सरकार को 5 साल तक अपनी मनमानी करनी की खुली छूट है? अगर हां तो यह कैसा लोकतंत्र है? जहां देश में चुनावी वादों का मौसम जाते ही देश का आम आदमी अपनी जेब पर बढ़ती बोझ तले दबने लगता है। इस बार चुनावों के दौरान कांग्रेस ने एक नारा दिया था, ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ ‘ सच पूछों तो यह नारा सच प्रतीत होता नजर आ रहा है बस थोड़े मायने बदल गए हैं। नये रूप में इस नारा को देखें तो ऐसा लगता है कि ‘कांग्रेस का हाथ आम आदमी के जेब को करता है साफ’।

देश की जनसंख्या का लगभग 5 प्रतिशत ही हवाई सफर करने में सक्षम है पर इंडियन एयरलाइंस को मंदी से उबारने की चिंता सरकार को इतनी है कि माननीय नागरिक उद्ययन मंत्री श्री प्रफुल्ल पटेल ने इस मंदी से उबरने के लिए विशेष पैकेज की मांग कर डाली पर क्यों न इस विशेष पैकेज के बजाय किराये में बढ़ोत्तरी की जाये। इस बाबत् उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। इस मद में जाने वाली धन को अगर खाद्य सामग्रियों की कीमत को कम करने में लगाया जाये तो शायद वो 5 प्रतिशत की जगह देश के संपूर्ण जनसंख्या के लिए फायदेमंद होगा। इसी तरह पिछले साल आटो मैन्यूफैक्चर्स को मंदी से उबारने के लिए विशेष पैकेज आबंटित किया गया जो कि कई हजार करोड़ रूपए की थी पर सरकार को यह नहीं मालूम था कि देश में सिर्फ 22 प्रतिशत लोग ही अपना कार खरीदने का सपना पूरा कर पाते हैं। तो फिर यह फैसला किन दबावों के चलते सरकार ने लिया था इस पर भी विचार होना चाहिए।

आज क्यों न देश का हर पार्टी महंगाई के इस मुद्दे पर एक राय बनाने और आम आदमी को इस महंगाई की आग से बचाने के लिए कोई प्रयास करें। क्योंकि आज नहीं तो कल इन पार्टियों को वोटरों के पास दोबारा जाना तो ही पड़ेगा ही। देशवासियों ने भले ही इस बार प्रमुख विपक्षीय पार्टी भाजपा को नकार दिया हो पर ये वक्त भाजपा के लिए परीक्षा की घड़ी से कम नहीं है। जब उसके पास मौका है देश के हर नागरिकों के हक के लिए लड़ने का। मंदिर मस्जिद विवाद तो चलता रहेगा पर देश के हर घर में चूल्हे जलते रहे यह सुनिश्चित करना देश के हर पार्टी के लिए सर्वोपरि है।

– गोपाल सामंतो

नई परीक्षा प्रणाली की संकल्पना

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भले ही हाल में आईआईएम के द्वारा संचालित कैट की ऑनलाईन परीक्षा त्रुटिपूर्ण और विवादस्पद रही है, बावजूद इसके इस परीक्षा ने हमारे सामने एक नजीर कायम है। यह सच है कि आईआईएम के द्वारा संचालित कैट की ऑनलाईन परीक्षा कोई पहली ऑनलाईन परीक्षा नहीं थी, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि इतने व्यापक पैमाने पर किसी संस्थान ने इसके पहले कभी भी ऑनलाईन परीक्षा नहीं संचालित करवाया था।

परिवर्तन प्रकृति का शाश्‍वत सत्य है। भारतीय परीक्षा प्रणाली में लगातार बदलाव आते रहे हैं। पहले हमारे देश में गुरुकुल की परम्परा थी। उस समय शिक्षण के पश्‍चात् अभ्यास सत्र होता था और उसके तदुपरांत गुरुजी शिष्‍यों की परीक्षा लेते थे। इस परम्परा के तहत शिष्‍यों को शास्त्रों के अलावा व्यावहारिक ज्ञान भी दिया जाता था। फिर गुलामी के दौरान आया मैकाले का जमाना।

मैकाले का जमाना था रटंत विधा का हिमायती, जो आज भी कायम है। इस शिक्षा पद्धति के कारण हमारे देश के विधार्थी आज दिमाग का इस्तेमाल करना ही भूल गये हैं।

आज पाठयक्रम के अनुसार शिक्षण का कार्य हमारे शिक्षा के मंदिरों में किया जाता है और परीक्षा में प्रश्‍न भी सिलेबस से पूछे जाते हैं। अगर गलती से कभी एकाध प्रश्‍न पाठयक्रम के बाहर से पूछ दिया जाता है तो छात्र परीक्षा का बहिष्कार कर देते हैं।

यही कारण है कि आईआईटी और एम्स से स्नातक व स्नातकोत्तार करने के बाद भी कोई भारतीय छात्र आविष्कार नहीं कर पाता है। थ्री इडियटस के वाइरस और उसके छात्रों की तरह आज के छात्र भी कक्षा में बैठकर पूरे पाठयक्रम को शरबत बना कर पीना और पिलाना चाहते हैं। शोधकार्य को कभी हम तव्वज्जो देते ही नहीं हैं। सरकार भी इस मुद्वे पर उदासीन प्रतीत होती है।

हमें आजाद हुए 62 साल हो गये हैं, पर हमारी शिक्षा पद्धति आज भी मैकाले के जमाने वाली ही है। जबकि इस बीच हर क्षेत्र में बदलाव और विकास हुआ है।

संचार एवं अद्यतन तकनीक की बदौलत आज हमारे समाज का चेहरा बदल गया है। गाँव से लेकर शहर तक और आम से लेकर खास तक ने विज्ञान के सहयोग से अपने सारे पुराने मानकों को बदल डाला है।

इस दिशा में अमिताभ बच्चन द्वारा प्रस्तुत केबीसी (कौन बनेगा करोड़पति) ने चुपके से न जाने कब भविष्य की परीक्षा प्रणाली का बीज बो दिया और हमें इसकी भनक तक नहीं लगी।

कहते है न कि हर नई चीज की प्रेरणा कहीं न कहीं से ली जाती है। इसी अवधारणा के आधार पर भारत में ऑनलाईन परीक्षा की संकल्पना बलवान हुई। इस कार्यक्रम की सफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि ऑनलाईन की परीक्षा को भारत में सफलता पूर्वक संचालित किया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि इस तरह से संचालित परीक्षाओं में प्रष्न चरणबद्व तरीके से पूछे जाते हैं। शुरु के प्रष्न सरल होते हैं। क्रमष: प्रश्‍नों का स्तर बढ़ता चला जाता है। इस संदर्भ में छात्रों के पास यह विकल्प होता है कि वे कभी भी परीक्षा का दामन छोड़ सकते हैं। साथ ही इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि परीक्षा परिणाम के लिए छात्रों को इंतजार नहीं करना पड़ता है। क्लिक किया और परीक्षा परिणाम हाजिर है।

वर्तमान व्यवस्था इतनी ढुल-मूल है कि परीक्षा संपन्न होने के बाद बरसों गुजर जाते हैं, फिर भी परीक्षाफल छात्रों को नसीब नहीं हो पाता है। कितने छात्रों को तो सत्र और परीक्षाफल में होने वाले देरी की वजह से नौकरी और कई दूसरे बेषकीमती अवसरों से भी महरुम रहना पड़ता है।

सच कहा जाये तो आईआईएम के द्वारा संचालित कैट की ऑनलाईन परीक्षा में थोड़ी कठिनाई जरुर हुई है, किन्तु इस सफलता ने इतना तो स्पष्ट जरुर कर दिया है कि अब यह कारवां रुकेगा नहीं। पर गलतियों की पुनरावृति से बचने के लिए भविष्य में हमें परीक्षा के पूर्व पूरी चौकसी बरतनी चाहिए तथा परीक्षा की रुप-रेखा की जानकारी हमारे मस्तिष्क में स्पष्ट रुप से अंकित होनी चाहिए। तभी हम अपने मकसद में कामयाब हो पायेंगे।

ऑनलाईन परीक्षा के लिए दो स्तर पर तैयारी की जानी चाहिए। सबसे पहले आधारभूत स्तर पर और पुनश्‍च: शैक्षिणक स्तर पर। यहाँ आधारभूत स्तर के तहत कंप्‍यूटर हार्डवेयर को दुरुस्त करने और उसके रख-रखाव की परिकल्पना की गई है। जबकि शैक्षिणक स्तर के अंतगर्त परीक्षा के लिए प्रश्‍नों का चुनाव एवं उसका वर्गीकरण प्रश्‍नों की कठिनाई के हिसाब से किये जाने का प्रावधान है अर्थात प्रश्‍नों का गुणात्मक स्तर बढ़ता चला जाएगा और उसमें चरणबद्ध तरीके से बदलाव भी आता रहेगा।

ऑनलाईन परीक्षा विविध चरणों में विभाजित होती है। शुरुआती चरण आसान होते हैं और बाद वाले कठिन। अगर कोई छात्र सफलता पूवर्क सभी चरणों के प्रश्‍नों को हल कर लेता है तो माना जाता है कि उसका मानसिक स्तर औसत से ऊपर है।

इस परीक्षा प्रणाली का आगाज तो हो चुका है। अब इस शुरुआत को देशव्यापी स्तर पर हकीकत में तब्दील करने की जरुरत है। इन सब के लिए एक ईमानदार कोशिश के साथ-साथ ढेर सारे रुपयों की भी आवश्‍यकता है। अगर सबकुछ ठीक रहा तो बहुत जल्द शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति आने वाली है।

नई परीक्षा प्रणाली के आने से मैन्यूल परीक्षा को संचालित करने में खर्च होने वाले करोड़ों-अरबों रुपयों का प्रयोग लोक-कल्याणकारी कार्यों में खर्च किया जा सकेगा।

कदाचार को बढ़ावा देने वाले षिक्षा माफियों का भी धंधा इससे रुक जायेगा। फर्जी तरीके से नौकरी करने वालों पर लगाम लगेगा। अधतन तकनीक बायोमैट्रिक्स की मदद से फर्जी विधार्थी या उम्मीदवार परीक्षा में शामिल ही नहीं हो पायेंगे।

स्कूल-कॉलेजों और नौकरी के लिए संचालित होने वाली परीक्षाओं के परिणाम तुरंत आ जायेंगे। इसकी मदद से षिक्षण सत्र में सुविधानुसार बदलाव एवं पारदर्षिता को लाया जा सकेगा।

नामांकन के लिए प्रतियोगिता परीक्षा एवं वार्षिक परीक्षा को कभी भी साकार किया जा सकेगा। इतना ही नहीं प्रष्नोत्तारी एवं अन्यान्य शैक्षिक गतिविधियों को भी समयानुसार अमलीजामा पहनाया जाएगा। छात्र स्कूल-कॉलेज की बजाए घर से भी परीक्षा देने की स्थिति में रहेंगे।

बदलते परिवेश में पूरे देशमें शिक्षा को व्यावहारिक रुप देने के लिए नित दिन नये प्रयोग किये जा रहे हैं। इसकी ही अगली कड़ी है विज्ञान और गणित के पाठयक्रम को पूरे देशमें एकसमान करने के दिशा में मानव संसाधन मंत्री श्री कपिल सिब्बल द्वारा पहल करना। सच कहा जाये तो शिक्षा प्रणाली में आ रहे इस तरह के बदलाव के कारण देश में शिक्षा के स्तर को ऊपर उठाने में हमें मदद मिलेगी।

यदि सरकार परीक्षा प्रणाली में चल रहे बदलाव को रेखांकित करते हुए हर तरह की सहायता पूरे देश के स्कूल-कॉलजों में उपलब्ध करवाती है तो यह महत्ती कार्य जल्द से जल्द अपनी मंजिल तक पहुँच जाएगा और भविष्य में कोई टुच्चे कोर्स करने के लिए आस्ट्रेलिया जाकर अपनी जान भी नहीं गवांएगा।

-सतीश सिंह

अप्रत्यक्ष गुलामी है स्क्रीन संस्कृति

हाइपररीयल का प्रतिरोध करने के लिए स्क्रीन के खेल को जानना जरूरी है। परवर्ती पूंजीवाद के प्रौपेगैण्डा और संचार की धुरी स्क्रीन है। स्क्रीन के बिना आज कोई भी संप्रेषण संभव नहीं है।

सारा देश स्क्रीन के सहारे सूचनाएं ग्रहण कर रहा है। टेलीविजन, मोबाइल से लेकर कम्प्यूटर स्क्रीन तक स्क्रीन का वातावरण फैला हुआ है। अब स्क्रीन ही सूचना है। हेबरमास के शब्दों में यह अप्रत्यक्ष गुलामी है। औद्योगिक देशों से लेकर विकासशील देशों तक स्क्रीन का ही बोलवाला है। स्क्रीन हमारे ज्ञान का स्रोत है।

आज हम दुनिया के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह स्क्रीन के जरिए ही जानते हैं। स्क्रीन में वही दिखाया जाता है जो पहले से तय है। कैमरे में बंद है। जिसे आकार दे दिया गया है। संगठित कर लिया गया है। इसके बाद ही उसे स्क्रीन पर पेश किया जाता है। स्क्रीन हमारे सामने शो,प्रदर्शनी और प्रासंगिक डाटा पेश करता है। दफ्तर, एयरपोर्ट,रेलवे स्टेशन, टीवी चैनलों से लेकर कम्प्यूटर और मोबाइल तक स्क्रीन का शासन है।

कहने के लिए स्क्रीन तो सिर्फ स्क्रीन है। किंतु यह हमारी गतिविधियों का केन्द्र है। वह हमारा ध्यान खींचती है। साथ ही हमारी शारीरिक उपस्थिति को भी आकर्षित करती है। खासकर तब जब हम गतिविधियों को खोजते हैं। अमूमन वह हमारे सरोकारों को वातावरण की तरह व्यक्त करती है। स्क्रीन यह भी दरशाती है कि वह हमारे जीवन में कैसे दाखिल हो गयी है। हम ज्योंही स्क्रीन के सामने होते हैं तो तुरंत इसका बटन दबाते हैं और वह चालू हो जाती है और हमारा ध्यान खींचती है। हम शांति से बैठ जाते हैं। हम चाहें तो स्क्रीन देखते हुए अन्य काम भी कर सकते हैं। हम इस पर तैयारशुदा सामग्री देखने के लिए निर्भर होते हैं। स्क्रीन के साथ हमारी इस तरह की शिरकत ही है जो हमारी सामाजिक शिरकत को कम कर रही है। सामाजिक गतिविधियों और हमारे बीच में स्क्रीन मध्यस्थता करती है।

यह प्रक्रिया तब ही शुरू होती है जब हम बटन दबाते हैं। बटन दबाते ही स्क्रीन पर चीजें हाजिर हो जाती हैं। यह एक तरह की पारदर्शिता और प्रतिगामिता है। वह पहले से ही उस जगत में थी जिसमें हम थे। वह वहां पर ही होती है जो हमारी अपनी दुनिया है। वह दुनिया को हमारे सामने लाती है। यह वह जगत है जो हमारी आंखों के सामने मौजूद है। जो हम पर निर्भर है। हमारी संभावनाओं पर निर्भर है।

इसके संदर्भ हमारे संदर्भ हैं। वह समूचे जगत को फिनोमिना के रूप में सामने पेश करती है। अब हम स्क्रीन की दुनिया में स्वयं स्क्रीन होते हैं। स्क्रीन हमारे जीवन की गतिविधियों का आईना बन जाती है। वह हमारी समस्त गतिविधियों और संभावनाओं का दर्पण बन जाती है। अब हम स्क्रीन की गतिविधियों में शामिल हों अथवा बाहर रहें। हम ज्योंही एकबार स्क्रीन के आदी हो जाते हैं तो फिर इसके बाहर नहीं जा पाते।

स्क्रीन सतह पर एक सामान्य सा शब्द है। किंतु इसके अर्थ बड़े गंभीर हैं। यह बहुवचन को सम्बोधित करने वाला शब्द है। टीवी वगैरह के संदर्भ में इसका काम है प्रस्तुत करना (प्रोजेक्टिंग) और दिखाना (शोइंग), अन्य क्षेत्र में स्क्रीन का काम है छिपाना और संरक्षण करना (fireplace screen), उम्मीदवारों के चयन के संदर्भ में स्क्रीन का अर्थ है परीक्षण और चयन। कहने का अर्थ यह कि स्क्रीन बहुअर्थी है। इस तरह देखेंगे तो स्क्रीन हमारे साथ वैसे ही जुड़ा है। जैसे त्वचा। उसी तरह स्क्रीन का काम है प्रदर्शन करना और जो चीज पेश की जा रही है उसे सहमति के रूप में पेश करना। जब प्रस्तुति को सहमति के रूप में देखते हैं तो एक अन्य आयाम भी सामने आता है जिसका हमारी खोज से गहरा संबंध है।

जब कोई चीज पेश की जाती है तो प्रस्तुति वास्तव लगती है। प्रस्तुति स्वयं में जगह बन जाती है। स्क्रीन को बुनियादी तौर पर आंखों से देखते हैं। आंखों के जरिए दुनिया खास तरह से हमारे दिलोदिमाग में दाखिल होती है। उसे ज्ञानात्मक तौर पर जेहन में उतारते हैं। उसके बारे में समझ बनाते हैं। इस तरह स्क्रीन का देखना महज देखना नहीं होता बल्कि हमारी ज्ञानात्मक समझ को भी निर्मित करता है। इस अर्थ में स्क्रीन की गतिशील सतह हमारे लिए ज्यादा प्रासंगिक है।

हम जब किसी चीज को स्क्रीन पर देखते हैं तो उसके शब्द के मूल अर्थ को ध्यान में रखते हैं,मूल अर्थ को ध्यान में रखकर ही हम देखते हैं और नया अर्थ बनाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यदि नरेन्द्र मोदी के कवरेज को देखा जाए तो संभवत: कोई नयी संभावना नजर आए।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

राकेश उपाध्‍याय की दो कविताएं

1.ईश्वरत्व के नाते मैंने नाता तुमसे जोड़ा…

कल मैंने देखा था तुम्हारी आंखों में प्यार का लहराता समंदर

उफ् कि मैं इन लहरों को छू नहीं सकता, पास जा नहीं सकता।।

कभी-कभी लगता हैं कि इंसान कितना बेबस और लाचार है

सोचता है मन कि आखिर क्यों बढ़ना है आगे, लेकिन कुछ तो है,

जो बार-बार जिगर उस डगर पर ला छोड़ता है उसे जहां कि

मन किसी से कुछ कहने के लिए बार-बार बेताब हो उठता है।

क्यों होता है ऐसा? क्या किसी ने जाना है कि कोई क्योंकर

रोज किसी के सपनों में आता है और मंद-मंद मुस्कानें भरता,

दो पल के लिए रूककर फिर दूर कहीं उड़ता चला जाता है?

सोचो तो बहुत पास है, देखो तो दूर दूर परछाई तक नहीं है।

दिल में तड़पन और एक मीठी सी छुअन किसी अजनबी के प्रति

आखिर क्यों उठ जाती है, जबकि हम जानते हैं कि रास्ते दोनों के,

हमेशा से अलग हैं और आगे भी अलग रहेंगे लेकिन फिर भी

एक ख्याल कौंधता सा है कि हम अलग हैं ही कहां, एक ही तो हैं।

किसी जनम की कोई लौ जलती है, वह लौ फिर से पास आ जाए

तो भला कोई कैसे पहचाने, कैसे जाने कि रिश्ते दोनों के कुछ गहरे हैं,

ये रिश्ते कम से कम वो तो नहीं है जिन्हें दुनियां-जहां ठीक ना समझे

ये तो आम समझ के ऊपर के रिश्ते हैं, कुछ रूमानी हैं तो कुछ रूहानी हैं।

इसीलिए इन आंखों में सदा ही प्यार का समंदर उमड़ता है जिनको मैंने

कल देखा था, उन आंखों में एकटक झांका था तो हूक सी उठी थी दिल में,

क्यों मुझ पर ही सवाल लगा दिया तुमने, क्यों ठुकरा दिया था तुमने जबकि

मैंने तो तुमको अपना ही माना था, कल भी, आज भी, सदा ही, सदा के लिए।

रिश्ते इंसानी ही नहीं है, इंसानी रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं लेकिन जो रिश्ते

फरिश्तों ने बनाए, जिनके गीत ह्दय के किसी कोने ने गुनगुनाए और जहां,

शरीर के सुख से ऊपर की कुछ चीज है, जहां ईश्वरत्व की कुछ सीख है

उस रिश्ते से मैंने तुमसे रिश्ता जोड़ा, रूहानी प्यार की खातिर नाता जो़ड़ा।

अपने मन के संगीत को सुनोगे दिल की गहराई से तुम तो शायद

इस गहराई को समझ सकोगे, नहीं तो केवल और केवल संदेहों-

आशंकाओं के गहराते बादलों में ही घूमते रहोगे, नहीं समझ सकोगे

कि क्या सचमुच यह प्यार सच्चा है, मन-ह्दय इसका क्या सीधा-साधा है।

आज भी देखा कि प्यार का समंदर तुम्हारी आंखों में लहरा रहा

काश कि मैं इन लहरों को कहीं तो छू सकता, कहीं तो पा सकता।

2. तुम सुन्दर, सुंदरतम हो…

हाँ सुन्दर हो, तुम सुन्दर

सुन्दरतम रूप तुम्हारा

पर प्यार बिना सुन्दरता क्या

प्यार से निखरे जग सारा…

देखो सुन्दर धरती को

पहन हरीतिमा इठलाती

जीवन में सुन्दरता भरती

हर ऋतु में खूब सुहाती…

लेकिन कुछ मौसम ऐसे आते

लगता है ये कब जल्दी जाएँ

ठंडी, गर्मी घोर पड़े जब

धरती की जब दशा लजाती ….

धरती को भी को पावन करने

प्यार मलय-घन बन आता है

बसंत, शरद औ वर्षा ऋतु सा

वसुधा पर जीवन सरसाता है….

और प्यार की बातें करना

किसको बोलो नहीं है भाता

जीवन की सबकी डोर एक है

प्यार बनाता सबमें नाता…

उस नाते की खातिर सोचो

क्या लेकर यहाँ से जाओगे

यदि जीवन में बांटा प्यार सदा

तो यह प्यार सभी से पाओगे….

प्यार को जानो प्यार को समझो

यह रूप कहीं पर तो रुक जायेगा

ढलने की इसकी रीति पुरानी

ढलते ढलते निश्चित ढल जायेगा….

सुन्दरता यदि दिल में है

तो तुम सुन्दर, सुंदरतम हो

और कहूँ अब क्या मैं तुमसे

तुम धरती हो, तुम अम्बर हो.

कैंसर के इलाज का झूठ

कैंसर के कारण और इलाज ढूंढने के दावे करने वाले समाचार बार-बार अनेक दशकों से छपते आ रहे हैं। पर कैंसर से मरने वालों की संख्या हर देश में हर साल बढ़ती ही जा रही है। विकासशील देशों की बात छोड़कर विकसित देशों को लें तो पुराने प्राप्त आंकड़े बतलाते हैं कि केवल इग्लैंड में पिछले 50 साल से कैंसर से मरने वालों की संख्या साढ़े चार गुणा बढ़ी थी। संयुक्त राज्य में कैंसर की मृत्यु दर 50 हजार प्रतिवर्ष से भी अधिक हो गई हैं। आज भी यह संख्या लगातार बढ़ रही है। एक अन्य आंकलन कर्ता ने यह संख्या 50 के स्थान पर 75 हजार बताई है।

ऐलोपैथी की दवाओं और ऑपरेशन द्वारा कैंसर के इलाज की बात भी सही सिद्ध नहीं हो रही है। प्राप्त आंकड़ों और एलोपैथी के मूर्धान्य चिकित्सकों के अनुसार ऑपरेशन कैंसर का इलाज नहीं हो सकता। इन दवाओं से कैंसर का इलाज असम्भव है। लदंन के एक प्रसिद्ध चिकित्सक ‘जेम्स वुड’ ने हजारों ऑपरेशन करने के बाद अपने अनुभव के बारे में लिखा कि उन हजारों में से 6 को छोड़कर सबको फिर से कैंसर हो गया। वे 6 रोगी साधारण टयूमर के थे-कैंसर के नहीं। उसी काल के प्रसिद्ध चिकित्सक ‘डॉ वाश’ ने कहा कि नश्तर यानी ऑपरेशन से कैंसर रोग को ठीक नहीं किया जा सकता और न ही रोगी का जीवन लम्बा किया जा सकता है। अनेक आधुनिक पर ईमानदार चिकित्सक मानते हैं कि ऑपरेशन से कैंसर और भी भयानक रूप ग्रहण कर लेता है। यहां तक कि बयोप्सी में भी रोग अधिक तेजी से फैलने लगता है। मंहगी आधुनिक दवाएं भी रोग से अधिक रोगी को मारती है। अर्थात् ऐलोपैथिक इलाज से आर्थिक और शारीरिक दोनों स्तर पर हानि ही हानि।

कैंसर के अनेक रोगियों का सफल इलाज होम्योपैथी से करने वाले और अनेक रोगियों की जीवन रक्षा करने वाले ऐलोपैथिक अमेरीकी ‘डाक्टर जी. जेम्स’ ने अनेक साथी ऐलोपैथिक चिकित्सकों के सन्दर्भ से प्रमाणित किया कि एलोपैथिक इलाज और ऑपरेशन रोगी को जल्दी मार देते हैं और रोग तेजी से बढ़ता है। ये इलाज रोगी के कष्ट को बढ़ाने और मृत्यु को और निकट लाने वाले हैं। सर्जरी के विश्व प्रसिद्ध ‘डॉ बेंजामिन’ ने 500 स्तन कैंसर की रोगिणियों के ऑपरेशन यह कह कर किए थे कि इससे उनकी आयु लम्बी नहीं होगी।

ऐलोपैथिक की दवाओं और शोध के नाम पर अरबो डालर की राशि खर्च करने की लूट की पोल खोलते हुए बम्बई के दो एलोपैथिक चिकित्सकों ने एक खोजपूर्ण पुस्तक लिखी जो इंग्लैंड में छपी तथा भारत में केवल गुजराती में उपलब्ध है। कैंसर-मिथ एण्ड रियलटीज एबाऊट कॉज एण्ड क्यूर नामक इस पुस्तक में अपने निष्कर्ष देते हुए वे लिखते हैं कि ऐलोपैथी का इलाज करवाने वाला रोगी कम समय तक जीता है और उसकी मृत्यु बड़ी कष्टप्रद होती है। जो ऐलोपैथिक इलाज नहीं करवाते वे अधिक समय तक जीते हैं और उनकी मृत्यु बिना कष्ट के होती है।

वे बायोप्सी के बारे में लिखते है कि यह समझदारी नहीं। इससे कैंसर शरीर के अन्य भागों में तेजी से फैलता है। पिछले 50 सालों में कैंसर के इलाज पर अरबों डॉलर खर्च करने पर एक इंच की प्रगति नहीं हुई फिर भी लम्बे चौड़े दावे छपते रहते हैं। दोनों सुप्रसिद्ध चिकित्सकों का कहना है कि यह आर्थिक स्वार्थों को साधने का षड्यन्त्र है। आज तक उक्त पुस्तक के दावों का खण्डन करेन का साहस किसी एलोपैथिक चिकित्सक का नहीं हुआ है।

प्राप्त प्रमाणों से सन्देह होता है कि विश्व की व्यापारी शक्तियाँ कैंसर के नाम पर अरबों-खरबों रूपयों की लूट कर रही हैं। मानव कल्याण के नाम पर काम करने वाले वैश्विक संगठन भी उनके षड़यन्त्र में शामिल नजर आते हैं। आधुनिक ऐलोपैथिक चिकित्सा कैंसर के इलाज में असफल सिद्ध हो जाने के बाद भी उसे बढ़ावा देना कैंसर का प्रमाणिक इलाज करने वाली चिकित्सा पद्धतियों तथा व्यक्तियों की उपेक्षा, ये सब बातें दवा निर्माता कम्पनियों और वैश्विक संगठनों तथा सरकारों की मिलीभगत के सन्देह को और भी गहराती हैं। आयुर्वेद और पारम्परिक चिकित्सकों के दावों पर कभी कोई धयान नहीं दिया जा रहा। ऐलोपैथिक को 93 प्रतिशत और आर्युवेद आदि पद्धतियों को केवल 7 प्रतिशत बजट केन्द्र सरकार द्वारा दिया जाना उनके पक्षपात पूर्ण व्यवहार का स्पष्ट उदाहरण है।

राजगढ़ (म.प्र.) के एक बनवासी द्वारा हजारों रोगियों का इलाज किए जाने के समाचार वर्षों तक पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे। स्वमूत्र चिकित्सा ने अनगिनत रोगियों की जीवन रक्षा की है। बम्बई के लोगों ने तो इस पर एक अभियान ही छेड़ दिया और एक फाऊंडेशन की स्थापना कर डाली।

तुसली-दहीं के प्रयोग से ठीक होते अनेक रोगियों को देखा गया। गेहूँ के ज्वारों और योग-प्राणायाम से कैंसर ठीक होने के विवरण विश्व भर से वर्षों से प्राप्त हो रहे हैं। खमीर के प्रयोग, फलाहार आदि से ठीक होने वाले रोगियों की लम्बी सूची है। पर सरकार और वैश्विक तथाकथित समाज सेवी संगठन केवल ऐलौपैथिक को बढ़ावा देते हैं। ऐसे में नियत पर सन्देह होना स्वाभाविक है। नहीं लगता कि इन संगठनों और इनकी उंगलियों पर नाचने वाली सरकारें कैंसर तथा अन्य समस्याओं को समाधान चाहती हैं। वे सब केवल धन कमाने के काम में जुटे हुए हैं, मानव कल्याण से उनका कोई वास्ता नहीं।

अत: अपने हित के लिए समाज के समझदार और जिम्मेवारी समझने वालों को स्वयं सब समझना और समाधान निकालना होगा। वैश्विक शक्तियों की कथनी करनी के निहितार्थ को समझे बिना भारत और मानवता का कल्याण सम्भव नहीं। कैंसर के इलाज और बाकी सब समस्याओं के समाधान की सामर्थ्य हम में है, बस निर्भरता और इन शक्तियों पर विश्वास छोड़कर स्वयं प्रयास करने की दिशा में कार्य करना होगा।

-डॉ. राजेश कपूर

समय पर काम नहीं करना भी भ्रष्टाचार!

जनता के काम को समय पर नहीं करने वाले लोक सेवकों के बारे में मैंने जयपुर से प्रकाशित राष्ट्रीय पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के 1 से 15 जनवरी, 2010 के अंक में लिखा था कि-“समय पर काम नहीं करना भ्रष्टाचार ही तो है।” अब इसी बात को मध्य प्रदेश के लोकायुक्त जस्टिस पी.पी. नावलेकर ने इस प्रकार से कहा है कि-

“भ्रष्टाचार की श्रेणी में सिर्फ रिश्वत के मामले ही नहीं आते हैं, अपितु कोई लोकसेवक अपने दायित्व का निर्वाह करने में लापरवाही करता है तो वह भी भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है।”

मैंने जो कुछ लिखा था, वह पाठकों की जानकारी हेतु प्रस्तुत है-

“…..अकसर इसलिये भी अनेक लोग रिश्वत देने को विवश होते हैं, क्योंकि सरकारी कार्यालयों में आम लोगों के कार्य निस्तारण की कोई भी समय सीमा निर्धारित नहीं है। जिसके चलते जनता के नौकर, अर्थात्‌ लोक सेवक जो वेतन तो जनता के धन से पाते हैं, लेकिन स्वयं को न मात्र जनता का ही, बल्कि इस देश का भी मालिक समझ बैठे हैं, वे आमतौर पर जनता के हित का कोई भी कार्य समय पर नहीं करते हैं। आम लोगों का चाहे राशन कार्ड हो, बिजली या पानी का कनेक्शन हो, चाहे पासपोर्ट बनवाना हो या फिर किसी भी फर्म का पंजीकरण करवाना हो, इस बारे में आज तक सरकार द्वारा न तो कोई निर्धारित एवं पारदर्शी प्रक्रिया बनाकर लागू की गयी है और न हीं जनता के इन महत्वूपर्ण कार्यों को समय पर करने की कोई समय-सीमा निर्धारित की गयी है। जिसके चलते अफसर और कर्मचारी जनता का खून पीने के लिये आजाद हैं। इस अव्यवस्था के चलते हर स्तर पर बिचौलियों और दलालों का धन्धा जोरों से चलता रहता है और आम व्यक्ति शोषित होने को विवश है। अतः इस प्रकार के अन्याय, अत्याचार, शोषण एवं भ्रष्टाचार से जनता को निजात दिलाने के लिये सरकारों द्वारा तत्काल ऐसा कानून बनाया जावे, जिसके तहत आम जनता के हितों तथा उत्थान से जुडे व्यक्तिगत मामलों को सरकारी कार्यालयों में स्वीकार करने के बाद से अंतिम निपटान करने की बाध्यकारी समय सीमा निर्धारित हो। निर्धारित समय सीमा में काम नहीं करने को काम करने में कोताई ही नहीं माना जावे, बल्कि इसे भ्रष्टाचार भी माना जावे और इस समय सीमा में जनता का काम नहीं करने वाले लोक सेवक को बिना किसी शिकायत के उसके प्रभारी अधिकारी या पर्यवेक्षक या इंचार्ज द्वारा तत्काल पुलिस के हवाले कर दिया जावे और उसके विरुद्ध जानबूझकर जनता के हितों से जुडे मामले में अकारण विलम्ब करने का आपराधिक मुकदमा दायर किया जावे। इस प्रकार के अपराध के लिये पहली बार में आरोपी लोक सेवक के एक वर्ष के वेतन के बराबर जुर्माने से दण्डित करके, जुर्माना पीडित व्यक्ति को भुगतान करने का प्रावधान हो और ऐसा ही अपराध दुबारा करने पर ऐसे आरोपी एवं भ्रष्ट लोक सेवक को नौकरी से निकाल दिया जावे।”

इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि समय पर कार्य नहीं करना और कार्य में अकारण विलम्ब करना सीधे-सीधे रिश्वत की मांग करने के सदृश्य अपराध है। यदि कोई कार्य 10 दिन में किया जाना चाहिये और बिना किसी विशेष परिस्थिति के उस काम को 20 दिन तक नहीं किया जाता है तो इसका एक मात्र यही मतलब है कि मामले को लम्बित रख कर इस बात का इन्तजार किया जा रहा है कि कोई दुखियारा आये रिश्वत दे और अपना काम करवा ले जाये। यदाकदा ऐसे मामले पकडे जाने और सिद्ध हो जाने पर विभागीय कार्यवाही करके छोटा-मोटा दण्ड देकर मामले को रफादफा करने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिये मैं फिर से दौहराना चाहता हूँ कि-

1. आम जनता के हितों तथा उत्थान से जुडे व्यक्तिगत मामलों को सरकारी कार्यालयों में स्वीकार करने के बाद से अन्तिम निपटान करने की बाध्यकारी समय सीमा निर्धारित हो।

2. निर्धारित समय सीमा में काम नहीं करने को केवल काम करने में कोताई ही नहीं माना जावे, बल्कि इसे सीधे-सीेधे भ्रष्टाचार भी माना जावे।

3. निर्धारित समय सीमा में जनता का काम नहीं करने वाले लोक सेवक को बिना किसी शिकायत के उसके प्रभारी अधिकारी या पर्यवेक्षक या इंचार्ज द्वारा तत्काल पुलिस के हवाले कर दिया जावे।

4. ऐसा अपराध करने वाले के विरूद्व जनता के हितों से जुडे मामले में जानबूझकर और अकारण विलम्ब करने का आपराधिक मुकदमा दायर किया जावे।

5. इस प्रकार का अपराध सिद्ध होने पर पहली बार में आरोपी लोक सेवक को, उसके एक वर्ष के वेतन के बराबर जुर्माने से दण्डित करके, जुर्माना पीडित व्यक्ति को भुगतान करने का प्रावधान हो। और

6. ऐसा ही अपराध दुबारा करने पर ऐसे आरोपी एवं भ्रष्ट लोक सेवक को नौकरी से निकाल दिया जावे।

जिस दिन संसद द्वारा कार्य में अकारण या जानबूझकर किये गये विलम्ब को स्वतः ही भ्रष्टाचार मानने का कानून बना दिया जायेगा, उस दिन लोक सेवकों को लोक सेवक के पद का महत्व और जनता के प्रति अपने कर्त्तव्यों का अहसास होगा। इस कानून को बनाने में विलम्ब किये जाने का अर्थ है, स्वयं सरकार द्वारा ही भ्रष्टाचार को बढावा देना। यदि सरकार स्वयं ही भ्रष्टाचार को बढावा देगी तो फिर आम लोगों का क्या हाल होने वाला है, इस बात की सहज ही कल्पना की जा सकती है! अतः आम जनता को और मीडिया को देश की सरकार पर दबाव बनाना चाहिये, जिससे कि सरकार इस प्रकार का कानून बनाने को विवश हो जाये।

-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

ममता की रेल या रेल में ममता

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साल 2010-11 का रेल बजट ममता बैनर्जी ने संसद में पेश कर दिया है। बजट को पेश करते वक्त दीदी का कहना है उन्होंने इस बात का खास ध्यान रखा है कि उनकी योजनाएं आर्थिक पैमाने पर कितना खरा उतरती है, साथ इस बजट का आम लोगों पर क्या प्रभाव पडेगा। ममता बैनर्जी ने कहा कि हमारा लक्ष्य रेलवे से अधिक से अधिक लोगों को जोडने का है इसी आधार पर रेल बजट तैयार किया गया है। पूरे देश से इस बजट के लिए 5000 से भी ज्यादा की मांगें आई थीं. इन मांगों को ध्यान में रखते हुए ममता बैनर्जी ने लोगों पर अपनी ममता खूब बरसाई। यात्री किराये में कोई बढोत्तरी नहीं की गई है, साथ ही माल भाडे मेंकिसी तरह की किराये बढ़ोत्तरी भी नहीं की गई है। बाबजूद इसके रेलवे का कुल राजस्व 88281 करोड रहने का अनुमान भी है।

रेलवे के लिए मिशन 2020 लागू करते हुए दीदी ने लोगों पर सौगातों की बौछारें कर डाली है, 5 सालों में पूरे देश को रेलवे के नेटवर्क से जोडने की बात कहते हुए यात्री सुविधाओं के लिए 1302 करोड रूपये भी दे डाले हैं. साथ दूर-दराज के क्षेत्रों को रेलवे से जोडने के लिए हर साल 1000 किमी नई रेल लाइन बिछाने की भी बात की गई है. सदन में पेश इस रेल बजट का मूल्याकंन अगर योजनाओं के आधार पर करें तो यह बिल्कुल सही है कि यह बजट हर तरीके लोकलुभावन है लेकिन ऐसी कई जिलों को इस बार भी इस बजट में जगह नहीं मिली है जिनके लिए कई सालों से रेल की मांग उठती रही है, मध्यप्रदेश के कई ऐसे जिले हैं जहां पर रेलवे की सुविधाओं को लेकर कई बार आंदोलन हुए हैं बाबजूद इस बार भी वे किसी तरह की भी सुविधाओं से वंचित हैं आमूमन मंडला जैसे पिछडे जिले में एकमात्र छोटी लाइन आज भी हाशिये पर है, लंबे समय से इसे लाइन के लिए ब्राडगेज की मांग की जाती रही है लेकिन सिवाय आश्वासनों के यहां के लोगों को अब तक कुछ भी नहीं मिल पाया है, मध्यप्रदेश में सिर्फ 4 नई ट्रेनों को दिया गया है जबकि अन्य स्थानों के लिए भी ट्रेनों की मांग की जाती रही है। बजट में रेल मंत्री ने बारबार इस बात पर जोर दिया है कि रेलवे का निजीकरण नहीं किया जायेगा, लेकिन सुविधाओं की बढ़ोत्तरी और 50 स्टेशनों विश्वस्तरीय बनाने का दावा करने वाली योजनाओं के लिए उन्होंने किसी विशेष तरह की योजनाओं का जिक्र नहीं किया है, सिवाय विज्ञापनों के माध्यम से ही राजस्व की बात करती नज़र आई। पूरे बजट को ध्यान से देखा जाये तो एक बात साफ नज़र आती है कि ममता की रेलगाड़ी, स्टापेज से सीधा पश्चिम बंगाल की दिशा की तरफ ही जा रहा है.आखिर ऐसा क्यों? 5 खेल अकादमी में से एक कोलकाता में, हाबड़ा में रवीन्द्र म्यूजियम, गीताजंलि म्यूजियम, संस्कृति एक्सप्रेस और भी ना जाने क्या क्या? इस महत्वाकांक्षी नेता ने बड़ी ही सूझबूझ से अपनी सारी योजनाओं को बंगाल के लिए केंद्रित करके यह जताने की कोशिश की है वे अपने राज्य के प्रति कितना वफादार है। कहीं ना कहीं 2011 की तैयारी में लगी ममता के इस बजट को सिवाय बंगालप्रिय के और कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन एक सर्वमान्य सत्य तो यह भी है पूर्व के जितने भी रेल मंत्रियों ने अपना बजट पेश किया वे भी तो सिर्फ अपने वोट बैंक को साधने का प्रयास करते रहें हैं ऐसे में यदि दीदी ने भी मौके पर चौंका जमाया तो क्या गलत किया है।

-केशव आचार्य